सांप के ज़हर से बचाएगा ऊंट-परिवार का एंटीवेनम

र साल ज़हरीले सांपों (snake bite deaths) के काटने से एक लाख से अधिक लोगों की मौत हो जाती है, और कई लाख लोग अपंग हो जाते हैं। WHO ने इसे एक ‘उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी’ (neglected tropical disease) कहा है। इससे सबसे अधिक प्रभावित गरीब और ग्रामीण इलाकों के लोग होते हैं, जहां सही इलाज की सुविधा नहीं होती। और मौजूदा एंटीवेनम (antivenom treatment) की प्रभाविता की सीमा आ चुकी है।

गौरतलब है कि पारंपरिक एंटीवेनम दवाएं घोड़ों या भेड़ों जैसे जीवों को थोड़ी मात्रा में सांप का ज़हर देकर तैयार की जाती हैं। इन जीवों के शरीर में ज़हर के खिलाफ बनी एंटीबॉडी (antibody therapy) का उपयोग इंसानों के इलाज में किया जाता है। लेकिन यह प्रक्रिया महंगी है और हर बार एक जैसी गुणवत्ता भी नहीं मिलती। हर बैच में कुछ एंटीबॉडी असरदार होती हैं, कुछ नहीं। इसलिए एक ही मरीज़ को ठीक करने के लिए कई खुराकें देनी पड़ती हैं। इसके अलावा, घोड़े से बनी एंटीबॉडी कई बार गंभीर एलर्जिक रिएक्शन (allergic reaction risk) पैदा कर देती हैं, जो कभी-कभी जानलेवा भी हो सकती है। इस डर से कई डॉक्टर दवा देने में झिझकते हैं।

बेहतर इलाज (effective snakebite cure) की तलाश में, डेनमार्क की टेक्निकल युनिवर्सिटी (Technical University of Denmark) के एंड्रियास लाउस्टसेन-कील और उनकी टीम ने लामा व अलपाका जीवों की ओर रुख किया। ये जीव बहुत छोटी और सरल एंटीबॉडी बनाते हैं, जिन्हें नैनोबॉडीज़ (nanobodies research) कहा जाता है। ये नैनोबॉडीज़ ज़हरीले तत्वों को बहुत सटीकता से पकड़ लेती हैं।

टीम ने अफ्रीका की 18 अलग-अलग सांप प्रजातियों (snake venom species)  (जैसे कोबरा, माम्बा और रिंकहॉल) के ज़हर को लामा और अलपाका में इंजेक्ट किया ताकि वे नैनोबॉडीज़ बना सकें। इसके बाद, उन्होंने इन नैनोबॉडीज़ के डीएनए को ई.कोली बैक्टीरिया (E. coli bacteria) के जीनोम में जोड़ा, जिससे ये सूक्ष्मजीव प्रयोगशाला में नैनोबॉडीज़ बनाने की ‘फैक्टरी’ बन गए।

हज़ारों नमूनों की जांच के बाद, वैज्ञानिकों ने आठ ऐसी नैनोबॉडीज़ चुनीं जो ज़हर को निष्क्रिय करने में सबसे प्रभावी थीं। जब चूहों को जानलेवा मात्रा में सांप का ज़हर देने के बाद ये नैनोबॉडीज़ दी गईं, तो वे लगभग सभी सांपों (सिवाय ईस्टर्न ग्रीन माम्बा) के ज़हर से बच गए।

मौजूदा प्रमुख एंटीवेनम Inoserp PAN-AFRICA की तुलना में, इस नए मिश्रण (new antivenom formula) ने ज़्यादा चूहों की जान बचाई और ऊतकों को कम नुकसान पहुंचाया। वैज्ञानिकों का मानना है कि बहुत छोटी होने के कारण ये नैनोबॉडीज़ शरीर के अंदर गहराई तक पहुंचकर ज़हर के फैलाव को अधिक प्रभावी ढंग से रोक सकती हैं।

इस तकनीक (biotech innovation) से लागत भी काफी कम हो सकती है। घोड़ों या भेड़ों की अपेक्षा बैक्टीरिया की मदद से नैनोबॉडीज़ तैयार करना सस्ता (low-cost biotech production) है। और यदि यह कम मात्रा में ज़्यादा कारगर हो, तो यह किफायती और ज़्यादा लोगों तक पहुंचने योग्य बन सकता है। एक और बड़ी बात यह है कि इसमें एलर्जी या सेप्टिक शॉक का खतरा बहुत कम है।

वैज्ञानिक अब कुछ और सांपों के ज़हर शामिल करके फार्मूले को और बेहतर बनाने में लगे हैं। अगर यह प्रयास सफल रहा, तो यह खोज अफ्रीका, एशिया और अन्य देशों में सांप के काटने के इलाज (global snakebite treatment)  को पूरी तरह बदल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भूख मिटाकर मोटापा भगाने वाला प्रोटीन

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पेट में गुड़गुड़ाहट जैसी आवाज़ का एहसास भूख लगने का सीधा संकेत है। शरीर को भूख (hunger) तब लगती है जब शरीर में पोषक तत्वों की, विशेषत: रक्त शर्करा (blood sugar) की, कमी होती है। जैसे ही भोजन का समय होता है मस्तिष्क भूख का संदेश देता है जिसके फलस्वरूप आमाशय द्वारा उत्पन्न हार्मोन ग्रेलीन हमारे पेट और आंतों की मांसपेशियों में संकुचन पैदा करने लगता है और हमें भूख लगने लगती है। ग्रेलीन को भूख हॉर्मोन (हंगर हॉर्मोन – hunger hormone) भी कहते हैं। दूसरी ओर, पेट भरने पर लेप्टिन और कोलेसिस्टोकाइनिन (CCK) जैसे हॉर्मोन भूख को कम करने का काम करते हैं। लेप्टिन हमारे शरीर के वसा ऊतकों में बनता है और बताता है कि शरीर को पर्याप्त ऊर्जा वाला भोजन मिल गया है, जबकि कोलेसिस्टोकाइनिन छोटी आंत से निकलता है और पेट भर जाने का संकेत देता है, जिससे हमें तृप्ति का एहसास होता है। 

हाल ही में वैज्ञानिकों की एक टीम ने भूख मिटाने के लिए मस्तिष्क में छिपे हुए एक ‘स्विच’ का पता लगाया है। इसका नाम है मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर (जीन MC4R)। शोधकर्ताओं ने यह भी पता लगाया है कि MRAP2 नामक एक प्रोटीन (protein) भूख को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह प्रोटीन भूख रिसेप्टर MC4R को कोशिका की सतह पर पहुंचाने में मदद करता है। वहां यह ‘खाना बंद करो’ के मज़बूत संकेत देता है। वैज्ञानिकों को लगता है कि MRAP2 प्रोटीन द्वारा नियंत्रित यह स्विच – MC4R – मोटापे (obesity) से लड़ने, उसे कम करने और वज़न नियंत्रण में सुधार के लिए नए मार्ग प्रशस्त कर सकता है।

मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर

मेलानोकोर्टिन-4 (MC4R) रिसेप्टर एक महत्वपूर्ण रिसेप्टर है। यह पेप्टाइड-स्टिमुलेटिंग हॉर्मोन (peptide hormone) द्वारा सक्रिय होता है। MC4R रिसेप्टर मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस (hypothalamus) में पाया जाता है और भूख, तृप्ति, तथा ऊर्जा चयापचय क्रिया को नियंत्रित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह भूख को कम करता है जिससे मोटापा घटता है। यह ऊर्जा संतुलन (energy balance) भी बनाए रखता है।

MC4R के जीन में यदि उत्परिवर्तन (gene mutation) हो जाए तो भूख अधिक लगती है जिससे भोजन सेवन को नियंत्रित करने और वज़न कम करने में कठिनाई होती है। परिणामत: मोटापा बढ़ जाता है। मोटापे के इस कारण के लिए वर्तमान में कोई विशिष्ट उपचार नहीं है, हालांकि भविष्य में इस रिसेप्टर को लक्षित करने वाली नई औषधियां (medicines) विकसित की जा सकती हैं।

सेटमेलानोटाइड

वैज्ञानिक शोध से ज्ञात हुआ है कि सेटमेलानोटाइड (setmelanotide) नामक दवा लेप्टिन-मेलानोकॉर्टिन मार्ग (leptin-melanocortin pathway) में कुछ विशिष्ट आनुवंशिक विकारों या उत्परिवर्तनों के कारण होने वाले गंभीर आनुवंशिक मोटापे (genetic obesity) का उपचार करती है। यह मेलानोकॉर्टिन-4 रिसेप्टर को उत्तेजित करने का काम करती है, जो मस्तिष्क में भूख नियंत्रण से सम्बंधित होता है। यह दवा भूख को कम करती है, पेट भरा हुआ महसूस कराती है और शरीर द्वारा कैलोरी जलाने की दर भी बढ़ा सकती है, जिससे वज़न घटाने में मदद मिलती है। 

MRAP2 एक जीन है जो MC4R रिसेप्टर के सहायक प्रोटीन को एनकोड करता है, जो MC4R रिसेप्टर सिग्नलिंग को नियंत्रित करता है।

वैज्ञानिकों की टीम ने आधुनिक फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोपी (fluorescent microscopy) और सिंगल सेल इमेजिंग तकनीक का उपयोग करते हुए पाया है कि प्रोटीन MRAP2 कोशिकाओं के भीतर मस्तिष्क-रिसेप्टर MC4R के मौलिक स्थान और व्यवहार को बदल देता है। फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोपी और कॉन्फोकल इमेजिंग (confocal imaging) ने दर्शाया है कि MRAP2, MC4R को कोशिका की सतह तक पहुंचाने के लिए आवश्यक है, जहां यह भूख को दबाने या कम करने वाले संकेतों को अधिक प्रभावी ढंग से प्रसारित कर सकता है। उपरोक्त शोध के निष्कर्ष हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

रिसेप्टर के कार्य करने के तरीके की समझ उन चिकित्सकीय रणनीतियों (therapeutic strategies) की ओर इंगित करती है जो MRAP2 की नकल या उसका नियमन करती हैं और मोटापे तथा सम्बंधित चयापचय विकारों (metabolic disorders) से निपटने की क्षमता रखती हैं। उपरोक्त शोध के निष्कर्ष भविष्य में विभिन्न दृष्टिकोणों और विविध प्रयोगात्मक विधियों द्वारा, चिकित्सकीय प्रासंगिकता वाले भूख नियमन के महत्वपूर्ण नए शारीरिक और पैथोफिज़ियोलॉजिकल (pathophysiological) पहलुओं की बेहतर समझ विकसित करने में मददगार होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वनस्पति-आधारित भोजन रोगों के जोखिम कम करता है

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल (Scientific Reports Journal)  के जुलाई 2024 के अंक में वी. वियालॉन और साथियों द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। इस रिपोर्ट में विशिष्ट रोगों के होने के जोखिम की जांच के लिए एक स्वस्थ जीवनशैली सूचकांक (Healthy Lifestyle Index -HLI) के उपयोग पर चर्चा की गई थी। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा था कि हर जीवनशैली का रोगों का शिकार होने से क्या सम्बंध है। इसके लिए उन्होंने युरोपियन पर्सपेक्टिव इनवेस्टीगेशन इनटू कैंसर एंड न्यूट्रीशियन (EPIC) के डैटा और टाइप-2 डायबिटीज़, कैंसर और हृदय सम्बंधी विकारों से होने वाली अकाल मृत्यु के जोखिम का डैटा उपयोग किया था। इनमें से कुछ तरह की जीवनशैली में धूम्रपान करना, अत्यधिक मद्यपान करना, खान-पान की आदतें, मोटापा (शरीर में अतिरिक्त वसा) (obesity)  और अत्यधिक नींद जैसी अस्वास्थ्यकर चीज़ें भी शामिल थीं।

इसी सिलसिले में, स्पेन के रेनाल्डो कॉर्डोवा और डेनमार्क, दक्षिण कोरिया, और उत्तरी आयरलैंड-यूके के सह-लेखकों का एक शोधपत्र दी लैंसेट – हेल्दी लॉन्गेविटी (The Lancet Healthy Longevity) के अगस्त 2025 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था ‘वनस्पति-आधारित आहार पैटर्न एवं कैंसर तथा कॉर्डियोमेटाबोलिक रोगों की बहु-रुग्णता का आयु-विशिष्ट जोखिम: एक दूरदर्शी विश्लेषण (Plant-based dietary patterns and age-specific risk of multimorbidity of cancer and cardiometabolic diseases: a prospective analysis)। ‘मल्टीमॉर्बिडिटी’ का मतलब है एक ही व्यक्ति में दो या दो से अधिक जीर्ण (क्रॉनिक) रोग होना।

शोधकर्ताओं ने ऐसे मल्टीमॉर्बिड कैंसर (cancer research)  से पीड़ित लगभग 2.3 लाख लोगों का डैटा EPIC डैटा बैंक से लिया और 1.81 लाख लोगों का डैटा यूके बायोबैंक (UK Biobank)  से लिया और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने चयापचय रोगों में इंसुलिन प्रतिरोध तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका पाई। 35-70 वर्ष की आयु वाले विशिष्ट समूहों के लोगों की खान-पान की आदतों जैसी विशेषताओं तुलना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि वनस्पति-आधारित स्वाथ्यकर आहार (plant-based diet) कैंसर और कॉर्डियोमेटाबोलिक रोगों की बहु-रुग्णता का बोझ कम कर सकता है।

