टोनी गोल्डबर्ग प्रायमेट प्राणियों में परजीवी प्रकोप का अध्ययन करते हैं। उनके अनुभव रोचक हैं, उनके द्वारा किए गए अध्ययन महत्वपूर्ण रहे हैं और उनके पास आपके लिए कई सलाहें हैं।
हमारे शरीर पर कोई कीड़ा (insect) रेंगे तो हम क्या करेंगे? तुरंत उसे झटक कर फेंक देंगे। उसका बारीकी से अवलोकन (observe) तो दूर की बात है, अक्सर तो यह भी नहीं देखते कि कीड़ा था कौन-सा। लेकिन कीड़े-मकोड़ों (कीटों) में रुचि रखने वाले चंद लोग ऐसे मौके नहीं गंवाते। बल्कि ऐसे मौके उनके लिए कुछ नया खोजने का अवसर बन जाते हैं, जो कीटों के बारे में हमारी समझ को बढ़ाते हैं।
ऐसे ही मौकापरस्त हैं टोनी गोल्डबर्ग (Tony Goldberg)। वे पेशे से वन्यजीव महामारी विज्ञानी (wildlife epidemiologist) हैं और विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। परजीवियों में उनकी खासी रुचि है। उन्होंने अपनी पिछली कुछ खोजी यात्राओं के दौरान उनके शरीर पर सवार हुए परजीवी कीटों का अध्ययन कर कुछ गुत्थियां सुलझाईं हैं।
2013 में जब वे युगांडा के किबले राष्ट्रीय उद्यान (Kibale National Park) गए थे तो उनकी नाक में एक किलनी (टिक) घुस गई थी। उन्होंने उसे निकाल फेंकने की बजाय उसका जेनेटिक अनुक्रमण (genetic sequencing) किया, और पता चला कि वह तो किलनी की एक नई प्रजाति (new species) है।
पिछले दिनों जब वे किबले राष्ट्रीय उद्यान की यात्रा से लौटे तो उनकी कांख में मक्खी का लार्वा (fly larva) फंसकर आ गया। सरसरी तौर पर देखा तो लगा वह उस क्षेत्र में आम तौर पर पाई जाने वाली मक्खी का लार्वा है। लेकिन जब उन्होंने उसका जीन अनुक्रमण किया पता चला कि ये लार्वा आम अफ्रीकी बॉट फ्लाई (African botfly) के लार्वा नहीं बल्कि एक दुर्लभ प्रजाति के लार्वा हैं।
इसी प्रकार से, वे किबले राष्ट्रीय उद्यान के जंगल में प्राइमेट्स (primates) का अध्ययन कर रहे थे। जिन प्राइमेट्स का वे उपचार/देखभाल कर रहे थे, उनके शरीर में उन्हें कुछ परजीवी कीट (parasitic insects) मिले। इन कीटों को देखने पर वे उप-सहारा अफ्रीका में बहुतायत में पाई जाने वाली सामान्य परजीवी मक्खी कॉर्डिलोबिया एंथ्रोपोफैगा (Cordylobia anthropophaga) लग रहे थे। लेकिन इन मक्खियों को प्राइमेट्स को संक्रमित करते कभी देखा नहीं गया था और इस बात के ज़्यादा सबूत नहीं थे कि यह प्रजाति प्राइमेट्स को संक्रमित करती है।
लिहाज़ा, उन्होंने वे कीट अध्ययन के लिहाज़ से इकट्ठा कर लिए। इन्हें जमा करने में उनके साथियों ने भी खूब साथ दिया – उन्होंने अपने-अपने शरीर पर चढ़ आए कीटों को निकाल-निकाल कर गोल्डबर्ग देना शुरू कर दिया। वापिस आकर जब उन्होंने इन कीटों का अनुक्रमण (DNA sequencing) किया तो पता चला कि ये कीट वे मक्खियां नहीं हैं बल्कि यह उन्हीं से सम्बंधित एक अन्य दुर्लभ प्रजाति है – कॉर्डिलोबिया रोडेनी (Cordylobia rodhaini)
दिलचस्प बात यह है कि परजीवी विज्ञान (parasitology) में 120 सालों से यह रहस्य रहा है कि अफ्रीकी बॉट मक्खी की यह दूसरी प्रजाति (कॉर्डिलोबिया रोडेनी) रहती कहां है। और यह अध्ययन पहला ऐसा ठोस प्रमाण है कि गैर-मानव प्राइमेट इस प्रजाति के एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक मेज़बान (natural host) हैं।
एक और गौरतलब बात जो गोल्डबर्ग कहते हैं वह यह कि पूरी दुनिया में देखा जाए तो बॉट मक्खियां दुर्लभ हो सकती हैं, लेकिन हो सकता है कि जहां उनके लिए माकूल परिस्थितियां हों वहां वे प्रचुरता में मौजूद हों, जैसे किबले नेशनल पार्क। यहां उनके मेज़बान गैर-मानव प्राइमेट (यानी जिन पर उनके लार्वा पनपते हैं), अच्छी जलवायु (climate), और उन्हें फैलने की आदर्श परिस्थिति है, जो इन मक्खियों और अन्य बॉट मक्खियों के लिए एक आकर्षक जगह हो सकती है।
तेज़ी से बदलती जलवायु (climate change) और बढ़ते मानव हस्तक्षेप (human interference) के मद्देनज़र बॉट मक्खियों (botflies) समेत तमाम परजीवियों के बारे में जानना सिर्फ वैज्ञानिकों की रुचि का मामला नहीं है। यह कृषि और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनका अनियंत्रित प्रसार कृषि और जीव-जंतुओं को प्रभावित करेगा।
कुछ सामान्य बातें…
यदि आप ऐसी जगह जा रहे हैं जहां परजीवियों (parasites) के आपके ऊपर सवार होकर आने की संभावना है तो आप थोड़ी ऐहतियात बरतें ताकि आप और अन्य सुरक्षित रहें। जैसे आप किबले राष्ट्रीय उद्यान या ऐसे ही जलवायु और परिस्थिति (tropical forest conditions) वाले किसी स्थान पर जा रहे हैं तो झाड़ियों, पेड़ों से सटकर न गुज़रे। ऐसा कर आप अपने साथ इन्हें लाने की संभावना बढ़ाते हैं। दूसरा कपड़ों को बाहर न सुखाएं। क्योंकि वयस्क मक्खी मिट्टी या अन्य गीली जगहों पर अंडे देती है। आपके गीले कपड़े अंडे देने की बढ़िया जगह बन सकते हैं। और यदि आप कपड़े बाहर सुखा भी रहे हैं तो उन्हें बिना अच्छे से इस्तरी किए न पहने यहां तक कि अंत:वस्त्र भी। इस संदर्भ में गोल्डबर्ग ने अपने साथियों के कुछ अनुभव साझा किए हैं।
और खुदा न ख्वास्ता आप किसी परजीवी (parasite infection) को अपने संग ले आते हैं, तो जूं के काटने-रेंगने जैसे एहसास से आपको उनकी मौजूदगी का पता चल जाएगा। जैसे ही आपको उनकी मौजूदगी का एहसास हो उनसे बचने का सबसे अच्छा उपाय है कि आप उन्हें निकाल कर अलग कर दें। कई लोग पेट्रोलियम जेली (petroleum jelly) लगाने की सलाह देते हैं जो प्राय: कारगर होता है क्योंकि सांस न ले पाने के कारण लार्वा मर जाता है। लेकिन अगर लार्वा अपने किए घाव में मर जाए तो आपकी त्वचा में संक्रमण (skin infection) फैल सकता है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z261u85/full/_20251021_on_tropical.qa_lead-1761231855180.jpg
कई बार ऐसी खबरें मिलती हैं कि किसी दलदली जगह (swamp area) पर रोशनियां नृत्य करती नज़र आती हैं। इनके बारे में लोक विश्वास है कि ये हड्डियों का नाच होता है या आत्माएं मुसाफिरों को भ्रमित करने या राह दिखाने के लिए रोशनी दिखाती हैं। अंग्रेज़ी में इसे विल-ओ-दी-विस्प (Will-o’-the-wisp) कहते हैं।
