बारिश और नमी से ऊर्जा का उत्पादन

हाल ही वैज्ञानिकों ने वर्षा बूंदों और नमी की मदद से ऊर्जा उत्पादन की एक अभूतपूर्व हरित तकनीक विकसित की है। मैसाचुसेट्स एमहर्स्ट विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञानी जून याओ और उनकी टीम ने एक ऐसी सरंध्र फिल्म विकसित की है जो जलवाष्प में प्राकृतिक रूप से मौजूद आवेशों को विद्युत धारा में परिवर्तित कर सकती है।
वर्तमान में ये फिल्में डाक टिकटों के आकार की हैं और अल्प मात्रा में ही विद्युत उत्पन्न करती हैं, लेकिन उम्मीद है कि भविष्य में इन्हें बड़ा करके सौर पैनलों की तरह लगाया जा सकेगा। इस तकनीक को हाइड्रोवोल्टेइक कहते हैं। और दुनियाभर के कई समूह नवीन हाइड्रोवोल्टेइक उपकरणों पर काम कर रहे हैं जिससे वाष्पीकरण, वर्षा और मामूली जलप्रवाह की ऊर्जा को विद्युत में बदल जा सकता है।
नमी की निरंतर उपलब्धता हाइड्रवोल्टेइक को खास तौर से उपयोगी बनाती है। रुक-रुक कर मिलने वाली पवन और सौर ऊर्जा के विपरीत, वातावरण में नमी की निरंतर उपस्थिति एक सतत ऊर्जा स्रोत प्रदान करती है। वैसे तो मनुष्य प्राचीन समय से पनचक्कियों से लेकर आधुनिक जलविद्युत बांधों तक, ऊर्जा के लिए बहते पानी का उपयोग करते आए हैं। लेकिन हाइड्रोवोल्टेइक्स पदार्थों के साथ पानी की अंतर्क्रिया पर आधारित है।
शोधकर्ताओं ने देखा था कि आवेशित सतहों से टकराने वाली बूंदों या बहते पानी से छोटे-छोटे वोल्टेज स्पाइक्स उत्पन्न होते हैं। इस तकनीक की मदद से हाल ही में, थोड़े समय के लिए ही सही लेकिन बूंदों की बौछारों से 1200 वोल्ट तक बिजली उत्पन्न की गई जो एलईडी डायोड के टिमटिमाने लिए पर्याप्त थी।
इसके अलावा वाष्पीकरण में भी बिजली उत्पादन की क्षमता होती है। हांगकांग पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के मेकेनिकल इंजीनियर ज़ुआंकाई वांग ने ड्रिंकिंग बर्ड नामक खिलौने से इसका प्रदर्शन किया। यह खिलौना एक झूलती चिड़िया होती है। इसकी अवशोषक ‘चोंच’ को पानी में डुबोया जाता है तो यह डोलने लगती है। इसके वापस सीधा होने के बाद, पानी वाष्पित होता है और इसके सिर को ठंडा कर देता है। दबाव में आई कमी के कारण एक अन्य द्रव सिर में पहुंच जाता है और दोलन फिर शुरू हो जाता है। इस गति का उपयोग ‘ट्राइबोइलेक्ट्रिक’ जनरेटर की मदद से बिजली उत्पन्न करने के लिए किया जाता है।
इससे पहले याओ ने पिछले वर्ष हवा में उपस्थित पानी के अणुओं से विद्युत आवेशों को पकड़ने के लिए एक वायु जनरेटर भी तैयार किया था। इस जनरेटर में नैनो-रंध्रों वाली एक पतली चादर का उपयोग किया गया था। वर्तमान में इस जनरेटर से उत्पादन चंद माइक्रोवॉट प्रति वर्ग सेंटीमीटर के आसपास ही है, लेकिन याओ का विचार है कि कई परतों का उपयोग करके इस जनरेटर को एक 3डी डिवाइस में बदल सकते हैं जो हवा से निरंतर बिजली कैप्चर करने में सक्षम हो सकता है।
इसके अलावा जटिल नैनो संरचना आधारित लकड़ी का उपयोग एक अन्य हाइड्रोवोल्टेइक प्रणाली विकसित करने के लिए किया गया है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस लकड़ी के टुकड़े को पानी पर रखकर और उसकी ऊपरी सतह को हवा के संपर्क में लाकर बिजली पैदा की जा सकती है। ऊपर की ओर से वाष्पीकरण लकड़ी के चैनलों के माध्यम से अधिक पानी और आयन खींचता है, जिससे एक छोटी लेकिन स्थिर विद्युत धारा उत्पन्न होती है। शोधकर्ताओं ने लकड़ी में सोडियम हाइड्रॉक्साइड का उपयोग किया जिससे उत्पादन दस गुना तक बढ़ा। आयरन ऑक्साइड नैनोकणों को शामिल करने से, बिजली उत्पादन 52 माइक्रोवॉट प्रति वर्ग मीटर तक पहुंच गया जो प्राकृतिक लकड़ी की तुलना में बेहतर है।
फिलहाल इन उपकरणों की ऊर्जा उत्पादन दरें काफी कम हैं। तुलना के लिए सिलिकॉन सौर पैनल की क्षमता 200 से 300 वॉट प्रति वर्ग मीटर होती है। लेकिन हाइड्रोवोल्टेइक्स अभी शुरुआती दौर में है। और अधिक अध्ययन होगा तो हरित ऊर्जा के क्षेत्र में हाइड्रोवोल्टेइक्स एक आशाजनक प्रणाली साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परंपरागत जल संरक्षण की बढ़ती उपयोगिता

स वर्ष फरवरी के महीने से ही कर्नाटक के एक बड़े क्षेत्र से गंभीर जल संकट के समाचार मिलने आरंभ हो गए थे। दूसरी ओर, पिछले वर्ष बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी। जलवायु बदलाव के इस दौर में विभिन्न स्तरों पर बाढ़ और सूखे दोनों के संकट अधिक गंभीर हो सकते हैं।

देखने में तो बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की – एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसती सूखी प्यासी धरती। इसके बावजूद प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल प्रबंधन का अभाव।

जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे अपितु सूखे की स्थिति से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।

भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि युरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। युरोप में वर्षा पूरे साल धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है। अत: स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण युरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। इसके अलावा, भारत की वर्षा की तुलना में युरोप में वर्षा की औसत बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। युरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।

दूसरे शब्दों में, हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके पानी के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत सारी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है।

इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करे।

दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे खेत-तालाब, मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिज़ाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी कुशलतापूर्वक करना संभव है।

वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की ज़रूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी तमाम परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा। जल प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और ग्रामीणों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज़ सरकार चाहती ही नहीं थी, उपाय क्या करती। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्था को जितना सहेज सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।

दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। औपनिवेशिक शासकों ने जल प्रबंधन की जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ युरोप में वर्षा के पैटर्न पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता, समझता?

गांव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी, अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरूस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मझोले बांध बनाने पर ज़ोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुंचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गांवों में पहुंचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक मंहगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।

इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख गुण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता होगी। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को संभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं जिनके साथ यह लिखा रहता है – अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपए के निर्माण कार्य जो बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरी ओर, नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांव तक पानी पहुंचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम है, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम भी स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं।

जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और चमक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गांवों में स्थानीय ज्ञान और स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर जो छोटे स्तर की आत्म-निर्भर व्यवस्थाएं जनसाधारण की सेवा करती रही हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और पूर्वजों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।

यह सच है कि इस परंपरा में अनेक कमियां भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएं थीं और ये विषमताएं कई बार तकनीक में भी खोट पैदा करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी ज़रूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। एक ओर हमें इन पारंपरिक विकृतियों से लड़ना है और उन्हें दूर करना है। लेकिन दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि इस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने में सबसे ज़्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल प्रबंधन का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं। जैसे केवट, मल्लाह, कहार, ढीमर, मछुआरे आदि। ज़रूरत इस बात की है कि स्थानीय जल प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गांव में पहले से मौजूद है उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए।

महाराष्ट्र में पुणे ज़िले में पानी पंचायतों के सहयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमिहीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परंपरागत तरीकों को इस तरह सुधारने के प्रयास निरंतर होने चाहिए, पर परंपराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे का स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हाइड्रोजन: भविष्य का स्वच्छ ईंधन – डॉ. रुचिका मिश्रा

