कीड़े-मकोड़े भी आम खाद्य हो सकते हैं

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व की आबादी के लिए खाद्य उत्पादन (food production) में कीट कई तरह से मदद करते हैं। कीट हमारे फसली पौधों का परागण करते हैं, सड़ते-गलते पौधों और जानवरों के अवशेषों को विघटित करते हैं, और प्राकृतिक कीट नियंत्रक (natural pest control) भी हैं। और तो और, हम मधुमक्खियों से प्राप्त शहद खाते हैं।

कीट हमारे चारों ओर मौजूद हैं। लेकिन यदि हम कीटभक्षण (entomophagy), यानी कीटों या उनके लार्वा को खाने की बात करेंगे तो हममें से कई लोग इन्हें खाने के नाम से कतराएंगे। इसका एक कारण शायद निओफोबिया (neophobia) है, यानी कुछ नया आज़माने का डर या हिचक।

साथ ही, आज हम पृथ्वी के अत्यधिक दोहन (overexploitation) को लेकर भी चिंतित हैं। हमें ऐसे खाद्य पदार्थों की ज़रूरत है जो प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन/उपभोग किए बिना उच्च-गुणवत्ता की कैलोरी (nutrition) दें सकें। कीट इस अपेक्षा पर खरे उतरते हैं। शुष्क भार के हिसाब से उनमें 40 प्रतिशत प्रोटीन, 20-30 प्रतिशत वसा और पोटेशियम-आयरन जैसे खनिज (minerals) भी होते हैं।

दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी पहले से ही खाने योग्य कीट (edible insects) खा रही है। कुछ कीटों को स्वादिष्ट माना जाता है। मैक्सिकन एस्कैमोल (Mexican escamoles) का स्वाद मक्खन लगे बेबीकॉर्न जैसा होता है। मैक्सिकन एस्कैमोल को ‘रेगिस्तान का पकवान’ कहा जाता है, जो वास्तव में पेड़ों पर बिल बनाने वाली मखमली चींटी (Liometopum occidentale) के तले हुए प्यूपा और लार्वा होते हैं। शेफ शेरिल किर्शेनबाम (Cheryl Kirshenbaum) ने वर्ष 2023 में पीबीएस पर ‘सर्विंग अप साइंस’ के एक एपिसोड में स्वादिष्ट कीट मेनू के बारे में बताया था।

भारत में, पूर्वोत्तर राज्यों, ओडिशा और पश्चिमी घाट के स्थानीय समुदाय के लोग खाद्य कीट (insect diet in India) खाते हैं। इन्हें खाने के चलन की जड़ उनकी पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं (nutrition needs), सांस्कृतिक आदतों और लोक चिकित्सा तरीकों में निहित है। पूर्वोत्तर में आदिवासी और ग्रामीण आबादी कथित तौर पर प्रोटीन पूर्ति के लिए 100 से अधिक खाद्य कीट प्रजातियां खाती हैं। इन कीटों को स्थानीय बाज़ारों में बेचा भी जाता है। तले, भुने या पके हुए गुबरैले, पतंगे, हॉर्नेट और जलकीट (water bugs) चाव से खाए जाते हैं – जबकि मक्खियां नहीं खाई जातीं।

चूंकि कीटों की आबादी घट रही है, ऐसे में प्रकृति में मौजूद कीटों को पकड़ना और उन्हें खाना, टिकाऊ विचार नहीं हो सकता। इसलिए कुछ समूहों ने अर्ध-पालतूकरण (semi-domestication) का तरीका अपनाया है, जिसमें कीटों और उनके लार्वा का पालन-पोषण (insect farming) और वृद्धि मनुष्यों द्वारा की जाती है। लुमामी स्थित नागालैंड विश्वविद्यालय (Nagaland University) के नृवंशविज्ञानी इस पर अध्ययन कर रहे हैं कि कीट पालन के पारंपरिक तरीकों और नई प्रजातियों की खेती के लिए कैसे इन तरीकों को अनुकूलित किया जा सकता है।

नागालैंड और मणिपुर (Northeast India) की चाखेसांग और अंगामी जनजातियां एशियाई जायंट हॉर्नेट (Asian giant hornet) को एक स्वादिष्ट व्यंजन मानती हैं; वे इनके वयस्क जायंट हार्नेट को भूनकर और इनके लार्वा को तलकर खाते हैं। इन हॉर्नेट का अब अर्ध-पालतूकरण किया जा रहा है। इनकी खेती इनका खाली छत्ता/बिल खोजने से शुरू होती है। मिलने पर इनके छत्ते/बिल को एक मीटर गहरे पालन गड्ढे (rearing pit) में लाया जाता है, जो मिट्टी से थोड़ा भरा होता है। खाली छत्ते/बिल को गड्ढे के ठीक ऊपर एक खंभे से बांध दिया जाता है और पोली मिट्टी से ढंक दिया जाता है। जल्द ही एक रानी हॉर्नेट (queen hornet) के साथ श्रमिक हॉर्नेट इसमें आ जाते हैं, जो ज़मीन के नीचे छत्ते/बिल को विस्तार देना शुरू कर देते हैं। परिणामस्वरूप एक उल्टे पिरामिड जैसी एक बड़ी बहुस्तरीय संरचना बनती है। दोहन के लिए, वयस्क हॉर्नेट को धुआं दिखाया जाता है और लार्वा निकाल लिए जाते हैं।

तमिलनाडु में अन्नामलाई पहाड़ियों के आसपास के आदिवासी समूह बुनकर चींटियों (weaver ants) का उपयोग भोजन और औषधीय संसाधन (medicinal use) के रूप में करते हैं। अंडों, लार्वा और वयस्कों की मौजूदगी वाले पत्तों के घोंसलों को भूनकर और फिर सिल-बट्टे पर पीसकर मसालेदार सूप बनाया जाता है। ततैया और दीमक के छत्तों का भी ऐसा ही उपयोग किया जाता है और मधुमक्खियों को श्वसन (respiratory diseases) और जठरांत्र सम्बंधी बीमारियों (digestive health) को कम करने के लिए स्वास्थ्य पूरक के रूप में खाया जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) का मानना है कि आहार में कीटों को शामिल करना (insect-based diet) स्थायी खाद्य उत्पादन (sustainable food production) की कुंजी हो सकती है। कीट प्रसंस्करण (insect processing) की रणनीतियां उन्हें अधिक स्वीकार्य बना सकती हैं। झींगुर (crickets), भंभीरी (beetles) और टिड्डे (locusts) के पाउडर (या आटे) का उपयोग अब मट्ठा पाउडर की तरह ही प्रोटीन पूरक (protein supplement) के रूप में किया जाता है।

जैसे-जैसे आहार सम्बंधी रुझान (food trends) विकसित हो रहे हैं, वैसे-वैसे हम मोटे अनाज (millets) अपना रहे हैं, और प्रयोगशाला में तैयार किए गए मांस (lab-grown meat) को आज़माना चाह रहे हैं; हो सकता है कि जल्द ही हमारी थाली में कीट (insect cuisine) भी परोसे जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दर्द निवारण के दुष्प्रभावों से मुक्ति की राह

