कुदरत को संवारती तितलियां

डॉ. पीयूष गोयल

तितलियां उड़ते हुए फूल हैं, और फूल बंधी हुई तितलियां हैं” – पोंस डेनिस एकौचर्ड लेब्रुन

प्रकृति के रहस्यों में फूल और तितलियों का सामंजस्य किसी से नहीं छिपा है। लेकिन मनुष्य सहित उनके अनेक प्राकृतिक दुश्मन हैं; जैसे कीट, पक्षी, छिपकलियां आदि। 2006 में ब्रिटिश काउंसिल द्वारा निर्मित, सोन्या वी. कपूर द्वारा निर्देशित प्रसिद्ध डाक्यूमेंटरी फिल्म ‘वन्स देयर वाज़ ए पर्पल बटरफ्लाई’ में इनके अवैध व्यापार (illegal butterfly trade) को दर्शाया गया है। तितलियों की कई प्रजातियों को भारत से चीन, ताइवान और कई अन्य देशों में तस्करी (butterfly smuggling), अंतर्राष्ट्रीय बाज़ारों (international wildlife market) में सजावट और अन्य सजावटी मूल्य के लिए जीवित या मृत ले जाया जाता है।

तितलियां फूलों से भले ही रसपान करती हैं, पर उनकी मौजूदगी कभी भी फूलों की सुंदरता को नष्ट नहीं करतीं। यह मनुष्य के लिए एक बड़ा सबक होना चाहिए।

Text Box: बायोसाइंस में प्रकाशित एक शोध पत्र में बताया गया है कि मोनार्क तितलियां कृषि उत्पादन के लिए बहुत आवश्यक हैं। गर्मी में प्रजनन के दौरान मैदान में मादा मोनार्क अत्यधिक सक्रिय देखी गई हैं। जब उनकी इल्ली (कैटरपिलर) मिल्कवीड की पत्तियों का दूधिया रस पी लेती हैं तो ये कैटरपिलर ही नहीं, उनसे निकलने वाली वयस्क तितलियां भी पक्षियों और अन्य शिकारियों के लिए अप्रिय भोजन बन जाती हैं। कृषि परिदृश्य में उपचारित खेतों के पास मिल्कवीड के पौधे कहीं भी लगाए जा सकते हैं।तितलियां जब एक फूल से दूसरे फूल पर विचरण करती हैं, तो वे अपने नन्ही-नन्ही टांगों तथा अपनी छोटी-सी सूंड पर फूलों के कुछ परागकण समेटकर दूसरे फूल पर ले जाती हैं। इससे पेड़-पौधों में प्रजनन शुरू होता है। परागकणों को एक से दूसरे फूल तक पहुंचाकर तितलियां कई वनस्पतियों, खास कर गाजर, सूरजमुखी, फलियों और पुदीना आदि के पौधों में फूलों से फल बनने की प्रक्रिया (pollination process) में सहायता करती हैं; अर्थात हमारी भोजन की थाली में बहुत सारी हरी-भरी सब्ज़ियों (vegetable pollination) को पहुंचाने में मदद करती हैं, जिन्हें हम अनदेखा करते हैं। अर्थशास्त्रियों ने इन सभी परागणकर्ताओं की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं (ecosystem services by pollinators) का मूल्यांकन लगभग 235-577 अरब अमेरिकी डॉलर आंका है। धीरे-धीरे अब इन पौधों और परागण करने वाले जीवों का आपसी सम्बंध टूटने से जैव-विविधता (biodiversity loss) और खेती पर बुरा असर पड़ने लगा है। समय आ गया है कि तितलियों की पारिस्थितिकी तंत्र सेवाओं के लिए उनकी सराहना और समर्थन किया जाए।

तितलियों की समृद्ध पारिस्थितिकी के लिए पर्यावरणीय कारकों, जैसे नमी, तापमान और उनकी इल्लियों के लिए पोषक पौधों की उपलब्धता ज़रूरी है। चूंकि तितलियां विशिष्ट पौधों पर ही अंडे देती हैं, इनके लिए घरों की छतों पर या बागवानी वाली जगह (butterfly gardening) पर सुगंधित, मीठे, रंग-बिरंगे फूलों वाले पौधे लगाए जा सकते हैं। एक टिकाऊ तितली उद्यान (butterfly habitat garden) बनाने के लिए दो प्रकार के पौधे लगाए जा सकते हैं: (1) पोषक पौधे – पीले सूरजमुखी, ब्लैक-आइड सुसान, गोल्डनरॉड्स, गुलाबी जो-पाई वीड, फायरवीड, रेड बी बाम/बर्गमोट, मेक्सिकन सूरजमुखी, बैंगनी कोनफ्लॉवर, वर्बेना, जंगली एस्टर्स, आयरनवीड, लंबा बुडालिया जैसे पौधे तितलियों को पसंद आने वाले रंगों से भरपूर पौधे होते हैं, जिन पर तितलियां अंडे देती हैं, तथा वे उनकी इल्लियों (कैटरपिलर) के लिए भोजन का काम करते हैं, तथा (2) मकरंद पौधे – ये वयस्क तितलियों के लिए भोजन का काम करते हैं। तितलियां खुली धूप वाली जगह पसंद करती हैं, हवादार जगह पर उन्हें हवा से बचाने के लिए जितना सम्भव हो सके प्रयास करना चाहिए। हालांकि तितलियों को पानी पीने के लिए कीचड़-भरी जगह पसंद होती है, लेकिन एक उथला कटोरा और उसके चारों तरफ पानी में भीगा स्पंज रखने से उनके नाज़ुक शरीर के उतरने में मदद होती है। झुंड को बुलाने के लिए बगीचे में गीली रेत का कटोरा रखा या मिट्टी का पोखर (mud puddling zone for butterflies) भी बनाया जा सकता है।

इनकी आबादी और विविधता को संरक्षित (butterfly conservation) करने के लिए भारत के कई राज्यों में तितली पार्कों (butterfly parks in India) की स्थापना की गई है। पर कुछ ही स्थानों पर इनका संरक्षण करना जैव विविधता को बढ़ावा नहीं देगा, इसके लिए सभी के प्रयास की ज़रूरत होगी।

कई लोग तितलियों को सजावट और सजावटी सामानों के रूप में बड़े पैमाने पर दीवारों पर, कागज़ों पर सजाते हैं, और इनका अन्य तरह से इस्तेमाल भी किया जाता है। कई देशों में रात में शादी समारोह (wedding butterfly release) में बड़ी संख्या में तितलियां छोड़ी जाती हैं। शोरगुल वाले माहौल में वे उड़ नहीं पाती हैं, और मर जाती हैं। हमें अपना व्यवहार बदलने की ज़़रूरत है।

यहां यह बता देना लाज़मी है कि परागण की विशेषज्ञ होने के साथ-साथ तितलियां जैव-संकेतक (bioindicators of ecosystem health) हैं, और पारिस्थितिकी तंत्र में होने वाले मामूली और छोटे-छोटे बदलावों को भांपकर संकेत दे सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया की भोजन आपूर्ति के लिए जलीय कृषि