र्तमान समय की सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है पर्यावरण को बचाते हुए ऊर्जा की अपूरणीय मांग को पूरा करना, जो कि मानव जाति के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक अर्थव्यवस्था पेट्रोलियम, कोयला, गैस आदि जैसे जीवाश्म ईंधनों पर बहुत अधिक निर्भर है, लेकिन ये तेज़ी से चुक रहे हैं। स्पष्ट है कि ये संसाधन हमेशा उपलब्ध नहीं रहने वाले, और ये हमारे ग्रह को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। इससे सभी देशों में एक गंभीर बहस छिड़ गई है कि पर्यावरण दिन-ब-दिन बदहाल हो रहा है और पृथ्वी धीरे-धीरे भावी पीढ़ी के लिए अनुपयुक्त होती जा रही है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए हमें ऊर्जा संकट से उबरना होगा, और इसके लिए नए एवं बेहतर ऊर्जा स्रोतों की खोज करना अत्यंत आवश्यक है। हाल के दिनों में, शोधकर्ताओं का ध्यान ऊर्जा के एक स्वच्छ और टिकाऊ नवीकरणीय स्रोत विकसित करने पर केंद्रित हुआ है। इस सम्बंध में, हाइड्रोजन एक संभावित उम्मीदवार की तरह उभरी है जो स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा प्रदान करके बढ़ती जलवायु चुनौतियों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। देखें तो यह विचार क्रिन्यावित करने में बहुत सरल और आसान-सा लगता है। लेकिन, एक सुस्थापित जीवाश्म ईंधन आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था से हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था में तबदीली इतना सीधा-सहज मामला नहीं है। इसके लिए समग्र रूप से वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों और समाज के बीच सहज और निर्बाध सहयोग की दरकार है। साथ ही ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिनसे हाइड्रोजन का व्यावसायीकरण करने से पहले निपटना होगा। इसलिए, यह समझना ज़रूरी है कि यह नई ‘रामबाण दवा’ किस तरह हमारी समस्याओं को हल करने का दावा करती है और आगे के मार्ग में किस तरह की चुनौतियां हैं। आगे बढ़ने से पहले, हाइड्रोजन के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं।

हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है, जो द्रव्यमान के हिसाब से सभी सामान्य पदार्थों का 74 प्रतिशत है। तात्विक हाइड्रोजन गैसीय H2 के रूप में हो सकती है, और यह गैर-विषाक्त एवं निहायत हल्की होती है। ब्रह्मांड का सबसे प्रचुर तत्व होने के बावजूद मुक्त हाइड्रोजन गैस पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत दुर्लभ है क्योंकि यह अत्यधिक क्रियाशील होती है और हल्की होने के कारण आसानी से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से निकल जाती है। इसलिए, हम वायुमंडल से सीधे हाइड्रोजन प्राप्त करने के बारे में नहीं सोच सकते। फिर, इसका सबसे आम स्रोत पानी है जो सभी जीवित प्राणियों में भी मौजूद है। दूसरे शब्दों में कहें तो, हाइड्रोजन हम सभी में मौजूद है!

कई वैज्ञानिकों एवं समृद्धजनों ने हाइड्रोजन को कार्बन आधारित ईंधन के आकर्षक और आशाजनक विकल्प के रूप में सुझाया है। यह सुझाव निम्नलिखित तथ्यों से उपजा है:

  1. हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है।
  2. हाइड्रोजन से चलने वाले ईंधन सेल बिजली, ऊष्मा और पानी का उत्पादन करते हैं एवं बहुत ही कम कार्बन फुटप्रिंट छोड़ते हैं।
  3. आणविक हाइड्रोजन के ऑक्सीजन के साथ दहन से ऊष्मा उत्पन्न होती है और इसका एकमात्र उपोत्पाद पानी होता है। दूसरी ओर, जीवाश्म ईंधन का दहन कई हानिकारक प्रदूषक और भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करता है।
  4. उल्लेखनीय है कि कई वाहन निर्माता कंपनियों ने यह दर्शाया है कि हाइड्रोजन का उपयोग सीधे अंत:दहन इंजन में किया जा सकता है। इसलिए, परिवहन उद्योग अब वाहनों के लिए हाइड्रोजन आधारित ईंधन में भारी निवेश कर रहे हैं।

अलबत्ता, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसा पहली बार नहीं है जब हाइड्रोजन को ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। किसी ज़माने में, ‘टाउन गैस’ नामक मिश्रण का महत्वपूर्ण घटक हाइड्रोजन थी, इसका उपयोग खाना पकाने और घरों एवं सड़कों को रोशन करने के ईंधन के रूप में व्यापक तौर पर किया जाता था। बाद में, टाउन गैस की जगह तेज़ी से प्राकृतिक गैस और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों ने ले ली। विद्युत के आने से टाउन गैस का महत्व और भी कम हो गया। कहा गया कि बिजली स्वच्छ ऊर्जा है।

समस्याएं

क्रांतिकारी ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का महत्व काफी बढ़ा दिया गया है, और यह माना जा रहा है कि यह जल्द ही पेट्रोलियम जैसे पारंपरिक ईंधन की जगह ले लेगी और दुनिया की ऊर्जा एवं पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं का समाधान करेगी। दुर्भाग्य से, हमें यह मानना होगा कि इसे साकार करना इतना आसान नहीं है। हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था स्थापित करने की तीन मुख्य चुनौतियां हैं: हाइड्रोजन का स्वच्छ उत्पादन, कुशल और रिसाव रोधी भंडारण और सुरक्षित परिवहन।

स्वच्छ उत्पादन

जैसा कि पहले बताया गया है, पृथ्वी पर तात्विक हाइड्रोजन बहुत अधिक मात्रा में मौजूद नहीं है। इसे पानी से प्राप्त करना आसान नहीं है, और महंगा भी है। बेशक ऐसा लगता है हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन की भूमिका निभा सकता है, लेकिन वास्तव में यह ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत नहीं बल्कि ऊर्जा का वाहक है। इसका उत्पादन कुछ अन्य स्रोतों से करना होगा और उसके बाद ही इसकी रासायनिक ऊर्जा का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए किया जा सकेगा। वर्तमान में, अधिकांश हाइड्रोजन का उत्पादन जीवाश्म ईंधनों से ही होता है, जो परोक्ष रूप से कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाता है। अगर हम मौजूदा मांग को देखें, मसलन सिर्फ परिवहन के लिए ही देखें, तो इसकी आपूर्ति के लिए बहुत अधिक मात्रा में हाइड्रोजन की आवश्यकता होगी। और हाइड्रोजन उत्पादन के मौजूदा संसाधनों से इस मांग की आपूर्ति करना बेहद मुश्किल है। इसलिए, यदि हम हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था पर आना चाहते हैं तो हमें हाइड्रोजन उत्पादन के लिए अधिक टिकाऊ, गैर-प्रदूषणकारी और कम लागत वाली विधियों की दरकार है। इस संदर्भ में स्वच्छ ऊर्जा के इस स्रोत के उत्पादन के लिए कार्यक्षम सामग्री व विधियां विकसित करने के कई प्रयास किए जा रहे हैं।

सुरक्षित भंडारण

दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है हाइड्रोजन के लिए सुरक्षित भंडारण व्यवस्था बनाना ताकि औद्योगिक, घरेलू और परिवहन के लिए पर्याप्त ईंधन उपलब्ध हो सके। गौरतलब है कि समान मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए आयतन के हिसाब से गैसोलीन की तुलना में हाइड्रोजन 3000 गुना अधिक लगती है, यानी आयतन के हिसाब से इसका ऊर्जा घनत्व कमतर है। इसका मतलब है कि इसका उपयोग करने के लिए इसके भंडारण हेतु विशाल टैंकों की आवश्यकता होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम समझ सकते हैं कि हाइड्रोजन टैंक कारों जैसे छोटे वाहनों के लिए मुनासिब नहीं हो सकते हैं, और इन छोटे वाहनों की कॉम्पैक्ट डिज़ाइन में टैंकों को फिट करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा, हाइड्रोजन की एक खासियत यह है कि वह कई धातुओं में से रिस जाती है। इसलिए धातु-आधारित मौजूदा ईंधन तंत्रों (टैंक, पाइप, चैम्बर वगैरह) को ठीक से इन्सुलेट करना होगा। उचित प्रौद्योगिकी के बिना हाइड्रोजन का भंडारण हाइड्रोजन रिसाव का कारण बन सकता है, जिससे न केवल ईंधन ज़ाया होगा बल्कि सुरक्षा सम्बंधी गंभीर खतरे भी पैदा हो सकते हैं क्योंकि हाइड्रोजन अत्यधिक ज्वलनशील और विस्फोटक गैस है। कुल मिलाकर, वाहनों के लिए हाइड्रोजन का भंडारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैसे, भंडारण को लेकर कई प्रस्ताव हैं ताकि उसका ऊर्जा घनत्व बढ़ाया जा सके – चाहे गैस के रूप में या अन्य तत्वों के साथ जोड़कर।

