जैसे-जैसे गर्मी बढ़ने लगती है और तपन अपने चरम पर पहुंचने लगती है, तो विचार आता है कि बारिश कब आएगी। 100 से अधिक सालों से मौसम केंद्रों और वर्षामापी यंत्रों द्वारा एकत्रित डैटा से पता चलता है कि भारत में बारिश का मौसम 1 जून को केरल में दक्षिण-पश्चिम मानसून (southwest monsoon in India) के आगमन के साथ शुरू होता है; अलबत्ता, मानसून आने का समय एक हफ्ते आगे-पीछे भी खिसक सकता है। पिछले कुछ वर्षों में मौसम विभाग की भविष्यवाणियां (Indian monsoon forecast accuracy) ज़्यादा सटीक हुई हैं।
हिंद महासागर के ऊपर से बहकर आने वाली दक्षिण-पश्चिमी हवाएं, साथ ही अरब सागर के ऊपर से बहकर पूर्वी अफ्रीका से आने वाली तेज़ हवाएं (सोमाली जेट स्ट्रीम) (Somali Jet Stream and monsoon) हमारे यहां बारिश लाती हैं, और हमें ठंडक का एहसास देकर तरोताज़ा करती हैं, हमारा मूड अच्छा करती हैं।
वर्तमान संदर्भ मे देखें तो ये हवाएं अपने साथ नवीकरणीय ऊर्जा दोहन (renewable energy potential in India) की संभावना भी लेकर आती हैं। जलवायु परिवर्तन पर जागरूकता ने जीवाश्म ईंधन से प्राप्त ऊर्जा पर हमारी निर्भरता को कम करने की तत्काल आवश्यकता को स्पष्ट कर दिया है (climate change and fossil fuel dependency in India)। यहां भारत की स्थिति बहुत विकट है। वर्तमान में हमारी लगभग 75 प्रतिशत बिजली कोयले से बनती है। और हमारी महत्वाकांक्षा है कि हम कम कार्बन उत्सर्जन करने वाली (हरित) ऊर्जा (green energy goals India) को अपनाएंगे। इस महत्वाकांक्षी सोच के एक हिस्से के तहत केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण का लक्ष्य 2032 तक 121 गीगावाट क्षमता के अतिरिक्त पवन ऊर्जा संयंत्र स्थापित करना (wind energy target 2032 India) है। वर्तमान में हम 45 गीगावाट पवन ऊर्जा बना पाते हैं।
जीवाश्म ईंधन चालित बिजली संयंत्रों से हम कभी भी बिजली बना सकते हैं; न दिन-रात के बारे में सोचना पड़ता है, न मौसम के बारे में। लेकिन नवीकरणीय स्रोतों (जैसे पवन ऊर्जा) (wind power vs fossil fuel India) के मामले में ऐसा नहीं है, और इसीलिए इनका क्षमता से कम उपयोग होता है। इसलिए इस मामले में यह पूर्वानुमान लगाना और भी महत्वपूर्ण होता है कि हवाएं कब चलेंगी ताकि तब पवन ऊर्जा संयंत्रों का सर्वोत्तम उपयोग किया जा सके।
नवीकरणीय ऊर्जा संयत्रों का लक्ष्य है कि कम से कम जीवाश्म ईंधन जलाकर स्थापित ग्रिड से अधिकतम बिजली पैदा (maximize renewable energy grid India) की जाए। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए मौसम सम्बंधी पूर्वानुमान, खासकर क्षेत्रवार पूर्वानुमान आवश्यक हैं। उदाहरण के लिए, राजस्थान राज्य में अक्टूबर से दिसंबर तक बहुत कम हवाएं चलती हैं।
मानसूनी हवाएं जलवायु की मज़बूत चालक (monsoon winds climate driver India) हैं। जिस तरह बारिश का पूर्वानुमान लगाया जा सकता है, उसी तरह इसका भी पूर्वानुमान किया जा सकता है कि ठंडी तेज़ मानसूनी हवाएं कब चलेंगी, और इनका मॉडल तैयार किया जा सकता है।
शहरों में गर्मियों के दौरान अधिक बिजली की आवश्यकता होती है, जबकि इस समय कृषि के लिए बिजली की मांग कम होती है। मानसून के समय बनाई गई बिजली कृषि के लिए वरदान है, क्योंकि खरीफ की फसलों (जो जून में बोयी जाती हैं और अक्टूबर में काटी जाती हैं) में बिजली खपत ज़्यादा होती है, बनिस्बत जाड़ों में बोयी जाने वाली रबी की फसलों में। पश्चिमी घाट जैसे हवादार स्थानों पर एक पवन टर्बाइन जून से सितंबर के बीच अपनी वार्षिक बिजली उत्पादन क्षमता का 70 प्रतिशत उत्पादन (wind turbine electricity generation India) करता है।
हालांकि, इस मौसम में सतही हवाओं की गति काफी बदलती रहती है। और बिजली उत्पादन में कमी-बेशी करने में इस बदलाव का अनुमान लगाना बहुत उपयोगी है। इससे संख्यात्मक मौसम पूर्वानुमान मॉडल (सूक्ष्म स्तर पर) और सटीक हुए हैं; ये मॉडल चंद सैकड़ा मीटर, एक किलोमीटर से लेकर बड़े इलाके तक के लिए मौसम का पूर्वानुमान (numerical weather prediction India) देते हैं। ऐसे मॉडलों का उपयोग करके चेन्नई स्थित राष्ट्रीय पवन ऊर्जा संस्थान ने भारत का पवन एटलस (India Wind Atlas) विकसित किया है, जो भविष्य में पवन फार्म स्थापित करने की योजना बनाने के लिए एक बहुत ही उपयोगी साधन है।
इसमें एआई क्या मदद कर सकता है? रडार और उपग्रह तस्वीरों से प्राप्त हाई-डेंसिटी डैटा की मात्रा (और गुणवत्ता)तेज़ी से बढ़ी एवं सुधरी (AI in weather forecasting India) है। गूगल के MetNet3 (Google MetNet3 India use case) जैसी तकनीक का उपयोग अपेक्षाकृत कम संख्या में मौजूद मौसम स्टेशनों से प्राप्त पवन गति, तापमान आदि के डैटा के साथ रडार और उपग्रह से प्राप्त डैटा को एकीकृत करने के लिए किया जा रहा है। ऐसा करने से मॉडल दो मौसम स्टेशनों के बीच के क्षेत्रों में हवा की गति का पूर्वानुमान दे पाते हैं; प्रत्यक्ष मापित थोड़े से डैटा से सटीक सूचना देने वाला पवन गति नक्शा मिल जाता है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/tlo1c4/article69425768.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_FILES-INDIA-ENERGY-E_2_1_D2E033RE.jpg
डॉ. मलूर रामस्वामी श्रीनिवासन (malur ramasamy srinivasan) भारत के परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम (India’s Nuclear Energy Program) के प्रमुख स्तंभ, वैज्ञानिक (Nuclear Scientist) और नीति निर्माता थे। उन्होंने न केवल देश के वैज्ञानिक आधार को सुदृढ़ किया बल्कि भारत को आत्मनिर्भरता और ऊर्जा सुरक्षा (Energy Security in India) की राह पर अग्रसर किया।
डॉ. श्रीनिवासन का जन्म 5 जनवरी 1930 को मैसूर, कर्नाटक में हुआ था। उनके पिता एक शिक्षक थे और उनका परिवार शिक्षा में दृढ़ विश्वास रखता था। बचपन से ही श्रीनिवासन गणित और विज्ञान में गहरी रुचि रखते थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा मैसूर से प्राप्त की और आगे की पढ़ाई कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग, बैंगलुरू (अब विश्वेश्वरैया कॉलेज ऑफ इंजीनियरिंग) से की। इसके बाद वे उच्च शिक्षा के लिए अमेरिका चले गए। वहां उन्होंने कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले (University of California, Berkeley) से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डॉक्टरेट की उपाधि प्राप्त की।
वैज्ञानिकजीवनयात्रा