आम तौर पर वैज्ञानिक मानते आए हैं कि इन रोशनियों का स्रोत दलदल से निकलती मीथेन गैस (methane gas) होती है जो सतह पर ऑक्सीजन (oxygen) के संपर्क में आकर जल उठती है। दलदलों में सड़ता जैविक पदार्थ ही इस गैस का स्रोत होता है। लेकिन यह समझ से परे रहा था कि यह गैस आग कैसे पकड़ लेती है क्योंकि वहां न तो कोई चिंगारी होती है और न ही तापमान इतना अधिक होता है कि गैस जल उठे। अब शोधकर्ताओं (researchers) ने इसकी एक नई व्याख्या पेश की है।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेस (यूएस) (PNAS) में प्रकाशित एक शोध पत्र में स्टेनफर्ड विश्वविद्यालय (Stanford University) के रिचर्ड ज़ेयर (Richard Zare) और उनके सहकर्मियों ने बताया है कि यह दलदल से निकलने वाले सूक्ष्म बुलबुलों (microbubbles) का करिश्मा है। ये बुलबुले अत्यंत सूक्ष्म (साइज़ नैनोमीटर से लेकर माइक्रोमीटर) के होते हैं। ज़ेयर और उनके साथी ऐसे बुलबुलों का अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने पाया कि जब अलग-अलग साइज़ के बुलबुले हवा और पानी की संपर्क सतह पर आते हैं तो उनकी सतहों पर आवेश (electric charge) पैदा हो जाते हैं। होता यह है कि छोटे बुलबुलों पर ऋणावेश संग्रहित हो जाता है जबकि बड़े बुलबुले धनावेशित हो जाते हैं। यदि ये बुलबुले पास-पास आ जाएं तो उनके बीच विद्युत क्षेत्र बन जाता है और विद्युत प्रवाह (electric discharge) के कारण चिंगारी पैदा होती है।
ज़ेयर के मन में विचार आया कि कहीं यह विद्युत प्रवाह ही भूतिया रोशनी (ghost light) के लिए ज़िम्मेदार न हो। इस बात का पता लगाने के लिए उन्होंने एक मशीन (experimental setup) बनाई जिसमें एक नोज़ल थी जो पानी में डूबी थी। फिर उन्होंने इस नोज़ल से मीथेन और हवा के बुलबुले पानी में उड़ाए। हाई-स्पीड कैमरा (high-speed camera) में नज़र आया कि इन बुलबुलों के टकराने पर हल्की रोशनी पैदा होती है।
टीम ने यह भी देखा कि रोशनी तब भी पैदा होती है जब मात्र हवा के बुलबुले बनाए गए थे। अर्थात सूक्ष्म रोशनी आवेशों के पृथक्करण (charge separation) की वजह से पैदा होती है, न कि मीथेन के स्वत:स्फूर्त दहन (spontaneous combustion) के कारण। अलबत्ता, जब मीथेन भी मौजूद हो तो रोशनी तेज़ होती है और तापमान भी बढ़ता है।
वैसे तो अभी भी बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं है लेकिन कई वैज्ञानिकों का मत है कि ऐसे बुलबुले तो धरती की शुरुआत (early Earth) में भी उपस्थित रहे होंगे, और संभव है कि इनकी परस्पर क्रिया से जीवन के रसायन (origin of life chemistry) बनने के लिए ज़रूरी रासायनिक क्रियाओं को ऊर्जा मिली हो। यह भी सोचा जा रहा है कि यह प्रक्रिया रासायनिक संश्लेषण का एक मार्ग उपलब्ध करा सकती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/5/5f/Will-o-the-wisp_and_snake_by_Hermann_Hendrich_1823.jpg/1024px-Will-o-the-wisp_and_snake_by_Hermann_Hendrich_1823.jpg
समुद्र (ocean) तरह-तरह की आवाज़ों से गुंजायमान (sound waves) है – मनुष्य के जहाज़ों की धीमी गड़गड़ाहट से लेकर उसके नैसर्गिक रहवासियों जैसे व्हेल(whales), डॉल्फिन और झींगों की धीमी-तेज़ आवाज़ों तक से। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि समुद्र की ये नैसर्गिक आवाज़ें यह बताने में मदद कर सकती हैं कि पानी कितना अम्लीय है: ये आवाज़ें समुद्री अम्लीयकरण (ocean acidification) जैसे गंभीर पर्यावरणीय खतरे को समझने का नया तरीका बन सकती हैं।
जर्नल ऑफ जियोफिज़िकल रिसर्च: ओशियन (Journal of Geophysical Research: Oceans) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार लहरों, हवा और बारिश की आवाज़ें पानी की अम्लीयता को दूर तक और गहराई तक मापने में मददगार हो सकती हैं।
गौरतलब है कि समुद्र हर वर्ष मानव गतिविधियों (carbon emissions) से उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग एक-तिहाई भाग सोख लेता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) में कुछ हद तक कमी तो होती है, लेकिन परिणामस्वरूप समुद्र के पानी की pH घटती है और वह अधिक अम्लीय हो जाता है। 1985 से अब तक समुद्र की सतह का pH 8.11 से घटकर 8.04 हो गई है। यह मामूली फर्क भी कोरल रीफ(coral reefs), समुद्री जीवों की खोल और पूरे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है।
इसी समस्या को समझने के लिए कनाडा के वैज्ञानिक डेविड बार्कले और उनकी टीम ने एक नया तरीका खोजा। उन्होंने हाइड्रोफोन (hydrophone technology) से लैस ‘डीप साउंड’ नामक उपकरण को 5000 मीटर गहराई तक भेजा और पाया कि इतनी गहराई में भी सतह की लहरों की आवाज़ें सुनी जा सकती है। शोध में पता चला कि समुद्र में मौजूद बोरिक एसिड और मैग्नीशियम सल्फेट जैसे रसायन अलग-अलग आवृत्तियों की ध्वनि (sound frequency) सोखते हैं। और अम्लीयता बढ़ने पर दोनों पर अलग-अलग असर होते हैं – जहां बोरिक एसिड घटता जाता है (और उसके द्वारा सोखी गई ध्वनि भी), वहीं मैग्नीशियम सल्फेट अप्रभावित रहता है। जैसे-जैसे समुद्र अम्लीय होता है, यह संतुलन बदलता है और ध्वनि की आवृत्ति की मदद से वैज्ञानिक समुद्र की pH माप सकते हैं। इस खोज (scientific discovery) को मुकम्मल करने में टीम को लगभग 15 साल लगे। लेकिन अब उनका नया उपकरण 10,000 मीटर की गहराई (मैरियाना ट्रेंच के चैलेंजर डीप) (Mariana Trench) तक काम कर सकता है। यह तकनीक बड़े पैमाने पर pH मॉनीटरिंग (pH monitoring) को संभव बनाती है।
हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह तरीका अभी पारंपरिक रासायनिक मापों जितना सटीक नहीं है। अलबत्ता, मौजूदा रोबोटिक सेंसर आधारित BGC-Argo तकनीकें फंडिंग और सप्लाई की दिक्कतों से जूझ रही हैं, ऐसे में यह ध्वनि-आधारित तकनीक एक महत्वपूर्ण विकल्प (alternative technology) बन सकती है।
बहरहाल, योजना इन उपकरणों को महीनों तक समुद्र तल पर छोड़कर दीर्घकालिक डैटा (long-term data) जुटाने की है।(स्रोत फीचर्स)
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पुरुषों के लिए लंबी आयु (life expectancy in men) की सारी कामनाओं, प्रार्थनाओं के बावजूद मैं अपने परिजनों में पाता हूं कि पुरुष पहले स्वर्ग सिधारते हैं और अक्सर महिलाएं लंबी आयु प्राप्त करती हैं। तो क्या पुरुष जन्म से ही पहले मरने के लिए नियत है? सभी परिस्थितियां समान मिलें तो भी मेरे साथ पैदा हुई महिला की तुलना में मैं तीन वर्ष पूर्व मरने के लिए अभिशप्त हूं।
महिला-पुरुष के जीवनकाल (male vs female lifespan) में अंतर बहुत पहले से ज्ञात है। यह केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में पत्थर की लकीर-सा नियम है। तो पुरुषों में ऐसा क्या है कि वे महिलाओं की तुलना में अल्प आयु में मर जाते हैं। हाल ही के शोध कार्यों से हम इस तथ्य का कारण समझने के समीप पहुंचे हैं।