अध्ययन में इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि कैसे पशु उत्पाद (मांस, मछली, अंडे सहित) (animal products)  की अधिकता वाले आहार की तुलना में पादप-आधारित आहार (vegan diet)  पर्यावरण की दृष्टि से अधिक निर्वहनीय होता हैं। शोधकर्ताओं ने स्वास्थ्यकर वनस्पति-आधारित आहार के सेवन का कैंसर और (उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा और टाइप-2 डायबिटीज़ सहित) हृदय रोगों (heart diseases) के कम जोखिम से मज़बूत सम्बंध पाया।

तंबाकू उत्पादों (tobacco consumption)  के सेवन से भी कैंसर होता है। बहुप्रशंसित भूमध्यसागरीय आहार (Mediterranean diet) को बहुत अच्छा बताया गया है, हालांकि भूमध्यसागरीय आहार में मछली, चिकन और रेड वाइन भी शामिल होती है। गौरतलब है कि शाकाहारी या वीगन आहार (जिसमें पशु-आधारित कोई भी वस्तु शामिल नहीं होती है) से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (greenhouse gas emission) भी कम होता है। शाकाहारी आहार में दूध और कभी-कभी अंडे का सेवन शामिल होता है। लेकिन वीगन आहार में दूध, जोकि एक पशु उत्पाद है, से भी सख्त परहेज़ किया जाता है।

भारत की स्थिति

भारत की बात करें तो लगभग 35 प्रतिशत लोग शाकाहारी (vegetarian population)  हैं; वे अपने दैनिक भोजन में अनाज और सब्ज़ियों के साथ दूध भी लेते हैं; इनमें से कुछ लोग अंडे भी खाते हैं। लगभग 10 प्रतिशत लोग वीगन हैं, जो दूध या कोई भी दुग्ध उत्पाद नहीं खाते।

किसी व्यक्ति में दो या उससे अधिक जीर्ण स्वास्थ्य स्थितियों (multiple chronic conditions) की उपस्थिति चिंताजनक है। अनुमान है कि 16.4 प्रतिशत शहरी आबादी डायबिटीज़ (diabetes) से पीड़ित है जबकि 8 प्रतिशत ग्रामीण आबादी डायबिटीज़-पूर्व स्थिति में है। लगभग 26 प्रतिशत शहरी भारतीय पुरुष और महिलाएं चयापचय विकारों के साथ इंसुलिन प्रतिरोधी भी हैं। दुर्भाग्य से, उनमें से लगभग 29 प्रतिशत लोग बीड़ी, सिगरेट और हुक्का पीते हैं, और इनमें मौजूद तंबाकू कैंसर का कारण बनता है। ग्रामीण आबादी न केवल धूम्रपान करती है बल्कि कई लोग सुपारी भी खाते हैं, जिसकी अधिकता से मुंह का कैंसर (oral cancer) हो सकता है। 60 वर्ष से अधिक आयु के 16 प्रतिशत लोग मधुमेह से पीड़ित हैं और इसके अलावा वे उम्र से सम्बंधित मनोभ्रंश और अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease)  जैसे रोगों से भी पीड़ित हैं।

वक्त रहते चिकित्सा समुदाय(healthcare community), राजनेता, केंद्र व राज्य सरकारों को ध्यान देकर कोई रास्ता निकालना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दीर्घायु की प्रार्थनाएं और पुरुषों की अल्प-आयु

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पुरुषों के लिए लंबी आयु (life expectancy in men) की सारी कामनाओं, प्रार्थनाओं के बावजूद मैं अपने परिजनों में पाता हूं कि पुरुष पहले स्वर्ग सिधारते हैं और अक्सर महिलाएं लंबी आयु प्राप्त करती हैं। तो क्या पुरुष जन्म से ही पहले मरने के लिए नियत है? सभी परिस्थितियां समान मिलें तो भी मेरे साथ पैदा हुई महिला की तुलना में मैं तीन वर्ष पूर्व मरने के लिए अभिशप्त हूं।

महिला-पुरुष के जीवनकाल (male vs female lifespan)  में अंतर बहुत पहले से ज्ञात है। यह केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में पत्थर की लकीर-सा नियम है। तो पुरुषों में ऐसा क्या है कि वे महिलाओं की तुलना में अल्प आयु में मर जाते हैं। हाल ही के शोध कार्यों से हम इस तथ्य का कारण समझने के समीप पहुंचे हैं।

कुछ लोग पुरुषों के छोटे जीवनकाल का कारण व्यवहार में अंतर (lifestyle differences)  को मानते हैं। व्यवहार, जैसे पुरुष युद्ध लड़ते हैं, खदानों में कार्य करते हैं, श्रमयुक्त मज़दूरी करते हैं और इस प्रकार अपने शरीर पर अतिरिक्त दबाव डालकर भी मैदान में डटे रहते हैं। सामाजिक विज्ञान के कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि पुरुष आदतन झक्की होते हैं। वे अत्यधिक धूम्रपान (smoking habits)  करते हैं, अनियंत्रित पीते हैं और पेटू होते हैं इसलिए उनका वज़न ज़्यादा होता है। बीमार होने पर चिकित्सीय सहायता लेने में भी आना-कानी करते हैं और बीमारी का पता चल जाए तो भी अधिक संभावना इस बात की रहती हैं कि वे पूरा उपचार ना लें। साथ ही, वे गुस्सैल होते हैं और आपसी लड़ाई, दुर्घटना और अत्यधिक जोखिम भरे कार्य पसंद करते हैं। इस दौरान चोट अथवा बीमारी से उनका शरीर कमज़ोर हो जाता है। किंतु यदि ऐसा ही था तो पुरुषों को आरामदायक कार्य मिलने पर तो दोनों का जीवनकाल एक जैसा होना था।

तो क्या हमारे करीबी रिश्तेदार वानरों में भी ऐसा ही है? मानव को छोड़कर बाकी सभी प्रायमेट्स (primates study)  पर भी वैज्ञानिकों ने शोध किया। वे देखना चाहते थे कि क्या हमारे नज़दीकी रिश्तेदार वानरों में भी मादा की आयु नर से ज़्यादा होती है? वैज्ञानिकों ने 6 जंगली प्रायमेट्स (सिफाकास, मुरिक्विस, गोरिल्ला, चिम्पैंजी और बबून) के ऐसे समूह से उम्र सम्बंधी आंकड़े बटोरे जिनकी संख्या समूह में 400 से 1500 तक थी। फिर शोधकर्ताओं ने आधुनिक एवं ऐतिहासिक दोनों समय के छह मानव समूह की आबादी के आंकड़े भी देखे। वैज्ञानिकों ने पाया कि पिछली शताब्दी की तुलना में मानव आयु में बहुत वृद्धि होने के बावजूद पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर कम नहीं हुआ। शोध से यह भी बात सामने आई कि मानव आबादी में यद्यपि महिलाएं ज़्यादा समय तक जीवित रहती हैं परंतु भौगोलिक वितरण के अनुसार यह अंतर अलग-अलग रहा था। उदाहरण के लिए आधुनिक रूस में पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर लगभग 10 वर्ष का है जो सबसे अधिक है।

अधिक उम्र का जैविक कारण (biological reasons for longevity)