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चोट लगने अथवा संक्रमण (infection) की स्थिति में शरीर स्वयं उसका उपचार (healing process) करता है। चोट लगने या संक्रमण होने पर शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) सक्रिय हो जाता है। प्रभावित स्थान पर तमाम प्रतिरक्षा कोशिकाएं पहुंचने लगती हैं। उस स्थान की रक्त नलिकाएं थोड़ी ज़्यादा पारगम्य हो जाती हैं। वहां उनसे रिसकर द्रव भरने लगता है और साथ में श्वेत रक्त कोशिकाएं भी। इसे इन्फ्लेमेशन या शोथ कहते हैं। सूजन इसका एक गोचर असर होता है। कुल मिलाकर शोथ और उसके साथ आई सूजन शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

अर्थात शोथ और सूजन चोट को ठीक करने का स्वाभाविक इलाज है। हम इस चोट का इलाज करने के लिए प्रायः आइबुप्रोफेन (Ibuprofen) या अन्य दर्द निवारक गोलियां लेते हैं। ये गोलियां दर्द निवारण तो करती हैं किंतु साथ ही शोथ भी खत्म कर देती हैं। लेकिन शोथ तो शरीर में इलाज की अपनी व्यवस्था है। यानी शोथ को  खत्म करना इलाज में हस्तक्षेप माना जाएगा। अतः अब वैज्ञानिकों ने शरीर के स्वाभाविक उपचार के साथ छेड़छाड़ न करते हुए (अर्थात शोथ को कम किए बगैर) दर्द निवारण (pain management) का एक तरीका खोज लिया है।

हाल ही में प्रकाशित एक नए शोध (scientific study) ने कोशिकाओं की सतह पर एक ऐसे रिसेप्टर (ग्राही) (receptor discovery) की पहचान की है जो शोथ में हस्तक्षेप किए बिना केवल दर्द को समाप्त कर चोट को शीघ्र ठीक होने में अधिक मदद करता है। इसे ‘दर्द स्विच’ (pain switch) कह सकते हैं। 

वेदना की अनुभूति

हमारे शरीर में चोट ग्रस्त कोशिकाओं से निकले प्रोस्टाग्लैंडिन (prostaglandin) नामक रसायन से हमें वेदना की अनुभूति होती है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय (New York University Pain Research Center) पेन रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने दर्द के मुख्य कारक प्रोस्टाग्लैंडिन से जुड़ने वाले ऐसे रिसेप्टर की पहचान की है जो दर्द के प्रति संवेदनशील है लेकिन शोथ के प्रति नहीं। वर्तमान में आम तौर पर माना जाता रहा है कि शोथ और दर्द साथ-साथ चलते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications study) में प्रकाशित शोध निष्कर्ष बताते हैं कि इन दो प्रक्रियाओं को अलग-अलग संभाला जा सकता है और केवल दर्द को रोककर और शोथ को बढ़ने देने से उपचार में मदद मिल सकती है।

दर्द निवारक दवाएं

गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक तथा शोथरोधी दवाएं (Non-Steroid Anti-inflammatory Drugs – NSAID), दुनिया में सबसे अधिक ली जाने वाली दवाओं में से हैं, जिनकी अनुमानित 30 अरब खुराकें अकेले अमेरिका में ली जाती हैं। भारत के बारे में निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से कई दवाइयां बिना डॉक्टरी पर्चे के भी उपलब्ध होती हैं। इनका उपयोग लंबे समय तक होता है। इससे शरीर को गंभीर समस्याएं होती हैं, जिनमें पेट के अस्तर (stomach damage) को नुकसान, रक्तस्राव में वृद्धि और हृदय, गुर्दे और यकृत से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं।

हमारे शरीर के लगभग सभी ऊतक प्रोस्टाग्लैंडिन्स (prostaglandins function) उत्पन्न करते हैं जो दर्द और बुखार का कारण बनते हैं। प्रोस्टाग्लैंडिन हार्मोन के समान यौगिकों (hormone-like compounds) का एक समूह है। यह समूह शोथ, दर्द और गर्भाशय संकुचन सहित कई शारीरिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन के ज़रिए दर्द की अनुभूति के रासायनिक संकेत मस्तिष्क (brain signaling) तक पहुंचते हैं और तदनुसार मस्तिष्क कार्य करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन प्रभावित क्षेत्र में रक्त वाहिकाओं को फैलाते हैं, जिससे रक्त प्रवाह बढ़ता है और सूजन आती है। वे दर्द पैदा करने वाले रासायनिक संकेतों को भी सक्रिय करते हैं।

सूजन

शोथ का एक प्रकट लक्षण सूजन है, जिसे चिकित्सा की भाषा में एडिमा (edema) कहते हैं। यह शरीर के ऊतकों या किसी अंग में तरल पदार्थ का जमाव (fluid retention) है। तरल के इस जमाव से वह हिस्सा फूल जाता है। यह तरल चोटग्रस्त क्षेत्र में फैली हुई रक्त वाहिकाओं से रिसकर बाहर निकलता है और जमा हो जाता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएं (white blood cells), विशेषतः न्यूट्रोफिल्स तथा इम्युनोग्लोबुलिन (अर्थात एंटीबाडीज़ – (antibodies)) भरपूर मात्रा में होती हैं जो घाव की मरम्मत करने में सहायक होती हैं। 

शोथ चोट या संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रणाली (immune response) की प्रतिक्रिया में वृद्धि करती है। यह चोटग्रस्त ऊतकों की मरम्मत के द्वारा सामान्य कार्यप्रणाली को दुरुस्त करती है और उसे बहाल करती है। इसके विपरीत, गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक दवाएं दर्द के साथ-साथ शोथ भी दूर करती हैं जिससे उपचार में देरी हो सकती है और दर्द से उबरने में भी देरी हो सकती है। अत: प्रोस्टाग्लैंडिन से उत्पन्न दर्द के इलाज के लिए एक बेहतर रणनीति यह होगी कि शोथ से मिलने वाली सुरक्षा (healing protection) को प्रभावित किए बिना केवल दर्द को चुनिंदा रूप से खत्म किया जाए।

एस्पिरिन (Aspirin) और अन्य गैर-स्टेरॉइड शोथ-रोधी दवाइयां प्रोस्टाग्लैंडिन बनाने वाले एंज़ाइमों को अवरुद्ध (enzyme inhibition) करके इसके निर्माण को रोक देती हैं, जिससे सूजन और दर्द कम हो जाता है।

श्वान कोशिकाएं

श्वान (Schwann) कोशिकाएं मस्तिष्क के बाहर परिधीय तंत्रिका तंत्र (peripheral nervous system) में पाई जाती हैं और माइग्रेन (migraine pain) तथा अन्य प्रकार के दर्द का कारण होती हैं। फ्लोरेंस विश्वविद्यालय (University of Florence) के पियरेंजेलो गेपेटी ने श्वान कोशिकाओं में एक किस्म के प्रोस्टाग्लैंडिन (PGE2) पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे शोथ सम्बंधी दर्द (inflammatory pain) का एक मुख्य मध्यस्थ माना जाता है।

कोशिका झिल्लियों पर PGE2 (PGE2 receptors) के लिए चार अलग-अलग रिसेप्टर्स होते हैं। गेपेटी के पूर्व अध्ययनों ने PGE2 के लिए EP4 रिसेप्टर (EP4 receptor) को शोथ सम्बंधी दर्द उत्पन्न करने वाले मुख्य रिसेप्टर के रूप में इंगित किया है। हालांकि, नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications research) में, शोधकर्ताओं ने एकाधिक लक्ष्य आधारित दृष्टिकोण अपनाया और पाया कि एक अलग रिसेप्टर (EP2) दर्द के लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार था। श्वान कोशिकाओं में केवल EP2 रिसेप्टर को शांत करने के लिए स्थानीय रूप से दवाइयां देने पर चूहों में शोथ को प्रभावित किए बिना दर्द प्रतिक्रियाएं दूर हो गईं। इस प्रकार शोथ को दर्द से प्रभावी रूप से अलग कर दिया गया। यह शोध दर्द निवारण (pain relief research) के क्षेत्र में एक नई दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खून की जांच से अल्ज़ाइमर की पहचान संभव है?