सुरक्षित परिवहन

भंडारण की तरह ही हाइड्रोजन का परिवहन भी तकनीकी रूप से पेचीदा है, और इसके भंडारण के विभिन्न चरणों में हाइड्रोजन के प्रबंधन की अपनी अलग-अलग सुरक्षा चुनौतियां हैं। वर्तमान में, हाइड्रोजन की आपूर्ति मुख्यत: स्टील सिलेंडर में संपीड़ित गैस, या टैंक में तरल हाइड्रोजन के रूप में की जाती है। इस तरह से आपूर्ति करना किफायती नहीं है, और यह अंतिम उपयोगकर्ताओं की जेब पर भारी पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वह दिन अभी दूर है जब हम अपनी कारों में पेट्रोल-डीज़ल की तरह हाइड्रोजन भरवा सकेंगे। जब तक हाइड्रोजन के सुरक्षित और निरंतर परिवहन के लिए उचित बुनियादी ढांचा नहीं बनेगा, तब तक हाइड्रोजन से चलने वाले वाहन आम आदमी को लुभा नहीं पाएंगे। अलबत्ता, यदि भंडारण का मुद्दा सुलझ गया, तो परिवहन सम्बंधी समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो सकेंगी।

स्वच्छ भविष्य का वरदान यानी हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में उपयोग करने के फायदे और चुनौतियां हमने इस लेख में देखीं। लेकिन, आदर्श बदलाव लाने के लिए विभिन्न हितधारकों का समन्वित प्रयास आवश्यक है। लोगों के बीच हाइड्रोजन के फायदों को प्रचारित कर इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है, और एक व्यापक वर्ग से भागीदारी का आग्रह किया जा सकता है।

कई देशों ने वास्तव में इन समस्याओं पर काम करना शुरू कर दिया है। सरकारों, उद्योग व शिक्षा जगत को एकजुट होकर काम करना होगा ताकि इस कठिन परिस्थिति का उपयोग स्वच्छ एवं हरित हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था पर स्थानांतरित होने के अवसर के रूप में हो सके। हाइड्रोजन में पूरे ऊर्जा क्षेत्र में क्रांति लाने की ताकत है, लेकिन इसकी कई वैज्ञानिक और तकनीकी बाधाओं को दूर करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

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आभासी विद्युत संयंत्र

पिछले कुछ वर्षों में इलेक्ट्रिक वाहनों और उपकरणों के बढ़ते उपयोग से बिजली की मांग तेज़ी से बढ़ी है। इस मांग को पूरा करने के लिए तत्काल नए ऊर्जा संयंत्रों की आवश्यकता है लेकिन नए निर्माण की तुलना में पुराने बिजली संयंत्र अधिक तेज़ी से बंद हो रहे हैं। इस असंतुलन से निपटने के लिए बिजली कंपनियां पवन और सौर ऊर्जा जैसे नवीकरणीय स्रोतों की मदद से आभासी बिजली संयंत्र की अवधारणा पर काम कर रही हैं।

वास्तव में आभासी बिजली संयंत्र पारंपरिक बिजली संयंत्र जैसे नहीं हैं बल्कि ये बिजली उत्पादकों, उपभोक्ताओं और ऊर्जा भंडारणकर्ताओं द्वारा बिजली का संग्रह हैं जिन्हें वितरित ऊर्जा स्रोत (डीईआर) कहते हैं। आवश्यकता होने पर ग्रिड प्रबंधक डीईआर से ऊर्जा मांग को पूरा कर सकते हैं। इस तरह से एक शक्तिशाली और चुस्त ऊर्जा प्रणाली को तेज़ी से तैनात किया जा सकता है जो नए पारंपरिक बिजली संयंत्रों के निर्माण की तुलना में अधिक लागत प्रभावी है।

यूएस ऊर्जा विभाग का अनुमान है कि स्मार्ट थर्मोस्टेट, वॉटर हीटर, सौर पैनल और बैटरी जैसी प्रौद्योगिकियों को व्यापक रूप से अपनाने से 2030 तक आभासी बिजली संयंत्रों की क्षमता तीन गुना तक बढ़ सकती है। यदि ऐसा होता है तो आभासी बिजली संयंत्र नई मांग के लगभग आधे हिस्से की पूर्ति कर पाएंगे। इससे नए नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों और पारंपरिक बिजली संयंत्रों के निर्माण से जुड़ी लागत को सीमित करने में मदद मिलेगी। इसके अलावा, ऊर्जा खपत वाले क्षेत्रों में आभासी बिजली संयंत्र की उपस्थिति से पुरानी पारेषण प्रणालियों पर दबाव कम होगा।

इस तकनीक से पारंपरिक उत्पादक-उपभोक्ता मॉडल में क्रांतिकारी परिवर्तन आएगा। पूर्व में बड़े पैमाने पर बिजली संयंत्र बिजली पैदा करते थे और इसे निष्क्रिय उपभोक्ताओं तक भेजते थे। लेकिन अब उपभोक्ता सक्रिय रूप से ऊर्जा मांग का प्रबंधन स्वयं कर सकते हैं। बाज़ार में उपस्थित स्मार्ट उपकरण बिजली आपूर्ति और कीमत में उतार-चढ़ाव के आधार पर बिजली के उपयोग को समायोजित कर सकते हैं जिससे ग्रिड स्थिरता बनाए रखने में मदद मिलती है। अमेरिकी उपभोक्ता अपने घरों को आभासी बिजली स्रोतों में बदलने के लिए तेज़ी से सौर पैनल अपना रहे हैं जबकि दक्षिण ऑस्ट्रेलिया 50,000 घरों को सौर एवं बैटरी से जोड़कर देश का सबसे बड़ा आभासी बिजली संयंत्र बना रहा है।

अलबत्ता, आभासी बिजली संयंत्र स्थापित करना कई चुनौतियों से भरा है। कई ग्राहकों को अपने निजी उपकरणों का नियंत्रण देने में झिझक हो सकती है जबकि अन्य को स्मार्ट मीटर की सुरक्षा और गोपनीयता को लेकर चिंता होगी। ग्राहकों को पर्याप्त प्रलोभन और भरोसा देकर इन सभी चिंताओं का समाधान किया जा सकता है।

बिजली की बढ़ती मांग और नवीकरणीय संसाधनों से उत्पादित बिजली के अधिक केंद्रीकृत होने से ग्रिड प्रबंधकों को पवन व सौर ऊर्जा के परिवर्तनीय उत्पादन को संतुलित करने के लिए अधिक लचीली प्रणाली विकसित करना होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घर बन जाएंगे असीम बैटरियां

हाल ही में शोधकर्ताओं ने ऊर्जा संग्रहण के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी खोज की है। इस नई खोज में सीमेंट में उच्च चालकता वाले कार्बन (ग्रैफीन या कार्बन नैनोनलिकाओं) का उपयोग करके सीमेंट रचनाओं में सुपरकैपेसिटर बनाने का एक किफायती तरीका विकसित किया गया है। इन विद्युतीकृत सीमेंट संरचनाओं में पर्याप्त ऊर्जा संचित की जा सकती है जिससे घर और सड़कें बैटरियों की तरह काम कर पाएंगे।

गौरतलब है कि सुपरकैपेसिटर  में दो चालक प्लेट्स का उपयोग किया जाता है जिसके बीच में एक इलेक्ट्रोलाइट और एक पतली झिल्ली होती है। जब यह उपकरण चार्ज होता है, विपरीत आवेश वाले आयन अलग-अलग प्लेट्स पर जमा होने लगते हैं। इन उपकरणों में ऊर्जा संचयन की क्षमता प्लेट्स की सतह के क्षेत्रफल पर निर्भर करती है। पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिकों ने कॉन्क्रीट और कार्बन सम्मिश्र जैसी सामग्रियों में सुपरकैपेसिटर बनाने के प्रयास किए हैं। चूंकि सुपरकैपेसिटर में गैर-ज्वलनशील इलेक्ट्रोलाइट का उपयोग होता है इसलिए ये पारंपरिक बैटरियों की तुलना में अधिक सुरक्षित हैं।

