केन-बेतवा लिंक परियोजना के दूसरे पक्ष पर भी ध्यान दें – भारत डोगरा

दिसंबर में केन-बेतवा लिंक परियोजना को भारत सरकार की स्वीकृति मिल गई। इस परियोजना के विषय में सरकार का दावा है कि इससे सिंचाई, पेयजल व ऊर्जा के महत्वपूर्ण लाभ प्राप्त होंगे। पर संतुलित आकलन के लिए आवश्यक है कि परियोजना के सभी पक्षों पर समुचित ध्यान दिया जाए ताकि लगभग 44,000 करोड़ की इस महंगी परियोजना के लाभ-हानि पक्ष भली-भांति समझकर ही आगे बढ़ा जाए।

इस परियोजना में लगभग 21 लाख पेड़ कटने की बात सरकारी रिपोर्टों में स्वीकार की गई है तथा अच्छी गुणवत्ता के, सुरक्षित क्षेत्र के वनों के उजड़ने की बात है जिससे वन्य जीवों की बहुत क्षति होगी। हालांकि सरकार का दावा है कि वन्य जीवों की क्षति कम करने के प्रयास किए जाएंगे पर इतनी बड़ी संख्या में पेड़ों के कटने की स्थिति बहुत कष्टदायक है। एक-एक वृक्ष को बहुत उपयोगी माना जाता है। वैसे तो वृक्षों की कितनी ही तरह की देन है, पर जल-संरक्षण में उनका विशेष महत्त्व है तथा जलवायु बदलाव के इस दौर में उनकी कार्बन डाईऑक्साइड सोखने की क्षमता भी कोई कम महत्वपूर्ण नहीं है।

सरकारी पक्ष का कहना है कि बुंदेलखंड के जल संकट को दूर करने में इस परियोजना की महत्वपूर्ण भूमिका होगी, पर बुंदेलखंड पर हुए अध्ययन तो बताते हैं कि यहां के जल संकट के बढ़ने का एक प्रमुख कारण वनों का उजड़ना है। इस स्थिति में जल संकट का समाधान ऐसी परियोजना से कैसे हो सकता हे जिसमें 21 लाख पेड़ कट रहे हों? विज्ञान शिक्षा केंद्र व आईआईटी दिल्ली के एक अध्ययन में भी बताया गया है कि वन-विनाश से बुंदेलखंड का जल संकट विकट हुआ है।

इसके बावजूद सरकारी पक्ष का कहना है कि केन में अतिरिक्त पानी है और बेतवा में कम पानी है, अतः केन से बेतवा में पानी पहुंचाकर जल संकट का समाधान हो सकता है। यह दावा किन आंकड़ों के आधार पर किया जा रहा है, यह अभी तक अपारदर्शिता के माहौल में स्पष्ट नहीं है। दूसरी ओर, स्थानीय लोग व कई विशेषज्ञ तक कह चुके हैं कि केन नदी में अतिरिक्त पानी नहीं है। इतना ही नहीं, हाल के वर्षों में रेत खनन के कारण केन नदी व उसकी सहायक छोटी नदियों की बहुत क्षति हुई है। उनकी जल धारण व प्रवाह क्षमता कम हुई है। यह समय केन नदी की रक्षा का है, उससे पानी कहीं और भेजने का नहीं है।

केन और बेतवा क्षेत्र एक दूसरे से लगे हुए हैं। उनमें प्रायः एक सा मौसम रहता है। सूखा पड़ता है तो दोनों में; अतिवृष्टि होती है तो दोनों में। ऐसी स्थिति में एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में जल भेजकर जल संकट दूर करने की बात बेमानी ही प्रतीत होती है।

केन-बेतवा लिंक परियोजना में बांध बनेगा, 230 कि.मी. की जोड़-नहर बनेगी तो लाखों पेड़ कटेंगे, लोग विस्थापित होंगे। सवाल यह है कि इस क्षति से बचते हुए ही क्यों न जल संकट का समाधान किया जाए। यह संभव भी है। बुंदेलखंड व आसपास का क्षेत्र चाहे आज जल संकट से त्रस्त है, पर यहां जल संरक्षण का समृद्ध इतिहास रहा है। बांदा, महोबा, चित्रकूट, टीकमगढ़, छतरपुर आदि स्थानों के ऐतिहासिक तालाब व जल संरक्षण-संग्रहण एक बहुत बड़ी उपलब्धि के रूप में हमारे सामने मौजूद हैं। इनसे पता चलता है कि स्थानीय स्थितियों के अनुसार उच्च गुणवत्ता का जल-संरक्षण कार्य कैसे होता है। इस ऐतिहासिक धरोहर का बेहतर रख-रखाव तो ज़रूरी है ही, इससे सीखते हुए बहुत से कम बजट व उच्च गुणवत्ता के जल-संरक्षण कार्य हाल के वर्षों में भी सफलता से आगे बढ़े हैं।

अतः हमें जल संकट समाधान के ऐसे उपायों की ओर ध्यान देना चाहिए जिनसे पर्यावरण, वन व जनजीवन की क्षति न हो, विस्थापन का त्रास न हो तथा साथ में जल संरक्षण का टिकाऊ कार्य भी आगे बढ़े। ऐसे विकल्प निश्चित रूप से उपलब्ध हैं। यह तथ्यात्मक स्थिति केवल केन-बेतवा लिंक परियोजना की ही नहीं है अपितु अनेक अन्य नदी-जोड़ योजनाओं की भी है। इस तरह की लगभग 30 परियोजनाएं समय-समय पर चर्चा का विषय रही हैं। हमें सभी विकल्पों पर विचार करते हुए ऐसा निर्णय लेना चाहिए जो देश के लिए सबसे हितकारी हो।

अनेक विशेषज्ञों ने समय-समय पर रिपोर्ट तैयार कर, पत्र भेज कर, बयान जारी कर यह कहा है कि केन-बेतवा लिंक परियोजना व अन्य नदी-जोड़ परियोजनाओं के बेहतर विकल्प उपलब्ध हैं। सरकार को चाहिए कि वह इन सब पर उचित ध्यान देते हुए इनमें उठाए सवालों पर भी समुचित विचार करे ताकि अंत में वही निर्णय लिए जाएं जो व्यापक राष्ट्र हित में हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.indianexpress.com/2021/12/river-link.jpg

न्यूज़ीलैंड में सिगरेट बिक्री पर प्रतिबंध की तैयारी

न्यूज़ीलैंड में नया नियम यह बनने जा रहा है कि 2008 के बाद जन्मा कोई भी व्यक्ति आजीवन सिगरेट या अन्य तंबाकू उत्पाद नहीं खरीद सकेगा। मकसद यह है अगली पीढ़ी को तंबाकू उत्पाद न बेचे जा सकें। न्यूज़ीलैंड की स्वास्थ्य मंत्री आयशा वेराल का कहना है कि “हम चाहते हैं कि युवा लोग धूम्रपान शुरू ही न करें।” डॉक्टरों और अन्य स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने सरकार के इस कदम का स्वागत किया है। बहरहाल, आलोचकों की भी कमी नहीं है।

आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान में न्यूज़ीलैंड की लगभग 13 प्रतिशत वयस्क आबादी धूम्रपान करती है और अधिकारियों का लक्ष्य इसे घटाकर 5 प्रतिशत करना है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों का अनुमान है कि हर चार में से एक कैंसर धूम्रपान की वजह से होता है और यह मृत्यु का एक प्रमुख कारण है।