डॉ. श्रीनिवासन ने 1956 में भाभा परमाणु अनुसंधान केंद्र (Bhabha Atomic Research Centre – BARC) में अपने वैज्ञानिक जीवन की शुरुआत की। उस समय भारत में परमाणु ऊर्जा कार्यक्रम अपने आरंभिक चरण में था और डॉ. होमी जहांगीर भाभा (Homi J. Bhabha) के नेतृत्व में आकार ले रहा था। डॉ. श्रीनिवासन ने भारत के परमाणु रिएक्टरों (Nuclear Reactors in India) के स्वदेशी डिज़ाइन और निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने देश की पहली दाबयुक्त भारी पानी (पीएचडब्ल्यूआर) (Pressurized Heavy Water Reactor – PHWR) तकनीक को विकसित करने में अग्रणी भूमिका निभाई, जो आज भी भारत की परमाणु ऊर्जा उत्पादन प्रणाली की रीढ़ है।
1979 में डॉ. श्रीनिवासन को परमाणु ऊर्जा आयोग (Atomic Energy Commission of India) का सदस्य बनाया गया। इस पद पर रहते हुए उन्होंने भारत के परमाणु ऊर्जा उत्पादन में वृद्धि, वैज्ञानिक अनुसंधान (Scientific Research in India) और मानव संसाधन विकास को प्राथमिकता दी। 1987 से 1990 तक वे परमाणु ऊर्जा आयोग के अध्यक्ष रहे। उनके कार्यकाल में कई परमाणु बिजलीघरों (Nuclear Power Plants) की स्थापना हुई।
उन्होंने न केवल तकनीकी मामलों को देखा बल्कि परमाणु नीति निर्धारण (Nuclear Policy of India) में भी निर्णायक भूमिका निभाई। उनकी रणनीतियों के कारण भारत ने विदेशी दबावों के बावजूद अपने परमाणु कार्यक्रम को निर्बाध रूप से आगे बढ़ाया।
डॉ. श्रीनिवासन मानते थे कि ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भरता (Energy Independence) राष्ट्रीय संप्रभुता की कुंजी है। इसके लिए उन्होंने स्थानीय उद्योगों को परमाणु क्षेत्र में जोड़ने के लिए कई योजनाएं बनाईं। भारतीय कंपनियों को परमाणु संयंत्रों के लिए उपकरण निर्माण में शामिल करने की उनकी नीति से घरेलू विनिर्माण क्षमता में अभूतपूर्व वृद्धि हुई।
अंतर्राष्ट्रीयमंचपरमौजूदगी
डॉ. श्रीनिवासन ने भारत का प्रतिनिधित्व कई वैश्विक मंचों पर किया, जिनमें अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी (International Atomic Energy Agency – IAEA) और अन्य तकनीकी निकाय शामिल हैं। उन्होंने परमाणु सुरक्षा (Nuclear Safety), विकिरण नियंत्रण और परमाणु अप्रसार (Nuclear Non-Proliferation) जैसे विषयों पर भारत की नीतियों को स्पष्ट और प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया। उनके तर्क और वैज्ञानिक दृष्टिकोण को विश्व समुदाय में व्यापक सराहना मिली।
पुरस्कारऔरसम्मान
डॉ. श्रीनिवासन के अभूतपूर्व योगदान को मान्यता देते हुए भारत सरकार ने उन्हें कई प्रतिष्ठित सम्मानों से सम्मानित किया। इनमें प्रमुख हैं: पद्म भूषण (1990), पद्म विभूषण (2015), एनर्जी ग्लोब अवॉर्ड (Energy Globe Award), डॉ. होमी भाभा विज्ञान पुरस्कार एवं भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (Indian National Science Academy) की सदस्यता।
साहित्यिकयोगदान
डॉ. श्रीनिवासन न केवल वैज्ञानिक थे, बल्कि एक कुशल लेखक और विचारक भी थे। उन्होंने लेखों और व्याख्यानों के माध्यम से आम जनमानस को परमाणु ऊर्जा की उपयोगिता और सुरक्षा (Uses of Nuclear Energy) के बारे में जागरूक किया। उन्होंने फ्रॉमफिज़नटूफ्यूज़न: दीस्टोरीऑफइंडिया‘ज़न्यूक्लियरपॉवरप्रोग्राम (From Fission to Fusion: The Story of India’s Nuclear Power Program) नामक पुस्तक लिखी, जो भारत की परमाणु यात्रा (India’s Nuclear Journey) के बारे में बात करती है।
जाते–जाते डॉ. श्रीनिवासन ने 20 मई 2025 को बेंगलुरु में अंतिम सांस लीं। लेकिन वे जीवन के अंतिम दिनों तक सक्रिय रहे। वे नीति सलाहकार, व्याख्याता और लेखक के रूप में निरंतर योगदान देते रहे। वे हमेशा कहते थे, “भारत का भविष्य उसकी प्रयोगशालाओं और कक्षाओं (Science Education in India) में पल रहा है।” (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://bsmedia.business-standard.com/_media/bs/img/article/2025-05/21/full/1747850843-288.jpg?im=FitAndFill=(826,465)
भारतीय खगोलशास्त्री (Indian astrophysicist) प्रो. जयंत विष्णु नार्लीकर (Jayant Vishnu Narlikar) ने अंतरिक्ष और ब्रह्मांड के रहस्यों (universe mysteries) को समझने में अहम योगदान दिया, भारत में वैज्ञानिक चेतना को मज़बूत किया, और जीवनपर्यंत विज्ञान को जन-जन तक पहुंचाने (science popularization) का कार्य किया।
जयंत नार्लीकर का जन्म 19 जुलाई 1938 को कोल्हापुर के एक शिक्षित और विद्वान परिवार में हुआ था। उनके पिता विष्णु वासुदेव नार्लीकर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में गणित के प्राध्यापक थे, और उनकी माता सुमती नार्लीकर संस्कृत की विदुषी थीं। घर का शैक्षणिक माहौल जयंत जी को बचपन से ही विद्या और अनुसंधान (motivation for science) की ओर प्रेरित करता रहा।
उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा बनारस से प्राप्त की। आगे की पढ़ाई के लिए वे कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय (Cambridge university) गए। वहीं उन्होंने मशहूर वैज्ञानिक सर फ्रेड हॉयल (Fred Hoyle) के मार्गदर्शन में शोध कार्य किया। डॉ. नार्लीकर की खगोल भौतिकी में रुचि और प्रतिभा ने उन्हें जल्द ही अंतर्राष्ट्रीय ख्याति (international recognition in astrophysics) दिला दी।
खगोलभौतिकीमेंयोगदान
जयंत नार्लीकर का प्रमुख वैज्ञानिक योगदान स्थिर अवस्था सिद्धांत (steady state theory) के क्षेत्र में रहा। यह सिद्धांत बिग-बैंग सिद्धांत (big-bang theory) के विपरीत ब्रह्मांड के अस्तित्व और विस्तार को निरंतर और शाश्वत (alternative cosmology models) मानता है। इस विचार पर उन्होंने फ्रेड हॉयल और थॉमस गोल्ड के साथ मिलकर काम किया।
हालांकि बिग-बैंग थ्योरी को व्यापक समर्थन मिला, लेकिन जयंत नार्लीकर ने अपने वैकल्पिक सिद्धांतों के माध्यम से हमेशा खगोल भौतिकी में विमर्श और नवाचार को प्रोत्साहित किया। उन्होंने ब्रह्मांड में पदार्थ की उत्पत्ति और उसकी संरचना (origin of matter in universe) पर कई शोधपत्र लिखे।
कुछ समय विदेश में काम करने के बाद वे भारत लौट आए। 1972 में वे टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) से जुड़ गए। 1988 में उन्होंने पुणे में इंटर-युनिवर्सिटी सेंटर फॉर एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स (IUCAA, astronomy research center) की स्थापना की। IUCAA आज भारत के खगोल वैज्ञानिकों के लिए एक प्रमुख केंद्र है और इसका श्रेय पूरी तरह नार्लीकर की दूरदृष्टि को जाता है।