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत ने जलीय कृषि (Aquaculture) (यानी मछली, झींगा वगैरह को पालना) को अपना कर आबादी की पोषण सम्बंधी ज़रूरतों की पूर्ति करने में काफी प्रगति की है। जलीय कृषि में, भारत विश्व का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है। झींगा (Prawns) उत्पादन (Prawns farming) में भारत विश्व में दूसरे पायदान पर खड़ा है। भारत में, आंध्र प्रदेश इसका सर्वाधिक उत्पादक राज्य है, इसके बाद पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओडिशा और गुजरात का नंबर आता है।
वास्तव में, लोगों की आहार सम्बंधी प्राथमिकताएं भी बदल गई हैं – झींगे में प्रोटीन अधिक और वसा कम होने के चलते, देश और विदेश, दोनों ही बाज़ारों (Seafood market) में इनकी मांग बढ़ रही है। कई उद्योग जलीय कृषि में मदद करते हैं। जैसे जलीय जीवों का आहार (Aquafeed) उपलब्ध कराना, उनमें संक्रमण नियंत्रण पर काम करना आदि। किसान और स्थानीय उद्यमी दोनों ही लगातार ऐसे नए उपाय खोजते रहते हैं जो पैदावार बढ़ाने के साथ-साथ उत्पाद की गुणवत्ता भी बढ़ाएं, और जलवायु परिवर्तन से होने वाली पर्यावरणीय चुनौतियों (Climate impact on aquaculture) से निपटें।
आम बोलचाल में अक्सर प्रॉन (prawn) और श्रिम्प (shrimp) दोनों को झींगा कहा जाता है, जबकि जीव विज्ञान की दृष्टि से दोनों अलग-अलग प्रजातियां हैं। झींगा पालन में ब्लैक टाइगर झींगा (Black Tiger Shrimp) (Penaeus monodon) बेशकीमती उत्पाद है। जहां भी परिस्थितियां अनुकूल हों वहां ब्लैक टाइगर झींगे की खेती (पालन) (Tiger shrimp farming) की जा सकती है। किसान इनको पालकर बाज़ार की मांग को पूरा कर पाते हैं; ये झींगे एक किलोग्राम में 30 या उससे कुछ कम संख्या में चढ़ते हैं। कई जलीय प्रजातियों की तरह इन झींगों के पालन के लिए भी तालाब के पानी का एक निश्चित मात्रा में लवणीय (खारा) होना ज़रूरी होता है: प्रति लीटर पानी में 10-25 ग्राम लवण होना झींगों के फलने-फूलने के लिए अच्छा होता है। गौरतलब है कि समुद्र के पानी में प्रति लीटर 35 ग्राम लवण होते हैं।
पश्चिम बंगाल के मिदनापुर ज़िले जैसे निचले इलाकों में जलीय जीवों का पालन करने के लिए ज्वार के दौरान चढ़े समुद्री पानी को कृषि तालाबों में भर लिया जाता है। आंध्र प्रदेश के तटीय व अन्य इलाकों का भूजल खारा है तो इन स्थानों में जलीय जीव पालन के लिए तालाबों में भूजल के साथ नदी-नहरों का मीठा पानी मिला दिया जाता है।
एक सामान्य कृषि तालाब (Shrimp pond) लगभग 150 मीटर लंबा, 100 मीटर चौड़ा और लगभग दो मीटर गहरा होता है। एक पालन चक्र (Culture cycle) चार से छह महीने का होता है। प्रत्येक पालन चक्र के बाद तालाब का पानी खाली कर दिया जाता है, और अगले चक्र की तैयारी के लिए तालाब सुखा दिया जाता है। झींगों की बेहतर पैदावार के साथ-साथ रोगाणुओं पर कारगर नियंत्रण के लिए आंध्र प्रदेश के बापटला ज़िले के एक उद्यमी किसान शिव राम रुद्रराजू छोटे तालाब बनाने की सलाह देते हैं। क्योंकि यदि बीमारी फैलती है तो छोटे तालाब प्रसार अधिक नहीं होने देंगे, नतीजतन आर्थिक नुकसान कम होगा। देखा गया है कि विब्रियो हार्वेई (Vibrio harveyi) जैसे रोगजनक बैक्टीरिया (Vibrio harveyi disease) झींगा पालन के लिए गंभीर खतरा हैं। भारत में, इनके चलते वार्षिक उपज में 25 प्रतिशत तक नुकसान हो सकता है। प्रकोप के वर्षों में व्हाइट स्पॉट सिंड्रोम वायरस (White Spot Syndrome Virus – WSSV) इससे भी अधिक हानिकारक हो सकता है।
कई प्रयोगशालाएं झींगा पालन तालाबों में संक्रामक सूक्ष्मजीवों की पहचान करने के लिए परीक्षण सेवाएं दे रहीं हैं (Disease diagnostic services) । चूंकि किसानों को आजू-बाजू के तालाबों में रोग फैलने का डर होता है, इसलिए संक्रमित तालाब की पहचान होने पर उसे फौरन ही खाली कर दिया जाता है।
आम तौर पर कौवे रोगजनकों को फैलाते हैं; वे संक्रमित झींगों को पकड़ते हैं, उड़ते हुए इन संक्रमित झींगों को अन्य तालाबों में गिरा सकते हैं। इसके लिए भी एहतियात बरती जाती है; अक्सर तालाबों को प्लास्टिक की जाली से ढंककर रख जाता है। लेकिन कभी-कभी कौवों को मारने के लिए शिकारियों को भी तैनात किया जाता है।
हमारे यहां के किसानों ने रोगजनकों को थामने के लिए अन्य तरीके अपनाए हैं। तालाब के पानी में प्रोबायोटिक्स (Probiotics in aquaculture) मिलाए जाते हैं। इन प्रोबायोटिक्स में बैसिलस बैक्टीरिया होते हैं जो झींगे को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं लेकिन रोगजनक सूक्ष्मजीवों की तुलना में तेज़ी से वृद्धि करके रोगजनकों को परास्त कर देते हैं।
एक अन्य तरीका है नर्सरी में पाले गए झींगा शिशुओं से झींगा पालन शुरू करना (Nursery rearing of shrimp)। चेन्नई में केंद्रीय खारा जलकृषि संस्थान ने विशिष्ट रोगज़नक मुक्त झींगों की किस्म (Specific Pathogen Free – SPF shrimp) विकसित करने का बीड़ा उठाया है। रोगजनकों से सुरक्षित माहौल में विकसित ये झींगे कुछ खास रोगजनकों से मुक्त होने के लिए प्रमाणित होते हैं।
रोगजनक मुक्त रखने का एक अन्य तरीका है ‘फेज थेरेपी’ (Phage therapy in aquaculture)। फेज थेरेपी में बैक्टीरियाभक्षी वायरस का उपयोग किया जाता है। ये बैक्टीरियाभक्षी वायरस केवल विब्रियो बैक्टीरिया को ढूंढ-ढूंढकर संक्रमित करते हैं और मार देते हैं।
चाहे अनुभवी किसानों द्वारा खेत में विकसित किए जा रहे हों, या अनुसंधानों से विकसित किए जा रहे हों, अच्छी बात यह है कि इन मिले-जुले प्रयासों से आज भारत में वार्षिक झींगा उत्पादकता 17 प्रतिशत (Shrimp productivity in India) बढ़ गई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नई तकनीकों के रूबरू जैविक हथियार संधि

चास वर्ष पूर्व जैविक हथियारों (Bioweapons) पर रोक लगाने के लिए बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन  (BWC) नामक संधि अपनाई गई थी (biological weapons treaty)। इसका मकसद ऐसे हथियारों को प्रतिबंधित करना था जिनमें जीवित जीवों या उनके उत्पादों, जैसे बैक्टीरिया, वायरस और विषाक्त पदार्थों को जानबूझकर किसी शत्रु या समूह को मारने या नुकसान पहुंचाने के लिए उपयोग किया जाता है (bacteria virus weaponization)।

1975 में लागू हुई यह संधि दुनिया की पहली ऐसी कोशिश थी जिसने एक वर्ग के विनाशकारी हथियारों को गैरकानूनी (WMD ban) घोषित किया। इस संधि की वजह से 20 से ज़्यादा जैविक हथियार कार्यक्रम बंद हुए – जिनमें एंथ्रेक्स, स्मॉलपॉक्स (चेचक) जैसे घातक रोग और खेती या पशुओं को नुकसान पहुंचाने वाले वायरस भी शामिल थे (anthrax, smallpox weapons ban)।

लेकिन आज का दौर कहीं ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और आधुनिक तकनीकों की मदद से अब प्रयोगशाला में आसानी से ऐसे कृत्रिम वायरस बनाए जा सकते हैं (synthetic virus creation) जो पहले संभव नहीं था। और तो और, इन्हें वैज्ञानिक शोध की आड़ में छुपाया (biotech misuse) भी जा सकता है। चिंता की बात यह है कि BWC में इन नए खतरों को रोकने या पकड़ने के लिए कोई मज़बूत व्यवस्था नहीं है (BWC loopholes)।

दरअसल BWC की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें यह जांचने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि देश जैविक सुरक्षा के लिए बनाए गए नियमों का पालन (verification mechanism missing) कर रहे हैं या नहीं। न कोई औचक निरीक्षण, न पारदर्शिता, और न ही उल्लंघन पर सज़ा का प्रावधान (lack of enforcement in BWC)।