जीव विज्ञानी अल्पायु के लिए पुरुषों के गुणसूत्रों (chromosomes in men) को दोषी ठहराते हैं। महिलाओं को निश्चित रूप से जैविक लाभ जन्म के साथ ही प्राप्त होने लगता है। बाहरी प्रभावों के अभाव में भी लड़कों की मृत्यु दर लड़कियों से 25-30 प्रतिशत अधिक देखी गई है। आंकड़े भी महिलाओं के जन्मजात आनुवंशिक (genetic advantage in women)  लाभ दर्शाते हैं।

मनुष्यों तथा कई अन्य जंतुओं में लिंग का निर्धारण गुणसूत्रों द्वारा होता है। मनुष्यों की कोशिकाओं में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं। इनमें 22 जोड़ियों में तो गुणसूत्र परस्पर पूरक होते हैं। लेकिन 23वीं जोड़ी में दो गुणसूत्र अलग-अलग किस्म के होते हैं। शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं (X तथा Y), जबकि सारे अंडाणु एक ही प्रकार के होते हैं (X)। यदि व्यक्ति में दोनों गुणसूत्र X हों तो मादा यानी लड़की बनती है और जब एक गुणसूत्र X तथा Y दूसरा हो तो नर यानी लड़का।

जब इन X गुणसूत्रों के जीन्स में से एक जीन उत्परिवर्तित होता है तो महिलाओं में पाया जाने वाला दूसरा X गुणसूत्र उसके कार्य को संभाल लेता है या उसके दुष्प्रभाव को दबा देता है। जबकि पुरुषों में केवल एक X गुणसूत्र होने के कारण उसमें उत्परिवर्तन हो जाए तो गंभीर परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है।

इस प्रकार दोनों लिंगों के बीच जेनेटिक अंतर (genetic difference) एक लिंग में उम्र बढ़ाता है तो दूसरे में कम कर देता है। इसके अलावा महिलाओं के हार्मोन (female hormones)  और प्रजनन में महिलाओं की अगली पीढ़ी में निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका को भी दीर्घायु से जोड़ा गया है। उदाहरण के लिए महिलाओं में बनने वाला हार्मोन एस्ट्रोजन (estrogen hormone) खराब कोलेस्ट्रॉल को खत्म करने में कारगर है जिससे महिलाओं का शरीर हृदय सम्बंधी बीमारियों (heart disease risk)  से प्राय: सुरक्षित बना रहता है। दूसरी ओर केवल पुरुषों में बनने वाला टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन उनमें हिंसा और जोखिम लेने की उत्कंठा उत्पन्न करता है। आखिर में महिलाओं का शरीर गर्भावस्था (pregnancy health) और स्तनपान की ज़रूरतों के अनुसार भोजन का भंडारण करने के लिए बना होता है। वे भोजन की ज़्यादा मात्रा को भी उचित तरीके से संग्रहित या शरीर के बाहर निकालने के अनुरूप ढली हुई हैं। इसके अलावा भी अनेक आनुवंशिक एवं जैविक कारण ज्ञात हैं जिनका स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर पर समग्र प्रभाव को मापना असंभव है। पिछले कुछ दशकों में असाधारण आर्थिक और सामाजिक प्रगति से मातृत्व बोझ में नाटकीय कमी भी देखी गई है। इस प्रकार सभी परिस्थितियां महिलाओं को अनुकूल बनाती हैं।

एक परिकल्पना ‘जॉगिंग हार्ट’ (jogging heart hypothesis) के अनुसार माहवारी चक्र के उत्तरार्ध में, यानी अंडोत्सर्ग के बाद, हृदय की गति बढ़ जाती है। हृदय गति बढ़ने से वैसी ही लाभकारी परिस्थिति उत्पन्न होती है जैसी हल्का व्यायाम (light exercise benefits) करने पर या जॉगिंग करने पर होती है। बाद के जीवन में इसके लाभकारी असर देखे जा सकते हैं। इसलिए हृदय रोग का जोखिम भी महिलाओं को बेहद कम होता है।

अधिक कद भी एक महत्वपूर्ण कारक (height and aging factor) है। लंबे लोगों में अधिक कोशिकाएं होती हैं। इसलिए उन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अधिक कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की संभावनाएं भी अधिक हो जाती है तथा ज़्यादा ऊर्जा खर्च करने से कोशिकाएं जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं। अत: पुरुषों की अधिक ऊंचाई उन्हें अधिक दीर्घकालीन क्षति की ओर धकेलती है।

वे कारण जो महिलाओं को लंबी उम्र (women longevity reasons) देते हैं कई बार अटपटे, अनिश्चित और रहस्यमयी लगते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि सारी प्रार्थनाएं और व्रत-उपवास इस खाई को पाट नहीं सके हैं। (स्रोत फीचर्स)

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पश्चिमी देशों में बच्चों में मूंगफली एलर्जी घटी

लर्जी (allergy) कई तरह की चीज़ों से हो सकती है। जैसे धूल से, कुछ फूलों के पराग से, दवाइयों से, या किसी खाद्य पदार्थ से। एलर्जी यानी हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) का उन चीज़ों के प्रति अतिसक्रिय सुरक्षात्मक व्यवहार जिन्हें हमारा शरीर खतरे की तरह भांपता है; हो सकता है कि वे चीज़ें वास्तव में हानिकारक न हों। ऐसी ही एक चीज़ है मूंगफली। पश्चिमी देशों में मूंगफली से एलर्जी (peanut allergy) के सर्वाधिक मामले सामने आते हैं जबकि भारत जैसे देशों में इसका प्रकोप काफी कम है।

मूंगफली से एलर्जी बच्चों में, खासकर शिशुओं (children allergy) में, अधिक होती है। यूं तो जैसे-जैसे हम बड़े होते हैं और हमारा पाचन तंत्र (digestive system) परिपक्व होने लगता है, वैसे-वैसे यह एलर्जी खत्म हो जाती है। लेकिन इससे ग्रसित 80 प्रतिशत लोगों में यह वयस्क अवस्था में बनी रहती है और एक बार जाने के बाद दोबारा भी उभर सकती है।

पिछले कुछ दशकों में देखा गया था कि मूंगफली से एलर्जी के मामले बढ़ रहे थे। लेकिन वैज्ञानिक पूरी तरह से समझ नहीं पाए हैं कि खाद्य एलर्जी (food hypersensitivity) का कारण क्या है। कुछ का मानना है कि सी-सेक्शन प्रसूतियों की बढ़ती दर, बचपन में एंटीबायोटिक दवाइयों का सेवन (antibiotics use) और बढ़ता हुआ स्वच्छ वातावरण शायद इसके लिए ज़िम्मेदार है।