हाल ही में अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer test) के लिए एक नए रक्त परीक्षण (blood test) को मंज़ूरी मिली है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृति प्राप्त इस जांच को बीमारी की पहचान में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। Elecsys pTau181 नामक यह परीक्षण दो दवा कंपनियों (रोश और एली लिली) ने मिलकर विकसित किया है। इस जांच से डॉक्टर यह बता पाएंगे कि किसी मरीज़ की याददाश्त कम होना या भ्रम अल्ज़ाइमर (Alzheimer diagnosis) की वजह से है या इसका कोई और कारण है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर का कारण (Alzheimer cause) दो हानिकारक प्रोटीन, एमिइलॉइड-बीटा (amyloid-β) और टाउ (tau), का मस्तिष्क में जमाव है। यह जांच रक्त में टाउ प्रोटीन के एक विशेष – pTau181) – को मापता है: इस प्रोटीन का अधिक स्तर यानी अल्ज़ाइमर रोग।

यह जांच 97.9 प्रतिशत मामलों (312 लोग) में ठीक-ठीक बता पाई कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। अर्थात अगर टेस्ट का परिणाम नकारात्मक आता है, तो लगभग निश्चित है कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। इस वजह से यह टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों (primary care doctors) के लिए जांच का बेहतरीन तरीका है। ज़ाहिर है, यह परीक्षण अल्ज़ाइमर की पुष्टि करने के लिए नहीं, बल्कि इसे खारिज (screening test) करने के लिए बनाया गया है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर की जांच के लिए एकमात्र Elecsys टेस्ट नहीं है। मई में Lumipulse (blood biomarker test) नाम का एक और रक्त परीक्षण आया है जो दो प्रोटीन, pTau217 (protein marker) और amyloid-β (1–42) के अनुपात को मापता है। इसके ज़रिए अल्ज़ाइमर की पुष्टि और खारिज दोनों किए जा सकते हैं।

वैज्ञानिक ने चेताया देते हैं कि रक्त आधारित अल्ज़ाइमर परीक्षण (Alzheimer blood tests) पूरी तरह सटीक नहीं हैं। कई लोगों के परिणाम ‘ग्रे ज़ोन’ में आते हैं, यानी उन्हें ब्रेन स्कैन (brain scan) या स्पाइनल फ्लूइड टेस्ट (spinal fluid test) की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, Quanterix कंपनी के एक अन्य pTau217 आधारित टेस्ट (diagnostic accuracy) में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिनके नतीजे अनिश्चित रहे।

विशेषज्ञों के अनुसार परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो हैं और अल्ज़ाइमर के पारंपरिक (Alzheimer detection) और अधिक जटिल परीक्षणों से मेल खाते हैं। लेकिन जब तक ट्रायल के सभी आंकड़े (clinical data) उपलब्ध नहीं होते, तब तक टेस्ट की सटीकता को पूरी तरह स्पष्ट मानना मुश्किल है।

लेकिन इन परीक्षणों का फायदा तो तभी होगा जब बीमारी का इलाज (Alzheimer treatment) मौजूद हो। इसलिए इलाज खोजने की दिशा में प्रयास भी ज़रूरी हैं। बहरहाल, इन परीक्षणों से इतना तो किया जा सकता है कि अल्ज़ाइमर की संभावना (risk detection) पता कर ऐहतियात बरती जाए। (स्रोत फीचर्स)

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मलभक्षी गुबरैले ने मांस खाना कैसे शुरू किया

गभग 3.7 करोड़ साल पूर्व अर्जेंटीना के पेटागोनिया क्षेत्र (Patagonia region) के घास के मैदान जीवन से समृद्ध थे। यहां मैदानों में घोड़े (prehistoric horses) और टेपर जैसे बड़े-बड़े शाकाहारी से लेकर नुकीले दांतों वाले मार्सुपियल प्राणि (marsupial animals) और पक्षी विचरते थे। लेकिन पैरों के नीचे एक अलग कहानी चल रही थी। गोबर (विष्ठा) खाने वाले छोटे गुबरैले धीरे-धीरे सड़े हुए मांस (rotting meat) का रुख कर रहे थे। क्यों?

कई दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि गुबरैलों ने लगभग 1,30,000 से 12,000 साल पहले ही मांस खाना शुरू किया था। यह भी माना जाता था कि जब दक्षिण अमेरिका के बड़े जीव जलवायु परिवर्तन (climate change) और मानव शिकार (human hunting) के कारण विलुप्त हो गए, तो विष्ठा की कमी से गुबरैलों को मजबूरन लाशों पर निर्भर होना पड़ा।

लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसा बड़ा बदलाव इतनी जल्दी संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए कई एंज़ाइम (enzymes) और नई संवेदी क्षमताओं (sensory adaptations) की ज़रूरत होती है, जिन्हें विकसित होने में बहुत समय लगता है। हालिया अध्ययन (scientific study) ने कुछ नए तथ्य उजागर किए हैं जिनसे लगता है कि गुबरैलों ने मांस खाना तभी शुरू कर दिया था जब बड़े जंतु और उनकी विष्ठा प्रचुरता से उपलब्ध थी।

समस्या यह है कि गुबरैलों के जीवाश्म (fossils) बहुत कम मिलते हैं, इसलिए उनके अतीत के बारे में जानकारी सीमित थी। लेकिन उनकी एक चीज़ ज़रूर बची रही – ‘ब्रूड बॉल्स’, यानी मिट्टी के वे गोले जिन्हें वे अपने अंडों की सुरक्षा और नवजातों के भोजन के लिए बनाते हैं। यही अब उनके विकास की कहानी समझने की अहम कड़ी (evolutionary link) बन गए हैं।

अर्जेंटीना स्थित बर्नार्डिनो रिवादाविया नेचुरल साइंसेज़ म्यूज़ियम (Bernardino Rivadavia Natural Sciences Museum) की डॉ. लिलियाना कैंटिल के नेतृत्व में टीम ने अर्जेंटीना, चिली, उरुग्वे और इक्वाडोर से मिले लगभग 5 करोड़ साल पुराने 5000 से ज़्यादा अश्मीभूत ब्रूड बॉल्स का अध्ययन किया। पाया कि इनमें से कुछ ब्रूड बॉल्स की बनावट में एक खास तरह की संरचना थी। इनके अंदर एक छोटी-सी बाहर निकली मचान-सी (पर्च) (perch-like structure) थी। आज के गुबरैलों में यह संरचना सिर्फ उन्हीं प्रजातियों में पाई जाती है जो सड़े हुए मांस (carrion-feeding beetles) पर निर्भर रहते हैं। इनके लार्वा इस मचान पर बैठकर पास पड़े सड़े मांस को खाते हैं, न कि सीधे गोबर को।