फिर, वर्तमान युग आधुनिक तकनीकों का ज़माना है। जीन संपादन, संश्लेषण जीव विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से अब खतरनाक जीवाणु और वायरस बनाना (gene editing bioweapons) पहले से कहीं आसान हो गया है। इसलिए विशेषज्ञों को डर है कि इन तकनीकों के दुरुपयोग से ऐसे जैविक हथियार बनाए जा सकते हैं जो प्राकृतिक रोगों से भी ज़्यादा संक्रामक, लाइलाज और खास समुदायों को निशाना बनाने वाले हो सकते हैं (targeted bioweapons risk)।

पहले की तरह अब बात सिर्फ देशों तक सीमित नहीं है। जैसे-जैसे जैव तकनीक सस्ती और आसान होती जा रही है, वैसे-वैसे आतंकवादी समूह या कोई भी व्यक्ति अपने मतलब के लिए इनका गलत इस्तेमाल कर सकता है (bioterrorism threats)। जो तकनीक पहले सिर्फ सरकारी प्रयोगशालाओं में थी, वो अब निजी कंपनियों और विश्वविद्यालयों में भी उपलब्ध (biotech democratization risk) है। यही बात जैव सुरक्षा विशेषज्ञों को सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है।

हो सकता है कोई अपनी स्वार्थ-सिद्धी के लिए किसी व्यस्त बंदरगाह पर खतरनाक वायरस छोड़ दे, और बाद में पास की किसी प्रयोगशाला पर हादसे का इल्ज़ाम (biosecurity false flag attack) लगा दे। इससे जो भ्रम और डर फैलेगा वह खुद बीमारी से ज़्यादा नुकसान करेगा (public panic and misinformation)।

न्यूक्लियर थ्रेट इनिशिएटिव (NTI) जैसे कुछ संगठन इस संदर्भ में नई तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसे:

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI biosecurity monitoring) से व्यापारिक डैटा, शोध पत्र और उपग्रह तस्वीरों की मदद से संदेहास्पद गतिविधियां पकड़ी जा सकती हैं।

डीएनए बनाने वाली कंपनियां (DNA synthesis screening) खास सॉफ्टवेयर से खतरनाक जीन्स पकड़ सकती हैं।

कुछ दवा कंपनियां निरीक्षण कार्य में मदद कर सकती हैं ताकि संधि उल्लंघन का पता लगाया जा सके (pharma compliance support)।

लेकिन ये व्यवस्थाएं भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। मिनेसोटा युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि कैसे सामान्य 20 के अलावा अन्य अमीनो एसिड्स से खतरनाक प्रोटीन्स बनाकर सॉफ्टवेयर को भी चकमा दिया जा सकता है (AI evasion by engineered proteins)। इससे पता चलता है कि हमारी मौजूदा सुरक्षा तकनीकों में अभी भी गंभीर खामियां (biosecurity gaps) हैं।

BWC को मज़बूत करने की कोशिशें ठप पड़ी हैं। 2024 की एक बैठक में रूस ने ज़रूरी प्रस्तावों को रोक दिया, जिससे निरीक्षण और सहयोग की योजनाएं आगे नहीं बढ़ सकीं (BWC stalemate 2024)। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही सीमित स्तर पर ही सही, निरीक्षण शुरू किए जाएं तो नियम तोड़ने वालों को हथियार छिपाना या नष्ट करना पड़ेगा। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की अब भी कमी है (lack of political will)।

फिर भी कुछ उम्मीदें ज़रूर हैं। NTI द्वारा शुरू की गई ‘इंटरनेशनल बायोसेक्योरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइंस’ एक वैश्विक पहल है जो जैव तकनीक को दुरुपयोग से बचाने के लिए दिशा-निर्देश और उपकरण विकसित (global biosecurity initiative) कर रही है। यह मुफ्त स्क्रीनिंग सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराता है और डीएनए बनाने वाली कंपनियों के लिए बेहतर मानक (biosecurity software tools) तय करता है। लेकिन इस पहल को वैश्विक समर्थन की ज़रूरत है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि नियमों का पालन करवाने के लिए शायद एकदम परिपूर्ण व्यवस्था न हो, बस इतनी सख्ती हो कि धोखाधड़ी करना बहुत भारी और महंगा पड़े (deterrence in biosecurity)। फिलहाल जैविक हथियारों को रोकने में शायद कानून नहीं बल्कि नैतिकता, डर और अंतर्राष्ट्रीय मान्यताएं काम कर रही हैं (ethics vs enforcement in bioweapons control)। लेकिन विशेषज्ञों की चेतावनी है कि सिर्फ नेक इरादों के भरोसे रहना खतरनाक है। दुनिया को अपनी जैविक सुरक्षा प्रणाली को मज़बूत करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए (strengthen global biosafety)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रतिरक्षा कोशिकाएं दर्द भी कम करती हैं

मूमन प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर को संक्रमण से बचाने का काम करती हैं, लेकिन रेग्युलेटरी टी कोशिकाओं (ट्रेग्स) का काम एक तरह से सामंजस्य की स्थिति बनाए रखना होता है — ये सूजन कम करती हैं, घाव भरने में मदद करती हैं (immune system regulation) और प्रतिरक्षा तंत्र को स्वयं अपने शरीर के विरुद्ध काम करने से रोकती (autoimmune response control) हैं। और अब, वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुछ ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द भी कम कर सकती (pain modulation by Tregs) हैं, हालांकि यह असर केवल मादा चूहों में देखा गया है।

साइंस (science) पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ता यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि ट्रेग्स दर्द को कैसे प्रभावित करती हैं। उन्होंने मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को ढंकने वाली सुरक्षा झिल्लियों (मेनिन्जेस)( meninges Tregs study) में मौजूद ट्रेग्स पर ध्यान दिया, जहां ये कोशिकाएं सामान्य से कहीं ज़्यादा पाई जाती हैं।

परीक्षण के लिए उन्होंने ऐसे चूहे तैयार किए जिनमें इन खास ट्रेग्स को एक बैक्टीरिया विष के माध्यम से खत्म किया जा सकता था। जब मादा चूहों से ट्रेग्स हटाईं गईं, तो उनकी यांत्रिक दर्द (जैसे दबाने या छूने से होने वाला दर्द) (mechanical pain sensitivity) के प्रति संवेदनशीलता बढ़ गई। लेकिन नर चूहों में ऐसा कोई असर नहीं देखा गया। हालांकि ट्रेग्स ने गर्मी या ठंड से जुड़ी दर्द की संवेदनशीलता (thermal pain response) पर कोई असर नहीं डाला – न मादा में और न ही नर में।

दिलचस्प बात यह है कि जब वैज्ञानिकों ने IL-2 नामक एक प्रोटीन के ज़रिए ट्रेग्स कोशिकाओं की संख्या बढ़ाई तो चोटिल मादा चूहों में दर्द पर प्रतिक्रिया बेहतर हो गई – यानी दर्द कम महसूस हुआ (IL-2 Treg pain relief)। लेकिन जब मादा हार्मोन (जैसे एस्ट्रोजन) को बाधित कर दिया गया अथवा अंडाशय को हटा दिया गया तो IL-2 का असर नहीं हुआ। इससे साफ है कि ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द से राहत देने का अपना काम मादा हार्मोन, खास तौर पर एस्ट्रोजन (estrogen and pain regulation), की मदद से करती हैं।

इतना ही नहीं, ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द कम करने के लिए सिर्फ सूजन रोकने के ज़रिए काम नहीं करतीं बल्कि सीधे तंत्रिका कोशिकाओं पर असर डालती हैं (Tregs direct neuron effect)। ये एंकेफेलिन्स नामक प्राकृतिक दर्दनाशक अणु छोड़ती (natural painkillers enkephalins) हैं, जो तंत्रिका कोशिकाओं के दर्दरोधी ग्राहियों को सक्रिय करके दर्द की तीव्रता कम कर देते हैं।

वैज्ञानिकों का कहना है कि महिलाओं और जेंडर पुष्टि देखभाल (जेंडर अफर्मिंग केयर) ले रहे लोगों के लिए दर्द की समस्या ज़्यादा होती है (pain management in gender-affirming care)। उनके संदर्भ में यह खोज महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। कई शोधकर्ता आत्म-प्रतिरक्षा रोगों के लिए ट्रेग कोशिकाओं की संख्या बढ़ाने पर कार्य कर रहे हैं। उसमें दर्द प्रबंधन के दृष्टिकोण को जोड़ना मददगार हो सकता है (Treg therapy for autoimmune diseases)।