मूंगफली से एलर्जी में शरीर पर लाल चकत्ते (skin rash), छींकें, मुंह और गले के आसपास खुजली और सूजन, उल्टी-दस्त के अलावा रक्तचाप गिरना, दमा के दौरे (asthma attack), बेहोशी, कार्डिएक अरेस्ट जैसी समस्याएं हो सकती हैं और जान भी जा सकती है। फिर, एलर्जी ऐसी बला है कि इससे निजात भी नहीं पाई जा सकती, क्योंकि अब तक इसका इलाज उपलब्ध नहीं है। हालांकि इसके लक्षणों से निपटने और जान बचाने के लिए कुछ दवाएं ज़रूर मौजूद हैं।

इसलिए जैसे-जैसे खाद्य एलर्जी (food allergy prevention) के मामले बढ़ने लगे, विशेषज्ञों ने सलाह दी कि शिशुओं को मूंगफली जैसी आम एलर्जिक चीज़ों से दूर ही रखें। लेकिन फिर, 2015 में हुए एक परीक्षण (clinical trial) में पाया गया था कि शिशुओं को मूंगफली खिलाने से उनमें एलर्जी विकसित होने की संभावना लगभग 80 प्रतिशत घट जाती है। तब 2017 में, अमेरिका के राष्ट्रीय एलर्जी और संक्रामक रोग संस्थान (National Institute of Allergy and Infectious Diseases) ने औपचारिक रूप से शिशुओं को शुरुआती सालों में मूंगफली खिलाने की सिफारिश कर दी।

हाल ही में पीडियाट्रिक्स (Pediatrics study) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इन दिशानिर्देशों की प्रभाविता जांची। उन्होंने पाया कि 2012-15 की अवधि में 3 साल से कम उम्र के बच्चों में खाद्य एलर्जी की दर 1.43 प्रतिशत थी जो 2017-2020 की अवधि में घटकर 0.93 प्रतिशत रह गई यानी (36 प्रतिशत की कमी हुई)। इस गिरावट का प्रमुख कारण मूंगफली जनित एलर्जी (peanut allergy decline) में 43 प्रतिशत की कमी लगता है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि पहले छोटे बच्चों में मूंगफली की एलर्जी सबसे ऊपर थी लेकिन अब अंडे से होने वाली एलर्जी पहले पायदान पर पहुंच गई है।

अलबत्ता, अध्ययन में इस बात पर नज़र नहीं रखी गई थी कि शिशुओं ने क्या खाया था, इसलिए कहना मुश्किल है कि कमी दिशानिर्देशों के कारण ही आई है। फिर भी, आंकड़े (research findings) आशाजनक हैं। (स्रोत फीचर्स)

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खून की जांच से अल्ज़ाइमर की पहचान संभव है?

हाल ही में अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer test) के लिए एक नए रक्त परीक्षण (blood test) को मंज़ूरी मिली है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृति प्राप्त इस जांच को बीमारी की पहचान में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। Elecsys pTau181 नामक यह परीक्षण दो दवा कंपनियों (रोश और एली लिली) ने मिलकर विकसित किया है। इस जांच से डॉक्टर यह बता पाएंगे कि किसी मरीज़ की याददाश्त कम होना या भ्रम अल्ज़ाइमर (Alzheimer diagnosis) की वजह से है या इसका कोई और कारण है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर का कारण (Alzheimer cause) दो हानिकारक प्रोटीन, एमिइलॉइड-बीटा (amyloid-β) और टाउ (tau), का मस्तिष्क में जमाव है। यह जांच रक्त में टाउ प्रोटीन के एक विशेष – pTau181) – को मापता है: इस प्रोटीन का अधिक स्तर यानी अल्ज़ाइमर रोग।

यह जांच 97.9 प्रतिशत मामलों (312 लोग) में ठीक-ठीक बता पाई कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। अर्थात अगर टेस्ट का परिणाम नकारात्मक आता है, तो लगभग निश्चित है कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। इस वजह से यह टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों (primary care doctors) के लिए जांच का बेहतरीन तरीका है। ज़ाहिर है, यह परीक्षण अल्ज़ाइमर की पुष्टि करने के लिए नहीं, बल्कि इसे खारिज (screening test) करने के लिए बनाया गया है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर की जांच के लिए एकमात्र Elecsys टेस्ट नहीं है। मई में Lumipulse (blood biomarker test) नाम का एक और रक्त परीक्षण आया है जो दो प्रोटीन, pTau217 (protein marker) और amyloid-β (1–42) के अनुपात को मापता है। इसके ज़रिए अल्ज़ाइमर की पुष्टि और खारिज दोनों किए जा सकते हैं।

वैज्ञानिक ने चेताया देते हैं कि रक्त आधारित अल्ज़ाइमर परीक्षण (Alzheimer blood tests) पूरी तरह सटीक नहीं हैं। कई लोगों के परिणाम ‘ग्रे ज़ोन’ में आते हैं, यानी उन्हें ब्रेन स्कैन (brain scan) या स्पाइनल फ्लूइड टेस्ट (spinal fluid test) की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, Quanterix कंपनी के एक अन्य pTau217 आधारित टेस्ट (diagnostic accuracy) में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिनके नतीजे अनिश्चित रहे।

विशेषज्ञों के अनुसार परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो हैं और अल्ज़ाइमर के पारंपरिक (Alzheimer detection) और अधिक जटिल परीक्षणों से मेल खाते हैं। लेकिन जब तक ट्रायल के सभी आंकड़े (clinical data) उपलब्ध नहीं होते, तब तक टेस्ट की सटीकता को पूरी तरह स्पष्ट मानना मुश्किल है।

लेकिन इन परीक्षणों का फायदा तो तभी होगा जब बीमारी का इलाज (Alzheimer treatment) मौजूद हो। इसलिए इलाज खोजने की दिशा में प्रयास भी ज़रूरी हैं। बहरहाल, इन परीक्षणों से इतना तो किया जा सकता है कि अल्ज़ाइमर की संभावना (risk detection) पता कर ऐहतियात बरती जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दर्द निवारण के दुष्प्रभावों से मुक्ति की राह

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चोट लगने अथवा संक्रमण (infection) की स्थिति में शरीर स्वयं उसका उपचार (healing process) करता है। चोट लगने या संक्रमण होने पर शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) सक्रिय हो जाता है। प्रभावित स्थान पर तमाम प्रतिरक्षा कोशिकाएं पहुंचने लगती हैं। उस स्थान की रक्त नलिकाएं थोड़ी ज़्यादा पारगम्य हो जाती हैं। वहां उनसे रिसकर द्रव भरने लगता है और साथ में श्वेत रक्त कोशिकाएं भी। इसे इन्फ्लेमेशन या शोथ कहते हैं। सूजन इसका एक गोचर असर होता है। कुल मिलाकर शोथ और उसके साथ आई सूजन शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