भारत में खगोल भौतिकी को लोकप्रिय (science outreach) बनाने के लिए उन्होंने राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सेमिनार (international seminars) आयोजित किए, शोधकर्ताओं को प्रोत्साहित किया और विद्यार्थियों को विज्ञान की ओर आकर्षित किया। उनकी अगुवाई में भारत में ब्रह्मांड विज्ञान पर उच्च स्तरीय अनुसंधान हुआ।
विज्ञानसंचारऔरलेखन
डॉ. नार्लीकर न केवल एक महान वैज्ञानिक थे बल्कि एक संवेदनशील लेखक और विज्ञान संप्रेषक (science communicator) भी थे। उन्होंने कई वैज्ञानिक विषयों पर आम जनता के लिए सरल भाषा में पुस्तकें और लेख लिखे। उनकी लेखनी में जटिल सिद्धांत (complex theories) भी सहज रूप से प्रस्तुत होते थे।
उन्होंने मराठी, हिंदी और अंग्रेज़ी में विज्ञान कथाएं और निबंध लिखे, जो आज भी विद्यार्थियों और युवाओं में वैज्ञानिक सोच विकसित करने में सहायक हैं। उनकी कुछ प्रसिद्ध पुस्तकें हैं — ब्रह्मांडकीयात्रा, ब्लैकहोल्स, साइंसएंडमैथेमेटिक्स: फ्रॉमप्रिमिटिवटूमॉडर्नसाइंसऔरदीरिटर्नऑफवामन (उपन्यास) (Indian science fiction)। उनकी कुछ रोमांचक विज्ञान कथाएं हैं – विस्फोट, यक्षोपहार और कृष्ण विवर (Jayant Narlikar books)।
डॉ. नार्लीकर का मानना था कि वैज्ञानिक सोच केवल प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं होनी चाहिए। वे हमेशा वैज्ञानिक दृष्टिकोण को व्यापक सामाजिक सोच का हिस्सा बनाने के पक्षधर (scientific temper in society) रहे। उन्होंने छुआछूत, अंधविश्वास, और रूढ़ियों के खिलाफ खुलकर बोला और लिखा।
उन्होंने शिक्षा प्रणाली में सुधार और वैज्ञानिक शोध को प्रोत्साहन देने की मांग की। वे विज्ञान और अध्यात्म (rational thinking) के संतुलन को भी मान्यता देते थे, परंतु अंधविश्वास के विरोधी (against superstition) थे।
पुरस्कारऔरसम्मान
डॉ. नार्लीकर को उनके योगदान के लिए अनेक राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। इनमें प्रमुख हैं: पद्म भूषण (1965) (Padma Vibhushan awardee), शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (1973), पद्म विभूषण (2004), युनेस्को कलिंग पुरस्कार (UNESCO Kalinga Prize), महर्षि व्यास सम्मान, रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसाइटी (यूके) की फैलोशिप (Royal astronomical society fellow)। वे कई अंतर्राष्ट्रीय संस्थानों के सदस्य और अतिथि प्रोफेसर भी रहे।
जाते–जाते
20 मई 2025 को डॉ. नार्लीकर इस कौतूहलभरी दुनिया से विदा (Jayant Narlikar death 2025) हो गए। जीवन के अंतिम दिनों में आयुजन्य कारणों से सार्वजनिक कार्यक्रमों में भले ही उनकी उपस्थिति सीमित हो गई थी लेकिन इस दौरान वे सक्रिय रूप से विज्ञान लेखन करते रहे। आज वे हमारे बीच नहीं हैं लेकिन उनके स्थापित संस्थान, शोधकार्य, किताबें और विद्यार्थियों को हस्तांतरित उनका ज्ञान और अनुभव धरोहरस्वरूप सदैव हमारे साथ रहेंगे (legacy of Jayant Narlikar, inspirational scientists) । (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में मिले प्राचीन पंजों (Australia fossil discovery) के निशानों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है। इन निशानों से पता चलता है कि सरीसृप (जैसे छिपकली) (ancient reptile footprints) और उनके निकट सम्बंधी शायद हमारे अनुमान से करोड़ों साल पहले ही धरती पर आ गए थे। नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ये निशान एम्नीओट्स (early amniotes) प्राणियों ने बनाए होंगे। इस समूह में सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी आते हैं।
एम्नीओट्स की खास बात यह है कि ये ज़मीन पर अंडे (land egg-laying animals) देते हैं या भ्रूण को गर्भ में पालते हैं। इन अंडों के चारों ओर एक झिल्ली (amniotic egg evolution) होती है जो उसे सूखने से बचाती है। इन जीवों का अब तक का सबसे प्राचीन जीवाश्म कनाडा से मिला था, जो करीब 31.9 करोड़ साल पुराना था। लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया में मिले इन निशानों से पता चलता है कि ये प्राणी इससे भी कम से कम 35 लाख साल पहले (Carboniferous period) से, यानी 35.5 करोड़ साल पहले से मौजूद थे। यह वही समय है जब कार्बोनिफेरस युग (उभयचर जीवों और सरीसृपों के उद्भव के दौर) की शुरुआत हुई थी।
ये निशान ऑस्ट्रेलिया स्थित विक्टोरिया (paleontology site Victoria) इलाके में ब्रोकन नदी (broken river fossil) के किनारे बलुआ पत्थर की एक चट्टान में मिले हैं। वहां के स्थानीय ताउंगुरंग आदिवासी इस जगह को ‘बेरेपिट’ (Indigenous heritage site) कहते हैं। उसी चट्टान में कुछ पुराने जलीय जीवों के अवशेष भी मिले हैं, जो बताते हैं कि ये निशान वाकई उस दौर के हो सकते हैं।
इस प्रकार के नुकीले और मुड़े हुए पंजे सिर्फ सरीसृपों (distinct claw fossil) में पाए जाते हैं, जबकि उभयचरों (जैसे मेंढकों) के ऐसे पंजे नहीं होते हैं। साथ ही पेट या पूंछ घसीटने के कोई निशान नहीं मिले, जिससे लगता है कि ये जानवर चलने (reptilian locomotion) में अपने शरीर को ऊपर उठा सकते थे। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि शायद ये जीव उथले पानी (shallow water) में चलते होंगे, न कि पूरी तरह सूखी ज़मीन पर।
बहरहाल, यह खोज जीवन के कालक्रम की समझ को बदलती है और बताती है कि ज़मीन पर अंडे देने वाले प्राणी (land animals origin) हमारी सोच से कहीं पहले अस्तित्व में आ चुके थे। (स्रोत फीचर्स)
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एम्बर (amber)(राल) पेड़ों से रिसने वाला एक तरह का तरल (resin) पदार्थ है जो रिसने के बाद ठोस हो जाता है। इसमें प्राय: कीट, पेड़-पौधों के अवशेष, फूल-पत्तियां आदि फंसकर अश्मीभूत (fossilized) हो जाते हैं। और एक हालिया अध्ययन बताता है कि यह अपने में न सिर्फ सजीवों की जानकारी बल्कि अतीत में आई सुनामियों (tsunami records in amber) की निशानियां भी कैद कर सकता है।
जापान के होक्काइडो के पास समुद्र की प्राचीन चट्टानों (ancient rocks) में एक एम्बर मिला है। ऐसा लगता है कि यह पानी के अंदर ही सख्त होता गया (amber formation under sea) और अपने भीतर लाखों साल का इतिहास दर्ज करता गया।
भूमि पर तो एम्बर हवा के संपर्क की वजह से जल्दी सख्त (resin hardening) हो जाता है। लेकिन पानी में अधिक समय तक नरम-लचीला बना रहता है। इसी वजह से पानी के तेज़ थपेड़ों के निशान (underwater fossilization) इसमें दर्ज हो जाते हैं। वैज्ञानिकों ने जब इस एम्बर को पराबैंगनी रोशनी (UV Analysis) में देखा, तो इसके अंदर ऐसी आकृतियां दिखाई दीं (wave pattern in fossils) जो आग की लपटों और गेंद व तकिया जैसी थीं, और तेज़ लहरों का संकेत होती हैं।