कुछ लोग पुरुषों के छोटे जीवनकाल का कारण व्यवहार में अंतर (lifestyle differences) को मानते हैं। व्यवहार, जैसे पुरुष युद्ध लड़ते हैं, खदानों में कार्य करते हैं, श्रमयुक्त मज़दूरी करते हैं और इस प्रकार अपने शरीर पर अतिरिक्त दबाव डालकर भी मैदान में डटे रहते हैं। सामाजिक विज्ञान के कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि पुरुष आदतन झक्की होते हैं। वे अत्यधिक धूम्रपान (smoking habits) करते हैं, अनियंत्रित पीते हैं और पेटू होते हैं इसलिए उनका वज़न ज़्यादा होता है। बीमार होने पर चिकित्सीय सहायता लेने में भी आना-कानी करते हैं और बीमारी का पता चल जाए तो भी अधिक संभावना इस बात की रहती हैं कि वे पूरा उपचार ना लें। साथ ही, वे गुस्सैल होते हैं और आपसी लड़ाई, दुर्घटना और अत्यधिक जोखिम भरे कार्य पसंद करते हैं। इस दौरान चोट अथवा बीमारी से उनका शरीर कमज़ोर हो जाता है। किंतु यदि ऐसा ही था तो पुरुषों को आरामदायक कार्य मिलने पर तो दोनों का जीवनकाल एक जैसा होना था।
तो क्या हमारे करीबी रिश्तेदार वानरों में भी ऐसा ही है? मानव को छोड़कर बाकी सभी प्रायमेट्स (primates study) पर भी वैज्ञानिकों ने शोध किया। वे देखना चाहते थे कि क्या हमारे नज़दीकी रिश्तेदार वानरों में भी मादा की आयु नर से ज़्यादा होती है? वैज्ञानिकों ने 6 जंगली प्रायमेट्स (सिफाकास, मुरिक्विस, गोरिल्ला, चिम्पैंजी और बबून) के ऐसे समूह से उम्र सम्बंधी आंकड़े बटोरे जिनकी संख्या समूह में 400 से 1500 तक थी। फिर शोधकर्ताओं ने आधुनिक एवं ऐतिहासिक दोनों समय के छह मानव समूह की आबादी के आंकड़े भी देखे। वैज्ञानिकों ने पाया कि पिछली शताब्दी की तुलना में मानव आयु में बहुत वृद्धि होने के बावजूद पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर कम नहीं हुआ। शोध से यह भी बात सामने आई कि मानव आबादी में यद्यपि महिलाएं ज़्यादा समय तक जीवित रहती हैं परंतु भौगोलिक वितरण के अनुसार यह अंतर अलग-अलग रहा था। उदाहरण के लिए आधुनिक रूस में पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर लगभग 10 वर्ष का है जो सबसे अधिक है।
अधिक उम्र का जैविक कारण (biological reasons for longevity)
जीव विज्ञानी अल्पायु के लिए पुरुषों के गुणसूत्रों (chromosomes in men) को दोषी ठहराते हैं। महिलाओं को निश्चित रूप से जैविक लाभ जन्म के साथ ही प्राप्त होने लगता है। बाहरी प्रभावों के अभाव में भी लड़कों की मृत्यु दर लड़कियों से 25-30 प्रतिशत अधिक देखी गई है। आंकड़े भी महिलाओं के जन्मजात आनुवंशिक (genetic advantage in women) लाभ दर्शाते हैं।
मनुष्यों तथा कई अन्य जंतुओं में लिंग का निर्धारण गुणसूत्रों द्वारा होता है। मनुष्यों की कोशिकाओं में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं। इनमें 22 जोड़ियों में तो गुणसूत्र परस्पर पूरक होते हैं। लेकिन 23वीं जोड़ी में दो गुणसूत्र अलग-अलग किस्म के होते हैं। शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं (X तथा Y), जबकि सारे अंडाणु एक ही प्रकार के होते हैं (X)। यदि व्यक्ति में दोनों गुणसूत्र X हों तो मादा यानी लड़की बनती है और जब एक गुणसूत्र X तथा Y दूसरा हो तो नर यानी लड़का।
जब इन X गुणसूत्रों के जीन्स में से एक जीन उत्परिवर्तित होता है तो महिलाओं में पाया जाने वाला दूसरा X गुणसूत्र उसके कार्य को संभाल लेता है या उसके दुष्प्रभाव को दबा देता है। जबकि पुरुषों में केवल एक X गुणसूत्र होने के कारण उसमें उत्परिवर्तन हो जाए तो गंभीर परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है।
इस प्रकार दोनों लिंगों के बीच जेनेटिक अंतर (genetic difference) एक लिंग में उम्र बढ़ाता है तो दूसरे में कम कर देता है। इसके अलावा महिलाओं के हार्मोन (female hormones) और प्रजनन में महिलाओं की अगली पीढ़ी में निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका को भी दीर्घायु से जोड़ा गया है। उदाहरण के लिए महिलाओं में बनने वाला हार्मोन एस्ट्रोजन (estrogen hormone) खराब कोलेस्ट्रॉल को खत्म करने में कारगर है जिससे महिलाओं का शरीर हृदय सम्बंधी बीमारियों (heart disease risk) से प्राय: सुरक्षित बना रहता है। दूसरी ओर केवल पुरुषों में बनने वाला टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन उनमें हिंसा और जोखिम लेने की उत्कंठा उत्पन्न करता है। आखिर में महिलाओं का शरीर गर्भावस्था (pregnancy health) और स्तनपान की ज़रूरतों के अनुसार भोजन का भंडारण करने के लिए बना होता है। वे भोजन की ज़्यादा मात्रा को भी उचित तरीके से संग्रहित या शरीर के बाहर निकालने के अनुरूप ढली हुई हैं। इसके अलावा भी अनेक आनुवंशिक एवं जैविक कारण ज्ञात हैं जिनका स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर पर समग्र प्रभाव को मापना असंभव है। पिछले कुछ दशकों में असाधारण आर्थिक और सामाजिक प्रगति से मातृत्व बोझ में नाटकीय कमी भी देखी गई है। इस प्रकार सभी परिस्थितियां महिलाओं को अनुकूल बनाती हैं।
एक परिकल्पना ‘जॉगिंग हार्ट’ (jogging heart hypothesis) के अनुसार माहवारी चक्र के उत्तरार्ध में, यानी अंडोत्सर्ग के बाद, हृदय की गति बढ़ जाती है। हृदय गति बढ़ने से वैसी ही लाभकारी परिस्थिति उत्पन्न होती है जैसी हल्का व्यायाम (light exercise benefits) करने पर या जॉगिंग करने पर होती है। बाद के जीवन में इसके लाभकारी असर देखे जा सकते हैं। इसलिए हृदय रोग का जोखिम भी महिलाओं को बेहद कम होता है।
अधिक कद भी एक महत्वपूर्ण कारक (height and aging factor) है। लंबे लोगों में अधिक कोशिकाएं होती हैं। इसलिए उन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अधिक कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की संभावनाएं भी अधिक हो जाती है तथा ज़्यादा ऊर्जा खर्च करने से कोशिकाएं जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं। अत: पुरुषों की अधिक ऊंचाई उन्हें अधिक दीर्घकालीन क्षति की ओर धकेलती है।
वे कारण जो महिलाओं को लंबी उम्र (women longevity reasons) देते हैं कई बार अटपटे, अनिश्चित और रहस्यमयी लगते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि सारी प्रार्थनाएं और व्रत-उपवास इस खाई को पाट नहीं सके हैं। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer test) के लिए एक नए रक्त परीक्षण (blood test) को मंज़ूरी मिली है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृति प्राप्त इस जांच को बीमारी की पहचान में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। Elecsys pTau181 नामक यह परीक्षण दो दवा कंपनियों (रोश और एली लिली) ने मिलकर विकसित किया है। इस जांच से डॉक्टर यह बता पाएंगे कि किसी मरीज़ की याददाश्त कम होना या भ्रम अल्ज़ाइमर (Alzheimer diagnosis) की वजह से है या इसका कोई और कारण है।
गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर का कारण (Alzheimer cause) दो हानिकारक प्रोटीन, एमिइलॉइड-बीटा (amyloid-β) और टाउ (tau), का मस्तिष्क में जमाव है। यह जांच रक्त में टाउ प्रोटीन के एक विशेष – pTau181) – को मापता है: इस प्रोटीन का अधिक स्तर यानी अल्ज़ाइमर रोग।