सामान्य सीमेंट विद्युत का एक खराब चालक होता है। इस समस्या के समाधान के लिए शोधकर्ताओं ने अत्यधिक सुचालक कार्बन रूपों (ग्रैफीन या कार्बन नैनोट्यूब्स) को सीमेंट में मिलाया। यह तकनीक काफी प्रभावी साबित हुई लेकिन बड़े पैमाने पर इनका उत्पादन काफी खर्चीला और कठिन होता है। इसके किफायती विकल्प की तलाश में एमआईटी के फ्रांज़-जोसेफ उल्म और उनकी टीम ने ब्लैक कार्बन का उपयोग किया जो पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध है और किफायती भी है। इस मिश्रण के कठोर होने पर सीमेंट के भीतर सुचालक तंतुओं का एक समन्वित जाल बन गया। इस सीमेंट को छोटे सुपरकैपेसिटर प्लेट्स के रूप में तैयार करने के बाद इसमें इलेक्ट्रोलाइट के रूप में पोटैशियम क्लोराइड और पानी का उपयोग किया गया। इसके बाद शोधकर्ताओं ने इस उपकरण से एलईडी बल्ब जलाया।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यदि कार्बन ब्लैक सीमेंट का उपयोग 45 घनमीटर कॉन्क्रीट (यानी एक सामान्य घर की नींव के बराबर) बनाने के लिए किया जाता है तो यह 10 किलोवॉट-घंटा ऊर्जा संचित कर सकता है जो एक औसत घर की एक दिन की ऊर्जा आवश्यकता को पूरा कर सकती है। बड़े पैमाने पर इस बिजली का उपयोग पार्किंग स्थलों, सड़कों और इलेक्ट्रिक वाहनों की चार्जिंग में किया जा सकता है। इसके अलावा यह महंगी बैटरियों का प्रभावी विकल्प पेश करके विकासशील देशों में ऊर्जा भंडारण की समस्या को भी हल कर सकता है।

हालांकि बड़े पैमाने पर इस तकनीक का उपयोग चुनौतीपूर्ण है। जैसे-जैसे सुपरकैपेसिटर बड़े होते हैं, उनकी चालकता कम हो जाती है। इसका एक समाधान सीमेंट में ज़्यादा ब्लैक कार्बन का उपयोग हो सकता है लेकिन ऐसा करने पर सीमेंट की मज़बूती कम होने की संभावना है। फिलहाल शोधकर्ताओं ने इस तकनीक को पेटेंट कर लिया है और वाहनों में उपयोग होने वाली 12-वोल्ट बैटरी जैसा आउटपुट प्राप्त करने का प्रयास कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान समाचार संकलन: मई-जून 2023

अमेरिका में नमभूमियों की सुरक्षा में ढील

मेरिकी सर्वोच्च न्यायालय के एक हालिया फैसले ने क्लीन वॉटर एक्ट के अंतर्गत शामिल दलदली क्षेत्रों की परिभाषा को संकीर्ण कर दिया है। इस फैसले से नमभूमियों को प्राप्त संघीय सुरक्षा कम हो गई है। बहुमत द्वारा दिया गया यह फैसला कहता है कि क्लीन वॉटर एक्ट सिर्फ उन नमभूमियों पर लागू होगा जिनका आसपास के विनियमित जल के साथ निरंतर सतही जुड़ाव है जबकि फिलहाल एंजेंसियों का दृष्टिकोण रहा है कि नमभूमि की परिभाषा में वे क्षेत्र भी शामिल हैं जिनका किसी तरह का जुड़ाव आसपास के सतही पानी से है। इस निर्णय से मतभेद रखने वाले न्यायाधीशों का मानना है कि यह नया कानून जलमार्गों के आसपास की नमभूमियों की सुरक्षा को कम करेगा और साथ ही प्रदूषण तथा प्राकृतवासों के विनाश को रोकने के प्रयासों को भी कमज़ोर करेगा। वर्तमान मानकों के पक्ष में जो याचिका दायर की गई थी उसके समर्थकों ने कहा है कि इस फैसले से 180 करोड़ हैक्टर नमभूमि यानी पहले से संरक्षित क्षेत्र के लगभग आधे हिस्से से संघीय नियंत्रण समाप्त हो जाएगा। कई वैज्ञानिकों ने फैसले का विरोध करते हुए कहा है कि इस फैसले में नमभूमि जल विज्ञान की जटिलता को नज़रअंदाज़ किया गया है। (स्रोत फीचर्स)

दीर्घ-कोविड को परिभाषित करने के प्रयास

कोविड-19 से पीड़ित कई लोगों में लंबे समय तक विभिन्न तकलीफें जारी रही हैं। इसे दीर्घ-कोविड कहा गया है। इसने लाखों लोगों को कोविड-19 से उबरने के बाद भी लंबे समय तक बीमार या अक्षम रखा। अब वैज्ञानिकों का दावा है कि उन्होंने दीर्घ-कोविड के प्रमुख लक्षणों की पहचान कर ली है। दीर्घ-कोविड से पीड़ित लगभग 2000 और पूर्व में कोरोना-संक्रमित 7000 से अधिक लोगों की रिपोर्ट का विश्लेषण कर शोधकर्ताओं ने 12 प्रमुख लक्षणों की पहचान की है। इनमें ब्रेन फॉग (भ्रम, भूलना, एकाग्रता की कमी वगैरह), व्यायाम के बाद थकान, सीने में दर्द और चक्कर आने जैसे लक्षण शामिल हैं। अन्य अध्ययनों ने भी इसी तरह के लक्षण पहचाने हैं। दी जर्नल ऑफ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित इस अध्ययन का उद्देश्य एक मानकीकृत परिभाषा और दस पॉइन्ट का एक पैमाना विकसित करना है जिसकी मदद से इस सिंड्रोम का सटीक निदान किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

निजी चंद्र-अभियान खराब सॉफ्टवेयर से विफल हुआ

त 25 अप्रैल को जापानी चंद्र-लैंडर की दुर्घटना के लिए सॉफ्टवेयर गड़बड़ी को दोषी बताया जा रहा है। सॉफ्टवेयर द्वारा यान की चंद्रमा की धरती से ऊंचाई का गलत अनुमान लगाया गया और यान ने अपना ईंधन खर्च कर दिया। तब वह चंद्रमा की सतह से लगभग 5 किलोमीटर ऊंचाई से नीचे टपक गया। यदि सफल रहता तो हकोतो-आर मिशन-1 चंद्रमा पर उतरने वाला पहला निजी व्यावसायिक यान होता। कंपनी अब 2024 व 2025 के अभियानों की तैयारी कर रही है, जिनमें इस समस्या के समाधान पर विशेष ध्यान दिया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

यूएई द्वारा क्षुद्रग्रह पर उतरने योजना

संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) की स्पेस एजेंसी मंगल और बृहस्पति के बीच स्थित सात क्षुद्रग्रहों के अध्ययन के लिए एक अंतरिक्ष यान का निर्माण करने की योजना बना रही है। 2028 में प्रक्षेपित किया जाने वाला यान यूएई का दूसरा खगोलीय मिशन होगा। इससे पहले होप अंतरिक्ष यान लॉन्च किया गया था जो वर्तमान में मंगल ग्रह की कक्षा में है। इस नए यान को दुबई के शासक शेख मोहम्मद बिन राशिद अल मकतूम के नाम पर एमबीआर एक्सप्लोरर नाम दिया जाएगा।

वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यान 2034 में जस्टिशिया नामक लाल रंग के क्षुद्रग्रह पर एक छोटे से लैंडर को उतारेगा। इस क्षुद्रग्रह पर कार्बनिक पदार्थों के उपस्थित होने की संभावना है।

एमबीआर एक्सप्लोरर का निर्माण संयुक्त अरब अमीरात द्वारा युनिवर्सिटी ऑफ कोलोरेडो बोल्डर के वैज्ञानिकों के सहयोग से किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

डब्ल्यूएचओ द्वारा फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन का आग्रह

त 29 मई को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने एक प्रस्ताव पारित करके सदस्य देशों से खाद्य पदार्थों में फोलिक एसिड मिलाने का आग्रह किया है। यह प्रस्ताव स्पाइना बाईफिडा जैसी दिक्कतों की रोकथाम के लिए दिया गया है जो गर्भावस्था के शुरुआती हफ्तों में एक प्रमुख विटामिन की कमी से होती हैं। फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन के प्रमाणित लाभों को देखते हुए इस प्रस्ताव को सर्वसम्मति से अपनाया गया। वर्तमान में डब्ल्यूएचओ के 194 सदस्य देशों में से केवल 69 देशों में फोलिक एसिड फोर्टिफिकेशन अनिवार्य किया गया है जिसमें ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, यूएसए और कोलंबिया शामिल हैं। इस प्रस्ताव में खाद्य पदार्थों को आयोडीन, जस्ता, कैल्शियम, लौह और विटामिन ए और डी से साथ फोर्टिफाई करने का भी आह्वान किया गया है ताकि एनीमिया, अंधत्व और रिकेट्स जैसी तकलीफों की रोकथाम की जा सके। (स्रोत फीचर्स)