अलबत्ता, इस राह में कई चुनौतियां हैं – मनुष्यों के मस्तिष्क और रीढ़ की झिल्ली तक ट्रेग्स को सही-सलामत पहुंचाना आसान नहीं होगा (Treg delivery challenges in humans)। लेकिन ऐसा लगता है कि आत्म-प्रतिरक्षा रोगों के इलाज में इस्तेमाल हो रहा प्रतिरक्षा-वृद्धि उपचार इस राह को आसान कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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नवजात इल्ली भी अपना इलाका बांधती है

बाघ, तेंदुआ, कुत्ता, बिल्ली जैसे बड़े-बड़े जानवर अपना इलाका बांधते हैं (animal territorial behavior)। यानी वे कुछ संकेतों के ज़रिए अपना अधिकार क्षेत्र चिंहित करते हैं। इस इलाके के संसाधनों, खासकर मादाओं, पर उनका अधिकार होता है। और, इलाके में अतिक्रमण की कोशिश हो तो चेतावनियों से लेकर मुठभेड़ तक की स्थिति बन सकती है (animal conflict over territory)।

लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि 2 मिलीमीटर छोटी वार्टी बर्च इल्ली (caterpillar territorial behavior) भी इलाका बांधती होगा। जी हां, इतनी छोटी-सी इल्ली 1 सेंटीमीटर लंबी जगह का इलाका बांधती है।

उत्तरी अमेरिका में दो-धारियों वाली एक पतंगा मादा (Falcaria bilineata) सनोबर की टहनियों और पत्तियों पर अपने अंडे देती है। जब अंडे फूटते हैं तो इनसे निकलने वाली इल्ली (वार्टी बर्च कैटरपिलर) तुरंत ही करीब की पत्तियों की नोंक पर चली जाती हैं। वैज्ञानिकों ने काफी समय से इल्लियों के इस व्यवहार के अलावा एक और व्यवहार पर गौर किया था – ये इल्लियां पत्तियों पर कम्पन (caterpillar vibration signals) करती हैं। इस व्यवहार को देखकर लगा कि संभवत: यह इलाका बांधने का संकेत है।

अनुमान की जांच करने के लिए कार्लटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कुछ वार्टी बर्च इल्लियों को पकड़कर प्रयोगशाला में यह देखने के लिए जमाया कि यदि किसी पत्ती पर कोई वार्टी बर्च इल्ली पहले से है और उसी प्रजाति की दूसरी इल्ली आती है तो पहले से बैठी इल्ली क्या प्रतिक्रिया देती है? उन्होंने पाया कि जब कोई घुसपैठिया इल्ली आती है तो पहली इल्ली अधिक ज़ोर-ज़ोर से कम्पन करना शुरू कर देती है। वह अपने शरीर को पत्ती पर ठोंककर आवाज़ पैदा करती है और अपने शरीर को पत्ती पर रगड़ती (insect communication through vibration) है। यह ध्वनि इस बात का संकेत होती है कि यह इलाका आरक्षित है, कहीं और चले जाओ। यदि घुसपैठिया इल्ली फिर भी आगे बढ़ती है तो कम्पन पहले से भी 14 गुना तेज़ी से होने लगते हैं।

जर्नल ऑफ एक्सपेरीमेंटल बायोलॉजी (Journal of Experimental Biology) में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि इन कम्पनों से उन्हें अपना छोटा-सा इलाका बचाए रखने में मदद मिलती है; 71 प्रतिशत मामलों में इल्लियां इस तरह अपना इलाका महफूज़ रख पाईं लेकिन जिन मामलों में घुसपैठिया इल्ली हावी हुई तो देखा गया कि निवासी इल्ली रेशम के धागे के सहारे पत्ती से नीचे कूद गई।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इल्ली पत्ती के सिरे पर इसलिए जाती हैं क्योंकि पत्ती की नोंक लचीली होती है जिसके चलते कम्पन को बढ़ाने में मदद (leaf tip flexibility vibration) मिलती है, और जान पर आने के समय रेशमी धागे के सहारे कूदना भी आसान है ही। (स्रोत फीचर्स)

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जीव विज्ञान का मॉडल जीव: हाइड्रा

डॉ. किशोर पंवार

मारे समाज में सेलिब्रिटी (celebrity) उस हस्ती या शख्स को कहा जाता है जो प्रतिष्ठित हो। जिसे अभिनय, राजनीति, फैशन, खेल या संगीत जैसे किसी क्षेत्र में विशेष रुतबा हासिल हो। इन ख्याति प्राप्त लोगों की एक ब्रांड वैल्यू (brand value) होती है। सेलिब्रिटी के द्वारा विज्ञापित उपभोक्ता सामग्री लोग खरीदते हैं। वे क्या करते हैं? क्या पहनते हैं? उनके घर में कौन सा पंखा या वॉटर प्यूरीफायर है? इन सबकी देखा-देखी लोग शॉपिंग करते हैं, इनकी कहा-कही में आकर युवा अपनी ज़ुबां केसरिया करते हैं।

लेकिन, यहां हम जिन सेलिब्रिटीज़ की बात करने जा रहे हैं वे इनसे बिलकुल अलग हैं। ये खुद अपना गुणगान नहीं करते, किंतु उन पर किए गए शोध कार्यों ने मानव स्वास्थ्य (human health), आनुवंशिक बीमारियों (genetic disorders) और वृद्धावस्था पर महत्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध कराई है। हमारे शरीर में जीन्स कैसे काम करते हैं, उनके होने या न होने से क्या फर्क पड़ता है? यह सब जानकारी हमें इन्हीं से पता चली है।

दरअसल, कुछ ऐसे प्रयोग भी होते हैं जो नैतिक रूप (ethical issues in research) से इंसानों पर नहीं किए जा सकते। और, हमारे शरीर की जटिलता, लंबा जीवनकाल, बहुत बड़ा जीनोम (human genome complexity) आदि के कारण ये प्रयोग मनुष्य पर करना संभव भी नहीं है। इसलिए ऐसे महत्वपूर्ण प्रयोग इन मॉडल जीवों पर किए जाते हैं।

तो, मॉडल जीव (model organisms) उन्हें कहते हैं जिनका उपयोग आनुवंशिकी, विकास और अन्य जैविक प्रक्रियाओं को समझने के लिए किया जाता है। किसी भी जीव को मॉडल के रूप में चुनते समय शोधकर्ता उनकी स्थिरता, छोटा जीवन चक्र और जीनोम (gene expression) में संसाधनों की उपलब्धि जैसी बातों पर विचार (life cycle research) करते हैं।

फलमक्खी (Drosophila melanogaster), गोलकृमि (Caenorhabditis elegans), घरेलू चूहा (Mus musculus), न्यूरोस्पोरा (Neurospora), एग्रोबैक्टीरियम ट्यूमिफेशियंस (Agrobacterium tumefaciens), एसिटेबुलरिया (Acetabularia), हाइड्रा (hydra), बेकर्स यीस्ट (Saccharomyces cerevisiae), माउस ईयर क्रेस (Arabidopsis thaliana) ऐसे ही कुछ मॉडल जीव हैं जिन पर पिछले कई वर्षों से अनुसंधान किया जा रहा है।

हाइड्रा के बारे में

जीव विज्ञान में हाइड्रा को अमर (immortal hydra) कहा गया है यानी जो कभी नहीं मरता। इसे हाइड्रा नाम प्रसिद्ध जीव विज्ञानी कार्ल लीनियस (carl linnaeus) ने दिया था। दरअसल यह नाम ग्रीक मायथॉलॉजी में वर्णित एक सर्प के रूप और गुणों पर आधार पर दिया था जिसके नौ सिर थे और एक सिर काटने (regeneration in hydra) पर उसके स्थान पर फिर दो सिर उग जाते थे। अर्थात उसमें पुनर्जनन की गज़ब की क्षमता थी। ऐसी ही क्षमता हाइड्रा में भी है, इसके भी दो टुकड़े कर दो तो दोनों टुकड़ों से नए हाइड्रा बन जाते हैं।

हाइड्रा मीठे पानी का एक अकशेरुकी (freshwater invertebrate) मांसाहारी जीव है। यह एक छोटे ताड़ के पेड़ की तरह दिखता है। पूरा शरीर बेलनाकार नलीलुमा होता है। इसमें एक आधार डिस्क (पैर) होती है, जिससे यह किसी आधार पर चिपका रहता है। डिस्क में ग्रंथि कोशिकाएं होती हैं जो चिपचिपा पदार्थ स्रावित करती हैं। नलीनुमा शरीर के स्वतंत्र सिरे पर एक छिद्र मुंह होता है जो मुंह और गुदा दोनों का काम करता है। यह 4 से लेकर 12 तक संवेदी टेंटेकल्स (hydra tentacles) से घिरा रहता है।