यह जांच 97.9 प्रतिशत मामलों (312 लोग) में ठीक-ठीक बता पाई कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। अर्थात अगर टेस्ट का परिणाम नकारात्मक आता है, तो लगभग निश्चित है कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। इस वजह से यह टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों (primary care doctors) के लिए जांच का बेहतरीन तरीका है। ज़ाहिर है, यह परीक्षण अल्ज़ाइमर की पुष्टि करने के लिए नहीं, बल्कि इसे खारिज (screening test) करने के लिए बनाया गया है।
गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर की जांच के लिए एकमात्र Elecsys टेस्ट नहीं है। मई में Lumipulse (blood biomarker test) नाम का एक और रक्त परीक्षण आया है जो दो प्रोटीन, pTau217 (protein marker) और amyloid-β (1–42) के अनुपात को मापता है। इसके ज़रिए अल्ज़ाइमर की पुष्टि और खारिज दोनों किए जा सकते हैं।
वैज्ञानिक ने चेताया देते हैं कि रक्त आधारित अल्ज़ाइमर परीक्षण (Alzheimer blood tests) पूरी तरह सटीक नहीं हैं। कई लोगों के परिणाम ‘ग्रे ज़ोन’ में आते हैं, यानी उन्हें ब्रेन स्कैन (brain scan) या स्पाइनल फ्लूइड टेस्ट (spinal fluid test) की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, Quanterix कंपनी के एक अन्य pTau217 आधारित टेस्ट (diagnostic accuracy) में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिनके नतीजे अनिश्चित रहे।
विशेषज्ञों के अनुसार परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो हैं और अल्ज़ाइमर के पारंपरिक (Alzheimer detection) और अधिक जटिल परीक्षणों से मेल खाते हैं। लेकिन जब तक ट्रायल के सभी आंकड़े (clinical data) उपलब्ध नहीं होते, तब तक टेस्ट की सटीकता को पूरी तरह स्पष्ट मानना मुश्किल है।
लेकिन इन परीक्षणों का फायदा तो तभी होगा जब बीमारी का इलाज (Alzheimer treatment) मौजूद हो। इसलिए इलाज खोजने की दिशा में प्रयास भी ज़रूरी हैं। बहरहाल, इन परीक्षणों से इतना तो किया जा सकता है कि अल्ज़ाइमर की संभावना (risk detection) पता कर ऐहतियात बरती जाए।(स्रोत फीचर्स)
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इस साल के नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize 2025) की घोषणा कर दी गई है। विज्ञान के तीन क्षेत्रों – भौतिकी, रसायन और कार्यिकी अथवा चिकित्सा – में पुरस्कार उन खोजों के लिए दिए गए हैं जो वर्षों पहले की गई थीं लेकिन विज्ञान और समाज में उनके असर का खुलासा होते देर लगी। तो एक नज़र इस वर्ष के नोबेल सम्मान पर डालते हैं।
भौतिकी (Physics Nobel Prize)
भौतिकी में क्वांटम (Quantum Physics) शब्द अब जाना-पहचाना है। क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा ब्लैक बॉडी विकिरण की व्याख्या के साथ माना जा सकता है। आगे चलकर अल्बर्ट आइंस्टाइन, नील्स बोर, एर्विन श्रोडिंजर जैसे वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाया। यह पदार्थ और ऊर्जा को एकदम बुनियादी स्तर पर समझने का प्रयास है। इसके कई विचित्र पहलुओं में से एक है क्वांटम टनलिंग (Quantum Tunneling)।
आम तौर पर जब हम किसी गेंद को दीवार पर मारते हैं तो वह सौ फीसदी बार टकराकर वापिस लौट आती है। लेकिन अत्यंत सूक्ष्म स्तर (जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे कण) पर पदार्थ का व्यवहार थोड़ा विचित्र हो जाता है। जब एक इकलौते कण को दीवार पर मारा जाए तो कभी-कभी वह टकराकर लौटने की बजाय दीवार के पार चला जाता है। इसे टनलिंग कहते हैं। ऐसा व्यवहार सूक्ष्म कणों के संदर्भ में ही देखा गया था। लेकिन इस वर्ष के नोबेल विजोताओं ने इसे स्थूल स्तर पर भी प्रदर्शित करके सबको चौंका दिया और क्वांटम कंप्यूटर (Quantum Computer Technology) जैसी टेक्नॉलॉजी का मार्ग खोल दिया है।
इस वर्ष का भौतिकी नोबेल संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के जॉन क्लार्क, येल विश्वविद्यालय के माइकेल डेवोरेट तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सांटा बारबरा) के जॉन मार्टिनिस को दिया गया है। इन्होंने यह दर्शाया कि टनलिंग स्थूल स्तर पर भी संभव है। दरअसल उनके प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में बुनियादी कणों का पुंज भी क्वांटम कण की तरह व्यवहार कर सकता है। उनके प्रयोग विद्युत परिपथ से सम्बंधित थे और वे दर्शा पाए कि विद्युत परिपथ क्वांटम परिपथ (Quantum Circuit Research) की तरह व्यवहार कर सकता है।
रसायन (Chemistry Nobel Prize)
वर्ष 2025 का रसायन नोबेल पुरस्कार क्योतो विश्वविद्यालय के सुसुमु कितागावा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के रिचर्ड रॉबसन और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के ओमर एम. यागी को दिया गया है।
इन वैज्ञानिकों ने ऐसी आणविक संरचनाएं निर्मित की हैं जिनमें अंदर विशाल खाली स्थान होते हैं। इसके लिए उन्होंने धातु के आयन और कार्बनिक अणुओं के संयोजन से नवीन आणविक रचनाएं बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन्हें मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ)) (Metal Organic Framework – MOF) नाम दिया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनमें उपस्थित खाली स्थानों में कई अन्य पदार्थ समा सकते हैं। जैसे इनमें कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide Storage) भर सकती है, विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थ जमा हो सकते हैं, पर्यावरण में उपस्थित कणीय पदार्थ भरे रह सकते हैं। अर्थात एमओएफ जलवायु परिवर्तन(Climate Change Solutions), वातावरण के प्रदूषण वगैरह जैसी कई चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित हो सकते हैं।
चिकित्साविज्ञान(Medicine Nobel Prize)
इस वर्ष का चिकित्सा नोबेल इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी (सिएटल) की मैरी ई. ब्रन्कॉव, सोनोमा बायोथेराप्युटिक्स के फ्रेड राम्सडेल और ओसाका विश्वविद्यालय के शिमोन साकागुची को संयुक्त रूप से दिया गया है।