चट्टानों के पास अश्मीभूत वनस्पतियों के टुकड़े और बहकर आई लकड़ियों के टुकड़े भी मिले हैं, जिससे लगता है कि लौटती सुनामी की ज़ोरदार लहरों के कारण तटवर्ती जंगल का मलबा(tsunami debris) बहकर समुद्र (costal forest fossil) में आ गया था। पास की तलछट की जांच करने पर मालूम हुआ कि ऐसा कई बार हुआ था और करीब 20 लाख वर्षों की अवधि में इस इलाके में कई बार सुनामी (paleotsunami evidence) आई थी।
यह खोज इसलिए खास है क्योंकि तटों पर अतीत में आई सुनामी के सबूत मिलना(ancient disaster records) मुश्किल होते हैं। हवा और लहरें उनके निशान मिटा देती हैं, और सुनामी से हुई क्षति आम तूफानों (tsunami vs storm) जैसी ही लगती है। लेकिन अब लगता है कि एम्बर इनका गवाह (amber as historical archive) बन सकता है।(स्रोतफीचर्स)
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दो लेखों की शृंखला के पहले लेख में आपने पढ़ा कि शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। शृंखला के दूसरे भाग में उनके व्यक्तित्व के कुछ और पहलू उजागर होंगे।
गांव के लोगों की समस्या ने दादा को इस कदर प्रभावित किया कि उन्होंने अपना सब कुछ सामाजिक काम में लगा दिया। ऐसे कामों में कई बार हमें बदलाव दिखते हैं, और कई बार इतने साफ दिखते हैं कि वह हमें प्रेरित कर जाते हैं, विश्वास जगाते हैं। कुछ ऐसा ही बदलाव देखने को मिला जब दादा ने वॉटरशेड (watershed management) के काम का ज़िम्मा उठाया।
बंबार्गे, कटनभवी, निंगेन्हट्टी और गोरामठी गांवों का समूह, जो बेलगाम तालुका के उत्तर में स्थित हैं, 1995 से पहले जल संकट (water scarcity) का सामना कर रहा था, क्योंकि इस क्षेत्र में कोई प्राकृतिक जल स्रोत (natural water source) नहीं था। गांववासियों का जीवनस्तर केवल सीमित वर्षा पर निर्भर था। वर्षा कम होने और पेड़ों की कमी के कारण यह क्षेत्र सूखा और बंजर दिखता था। बचे-खुचे पेड़ों को भी गांववाले अपने घरेलू उपयोगों, जैसे खाना पकाने और अन्य कार्यों के लिए काट देते थे, जिसके कारण वर्षा का पानी किसी काम का नहीं रह जाता था और भूमि में समाहित नहीं हो पाता था।
एक रात दादा ने देखा कि एक महिला रात को लैंप लेकर कुएं से पानी निकाल रही थी। इस गांव में पानी की कमी के कारण दिन में कुएं में पानी खत्म हो जाता था, और फिर किसी को अगर पानी चाहिए होता था तो रात को ही आकर लेना पड़ता था। इस दृश्य ने दादा को झंझोरा।
उन्होंने गांववालों को इकट्ठा किया और डीसी ऑफिस पहुंचे। कई बार चक्कर लगाने पर भी जब कुछ नहीं हुआ, तब उन्होंने फादर से बात की। फादर मान गए और दादा को एक प्रस्ताव तैयार करने को कहा। फादर कई विदेश यात्राओं (foreign fundraising trips) पर जाते थे। अपनी अगली यात्रा पर उन्होंने चर्च में लोगों के सामने यह प्रस्ताव साझा किया और फंड की ज़रूरत बताई। वहां मौजूद एक जर्मन व्यक्ति ने कहा कि वे मदद करना चाहेंगे। दादा को जब फादर ने यह बात बताई तो उन्हें पैसे लेने में हिचकिचाहट हुई; तब उस व्यक्ति ने टेलीग्राम भेजकर कहा कि यह पैसा तो आपके देश का ही है जो युरोपीय देशों ने आपके जैसे देशों को उपनिवेश (colonial exploitation) बनाकर बटोरा है। दादा ने पैसे का काम येलियप्पा को सौंप दिया। इस पर भी कई लोगों ने आपत्ति जताई कि आपने यह ज़िम्मेदारी किसी बड़ी शख्सियत को न देकर एक मामूली व्यक्ति को क्यों सौंप दी।
फंडिंग से पहले भी एक ज़रूरी सवाल था कि किया क्या जाए? दादा ने विद्या ताई (अक्षरनंदन स्कूल पुणे की संस्थापक) को अपनी समस्या बताते हुए लिखा, तो विद्या ताई ने अन्ना हजारे के बारे में बताया कि कैसे उन्होंने वॉटरशेड के विचार को इस्तेमाल करके पानी की समस्या से निजात पायी। दादा तुरंत ही कुछ और लोगों के साथ रालेगण सिद्धी (अहमदनगर) पहुंच गए और वहां जाकर वॉटरशेड के बारे में देखा और सीखा। वॉटरशेड में वर्षा का पानी (rainwater harvesting) रोकना, उसे भूमि में समाहित होने देना (पर्कोलेट करना) (percolation techniques) और पेड़ लगाना शामिल है।
वॉटरशेड प्रबंधन (watershed development) के लिए ज़मीन की आवश्यकता थी, और लोगों को इस परियोजना के महत्व को समझाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य था। उन्हें यह समझाना सरल नहीं था कि यह काम केवल उनके लिए नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी फायदेमंद होगा। शुरुआत में दादा के कार्यों को जानने वाले लोग ही राजी हुए, और उनके माध्यम से अन्य गांववाले भी इस परियोजना से जुड़ने के लिए प्रेरित हुए। अंततः अधिकांश लोग इस प्रयास का समर्थन करने के लिए तैयार हो गए। यह कार्य केवल ज़मीन देने तक सीमित नहीं था; इसमें समुदाय का सक्रिय सहयोग (community participation) भी आवश्यक था।
पहाड़ों पर ट्रेंच बना कर पेड़ लगाए। जब ट्रेंच के साथ पेड़ लगाए गए तो पानी को ज़मीन में समाहित करने की क्षमता बढ़ी। पेड़ की जड़ों ने मिट्टी को बहने से रोका और पानी को सोखने में मदद की, जिससे भूमिगत जलस्तर (groundwater recharge) में वृद्धि हुई।
बंबार्गे गांव में स्थानीय लोगों की भागीदारी से एक छोटा बांध (check dam) बनाया गया, जिससे निचले इलाकों में सिंचाई की सुविधा मिली और कुओं का जलस्तर बढ़ गया। कटनभवी क्षेत्र में भी तालाब और कुएं खुदवाए गए। यहां एक कुआं हमेशा आठ फीट पानी से भरा रहता है। इससे न केवल लोगों को फायदा हुआ बल्कि जानवरों और पक्षियों के लिए भी पानी की उपलब्धता सुनिश्चित हुई। निंगेन्हट्टी और गोरामठी गांवों में भी छोटे तालाब बनाए गए, साथ ही कुएं खोदे गए, जिससे गांव को पीने का पानी (drinking water supply) मिल पाया। इसके साथ-साथ, गांव के चारों ओर फलदार पेड़ लगाए गए, जिनसे आज गांववाले आय प्राप्त कर रहे हैं। इन सभी प्रयासों से जलस्तर बढ़ा, कुएं पानी से भर गए, और कृषि कार्य में वृद्धि हुई। लोग अब दुधारू जानवर पाल रहे हैं, जिससे क्षेत्र हरा-भरा हो गया है और पानी की समस्या हल हो गई है।
कुछऔरबातें
शिवाजी दादा के साथ वक्त बिताने के इरादे से मैं बेलगावी में रुक गई। जिस मीटिंग के लिए मैं गई थी उसमें दादा भी शामिल थे। मीटिंग के अंतिम दिन दादा ने मुझे बताया कि वे अगले दिन डीएम ऑफिस जाने वाले हैं। उन्होंने अपने झोले से एक प्रचार पत्र निकाला और उसे मेरे साथ बैठी एक महिला को दे दिया जो मराठी पढ़ना-लिखना जानती थीं। उस प्रचार पत्र में लिखा था कि सरकारी अस्पताल (government hospital) की हालत खराब है, जो दवाइयां आ रही हैं वे किसी बड़ी फैक्ट्री से बनकर आ रही हैं और वे ठीक नहीं हैं। और इसके लिए वे एक शहर से दूसरे शहर तक समूह यात्रा (public awareness campaign) करने वाले हैं। चूंकि यात्रा का रास्ता बेलगावी से गुज़र कर नहीं जा रहा था उन्होंने डीएम ऑफिस के बाहर लोगों को इकट्ठा करके डीएम को यह बताने का फैसला किया कि डीएम ठीक दवाइयां उपलब्ध कराएं।