हाइड्रा एक डिप्लोब्लास्टिक जीव (diploblastic animals) है अर्थात इसका शरीर दो परतों से बना होता है। बाहरी परत को एपिडर्मिस (epidermis) कहते हैं, और अंदर की परत गैस्ट्रोडर्मिस (gastrodermis) कहलाती है, यह पेट की आंतरिक सतह होती है। हाइड्रा का पूरा शरीर 50,000 से लेकर 10 लाख कोशिकाओं (hydra cell count) का बना होता है।

हाइड्रा में प्रजनन मुख्य रूप से मुकुलन (budding in hydra)  द्वारा होता है। इस प्रक्रिया में हाइड्रा के शरीर पर एक कलिका बनती है और धीरे-धीरे यह कलिका बढ़ने के बाद अलग होकर एक नया हाइड्रा बनती है। इसे वर्धी प्रजनन (asexual reproduction) कहते हैं। अलबत्ता, कतिपय परिस्थितियों में हाइड्रा में लैंगिक प्रजनन (sexual reproduction) भी होता है।

हाइड्रा: एक मॉडल जीव

हाइड्रा के आणविक और कोशिकीय जीव विज्ञान पर कार्य करने वाली प्रोफेसर सेलिना जूलियानो का कहना है कि जहां तक हम जानते हैं यह जीव ना तो बूढ़ा होता है और ना ही मरता है। आप इसे छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दीजिए और उन टुकडों से पूरा नया जीव बन जाता है। सबसे आश्चर्यजनक बात तो यह है कि यदि हाइड्रा को एक-एक कोशिका में (cellular regeneration) विभाजित कर दें, और उनको मिलाकर एक गेंद बना दें, तो फिर से एक नया हाइड्रा निकल आएगा। इसकी यही क्षमता उपचार और बुढ़ापे (aging research) के अध्ययन के लिए इसे एक आदर्श मॉडल जीव बनाती है।

पेड़-पौधों में तो ऐसा होता ही रहता है (plant regeneration)। गुलाब की कलम से एक नया गुलाब का पौधा तैयार हो जाता है। हालांकि पेड़-पौधों में पाया जाने वाला पुनर्जनन का यह गुण हम मनुष्यों में नहीं पाया जाता। पर अगर आ जाए तो कितना बढ़िया होगा; कटे हुए हाथ की जगह नया हाथ, और दुर्घटना में खोई हुई टांग की जगह नई टांग!

यह कोई खाम-ख्याली नहीं है। प्रयोगशाला में वैज्ञानिकों ने लीवर के टुकड़े (liver regeneration) से पूरा लीवर फिर से बना लिया है, त्वचा को भी उगा (skin regeneration) लिया है। बस कुछ और काम बाकी हैं जो हाइड्रा पर अनुसंधान की मदद से और उसकी पुनर्जनन क्षमता (regenerative medicine research) की बेहतर समझ से जल्दी ही पूरे हो जाएंगे।

जूलियानो द्वारा हाइड्रा की प्रत्येक प्रकार की कोशिका में अभिव्यक्त जीन्स (gene expression) को सटीक रूप से पहचान लिया गया है, उनके कार्यों के बारे में जानकारी जुटा ली गई है। आजकल इस जीन अभिव्यक्ति को बेहतर ढंग से नियंत्रित करने के लिए औज़ार भी विकसित किए जा रहे हैं।

बुढ़ाने पर काम करने वाले डेनियल मार्टीनेज़ ने 1998 में एक्सपेरिमेंटल जेरेन्टोलॉजी नामक एक शोध पत्रिका में दावा किया था कि हाइड्रा जैविक रूप से अमर है। हाइड्रा की स्टेम कोशिकाओं (hydra stem cells) में अनिश्चितकाल तक स्व-नवीनीकरण की क्षमता होती है। और लगातार स्व-नवीनीकरण करने में प्रतिलेखन (transcription) कारक “फोर्कहेड बॉक्स-ओ” यानी फॉक्स-ओ की भूमिका होती है।।

द्विपक्षीय सममिति (bilateral symmetry) वाले जीवों, जैसे फल मक्खियों और कृमि मॉडलों, में यदि इस प्रतिलेखन कारक को हटा दिया जाए तो उनका जीवनकाल काफी कम हो जाता है। हाइड्रा वल्गैरिस (hydra vulgaris studies) एक चक्रीय सममिति वाला जीव है। प्रयोग द्वारा देखा गया है कि जब फॉक्स-ओ (FOXO in lifespan) के स्तर में कमी आती है तो हाइड्रा की कई प्रमुख विशेषताओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है लेकिन फिर भी उसकी मृत्यु नहीं होती।

हाइड्रा और जंतु जगत के हमारे अनेक नन्हे रिश्तेदार वैज्ञानिक अनुसंधान (future of regenerative biology) में बड़ा योगदान दे रहे हैं और जीवन के बारे में बड़े-बड़े सवालों के जवाब खोजने में हमारी मदद कर रहे हैं। इनकी बदौलत वह दिन दूर नहीं जब हम भी हाइड्रा की तरह हाथ पैर उगाने लगेंगे (biological innovation)। और हो सकता है कि हमें बुढ़ापा (anti-aging research) न सताए! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या डे-लाइट सेविंग टाइम ज़रूरी है?

र साल डे-लाइट सेविंग टाइम प्रथा के चलते मार्च में अमेरिका में घड़ियां एक घंटा आगे बढ़ाई जाती हैं (daylight saving time USA)। संयुक्त राज्य अमेरिका में डे-लाइट सेविंग टाइम सबसे पहले 1918 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान अपनाया गया था। उद्देश्य था ऊर्जा की बचत (energy saving policy) और दिन की रोशनी का अधिकाधिक उपयोग करना। गर्मी और वसंत ऋतु में घड़ियां आगे बढ़ाकर लोग प्राकृतिक रोशनी का अधिक उपयोग कर सकते थे और बिजली की खपत कम की जा सकती थी।

लेकिन देखा गया है कि घड़ियां आगे बढ़ने पर लाखों लोग थकान और नींद की कमी से जूझते हैं (sleep disruption, DST)। नींद में एक घंटे की कमी कोई छोटी समस्या नहीं है – यह स्वास्थ्य पर गंभीर असर (health effects of DST) डाल सकती है। 54 प्रतिशत अमरीकियों का मत है कि डे-लाइट सेविंग टाइम (DST) को पूरी तरह से समाप्त कर दिया जाए (End DST USA)।

इसके दो विकल्प हैं: DST को पूरे साल लागू रखा जाए। या स्थायी मानक समय – पूरे साल वही समय रखना जो प्राकृतिक दिन की रोशनी के अनुसार हो (permanent standard time)।

कई स्वास्थ्य विशेषज्ञ स्थायी DST का विरोध करते हैं। उनका कहना है कि देर रात तक रोशनी और अंधेरी सुबह जैविक लय (circadian rhythm disruption) को प्रभावित कर सकती है। इसकी बजाय, आधे से अधिक अमरीकियों और कई वैज्ञानिक संगठनों का मानना है कि स्थायी मानक समय अधिक स्वस्थ विकल्प होगा (healthier time choice)। रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित एक अध्ययन DST समाप्त करने के विचार को चुनौती देता है।

सेविले विश्वविद्यालय की भौतिक विज्ञानी जोस मारिया मार्टिन-ओलाला का मानना है कि DST सिर्फ ऊर्जा की बचत से कहीं अधिक है (social impact of DST)। उनके अनुसार घड़ी में मौसमी बदलाव से आधुनिक समाजों को काम के निर्धारित समय और प्राकृतिक दिन के बदलाव के बीच सामंजस्य बैठाने में मदद मिलती है। लेकिन आजकल की भागमभाग वाली दिनचर्या मौसमी बदलावों की अनदेखी करती है। ऐसे में DST हमें सर्दियों में काम और स्कूल बहुत जल्दी शुरू करने और गर्मियों में बहुत देर से शुरू करने से रोकता है, खासकर उन क्षेत्रों में जो भूमध्य रेखा से दूर हैं (day length variation), जहां दिन की अवधि में बड़े बदलाव होते हैं।