इन्होंने मिलकर इस बात का खुलासा किया है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System Research) अफरा-तफरी क्यों नहीं मचा देता। दरअसल हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) के लिए लाज़मी है कि वह बाहर से आने वाली विभिन्न चुनौतियों (जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस वगैरह) से निपटने को तत्पर रहे। इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र में विभिन्न किस्म की कोशिकाएं होती हैं – कुछ कोशिकाएं घुसपैठियों को पहचानने का काम करती हैं, कुछ उन्हें बांध कर अन्य मारक कोशिकाओं के समक्ष पेश करती हैं। बाहर से तो कुछ भी आ सकता है। इसलिए पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं पर ऐसे अणु होते हैं जो हर उस चीज़ को पहचान लेते हैं जो पराई है। यानी उनमें अपने-पराए का भेद करने की क्षमता होनी चाहिए।
इस साल के नोबेल विजेताओं का प्रमुख योगदान यह समझाने में रहा है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं का नियमन करके कैसे अनुशासित व्यवहार करता है। पहले माना जाता था कि पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं का प्रशिक्षण थायमस नामक ग्रंथि (Thymus Gland Function) में होता है। वहां समस्त पहचान कोशिकाओं को शरीर की कोशिकाओं से जोड़कर परखा जाता है। जो कोशिका अपने शरीर की कोशिका से जुड़ती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार से प्रतिरक्षा तंत्र की वही कोशिकाएं बचती हैं जो अपने ही शरीर की कोशिकाओं को हमलावर के रूप में नहीं पहचातीं।
फिर ब्रन्कॉव, राम्सडेल और साकागुची ने चूहों पर प्रयोगों के दम पर प्रतिरक्षा तंत्र में एक नई किस्म की कोशिकाएं पहचानी जो अन्य कोशिकाओं के निरीक्षण व नियमन का काम करती हैं। इन्हें नियामक टी-कोशिकाएं कहते हैं। तब से नियामक टी-कोशिकाओं (Regulatory T Cells – Tregs) पर काफी अनुसंधान से कई रोगों के उपचार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इनमें खास तौर से तथाकथित आत्म-प्रतिरक्षा रोग (Autoimmune Diseases) और कैंसर शामिल हैं। आत्म प्रतिरक्षा रोगों में टाइप-ए डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, ल्यूपस वगैरह शामिल हैं। इन रोगों का कारण यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर देता है। नियामक टी-कोशिकाओं की खोज और आगे शोध ने ऐसे रोगों (Cancer Immunotherapy) के प्रबंधन के रास्ते प्रदान किए हैं।(स्रोतफीचर्स)
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हालांकि दौर नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize) की घोषणा का चल रहा है, लेकिन इसके कुछ दिनों पहले इगनोबेल पुरस्कार (Ig Nobel Prize) की घोषणा भी हुई थी।
धीर-गंभीर लगने वाली वैज्ञानिक खोजों (Scientific Discoveries) के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों के विपरीत इगनोबेल पुरस्कार उन वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए दिए जाते हैं जिनके विषय/सवाल पहली नज़र में तो थोड़े मज़ाकिया लगते हैं, लेकिन फिर उन्हें लेकर शोध उतनी ही शिद्दत से किया जाता है जितनी शिद्दत से वे अनुसंधान किए जाते हैं जो नोबेल के हकदार बनते हैं।
इन पुरस्कार विजेताओं का चयन एनल्सऑफइम्प्रॉबेबलरिसर्च (Annals of Improbable Research) पत्रिका द्वारा किया जाता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति किसी ‘मज़ेदार लेकिन विचारशील’ लगने वाले शोधकार्य को इस पते पर भेज कर पुरस्कार के लिए नामित कर सकता है: marc@improbable.com)। (पर ध्यान रहे, उनकी वेबसाइट पर जारी चेतवानी के अनुसार, स्वयं को नामित किए गए बहुत ही कम शोधकार्य इस पुरस्कार के हकदार बने हैं।)
एक तरह से इगनोबेल पुरस्कार पिछले 35 सालों से मज़े से विज्ञान करने और विज्ञान में मज़ा (Fun Science) करने का मौका बनाते हैं। हर साल जब ये पुरस्कार दिए जाते हैं तो इनको पाने वाले अपने खर्चे पर बोस्टन में आयोजित अवॉर्ड समारोह (Award Ceremony) में शामिल होते हैं। समारोह का माहौल एकदम हल्का-फुल्का होता है; यहां ओपेरा, सर्कस जैसे कार्यक्रम होते हैं; पुरस्कार प्राप्त करने वाले वैज्ञानिकों को व्याख्यान के लिए महज 24 सेकंड का समय दिया जाता है; और कागज़ का हवाई जहाज़ उड़ाकर समारोह का समापन हो जाता है।
लेकिन इस साल दुनिया भर में चल रही तमाम तरह की समस्याओं, सख्तियों, पाबंदियों और युद्ध (War & Restrictions) के चलते लगभग आधे इगनोबेल विजेता इस समारोह में शामिल नहीं हो सके। ऐसा इस समारोह के इतिहास में पहली बार हुआ है कि पुरस्कार विजेताओं ने इस समारोह में शामिल न हो सकने की बात कही है।
दुर्गंधरहित शू-रैक बनाने (Shoe Rack Design) के लिए (इंजीनियरिंग का) इगनोबेल पाने वाले भारत के विकास कुमार (Vikas Kumar) के लिए समारोह में शामिल होने में दो बाधाएं थीं: पहली तो समारोह में शामिल होने का खर्चा; लेकिन उससे बड़ी बाधा थी यह खबर कि भारत के अपंजीकृत प्रवासियों को बेड़ियों में जकड़कर अमेरिका से निर्वासित किया जा रहा है। इस खबर ने उन्हें डरा दिया कि कहीं उनके साथ भी ऐसा सलूक न हो जाए। और यदि, इस डर से उबरकर वे और उनके साथी समारोह में शामिल होने का फैसला करते, तो भी अमेरिका द्वारा भारत के लिए लागू सख्त वीज़ा नियमों (US Visa Rules) के चलते उन्हें वीज़ा हासिल करने में ही 7-8 महीनों का समय लग जाता, तब तक समारोह का वक्त निकल जाता और चाहते हुए भी वे समारोह में शामिल नहीं हो पाते। इसकी बजाय उन्होंने अपने साथी के साथ भारत में ही इस पुरस्कार की खुशी मना ली।
इगनोबेल शांति पुरस्कार (Peace Prize) विजेता भी अमेरिकी राजनीति के चलते इस समारोह का हिस्सा नहीं बन सकीं। जर्मनी के चिकित्सा मनोवैज्ञानिक फ्रिट्ज़ रेनर और जेसिका वर्थमैन इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहे थे कि कैसे अमेरिकी सरकार विश्वविद्यालयों के वित्तपोषण में दखलंदाज़ी कर रही है और उनकी स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर डाल रही है। साथ ही वे सीमा पर चल रहे संघर्षों को लेकर भी चिंतित थे। और घर पर अपने तीन बच्चों को छोड़कर अमेरिका में फंस जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने समारोह में शामिल होने से इंकार कर दिया।
इस्राइल के बायोफिज़िकल इकॉलॉजिस्ट (Biophysical Ecologist) बेरी पिनशो और उनकी टीम को एविएशन में इगनोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन उन्होंने भी समारोह में शामिल न होने का फैसला लिया, कुछ तो स्वास्थ्य और पारिवारिक कारणों से और कुछ इस चिंता से कि इस्राइल-हमास (Israel Hamas War) युद्ध के कारण इस समारोह में उनकी मौजूदगी अन्य देशों में युद्ध के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों को और भड़का सकती है या वहां मौजूद लोगों को विचलित कर सकती है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में उन्होंने न जाना ही ठीक समझा। हालांकि टीम से कोलंबिया के पारिस्थितिकीविद फ्रांसिस्को सांचेज़ और मूल रूप से अर्जेंटीना की जीवविज्ञानी मारू मेलकॉन ने इस समारोह में शामिल होने का फैसला किया। मेलकॉन का कहना था कि दुनिया में समस्याएं तो चल ही रही हैं, लेकिन विज्ञान भी हो रहा है। यह हम पर है कि हम किसे ज़्यादा तवज्जो देते हैं। हालांकि अंत में मेलकॉन इस समारोह में शामिल नहीं हो पाईं क्योंकि सैन डिएगो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक आपात स्थिति के कारण उनकी उड़ान रद्द हो गई।