दादा ने मुझे कहा कि हम अगले दिन सुबह 10 बजे निकल जाएंगे। अगले दिन दादा अपने झोले के साथ घर आ गए। मैंने उन्हें ग्रीन टी ऑफर की तो उन्होंने हामी भर दी। चाय के वक्त हमारी बातचीत सर्वोदय आंदोलन (sarvodaya movement ), गांधी, नेहरू, टैगोर और पता नहीं कहां-कहां पहुंच गई। उसके बाद हम निकल गए। ऑटो में बैठ कर दादा से मैंने पूछ ही लिया कि वे मोबाइल क्यों नहीं रखते; उन्होंने कहा कि ज़रूरत नहीं पड़ती। रास्ते में मैंने दादा से एक और सवाल पूछ ही लिया कि वे अपना गुज़र-बसर कैसे करते हैं। दादा ने कहा कि उनका खर्चा सिर्फ यात्राओं और दवाई का है। खाना और रहना गांव में हो जाता है। और रहे चाय के शौकीन दादा तो उनके चाहने वाले उन्हें चाय का बड़ा गिलास पिलाते हैं। उन्होंने बताया कि उनके कुछ दोस्त हैं जो उन्हें पैसे भेजते हैं: “कई बार उन्हें मना करना पड़ता है कि अब मेरे पास पैसे हैं, और नहीं चाहिए।”
हम डीएम ऑफिस पहुंचे और दादा ने मेरे फोन से येलियप्पा को फोन लगाया तो पता चला कि वे 10 मिनट में आ रहे हैं। फिर उनका फोन आया कि आज प्रदर्शन नहीं हो रहा है। दादा के चेहरे पर इस बात से मायूसी आ गई। उन्होंने कुछ देर सोचने के बाद पूछा कि आप मेरे दोस्त के यहां चलोगे? मुझे तो उनकी हर बात पर जैसे हां ही कहना था। हम बस स्टॉप पहुंचे तो पता चला कि बस 2 घंटे बाद की है। हम कुछ देर बस स्टॉप पर ही बैठे रहे। उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या आप मेरे गांव जाना चाहेंगी। हम तुरंत ही एक बस पकड़कर उनके गांव के लिए रवाना हो गए। उनके गांव करोड़ी पहुंचते ही मैंने देखा कि वहां लोग उन्हें नमस्कार करते हुए जा रहे थे। कुछ रुककर बातचीत भी कर रहे थे। हम उनके भाई के घर कुछ देर रुके जहां उन्होंने चाय पी और मैंने छास। फिर उन्होंने एक और फोन लगाया और कुछ देर बाद उनके एक मित्र ने अपनी गाड़ी से हमें मंज़िल तक छोड़ दिया। और इस तरह हम गंगाराम जी के घर पहुंच गए। गंगाराम उनके विद्यार्थी रह चुके थे और उन्हें सर कहकर बुलाते थे। वे ऑर्गेनिक फॉर्मिंग दादा से सीख रहे थे और कर रहे थे। इस काम में उनका बेटा शेखर भी उनकी मदद कर रहा था।
शिवाजी दादा के लिए चिंता का विषय है मिट्टी। वे कहते हैं कि मिट्टी की उर्वरता जा रही है और मिट्टी खराब हो रही है और अगर मिट्टी खराब होगी तो फसल को प्रभावित करेगी। इसलिए उनका मानना था कि मिट्टी की उर्वरता को सुधारना चाहिए। और इसके लिए दादा के अनुसार जैविक खेती (organic farming, natural farming) ही एक मात्र तरीका है। गंगाराम ने अपने खेत में इस वक्त गन्ने लगाए हुए हैं। वे रासायनिक उर्वरकों (chemical fertilizers) की जगह खाद, गुड़, गोबर और कुछ चीज़ों के मिश्रण का इस्तेमाल करते हैं। दादा हर हफ्ते उनके खेत देखने आते हैं और उन्हें सुझाव देते हैं। जब हम गए तो उन्होंने शेखर को बताया कि उन्होंने गन्ने बहुत पास-पास लगा दिए हैं जिससे जब वो बड़े होंगे तो एक की छांव दूसरे पर आएगी और उससे सबको धूप नहीं मिलेगी। दादा के दोस्त जीवन भोंसले जैविक खाद (organic manure) खरीदते हैं या बनाते हैं और उन्होंने वेजिटेबल गार्डन (home vegetable garden) बनाने का भी प्लान किया है। साथ ही साथ खेत के कोनों पर पपीते के पेड़ लगे हैं। मुझे जाते वक्त उन्होंने गन्ने और पपीते दिए।
इसके अलावा गंगाराम ने मधुमक्खी पालन ([beekeeping], [honey production]) भी किया है। यह शहद उत्पादन के साथ परागण (pollination) में भी मदद करता है। दादा चाहते हैं कि बाज़ार पर निर्भरता बिलकुल खत्म हो जाए और ज़रूरत का सारा सामान खुद ही उगाया (self-sustainable farming) जाए। दादा का प्लान खेतों के आसपास और स्कूल बाउंड्री पर पेड़ लगाना है। उन्होंने अब तक 15,00,00,00 पेड़ लगाए हैं। उन्होंने गांव में Gliricidia के कई पेड़ लगाए हैं जिसमे गुलाबी रंग के बहुत खूबसूरत फूल आते हैं। इसके अलावा उनकी योजना है कि स्कूलों (fruit tree plantation in schools) में बच्चे मिलकर आम, काजू और आंवला के पेड़ लगाएं।
जब आप इस तरह का काम करते हैं जहां आप आम लोगों के हक के लिए लड़ते हैं, सवाल करते हैं तो आपको नापसंद करने वाले लोग भी होते हैं। एक बार दादा ने कुछ शिक्षकों के क्लास में समय पर ना आने पर डीएम से बात की। कुछ दिनों बाद दादा बस में गांव जा रहे थे और तब उस शिक्षक ने उन्हें बस से उतरने को कहा। उतरने पर वह कहने लगे कि शिकायत क्यों की और उन्हें खाई में धक्का दे दिया। इत्तेफाकन खेत में काम कर रहे लोग समय पर आ गए और उन्हें बचा लिया। दादा कहते हैं कि उन्हें प्यार करने वालों का आंकड़ा, नापसंद करने वालों के मुकाबले कहीं अधिक अधिक है। इतना कि जब हम गांव देखने जाने के पहले बेलगावी बस अड्डे पर नाश्ता करने के लिए गए तो रेस्टोरेंट वाले ने बहुत इसरार करने पर भी हमसे पैसे नहीं लिए।
अपने जीवन में मैंने पहली बार किसी इंसान की ताकत को देखा, ऐसी ताकत जो दूसरों को दबाती नहीं, उठाती है (grassroots leadership); जिसमें ज़ोर-ज़बरदस्ती नहीं, सहयोग के साथ आगे बढ़ना होता है; जिसमें नफरत की जगह प्रेम और अन्याय की जगह न्याय की भावना ([social justice], [non-violent activism]) है। मेरे लिए तो दादा वह मशाल हैं जो न जाने कितनों के जीवन रोशन कर चुके हैं। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.prajavani.net/prajavani/import/sites/pv/files/article_images/2023/03/09/file7p8rce0ewfmce68hcvk1678303898.jpg?auto=format,compress&fmt=webp&fit=max&format=webp&w=400&dpr=2.5
गाहे-बगाहे आने वाली सुर्खियों से हमें इतना तो पता है कि वैज्ञानिक अन्य ग्रहों पर लगातार नए तरह के जीवन की तलाश में लगे हुए हैं। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अभी हमारी पृथ्वी पर ही मौजूद जीवन के कई रूप अनदेखे, अनखोजे हैं, खासकर समुद्री (या जलीय) जीवन (marine biodiversity) रूप। ऐसा अनुमान है कि हम अब तक जितने भी समुद्री जीवन के बारे में जानते हैं वह वास्तव में मौजूदा जैव-विविधता का मात्र 10 प्रतिशत (ocean species discovery) है।