इन तर्कों के बावजूद, चिकित्सा विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि DST हमारी जैविक घड़ी को प्रभावित करता है। पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय की न्यूरोलॉजिस्ट जोआना फोंग-इसरियावोंगसे का कहना है कि सुबह की धूप (morning sunlight benefits) मेलाटोनिन स्तर को नियंत्रित करने और लोगों को सतर्क रखने के लिए महत्वपूर्ण है (melatonin regulation)। अध्ययनों में DST से जुड़े कुछ गंभीर स्वास्थ्य जोखिमों की पहचान की गई है; जैसे, दिल का दौरा और स्ट्रोक के मामलों में वृद्धि (heart attach risks); उनींदेपन के कारण कार दुर्घटनाओं में वृद्धि (car accidents due to DST), कार्यस्थल दुर्घटनाओं में वृद्धि; सालाना स्वास्थ्य सेवा खर्च में वृद्धि और उत्पादकता में क्षति।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन (American academy of sleep medicine) और अन्य चिकित्सा संगठनों ने स्थायी मानक समय का समर्थन किया है, जो मानव जैविकी के अनुसार बेहतर है।

सभी वैज्ञानिक इस पर सहमत नहीं हैं। कुछ शोधकर्ता मानते हैं कि DST के नकारात्मक प्रभावों (DST criticism) को बढ़ा-चढ़ा कर बताया गया है। नींद में विघ्न डालने के लिए अकेला DST ज़िम्मेदार नहीं है; आधुनिक इनडोर जीवनशैली (indoor lifestyle sleep impact), कृत्रिम रोशनी, और देर रात तक स्क्रीन का उपयोग नींद को कहीं अधिक प्रभावित करते हैं।

बहरहाल, अधिकांश स्वास्थ्य विशेषज्ञ मानते हैं कि स्थायी मानक समय सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए सबसे अच्छा विकल्प (public health policy) है। 

बहरहाल, फैसला चाहे जो हो, यह बहस इस दृष्टि से वैश्विक महत्व की है कि हम समय का प्रबंधन कैसे करते हैं, यह हमारे दैनिक क्रियाकलापों के साथ-साथ हमारे स्वास्थ्य को भी प्रभावित करता है (global time management debate)। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिकी वैज्ञानिकों का पलायन

न दिनों अमेरिका में वैज्ञानिक समुदाय गंभीर संकट का सामना कर रहा है। नेचर (nature journal) पत्रिका के एक हालिया सर्वे के मुताबिक 75 प्रतिशत वैज्ञानिक अमेरिका छोड़ने पर विचार कर रहे हैं। इस निर्णय का मुख्य कारण राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के शासन द्वारा अनुसंधान फंडिंग (research funding crisis) और नीतियों (science policy USA) में बड़ा बदलाव बताया जा रहा है। युवा वैज्ञानिकों, खासकर पीएचडी छात्रों (PhD students in USA) और शोधकर्ताओं के लिए हालात और भी चिंताजनक है। इनमें से अधिकांश शोधकर्ता युरोप या कनाडा जाने (scientists migration Europe Canada) की योजना बना रहे हैं। 

इस संकट की जड़ फंडिंग में भारी कटौती और वैज्ञानिकों की बड़े पैमाने पर छंटनी है, जो अरबपति एलन मस्क की लागत-कटौती योजना (Elon Musk Budget Cuts) का हिस्सा है। इसके तहत संघीय वित्त पोषित कई शोध परियोजनाएं बंद कर दी गई हैं, हज़ारों वैज्ञानिक नौकरी गंवा चुके हैं या फंडिंग के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इसके अलावा, आप्रवासन नीतियों में सख्ती (US immigration policy impact on science) और अकादमिक स्वतंत्रता पर लगे प्रतिबंधों ने स्थिति को और अस्थिर बना दिया है, जिससे कई वैज्ञानिक अपने भविष्य को लेकर चिंतित हैं।

एक शीर्ष विश्वविद्यालय में प्लांट जीनोमिक्स की छात्रा ने बताया कि यूएस एजेंसी फॉर इंटरनेशनल डेवलपमेंट (USAID research grants) की फंडिंग कटने के बाद उनका शोध अनुदान बंद हो गया। उनके प्रोफेसर ने आपातकालीन फंडिंग की व्यवस्था तो की, लेकिन अब उन्हें अपनी पढ़ाई पूरी करने के लिए शिक्षण-सहायक पदों (teaching assistant jobs USA) के लिए कड़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है। वे युरोप, ऑस्ट्रेलिया और मेक्सिको में अवसरों की तलाश कर रही हैं।

यह संकट खासकर युवा वैज्ञानिकों के लिए कठिन है। वरिष्ठ शोधकर्ताओं के पास तो स्थिर फंडिंग होती है, लेकिन शुरुआती करियर में वैज्ञानिकों (early career scientists) को भारी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है।

अब कई वैज्ञानिक ऐसे देशों की तलाश कर रहे हैं जहां शोध और विज्ञान को महत्व (countries supporting research) दिया जाता है। कुछ को उम्मीद है कि अगर अमेरिका में स्थिति सुधरती है, तो वे लौट सकते हैं, लेकिन कइयों के पास विदेश में बसने के अलावा कोई और विकल्प नहीं बचा है। निजी संगठनों से फंडिंग मिलना एक विकल्प हो सकता (private science funding) है, लेकिन सीमित संसाधनों के लिए बढ़ती प्रतिस्पर्धा इसे अनिश्चित बना रही है।  अमेरिका में विज्ञान और शोध की स्थिति में आया यह संकट दर्शाता है कि सरकार की नीतियां अनुसंधान के भविष्य को किस कदर प्रभावित (impact of politics on science) कर सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्यों की ऊर्जा ज़रूरत बनी समुद्री जीवों पर खतरा

पनी चाहतों के चलते हमारी ऊर्जा ज़रूरतें (energy demands) दिनों दिन बढ़ती जा रही हैं। इनकी पूर्ति के लिए हम नए-नए ऊर्जा स्रोत (energy sources) खोजते रहते हैं, अपने देशों में न मिलें तो बाहर से मंगवाते हैं। लेकिन ज़रा नहीं सोचते कि इन बढ़ती ख्वाहिशों की पूर्ति के लिए चल रहे क्रियाकलापों (industrial activities) से जीव-जंतुओं, उनके प्राकृतवासों और पारिस्थितिकी (ecosystem balance) पर कैसे प्रतिकूल असर पड़ेंगे?

लेकिन जीव विज्ञानियों (biologists), पारिस्थितिकीविदों (ecologists) और पर्यावरण कार्यकर्ताओं (environmental activists) को यह चिंता लगातार सताती रहती है। उनकी ऐसी ही एक चिंता है मेक्सिको की एक सबसे बड़ी ऊर्जा परियोजना (Mexico energy projects) सगुआरो एनर्जिया परियोजना या टर्मिनल जीएनएल डी सोनोरा (TGNLS) परियोजना।

TGNLS टर्मिनल मेक्सिको के प्यूर्टो लिबटार्ड (Puerto Libertad) में स्थापित किया जा रहा है। इस टर्मिनल से टेक्सास (Texas) स्थित प्राकृतिक गैस (natural gas) के कुओं से तरल प्राकृतिक गैस (LNG – Liquified Natural Gas) विदेशी बाज़ारों, खासकर एशियाई देशों, को निर्यात की जाएगी। पर्यावरणविद बताते हैं कि इस परियोजना में LNG निर्यात के लिए बड़े-बड़े जहाज़ी टैंकरों (LNG Tankers) का जो मार्ग निर्धारित किया गया है उसके कारण पहले से ही जोखिमग्रस्त ब्लू व्हेल (endangered blue whales) समेत अन्य समुद्री जीवों (marine animals) के आवास (habitats), प्रजनन (breeding), भोजन (feeding grounds) और प्रवास (migration patterns) प्रभावित होंगे; उनका जीवन और भी जोखिमपूर्ण हो जाएगा।