मनोविज्ञान में इगनोबेल विजेता मनोवैज्ञानिक मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की (Marcin Zajenkowski) रूस-युक्रेन युद्ध (Russia Ukraine Conflict) के चलते जाने से कतरा रहे थे। हालांकि अंत में वे समारोह में शामिल हुए, लेकिन कब उनके देश के ऊपर के उड़ान क्षेत्र को बंद कर दिया जाएगा, कब उड़ान रद्द हो जाएगी यह चिंता उन्हें लगातार सताती रही।
इस समारोह के आयोजक मार्क अब्राहम्स के लिए यह बहुत दुखद बात रही कि माहौल को हल्का-फुल्का और मज़ेदार बनाने वाले समारोह पर दुनिया भर कि चिंताएं भारी पड़ गईं और इसके कई विजेता समारोह में शामिल नहीं हो सके। फिर भी वे अलग-अलग जगह समारोह आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि जो विजेता बोस्टन के मुख्य समारोह में शामिल नहीं हो पाए थे वे कम से कम इनमें से किसी एक समारोह में आ सकें।
इससालमिलेइगनोबेलपुरस्कार(Ig Nobel Prize 2025 Winners)परएकनज़र
साहित्य के लिए इस साल इगनोबेल दिवंगत चिकित्सक विलियम बीन को मिला है, जिन्होंने 35 वर्षों तक लगातार अपने एक नाखून (बाएं हाथ के अंगूठे के नाखून) की वृद्धि दर को रिकॉर्ड किया और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने बताया कि उम्र बढ़ने के साथ नाखून बढ़ने की गति धीमी पड़ जाती है। 32 वर्ष की उम्र में नाखून हर रोज़ 0.123 मिलीमीटर बढ़ते थे जबकि 67 साल की उम्र में नाखून हर रोज़ 0.095 मिलीमीटर ही बढ़ रहे थे।
मनोविज्ञान में इगनोबेल पुरस्कार मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की और गाइल्स गिग्नैक को मिला जिन्होंने इस बात की जांच की कि जब आप किसी आत्ममुग्ध/सामान्य व्यक्ति को यह बताते हैं कि वे बुद्धिमान हैं तो इसका असर क्या होता है। इसके लिए उन्होंने 360 प्रतिभगियों को दो समूहों में बांटा। कुछ टेस्ट और आईक्यू टेस्ट के बाद दोनों समूह को फीडबैक दिए। एक समूह को पॉज़िटिव या उच्च आई-क्यू फीडबैक (औसत से बेहतर) होने का फीडबैक दिया और दूसरे समूह को नेगेटिव या निम्न आई-क्यू फीडबैक (औसत से कमतर) दिया। पाया गया कि जो लोग आत्ममुग्ध थे और उन्हें पॉज़ीटिव फीडबैक मिला तो उनका आत्मसम्मान और बढ़ा था (Personality Psychology)।
पोषण का इगनोबल (Nutrition Research) डेनियल डेंडी, गेब्रियल सेग्नियागबेटो, रोजर मीक और लुका लुइसेली को मिला है। उन्होंने बताया कि एक खास तरह की इंद्रधनुषी छिपकली (Agama agama) एक खास टॉपिंग वाला पिज़्ज़ा खाना पसंद करती है। अफ्रीका में पाए जानी वाली इन छिपकलियों का मुख्य भोजन वैसे तो आर्थ्रोपोड जीव होते हैं लेकिन टोगो शहर के एक तटीय रिसॉर्ट में शोधकर्ताओं ने इसके एक समूह को नियमित रूप से मानव-निर्मित भोजन (पिज़्ज़ा) खाते हुए देखा है: वो भी किसी भी टॉपिंग वाला पिज़्ज़ा नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार की टॉपिंग वाला (फोर-चीज़) पिज़्ज़ा, जिसमें चार तरह की चीज़ की टॉपिंग्स होती है। उनका अनुमान है कि समूह की सभी छिपकलियों द्वारा एक खास तरह का पिज़्ज़ा खाना किन्हीं खास रसायनों के प्रति आकर्षण का संकेत हो सकता है।
जूली मेनेला और गैरी बोचैम्प को शिशु रोग (Infant Studies) में इगनोबेल यह बताने के लिए मिला है कि जब एक दूध पीते बच्चे की मां लहसुन खाती है तो बच्चे को कैसा अनुभव होता है। उन्होंने स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लहसुन खाने के बाद उनके दूध में लहसुन के गंध/स्वाद की तीव्रता मापी। पाया कि लहसुन खाने के एक घंटे बाद लहसुन की उतनी गंध नहीं आती; दो घंटे बाद गंध की तीव्रता अपने चरम पर होती है और उसके बाद कम होने लगती है। पाया गया कि बच्चा मां के दूध में इन बदलावों को पहचान लेता है; यह इस आधार पर कहा गया कि जब मां के दूध में लहसुन की गंध आई तो शिशु ज़्यादा देर तक स्तन से जुड़े रहे और उन्होंने ज़्यादा दूध चूसा।
जीवविज्ञान (Biology Research) का इगनोबेल तोमोकी कोजिमा, काज़ातो ओइशी और उनकी टीम को यह पता लगाने के लिए मिला है कि गायों में ज़ेब्रा जैसी धारियां पोतने से क्या गाय मक्खियों से निजात पा सकती हैं। उन्होंने अध्ययन के लिए यह विषय चुना क्योंकि मक्खियों (कीट) के चलते मवेशियों का बहुत नुकसान होता है। उन्होंने प्रयोग जापान की काली गायों पर किया। कुछ गायों पर ज़ेब्रा की तरह काले-सफेद रंग के पेंट से धारियां बनाई, कुछ गायों पर सिर्फ काले रंग की धारियां बनाईं और कुछ पर कोई रंग नहीं पोता। फिर उन्होंने गायों के मक्खियां हटाने वाले व्यवहार पर नज़र रखी, जैसे पूंछ से फटकारना, सिर झटकना, लात पटकना, कान फड़फड़ाना या त्वचा हिलाना। उन्होंने पाया कि जिन गायों को काली-सफेद धारियों से पोता था उनमें मक्खियां हटाने का व्यवहार कम दिखा।
रसायन विज्ञान (Chemistry Study) में इगनोबेल रोटेम नफ्तालोविक, डैनियल नफ्तालोविक और फ्रैंक ग्रीनवे को यह पता लगाने के लिए मिला है कि क्या एक तरह का प्लास्टिक (टेफ्लॉन) भोजन में कैलोरी की मात्रा बढ़ाए बिना पेट भरने का एहसास और तृप्ति दे सकता है। दरअसल मोटापे की समस्या से निजात पाने के लिए शोधकर्ता एक ऐसे पदार्थ की तलाश में थे जो पेट भरने का एहसास तो दे लेकिन उसके खाने से कैलोरी की खपत न बढ़े। वे ऐसे विकल्प की तलाश में थे जिसे पेट का अम्ल ना पचा सके, जो स्वादहीन हो, शरीर की गर्मी का असर न पड़े, चिकना हो और सस्ता हो। टेफ्लॉन में उन्हें यह संभावना दिखी, तो चूहों पर उन्होंने इसकी कारगरता जांची। पाया कि 75 प्रतिशत खाने में यदि 25 प्रतिशत टेफ्लॉन मिलाकर खाया जाए तो वज़न घटाने में मददगार होता है। 90 दिनों तक किए इस परीक्षण में चूहों पर इसके कोई दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिले हैं।
शांति का इगनोबल पुरस्कार (Peace Research) फ्रिट्ज़ रेनर, इंगे केर्सबर्गेन और उनकी टीम को यह दिखाने के लिए मिला है कि शराब पीकर व्यक्ति विदेशी (या नई) भाषा थोड़ा अच्छे से बोलने लगता है। यह अध्ययन उन्होंने 50 ऐसे जर्मन लोगों के साथ किया जिन्होंने नई-नई डच भाषा बोलना सीखा था। उनमें से कुछ को शराब और कुछ को कंट्रोल के तौर पर कोई पेय पीने को दिया। और फिर उनके द्वारा डच में की जा रही चर्चा को रिकॉर्ड किया गया। इस रिकॉर्डिंग को दो डचभाषी लोगों को और खुद प्रतिभागियों को सुनाया गया, और उनसे उसका आकलन करने कहा गया। डचभाषी लोगों ने कहा कि जिन लोगों ने शराब पी थी उनकी भाषा, खासकर उच्चारण, अन्य की तुलना में बेहतर थे। हालांकि सेल्फ रेटिंग में ऐसा कोई फर्क नहीं दिखा।