अर्थात शोथ और सूजन चोट को ठीक करने का स्वाभाविक इलाज है। हम इस चोट का इलाज करने के लिए प्रायः आइबुप्रोफेन (Ibuprofen) या अन्य दर्द निवारक गोलियां लेते हैं। ये गोलियां दर्द निवारण तो करती हैं किंतु साथ ही शोथ भी खत्म कर देती हैं। लेकिन शोथ तो शरीर में इलाज की अपनी व्यवस्था है। यानी शोथ को  खत्म करना इलाज में हस्तक्षेप माना जाएगा। अतः अब वैज्ञानिकों ने शरीर के स्वाभाविक उपचार के साथ छेड़छाड़ न करते हुए (अर्थात शोथ को कम किए बगैर) दर्द निवारण (pain management) का एक तरीका खोज लिया है।

हाल ही में प्रकाशित एक नए शोध (scientific study) ने कोशिकाओं की सतह पर एक ऐसे रिसेप्टर (ग्राही) (receptor discovery) की पहचान की है जो शोथ में हस्तक्षेप किए बिना केवल दर्द को समाप्त कर चोट को शीघ्र ठीक होने में अधिक मदद करता है। इसे ‘दर्द स्विच’ (pain switch) कह सकते हैं। 

वेदना की अनुभूति

हमारे शरीर में चोट ग्रस्त कोशिकाओं से निकले प्रोस्टाग्लैंडिन (prostaglandin) नामक रसायन से हमें वेदना की अनुभूति होती है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय (New York University Pain Research Center) पेन रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने दर्द के मुख्य कारक प्रोस्टाग्लैंडिन से जुड़ने वाले ऐसे रिसेप्टर की पहचान की है जो दर्द के प्रति संवेदनशील है लेकिन शोथ के प्रति नहीं। वर्तमान में आम तौर पर माना जाता रहा है कि शोथ और दर्द साथ-साथ चलते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications study) में प्रकाशित शोध निष्कर्ष बताते हैं कि इन दो प्रक्रियाओं को अलग-अलग संभाला जा सकता है और केवल दर्द को रोककर और शोथ को बढ़ने देने से उपचार में मदद मिल सकती है।

दर्द निवारक दवाएं

गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक तथा शोथरोधी दवाएं (Non-Steroid Anti-inflammatory Drugs – NSAID), दुनिया में सबसे अधिक ली जाने वाली दवाओं में से हैं, जिनकी अनुमानित 30 अरब खुराकें अकेले अमेरिका में ली जाती हैं। भारत के बारे में निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से कई दवाइयां बिना डॉक्टरी पर्चे के भी उपलब्ध होती हैं। इनका उपयोग लंबे समय तक होता है। इससे शरीर को गंभीर समस्याएं होती हैं, जिनमें पेट के अस्तर (stomach damage) को नुकसान, रक्तस्राव में वृद्धि और हृदय, गुर्दे और यकृत से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं।

हमारे शरीर के लगभग सभी ऊतक प्रोस्टाग्लैंडिन्स (prostaglandins function) उत्पन्न करते हैं जो दर्द और बुखार का कारण बनते हैं। प्रोस्टाग्लैंडिन हार्मोन के समान यौगिकों (hormone-like compounds) का एक समूह है। यह समूह शोथ, दर्द और गर्भाशय संकुचन सहित कई शारीरिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन के ज़रिए दर्द की अनुभूति के रासायनिक संकेत मस्तिष्क (brain signaling) तक पहुंचते हैं और तदनुसार मस्तिष्क कार्य करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन प्रभावित क्षेत्र में रक्त वाहिकाओं को फैलाते हैं, जिससे रक्त प्रवाह बढ़ता है और सूजन आती है। वे दर्द पैदा करने वाले रासायनिक संकेतों को भी सक्रिय करते हैं।

सूजन

शोथ का एक प्रकट लक्षण सूजन है, जिसे चिकित्सा की भाषा में एडिमा (edema) कहते हैं। यह शरीर के ऊतकों या किसी अंग में तरल पदार्थ का जमाव (fluid retention) है। तरल के इस जमाव से वह हिस्सा फूल जाता है। यह तरल चोटग्रस्त क्षेत्र में फैली हुई रक्त वाहिकाओं से रिसकर बाहर निकलता है और जमा हो जाता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएं (white blood cells), विशेषतः न्यूट्रोफिल्स तथा इम्युनोग्लोबुलिन (अर्थात एंटीबाडीज़ – (antibodies)) भरपूर मात्रा में होती हैं जो घाव की मरम्मत करने में सहायक होती हैं। 

शोथ चोट या संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रणाली (immune response) की प्रतिक्रिया में वृद्धि करती है। यह चोटग्रस्त ऊतकों की मरम्मत के द्वारा सामान्य कार्यप्रणाली को दुरुस्त करती है और उसे बहाल करती है। इसके विपरीत, गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक दवाएं दर्द के साथ-साथ शोथ भी दूर करती हैं जिससे उपचार में देरी हो सकती है और दर्द से उबरने में भी देरी हो सकती है। अत: प्रोस्टाग्लैंडिन से उत्पन्न दर्द के इलाज के लिए एक बेहतर रणनीति यह होगी कि शोथ से मिलने वाली सुरक्षा (healing protection) को प्रभावित किए बिना केवल दर्द को चुनिंदा रूप से खत्म किया जाए।

एस्पिरिन (Aspirin) और अन्य गैर-स्टेरॉइड शोथ-रोधी दवाइयां प्रोस्टाग्लैंडिन बनाने वाले एंज़ाइमों को अवरुद्ध (enzyme inhibition) करके इसके निर्माण को रोक देती हैं, जिससे सूजन और दर्द कम हो जाता है।

श्वान कोशिकाएं

श्वान (Schwann) कोशिकाएं मस्तिष्क के बाहर परिधीय तंत्रिका तंत्र (peripheral nervous system) में पाई जाती हैं और माइग्रेन (migraine pain) तथा अन्य प्रकार के दर्द का कारण होती हैं। फ्लोरेंस विश्वविद्यालय (University of Florence) के पियरेंजेलो गेपेटी ने श्वान कोशिकाओं में एक किस्म के प्रोस्टाग्लैंडिन (PGE2) पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे शोथ सम्बंधी दर्द (inflammatory pain) का एक मुख्य मध्यस्थ माना जाता है।

कोशिका झिल्लियों पर PGE2 (PGE2 receptors) के लिए चार अलग-अलग रिसेप्टर्स होते हैं। गेपेटी के पूर्व अध्ययनों ने PGE2 के लिए EP4 रिसेप्टर (EP4 receptor) को शोथ सम्बंधी दर्द उत्पन्न करने वाले मुख्य रिसेप्टर के रूप में इंगित किया है। हालांकि, नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications research) में, शोधकर्ताओं ने एकाधिक लक्ष्य आधारित दृष्टिकोण अपनाया और पाया कि एक अलग रिसेप्टर (EP2) दर्द के लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार था। श्वान कोशिकाओं में केवल EP2 रिसेप्टर को शांत करने के लिए स्थानीय रूप से दवाइयां देने पर चूहों में शोथ को प्रभावित किए बिना दर्द प्रतिक्रियाएं दूर हो गईं। इस प्रकार शोथ को दर्द से प्रभावी रूप से अलग कर दिया गया। यह शोध दर्द निवारण (pain relief research) के क्षेत्र में एक नई दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अब खून बताएगा थकान की असली वजह