दरअसल, प्यूर्टो लिबटार्ड कैलिफोर्निया खाड़ी (gulf of california) के शीर्ष के नज़दीक स्थित है। कैलिफोर्निया खाड़ी को नक्शे में देखेंगे तो पाएंगे कि यह संकरी और लंबी (1100 किलोमीटर लंबी) है। यह जगह कई समुद्री स्तनधारियो (व्हेल जैसे सीटेशियन)(marine mammals) का हॉट-स्पॉट (biodiversity hotspot) है। यह स्थल सीटेशियन्स की तकरीबन 36 प्रजातियों का घर है। यह कई प्रजातियां का भोजन और प्रजनन क्षेत्र है। गौरतलब है कि यहां रहने वाली व्हेल की कई प्रजातियां लुप्तप्राय (whale species endangered) की श्रेणी में हैं। अब यदि यह परियोजना बनेगी तो खतरे और बढ़ेंगे।

बीस साल पुरानी इस परियोजना का स्वरूप और उद्देश्य अपने प्रारंभ के समय से बहुत अलग हो गया है। इस टर्मिनल को मूल रूप से मेक्सिको में गैस आयात करने के लिए डिज़ाइन किया गया था। लेकिन आयात टर्मिनल (import terminal) कभी बना ही नहीं। फिर 2018 में, मेक्सिको पैसिफिक नामक एक कंपनी ने इस परियोजना को अपने नियंत्रण ले लिया और इसकी डिजाइन को एक निर्यात टर्मिनल (export terminal) में बदल दिया। नई डिज़ाइन में यह टर्मिनल मूल डिज़ाइन से तीन गुना बड़ा है। इसके तहत 800 किलोमीटर लंबी पाइपलाइन बिछेगी, और पाइपलाइन एवं बड़े-बड़े जहाज़ी टैंकरों के ज़रिए टेक्सास के कुओं से प्रतिदिन 2.8 अरब क्यूबिक फीट प्राकृतिक गैस मुख्यत: एशिया को भेजी जाएगी। इतने सब तामझाम की लागत 15 अरब डॉलर है।

इन्हीं बदलावों के चलते कंपनी को परियोजना का पर्यावरणीय प्रभाव आकलन (Environmental Impact Assessment – EIA) नए सिरे से करना था। 2023 में, कंपनी ने मेक्सिको की नियामक एजेंसियों को इस परियोजना के पर्यावरणीय प्रभाव के आकलन और उन प्रभावों को सीमित करने की योजनाओं की रिपोर्ट सौंपी थी। लेकिन इस रिपोर्ट का बारीकी से विश्लेषण करने वाले जीव विज्ञानियों और पर्यावरणविदों का कहना है कि इस ‘पर्यावरण प्रभाव आकलन’ रिपोर्ट में कई त्रुटियां (critical flaws) है, कई चीज़ें छूटी हैं, और कई आंकड़े सही पेश नहीं किए गए हैं। जैसे टैंकरों का एकदम ठीक-ठीक मार्ग (exact LNG tanker route) क्या होगा, व्हेल की कौन सी प्रजातियों की कितनी-कितनी संख्या कहां-कहां है, और टैंकरों के तय मार्ग में कितने जीव इस टकराव (collision risk) को झेलेंगे।

दरअसल कैलफोर्निया खाड़ी से गुज़रने वाला परियोजना का प्रस्तावित मार्ग व्हेल और अन्य कई समुद्री जीवों का प्रमुख आवास है, और कई प्रजातियां अपनी प्रवास यात्रा के लिए यही मार्ग अपनाती हैं। ज़ाहिर है समुद्री जीवों की इन जहाज़ों से टक्कर की संभावना (ship strike risk) है जो उनके लिए जानलेवा साबित हो सकती है। और व्हेल टक्कर से बच भी गईं तो जहाज़ों से होने वाला शोर (ship noise pollution) उनके संवाद को तहस-नहस कर देगा। रिपोर्ट में जहाज़ों द्वारा उत्पन्न ध्वनि प्रदूषण (underwater noise impact) पर भी कोई बात नहीं की गई है। जबकि पूर्व अध्ययनों मे देखा गया है कि जहाज़ का शोर व्हेल के व्यवहार (behavioral change due to noise) को बदल सकता है।

इन सब खामियों के चलते जीव विज्ञानियों और पर्यावरण कार्यकर्ताओं (scientists and conservationists) ने इन मुद्दों को कानूनी रूप से उठाया है; इस परियोजना के विरोध में पांच मुकदमे (lawsuit against project) दायर किए गए हैं। फिलहाल इन प्रयासों से मेक्सिको की पर्यावरण अनुमति एजेंसी ने इस परियोजना पर वक्ती रोक (temporary suspension) लगा दी है। साथ ही पर्यावरण हितैषियों ने इस मुद्दे पर जागरुकता के लिए ‘व्हेल या गैस’ अभियान (whale vs gas campaign) शुरू किया है। बहरहाल, भले ही यह मुद्दा मेक्सिको (Mexico LNG Project) का है, लेकिन यह दुनिया भर के देशों की पर्यावरणीय चिंताओं (global environmental concerns) की ओर ध्यान आकर्षित करता है। और याद दिलाता है कि यह प्रकृति (planet earth) सिर्फ मनुष्यों की नहीं वरन सभी जीव-जंतुओं की है: हमारी ख्वाहिशों का खामियाजा अन्य जीव-जंतुओं को न भरना पड़े। (स्रोत फीचर्स)

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एक्सपांशन माइक्रोस्कोपी: सूक्ष्म अवलोकन के लिए जुगाड़

डॉ. भास बापट

मारी दृष्टि कई मामलों में सीमित है। पहला, हम प्रकाश वर्णक्रम (light spectrum) के केवल एक छोटे हिस्से को ही देख पाते हैं। हमारी देखने की क्षमता 400 नैनोमीटर (nanometer) (लाल प्रकाश) से 700 नैनोमीटर (बैंगनी) तरंगदैर्घ्य के बीच होती है। इसे दृश्यमान सीमा (visible spectrum) कहा जाता है। हम इसके बीच आने वाली तरंगदैर्घ्य के प्रकाश को ही देख पाते हैं। इससे कम तरंगदैर्घ्य (अवरक्त infrared, IR) या अधिक तरंगदैर्घ्य (पराबैंगनी ultraviolet, UV) के प्रति हम असंवेदनशील होते हैं। इसका मतलब यह नहीं है कि इस सीमा से बाहर का प्रकाश हमें प्रभावित नहीं करता – कहने का मतलब यह है कि हम इन तरंगदैर्घ्यों की सीमा के बाहर के प्रकाश को देख नहीं पाते।

दूसरा, हम लगभग 30 माइक्रॉन (micron) तक की साइज़ की वस्तु ही देख सकते हैं, इससे छोटी नहीं। अंदाज़े के लिए देखें कि 1 मि.मी. 1000 माइक्रॉन के बराबर होता है। इससे सूक्ष्म चीज़ों को न देख पाने की सीमा हमारी आंख की संरचना – लेंस (lens) और रेटिना (retina) – के कारण होती है।

इससे सूक्ष्म चीज़ों को देखने के लिए सूक्ष्मदर्शी (microscope) का उपयोग किया जा सकता है। प्रकाश सूक्ष्मदर्शी (light microscope) किसी नमूने को हमें लगभग 100 गुना बड़ा (आवर्धित magnified) करके दिखा सकता है; इसकी मदद से हम 0.3 माइक्रॉन (0.0003 मिलीमीटर) साइज़ तक की चीज़ें देख सकते हैं।

मान लीजिए, हमारे सूक्ष्मदर्शी के लेंस बढ़िया हों और रेटिना भी बेहतर हो तब भी एक सीमा (साइज़) तक की ही सूक्ष्म चीज़ों को हम देख सकते हैं। भौतिकी के नियमानुसार, किसी तरंगदैर्घ्य का प्रकाश अपनी तरंगदैर्घ्य के लगभग आधी साइज़ की वस्तु की छवि बना सकता है। यह सीमा विवर्तन (डिफ्रेक्शन – diffraction) के कारण होती है। विवर्तन यानी किसी वस्तु या अवरोध से टकराकर उसके आसपास प्रकाश तरंगों का मुड़कर आगे निकल जाना।