पैलियोंटोलॉजी (paleontology study) में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विशेष संरचनाएं लगभग 3.77 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्मों में मिलीं। इसका मतलब है कि कुछ गुबरैलों ने बड़े जीवों के विलुप्त होने से बहुत पहले ही मांस खाना शुरू कर दिया था: गुबरैलों के भोजन में बदलाव तभी हो गया था जब घास के मैदान और बड़े शाकाहारी जीव खूब फल-फूल रहे थे। शोध दल के अनुसार यह परिवर्तन प्रतिस्पर्धा (ecological competition) के कारण हुआ। जब बहुत-सी प्रजातियां गोबर पर निर्भर थीं, तो कुछ प्रजातियों ने मांसाहार का रास्ता अपना लिया।

यह खोज 2020 के एक जेनेटिक अध्ययन (genetic study) से मेल खाती है, जिसमें पाया गया था कि मांस खाने वाले गुबरैले लगभग 3.5 से 4 करोड़ साल पहले दक्षिण अमेरिका (South America evolution) में विकसित हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

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विद्युत आवेश से निशाना साधते कृमि

वैसे तो यह पता ही है कि कई मामलों में स्थिर विद्युत (static electricity) पेड़-पौधों और जंतुओं की मदद करती है। जैसे यह देखा जा चुका है कि स्थिर विद्युत परागकणों (pollen transfer) को कीटों पर चिपकने में मदद करती है, कीटों को मकड़ी के जालों (spider web) में फंसाने में काम आती है और मकड़ियों को समुद्र पार करने में मददगार होती है।

अब इसी स्थिर विद्युत का एक और करिश्मा (scientific discovery) उजागर हुआ है। वैसे स्थिर विद्युत काफी जानी-पहचानी चीज़ है। जब कंघी को सूखे बालों पर रगड़ते हैं या मोरपंख को कागज़ में से घसीटते हैं तो उनमें आसपास पड़े कागज़ के टुकड़ों को आकर्षित करके चिपकाने का गुण आ जाता है। आजकल प्लास्टिक की कुर्सियों को किसी ऊनी कपड़े से रगड़कर चिंगारियां (electric sparks) पैदा करना बच्चों का पसंदीदा खेल बन गया है। और चिंगारियां इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि कुर्सी पर स्थिर विद्युत आवेश पैदा हो जाता है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस (यूएस) (PNAS study) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि आधा मिलीमीटर साइज़ का एक गोल कृमि (Steinernema carpocapsae) भी इससे लाभान्वित होता है। यह कृमि अपनी साइज़ से 20 गुना तक ऊंची छलांग लगाकर उड़ते कीटों (flying insects) को निशाना बना लेता है और उनके शरीर में जानलेवा बैक्टीरिया डालकर उन्हें मार देता है।

दरअसल इल्लियों और अन्य नुकसानदेह कीटों को मारने के लिए किसान अपने खेतों में गोल कृमि (nematode parasite) छोड़ते हैं। ये जीव खेत में विचरती इल्लियों और कीटों (जैसे फलमक्खियों) को मारने के लिए इनकी ओर हवा में लंबी छलांग लगाते हैं, और अपने मेज़बानों के शरीर में घातक बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) छोड़ देते हैं।

अलबत्ता, निशाना थोड़ा भी चूका तो जानलेवा हो सकता है क्योंकि वहां पहुंचकर भोजन नहीं मिलेगा और सूखने की नौबत आ सकती है। शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि निशाना चूकने की वारदात क्यों नहीं होती।

जांच करने के लिए शोधकर्ताओं ने जीवित फलमक्खी (fruit fly) को लिया और उसे तांबे के तारों से जोड़ दिया। यह फलमक्खी गोल कृमि का आम शिकार है। तांबे का तार फलमक्खी के स्थिर विद्युत आवेश का नियंत्रण करता था। इसके बाद उन्होंने इस मक्खी को Steinernema carpocapsae की एक बस्ती से करीब 6 मिलीमीटर ऊपर लटका दिया। आगे की वारदात स्लो मोशन कैमरा (slow motion camera) पर रिकॉर्ड की गई। देखा गया कि जब मक्खी पर आवेश एक सामान्य उड़ते हुए कीट के आवेश के स्तर का था, तब सारे के सारे 18 गोल कृमि अपने शिकार पर पहुंच गए थे। दूसरी ओर स्थिर विद्युत की अनुपस्थिति में सफलता की दर बहुत कम रही। पूरी वारदात का वीडियो देखने के लिए: https://phys.org/news/2025-10-fatal-electric-worm-aerial-prey.html (स्रोत फीचर्स)

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पश्चिमी देशों में बच्चों में मूंगफली एलर्जी घटी

लर्जी (allergy) कई तरह की चीज़ों से हो सकती है। जैसे धूल से, कुछ फूलों के पराग से, दवाइयों से, या किसी खाद्य पदार्थ से। एलर्जी यानी हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) का उन चीज़ों के प्रति अतिसक्रिय सुरक्षात्मक व्यवहार जिन्हें हमारा शरीर खतरे की तरह भांपता है; हो सकता है कि वे चीज़ें वास्तव में हानिकारक न हों। ऐसी ही एक चीज़ है मूंगफली। पश्चिमी देशों में मूंगफली से एलर्जी (peanut allergy) के सर्वाधिक मामले सामने आते हैं जबकि भारत जैसे देशों में इसका प्रकोप काफी कम है।

मूंगफली से एलर्जी बच्चों में, खासकर शिशुओं (children allergy) में, अधिक होती है। यूं तो जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं और हमारा पाचन तंत्र (digestive system) परिपक्व होने लगता है, वैसे-वैसे यह एलर्जी खत्म हो जाती है। लेकिन इससे ग्रसित 80 प्रतिशत लोगों में यह वयस्क अवस्था में बनी रहती है और एक बार जाने के बाद दोबारा भी उभर सकती है।

पिछले कुछ दशकों में देखा गया था कि मूंगफली से एलर्जी के मामले बढ़ रहे थे। लेकिन वैज्ञानिक पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं कि खाद्य एलर्जी (food hypersensitivity) का कारण क्या है। कुछ का मानना है कि सी-सेक्शन प्रसूतियों की बढ़ती दर, बचपन में एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन (antibiotics use) और बढ़ता हुआ स्वच्छ वातावरण शायद इसके लिए ज़िम्मेदार है।

मूंगफली से एलर्जी में शरीर पर लाल चकत्ते (skin rash), छींकें, मुंह और गले के आसपास खुजली और सूजन, उल्टी-दस्त के अलावा रक्तचाप गिरना, दमा के दौरे (asthma attack), बेहोशी, कार्डिएक अरेस्ट जैसी समस्याएं हो सकती हैं और जान भी जा सकती है। फिर, एलर्जी ऐसी बला है कि इससे निजात भी नहीं पाई जा सकती, क्योंकि अब तक इसका इलाज उपलब्ध नहीं है। हालांकि इसके लक्षणों से निपटने और जान बचाने के लिए कुछ दवाएं ज़रूर मौजूद हैं।