एक्स-रे द्वारा एकल परमाणुओं की जांच की गई

क्स-रे अवशोषण की मदद से पदार्थों का अध्ययन तो वैज्ञानिक करते आए हैं। लेकिन हाल ही में अवशोषण स्पेक्ट्रोस्कोपी को एकल परमाणुओं पर आज़माया गया है। नेचर में प्रकाशित इस रिपोर्ट में वैज्ञानिकों ने लोहे और टर्बियम परमाणुओं वाले कार्बनिक अणुओं के ऊपर धातु की नोक रखी। यह नोक कुछ परमाणुओं जितनी चौड़ी थी और कार्बनिक पदार्थ से मात्र चंद नैनोमीटर ऊपर थी। फिर इस सैम्पल को एक्स-रे से नहला दिया गया जिससे धातुओं के इलेक्ट्रॉन उत्तेजित हुए। जब नोक सीधे धातु के परमाणु पर मंडरा रही थी तब उत्तेजित इलेक्ट्रॉन परमाणु से नोक की ओर बढ़े जबकि नीचे लगे सोने के वर्क से परमाणु उनकी जगह लेने को प्रवाहित हुए। एक्स-रे की ऊर्जा के साथ इलेक्ट्रॉनों के प्रवाह में परिवर्तन को ट्रैक करके धातु के परमाणुओं के आयनीकरण की अवस्था को निर्धारित करने के अलावा यह पता लगाया गया कि ये परमाणु अणु के अन्य परमाणुओं से कैसे जुड़े थे। (स्रोत फीचर्स)

कोविड-19 अध्ययन संदेहों के घेरे में

कोविड-19 महामारी के दौरान विवादास्पद फ्रांसीसी सूक्ष्मजीव विज्ञानी डिडिएर राउल्ट ने कोविड  रोगियों पर मलेरिया की दवा हाइड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन और एंटीबायोटिक एज़िथ्रोमाइसिन के प्रभावों का अध्ययन किया था। 28 मई को ले मॉन्ड में प्रकाशित एक खुले पत्र में 16 फ्रांसीसी चिकित्सा समूहों और अनुसंधान संगठनों ने इस अध्ययन की आलोचना करते हुए कहा है कि यह अब तक का सबसे बड़ा ज्ञात अनाधिकृत क्लीनिकल परीक्षण था। उन्होंने कार्रवाई की गुहार लगाई है। खुले पत्र के अनुसार उक्त दवाओं के अप्रभावी साबित होने के लंबे समय बाद भी 30,000 रोगियों को ये दी जाती रहीं और क्लीनिकल परीक्षण सम्बंधी नियमों का पालन नहीं किया गया। फ्रांसीसी अधिकारियों के अनुसार इस क्लीनिकल परीक्षण को युनिवर्सिटी हॉस्पिटल इंस्टीट्यूट मेडिटेरेनी इंफेक्शन (जहां राउल्ट निदेशक रहे हैं) द्वारा की जा रही तहकीकात में शामिल किया जाएगा। राउल्ट का कहना है कि अध्ययन में न तो नियमों का उल्लंघन हुआ और न ही यह कोई क्लीनिकल परीक्षण था। यह तो रोगियों के पूर्व डैटा का विश्लेषण था। (स्रोत फीचर्स)

बढ़ता समुद्री खनन और जैव विविधता

पूर्वी प्रशांत महासागर में एक गहरा समुद्र क्षेत्र है जिसे क्लेरियन-क्लिपर्टन ज़ोन कहा जाता है। यह आकार में अर्जेंटीना से दुगना बड़ा है। वर्तमान में इस क्षेत्र में व्यापक स्तर पर वाणिज्यिक खनन जारी है जो इस क्षेत्र में रहने वाली प्रजातियों के लिए खतरा है।

इस क्षेत्र में पेंदे पर रहने वाली (बेन्थिक) 5000 से अधिक प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से मात्र 436 को पूरी तरह से वर्णित किया गया है। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में शोध यात्राओं के दौरान एकत्र किए गए लगभग 1,00,000 नमूनों का विश्लेषण करने के बाद वैज्ञानिकों ने ये आंकड़े प्रस्तुत किए हैं। बेनाम प्रजातियों में बड़ी संख्या क्रस्टेशियन्स (झींगे, केंकड़े आदि) और समुद्री कृमियों की है।

यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से पाए जाने वाले बहु-धातुई पिंडों से भरा पड़ा है जिनमें निकल, कोबाल्ट और ऐसे तत्व मौजूद हैं जिनकी विद्युत वाहनों के लिए उच्च मांग है। इन्हीं के खनन के चलते पारिस्थितिक संकट पैदा हो रहा है। इंटरनेशनल सीबेड अथॉरिटी ने इस क्षेत्र में 17 खनन अनुबंधों को मंज़ूरी दी है और उम्मीद की जा रही है कि अथॉरिटी जल्द ही गहरे समुद्र में खनन के लिए नियम जारी कर देगी। (स्रोत फीचर्स)

जीन-संपादित फसलें निगरानी के दायरे में

मेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी की हालिया घोषणा के अनुसार अब कंपनियों को बाज़ार में उतारने से पहले उन फसलों का भी डैटा जमा करना आवश्यक होगा जिन्हें कीटों से सुरक्षा हेतु जेनेटिक रूप से संपादित किया गया है। पूर्व में यह शर्त केवल ट्रांसजेनिक फसलों पर लागू होती थी। ट्रांसजेनिक फसल का मतलब उन फसलों से है जिनमें अन्य जीवों के जीन जोड़े जाते हैं। अलबत्ता, जेनेटिक रूप से संपादित उन फसलों को इस नियम से छूट रहेगी जिनमें किए गए जेनेटिक परिवर्तन पारंपरिक प्रजनन के माध्यम से भी किए जा सकते हों। लेकिन अमेरिकन सीड ट्रेड एसोसिएशन का मानना है कि इस छूट के बावजूद कागज़ी कार्रवाई तो बढ़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ठंडक के लिए कमरे को ठंडा करना ज़रूरी नहीं! – एस. अनंतनारायणन

र्मी से राहत पाने के लिए हम अपने कमरे या अपने आसपास की जगह को ठंडा करने का जो तरीका अपनाते हैं, उससे हम उन चीजों को भी ठंडा कर देते हैं जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत नहीं होती। किसी कमरे में मौजूद चीज़ों की ऊष्मा धारिता, जिन्हें एयर कंडीशनर (एसी) ठंडा कर देता है, लोगों की ठंडक की ज़रूरत की तुलना में कई गुना अधिक होती है।

हाल ही में ETH इंस्टीट्यूट के सिंगापुर परिसर के एरिक टिटेलबौम और उनके दल ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में ‘विकिरण शीतलन’ (रेडिएटिव कूलिंग) पर एक अध्ययन प्रकाशित किया है। इस तकनीक में शरीर की गर्मी बाहर निकलेगी और शरीर ठंडा तो होगा लेकिन आसपास की चीज़ों को ठंडा करने में ऊर्जा ज़ाया नहीं होगी।

जिस तरह हम किसी वस्तु पर रंगीन रोशनी तो डाल सकते हैं, लेकिन हम उस पर ‘अंधेरा’ नहीं डाल सकते, उसी तरह गर्म वस्तुएं अपनी गर्मी तो बाहर छोड़ती या बिखेरती हैं, लेकिन ठंडी चीज़ें अपनी ‘ठंडक’ बाहर छोड़ती या फैलाती नहीं हैं। लेकिन ठंडी चीज़ें जितनी ऊष्मा उत्सर्जित करती हैं उसकी तुलना में अधिक ऊष्मा अवशोषित करती हैं। और ठंडी चीज़ों की मौजूदगी गर्म चीजों को अपनी ऊष्मा खोने और ठंडी होने में मदद करती है – तो सवाल सिर्फ उन चीज़ों को शीतल करने का है जिन्हें ठंडा करने की ज़रूरत है।