इंजीनियरिंग डिज़ाइन (Engineering Innovation) में विकास कुमार और सार्थक मित्तल को यह बताने के लिए इगनोबेल मिला है कि बदबूदार जूते शू-रैक के इस्तेमाल पर क्या असर डालते हैं। उन्होंने यह देखा था कि शू-रैक होने के बावजूद भी लोग उसमें जूते-चप्पल नहीं रखते और वे बाहर पड़े रहते हैं। कारण: बदबूदार जूते। उन्होंने इसका एक समाधान भी दिया है: यदि शू-रैक में यूवी लाइट की व्यवस्था हो तो बदबू कम हो सकती है।
एविएशन (Aviation Research) में फ्रांसिस्को सांचेज़, बेरी पिनशो और उनकी टीम को यह पता लगाने के लिए इगनोबेल मिला है कि क्या शराब पीने से चमगादड़ों की उड़ने और इकोलोकेशन की क्षमता (Echolocation Study) कम हो सकती है। देखा गया था कि फलों में एथेनॉल की मात्रा 1 प्रतिशत से अधिक होने (फल पकने) पर मिस्र के रूसेटसएजिपियाकस चमगादड़ इन फलों का सेवन सीमित कर देते हैं। अनुमान था कि 1 प्रतिशत से अधिक एथेनॉल युक्त भोजन इन चमगादड़ों के लिए विषाक्त/नशीला होगा जिससे उनका नेविगेशन और इकोलोकेशन से जगह का अंदाज़ा लेने का कौशल प्रभावित होता होगा। पाया गया कि एथेनॉल युक्त भोजन खाने के बाद चमगादड़ अन्य की तुलना में काफी धीमी गति से उड़ते हैं। इससे चमगादड़ों की इकोलोकशन क्षमता भी प्रभावित होती है।
भौतिकी (Physics Research) में जियाकोमो बार्टोलुची, डैनियल मारिया और उनकी टीम को परफेक्ट पास्ता सॉस की रेसिपी (Pasta Sauce Science) बताने के लिए इगनोबेल मिला है। आसान सी लगने वाली यह रेसिपी दरअसल है थोड़ी मुश्किल, खासकर नौसिखियों के लिए। यदि सारे अवयव सही मात्रा में न पड़ें तो सॉस या तो थक्केदार बनता है या उसमें गुठलियां पड़ जाती हैं। शोधकर्ताओं ने कई विधियां आज़माने के बाद बताया है कि बढ़िया टेक्सचर वाला सॉस बनाने में चीज़ के साथ स्टार्च की मात्रा का अनुपात बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब स्टार्च की मात्रा चीज़ की मात्रा के 2-3 प्रतिशत के बीच रहती है, तो सॉस एकदम बढ़िया बनता है। स्टार्च की मात्रा 1 प्रतिशत से कम होने पर सॉस थक्केदार बनता है और 4 प्रतिशत से ज़्यादा होने पर उसमें कड़क गुठलियां पड़ जाती हैं।
ये विवरण पढ़कर आपको भी हंसी आई होगी कि ये भी कोई शोध के विषय हैं। लेकिन देखने वाली बात यह है कि सम्बंधित शोधकर्ताओं ने इन्हें कितनी गंभीरता से लेकर कितनी गहनता से इन विषयों पर काम किया। (स्रोतफीचर्स)
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हालिया सुर्खियां बताती हैं कि दो भारतीय वैज्ञानिकों (Indian scientists) को इंजीनियरिंग डिज़ाइन (design) श्रेणी में 2025 का इगनोबेल (Ig Nobel) पुरस्कार दिया गया है। हम सब नोबेल पुरस्कारों के बारे में तो जानते हैं, लेकिन क्या इगनोबेल पुरस्कार के बारे में जानते हैं?
साइंस पत्रिका (science magazine) की एक रिपोर्ट के अनुसार, इगनोबेल पुरस्कार ऐसा हल्का-फुल्का आयोजन है जो पुरस्कार पर एक प्रहसन-सा है। ‘इग (Ig)’ उपसर्ग का मतलब होता है गैर-सम्माननीय या निम्न दर्जे का। यहां पुरस्कार का नाम (Ig Nobel) दरअसल ‘ignoble’ शब्द पर एक तंज है। ज्ञानवर्धी (संजीदा) विज्ञान (science), प्रौद्योगिकी (technology), साहित्य (literature), शांति (peace) और अर्थशास्त्र (economics) में दिए जाने वाले वास्तविक नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prizes) के विपरीत इगनोबेल पुरस्कार हास्य (humor) का पुट देते हैं।
इगनोबेल पुरस्कार वर्ष 1991 से हर साल दिए जा रहे हैं; मकसद है वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) के साथ आम लोगों (general public) के जुड़ाव को बढ़ावा देना। ये ऐसे अनुसंधान के लिए दिए जाते हैं जो पहले-पहल तो लोगों को हंसाते हैं लेकिन फिर उन्हें सोचने पर मजबूर करते हैं। प्रत्येक विजेता को 10 ट्रिलियन ज़िम्बाब्वे डॉलर (Zimbabwe dollar) का एक बैंकनोट मिलता है, जिसकी कीमत इसके चलन के समय 40 अमेरिकी सेंट थी लेकिन अब यह विमुद्रीकृत कर दिया गया है और अब ये प्रचलन में नहीं हैं। इसके विपरीत, प्रत्येक नोबेल पुरस्कार (Nobel prize) विजेता को एक स्वर्ण पदक (जिस पर पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की तस्वीर उकेरी होती है) और लगभग 1.1 करोड़ स्वीडिश क्रोनर मिलते हैं, जिसे अधिकतम तीन विजेताओं के बीच साझा किया जा सकता है।
प्रत्येक नोबेल विजेता को हर साल दिसंबर में स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Swedish Academy of Sciences) में एक समारोह में अपना व्याख्यान देने का अवसर भी मिलता है। इसके विपरीत, इगनोबेल पुरस्कार बोस्टन, मैसाचुसेट्स में आयोजित एक समारोह में दिए जाते हैं और प्रत्येक विजेता को अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करने के लिए केवल एक मिनट का समय दिया जाता है।
2025 के इगनोबेल विजेता
इगनोबेल पुरस्कारों (Ig Nobel awards) का चयन एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च (Annals of Improbable Research) पत्रिका द्वारा किया जाता है। उनकी वेबसाइट के अनुसार, 2025 के इगनोबेल पुरस्कार विजेता ये हैं:
जीव विज्ञान (biology) के लिए तोमोकी कोजिमा और उनके साथी, जिन्होंने अपने प्रयोगों के ज़रिए दिखाया है कि गायों पर ज़ेबरा जैसी काली-सफेद धारियां पोतने से मक्खियां उन्हें कम काटती हैं।
इंजीनियरिंग डिज़ाइन (engineering design) या एर्गोनॉमिक्स (ergonomics) में उत्तर प्रदेश के विकास कुमार और सार्थक मित्तलऐ, जिन्होंने बताया कि यदि जूते बदबूदार हों तो कैसे लोग उन्हें शू-रैक में रखने से कतराते हैं।
साहित्य (literature) में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय (Columbia University) के चिकित्सा इतिहासकार और इंटर्निस्ट प्रोफेसर विलियम बीन, जिन्होंने अपने नाखूनों के बढ़ने का दस्तावेज़ीकरण किया; (गौरतलब है कि प्रोफेसर बीन का 2020 में निधन हो गया था और यह पुरस्कार उनके बेटे ने लिया।
मनोविज्ञान (psychology) में पोलैंड के मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की और ऑस्ट्रेलिया के गाइल्स गिग्नैक, जिन्होंने दिखाया कि जो लोग आत्ममुग्ध (narcissistic) होते हैं उन्हें यदि कहा जाए कि वे बुद्धिमान (intelligent) हैं तो उनका आत्म-सम्मान बढ़ जाता है।
पोषण (nutrition) में नाइजीरिया, टोगो, इटली और फ्रांस के शोधकर्ता, जिन्होंने दिखाया कि इंद्रधनुषी छिपकलियां (rainbow lizards) कुछ प्रकार के पिज्ज़ा का स्वाद पसंद करती हैं।