इसलिए जैसे-जैसे खाद्य एलर्जी (food allergy prevention) के मामले बढ़ने लगे, विशेषज्ञों ने सलाह दी कि शिशुओं को मूंगफली जैसी आम एलर्जिक चीज़ों से दूर ही रखें। लेकिन फिर, 2015 में हुए एक परीक्षण (clinical trial) में पाया गया था कि शिशुओं को मूंगफली खिलाने से उनमें एलर्जी विकसित होने की संभावना लगभग 80 प्रतिशत घट जाती है। तब 2017 में, अमेरिका के राष्ट्रीय एलर्जी और संक्रामक रोग संस्थान (National Institute of Allergy and Infectious Diseases) ने औपचारिक रूप से शिशुओं को शुरुआती सालों में मूंगफली खिलाने की सिफारिश कर दी।

हाल ही में पीडियाट्रिक्स (Pediatrics study) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इन दिशानिर्देशों की प्रभाविता जांची। उन्होंने पाया कि 2012-15 की अवधि में 3 साल से कम उम्र के बच्चों में खाद्य एलर्जी की दर 1.43 प्रतिशत थी जो 2017-2020 की अवधि में घटकर 0.93 प्रतिशत रह गई यानी (36 प्रतिशत की कमी हुई)। इस गिरावट का प्रमुख कारण मूंगफली जनित एलर्जी (peanut allergy decline) में 43 प्रतिशत की कमी लगता है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि पहले छोटे बच्चों में मूंगफली की एलर्जी सबसे ऊपर थी लेकिन अब अंडे से होने वाली एलर्जी पहले पायदान पर पहुंच गई है।

अलबत्ता, अध्ययन में इस बात पर नज़र नहीं रखी गई थी कि शिशुओं ने क्या खाया था, इसलिए कहना मुश्किल है कि कमी दिशानिर्देशों के कारण ही आई है। फिर भी, आंकड़े (research findings) आशाजनक हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वन्यजीव अध्ययन को नए आयाम दिए जेन गुडॉल ने

संकेत राऊत

जेन गुडॉल

(3 अप्रैल 1934 – 1 अक्टूबर 2025)

बचपन से ही टारज़न और डॉक्टर डूलिटल जैसी किताबें पढ़ने वाली जेन का सपना था अफ्रीका (Africa) जाना और किताबों के ज़रिए परिचित हुए अपने पसंदीदा जानवरों के साथ काम करना। उन्हें जानवरों के जीवन को गहराई से समझने और उनके बारे में लिखने की तीव्र इच्छा थी। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने कई छोटे-मोटे काम किए, पैसे बचाए और अथक मेहनत की जो उनके दृढ़ निश्चयी (determined personality) होने का प्रमाण है।

शोध और अध्ययन

उनके शोध से यह सिद्ध हुआ कि चिम्पैंज़ियों के भी मनुष्य की तरह व्यक्तित्व होते हैं। इससे यह धारणा गलत साबित हुई कि ‘जानवर केवल आदत के अनुसार व्यवहार करते हैं’। उस समय कई वैज्ञानिक उनके निष्कर्षों से असहमत थे, क्योंकि तब यह विश्वास दृढ़ था कि ‘मनुष्य अन्य प्रजातियों से बिल्कुल अलग है’।

जेन ने जिन चिम्पैंज़ियों का अध्ययन किया, उन्हें पहचान के लिए संख्या नहीं बल्कि नाम दिए। उस समय यह ‘अवैज्ञानिक’ माना जाता था, लेकिन शायद इससे उनके निरीक्षण में भावनात्मक गहराई आई। उनमें से एक चिम्पैंज़ी, डेविड ग्रेबियर्ड (David Greybeard), ने सबसे पहले जेन पर भरोसा किया और पास आने दिया। वह अपने समूह का प्रमुख था, जिससे अन्य चिम्पैंज़ियों ने भी जेन को स्वीकार किया। उसी डेविड ग्रेबियर्ड को जेन ने घास की डंडी की मदद से दीमक निकालते हुए देखा — पहली बार यह साबित हुआ कि ‘मनुष्य के अलावा अन्य प्रजातियां भी औज़ार का उपयोग करती हैं’। इस खोज ने मनुष्य और जानवरों के बीच की सीमा रेखा धुंधली कर दी। नेशनल जियॉग्राफिक (National Geographic) में प्रकाशित इस खोज ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई।

जेन के अध्ययन ने चिकित्सा क्षेत्र (medical research) में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। गॉम्बे के कुछ चिम्पैंज़ियों में SIVcpz नामक वायरस पाया गया, जो मनुष्यों में एड्स उत्पन्न करने वाले वायरस HIV-1 (HIV AIDS research) का निकट सम्बंधी है। अध्ययनों में यह भी पाया गया कि SIVcpz से संक्रमित चिम्पैंज़ियों में CD4+ टी कोशिकाओं की संख्या घटती है, एड्स जैसे लक्षण दिखाई देते हैं और मृत्यु का खतरा 10 से 16 गुना बढ़ जाता है। इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि एड्स का उद्भव संभवत: चिम्पैंज़ी या गोरिल्ला जैसे ऐप (ape) में होकर मानव में हस्तातंरण हुआ; संभवत: शिकार या मांस काटने के दौरान।

इन खोजों की वजह से जेन को आगे के अध्ययन के लिए आर्थिक सहायता (research funding) मिली, जिससे उनका प्रारंभिक पांच महीने का प्रोजेक्ट आगे बढ़कर दुनिया का सबसे लंबा वन्यजीव अध्ययन (longest wildlife study) बन गया जो आज भी 60 वर्षों से अधिक समय से चल रहा है। चिम्पैंज़ियों के दीर्घ जीवनकाल को देखते हुए, उनका दीर्घकालीन अध्ययन आवश्यक भी था। अब तक इस पर लगभग 300 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं।

जेन की यात्रा में डॉ. लुईस लीकी (Louis Leakey) का मार्गदर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने जेन की जिज्ञासा और प्रकृति-प्रेम को पहचाना और उन्हें तंज़ानिया में शोध का अवसर दिया। आगे चलकर, उन्होंने ही जेन को कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी करने का अवसर दिलाया, भले ही उनके पास स्नातक की डिग्री नहीं थी। 1966 में जेन ने गॉम्बे नदी के किनारे संरक्षित क्षेत्र में मुक्त रूप से रहने वाले चिम्पैंज़ियों के व्यवहार (The Behaviour of Free-living Chimpanzees in the Gombe Stream Reserve) विषय पर पीएचडी पूरी की। उनकी शोध पद्धति, नैतिकता और अनुशासन आज भी आदर्श माने जाते हैं।

संरक्षण कार्य

पीएचडी के बाद भी जेन का कार्य रुका नहीं। वे गॉम्बे वापस आ गई लेकिन अब उद्देश्य वन्यजीव संरक्षण था। दुनिया भर में वनों की कटाई और वन्यजीवों के आवासों का विनाश तेज़ी से बढ़ रहा था। गॉम्बे नेशनल पार्क (Gombe National Park) भी इन चुनौतियों से अछूता नहीं था। मानव हस्तक्षेप और चराई के कारण जानवरों में रोगों का संक्रमण बढ़ रहा था; विशेष रूप से चिम्पैंज़ियों में, जो अलग-थलग समूहों में रहते हैं और समूह के बाहर जाकर बिरले ही प्रजनन करते हैं। ऐसी स्थिति में जेन के संरक्षण कार्यों का महत्व और बढ़ गया। जेन के इस कार्य व प्रयासों के चलते 1968 में गॉम्बे स्ट्रीम गेम रिज़र्व को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया।