आम तौर पर हम गर्मी के मौसम में लोगों को ठंडक देने के लिए जिस तरीके का उपयोग करते हैं, वह है एयर कंडीशनिंग या वातानुकूलन। इसमें कमरों में ठंडी हवा छोड़ी जाती है। और सर्दियों में लोगों को गर्माहट देने के लिए हम ‘रेडिएटर्स’ या गर्म वस्तुओं का उपयोग करते हैं, जो कमरे की हवा को गर्म कर देते हैं, हालांकि लोग सीधे भी इन रेडिएटर्स की गर्मी को महसूस कर सकते हैं।

ठंडा करने के लिए एकमात्र व्यावहारिक तरीका है कि हवा को शीतलक से गुज़ार कर ठंडा किया जाए, और फिर इस ठंडी हवा को कमरे में फैलाया जाए (सिर्फ पंखे का उपयोग करें तो उसकी हवा से शरीर का पसीना वाष्पित होकर थोड़ी ठंडक महसूस कराता है)। इस तरह ठंडे किए जा रहे कमरे में लोग ठंडक या आराम महसूस करने लगें उसके पहले ठंडी हवा को दीवारों, फर्नीचर और फर्श को ठंडा करना पड़ता है।

मानव शरीर का तापमान लगभग 37 डिग्री सेल्सियस रहता है। चूंकि आसपास का परिवेश आम तौर पर अपेक्षाकृत ठंडा होता है, तो शरीर के भीतर ऊष्मा उत्पादन और बाहर ऊष्मा ह्रास के बीच संतुलन रहता है। यह ऊष्मा ह्रास मुख्य रूप से विकिरण के माध्यम से होता है; इस प्रक्रिया में गर्म शरीर परिवेश से अवशोषित ऊष्मा की तुलना में अधिक ऊष्मा बिखेरता है। कुछ ऊष्मा ह्रास हवा के संपर्क से भी होता है, लेकिन इस तरह से बहुत ज़्यादा ऊष्मा बाहर नहीं जाती है, क्योंकि हवा की ऊष्मा धारिता कम होती है।

समस्या तब शुरू होती है जब गर्मी के दिनों में बाहर का परिवेश शरीर की तुलना में गर्म हो जाता है, और शरीर पर्याप्त ऊष्मा नहीं बिखेर पाता। एकमात्र तरीका होता है कि पसीना आए जिसके वाष्पीकरण के माध्यम से शरीर की गर्मी बाहर निकल सके, लेकिन आसपास का परिवेश उमस (नमी) भरा हो तो पसीना आना कारगर नहीं होता है बल्कि बेचैनी बढ़ जाती है क्योंकि पसीने का वाष्पीकरण नहीं हो पाता।

प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ताओं ने जिस तरीके का उपयोग किया है उसमें उन्होंने कमरे में एक विशेष रूप से निर्मित पर्याप्त ‘ठंडी’ सतह लगाई है जो मानव शरीर द्वारा उत्सर्जित ऊष्मा को अवशोषित तो करेगी लेकिन उसे पर्यावरण में वापस नहीं छोड़ेगी – यानी यह एकतरफा रास्ते (वन-वे) की तरह काम करेगी।

तो सवाल है कि कोई भी ठंडी सतह यह काम क्यों नहीं कर सकती? इसलिए कि कमरे की कोई भी साधारण सतह या चीज़ आसपास बहती गर्म हवा के संपर्क में आकर जल्दी गर्म हो जाएगी। इसके अलावा, हवा में मौजूद नमी ठंडी सतह पर संघनित हो जाएगी। और संघनन की प्रक्रिया से अत्यधिक ऊष्मा मुक्त होती है। वातानुकूलन के मामले में, दरअसल, कमरे में प्रवाहित हो रही हवा को सुखाने में जितनी ऊर्जा लगती है, वह ऊर्जा उस हवा को ठंडा करने में लगने वाली ऊर्जा से कहीं अधिक होती है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने जो व्यवस्था बनाई है वह इन दोनों प्रभावों को ध्यान रखती है और ठंडी सतह को केवल उस पर पड़ने वाले विकिरण द्वारा ऊष्मा सोखने देती है।

शोधकर्ताओं द्वारा बनाई गई यह व्यवस्था धातु की चादर लगी एक दीवार थी जिसे ठंडे किए गए पानी की मदद से 17 डिग्री सेल्सियस पर रखा गया था। इस व्यवस्था को उन्होंने सिंगापुर में एक तंबू को ठंडा करने में आज़माया, जिसका तापमान लगभग 30 डिग्री सेल्सियस था। आम तौर पर, हवा (संवहन द्वारा) धातु की चादर को गर्म कर देती है। लेकिन यहां ऐसा न हो इसलिए इस व्यवस्था में एक कम घनत्व वाली पॉलीएथलीन झिल्ली को इंसुलेटर के रूप में धातु की चादर के ऊपर लगाया गया था। अध्ययन के अनुसार, “…हम ऊष्मा स्थानांतरण के इस अवांछित संवहन को हटा पाए”। बहरहाल, यह झिल्ली विकिरण ऊष्मा के लिए पारदर्शी थी, और तंबू में मौजूद लोगों के गर्म शरीर का ऊष्मा विकिरण इससे गुज़र सकता था ताकि उसे अंदर की ठंडी सतह सोख सके।

हवा से संपर्क वाली सतह को इन्सुलेशन झिल्ली ने अधिक ठंडा होने से बचाए रखा जिसकी वजह से संघनन नहीं हो पाया। परीक्षणों में देखा गया कि 66.5 प्रतिशत आर्द्रता होने पर भी 23.7 डिग्री सेल्सियस (जिस तापमान पर संघनन शुरू होता है) पर भी दीवार की सतह पर कोई संघनन नहीं हुआ था। अध्ययन के अनुसार, दीवार के अंदर से गुज़रता ठंडा पानी संघनन तापमान से भी कम, 12.7 डिग्री सेल्सियस, तक भी ठंडा रखा जा सकता है।

मानव आराम के बारे में क्या? सिंगापुर में 8 से 27 जनवरी के दौरान, जब वहां गर्मी का मौसम पड़ता है, 55 लोगों के साथ यह देखा गया कि उन्होंने कैसी ठंडक महसूस की। 55 लोगों में से 37 लोगों ने तंबू में तब प्रवेश किया था जब शीतलन प्रणाली चालू थी, और बाकी 18 लोगों ने तब प्रवेश किया जब शीतलन प्रणाली बंद थी। जिस समूह ने शीतलन प्रणाली चालू रहते प्रवेश किया था, उन्होंने 79 प्रतिशत दफे तंबू में तापमान ‘संतोषजनक’ बताया। यह देखा गया कि वहां मौजूद गर्म वस्तुओं ने अपनी गर्मी अवशोषक दीवार को दे दी थी। और सबसे गर्म ‘वस्तुएं’ मनुष्य थे और उन्होंने ही सबसे अधिक ऊष्मा गंवाई। हालांकि, हवा (या तंबू) का तापमान बमुश्किल ही कम हुआ था, 31 डिग्री सेल्सियस से घटकर यह सिर्फ 30 डिग्री सेल्सियस हुआ था। इस अंतिम अवलोकन से पता चलता है कि हवा को ठंडा करने में बहुत कम ऊर्जा खर्च हो रही थी, जबकि पारंपरिक शीतलन प्रणालियों में तापमान घटाने के लिए मुख्य वाहक हवा ही होती है।

इस तरह इस अध्ययन में प्रस्तुत यह तकनीक एयर कंडीशनर की जगह बखूबी ले सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इस तकनीक से ऊर्जा की खपत में 50 प्रतिशत तक कमी आ सकती है, सिर्फ ऊष्मा सोखने वाली दीवारों तक ठंडे पानी को पहुंचाने में ऊर्जा लगेगी। यह इस लिहाज़ से महत्वपूर्ण है कि विश्व की कुल ऊर्जा खपत में से एयर कंडीशनिंग की ऊर्जा एक बड़ा हिस्सा है और इसके बढ़ने की संभावना है। नई प्रणाली का एक अन्य लाभ यह है कि ठंडे किए जा रहे स्थान खुली खिड़की वाले, हवादार भी हो सकते हैं। एयर कंडीशनिंग में, किफायत के लिहाज से यह मांग होती है कि अधिकांश ठंडी हवा को पुन: कमरे में घुमाया जाता रहे। तब ऑफिस में यदि कोई व्यक्ति सर्दी-ज़ुकाम (या ऐसे ही किसी संक्रमण) से पीड़ित हो तो पूरी संभावना है कि वह बाकियों को भी अपना संक्रमण दे देगा।

