भारत डोगरा

धान (rice crop) विश्व की सबसे महत्वपूर्ण फसल है। अत: बहुराष्ट्रीय कंपनियां यह भरपूर प्रयास कर रही हैं कि उनके नियंत्रण वाली जीएम (GM crops) व जीन परिवर्तित फसलें चावल में भी चल निकलें। दूसरी ओर, किसानों के हित में यह है कि यहां की देशी विविधता भरी धान की किस्मों को खेतों में उगाया जाए। यह भारत के संदर्भ में तो और भी महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में धान की जैव-विविधता (rice biodiversity) का विशाल भंडार है। इन्हें हमारे पूर्वज किसानों ने एकत्र किया परंतु बहुराष्ट्रीय कंपनियां इनसे मुनाफा कमाना चाहती हैं।
भारत के विख्यात धान वैज्ञानिक डॉ. आर. एच. रिछारिया 1960-70 के दशक में केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान (Central Rice Research Institute) कटक के निदेशक रहे। यहां उन्होंने देशी विविधता भरी किस्मों पर आधारित महान धान विकास कार्यक्रम तैयार किया था। लेकिन इससे पहले कि वे इसे कार्यान्वित कर पाते विदेशी किस्मों को बाहर से लाद दिया गया व डॉ. रिछारिया को अपना पद छोड़ना पड़ा। फिर भी उनके अति विशिष्ट योगदानों को देखते हुए सरकार ने बार-बार उनका परामर्श लेने की ज़रूरत समझी।
1960-70 के दशक के मध्य में विदेशी सहायता संस्थाओं और अनुसंधान केंद्रों के दबाव में भारतीय सरकार ने चावल की बौनी व रासायनिक खाद का अधिक उपयोग करने वाली किस्मों के प्रसार का निर्णय लिया। इन्हें चावल की ‘अधिक उत्पादक किस्में’ (हाई यील्डिंग वेरायटी – एच.वाय.वी.) (high yielding varieties – HYV) कहा गया। एक महत्वपूर्ण बात यह है कि इतनी ही या इससे अधिक उत्पादकता देने वाली देशी किस्मों को अधिक उत्पादक किस्मों की सरकारी सूची में सम्मिलित नहीं किया गया, और विदेशी किस्मों को अधिक उत्पादकता का एकमात्र स्रोत मान लिया गया। इन्हें देश के अनेक भागों मे ‘हरित क्रांति किस्में’ (Green Revolution rice) कहा जाता है।
नीचे प्रस्तुत तालिका से स्पष्ट है कि अपेक्षाकृत कम रासायनिक खाद व अन्य खर्च के बावजूद धान उत्पादकता (paddy yield) में वृद्धि दर हरित क्रांति या विदेशी किस्मों के प्रसार से पहले अधिक थी।
विदेशी अधिक उत्पादक किस्मों की इस विफलता के क्या कारण हैं? फरवरी 1979 में केंद्रीय धान अनुसंधान संस्थान, कटक में डॉ. रिछारिया की अध्यक्षता में हुई धान प्रजनन के ख्यात विशेषज्ञों की बैठक में इस विफलता के कुछ कारण बताए गए थे – विदेशी अधिक उत्पादक किस्मों का भारत के अधिकतर धान उत्पादन क्षेत्र के लिए अनुकूल न होना व बीमारियों व कीड़ों आदि के प्रति अधिक संवेदनशील होना। कहा गया कि
“अधिकतर एच.वाय.वी. टी.एन.(1) या आई.आर.(8) से व्युत्पादित है व इस कारण उनमें बौना करने का डी.जी.ओ.वू. जेन का जीन है। इस संकीर्ण आनुवंशिक आधार से भयप्रद एकरूपता उत्पन्न हो गई है, इसी कारण विनाशक जंतुओं (कीट आदि) व बीमारियों के प्रति संवेदनशीलता भी बढ़ी है। प्रसारित की गई अधिकतर किस्में प्रारूपी उच्च भूमि व निम्न भूमि (टिपिकल अपलैंड्स एंड लोलैंड्स), जो देश में कुल चावल क्षेत्र का लगभग 75 प्रतिशत हिस्सा है, के लिए अनुकूल नहीं है। इन स्थितियों में सफलता के लिए हमें अपने अनुसंधान कार्यक्रमों व रणनीतियों को पुन:उन्मुख करने की आवश्यकता है।” एक अन्य स्थान पर इसी टास्क फोर्स (task force) ने कहा है, “भारत में जारी की गई विभिन्न धान की किस्मों की वंशावली को सरसरी निगाह से देखने से ही स्पष्ट हो जाता है कि जनन द्रव्य का आधार बहुत संकीर्ण है।”