तुलना के लिए देख सकते हैं कि भारत में लगभग 30 प्रतिशत वयस्क लोग (47 प्रतिशत पुरुष और 14 प्रतिशत महिलाएं) धूम्रपान करते हैं या तंबाकू चबाते हैं।

न्यूज़ीलैंड की आबादी 50 लाख से कुछ अधिक है और यहां सिगरेट बेचने के लिए अधिकृत दुकानें हैं। फिलहाल ऐसी अधिकृत दुकानों की संख्या 8000 है जिसे घटाकर 500 से कम करने का भी लक्ष्य रखा गया है।

सरकार ने इतना सख्त कदम उठाने का निर्णय पूर्व में किए गए उपायों (जैसे सिगरेट की कीमतें बढ़ाना) की सीमाओं के मद्देनज़र लिया है। इसके साथ ही यह व्यवस्था भी की जाएगी कि देश में मात्र कम निकोटिन वाली सिगरेटें ही बेची जा सकें।

जहां कई देश न्यूज़ीलैंड के इस कदम को सतर्कतापूर्वक देख रहे हैं, वहीं आलोचकों का कहना है कि इस निर्णय का परिणाम मात्र यही होगा कि सिगरेट का काला बाज़ार अस्तित्व में आ जाएगा और भ्रष्टाचार का एक नया अड्डा बन जाएगा। यह भी कहा जा रहा है कि इससे बेरोज़गारी भी बढ़ेगी।

दुनिया भर के स्वास्थ्य कार्यकर्ता न्यूज़ीलैंड के इस कदम के परिणामों की समीक्षा करके देखना चाहेंगे कि क्या यह शेष देशों के लिए एक मॉडल बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i2.wp.com/media.globalnews.ca/videostatic/news/695idof94t-ysjlfxa32u/nosmokingweb.jpg?w=1040&quality=70&strip=all

पेटेंट पूलिंग से दवाइयों तक गरीबों की पहुंच

हाल ही में अमेरिका के खाद्य व औषधि प्रशासन ने कोविड-19 के लिए दो अलग-अलग मुंह से दिए जाने वाले (ओरल) उपचारों को आपातकालीन उपयोग की मंज़ूरी दी है। इस निर्णय का मतलब यह है कि अब घर पर ही गोलियों से गंभीर कोविड-19 का उपचार संभव हो सकेगा। गौरतलब है कि इस ओरल उपचार को तैयार करने वाली दवा कंपनियों, फाइज़र और मर्क, ने जेनेरिक दवा निर्माताओं को कम-लागत के संस्करण बनाने की भी अनुमति दी है ताकि इनकी पहुंच गरीब देशों तक सुनिश्चित की जा सके।

इन दोनों उपचारों में 5 दिन तक दवाइयां लेनी होंगी। अमेरिकी सरकार ने इन दवाओं को फाइज़र से 530 डॉलर प्रति उपचार और मर्क से 712 डॉलर प्रति उपचार की दर पर खरीदा है। ज़ाहिर है कि यह अधिकांश देशों के लिए काफी महंगा है लेकिन दोनों ही कंपनियों के मेडिसिन पेटेंट पूल (एमपीपी) में शामिल होने से जेनेरिक दवा निर्माताओं को इस दवा के सस्ते संस्करण बनाने की अनुमति मिल गई है।

गौरतलब है कि एमपीपी की स्थापना 2010 में एक गैर-मुनाफा संस्था के रूप में इस उद्देश्य से की गई थी कि बड़ी दवा कंपनियों को जेनेरिक निर्माताओं को जेनेरिक संस्करण तैयार करने और कम दाम पर बेचने की अनुमति देने को तैयार किया जा सके। शुरुआत में यह विचार काफी बेतुका और अव्यावहारिक लगता था लेकिन वर्तमान में यह विचार काफी प्रभावी प्रतीत होता है। जेनेरिक निर्माताओं से उम्मीद है कि उनके द्वारा तैयार किए गए उपचार की लागत 20 डॉलर प्रति उपचार होगी जबकि व्यवस्था यह है कि फाइज़र और मर्क महंगी दवाओं को धनी देशों में बेचना जारी रखेंगी।

एमपीपी ने सबसे पहले एचआईवी के लिए एंटीरेट्रोवायरल औषधियों को कम आय वाले देशों के लिए सुलभ बनाने का काम किया और बाद में हेपेटाइटिस सी और टीबी की दवाइयों के लिए भी इसका विस्तार किया गया।

एमपीपी के संस्थापक और विशेषज्ञ सलाहकार समूह के सदस्य एलेन टी होएन ने बताया कि हालांकि वर्तमान में इस संदर्भ में जो समझौते हुए हैं, वे आदर्श नहीं हैं लेकिन इन्होंने दवाइयों की सुगम उपलब्धता के कुछ रास्ते तो खोले हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acz9914/full/_20211229_on_qnacovid19antivirals_main.jpg

कुछ धूमकेतु हरे क्यों चमकते हैं?

र्ष 2014 में लवजॉय नाम का धूमकेतु (पुच्छल तारा) अपनी धुंधली हरी आभा के साथ दिखाई दिया था। ऐसी ही हरी चमक कुछ अन्य धूमकेतुओं में भी देखी गई है। अब, प्रयोगशाला में किए गए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इस रंगीन चमक का कारण पता लगाया है।

वैज्ञानिकों को यह तो अंदेशा था कि धूमकेतुओं के आसपास की हरे रंग की आभा डाईकार्बन (C2) नामक एक अभिक्रियाशील अणु के टूटने से आती है। इसकी पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने कार्बन क्लोराइड (C2Cl4) से अल्ट्रावायलेट लेज़र की मदद से क्लोरीन परमाणुओं को अलग कर दिया और फिर शेष रहे डाईकार्बन अणुओं पर उच्च-तीव्रता वाला प्रकाश डाला। नतीजतन हुई रासायनिक अभिक्रिया ने शोधकर्ताओं को आश्चर्यचकित कर दिया।

प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में शोधकर्ताओं ने बताया है कि डाईकार्बन अणु ने प्रकाश का एक फोटॉन अवशोषित करके हरा फोटॉन उत्सर्जित करने की बजाय दो फोटॉन अवशोषित किए, और फिर टूटकर हरे रंग का प्रकाश उत्सर्जित किया। पहले अवशोषित फोटॉन से डाईकार्बन अणु एक अर्ध-स्थिर अवस्था में पहुंचा, और दूसरे अवशोषित फोटॉन से और अधिक ऊर्जा लेकर यह अस्थिर अवस्था में पहुंचा और टूट गया। इस अभिक्रिया में हरे रंग का फोटॉन उत्सर्जित हुआ।

इस प्रक्रिया में डाईकार्बन अणु दो बार ऊर्जा लेकर अवस्था परिवर्तन (ट्रांज़िशन) करता है। आम तौर पर रसायनज्ञ मानते हैं कि ऐसे ट्रांज़िशन निषिद्ध है। हालांकि भौतिकी के नियम अनुसार ये ट्रांज़िशन पूरी तरह निषिद्ध भी नहीं हैं। ये ट्रांज़िशन प्रयोगशाला में नहीं देखे जाते क्योंकि प्रयोगशाला में अणु अपेक्षाकृत पास-पास होते हैं। लेकिन अंतरिक्ष में अणु काफी दूर-दूर होते हैं और शायद ही कभी अन्य अणुओं या परमाणुओं के संपर्क में आते हैं।