वैज्ञानिक अनखोजे जीवों की खोज में भी हैं; कभी इरादतन खोजते हुए तो कभी इत्तेफाकन वैज्ञानिकों को नई-नई प्रजातियां (new marine species) मिलती हैं। दिलचस्प बात है कि गैर-मुनाफा संस्था ओशिएन सेंसस द्वारा चलाए जा रहे एक खोजी अभियान ने तकरीबन 850 नई समुद्री प्रजातियां खोजी (deep sea exploration) हैं। वाकई कितना कुछ खोजा जाना बाकी है। तो चलिए जानते हैं पिछले कुछ समय में विभिन्न समूहों द्वारा खोजी गई कुछ नई दिलचस्प समुद्री प्रजातियों के बारे में।
अकॉर्डियनकृमि – सबसे पहले इसे 2021 में देखा गया था। स्पेन की अराउसा नदी के मुहाने से लगभग एक किलोमीटर दूर और महज 32 मीटर गहराई पर एक गोताखोर ने इसे एक सीपी के नीचे देखा था। इसकी खास बात है कि यह अकॉर्डियन की तरह फैल-सिकुड़ (accordion worm discovery) सकता है। फैलने पर इसकी पूरी लंबाई 25 सेंटीमीटर होती है, और सिकुड़ने पर यह मात्र 5 सेंटीमीटर लंबा रह जाता है। सिकुड़ने पर इसके शरीर पर छल्ले दिखाई देते हैं, जिनकी संख्या करीब 60 है। इन्हीं छल्लों की वजह से इसे आम बोलचाल में अकॉर्डियन कृमि कहा गया है, वैसे औपचारिक द्विनाम पद्धति में इसे पैरारोसाविगारे (Pararosa vigarae) नाम दिया गया है। यह रिबन कृमि की एक नई प्रजाति है। हालांकि इसे रिबन कृमि की एक नई प्रजाति कहना इतना सीधा काम नहीं था। क्योंकि सभी रिबन कृमि देखने में एक जैसे दिखते हैं। उन्हें मात्र देखकर अलग-अलग प्रजाति नहीं कहा जा सकता। इसलिए डीएनए अनुक्रमण (DNA barcoding marine species) किया गया और हाल ही में वैज्ञानिकों ने इसे एक नई प्रजाति की मान्यता दी है।
पिगमीपाइपहॉर्स – दक्षिण अफ्रीका के नज़दीक हिंद महासागर में पिगमी पाइपहॉर्स (pygmy pipehorse Indian Ocean) की यह प्रजाति मिली है। महज़ 4 सेंटीमीटर लंबा यह जीव सीहॉर्स, सीड्रैगन और पाइपफिश का सम्बंधी है और सिंग्नेथिडे कुल का सदस्य है, जिसे साइलिक्सनोसी (Cylix nkosi) नाम दिया गया है। अपने सम्बंधियों की तरह यह भी छद्मावरणधारी है। यानी इसका हुलिया अपने परिवेश, अपने प्राकृतवास (कोरल रीफ) से इतना मेल खाता है कि इसे आसानी से नहीं ढूंढा जा सकता है; इसे देखने के लिए गोताखोर और इसके शिकारियों को पैनी निगाहें चाहिए (camouflage marine animal)। खास बात यह है कि इस वंश का यह पहला सदस्य है जो अफ्रीका के नज़दीकी समुद्र में मिला है, वर्ना अब तक इसके बाकी सदस्य न्यूज़ीलैंड के पास ठंडे क्षेत्रों में पाए गए हैं।
गिटारशार्क– मोज़ाम्बिक और तंज़ानिया के नज़दीकी समुद्र में करीब 200 मीटर की गहराई पर गिटार शार्क (guitarfish discovery Africa) की एक नई प्रजाति खोजी गई है। इस प्रजाति के मिलने के बाद गिटार शार्क प्रजातियों की कुल संख्या 38 हो गई है (Rhynobatos species list)। गिटार शार्क की खास बात उनका चपटा शरीर और चौड़ा सिर है, और इसी बनावट के कारण उन्हें गिटार शार्क कहा जाता है। इस प्रजाति को डेविड एबर्ट (David Ebert shark expert) ने खोजा है जिन्होंने अपना करियर अनभिज्ञ शार्क प्रजातियों को खोजने में लगाया हुआ है। इस गिटार शार्क को राइनोबाटोस कुल में रखा गया है। लेकिन दुखद बात यह है कि गिटार शार्क की दो-तिहाई प्रजातियां जोखिमग्रस्त (endangered shark species) की श्रेणी में हैं।
एक तरह का शंख टूरीड्रूपा मैग्नीफिका – प्रशांत महासागर में स्थित दो द्वीप न्यू कैलेडोनिआ और वनौतू के नज़दीक समुद्र में करीब 500 मीटर की गहराई पर यह प्रजाति (Turidrupa magnifica shell) मिली है। शिकारी प्रवृत्ति का यह गैस्ट्रोपॉड हालिया पहचानी गई 100 टूरीड गैस्ट्रोपॉड में से एक है। इस शंख की खासियत इसके विषैले और नुकीले दांत (venomous sea snail) हैं, जिन्हें यह अपने शिकारियों में चुभोकर उनका शिकार करता है।
स्क्वैट लोबस्टर – श्मिट ओशिएन इंस्टीट्यूट के खोजी अभियान में यह चिली के समुद्री तट के नज़दीक स्थित नाज़्का रिज (squat lobster Nazca Ridge) पर लगभग 400 मीटर की गहराई पर मिला है। वैज्ञानिकों ने इसे गैलेथिया वंश (Galathea genus crustacean) के सदस्य के रूप में पहचाना है। दिलचस्प बात यह है कि गैलेथिया वंश का यह पहला सदस्य है जो दक्षिण-पूर्वी प्रशांत महासागर में पाया गया है (new crustacean species discovery)। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.vice.com/wp-content/uploads/sites/2/2025/05/New-Venomous-Worm-That-Folds-Like-an-Accordion-Discovered-by-Divers.jpg?w=1200 https://divernet.com/wp-content/uploads/2024/09/R.Smith_Cylix.nkosi_02-1024×794.jpg https://s.yimg.com/ny/api/res/1.2/uAy9DV61SY9H6HEyM3f5mw–/YXBwaWQ9aGlnaGxhbmRlcjt3PTk2MDtoPTU1Ng–/https://media.zenfs.com/en/cbs_news_897/ddcce9771e15cf569bf63620be9b417c https://s.yimg.com/ny/api/res/1.2/EbyBYtfaEV8TKyg93au_AA–/YXBwaWQ9aGlnaGxhbmRlcjt3PTI0MDA7aD0xMzUw/https://media.zenfs.com/en/cbs_news_897/cc2013221dbd2b26db85363d3059903c https://oceancensus.org/wp-content/uploads/2025/03/aaa-1024×528.jpg
चिकनगुनिया एक वायरस से फैलने वाली बीमारी है। यह एडीज़ मच्छर, खासकर एशियन टाइगर मच्छर (Aedes albopictus), के काटने से फैलती है जो गर्म और नम जगहों में आसानी से पनपता है। इसके लक्षणों में तेज़ बुखार, जोड़ों में सूजन, सिरदर्द और त्वचा पर चकत्ते आना शामिल हैं। ज़्यादातर लोग एक हफ्ते में ठीक हो जाते हैं, लेकिन कभी-कभी दर्द कई महीनों या सालों तक बना रह सकता है। कुछ दुर्लभ मामलों में यह बीमारी दिल या दिमाग में सूजन जैसे गंभीर हालात (chikungunya complications) पैदा कर सकती है।
चिंताजनक बात यह है कि यह बीमारी अब फिर से रीयूनियन नाम के एक द्वीप पर तेज़ी से फैल (chikungunya outbreak) रही है। लगभग 20 वर्ष पूर्व यहां चिकनगुनिया का बड़ा प्रकोप हुआ था, और अब फिर से 50,000 मामले और 12 मौतें हो चुकी हैं। यह बीमारी मॉरीशस जैसे आसपास के द्वीपों तक भी पहुंच गई है।
रीयूनियन द्वीप पर इसके दोबारा फैलने के पीछे वायरस में हुआ एक उत्परिवर्तन (virus mutation) बताया जा रहा है। यह उत्परिवर्तन 2005–06 की भीषण महामारी (2006 chikungunya epidemic) के दौरान देखा गया था, और इन बीस सालों में इस वायरस के विकसित होते जाने के बावजूद यह उत्परिवर्तन बरकरार है।
विशेषज्ञों का मानना है कि समय भी एक अहम कारण है। पिछले बड़े प्रकोप को फैले लगभग 20 साल हो गए हैं, यानी अब एक पूरी पीढ़ी है जिसने न तो वायरस का पहले सामना किया है और न ही उनके शरीर में कोई प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता (lack of immunity) बनी है। इसके अलावा, द्वीप पर बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग लोग रहते हैं (जिनमें कई युरोप से रिटायर होकर आए हैं), उनमें भी इस वायरस से लड़ने की क्षमता नहीं है।