नई किस्मों की विनाशक जंतुओं (पेस्ट) के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के विषय में टास्क फोर्स ने कहा है, “एच.वाय.वी. के आगमन से गालमिज, भूरे फुदके (ब्राऊन प्लांटहॉपर), पत्ती मोड़ने वाले कीड़े (लीफ फोल्डर) वोर्ल मैगट जैसे विनाशक कीटों की स्थिति में उल्लेखनीय तब्दीली आई है। चूंकि अब तक जारी की गई अधिकतर एच.वा.वी. मुख्य विनाशक जंतुओं के प्रति संवेदनशील है, 30 से 100 प्रतिशत तक फसल की हानि होने की संभावना रहती है। उत्पादकता को स्थायित्व प्रदान करने के लिए अंतर्निहित प्रतिरोध (बिल्ट इन रज़िस्टेंस) (built in resistance) वाली किस्मों का विकास अति आवश्यक हो गया है।” किंतु प्रतिरोधक किस्मों के विकास का पिछला रिकार्ड तो कतई उत्साहवर्द्धक नहीं रहा है, जैसा कि टास्क फोर्स ने स्वीकार किया, “कीट प्रतिरोधक प्रजनन कार्यक्रम के परिणाम अभी तक उत्साहपूर्वक नहीं रहे हैं। हालांकि विनाशक जंतुओं की प्रतिरोधी कुछ किस्में जारी की गई हैं लेकिन रत्न के अलावा इनमें से किसी का भी अच्छा प्रसार नहीं हुआ है। रत्न का भी अच्छा प्रसार वेधकों के प्रति इसकी सहनशील प्रकृति के कारण नहीं अपितु इसके अच्छे दाने, तैयार होने की कम अवधि व व्यापक अनुकूलनशीलता के कारण हुआ है।”
“गालमिज के लिए हालांकि बहुत सारे प्रतिरोधक दाता मिले हैं, पर अभी तक देश में जारी की गई अधिकतर प्रतिरोधक किस्में या तो कम उत्पादक हैं अथवा विभिन्न स्थानों पर उगाये जाने पर, प्रतिरोध में एकरूपता नहीं दिखाती हैं। यहां भी ऊंची उत्पादकता (high yeild) व अधिक स्थायी प्रतिरोध के मिलन को प्राप्त नहीं किया जा सका है।”
टास्क फोर्स के इन उद्धरणों में हम इतना ही जोड़ना चाहेंगे कि एच.वाय.वी. की ये समस्यायें अभी तक बनी हुई हैं। इसके साथ यह भी जोड़ देना उचित है कि कम साधनों वाले छोटे किसानों के लिए ये किस्में विशेष रूप से समस्याप्रद है। इन किस्मों के आगमन के बाद धान उत्पादन का अधिक बड़ा हिस्सा अपेक्षाकृत समृद्ध क्षेत्रों व अपेक्षाकृत समृद्ध किसानों के खेतों से प्राप्त होने लगा है, क्षेत्रीय व व्यक्तिगत विषमताएं बढ़ी है।
जब धान के संदर्भ में सरकार द्वारा बहुप्रचारित हरित क्रांति (green revolution in india) की विफलता सामने आने लगी और रासायनिक खाद व कीटनाशकों पर अत्यधिक निर्भरता हानिकारक सिद्ध होने लगी तो देश की इस सबसे महत्वपूर्ण फसल के बारे में चिंतित सरकार को वर्षों से उपेक्षित इस महान कृषि वैज्ञानिक की याद आई। तब वर्ष 1983 में श्रीमती इंदिरा गांधी के कार्यकाल में प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) ने उन्हें धान उत्पादन बढ़ाने के लिए एक कार्ययोजना बनाने का आग्रह किया। डॉ. रिछारिया ने ऐसी कार्य योजना तैयार की, पर श्रीमती इंदिरा गांधी की दुर्भाग्यपूर्ण हत्या के बाद यह दस्तावेज भी उपेक्षित रह गया।
डॉ. रिछारिया की कार्य योजना के शब्दों में, “मुख्य समस्या अनचाही नई चावल किस्मों को जल्दबाज़ी में जारी करना है। हमने देसी ऊंची उत्पादकता की किस्मों को नकार कर बौनी (विदेशी) एच.वाय.वी. किस्मों के आधार पर अपनी रणनीति निर्धारित की। हम सूखे की स्थिति को भी भूल गए, जब इन विदेशी एच.वाय.वी. में उत्पादकता गिरती है। अधिक सिंचाई व पानी में उगाई जाने पर ये किस्में बीमारियों व नाशक जीवों के प्रति संवेदनशील रहती हैं, जिनका नियंत्रण आसान नहीं है व इस कारण भी उत्पादकता घटती है।” निष्कर्ष में डॉ. रिछारिया कहते हैं, कि जब नींव ही कमज़ोर है (विदेशी जनन द्रव्य) तो इस पर बना भवन ढहेगा ही।