1977 में उन्होंने जेन गुडॉल इंस्टीट्यूट (Jane Goodall Institute) की स्थापना की। प्रारंभ में इसका उद्देश्य गॉम्बे प्रोजेक्ट को सहायता देना था, लेकिन आगे चलकर यह संस्था वन्यजीव संरक्षण हेतु 25 देशों में सक्रिय हो गई। प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल किए जा रहे जानवरों पर हो रहे अत्याचारों के चलते उन्होंने पशु कल्याण (animal welfare) के लिए भी इंस्टीट्यूट के जरिए वैश्विक अभियान शुरू किया और जन जागरूकता बढ़ाई। 1991 में उन्होंने युवाओं के लिए Roots & Shoots कार्यक्रम (Roots and Shoots program) शुरू किया जो केवल 12 छात्रों से शुरू होकर आज 75 देशों में कार्यरत है। यह कार्यक्रम पर्यावरण, वन्यजीव संरक्षण और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने पर केंद्रित है।

तंज़ानिया के स्थानीय लोगों की भागीदारी से वन्यजीव संरक्षण में मदद के लिए, 1994 में जेन गुडॉल इंस्टीट्यूट ने TACARE (Lake Tanganyika Catchment Reforestation and Education Program) शुरू किया। यह कार्यक्रम स्थानीय ज़रूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया है जो लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए वन्यजीवों के आवासों का पुनर्निर्माण भी करता है। इसके अंतर्गत वृक्षारोपण (reforestation), वानिकी और स्वास्थ्य जैसी पहलें की गईं।

लेखन

जेन ने अपने कार्य पर आधारित कई किताबें लिख कर अपना दूसरा सपना भी पूरा कर दिया। उनकी पहली किताब माय फ्रेंड दी वाइल्ड चिम्पैंज़ीस (My Friends the Wild Chimpanzees) आम लोगों के लिए थी। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक इन दी शेडो ऑफ मैन (In the Shadow of Man) का 48 भाषाओं में अनुवाद हुआ। बच्चों के लिए भी जेन ने बहुत सारी किताबें लिखी हैं। उनके अध्ययन और निरीक्षण पर आधारित किताब दी चिम्पैंज़ीस ऑफ गॉम्बे: पैट्रन ऑफ बिहेवियर (The Chimpanzees of Gombe: Patterns of Behavior) आज भी प्राइमेट व्यवहार विज्ञान की ‘बाइबल’ मानी जाती है।

सम्मान और पुरस्कार

जेन गुडॉल जीवन के अंतिम दिनों तक सक्रिय रहीं। वे हर वर्ष लगभग 300 दिन यात्रा करके व्याख्यान देतीं, नेताओं और उद्यमियों से मिलतीं और वन्यजीव संरक्षण के लिए निधि जुटातीं। उन्हें अपने अथक कार्य के लिए अनेक सम्मान मिले। 2002 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने उन्हें शांतिदूत (‘Messenger of Peace’) घोषित किया। उन्हें गांधी–किंग पुरस्कार (Gandhi King Award) भी प्रदान किया गया। जेन के जीवन पर कई फिल्में और वृत्तचित्र बने। नेशनल जियॉग्राफिक ने उनके जीवन पर आधारित घूमती हुई प्रदर्शनी बिकमिंग जेन (Becoming Jane) बनाई, जो आज भी लोकप्रिय है।

91 वर्ष का समृद्ध जीवन जीकर जेन गुडॉल ने हमें विदा कहा, पर उनका अध्याय यहीं समाप्त नहीं होता। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि विपरीत परिस्थितियों में भी एक महिला अनुसंधान (women in science) में महान कार्य कर सकती है। उन्होंने अनेक पीढ़ियों को प्रेरित किया और असंख्य लोगों में नई आशा जगाई। वे कहा करती थीं, “आप जो भी करते हैं, उसका असर पड़ता है, अब आपको तय करना है कि आप किस तरह का असर चाहते हैं।” जेन का कार्य और विचार आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरणा देते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

दो देखने योग्य वीडियो

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गाज़ा का पुनर्निर्माण: वैज्ञानिकों की भूमिका

गाज़ा में हालिया युद्धविराम (Gaza ceasefire) की घोषणा के बाद एक ओर तो लोग खुशियां मना रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक फिलिस्तीन के स्थानीय वैज्ञानिक (Palestinian scientists), शिक्षक और योजनाकार पुनर्निर्माण की ज़िम्मेदारी नहीं संभालते, तब तक गाज़ा को फिर से खड़ा करना मुश्किल होगा।

यह चेतावनी उन शोधकर्ताओं (researchers on Gaza reconstruction) की है जो युद्ध के बाद पुनर्निर्माण और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं। उनका मानना है कि यदि यह काम विदेशी संस्थाओं या सरकारों के हाथों में दिया गया, तो पहले जैसी गलतियां दोहराई जा सकती हैं और असली जानकार यानी जो अपनी ज़मीन और समाज की ज़रूरतों को समझते हैं वे पीछे रह जाएंगे।

गौरतलब है कि अमेरिका द्वारा तैयार और इस्राइल द्वारा मंज़ूर की गई योजना के तहत, हमास द्वारा अपने हथियार डालने (Hamas disarmament), बंधकों को रिहा करने और राजनीति से पीछे हटने की उम्मीद है। बदले में इस्राइल अपनी सैन्य कार्रवाई रोकने, सेना को गाज़ा से हटाएगा, मानवीय सहायता (humanitarian aid in Gaza) बढ़ाने और संयुक्त राष्ट्र को क्षेत्र में काम करने की अनुमति देगा। हालांकि इस योजना में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि गाज़ा का पुनर्निर्माण कैसे होगा और उससे भी महत्वपूर्ण कि कौन करेगा।

अक्टूबर 2023 में शुरू हुए इस्राइल के सैन्य अभियान (Israel Gaza conflict 2023) ने गाज़ा को पूरी तरह तबाह कर दिया। अगस्त के अंत तक सहायता पर लगे प्रतिबंधों के कारण लोगों को खाने की भारी कमी का सामना करना पड़ा। एक स्वतंत्र समिति की रिपोर्ट के अनुसार, पांच लाख से अधिक लोग भुखमरी (Gaza famine crisis) से जूझ रहे हैं। वहीं, दी लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार पांच साल से छोटे लगभग 55,000 बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं।

मानव संसाधन (human resources in Gaza) के स्तर पर भी स्थिति बहुत खराब है। 2200 से अधिक डॉक्टर्स, नर्सें और शिक्षक मारे जा चुके हैं। युनेस्को के अनुसार, लगभग 80 प्रतिशत विश्वविद्यालय और कॉलेज या तो क्षतिग्रस्त हो गए हैं या पूरी तरह ढह गए हैं, जिससे करीब 88,000 विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी है।

दक्षिण अफ्रीका स्थित नेल्सन मंडेला युनिवर्सिटी के शोधकर्ता सावो हेलीटा का अनुमान है कि युद्ध में गाज़ा के उच्च शिक्षा क्षेत्र (higher education in Gaza) को लगभग 222 मिलियन डॉलर (1950 करोड़ रुपए) का नुकसान हुआ है। उनका कहना है कि इसे दोबारा खड़ा करने में करीब एक अरब डॉलर लग सकते हैं, क्योंकि निर्माण से पहले मलबा हटाना और बमों को निष्क्रिय (bomb disposal in Gaza) करना होगा।