पिछले प्रकोप की तुलना में इस बार नई बात यह है कि इसके खिलाफ अब एक टीका Ixchiq (chikungunya vaccine) मौजूद है, जिससे वायरस को रोकने की उम्मीद थी। लेकिन हाल ही में 65 साल से अधिक उम्र के लोगों में इसके कुछ खतरनाक असर दिखने के चलते बुज़ुर्गों को यह टीका देने पर फिलहाल रोक लगाई गई है, जिससे बीमारी को काबू करना मुश्किल हो गया है।
चिकनगुनिया के लिए बना यह टीका दुर्बलीकृत वायरस (live attenuated vaccine) से बनाया गया है। इसे पिछले साल कई देशों में 18 साल और उससे अधिक उम्र के लोगों के लिए मंज़ूरी मिली थी, और हाल ही में इसे 12 से 17 साल के किशोरों के लिए भी स्वीकृति मिल गई थी। रीयूनियन द्वीप पर सबसे पहले बुज़ुर्गों, जो कि सबसे अधिक खतरे में होते हैं, को यह टीका दिया भी गया। लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभाव सामने आने लगे।
इन घटनाओं के बाद, युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और फ्रांस की स्वास्थ्य एजेंसी ने 65 साल और उससे ऊपर के लोगों के लिए इस टीके के उपयोग पर रोक लगा दी है। जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक अमेरिकी एजेंसी सीडीसी (CDC guidelines) ने भी 60 से ज़्यादा उम्र वालों को टीका न देने की सलाह दी है।
इस बीच, चिकनगुनिया अब सिर्फ एक स्थानीय समस्या नहीं रह गई है। फ्रांस में हर हफ्ते करीब 100 मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें ज़्यादातर वे लोग हैं जो रीयूनियन और मॉरिशस से छुट्टी मनाकर लौटे हैं। ऐसे ही अन्य देशों में फैलने का खतरा भी है। पहले भी ऐसा हो चुका है जब यह वायरस भारत तक फैल गया था और यहां 10 लाख से ज़्यादा लोग संक्रमित (chikungunya in India) हुए थे।
बहरहाल, कुछ संकेत मिल रहे हैं कि रीयूनियन में यह प्रकोप अब धीमा पड़ रहा है। जहां पहले प्रति सप्ताह लगभग 20,000 मामले सामने आते थे, वहीं मई की शुरुआत तक घटकर 14,000 हो गए हैं। जनवरी में महामारी घोषित किए जाने के बाद से अब तक लगभग 1,74,000 संदिग्ध मामले दर्ज किए जा चुके हैं।
यह प्रकोप हमें याद दिलाता है कि पुराने खतरे कभी भी दोबारा लौट सकते हैं, और शायद अधिक ताकतवर होकर। साथ ही, हर समाधान के साथ नई चुनौतियां भी आती हैं। आज दुनिया पहले से कहीं बेहतर तैयार है, लेकिन फिर भी किसी भी महामारी पर काबू पाने के लिए तीन चीज़ें ज़रूरी हैं: तेज़ और समय पर कार्रवाई, स्पष्ट और भरोसेमंद जानकारी और साथ ही ऐसे उपाय जो सभी, खासकर सबसे कमज़ोर लोगों की पहुंच में हों तथा सुरक्षित व असरदार हों। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/cms/10.1126/science.311.5764.1085a/asset/75ae125c-32d1-4f1a-8b9a-ba72afc6d9df/assets/graphic/1085a-1.gif
एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि 1990 के बाद से बढ़ी वैश्विक तपन (global warming) के दो-तिहाई हिस्से के लिए दुनिया के सबसे अमीर 10 प्रतिशत लोग ज़िम्मेदार हैं, जिससे पता चलता है कि जलवायु संकट (climate crisis) के संदर्भ में कैसी असमानता है। हालांकि वैज्ञानिकों को यह तो पता था कि अमीर लोग अधिक कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) करते हैं, लेकिन इस अध्ययन ने आंकड़ों के ज़रिए बताया है कि कौन-कौन कितना कार्बन उत्सर्जन करते हैं और जलवायु परिवर्तन (climate change) के लिए कितना ज़िम्मेदार हैं। ये नतीजे नेचरक्लाइमेटचेंज पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।
शोधकर्ताओं ने जलवायु मॉडल (climate model) का उपयोग किया और यह पता लगाया कि अगर सबसे अमीर लोगों – शीर्ष 10 प्रतिशत, 1 प्रतिशत, और 0.1 प्रतिशत – द्वारा किया जाने वाला उत्सर्जन हटा दिया जाए तो वैश्विक तापमान में कितना बदलाव आएगा। निष्कर्ष चौंकाने वाले थे: 2020 में, वैश्विक तापमान 1990 के मुकाबले 0.61 डिग्री सेल्सियस अधिक था। इस वृद्धि का 65 प्रतिशत हिस्सा शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों (सालाना आय लगभग 41 लाख रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) द्वारा किए जाने वाले उत्सर्जन से जुड़ा था। शीर्ष 1 प्रतिशत लोग, (सालाना आय 1.4 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 20 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे। और शीर्ष 0.1 प्रतिशत (लगभग 8,00,000 लोग, वार्षिक आय 5.13 करोड़ रुपए प्रति व्यक्ति से अधिक) तापमान वृद्धि के 8 प्रतिशत हिस्से के लिए ज़िम्मेदार थे।
औसत की तुलना में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों ने वैश्विक तपन में 6.5 गुना अधिक, शीर्ष 1 प्रतिशत लोगों ने 20 गुना अधिक और शीर्ष 0.1 प्रतिशत लोगों ने 76 गुना अधिक योगदान दिया।
इस अध्ययन के सह-लेखक कार्ल-फ्रेडरिक श्लेसनर के अनुसार यदि सभी ने दुनिया की सबसे गरीब 50 प्रतिशत आबादी की तरह उत्सर्जन किया होता तो 1990 के बाद हमें बहुत अधिक गर्मी नहीं महसूस होती। दूसरी ओर, अगर सभी लोगों ने शीर्ष 10 प्रतिशत की तरह उत्सर्जन किया होता तो दुनिया पहले ही 2.9 डिग्री सेल्सियस अधिक गर्म हो चुकी होती।
अध्ययन की मुख्य लेखक सारा शॉन्गार्ट का कहना है कि मामला सिर्फ आंकड़ों का नहीं है। अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि जलवायु सम्बंधी चरम घटनाएं (climate disasters) केवल वैश्विक उत्सर्जन से नहीं बल्कि व्यक्तियों की विशिष्ट क्रियाओं और संपत्ति से भी होती हैं। यह शोध अमीरों पर जलवायु कर (carbon tax on rich) और विकासशील देशों के लिए अधिक जलवायु निधि (climate finance for developing countries) की आवश्यकता को मज़बूत करता है।
अध्ययन याद दिलाता है कि सबसे अधिक प्रभावित लोग अक्सर जलवायु आपदाओं का कारण नहीं होते। इसलिए कोई भी प्रभावी जलवायु नीति (climate policy) इस असंतुलन को ध्यान में रखते हुए न्यायपूर्ण होनी चाहिए। सबसे अमीर लोगों के कार्बन पदचिह्न (carbon footprint) को कम करना भावी नुकसान को कम करने का सबसे शक्तिशाली साधन होगा।(स्रोतफीचर्स)
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गांधीवादी विचारों वाले शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। उन्होंने लोगों की अनेक समस्याओं के समाधान दिए एवं उनके बेहतर भविष्य के लिए नींव रखी। अपने कार्यों के लिए पुरस्कारों से सम्मानित शिवाजी दादा से मेरी मुलाकात मेरी एक फील्ड यात्रा के दौरान हुई और मैं उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी। उनकी सादगी और कार्यों ने मुझे उनके बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है यहां दो लेखों की शृंखला में उनके कार्यों और जीवन का परिचय।