डाईकार्बन अणु का जीवनकाल दो दिन से भी कम समय का होता है। प्रयोगों के दौरान एकत्रित डैटा से पता चलता है कि सूर्य से पृथ्वी की दूरी के मुताबिक, इससे यह समझने में मदद मिलती है कि अणु के टूटने से जुड़ी हरी चमक केवल धूमकेतु के सिर के आसपास ही क्यों दिखाई देती है, इसकी पूंछ में यह कभी क्यों दिखाई नहीं देती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acz9875/full/_20211220_on_comet.jpg

विज्ञान अनुसंधान: 2022 से अपेक्षाएं – संकलन: ज़ुबैर सिद्दिकी

र्ष 2021 विज्ञान जगत के लिए चुनौतियों भरा रहा है। इस दौरान मंगल मिशन, अल्ज़ाइमर की दवा, क्रिस्पर तकनीक, जलवायु सम्मेलन जैसे विषय सुर्खियों में रहे लेकिन परिदृश्य पर कोविड-19 छाया रहा। विश्वभर में जागरूकता और टीकाकरण अभियान चलाए गए। 2022 में भी कोविड-19 हावी रहेगा। अलबत्ता इसके अलावा भी कई अन्य क्षेत्र सुर्खियों में रहने की उम्मीद हैं।

कोविड-19 से संघर्ष

2022 में भी कोरोनावायरस चर्चा का प्रमुख मुद्दा बना रहेगा। शोधकर्ता ऑमिक्रॉन जैसे संस्करणों के प्रभावों को समझने और निपटने का निरंतर प्रयास करेंगे। संक्रमितों की विशाल संख्या को देखते हुए 2022 में भी इसके काफी फैलने की संभावना है। वैश्विक आबादी के एक बड़े हिस्से ने टीकों या संक्रमण से एक स्तर की प्रतिरक्षा विकसित की है, और वैज्ञानिकों की अधिक रुचि ऐसे संस्करणों की ओर है जो मानव प्रतिरक्षा को चकमा देने में सक्षम हैं। फिलहाल यह भी स्पष्ट नहीं है कि टीके नए संस्करणों के लिए मुफीद हैं भी या नहीं। वैज्ञानिक टीकों की एक नई पीढ़ी विकसित करने में जुटे हैं जो व्यापक प्रतिरक्षा दे सकें या फिर श्वसन मार्ग की श्लेष्मा झिल्ली में मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित कर सकें। 2022 में हम सार्स-कोव-2 के विरुद्ध ओरल एंटीवायरल दवाओं की भी उम्मीद कर सकते हैं।

इस वर्ष शोधकर्ताओं का प्रयास दीर्घ कोविड के रहस्यों को समझना-सुलझाना भी रहेगा जिसने संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों को काफी परेशान किया है। इसके अतिरिक्त गरीब देशों तक टीके की पहुंच सुनिश्चित करना भी एक बड़ी चुनौती रहेगी।

नाभिकीय भौतिकी

मिशिगन स्टेट युनिवर्सिटी में 73 करोड़ डॉलर के फैसिलिटी फॉर रेयर आइसोटॉप बीम्स (एफआरआईबी) के शुरू होने के बाद से पहली बार अल्पजीवी परमाणु नाभिक पृथ्वी पर उत्पन्न किए जाएंगे जो आम तौर पर तारकीय विस्फोटों में उत्पन्न होते हैं। एफआरआईबी एक शक्तिशाली आयन स्रोत है जो हाइड्रोजन से लेकर युरेनियम परमाणु नाभिकों तक को निशाना बनाकर अल्पजीवी नाभिकों में बदल सकता है। उद्देश्य सैद्धांतिक रूप से संभव 80 प्रतिशत समस्थानिकों का निर्माण करना है। एफआरआईबी की मदद से भौतिक विज्ञानी नाभिक-संरचना की अपनी समझ को मज़बूत करने के अलावा, तारकीय विस्फोटों में भारी तत्वों के निर्माण की प्रक्रिया और प्रकृति में नए बलों का पता लगाने की उम्मीद करते हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी

वर्ष 2022 में संभवत: चीन दुनिया के दो सबसे तेज़ और शक्तिशाली कंप्यूटरों का प्रदर्शन करेगा। खबर है कि ये कंप्यूटर प्रदर्शन के वांछित मानकों को पछाड़ चुके हैं। एक्सास्केल नामक यह सुपर कंप्यूटर प्रति सेकंड 1 महाशंख (1018) से अधिक गणनाएं करने में सक्षम है। दूसरी ओर, अमेरिका स्थित ओक रिज नेशनल लेबोरेटरी में यूएस के पहले एक्सास्केल कंप्यूटर, फ्रंटियर के 2022 में शुरू होने की उम्मीद है।

एक्सास्केल कंप्यूटरों की मदद से विशाल डैटा सेट के साथ कृत्रिम बुद्धि का संयोजन काफी उपयोगी हो सकता है। इसकी मदद से व्यक्ति-विशिष्ट दवाइयों, नए पदार्थों की खोज, जलवायु परिवर्तन मॉडल आदि क्षेत्रों में व्यापक परिवर्तन हो सकता है।

अंतरिक्ष: चंद्रमा की ओर

पचास साल पहले मनुष्य ने चंद्रमा पर पहली बार कदम रखा था। अब रोबोटिक चांद मिशन पूरे जोशो-खरोश से लौट आए हैं और एक बार फिर मानव के वहां पहुंचने की तैयारी है। चीन द्वारा भेजे गए रोवर की सफल लैंडिंग के बाद कुछ छोटे स्टार्ट-अप्स द्वारा विकसित और नासा द्वारा वित्तपोषित तीन रोबोटिक लैंडर 2022 में चांद पर भेजे जाएंगे। इस दौड़ में रूस, जापान और भारत के भी शामिल होने की संभावना है। इस परियोजना के पीछे नासा के दो उद्देश्य हैं: चांद पर पानी की उपलब्धता एवं फैलाव का अध्ययन करना और चांद की धूल भरी सतह पर पेलोड पहुंचाकर मानव अन्वेषण के लिए मार्ग तैयार करना। इस वर्ष नासा का स्पेस लॉन्च सिस्टम और स्पेसएक्स स्टारशिप भी प्रक्षेपित किए जाएंगे जो अंतरिक्ष यात्रियों और भारी उपकरणों को चंद्रमा या उससे आगे ले जाने में सक्षम होंगे।

प्रदूषण पर यूएन पैनल

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण सभा फरवरी 2022 में रासायनिक प्रदूषण और कचरे से होने वाले जोखिमों का अध्ययन करने के लिए एक वैज्ञानिक सलाहकार संस्था बनाने के प्रस्ताव पर मतदान की तैयारी कर रही है। संयुक्त राष्ट्र ने पहले भी कई प्रकार के प्रदूषण (जैसे पारा और कार्बनिक रसायन) पर संधियां की हैं। नए प्रस्ताव का समर्थन करने वालों के अनुसार वर्तमान में नीति निर्माताओं को उभरती समस्याओं और शोध आवश्यकताओं की पहचान करने के लिए व्यापक मूल्यांकन की आवश्यकता है। इसके लिए 1800 से अधिक वैज्ञानिक पैनल के समर्थन में हस्ताक्षर कर चुके हैं।