सरल रूप में विवर्तन को इस तरह समझ सकते हैं। यदि आप किसी तालाब में पत्थर फेंकते तो उसके चारों ओर लहरें बनती हैं, और आगे फैलती जाती हैं। पानी पर पत्तियों या छोटी डंडियों जैसे छोटे अवरोधक तैरते रहते हैं, लेकिन इनकी उपस्थिति के बावजूद दूर खड़ा दर्शक इन लहरों को समान रूप से आगे बढ़ते हुए देख पाता है, उसे लहरों में कोई उथल-पुथल नहीं दिखेगी। लेकिन, यदि पानी पर तैरने वाला अवरोधक लहर की साइज़ (wavelength) (यानी दो क्रमागत लहरों के बीच की दूरी) से बड़ा होता है तो लहरें विकृत हो (टूट) जाती हैं। संक्षेप में, लहर की साइज़ से छोटी वस्तुएं लहरों में परिवर्तन नहीं कर पातीं, जबकि उससे बड़ी वस्तुएं ऐसा कर पाती हैं।

ऐसा ही प्रकाश (light waves) के साथ भी होता है। प्रकाश केवल तभी प्रतिबिंब (image formation) बना सकता है जब वह बाधित किया जाता है। इसलिए बहुत छोटी वस्तुओं (तरंगदैर्घ्य से छोटी वस्तुओं) का प्रतिबिंब नहीं बन सकता। और यह सीमा है 300 नैनोमीटर, यानी तरंगदैर्घ्य के लगभग आधे के बराबर।

इस विभेदन सीमा (resolution limit) से पार पाने के लिए वैज्ञानिकों ने कई जुगाड़ किए हैं। इनमें से एक है अत्यंत लघु तरंगदैर्घ्य के प्रकाश (short wavelength light) और विशेष स्क्रीन का उपयोग करना। अलबत्ता, यह तरकीब हमें बहुत दूर तक नहीं ले जा सकती। बहुत सूक्ष्म चीज़ों को फिर भी नहीं देख पाते। इसके अलावा, अत्यंत लघु तरंगदैर्घ्य (जैसे एक्स-रे) हानिकारक हो सकती हैं और इसलिए केवल निर्जीव वस्तुओं के अवलोकन में उपयोगी होती हैं।

दूसरी तकनीक है इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी (electron microscope)। इसमें इलेक्ट्रॉन्स के तरंग गुणों का उपयोग करके छवि बनाई जाती है। (क्वांटम यांत्रिकी के मुताबिक इलेक्ट्रॉन से सम्बद्ध तरंग की तरंगदैर्घ्य लगभग 10-10 मीटर होती है।) लेकिन ये भी मृत कोशिकाओं (dead cells) या वायरस (virus imaging) जैसी निर्जीव वस्तुओं तक ही सीमित हैं।

फिर, पिछले करीब 10 सालों में लेज़र द्वारा उद्दीप्त उत्सर्जन (stimulated emission) और (जिसकी छवि बनानी है उस) वस्तु के अणुओं की कुछ क्वांटम यांत्रिक विशेषताओं का उपयोग करके सूक्ष्म चीज़ों की छवि बनाने का तरीका विकसित किया गया है। इस तकनीक को सुपररिज़ॉल्यूशन माइक्रोस्कोपी (super-resolution microscopy) कहा जाता है।

हाल ही में, इसी काम के लिए एक्सपांशन माइक्रोस्कोपी (expansion microscopy – विस्तार सूक्ष्मदर्शिकी) नामक एक और तकनीक विकसित की गई है। यह तकनीक एक सर्वथा अलग सिद्धांत पर आधारित है, जो काफी सरल है। मान लीजिए कि जिस सूक्ष्म वस्तु का अवलोकन करना है उसे किसी तरीके से, हर तरफ समान रूप से फैलाया जाए; जैसे हम किसी गुब्बारे में हवा भरकर उसे फुला कर फैलाते हैं। अब, जब यह गुब्बारा थोड़ा फूला हुआ हो तब हम इस पर तीन चिन्ह (बिंदु) अंकित करते हैं, और उन बिंदुओं के बीच की दूरी को माप लेते हैं। अब यदि गुब्बारे के आयतन को 125 गुना तक फैलाते हैं, और यदि गुब्बारा एक समान रूप से फैलता (फूलता) है तो प्रत्येक बिंदु के बीच की दूरी 5 गुना बढ़ जाएगी। इससे हम उन सूक्ष्म लक्षणों को देख पाएंगे जिन्हें पहले नहीं देख पाए थे।

सूक्ष्म वस्तुओं को देखने के लिए भी यही तरकीब अपनाई जा सकती है। ज़ाहिर है, गुब्बारे की तरह हम उन सूक्ष्म वस्तुओं में हवा भरकर फुला तो नहीं सकते। अलबत्ता हम कुछ ऐसे रसायन (chemical reagents) अवश्य खोज सकते हैं जो सूक्ष्म चीज़ों की संरचना को तोड़े बिना उनके अंदर प्रवेश कर जाएं और उनको फैला दें।

यदि वस्तु का फैलाव पर्याप्त हो जाता है तो वस्तु की बनावट की बारीकियों को साधारण प्रकाश और एक कॉन्फोकल माइक्रोस्कोप से देखा जा सकता है। हालांकि, यह सुनिश्चित होना चाहिए कि वस्तु में रसायन प्रवेश कराने पर वह सभी जगह से एक समान रूप से फैले। ऐसी स्थिति में ही इस तरह प्राप्त आवर्धित छवि विश्वसनीय होगी यानी सारे बिंदु मूल वस्तु के समान ही प्रदर्शित होंगे। यह सुनिश्चित करने के लिए हम इस संभावना का सहारा लेते हैं कि वस्तु में अणु किन्हीं बिंदुओं पर बाहरी रसायन से बंध जाएंगे। वस्तु और रसायन के बंधने के ये स्थान एंकर पॉइंट के रूप में काम करते हैं: कुछ-कुछ फुटबॉल के शीर्ष या जोड़ बिंदुओं की तरह (यानी वे बिंदु जहां फुटबॉल के काले और सफेद बहुभुज मिलते हैं), जो फुटबॉल में हवा भरने पर फुटबॉल की गोलाई (बनावट) को बनाए रखते हैं।

विस्तार माइक्रोस्कोपी एक बहु-चरणीय प्रक्रिया है। इसका मूल कार्य है – नमूने के अंदर एक बहुलक तंत्र का निर्माण करना और फिर इस बहुलक तंत्र को सममित ढंग से फुलाना।

विस्तार माइक्रोस्कोपी के क्रमवार चरण हैं – अभिरंजन (staining – स्टेन) करना, बंध बनाना (cross-linking), विगलित करना (digestion) और विस्तार करना (expansion)। स्टेन करने के चरण में फ्लोरोफोर (fluorophore molecules – दीप्ति बिखेरने वाले अणु) कोशिका में डाले जाते हैं। ये अगले चरण में बहुलक तंत्र से जुड़ जाते हैं। बंधन या लिंकिंग चरण में कोशिकाओं में बहुलक जेल डाला जाता है, जो पूरे नमूने में फैल जाता है। विगलन चरण में एक विलयन कोशिका में डाला जाता है जो कोशिका को पचा डालता और कोशिका से संरचना को हटाता है। यह चरण बहुत अहम चरण होता है, यदि यह चरण विफल हो जाता है तो नमूना ढह या टूट सकता है। अंत में, विस्तारण चरण में जेल सभी तरफ फैल जाता है। जेल से जुड़े फ्लोरोफोर अणु भी पूरे नमूने में फैल जाते हैं और फैले हुए नमूने में नया स्थान ग्रहण कर लेते हैं। चूंकि जेल चारों ओर एक समान रूप से फैलता है, फ्लोरोफोर के अणुओं के बीच एक आनुपातिक अंतराल बना रहता है।

उच्च विभेदन (high-resolution imaging) वाले प्रतिबिंब बनाने के अन्य तरीकों की तुलना में विस्तार माइक्रोस्कोपी का एक लाभ यह है कि इसके लिए जीवविज्ञान प्रयोगशालाओं (biology labs) में उपलब्ध सूक्ष्मदर्शी के अलावा अन्य किसी विशेष उपकरण की ज़रूरत नहीं होती है। इस तरीके की एक कमी यह हो सकती है कि नमूने को एक समान रूप से फैलाने वाले, नमूने को स्थिर रखने वाले, और चिन्हित करने वाले पॉलीमर या फ्लोरोफोर न मिलें। वर्तमान में एक्सपांशन माइक्रोस्कोपी से कॉन्फोकल माइक्रोस्कोप (confocal microscope) का उपयोग करके 70 नैनोमीटर तक की सूक्ष्म चीज़ें देखी जा सकती हैं, अन्य तरीकों से केवल 300 नैनोमीटर तक देख पाना संभव है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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