वैज्ञानिक अब खून की एक सरल जांच विकसित करने के करीब हैं, जिससे क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (CFS) (blood test for Chronic Fatigue Syndrome) या मायाल्जिक एन्सेफेलोमेलाइटिस (ME) (Myalgic Encephalomyelitis diagnosis) का निदान आसानी से किया जा सकेगा। CFS की वजह से लाखों लोग वर्षों तक लगातार थकान और ऊर्जा की कमी से पीड़ित रहते हैं।

ब्रिटेन स्थित युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया (University of East Anglia research) के शोधकर्ताओं के नए अध्ययन में पाया गया कि ME/CFS से पीड़ित लोगों की रक्त कोशिकाओं में एपिजेनेटिक (epigenetic changes in CFS) बदलाव होते हैं। ये ऐसे रासायनिक परिवर्तन हैं जो जीन के काम करने के तरीके को प्रभावित करते हैं, हालांकि जीन की संरचना में कोई बदलाव नहीं होता। दशकों से पहेली बनी इस बीमारी के निदान के लिए यह खोज एक भरोसेमंद परीक्षण विकसित करने में मदद कर सकती है।

गौरतलब है कि CFS दुनिया भर में लगभग 1.7 से 2.4 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है। लेकिन कोई निश्चित जांच न होने के कारण इसे अक्सर पहचाना नहीं जाता या अन्य बीमारियों के साथ जोड़ लिया जाता है। मरीज़ न केवल अत्यधिक थकान से जूझते हैं, बल्कि बदन दर्द, नींद की समस्याएं और एकाग्रता में कठिनाई का सामना भी करते हैं।

डॉ. दिमित्रि पीशेज़ेत्स्की की शोध टीम ने एक विशेष एपिजेनेटिक परीक्षण का इस्तेमाल किया, जिससे यह पता लगाया गया कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells in ME/CFS) के अंदर डीएनए कैसे व्यवस्थित होता है। 47 गंभीर मरीज़ों और 61 स्वस्थ लोगों के रक्त नमूनों की तुलना में इस परीक्षण ने 96 प्रतिशत मामलों में सही पहचान की, जिससे इसके भविष्य में शक्तिशाली नैदानिक विधि (clinical diagnostic tool) बनने की संभावना है।

अध्ययन में पाया गया कि जीन और एपिजेनेटिक स्तर पर बदलाव प्रतिरक्षा और शोथ प्रतिक्रिया (immune response in CFS) से जुड़े हैं, जो ME/CFS में प्रतिरक्षा प्रणाली के असंतुलन का संकेत देते हैं। ये बदलाव नॉन-कोडिंग डीएनए (non-coding DNA regions) में पाए गए, जो प्रोटीन नहीं बनाते बल्कि अन्य जीन के चालू या बंद होने को नियंत्रित करते हैं।

यह अध्ययन एक बड़ी सफलता (scientific breakthrough in CFS research) है, लेकिन विशेषज्ञों ने और शोध की आवश्यकता जताई है। कॉर्नेल युनिवर्सिटी (Cornell University study) की डॉ. केटी ग्लास, जो स्वयं कभी ME/CFS से पीड़ित रही हैं, ने इसे सराहा लेकिन कहा है कि यह अध्ययन बहुत छोटे स्तर पर हुआ है, इसलिए इसे अभी निदान के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। फिर भी यह लंबे समय से इस अबूझ बीमारी (mystery illness) से जूझ रहे लाखों लोगों के लिए उम्मीद जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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रचनात्मक शौक मस्तिष्क को जवां रखते हैं

नृत्य (Dance), संगीत (Music), पेंटिंग (Painting) या वीडियो गेम (Video Games) जैसे रचनात्मक शौक सिर्फ मज़े के लिए नहीं होते बल्कि ये मस्तिष्क की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को भी धीमा कर सकते हैं। एक हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न देशों के नर्तकों, संगीतकारों, कलाकारों और गेमर्स का विश्लेषण किया ताकि यह समझा जा सके कि क्या रचनात्मक गतिविधियां (Creative Activities) मस्तिष्क को जवां बनाए रखने में मददगार होती हैं।

नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन में ‘ब्रेन क्लॉक’ (Brain Clock) तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मॉडल किसी व्यक्ति की वास्तविक उम्र और उसके मस्तिष्क की दिखाई देने वाली उम्र की तुलना करता है। ब्रेन इमेजिंग (Brain Imaging) और मशीन लर्निंग (Machine Learning) से यह मापा गया कि मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से कितनी अच्छी तरह आपस में जुड़ते हैं। परिणाम दिखाते हैं कि रचनात्मक गतिविधियों में शामिल होने से मस्तिष्क के कनेक्शन मज़बूत होते हैं, खासकर उन हिस्सों में जो उम्र बढ़ने के साथ सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

इस अध्ययन के सह-लेखक और न्यूरोसाइंटिस्ट (Neuroscientist) अगस्टिन इबान्ज़ बताते हैं कि पहले के अध्ययनों से पता चला था कि रचनात्मक गतिविधियां मस्तिष्क और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं, लेकिन अब तक इसके जैविक कारण ठीक से समझे नहीं गए थे। यह अध्ययन दर्शाता है कि रचनात्मकता (Creativity Benefits) शारीरिक रूप से मस्तिष्क की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती है।

शोधकर्ताओं ने चार रचनात्मक क्षेत्रों में 232 प्रतिभागियों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि अधिक कुशल और अनुभवी लोगों के मस्तिष्क उनके कम अनुभवी साथियों की तुलना में जवां दिखाई देते हैं। सबसे मज़बूत असर पेशेवर टैंगो डांसरों (Tango Dancers Study) में देखा गया, जिनके मस्तिष्क औसतन सात साल युवा दिखे। टैंगो नृत्य में जटिल हाव-भाव, तालमेल, लय और योजना की आवश्यकता होती है, जो मस्तिष्क को स्वस्थ (Brain Health) बनाए रखने में विशेष रूप से प्रभावी है।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि रचनात्मकता मस्तिष्क के फ्रंटोपैरीटल क्षेत्र (Frontoparietal Region) की सबसे ज़्यादा रक्षा करती है, जो कार्यशील स्मृति (Working Memory), निर्णय लेने और योजना बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। अनुभवी प्रतिभागियों में इस क्षेत्र की कनेक्टिविटी बेहतर थी, खासकर उन हिस्सों में जो गति, तालमेल और लय को नियंत्रित करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि नए रचनात्मक कौशल को सीखना भी मस्तिष्क के बुढ़ाने की प्रक्रिया को धीमा (Brain Anti-Ageing) करता है, जिससे पता चलता है कि किसी भी उम्र में नया शौक शुरू करना फायदेमंद हो सकता है। कुल मिलाकर, अध्ययन दिखाता है कि रचनात्मकता सिर्फ मनोरंजन नहीं है बल्कि यह मस्तिष्क को जवां बनाए रखती है। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान के नोबेल पुरस्कार 9 वैज्ञानिकों को दिए गए