खगोलशास्त्र: ब्लैक होल 

हाल के वर्षों में गुरुत्वाकर्षण तरंग सूचकों की मदद से तारों की साइज़ के ब्लैक होल्स की टक्करों की जानकारी प्राप्त हुई है। और अधिक जानकारी प्राप्त करने के प्रयास जारी हैं। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि 2022 में उनके पास सूरज से कई गुना भारी ब्लैक होल्स के एक-दूसरे की ओर खिंचने से उत्पन्न गुरुत्वाकर्षण तरंगों को समझने हेतु पर्याप्त डैटा होगा। ऐसे जोड़ों का पता लगाने के लिए कई रेडियो दूरबीनों को पल्सर्स की ओर उन्मुख किया गया है। पल्सर वास्तव में ढह चुके तारे हैं जो नियमित रेडियो तरंगें छोड़ते हैं। तरंगों में सूक्ष्म बदलाव गुरुत्वाकर्षण तरंगों का संकेत देते हैं।

जैव विविधता समझौते को मज़बूती

यदि वर्ष 2050 तक सभी राष्ट्र मिलकर जैव विविधता संधि का नया ढांचा अपनाते हैं तो कई लुप्तप्राय प्रजातियों के संरक्षण के उपायों को बढ़ावा मिल सकता है। वार्ताकारों द्वारा विकसित एक योजना के तहत 2022 में चीन में 196 देशों की एक बैठक आयोजित करने की संभावना है। इस बैठक में पारिस्थितिकी तंत्रों की सुरक्षा और स्थिरता पर ज़ोर देने के साथ आनुवंशिक संसाधनों के उपयोग से होने वाले लाभों के समतामूलक बंटवारे पर भी ध्यान दिया जाएगा। इन प्रयासों के लिए 2030 तक कम से कम 70 करोड़ डॉलर की निधि जुटाने का भी लक्ष्य है। उद्देश्यों में भूमि और समुद्र के 30 प्रतिशत हिस्से का संरक्षण, घुसपैठी प्रजातियों के प्रसार को कम करना, कीटनाशकों के उपयोग में दो-तिहाई की कमी और प्लास्टिक कचरे को खत्म करते हुए वैश्विक प्रदूषण को आधा करना और शहरवासियों के लिए “हरे और नीले” स्थानों तक पहुंच बढ़ाना शामिल है। नई तरीकों में प्रजातियों और पारिस्थितिकी तंत्रों के संरक्षण में प्रगति की निगरानी और निर्णय प्रक्रिया में स्थानीय निवासियों जैसे हितधारकों को शामिल करना प्रमुख है।

चीन: जीएम फसलों को अनुमति

चीन अनुवांशिक रूप से परिवर्तित (जीएम) मकई और सोयाबीन के पहले व्यवसायिक रोपण को 2022 के अंत तक अनुमति दे सकता है। वर्तमान में, पपीता एकमात्र खाद्य जीएम पौधा है जिसको चीन में स्वीकृति दी गई है। जीएम कपास की खेती व्यापक रूप से की जाती है और जीएम चिनार भी काफी उपलब्ध है। गौरतलब है कि चीन में पिछले 10 वर्षों से जीएम मकई और सोयाबीन पर अनुसंधान चल रहे हैं लेकिन जनता के विरोध और सावधानी के चलते इसे प्रयोगशाला तक ही सीमित रखा गया है। चीन में प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों और पशु आहार के लिए बड़ी मात्रा में जीएम मकई और सोयाबीन आयात किए जाते हैं। इसके मद्देनज़र अधिकारियों ने घरेलू स्तर पर जीएम फसलों पर लगे प्रतिबंधों में ढील देने का आह्वान किया है। चीन अनाज के मामले में आत्मनिर्भर है इसलिए जीएम चावल को अनुमति मिलने की संभावना फिलहाल कम है।

ग्लोबल वार्मिंग: मीथेन उत्सर्जन

नवंबर 2021 के जलवायु शिखर सम्मलेन में विश्व नेताओं ने 2030 तक मीथेन उत्सर्जन में 30 प्रतिशत तक कटौती करने का संकल्प लिया है। इन संकल्पों पर कार्रवाई की निगरानी के लिए ज़रूरी उन्नत उपग्रहों को 2022 तक कक्षा में पहुंचाने का लक्ष्य है। एक गैर-मुनाफा संस्था एनवायरनमेंट डिफेंस फंड द्वारा विकसित मीथेनसैट को अक्टूबर में लॉन्च करने की उम्मीद है। यह धान व रिसती पाइपलाइन जैसे स्रोतों से उत्सर्जित मीथेन का पता लगाने की क्षमता से लैस होगा। कार्बन मैपर द्वारा विकसित दो अन्य उपग्रह न सिर्फ मीथेन बल्कि कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की भी निगरानी करेंगे।

मलेरिया का टीका           

अभी भी अफ्रीका में प्रति वर्ष 5 वर्ष से कम उम्र के ढाई लाख से ज़्यादा बच्चे मलेरिया से मारे जाते हैं। उम्मीद है कि 2022 में अफ्रीका के सभी देश मलेरिया के टीके से अनमोल जीवन को बचा सकेंगे। तीन दशकों के शोध के बाद आरटीएस,एस टीके को आखिरकार पिछले वर्ष अक्टूबर में मंज़ूरी मिल गई है। वैक्सीन एलायंस ने टीके खरीदकर लोगों तक पहुंचाने के लिए 2025 तक 15.5 करोड़ डॉलर खर्च करने का निर्णय लिया है। वैसे यह टीका अपूर्ण सुरक्षा प्रदान करता है और गंभीर मलेरिया के कारण अस्पताल में भर्ती होने की दर को लगभग 30 प्रतिशत तक कम करता है। यह विशेष रूप से तब अधिक प्रभावी होता है जब इसे उच्च जोखिम वाले बरसात के मौसम में रोगनिरोधी रूप से दी जाने वाली मलेरिया-रोधी दवा के साथ दिया जाए।

वैसे अगले वर्ष यूएस के दो नीतिगत निर्णय भी वैज्ञानिक शोध को प्रभावित करेंगे। इनमें से एक का सम्बंध सरकारी वित्तपोषित शोध में चीन की भागीदारी से है तथा दूसरे का सम्बंध स्पष्ट रूप से समाजोपयोगी कहे जाने वाले शोध को बढ़ावा देने के लिए नई परियोजनाओं से है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.nature.com/articles/d41586-021-03772-0

विज्ञान अनुसंधान: 2021 में हुई कुछ महत्वपूर्ण खोजें – मनीष श्रीवास्तव

र साल विज्ञान की दुनिया में नई—नई खोजें मानव सभ्यता को उत्कृष्ट बनाती हैं। साल 2021 भी इससे कुछ अलग नहीं रहा है। यहां 2021 में हुई कुछ ऐसे ही वैज्ञानिक खोजों की झलकियां प्रस्तुत की जा रही हैं, जो स्वास्थ्य, अंतरिक्ष, खगोलविज्ञान जैसे विषयों से जुड़ी हुई हैं।