विकिरण शीतलन (रेडिएंट कूलिंग) की तकनीक काम करती है क्योंकि मानव शरीर से निकलने वाली ऊष्मा आसपास की हवा द्वारा नहीं सोखी जाती है जिसे वापिस मुक्त कर दिया जाए; वह तो ठंडी सतह तक पहुंच सकती है। वैसे, धरती के पैमाने पर देखें तो वायुमंडल ऊष्मा को पृथ्वी से बाहर नहीं निकलने देता है, यही कारण है कि रात में पृथ्वी बहुत ठंडी नहीं होती है (और इसलिए वायुमंडल में परिवर्तन वैश्विक तापमान बढ़ने का कारण बन रहे हैं)। हालांकि, 8-13 माइक्रोमीटर तरंग दैर्घ्य के लिए हमारा वायुमंडल ऊष्मा के लिए पारदर्शी है। इस परास की तरंग दैर्घ्य वाला ऊष्मा विकिरण वायुमंडल से बाहर सीधे अंतरिक्ष में जाता है। इस तथ्य का फायदा उठाने के लिए वस्तुओं को ऐसी फिल्म या शीट से ढंका जाता है जो वस्तुओं से निकलने वाली गर्मी को वांछित रेंज की तरंग दैर्घ्य में परिवर्तित कर दें। नतीजा यह होता है कि धूप में रखी जाने पर ये वस्तुएं रेडिएटिव कूलिंग के माध्यम से परिवेश की तुलना में 4-5 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी हो सकती हैं। यह तकनीक ‘ग्रीन’ कोल्ड स्टोरेज और सौर ऊर्जा पैनल, जो गर्म होने पर कम कुशल हो जाते हैं, के लिए उपयोगी हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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रेल पटरियों के बीच बनेगी बिजली – मनीष श्रीवास्तव

ज पूरी दुनिया ऊर्जा संकट के दौर से गुजर रही है। परंपरागत ऊर्जा स्रोत और गैर-परंपरागत ऊर्जा स्रोतों के उपयोग को लेकर समय-समय पर विश्व स्तर पर ज़रूरी नियम बनाए जाते रहते हैं और उनका पालन कराने के लिए वैश्विक स्तर पर प्रयास भी होता रहता है। इसी संदर्भ में एक महत्वपूर्ण खबर आई है कि अब रेलवे पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाकर सौर ऊर्जा उत्पन्न करने की तैयारी की जा रही है ताकि बड़े पैमाने पर सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सके और इस परियोजना को पूरे विश्व में लागू किया जा सके। इस नवोन्मेषी परियोजना का संचालन स्विट्ज़रलैण्ड की कंपनी सन-वेज़ द्वारा किया जा रहा है। कंपनी ने एक ऐसा डिवाइस तैयार किया है जिसके माध्यम से पटरियों के बीच निश्चित आकार के सोलर पैनल लगाने का काम किया जाएगा। पटरियों के बीच की चौड़ाई के हिसाब से एक मीटर चौड़े पैनल को पिस्टन तंत्र का उपयोग कर लगाया जाएगा।

कंपनी का दावा है कि पैनल को पटरियों के बीच लगाने से रेल गाड़ियों के संचालन में भी किसी प्रकार की परेशानी नहीं होगी। इनमें विशेष प्रकार के एंटी-रिफ्लेक्शन फिल्टर का प्रयोग होगा ताकि ट्रेन चलाने वाले ड्राइवरों को पैनल के रिफ्लेक्शन की वजह से किसी प्रकार की परेशानी न हो।

वर्तमान में स्विटज़रलैण्ड के बट्स रेलवे स्टेशन की पटरियों के बीच सोलर पैनल लगाए जा रहे हैं। इसकी सफलता के बाद, स्विट्ज़रलैण्ड के कुल 5317 किलोमीटर लंबे रेलवे नेटवर्क में इसे बिछाने की योजना है। कंपनी का अनुमान है कि इन सोलर पैनलों के द्वारा वार्षिक तौर पर 1 टेरावॉट प्रति घंटा सौर ऊर्जा उत्पन्न की जा सकेगी और स्विट्ज़रलैण्ड की वार्षिक ऊर्जा खपत का 2 प्रतिशत उत्पन्न किया जा सकेगा।

आवश्यकता होने पर सोलर पैनल को वापस बिना किसी असुविधा के निकाला जा सकेगा।

सन-वेज़ कंपनी ने आगामी सालों में जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली, अमेरिका और एशियाई देशों में परियोजना को संचालित करने का लक्ष्य रखा है। भारत सहित जिन देशों में बड़े स्तर पर रेलवे नेटवर्क हैं, उनके लिए यह परियोजना बहुत फायदेमंद साबित हो सकती है, क्योंकि अब तक रेलवे ट्रैक के बीच खाली पड़ी जगह का कोई उपयोग नहीं हो रहा था। इस परियोजना की सफलता के बाद सौर ऊर्जा के क्षेत्र में व्यापक पैमाने पर सकारात्मक परिवर्तन आने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हरित ऊर्जा में 350 अरब के निवेश का प्रस्ताव

र्ष 2023-24 के बजट में अर्थव्यवस्था को हरित-ऊर्जा की ओर ले जाने के संकेत हैं। इसके लिए सरकार ने 350 अरब रुपए के निवेश का प्रस्ताव रखा है। जलवायु नीति वैज्ञानिकों ने सरकार के इस निर्णय का स्वागत करते हुए दीर्घावधि प्रतिबद्धता की ज़रूरत भी बताई है।

गौरतलब है कि विश्व के तीसरे सबसे बड़े ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जक के रूप में भारत ने 2021 के ग्लासगो सम्मेलन में 2070 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करने का संकल्प लिया था। लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं था कि इस लक्ष्य को हासिल कैसे किया जाएगा। हालिया बजट वैश्विक तापमान कम करने के प्रति भारत की गंभीरता दर्शाता है।

बैंगलुरू स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के जलवायु वैज्ञानिक जयरामन श्रीनिवासन का कहना है कि कोयला, तेल और गैस से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर स्थानांतरण के लिए दशकों तक सुसंगत नीति की ज़रूरत होगी। कुछ वरिष्ठ वैज्ञानिक के अनुसार सरकार का यह कदम भारत में भविष्य के शोध की दिशा को भी निर्धारित करेगा।

1 फरवरी को बजट प्रस्तुत करते हुए वित्त मंत्री ने बताया कि सरकार ऊर्जा, कृषि व विनिर्माण सहित कई उद्योगों में डीकार्बनीकरण के कार्यक्रम लागू कर रही है। बजट में भारत को हरित हाइड्रोजन के उत्पादन और निर्यात का वैश्विक केंद्र बनाने के लिए 19.7 अरब रुपए का निवेश प्रस्तवित है। इसका प्रमुख उद्देश्य भविष्य में सीमेंट और इस्पात उत्पादन जैसे कार्बन-बहुल उद्योगों में जीवाश्म ईंधन की बजाय हरित हाइड्रोजन का उपयोग बढ़ाना है। इसके लिए नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय को 10.22 अरब रुपए की राशि आवंटित की गई है, जो पिछले बजट की तुलना में 48 प्रतिशत अधिक है। लेकिन जलवायु परिवर्तन के प्रति अनुकूलन और उसके प्रभावों को कम करने सम्बंधी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों का संचालन करने वाले पर्यावरण, वन और जलवायु मंत्रालय के आवंटन में खास वृद्धि नहीं की गई है और वह 30 अरब रुपए के आसपास ही है।  

विशेषज्ञों का मानना है कि भारत में हरित हाइड्रोजन के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए नीति निर्माण, उद्योग और शोध के बीच तालमेल आवश्यक है। और साथ ही अक्षय ऊर्जा के अन्य स्रोतों का लाभ उठाने के लिए ऊर्जा-भंडारण की क्षमता बढ़ाना भी ज़रूरी है। सौर और पवन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा स्रोत चौबीसों घंटे या पूरे साल उपलब्ध नहीं होते। इसलिए इनकी ऊर्जा के भंडारण पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है।     

गौरतलब है कि भारत में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव काफी अधिक दिख रहे हैं। जलवायु परिवर्तन सम्बंधी प्रथम राष्ट्रीय मूल्यांकन में पता चला था कि 1901 से 2018 के बीच औसत तापमान में 0.7 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हुई है। सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट के अनुसार 2022 में पर्यावरण सम्बंधी कोई न कोई चरम घटना लगभग रोज़ाना दर्ज हुई है। भारी वर्षा, बाढ़ और भूस्खलन की घटनाएं सबसे अधिक देखी गई हैं। पानी की कमी की संभावना तो है ही। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हरित ऊर्जा की ओर खाड़ी के देश