इस काम के लिए आवश्यक सहायता राशि मुख्य रूप से खाड़ी देशों और तुर्की से मिलने की संभावना है। हालांकि पहले के वर्षों में फिलिस्तीनी विश्वविद्यालयों को सालाना लगभग 20 मिलियन डॉलर की बहुत कम आर्थिक सहायता (financial aid for Gaza universities) मिलती थी।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पुनर्निर्माण केवल इमारतों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसके साथ में ऑनलाइन शिक्षा (online learning in Gaza) को जारी रखना होगा, विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना होगा और गाज़ा के शोधकर्ताओं को दुनिया के शैक्षणिक समुदाय से दोबारा संपर्क (global academic collaboration) बनाना होगा। चूंकि गाज़ा के अधिकांश विश्वविद्यालय विद्यार्थियों की फीस पर निर्भर हैं, ऐसे में सुझाव है कि अंतर्राष्ट्रीय सहायता से फीस भरी जाए ताकि विश्वविद्यालय पुनर्निर्माण के दौरान भी चलते रहें।

स्थानीय विशेषज्ञता की ताकत

विशेषज्ञों का मानना है कि गाज़ा के पुनर्निर्माण का नेतृत्व उन्हीं फिलिस्तीनियों को करना चाहिए जो अपनी ज़मीन, संस्कृति और समाज को सबसे अच्छी तरह जानते हैं। गाज़ा के शिक्षाविदों (Gaza academics) के पास अपनी धरती और लोगों की अनोखी और गहरी समझ है, जिसे कोई बाहरी व्यक्ति नहीं समझ सकता। इसके अलावा गाज़ा के माहौल को फिर से बसाने में उन लोगों की भागीदारी ज़रूरी है जो वहां रहेंगे और इसके परिणामों को झेलेंगे। इलाके के भविष्य से जुड़े फैसले उन्हीं समुदायों से आने चाहिए जो सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं।

लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प की पुनर्निर्माण योजना (Trump Gaza reconstruction plan) के तहत, गाज़ा की सार्वजनिक सेवाएं एक ‘तकनीकी समिति’ चलाएगी, जिसमें कुछ फिलिस्तीनी और कुछ अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ होंगे। इस समिति की निगरानी ‘बोर्ड ऑफ पीस’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय करेगा, जिसका नेतृत्व खुद ट्रम्प करेंगे और जिसमें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर भी शामिल होंगे।

कई विशेषज्ञों के लिए यह व्यवस्था काफी चिंताजनक है, क्योंकि उन्हें डर है कि इससे फिलिस्तीनी नेतृत्व (Palestinian leadership) को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। कतर स्थित हमद बिन खलीफा युनिवर्सिटी (Hamad Bin Khalifa University) के प्रोफेसर सुल्तान बराकात चेतावनी देते हैं कि अगर यह समिति ‘कब्ज़े का प्रबंधन’ बनकर रह गई, तो कई सम्मानित शिक्षाविद इसमें शामिल होने से इंकार कर देंगे। असली पुनर्निर्माण तभी संभव है जब फिलिस्तीनियों को योजना बनाने से लेकर शिक्षा और पर्यावरण सुधार (education and environment reform) तक में नेतृत्व और अधिकार दिया जाए।

इसी तरह का विचार गाज़ा युनिवर्सिटी (Gaza University) के पूर्व अध्यक्ष और शोधकर्ता फरीद अल-कीक का भी है जिन्होंने युद्धविराम के जश्न के दौरान कहा कि “आज खुशी और उम्मीद का दिन है, लेकिन गाज़ा का भविष्य गाज़ा के लोगों के हाथों से ही बनना चाहिए।” (स्रोत फीचर्स)

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अब खून बताएगा थकान की असली वजह

वैज्ञानिक अब खून की एक सरल जांच विकसित करने के करीब हैं, जिससे क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (CFS) (blood test for Chronic Fatigue Syndrome) या मायाल्जिक एन्सेफेलोमेलाइटिस (ME) (Myalgic Encephalomyelitis diagnosis) का निदान आसानी से किया जा सकेगा। CFS की वजह से लाखों लोग वर्षों तक लगातार थकान और ऊर्जा की कमी से पीड़ित रहते हैं।

ब्रिटेन स्थित युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया (University of East Anglia research) के शोधकर्ताओं के नए अध्ययन में पाया गया कि ME/CFS से पीड़ित लोगों की रक्त कोशिकाओं में एपिजेनेटिक (epigenetic changes in CFS) बदलाव होते हैं। ये ऐसे रासायनिक परिवर्तन हैं जो जीन के काम करने के तरीके को प्रभावित करते हैं, हालांकि जीन की संरचना में कोई बदलाव नहीं होता। दशकों से पहेली बनी इस बीमारी के निदान के लिए यह खोज एक भरोसेमंद परीक्षण विकसित करने में मदद कर सकती है।

गौरतलब है कि CFS दुनिया भर में लगभग 1.7 से 2.4 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है। लेकिन कोई निश्चित जांच न होने के कारण इसे अक्सर पहचाना नहीं जाता या अन्य बीमारियों के साथ जोड़ लिया जाता है। मरीज़ न केवल अत्यधिक थकान से जूझते हैं, बल्कि बदन दर्द, नींद की समस्याएं और एकाग्रता में कठिनाई का सामना भी करते हैं।

डॉ. दिमित्रि पीशेज़ेत्स्की की शोध टीम ने एक विशेष एपिजेनेटिक परीक्षण का इस्तेमाल किया, जिससे यह पता लगाया गया कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells in ME/CFS) के अंदर डीएनए कैसे व्यवस्थित होता है। 47 गंभीर मरीज़ों और 61 स्वस्थ लोगों के रक्त नमूनों की तुलना में इस परीक्षण ने 96 प्रतिशत मामलों में सही पहचान की, जिससे इसके भविष्य में शक्तिशाली नैदानिक विधि (clinical diagnostic tool) बनने की संभावना है।

अध्ययन में पाया गया कि जीन और एपिजेनेटिक स्तर पर बदलाव प्रतिरक्षा और शोथ प्रतिक्रिया (immune response in CFS) से जुड़े हैं, जो ME/CFS में प्रतिरक्षा प्रणाली के असंतुलन का संकेत देते हैं। ये बदलाव नॉन-कोडिंग डीएनए (non-coding DNA regions) में पाए गए, जो प्रोटीन नहीं बनाते बल्कि अन्य जीन के चालू या बंद होने को नियंत्रित करते हैं।

यह अध्ययन एक बड़ी सफलता (scientific breakthrough in CFS research) है, लेकिन विशेषज्ञों ने और शोध की आवश्यकता जताई है। कॉर्नेल युनिवर्सिटी (Cornell University study) की डॉ. केटी ग्लास, जो स्वयं कभी ME/CFS से पीड़ित रही हैं, ने इसे सराहा लेकिन कहा है कि यह अध्ययन बहुत छोटे स्तर पर हुआ है, इसलिए इसे अभी निदान के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। फिर भी यह लंबे समय से इस अबूझ बीमारी (mystery illness) से जूझ रहे लाखों लोगों के लिए उम्मीद जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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पाषाणकालीन चित्रकारों के पास नीला रंग भी था