अंतरिक्ष में नई दूरबीन

हाल ही में नासा से जुड़े वैज्ञानिकों ने कनाडा तथा युरोपीय संघ की मदद से एक अत्यंत शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन लॉन्च की है। नाम है जेम्स वेब। उम्मीद जताई जा रही है अपने 5-10 साल के जीवन में यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य उजागर करने में मददगार होगी ।

पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर स्थापित जेम्स वेब दूरबीन कई मामलों में खास है। यह अंतरिक्ष से आने वाली इंफ्रारेड तरंगों को पकड़ेगी, जिन्हें अन्य दूरबीनें नहीं पकड़ पाती थीं जिसके चलते अंतरिक्ष में छिपे पिंडों को भी देखा जा सकेगा।

इसके अलावा यह गैस के बादलों के पार भी देख सकती है।

नए आई ड्रॉप से दूर होगी चश्मे की समस्या

हाल ही में अमेरिका में ऐसे आई ड्राप – ‘वुइटी’ – पर शोध किया गया है जो ऐसे लोगों के लिए बेहद मददगार होने वाला है, जिन्हें आंखों से धुंधला दिखाई देता है। उपयोग करने पर यह कुछ समय के लिए आंखों में धुंधलेपन की समस्या को दूर कर देती है। इसे यूएस के खाद्य व औषधि प्रसासन (एफडीए) की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है। इसके निर्माताओं का दावा है कि इसका असर 6—10 घंटों तक रहता है। इसके एक महीने के डोज़ का खर्च करीब 6 हज़ार रुपए होगा।

प्रयोगशाला में बनाया स्क्वेलीन

युनेस्को के अनुसार सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों, दवाइयों और कोविड वैक्सीन बनाने में इस्तेमाल होने वाले स्क्वेलीन के लिए हर साल 12—13 लाख शार्क के लीवर से 100—150 मिलीलीटर स्क्वेलिन प्राप्त किया जाता है। आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक प्रो. राकेश शर्मा ने जंगली वनस्पतियों और राज्स्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार करने में सफलता पाई है। इस रिसर्च को हाल ही में पेटेंट भी मिल गया है। अब इसके उत्पादन की तैयारी चल रही है।

स्क्वेलीन का इस्तेमाल टीकों में सहायक के रूप में भी होता है। शार्क से मिलने वाले स्क्वेलीन की कीमत 10 लाख रुपए किलो है, जबकि प्रयोगशाला में तैयार स्क्वेलीन की लागत बहुत कम है। प्रयोगशाला में तैयार करने के लिए इसमें धतूरा, आक, रतनज्योत और खेजड़ी के बीजों का इस्तेमाल किया गया है। इन्हें राजस्थानी मिट्टी के साथ प्रोसेस कर स्क्वेलीन बनाने का काम किया जा रहा है।

तंत्रिका रोगों का नया इलाज

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह संकेत मिले हैं कि एक एथलीट के शरीर का प्रोटीन दूसरे शख्स के तंत्रिका रोगों के इलाज में कारगर साबित हो सकता है। शोधकर्ताओं द्वारा एक्सरसाइज़ व्हील पर कई मील दौड़ लगाने वाले चूहों का खून निष्क्रिय चूहा में डालने पर काफी हैरतअंगेज़ नतीज़े सामने आए। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि कसरती चूहे का खून इंजेक्ट किए जाने के बाद निष्क्रिय चूहे में अल्ज़ाइमर और अन्य तंत्रिका बीमारियों के कारण होने वाली मस्तिष्क की सूजन कम हो गई। मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल एंड हावर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर रुडोल्फ तान का कहना है कि कसरत के दौरान बनने वाले प्रोटीन से मस्तिष्क की सेहत में सुधार से जुड़े शोध हो रहे हैं। वे खुद वर्ष 2018 में इस विषय पर एक शोध कर चुके हैं, जिसमें देखा गया था कि अल्ज़ाइमर वाले चूहों के मस्तिष्क की सेहत में कसरत से सुधार हुआ है।

बिना तारे वाले ग्रह

ब्रह्मांड में अभी तक जितने भी ग्रह खोजे जा सके हैं, उन्हें उनके अपने सूर्य की चमक में होने वाली कमी के आधार पर खोजा जा सका है। ऐसे में बिना तारों वाले ग्रहों की खोज करना तो असंभव सा ही प्रतीत होता था, लेकिन वैज्ञानिकों ने हाल ही में 100 से भी ज़्यादा ऐसे ग्रहों की खोज की है जिनका अपना कोई सूर्य या तारा नहीं है। पहली बार एक साथ इतनी बड़ी संख्या में ऐसे ग्रहों की खोज हुई है।

खगोलविदों का कहना है कि इन ग्रहों का निर्माण ग्रहों के तंत्र में हुआ होगा और बाद में ये स्वतंत्र विचरण करने लगे होंगे। इन पिंडों की पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने युवा ‘अपर स्कॉर्पियस’ तारामंडल का अध्ययन किया। यह हमारे सूर्य के सबसे पास तारों का निर्माण करने वाला क्षेत्र है।

खगोलविदों का कहना है कि ब्रह्मांड में मुक्त ग्रहों की खोज आगे के अध्ययनों में बेहद उपयोगी होगी। अब जेम्स वेब स्पेस दूरबीन जैसे उन्नत उपकरण इनके बारे में विस्तृत खोजबीन कर सकते हैं।  

चुंबक खत्म करेगा विद्युत संकट

एक निहायत शक्तिशाली चुंबक बनाया गया है, इतना शक्तिशाली कि पूरे विमान को अपनी तरफ खींच सकता है। इसे फ्रांस के इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) में असेंबल करके रखा गया है। यह 18 मीटर ऊंचा और 4.3 मीटर चौड़ा है। ITER के वैज्ञानिक नाभिकीय संलयन के ज़रिए ऊर्जा उत्पादन की तलाश कर रहे हैं। इसी संदर्भ में इस विशाल चुंबक का निर्माण किया गया है ताकि परमाणु रिएक्टर में विखंडित होने वाले नाभिकों का संलयन इसकी मदद से करवाया जाए और इससे असीमित ऊर्जा प्राप्त की जाए। अगर वैज्ञानिक कामयाब रहे तो विद्युत संकट का एक समाधान उभर आएगा।

एड्स उपचार में प्रगति

एक नए अध्ययन में भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु के शोधकर्ताओं ने एचआईवी संक्रमित प्रतिरक्षा कोशिकाओं में वायरस की वृद्धि दर कम करने एवं उसे रोकने में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) गैस की भूमिका का पता लगाया है। उनका कहना है कि यह खोज एचआईवी के विरुद्ध अधिक व्यापक एंटीरेट्रोवायरल उपचार विकसित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। देखा जाए, तो वर्तमान एंटीरेट्रोवायरल उपचार एड्स का इलाज नहीं है। यह केवल वायरस को दबाकर रखता है, जिसके चलते बीमारी सुप्त रहती है। आईआईएससी में एसोसिएट प्रोफेसर अमित सिंह के अनुसार, “इससे एचआईवी संक्रमित लाखों लोगों के जीवन में सुधार हो सकता है।”