हाल ही में यूएन जलवायु परिवर्तन द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार मिस्र और संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) उन 26 देशों में से हैं जिन्होंने पिछले वर्ष ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 सम्मेलन में लिए गए संकल्पों के अनुरूप अपने जलवायु लक्ष्यों को अपडेट किया है। मिस्र ने बिजली उत्पादन, परिवहन और तेल एवं गैस से होने वाले ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में और अधिक कटौती करने का वादा किया है। अलबत्ता, इस पर अमल अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय सहायता पर निर्भर है। इसी तरह यूएई ने भी 2030 तक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 31 प्रतिशतत तक की कमी करने का संकल्प लिया है जो पूर्व में किए गए 23.5 प्रतिशत के वादे से काफी अधिक है। गौरतलब है कि इस वर्ष कॉप-27 तथा अगले वर्ष कॉप-28 इन्हीं दो देशों में आयोजित किए जाएंगे।

पिछले एक वर्ष में विभिन्न देशों के संकल्पों पर ध्यान दिया जाए तो वर्ष 2030 तक उत्सर्जन का स्तर वर्ष 2010 की तुलना में 10.6 प्रतिशत बढ़ने का अनुमान है। पिछले वर्ष की रिपोर्ट में यह अनुमान 13.7 प्रतिशत वृद्धि का था। लेकिन इतनी कमी भी सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने की दृष्टि से पर्याप्त नहीं हैं।

गौरतलब है कि पूर्व में सऊदी अरब ने जलवायु परिवर्तन को रोकने के प्रयासों का निरंतर विरोध किया है जबकि संयुक्त राज्य अमेरिका सहित अन्य तेल-समृद्ध देश भी इन प्रयासों को टालते रहे हैं। 1995 में सऊदी अरब के प्रतिनिधियों ने उस रिपोर्ट पर भी शंका ज़ाहिर की थी जिसमें ग्लोबल वार्मिंग के लिए इंसानी गतिविधियों को ज़िम्मेदार ठहराया गया था।

लेकिन पिछले एक दशक में मध्य-पूर्व के देशों ने अक्षय प्रौद्योगिकियों को अपनाते हुए पर्यावरण पर ध्यान केंद्रित किया है। सऊदी अरब और अन्य प्रमुख तेल उत्पादक देश जलवायु परिवर्तन की वस्तविकता को स्वीकार कर चुके हैं। विशेषज्ञों के अनुसार तेल से होने वाली आमदनी पर निर्भर राष्ट्रों का यह कदम दर्शाता है कि भविष्य में जीवाश्म ईंधन की मांग में अनुमानित कमी के मद्देनज़र वे अपनी अर्थव्यवस्था में विविधता लाने तथा घरेलू ज़रूरतों के लिए नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग करके जीवाश्म ईंधन को निर्यात हेतु बचाने की ओर बढ़ रहे हैं। मसलन, यूएई ने 2050 तक नेट-ज़ीरो कार्बन उत्सर्जन करने का संकल्प लिया है।

खाड़ी के अन्य देशों में भी प्रयास चल रहे हैं। सऊदी अरब और उसके पड़ोसी बहरीन ने 2060 के लिए नेट-ज़ीरो लक्ष्य निर्धारित किए हैं। इसी तरह गैस-समृद्ध कतर ने भी 2030 तक अपने उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की कटौती करने का संकल्प लिया है। इस्राइल और तुर्की ने भी 2050 के दशक के मध्य तक नेट-ज़ीरो हासिल करने की घोषणा की है। पिछले साल सऊदी अरब के नेतृत्व में मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव ने मध्य पूर्वी क्षेत्र में तेल और गैस उद्योग से कार्बन उत्सर्जन को 60 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य घोषित किया है। यह उद्योग दुनिया में मीथेन के सबसे बड़े स्रोतों में से एक है।

अक्षय ऊर्जा का उदय

वर्तमान में इस मामले में जानकारी काफी कम है कि ये देश जलवायु सम्बंधी लक्ष्यों को कैसे हासिल करेंगे। एक तथ्य यह है कि यूएई और सऊदी अरब दोनों ने कार्बन-न्यूट्रल शहरों के निर्माण या उनके विस्तार में भारी निवेश किया है।

न्यूयॉर्क स्थित ऊर्जा परामर्श कंपनी ब्लूमबर्ग के अनुसार, पिछले एक दशक में मध्य पूर्व में नवीकरणीय ऊर्जा में सात गुना की वृद्धि हुई है। जो एक बड़ा परिवर्तन है। एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में बिजली उत्पादन में अक्षय उर्जा का हिस्सा 28 प्रतिशत है जबकि इस क्षेत्र में मात्र 4 प्रतिशत है।

विशेषज्ञों के अनुसार निकट भविष्य में इस क्षेत्र के राष्ट्र जलवायु लक्ष्यों को पूरा करने के लिए मुख्य रूप से सौर, पवन और पनबिजली में निवेश करेंगे। आबू धाबी ऊर्जा विभाग के अनुसार वर्ष 2021 में कुल ऊर्जा में अक्षय और परमाणु ऊर्जा का हिस्सा 13 प्रतिशत था जो 2025 में 54 प्रतिशत से अधिक तक पहुंचने की संभावना है। दुनिया के सबसे बड़े सौर संयंत्रों में से एक (1650 मेगावॉट) मिस्र में है, वहीं इस वर्ष के अंत तक कतर 800-मेगावॉट सौर साइट खोलने की योजना बना रहा है। खाड़ी देशों में सौर विकिरण की भरपूर उपलब्धता के चलते यहां नवीकरणीय स्रोतों से बिजली उत्पादन की लागत काफी कम है। 

इसके साथ ही सऊदी अरब और यूएई हरित हाइड्रोजन उद्योग में निवेश करने की भी योजना बना रहे हैं।

भविष्य में मध्य पूर्व के राष्ट्रों की नज़र कार्बन-कैप्चर पर भी है। इसके अलावा, मिडिल ईस्ट ग्रीन इनिशिएटिव में 50 अरब पेड़ लगाने का लक्ष्य शामिल है। इस परियोजना से 20 करोड़ हैक्टर क्षेत्र को बहाल किया जाएगा। विशेषज्ञों के अनुसार 38 प्रतिशत तक वैश्विक कार्बन उत्सर्जन प्राकृतवासों की क्षति के कारण हुआ है।

जीवाश्म ईंधन में निवेश जारी

ये सारे प्रयास एक तरफ, लेकिन मध्य पूर्व के देश तेल और गैस की खोज में निवेश जारी रखे हुए हैं। गौरतलब है कि निर्यात किए गए उत्सर्जन को किसी देश के नेट-ज़ीरो लक्ष्य के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है। वैसे खाड़ी देशों की अर्थव्यवस्थाएं आज तेल पर कम निर्भर हैं। विश्व बैंक के अनुसार, 2010 में मध्य पूर्व और उत्तरी अफ्रीका में जीडीपी का 22.1 प्रतिशत हिस्सा तेल से आता था जो 2020 तक 11.7 प्रतिशत रह गया। फिर भी यह आंकड़ा वैश्विक औसत (1 प्रतिशत) से काफी अधिक है।

गौरतलब है कि ग्लासगो में आयोजित कॉप-26 के दौरान सऊदी अरब उन देशों में से था, जिन्होंने जीवाश्म-ईंधन सब्सिडी को चरणबद्ध रूप से समाप्त करने के सुझाव को कमज़ोर करने का प्रयास किया था। विशेषज्ञों की मानें तो भविष्य में जीवाश्म-ईंधन की खोज को रोकना एक महत्वपूर्ण प्रयास हो सकता है लेकिन अभी तक ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला है। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार 2050 तक नेट-ज़ीरो उत्सर्जन के रास्ते पर बढ़ते हुए यदि ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करना है तो तेल और गैस उत्पादन में कोई नया निवेश नहीं होना चाहिए।

कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि अभी जीवाश्म ईंधन उन देशों के लिए आवश्यक है जिनके पास ऊर्जा के नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए पर्याप्त बुनियादी ढांचे की कमी है और इसके लिए तेल-निर्यातक राष्ट्रों को दंडित करना उचित नहीं है। फिर भी सऊदी अरब और अन्य मध्य पूर्वी राष्ट्रों की पर्यावरण रणनीति में सकारात्मक परिवर्तन देखने को मिल रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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