आम तौर पर हम सभी रोटी, कपड़ा, मकान, और जाने किस-किस चीज़ के पीछे पूरी ज़िंदगी भागते रहते हैं। लेकिन कुछ समय पहले एक शख्सियत से मेरा परिचय इन शब्दों में कराया गया था: “इनका कोई घर नहीं है और पूरा गांव ही इनका घर है।” और वह शख्सियत थे शिवाजी दादा।
शिवाजी दादा ने गांववासियों की अनगिनत समस्याओं के लिए न केवल संघर्ष किया, बल्कि उनके समाधान के लिए ठोस कदम भी उठाए। पानी की समस्या के लिए उन्होंने गांववासियों के साथ मिलकर वॉटरशेड (watershed development), कुएं और तालाब बनवाए और लगभग 1.50 लाख पेड़ लगवाए। बच्चों के लिए नाइट स्कूल (night schools in rural India) शुरू किए, बालवाड़ी शुरू की, इत्यादि। और अभी वे आर्गेनिक फॉर्मिंग (organic farming) के काम में ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं।
शिवाजी दादा न केवल गांधी की बातों को मानते हैं, बल्कि उन्हें जीते भी हैं। व्यक्तित्व के सरल शिवाजी दादा का पहनावा भी उतना ही साधारण है। वैसे उनका पूरा नाम शिवाजी कागनीकर है, लेकिन प्रेम से सभी उन्हें ‘शिवाजी दादा’ कहकर बुलाते हैं। उनका जन्म बेलगांव शहर के पास करोड़ी नामक गांव में हुआ था। अपनी मातृभाषा मराठी के अलावा वे कन्नड़, हिंदी और अंग्रेज़ी भी जानते हैं। मुश्किल हालातों एवं गरीबी में बड़े हुए शिवाजी ने कॉलेज के दूसरे वर्ष में ही पढ़ाई छोड़ दी थी ताकि वे लोगों के लिए कुछ कर सकें। अपने जीवन में उन्होंने जातिगत भेदभाव (caste discrimination in India) झेला। इसके बाद भी जब दादा को अपना भविष्य बनाने का मौका मिला, ऐसा मौका जिससे उनके जीवन की सारी मुश्किलें दूर हो जाती, तो उन्होंने वह मौका हाथ से जाने दिया जिसके कारण लोग उन्हें पागल भी कहते थे। दादा पढ़ाई छोड़ने के ठीक बाद ही विनोबा भावे द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन (Sarvodaya Movement) में शामिल हो गए थे।
इसके बाद उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता श्रीरंग कामत और बाद में उनके बेटे दिलीप कामत के साथ मिलकर कामगारों के हक के लिए कई प्रोटेस्ट किए। उसी दौरान उनकी मुलाकात वसंत पल्शीकर से हुई, जो उनके मार्गदर्शक बने। शिवाजी दादा मज़दूरों का समर्थन करते थे, लेकिन मालिकों से घृणा नहीं करते थे। वे कहते थे कि मज़दूरों के हक के लिए लड़ना ज़रूरी है, लेकिन मालिकों से नफरत का रास्ता अपनाना ठीक नहीं। और इस वजह से लोग उन्हें एंटी कम्युनिस्ट (anti-communist views) कहते थे। शिवाजी दादा ने उस काम को छोड़ देना ही ठीक समझा।
इसके बाद वे एक पादरी से मिले, जो चर्च में प्रार्थना करने की बजाय लोगों के लिए कुछ करने में यकीन करते थे। शिवाजी दादा ने उनके साथ मिलकर ‘जन जागरण’ नामक एक संस्था की शुरुआत की। इसके अंतर्गत उन्होंने स्व-सहायता समूह, वॉटरशेड, वृक्षारोपण जैसे काम किए। लेकिन बाद में उन्होंने देखा कि स्व-सहायता समूहों (self-help groups) में भी भ्रष्टाचार होने लगा है। उन्होंने ऐसे कई काम सालों तक करने के बाद छोड़ दिए क्योंकि वे ऐसी संस्थाओं का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे, जो लोगों के लिए शुरू की गई थीं लेकिन आगे चलकर लोगों के लिए नहीं रहीं। जन जागरण के लिए इतना काम करने के बाद भी उनका ज़िक्र वेबसाइट या संस्था के वेबपेज (NGO website recognition) पर नहीं है। पूछने पर उन्होंने कहा “मुझे फर्क नहीं पड़ता कि मेरा नाम हो या नहीं, मैं बस काम करते रहना चाहता हूं।”
60 वर्ष की उम्र तक वे साइकिल से ही गांव आया-जाया करते थे। लेकिन डायबिटीज़ (diabetes) और ब्लड प्रेशर (blood pressure) के बाद से उन्होंने साइकिल चलाना छोड़कर बस से ही आना-जाना शुरू किया। वे अपना एक छोटा सा झोला, जिसमें किताबें, कागज़ और उनकी दवाइयां होती हैं, उठाए इधर-उधर काम करने में लगे रहते हैं। वे जहां भी जाते हैं, लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। उन्होंने मेरे सामने अपने एक पुराने स्टूडेंट को कॉल किया, जो अभी किसी इंटरनेशनल स्कूल (international school construction) की बिल्डिंग बनाने में काम कर रहा है, और कहा, “हमें जल्दी ही कलिका केंद्र फिर से शुरू करना है क्योंकि निधि ताई आई हैं, खास उनके लिए।” अब आप सोच रहे होंगे कि ये कलिका केंद्र क्या है?
दरअसल, बेलगाम और उसके आसपास के गांव में एक समस्या शिक्षा की थी। बहुत से गांवों में स्कूल नहीं थे। जहां स्कूल थे, वहां बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे। ऐसे में रात में स्कूल शुरू करने का विचार आया। इसे ही कलिका केंद्र कहा गया। कलिका केंद्र बच्चों के लिए शिक्षा पाने का एक अवसर तो था ही, महिलाओं के लिए अपनी समस्याएं साझा करने का माध्यम भी था।
कई दशकों तक काम करने के बाद, 2019 में कर्नाटक राज्य ने शिवाजी दादा को राज्य के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, यानी राज्योत्सव पुरस्कार (Rajyotsava award Karnataka) से सम्मानित किया। उस वक्त एक संस्था द्वारा दिए गए फंड से गांवों में नाइट स्कूल चल रहे थे। फंड की कमी के कारण नाइट स्कूल के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त पैसा नहीं मिल रहा था।
किसी ने इसी बात को मुद्दा बनाकर कहा कि शिवाजी दादा तो पुरस्कार बटोर रहे हैं, लेकिन तुम्हें इतना कम पैसा दिलवा रहे हैं। और इसी कारण लोगों ने काम बंद कर दिया। दादा के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। इस बात से दादा को बहुत ठेस पहुंची क्योंकि वे नाइट स्कूल के महत्व को न केवल समझते थे, बल्कि इतने सालों में उन्होंने इसके प्रभाव को भी देखा था।
शिवाजी दादा के लिए यह चिंता का विषय था, और एक दिन उनकी मुलाकात उनके पुराने विद्यार्थी से हुई। बातचीत में उस विद्यार्थी ने दादा को बताया कि कैसे नाइट स्कूल ने उसकी मदद की और कहा: “आपने मुझे तो लिखना-पढ़ना सिखा दिया, लेकिन मेरे बच्चों का क्या होगा?” यह सुनते ही दादा ने पुनः स्कूल शुरू करने का निर्णय लिया।
उनकी इसी लगन के चलते कुछ लोग दादा को बेलगाम का अन्ना (Belgaum Anna) भी कहते हैं। (स्रोतफीचर्स)
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नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.prajavani.net/prajavani/import/sites/pv/files/article_images/2023/03/09/file7p8rce0ewfmce68hcvk1678303898.jpg?auto=format,compress&fmt=webp&fit=max&format=webp&w=400&dpr=2.5