यह थी गत वर्ष हुईं महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें। इनके अलावा भी कई सारी अन्य उपयोगी खोजें हुई हैं। उम्मीद है 2022 विज्ञान के लिए बेहतर साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credits : https://scitechdaily.com/images/James-Webb-Space-Telescope-Artists-Impression-scaled.jpg
https://nypost.com/wp-content/uploads/sites/2/2021/12/eye-drops_01.jpg?quality=80&strip=all
https://www.eurogroupforanimals.org/files/eurogroupforanimals/styles/blog_detail/public/2020-10/gerald-schombs-GBDkr3k96DE-unsplash.jpg?h=717a43c3&itok=c3jeZPqI
https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/69505/aImg/44511/mice-ss-article-l.jpg
https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2021/06/15142803/15-june_worlds-largest-magnet.jpg?crop=16:9,smart&width=1200&height=675&upscale=true
https://images.medindia.net/amp-images/health-images/hiv-infection-by-anti-inflammatory-drugs.jpg

ज़हरीले रसायन वापस उगल रहा है समुद्र

कारखानों से निकले अपशिष्ट, जल उपचार संयंत्रों द्वारा नदियों में छोड़े गए दूषित जल ने पूरी दुनिया की मिट्टी और पानी को टिकाऊ यौगिकों, जिन्हें PFAS कहते हैं, से दूषित कर दिया है। वैज्ञानिक और नीति निर्माता चिंतित थे कि नदियों और पेयजल में पाए जाने वाले ज़हरीले रसायनों से कैसे छुटकारा पाया जाए? एक उम्मीद थी कि PFAS बहकर समुद्र में जाएंगे और वहीं थमे रहेंगे। लेकिन पता चला है कि समुद्री फुहार के साथ PFAS वापस हवा में फेंका जा रहा है।

आम समझ है कि समंदर हर चीज़ को हमेशा के लिए अपने में समा लेगा। यह नया अध्ययन चेताता है कि समुद्र के बारे में हमें अपना रवैया बदलना होगा।

PFAS नॉनस्टिक बर्तनों से लेकर फायर फाइटिंग फोम जैसी चीज़ों में उपयोग किए जाते हैं। ये पानी, गर्मी और तेल के अच्छे प्रतिरोधी होते हैं और इसलिए इनका काफी उपयोग होता है। PFAS के रासायनिक आबंध बहुत मज़बूत होते हैं जिसके चलते इन्हें ‘टिकाऊ रसायन’ कहा जाता है। प्रयोगशाला में हुए अध्ययनों में पता चला है कि PFAS जानवरों के लीवर और प्रतिरक्षा प्रणाली को नुकसान पहुंचा सकते हैं, और जन्मजात विकृतियों और मृत्यु का कारण बन सकते हैं। मनुष्यों में ये कैंसर और जन्म के समय कम वज़न का कारण बनते हैं।

शोधकर्ता जानते थे कि किनारों पर आकर टूटती लहरों से बनी धुंध प्रदूषकों को समुद्र से वायुमंडल में स्थानांतरित कर सकती है। सफेद, झागदार बुलबुलों में न सिर्फ हवा होती है बल्कि उनमें रसायनों की सूक्ष्म बूंदें भी होती हैं। स्टॉकहोम युनिवर्सिटी के मैथ्यू साल्टर ने समुद्री फुहार सिमुलेटर की मदद से दर्शाया था कि एरोसॉल की बूंदों में समुद्री जल की तुलना में 62,000 गुना अधिक PFAS हो सकते हैं। लेकिन यह पता नहीं था कि PFAS-युक्त समुद्री एरोसॉल वायुमंडल में पहुंचते हैं।

यह पता करने के लिए साल्टर और उनके साथियों ने नॉर्वे के दो समुद्र तटों से 2018 से 2020 तक समय-समय पर हवा के नमूने एकत्रित किए। एकत्रित नमूनों में प्रयोगशाला में PFAS और सोडियम आयनों के स्तर की जांच की, जो समुद्री फुहार एरोसॉल में मुख्यत: पाए जाते हैं।

एनवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि नमूनों में PFAS की मात्रा सोडियम के स्तर के लगभग बराबर थी – जो इस बात का संकेत है कि ये दोनों ही हवा में समुद्री फुहार के माध्यम से आए थे।

शोधकर्ताओं का कहना है कि निष्कर्ष सुझाते हैं कि उनके नमूनों में PFAS की कुछ मात्रा समुद्री एरोसॉल के ज़रिए आई है। उनका अनुमान है कि 0.1 प्रतिशत से 0.4 प्रतिशत पीएफओएस (विशिष्ट तरह के PFAS) समुद्री स्प्रे एयरोसोल के ज़रिए हर साल वापस ज़मीन पर आ जाते हैं। चिंता की बात है कि हवाओं के ज़रिए PFAS सैकड़ों किलोमीटर दूर तक फैल सकते हैं और भोजन-पानी को दूषित कर सकते हैं। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि वास्तव में PFAS ग्लेशियरों, आइस कैप्स और केरिबू में कितने टिकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acz9890/abs/_20211220_on_wavescausetoxicforeverchemicalstoboomerangbacktoshore__main__istock-1299231577.jpg

कार्बन सोखने के लिए समुद्र में उर्वरण

पादप-प्लवक अपने जलीय पर्यावरण से कार्बन डाईऑक्साइड अवशोषित कर लेते हैं इसलिए  सुझाव है कि यदि समुद्रों में कृत्रिम रूप से लौह तत्व उपलब्ध करा दिया जाए तो पादप-प्लवक तेज़ी से फले-फूलेंगे और अपनी वृद्धि के लिए अधिक कार्बन डाईऑक्साइड सोखेंगे और वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में कमी आ सकती है। पर्यावरणविद इस रणनीति का विरोध कर रहे हैं और इसे भू-इंजीनियरिंग का उतावलापन बता रहे हैं।

लेकिन यह जल्द ही अमल में आ सकती है। पिछले हफ्ते समुद्र वैज्ञानिकों के एक पैनल ने कहा है कि इस तरह ‘लौह उर्वरण’ के प्रयोग ज़रूरी हैं, और यूएस से 29 करोड़ डालर खर्च करने का आह्वान किया है ताकि 1000 वर्ग किलोमीटर समुद्र में 100 टन लौह छिड़का जा सके।

पृथ्वी की बदलती जलवायु से निपटने के लिए ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती के प्रयास चल रहे हैं। लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना है कि गंभीर जलवायु परिवर्तन को थामने के लिए हमें नेगेटिव एमिशन टेक्नॉलॉजी का भी उपयोग करना चाहिए जो हवा से कार्बन डाईऑक्साइड और अन्य ग्रीन हाउस गैसों को सोख लें। थलीय योजनाओं में तो अरबों डॉलर खर्च किए गए हैं, लेकिन इस मामले में समुद्र अपेक्षाकृत अछूते रहे हैं। वैसे तो समुद्र पहले ही मानव गतिविधियों से उत्सर्जित लगभग एक-तिहाई कार्बन सोख चुके हैं लेकिन वैज्ञानिकों को लगता है कि अभी और क्षमता बाकी है।

वैसे पैनल ने तटीय पारिस्थितिक तंत्रों के पुनर्वास, बड़े पैमाने पर समुद्री शैवाल उगाने, और समुद्र में गहराई से पोषक तत्व ऊपर लाकर प्लवक उत्पादन को बढ़ावा देने जैसे सुझाव भी दिए हैं। महंगे विकल्पों में बिजली की मदद से समुद्री जल से कार्बन डाईऑक्साइड निकाल कर ज़मीन में अंदर डालना; और चट्टानों के चूरे को समुद्र में फैलाकर इसे अधिक क्षारीय बनाकर कार्बन सोखने की क्षमता को बढ़ाना शामिल है।