योजना में एक अन्य स्थान पर उन्होंने लिखा है, “धान में विफलता का सबसे महत्वपूर्ण व नज़दीकी कारण किसी क्षेत्र में पूरी तरह या आंशिक तौर पर धान की किस्मों का बार-बार (या जल्दी-जल्दी) बदलना है। यह इस कारण है क्योंकि पर्यावरण में पहले के जनन द्रव्य के संदर्भ में जो कृषि पारिस्थितकी संतुलन शताब्दियों तक अनुभवजन्य प्रजनन व चयन की प्राकृतिक प्रक्रिया में बन गया था, वह अस्त-व्यस्त हो जाता है।”
सौभाग्यवश, देसी (indigenous varieties) अधिक उत्पादकता की किस्में, जो स्थानीय पर्यावरण के अनुकूल हैं, देश में उपलब्ध हैं। 1971-74 के दौरान मध्य प्रदेश में किए गए एक सर्वेक्षण से पता चला था कि देसी किस्मों में से 8 प्रतिशत अधिक उत्पादकता की किस्में हैं अथवा उनकी उत्पादकता 3705 किलोग्राम धान प्रति हैक्टर से अधिक है।
इसे ध्यान में रखते हुए एच.वाय.वी. को पुन: परिभाषित करना आवश्यक है, क्योंकि अब तक सरकारी स्तर पर उनकी पहचान विदेशी, बौनी, अधिक रासायनिक खाद की खपत करने वाली किस्मों के संदर्भ में ही की गई है।
अनुसंधान व प्रसार दोनों क्षेत्रों में डॉ. रिछारिया अधिकाधिक विकेंद्रीकरण (decentralized research) को महत्व देते हैं। यह धान के पौधों की अपनी विशिष्टताओं के कारण भी अनिवार्य है। उनके शब्दों में, “करोड़ों को भोजन देने वाले चावल के पौधों की यदि सबसे महत्वपूर्ण विशेषता बतानी हो तो यह इसकी (भारत व अन्य चावल उत्पादक क्षेत्रों में फैली) हज़ारों किस्मों में ज़ाहिर विविधता है।” अत: उन्होंने धान उगाने वाले पूरे क्षेत्र में ‘अनुकूलन धान केंद्रों’ का एक जाल-सा बिछा देने का सुझाव दिया। “अनुकूलन धान केंद्र अपने क्षेत्र से एकत्र सभी स्थानीय धान की किस्मों के अभिरक्षक होंगे। भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए उन्हें अपने प्राकृतिक माहौल में ही जीवित रखा जाएगा।” इन केंद्रों के कार्य ये होंगे : (क) चावल के विकसित जेनेटिक संसाधनों को भविष्य के अध्ययनों के लिए उपलब्ध कराना – इसे इसके मूल रूप में भारत या बाहर के किसी केंद्रीय स्थान पर सुरक्षित रखना तो लगभग असंभव है। इसे इसके मूल रूप में तो किसानों के सहयोग से इसके प्राकृतिक माहौल में ही सुरक्षित रखा जा सकता है।
(ख) युवा किसानों को अपनी आनुवंशिक सम्पदा के मूल्य व महत्व के विषय में शिक्षित/जागरूक करना व उनमें किस्मों का पता लगाने, एकत्र करने के प्रति रुचि जागृत करना।
अपने विस्तृत अनुभव के आधार पर डॉ. रिछारिया बताते हैं कि धान क्षेत्रों में मुझे ऐसे किसान मिलते ही रहे हैं जो धान की अपनी स्थानीय किस्मों में गहन रुचि लेते हैं व अलग-अलग किस्मों की उपयोगिता, यहां तक कि उसका इतिहास बता सकते है। इन केंद्रों की ज़िम्मेदारी ऐसे चुने हुए, प्रतिबद्ध किसानों को सौंपी जाएगी। हज़ारों किस्मों की पहचान करने, उन्हें सुरक्षित रखने की उनकी जन्मजात प्रतिभा का लाभ वर्तमान व भविष्य की आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर उठाना चाहिए।
ऊपर बताए गए रास्ते को अपनाने में देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि डॉ. रिछारिया ने यह चेतावनी भी दी थी कि जिस तरह विदेशी बौनी किस्मों (foreign rice hybrids) को फैलाने व स्थानीय किस्मों को गायब करने के प्रयास चल रहे है उसके चलते शायद हमारी यह विरासत भी भविष्य में हमें उपलब्ध न रहे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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