ध्यप्रदेश के भोपाल के पास स्थित भीमबेटका शैलाश्रय (Bhimbetka rock shelters) और होशंगाबाद में स्थित आदमगढ़ की पहाड़ियां पुरापाषाण (Paleolithic period) और नवपाषाण युगीन पुरातात्विक स्थल (archaeological sites) हैं। ये शैलाश्रय उस युग के मनुष्यों द्वारा बनाए गए शैलचित्रों (रॉक पेंटिंग्स) के लिए प्रसिद्ध हैं और पुरातात्विक महत्व रखते हैं। इनमें तरह-तरह की आकृतियों में बने शैलचित्र मिलते हैं: शिकार करते मनुष्यों के, उस समय की वनस्पतियों के, जीव-जंतुओं आदि के चित्र मिलते हैं। लेकिन ये चित्र गेरूआ या/और सफेद रंग से ही बने हैं। और लगभग यही बात प्रागैतिहासिक काल के सभी शैलाश्रयों में दिखती हैं: विविध तरह की आकृतियों में बनाए गए शैलचित्रों में बस काले, लाल-गेरूए, सफेद और हल्के पीले रंग का ही इस्तेमाल दिखता है। ऐसा लगता था कि इस समय के चित्रकारों के पास नीला रंग था ही नहीं, इसलिए वह चित्रों से भी गायब ही रहा। नीले रंग के इस्तेमाल का पहला प्रमाण आज से 5000 साल पहले की कृतियों में मिलता है, जो मिस्र में नीले रंग (Egyptian blue pigment) के आविष्कार की बात कहता है।

पुरातत्वविदों (archaeologists) को प्राचीन कृतियों में नीले रंग के नदारद होने का एक कारण यह लगता है कि गेरूए और काले रंग के विपरीत, नीला रंग प्रकृति में सीधे तौर पर नहीं मिलता। हालांकि कुछ वनस्पतियों से इसे हासिल किया जा सकता है लेकिन इसे हासिल करने के लिए एक लंबी प्रक्रिया करनी पड़ती है, और फिर इनसे हासिल रंग समय के साथ उड़ भी जाते हैं। या फिर अफगानिस्तान की खदानों में मौजूद लाजवर्द (Lapis Lazuli) पत्थरों से नीला रंग हासिल किया जा सकता था, लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय के लोगों की इस तक पहुंच नहीं थी।

लेकिन हाल ही में एंटिक्विटी (Antiquity journal) में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि नीले रंग का इस्तेमाल अनुमान से कहीं पहले होने लगा था: लगभग 13,000 साल पहले मध्य जर्मनी के कलाकार नीला रंग अपनी कृतियों में भर रहे थे।

दरअसल 1970 में मध्य जर्मनी के मुलहाइम-डाइटशाइम नामक खुदाई स्थल (जो 13,000 पहले शिकारी-संग्राहक समूह का निवास स्थल था) (archaeological excavation site) से लगभग हथेली जैसी आकृति का और उसी जितना बड़ा पत्थर मिला था। इस पत्थर को देखकर पुरातत्वविदों ने इसे दीये के रूप में पहचाना था। उसके बाद से यह संग्रहालय में रखा रहा। कुछ समय पहले जब शोधकर्ता इस पत्थर की दोबारा जांच-पड़ताल कर रहे थे, तब उन्हें इसकी सतह पर नीले रंग के छोटे-छोटे से धब्बे दिखाई दिए। पहले तो लगा कि शायद संग्रहालय के रख-रखाव या सफाई-पुताई के दौरान इस पत्थर में ये धब्बे लग गए हैं। लेकिन जब इन धब्बों की एक्स-रे फ्लोरेसेंस (X-ray fluorescence analysis)  और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी स्कैनिंग की तो पता चला कि यह कोई आज की रंगाई-पुताई के रंग के धब्बे नहीं हैं बल्कि ये धब्बे तो एज़ुराइट के रंग हैं, जिससे उन्होंने इस पत्थर पर संभवत: रंग-बिंरगी धारियां बनाई थी। गौरतलब है कि एज़ुराइट (Azurite mineral pigment) एक दुर्लभ लेकिन प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला नीला खनिज है जो जर्मनी में कई स्थानों पर पाया जाता है।

प्रागैतिहासिक मानव बस्तियों (prehistoric settlements) के पास से मिले एक साधारण पत्थर पर नीले रंग की उपस्थिति से पता चलता है कि वहां के लोग नीले रंग से वाकिफ थे और इस रंगत के लिए एज़ुराइट का इस्तेमाल करते थे। लेकिन हो सकता है किसी कारणवश या सांस्कृतिक पसंद के कारण उन्होंने इसका इस्तेमाल शैलाश्रय के चित्रों में नहीं किया। शायद वे नीले रंग का इस्तेमाल लकड़ी, बर्तन या कपड़ों पर चित्रकारी (ancient body art or textile dye) या शरीर पर टैटू के लिए करते होंगे। और ऐसी चीज़ें समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, इसलिए नीले रंग के प्रमाण नहीं मिलते हों।

और, ऐसा लगता है कि सिर्फ जर्मनी में पुरापाषाणकालीन लोग ही नीले रंग का इस्तेमाल नहीं करते थे, बल्कि उससे काफी पहले के जॉर्जियावासी भी करते थे। दरअसल जॉर्जिया के एक खुदाई स्थान से प्राप्त 33,000 साल पुराने सिल-बट्टे के पत्थर पर नीला रंग देने वाले पौधे (नील का पौधा, Isatis tinctoria) के अवशेष मिले हैं।

गौरतलब है कि नील के पौधे को खाया नहीं जाता है। चूंकि इससे किसी तरह का पोषण नहीं मिलता है इसलिए सिल-बट्टे के पत्थर पर इसे पीसने के प्रमाण मिलना इसके भोजन के इतर किसी उपयोग की ओर इशारा करता है। हम यह भी जानते हैं कि इस पौधे से नीला रंग बनाने के लिए सबसे पहले इसकी पत्तियों को कूटना-पीसना पड़ता है। और सिल-बट्टे पर नील के अवशेष दर्शाते हैं कि जॉर्जियावासियों ने भले ही नीले रंग का इस्तेमाल किया हो या नहीं, लेकिन वे इसे हासिल करने की कोशिश तो कर ही रहे थे।

बहरहाल ऐसे सिर्फ दो प्रमाण मिले (ancient pigment evidence) हैं: एक रंग के इस्तेमाल के और दूसरा इसे बनाने के प्रयास के। व्यापक इस्तेमाल की पुष्टि के लिए कई और प्रमाण खोजने की ज़रूरत है। हालांकि कुछ पुरातन चीज़ों के साथ समस्या यह है कि वे समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, ऐसे में व्यापक इस्तेमाल के बावजूद उनके उतने प्रमाण नहीं मिलते। एक बात यह है कि अब तक वैज्ञानिक मानकर चल रहे थे कि पाषाणकालीन लोगों के पास नीला रंग था ही नहीं। यह शोध अब उनके शैलचित्रों या उनकी अन्य कलाकृतियों में नया रंग तलाशने की प्रेरणा देगा। (स्रोत फीचर्स)

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