लौह उर्वरण एक सस्ता विकल्प है। प्रकाश संश्लेषक प्लवक वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोख लेते हैं। उनके फलने-फूलने के लिए लौह तत्व उन्हें कई स्रोतों से मिलता है। लेकिन लौह की कमी के कारण उनकी वृद्धि में कमी आती है। अतिरिक्त लौह उनकी वृद्धि में मदद करेगा और वे अधिक कार्बन सोखेंगे। यह अंतत: समुद्र की गहराई में चला जाएगा और वहां सदियों तक पड़ा रहेगा।

लेकिन कई अगर-मगर हैं। जैसे, वास्तव में कितना अवशोषित कार्बन समुद्र में बना रहेगा? अन्य जीव इसका उपभोग करके इसे कार्बन डाईऑक्साइड के रूप में वापस उत्सर्जित कर सकते हैं। यह सवाल भी है कि इस प्रक्रिया की निगरानी कैसे की जाएगी?

कहा जा रहा है कि यदि कार्बन का 10 प्रतिशत भी गहराई में बना रहता है तो रणनीति कारगर होगी। लेकिन पिछले प्रयोगों के एक आकलन में देखा गया है कि इनमें से सिर्फ एक ने गहराई में कार्बन का स्तर बढ़ाया था। गौरतलब है कि अगले साल गर्मियों में भारत के इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन स्टडीज़ द्वारा अरब सागर के एक हिस्से में लौह की परत चढ़ी चावल की भूसी फैलाने की योजना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.acz9853/abs/_20211208_on_phytoplanktonbloom.jpg

हिचकी से तुरंत राहत का उपाय

हिचकी आते ही है तमाम तरह की सलाह मिलने लगती है; कोई सांस रोकने को कहता है, कोई अचानक डराता है तो कोई पानी पीने कहता है। अब, वैज्ञानिकों ने हिचकी रोकने का एक बेहतर समाधान ढूंढ लिया है: पानी पीने की स्ट्रॉ।

जब हिचकी (या चिकित्सा की भाषा में सिंगल्टस) आती है तो सीने का मध्यपाट (डायफ्राम) और पसलियों के बीच की मांसपेशियां अचानक सिकुड़ती हैं और सीने में अंदर का आयतन बढ़ जाता है। बढ़े हुए आयतन की वजह से दबाव कम होता है और हवा अंदर आती है। इस तरह अचानक अंदर आई हवा के कारण स्वर यंत्र के बीच की जगह (ग्लॉटिस) बंद हो जाती है, नतीजतन ‘हिच्च’ की आवाज़ (हिचकी) आती है।

इसे रोकने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास हेल्थ साइंस सेंटर के डॉ. अली सैफी ने एक स्ट्रॉ बनाई है जिसे उन्होंने ‘फोर्स्ड इंस्पिरेटरी सक्शन एंड स्वॉलो टूल (FISST)’ कहा है जिसका ब्रांड नाम हिक्कअवे है। लगभग 1000 रुपए की कीमत वाली L-आकार की यह स्ट्रॉ सख्त प्लास्टिक से बनी है। इसके एक सिरे को मुंह में रखते हैं और इसके दूसरे सिरे पर छोटे से छेद के रूप में प्रेशर वाल्व और एडजस्टेबल कैप है, जिससे पानी की मात्रा को कम-ज़्यादा किया जा सकता है। हिचकी आने पर बस इससे पानी पीना है!

यंत्र के पीछे का विचार यह है कि पानी खींचने में मध्यपाट के संकुचन के लिए फ्रेनिक तंत्रिका सक्रिय होती है, और पानी गटकने में वेगस तंत्रिका सक्रिय होती है। और ये दोनों ही तंत्रिकाएं हिचकी के लिए भी ज़िम्मेदार हैं। इसलिए इन दोनों तंत्रिकाओं को पानी पीने में व्यस्त रखकर हिचकी से बचा जा सकता है।

यंत्र की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने 249 प्रतिभागियों की प्रतिक्रिया पूछी। अधिकांश प्रतिभागियों को महीने में कम से कम एक बार हिचकी आती थी। जामा नेटवर्क ओपन पत्रिका में प्रकाशित नतीजों के अनुसार इस स्ट्रॉ से पानी पीने से लगभग 92 प्रतिशत मामलों में हिचकी रुक गई। 90 प्रतिशत से अधिक प्रतिभागियों ने कहा कि अन्य घरेलू उपायों की तुलना में यह अधिक सुविधाजनक लगा, जबकि 183 ने कहा कि उन्हें इससे बेहतर परिणाम मिले। शोधकर्ताओं का कहना है कि यह यंत्र तुरंत काम करता है और इसका प्रभाव कई घंटों तक रहता है।

अध्ययन की कुछ सीमाएं भी हैं। पहली, अध्ययन में कोई तुलनात्मक समूह नहीं रखा गया था और दूसरी, निष्कर्ष लोगों के बताए अनुभवों पर आधारित हैं।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि यह समाधान एक ऐसी समस्या के लिए तैयार किया गया है जिसकी कोई मांग नहीं थी। इसके अलावा, इस समस्या के प्रभावी और कम लागत वाले विकल्प मौजूद हैं – जैसे किसी सामान्य स्ट्रॉ से पानी पीते समय दोनों कान कसकर बंद कर लेना। जो कुछ भी छाती फुलाने और गटकने में मदद करेगा – ‘भों’ करके डराना या कुछ और – वह काम करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.verywellhealth.com/thmb/rv2jBsLSR2MSBhinYaxNYjLJe3U=/1500×972/filters:fill(87E3EF,1)/71YFYymzrIL.AC_SL1500-95a13f62f427444597eee77462d9af4a.jpg

डिमेंशिया को संभालने में संगीत की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

डिमेंशिया (मनोभ्रंश) लक्षणों का एक समूह है जो स्मृति और चिंतन को प्रभावित करता है और रोज़मर्रा के जीवन में बाधा डालता है। अल्ज़ाइमर रोग मनोभ्रंश का प्रमुख व सबसे बड़ा कारण है। मनोभ्रंश के लक्षणों को कम करने और उसे बढ़ने से रोकने के उपचार चिकित्सकीय हो सकते हैं या योग, श्वसन सम्बंधी व्यायाम, फुर्तीली सैर और मधुर संगीत सुनने जैसे उपाय हो सकते हैं। यह बीमारी वृद्धावस्था से सम्बंधित बीमारी है, जो दुनिया भर में 5.5 करोड़ से अधिक लोगों को प्रभावित करती है। 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में 65 वर्ष से अधिक उम्र के साढ़े छह करोड़ वरिष्ठ नागरिकों में से 2.7 प्रतिशत मनोभ्रंश से प्रभावित हैं (राष्ट्रीय स्वास्थ्य पोर्टल)।