बालरोग (pediatrics) में अमेरिका की जूली मेनेला और गोरी बोचैम्प, जिन्होंने बताया कि स्तनपान (breastfeeding) कराने वाली माताएं यदि लहसुन खाती हैं तो उनके शिशु अधिक दूध पीते हैं।
रसायन विज्ञान (chemistry) में अमेरिका के रोटेम नफ्तालोविक, डैनियल नफ्तालोविक और फ्रैंक ग्रीनवे की टीम, जिन्होंने बताया कि खाने के साथ टेफ्लॉन (Teflon) (जिसका इस्तेमाल नॉन-स्टिक कलई चढ़ाने के लिए किया जाता है) का सेवन कैलोरी की मात्रा बढ़ाए बिना भरपेट भोजन और तृप्ति पूरी करने का एक अच्छा तरीका है।
शांति (peace) में नीदरलैंड, यूके और जर्मनी के शोधकर्ता, जिन्होंने यह दिखाया कि कैसे थोड़ी मात्रा में शराब पीने से विदेशी (नई) भाषा (foreign language) बोलने की क्षमता बेहतर हो सकती है।
प्रसंगवश, अब तक केवल एक वैज्ञानिक ऐसे हैं जिन्होंने इगनोबेल और नोबेल दोनों पुरस्कार जीते हैं। वे हैं मैनचेस्टर विश्वविद्यालय (University of Manchester) के भौतिक विज्ञानी आंद्रे जेम। आंद्रे जेम और माइकल बेरी को वर्ष 2000 में, एक मेंढक को उसके आंतरिक चुंबकत्व का उपयोग करके एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में हवा में उड़ा देने के लिए भौतिकी श्रेणी में इगनोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 2010 में, प्रो. जेम और कॉन्स्टेंटिन नोवोसेलोव (Konstantin Novoselov) को द्वि-आयामी पदार्थ ग्रैफीन से सम्बंधित अभूतपूर्व प्रयोगों के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। (स्रोत फीचर्स)
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वैज्ञानिकों ने हाल ही में मस्तिष्क (Brain) में एक खास ‘ब्रेन डायल’ (Brain Dial) खोजा है, जो खाने की इच्छा (Food Craving) को जगा या शांत कर सकता है – कम से कम चूहों में। यह छोटा-सा दिमागी हिस्सा जीवों को पेट भरा होने पर भी खाने के लिए मजबूर कर सकता है।
यह ब्रेन डायल मस्तिष्क के बेड न्यूक्लियस ऑफ स्ट्रिआ टर्मिनेलिस (Bed Nucleus of the Stria Terminalis, BNST) नामक हिस्से में पाया गया है। यह हिस्सा शरीर की तंत्रिकाओं से कई तरह की जानकारियां प्राप्त करके उनका समन्वय करता है – जैसे भूख का स्तर (Hunger Level), विशिष्ट पोषक तत्वों की कमी और भोजन के बारे में निर्णय करना कि वह खाने योग्य है या नहीं। यह एक तरह का कंट्रोल सेंटर (Brain Control Center) है, जो भूख, पोषण और स्वाद से जुड़ी जानकारियों से लेकर खाने के व्यवहार को नियंत्रित करता है। पहले वैज्ञानिकों को शक था कि BNST भूख में भूमिका निभाता है, लेकिन सेल पत्रिका (Cell Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि यह खाने की आदतों को दोनों दिशाओं में नियंत्रित कर सकता है।
अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी (Columbia University) के तंत्रिका वैज्ञानिक चार्ल्स ज़ुकर की टीम ने चूहों में स्वाद से जुड़े मस्तिष्कीय परिपथों का नक्शा तैयार किया। उन्होंने पाया कि केंद्रीय एमिग्डेला (Amygdala) और हायपोथैलेमस (Hypothalamus) की तंत्रिकाएं मीठा स्वाद पहचानती हैं और सीधे BNST न्यूरॉन्स से जुड़ी होती हैं। जब BNST तंत्रिकाओं को बाधित किया गया तब भूख होते हुए भी चूहों ने मीठा खाने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। लेकिन जब इन्हें सक्रिय किया गया तो पेट भरे चूहों ने सामने आने वाली हर चीज़ खाना शुरू कर दिया जैसे नमक, कड़वी चीज़ें, वसा, पानी, यहां तक कि प्लास्टिक की टिकलियां भी।
विशेषज्ञों के अनुसार यह शोध इसलिए अहम है क्योंकि इसमें भूख और स्वाद (Hunger and Taste) के असर को अलग-अलग समझकर दिखाया गया है, और यह भी बताया गया है कि दोनों का सम्बंध एक ही दिमागी हिस्से से है।
हालांकि ये प्रयोग चूहों पर हुए हैं, लेकिन इंसानों (Humans) के लिए भी इनके बड़े मायने हो सकते हैं। अगर वैज्ञानिक इस ब्रेन डायल को सुरक्षित रूप से नियंत्रित (Brain Dial Control) करना सीख जाते हैं, तो एक दिन यह मोटापा (Obesity), ज़्यादा खाना और खाने से जुड़ी बीमारियों (Eating Disorders) से निपटने में मदद कर सकता है। बहरहाल, इसे इंसानों पर लागू करने से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत होगी।(स्रोतफीचर्स)
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यह तो हम जानते हैं कि भाषा (Language), संस्कृति (Culture), अनुभव (Experience) और वर्णांधता (Color Blindness) के चलते विभिन्न लोग रंगों को अलग तरह से देखते-समझते हैं। हरियाली से घिरे परिवेश में रहने वालों के पास शायद हरे की हर छटा के लिए अलग-अलग नाम हों, लेकिन किसी और के पास सभी हरे के लिए सिर्फ एक ही नाम हो – हरा। लेकिन क्या सभी के मस्तिष्क रंगों को अलग-अलग तरह से प्रोसेस करते हैं, या एक ही तरह से?
जर्मनी के ट्यूबिंगन विश्वविद्यालय में संज्ञान तंत्रिका विज्ञानी (Neuroscientist) एंड्रियास बार्टेल्स और उनके साथी माइकल बैनर्ट यह जानना चाहते थे कि मस्तिष्क के दृष्टि से सम्बंधित हिस्सों में विभिन्न रंग कैसे निरूपित होते हैं, और लोगों के बीच इसमें कितनी एकरूपता है।
इसके लिए उन्होंने 15 प्रतिभागियों को विभिन्न रंग दिखाए और उस समय उनकी मस्तिष्क गतिविधि को फंक्शनल मैग्नेटिक रिज़ोनेन्स इमेज़िंग (fMRI) की मदद से रिकॉर्ड किया। फिर उन्होंने मस्तिष्क गतिविधि का एक नक्शा बनाया, जिसे देखकर अंदाज़ा मिलता था कि प्रत्येक रंग देखने पर मस्तिष्क के कौन से हिस्से सक्रिय होते हैं। इन आंकड़ों से उन्होंने मशीन-लर्निंग मॉडल (Machine Learning Model) को प्रशिक्षित किया, और इसकी मदद से उन्होंने एक अन्य समूह की मस्तिष्क गतिविधि के रिकॉर्ड देखकर अनुमान लगाया कि प्रतिभागियों ने कौन से रंग देखे होंगे।
अधिकांश अनुमान सही निकले। देखा गया कि दृश्य से जुड़े अलग-अलग रंगों को मस्तिष्क के एक ही क्षेत्र के अलग-अलग हिस्सों में प्रोसेस किया जाता हैं, और विभिन्न रंगों के लिए अलग-अलग मस्तिष्क कोशिकाएं प्रतिक्रिया करती हैं। लेकिन मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा और कौन-सी कोशिकाएं किस रंग के लिए सक्रिय होंगी इसके नतीजे सभी प्रतिभागियों में एकसमान थे। अर्थात अलग-अलग लोगों में रंगों की प्रोसेसिंग एक ही तरह से होती है। शोधकर्ताओं ने अपने ये नतीजे जर्नलऑफन्यूरोसाइंस (Journal of Neuroscience) में प्रकाशित किए हैं।
इस अध्ययन से विभिन्न रंगों के प्रोसेसिंग और नामकरण (Color Perception) को देखने का एक नया नज़रिया मिलता है। अलबत्ता पूरी बात समझने के लिए और अध्ययन (Scientific Research) की ज़रूरत होगी। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-025-02901-3/d41586-025-02901-3_51430836.jpg