स साल के नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize 2025) की घोषणा कर दी गई है। विज्ञान के तीन क्षेत्रों – भौतिकी, रसायन और कार्यिकी अथवा चिकित्सा – में पुरस्कार उन खोजों के लिए दिए गए हैं जो वर्षों पहले की गई थीं लेकिन विज्ञान और समाज में उनके असर का खुलासा होते देर लगी। तो एक नज़र इस वर्ष के नोबेल सम्मान पर डालते हैं।

भौतिकी (Physics Nobel Prize)

भौतिकी में क्वांटम (Quantum Physics) शब्द अब जाना-पहचाना है। क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा ब्लैक बॉडी विकिरण की व्याख्या के साथ माना जा सकता है। आगे चलकर अल्बर्ट आइंस्टाइन, नील्स बोर, एर्विन श्रोडिंजर जैसे वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाया। यह पदार्थ और ऊर्जा को एकदम बुनियादी स्तर पर समझने का प्रयास है। इसके कई विचित्र पहलुओं में से एक है क्वांटम टनलिंग (Quantum Tunneling)।

आम तौर पर जब हम किसी गेंद को दीवार पर मारते हैं तो वह सौ फीसदी बार टकराकर वापिस लौट आती है। लेकिन अत्यंत सूक्ष्म स्तर (जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे कण) पर पदार्थ का व्यवहार थोड़ा विचित्र हो जाता है। जब एक इकलौते कण को दीवार पर मारा जाए तो कभी-कभी वह टकराकर लौटने की बजाय दीवार के पार चला जाता है। इसे टनलिंग कहते हैं। ऐसा व्यवहार सूक्ष्म कणों के संदर्भ में ही देखा गया था। लेकिन इस वर्ष के नोबेल विजोताओं ने इसे स्थूल स्तर पर भी प्रदर्शित करके सबको चौंका दिया और क्वांटम कंप्यूटर (Quantum Computer Technology) जैसी टेक्नॉलॉजी का मार्ग खोल दिया है।

इस वर्ष का भौतिकी नोबेल संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के जॉन क्लार्क, येल विश्वविद्यालय के माइकेल डेवोरेट तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सांटा बारबरा) के जॉन मार्टिनिस को दिया गया है। इन्होंने यह दर्शाया कि टनलिंग स्थूल स्तर पर भी संभव है। दरअसल उनके प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में बुनियादी कणों का पुंज भी क्वांटम कण की तरह व्यवहार कर सकता है। उनके प्रयोग विद्युत परिपथ से सम्बंधित थे और वे दर्शा पाए कि विद्युत परिपथ क्वांटम परिपथ (Quantum Circuit Research) की तरह व्यवहार कर सकता है।

रसायन (Chemistry Nobel Prize)

वर्ष 2025 का रसायन नोबेल पुरस्कार क्योतो विश्वविद्यालय के सुसुमु कितागावा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के रिचर्ड रॉबसन और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के ओमर एम. यागी को दिया गया है।

इन वैज्ञानिकों ने ऐसी आणविक संरचनाएं निर्मित की हैं जिनमें अंदर विशाल खाली स्थान होते हैं। इसके लिए उन्होंने धातु के आयन और कार्बनिक अणुओं के संयोजन से नवीन आणविक रचनाएं बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन्हें मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ)) (Metal Organic Framework – MOF) नाम दिया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनमें उपस्थित खाली स्थानों में कई अन्य पदार्थ समा सकते हैं। जैसे इनमें कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide Storage) भर सकती है, विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थ जमा हो सकते हैं, पर्यावरण में उपस्थित कणीय पदार्थ भरे रह सकते हैं। अर्थात एमओएफ जलवायु परिवर्तन(Climate Change Solutions), वातावरण के प्रदूषण वगैरह जैसी कई चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित हो सकते हैं।

चिकित्सा विज्ञान (Medicine Nobel Prize)

इस वर्ष का चिकित्सा नोबेल इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी (सिएटल) की मैरी ई. ब्रन्कॉव, सोनोमा बायोथेराप्युटिक्स के फ्रेड राम्सडेल और ओसाका विश्वविद्यालय के शिमोन साकागुची को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन्होंने मिलकर इस बात का खुलासा किया है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System Research) अफरा-तफरी क्यों नहीं मचा देता। दरअसल हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) के लिए लाज़मी है कि वह बाहर से आने वाली विभिन्न चुनौतियों (जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस वगैरह) से निपटने को तत्पर रहे। इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र में विभिन्न किस्म की कोशिकाएं होती हैं – कुछ कोशिकाएं घुसपैठियों को पहचानने का काम करती हैं, कुछ उन्हें बांध कर अन्य मारक कोशिकाओं के समक्ष पेश करती हैं। बाहर से तो कुछ भी आ सकता है। इसलिए पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं पर ऐसे अणु होते हैं जो हर उस चीज़ को पहचान लेते हैं जो पराई है। यानी उनमें अपने-पराए का भेद करने की क्षमता होनी चाहिए।

इस साल के नोबेल विजेताओं का प्रमुख योगदान यह समझाने में रहा है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं का नियमन करके कैसे अनुशासित व्यवहार करता है। पहले माना जाता था कि पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं का प्रशिक्षण थायमस नामक ग्रंथि (Thymus Gland Function) में होता है। वहां समस्त पहचान कोशिकाओं को शरीर की कोशिकाओं से जोड़कर परखा जाता है। जो कोशिका अपने शरीर की कोशिका से जुड़ती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार से प्रतिरक्षा तंत्र की वही कोशिकाएं बचती हैं जो अपने ही शरीर की कोशिकाओं को हमलावर के रूप में नहीं पहचातीं।

फिर ब्रन्कॉव, राम्सडेल और साकागुची ने चूहों पर प्रयोगों के दम पर प्रतिरक्षा तंत्र में एक नई किस्म की कोशिकाएं पहचानी जो अन्य कोशिकाओं के निरीक्षण व नियमन का काम करती हैं। इन्हें नियामक टी-कोशिकाएं कहते हैं। तब से नियामक टी-कोशिकाओं (Regulatory T Cells – Tregs) पर काफी अनुसंधान से कई रोगों के उपचार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इनमें खास तौर से तथाकथित आत्म-प्रतिरक्षा रोग (Autoimmune Diseases) और कैंसर शामिल हैं। आत्म प्रतिरक्षा रोगों में टाइप-ए डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, ल्यूपस वगैरह शामिल हैं। इन रोगों का कारण यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर देता है। नियामक टी-कोशिकाओं की खोज और आगे शोध ने ऐसे रोगों (Cancer Immunotherapy) के प्रबंधन के रास्ते प्रदान किए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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