मनोभ्रंश से जंग      

कैलिफोर्निया की एक वेबसाइट बेव्यू सीनियर असिस्टेड लिविंग (Bayview Senior Assisted Living) के एक लेख में मनोभ्रंश को नियंत्रित/कम करने के 13 तरीके सुझाए गए हैं। ये हैं: (1) सांस लेना और छोड़ना – पूरा ध्यान सिर्फ सांस बाहर निकलने पर लगाना, (2) किसी पसंदीदा शांत जगह के बारे में सोचना – यह आपकी शोर-मुक्त बैठक भी हो सकती है, (3) किसी पालतू जानवर की देखभाल करना, (4) मालिश – सप्ताह में एक या दो बार मालिश तनाव से राहत देती है, (5) योग – प्राणायाम मन को शांत करता है, (6) संगीत गाना-बजाना – जवानी के दिनों में जो अच्छा लगा था, (7) कलात्मक रचना और दस्तकारी – बुनाई, पेंटिंग वगैरह, (8) अपनी जगह की प्रतिदिन सफाई करना; यह आपके मस्तिष्क को सक्रिय रखता है और उपलब्धि का एहसास देता है, (9) बागवानी – भले ही सिर्फ फूलदान सवारें, (10) अखबार और किताबें पढ़ना न कि सिर्फ टीवी समाचार सुनना (और कौन बनेगा करोड़पति में पूछे गए सवालों के जवाब देने की कोशिश करना), (11) पहेलियां, वर्ग पहेली, सुडोकू और इसी तरह की पहेलियां सुलझाने के प्रयास करना, और एक नई भाषा सीखना, (12) सादा खाना बनाना (निसंदेह किसी की मदद से), और (13) सलीका बनाना (दराज़, अलमारियों का सामान व्यवस्थित करना), फालतू पुरानी फाइलों और पत्रों की छंटाई भी एक उपलब्धि है!

अवसाद कम करने और अल्ज़ाइमर को टालने वाले अन्य महत्वपूर्ण कारक क्या हैं? क्या सिर्फ एक भाषा से परिचित होने की तुलना में द्विभाषिता (दो भाषाओं में आसानी से संवाद की क्षमता) या बहुभाषिता मनोभ्रंश कम करने में अधिक फायदेमंद होती है? हैदराबाद के डॉ. सुभाष कौल और डॉ. सुवर्णा अल्लादी ने इसी पहलू पर अध्ययन किया है। अपने अध्ययन में उन्होंने पाया कि मनोभ्रंश से पीड़ित द्विभाषी लोगों में यह विकार एकभाषी लोगों की तुलना में चार साल देर से प्रकट हुआ था।

जैसा कि पता है, भारत के कई हिस्सों में लोग वास्तव में द्विभाषी हैं (वे कम से कम दो भाषाएं बोलते हैं, भले ही पढ़ न पाते हों)। दरअसल, शहरों में काम करने वाले ज़्यादातर लोग ठीक से दो भाषाएं बोल लेते हैं; उनके काम – घरेलू बाइयां, दुकानदार और इसी तरह के अन्य काम – के कारण द्विभाषिता की ज़रूरत पड़ती है। बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के सेंटर फॉर ब्रेन रिसर्च की प्रो. विजयलक्ष्मी रवींद्रनाथ ने इस पहलू पर बेंगलुरु के आसपास के लोगों के सर्वेक्षण के साथ-साथ फंक्शनल एमआरआई (FMRI) की मदद से अध्ययन शुरू किया है। बेशक, एकभाषी वरिष्ठ नागरिकों के लिए दूसरी भाषा सीखना शुरू करना फायदेमंद होगा।

संगीत की भूमिका

एक अन्य महत्वपूर्ण कारक है संगीत। सिर्फ संगीत सुनना भी उपचारात्मक हो सकता है। सेलिया मोरेनो-मोराल्स और उनके साथियों द्वारा फ्रंटियर्स इन मेडिसिन (लौसाने) में एक पेपर प्रकाशित किया गया है। विषय है मनोभ्रंश के उपचार में संगीत की भूमिका। पूर्व में हुए आठ अध्ययनों के विश्लेषण के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि संगीत मनोभ्रंश के लिए एक शक्तिशाली उपचार रणनीति हो सकती है – अकेले भी और अन्य औषधियों के साथ मिलाकर भी (जो मनोभ्रंश की प्रकृति पर निर्भर करेगा)।

संगीत स्मृति

इसी तरह का एक पेपर एम. एच. थॉट और उनके साथियों द्वारा अल्ज़ाइमर डिसीज़ एंड एसोसिएटेड डिसऑर्डर्स पत्रिका में प्रकाशित किया गया है, जिसका शीर्षक है: संज्ञानात्मक विकार से पीड़ित वृद्धजनों में दीर्घकालिक संगीत स्मृति का तंत्रिका आधार। इसमें उन्होंने हल्की संज्ञानात्मक क्षति से ग्रसित 17 लोगों के मस्तिष्क क्षेत्रों का FMRI की मदद से स्कैन किया। इस दौरान वे या तो वे अतीत में उनकी पसंद का संगीत सुन रहे थे या नया रचा गया संगीत सुन रहे थे। निष्कर्ष था कि लंबे समय से परिचित संगीत मस्तिष्क के विभिन्न क्षेत्रों को सक्रिय करता है। और यह भी पता चला कि संज्ञानात्मक रूप से अक्षम वृद्धजनों में पुरानी स्मृतियां क्यों सलामत रहती हैं। दूसरे शब्दों में, वे इसे पहचानते हैं और इसका आनंद लेते हैं!

भारत में इसी तरह के प्रयोग हरियाणा के मानेसर स्थित नेशनल सेंटर फॉर ब्रेन रिसर्च की प्रो. नंदिनी चटर्जी सिंह की टीम द्वारा किए गए हैं। उन्होंने शास्त्रीय हिंदुस्तानी संगीतकारों का एक समूह बनाया। और जब ये कलाकार गायन-वादन कर रहे थे, तब शोधकर्ताओं ने कलाकारों और श्रोताओं का निरीक्षण किया। इस प्रयोग के बारे में आप https://indscicomm.blog वेबसाइट के पॉडकास्ट अनुभाग में या Emotions in Hindustani Music-Part-2. Podcast पर सुनकर लुत्फ उठा सकते हैं।

लय और ताल

यह सिर्फ धुन का नहीं बल्कि लय, समय और हरकत का भी कमाल है। हममें से जो लोग पुराने फिल्मी गाने सुनते हैं, वे संगीत के सुर-ताल में गलतियों को तुरंत पकड़ लेते हैं। ओंटारियो, कनाडा की प्रोफेसर जेसिका ग्राहन का कहना है कि संगीत पर थिरकना एक नैसर्गिक, अक्सर अनैच्छिक, क्रिया होती है जिसका अनुभव सभी संस्कृतियों के लोग करते हैं। जब मनुष्य संगीत पर मानसिक तौर पर थिरकता है, संगीत और लय की प्रतिक्रिया में मस्तिष्क के गति-सम्बंधी केंद्र सक्रिय हो उठते हैं, तब भी जब हमने एक भी मांसपेशी नहीं हिलाई होती या ज़रा भी शरीरिक हरकत नहीं की होती। वे लोग जिन्हें ताल पर थिरकने में परेशानी होती है क्या वे भी मजबूर महसूस करते हैं? यदि ऐसा है तो डिमेंशिया जैसे तंत्रिका विघटन सम्बंधी विकार से पीड़ित लोगों के लिए संगीत हस्तक्षेप की उत्साहजनक संभावना हो सकती है। तो संगीत को बजने दो! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.ytimg.com/vi/DFuzxFF4uSQ/maxresdefault.jpg