99.9 प्रतिशत मार दिए, चिंता तो 0.1 प्रतिशत की है – डॉ. सुशील जोशी

जकल साबुन, हैंड सेनिटाइज़र्स, कपड़े धोने के डिटर्जेंट, बाथरूम-टॉयलेट साफ करने के एसिड्स, फर्श साफ करने, बर्तन साफ करने, सब्ज़ियां धोने के उत्पादों वगैरह सबके विज्ञापनों में एक महत्वपूर्ण बात जुड़ गई है। वह बात यह है कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत जम्र्स को मारते हैं। मज़ेदार बात यह है कि सारे उत्पाद जादुई ढंग से 99.9 प्रतिशत जम्र्स को ही मारते हैं। और तो और, ये विज्ञापन आपको यह भी सूचित करते हैं कि ये कोरोनावायरस को भी मार देते हैं।

मेरा ख्याल है कि काफी लोग बहुत खुश होंगे कि चलो, अब जम्र्स से छुटकारा मिलेगा और खुशी-खुशी इनमें से कोई उत्पाद खरीद लेंगे। विज्ञापनों का मकसद इसी के साथ पूरा हो जाता है। दरअसल, ऐसे विज्ञापनों के दो मकसद होते हैं – पहला प्रत्यक्ष मकसद होता है उस उत्पाद विशेष की बिक्री को बढ़ाना। लेकिन दूसरा मकसद भी उतना ही महत्वपूर्ण होता है – उस श्रेणी के उत्पादों की ज़रूरत की महत्ता को स्थापित करना। जैसे, गोरेपन की क्रीम के विज्ञापन उस क्रीम विशेष की बिक्री को बढ़ाने की कोशिश तो करते ही हैं, गोरेपन को एक वांछनीय गुण के रूप में भी स्थापित करते हैं। तो जर्म-नाशी उत्पादों के विज्ञापन जर्म-नाश के महत्व को प्रतिपादित करते हैं।

इन जर्म-नाशी उत्पादों के 99.9 प्रतिशत के दावों पर संदेह नहीं करेंगे, हालांकि वह अपने आप में एक मुद्दा है। मेरी चिंता तो उन बचे हुए 0.1 प्रतिशत जम्र्स की है जिन्हें ये उत्पाद इकबालिया रूप से नहीं मार पाते। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है। कोरोनावायरस समेत सारे वायरस निर्जीव कण होते हैं, इसलिए मारने की बात ही बेमानी है। मरे हुए को क्या मारेंगे? लेकिन मान लेते हैं कि ये उत्पाद 99.9 प्रतिशत कोरोनावायरस को भी मार डालेंगे और 0.1 प्रतिशत को बख्श देंगे। सवाल है कि ये 0.1 प्रतिशत क्या करेंगे। इन 0.1 प्रतिशत का हश्र देखने के लिए हमें थोड़ा इतिहास में लौटना होगा।

एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन नामक एंटीबायोटिक औषधि की खोज 1928 में की थी और 1941 में इसका उपयोग एक दवा के रूप में शुरू हुआ। 1942 में पहला पेनिसिलीन-प्रतिरोधी बैक्टीरिया खबरों में आ चुका था। डीडीटी से तो काफी लोग परिचित हैं। यह भी सभी जानते हैं कि मलेरिया मच्छर के काटने से फैलता है। मलेरिया पर नियंत्रण की एक प्रमुख रणनीति यह थी कि मच्छरों का सफाया कर दिया जाए। डीडीटी के छिड़काव से मच्छर तेज़ी से मरते थे। लेकिन कुछ ही वर्षों में स्पष्ट हो गया कि डीडीटी मच्छरों को मारने में असमर्थ हो गया है। मच्छरों में डीडीटी के खिलाफ प्रतिरोध पैदा हो गया था।

प्रतिरोधी जीवों का यह मसला आज एक महत्वपूर्ण समस्या है। चाहे जम्र्स हों, फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीट हों, रोगवाहक मच्छर हों, हर तरफ प्रतिरोधी जीव नज़र आ रहे हैं। सवाल है कि प्रतिरोध पैदा कैसे होता है।

एंटीबायोटिक प्रतिरोध का कारण क्या है? बैक्टीरिया का जीवन चक्र और प्रत्येक पीढ़ी का समय मिनटों और घंटों में होता है। और जब इस तरह की बैक्टीरिया कॉलोनी को एंटीबायोटिक दवा से उपचारित किया जाता है तो कॉलोनी का सफाया (99.9 प्रतिशत!) हो जाता है। लेकिन कॉलोनी में कभी-कभी संयोगवश म्यूटेशन उत्पन्न हो जाता है या उनमें एकाध बैक्टीरिया ऐसा होता है (0.1 प्रतिशत) जो उस एंटीबायोटिक से अप्रभावित रहता है। 99.9 प्रतिशत तो मर गए लेकिन वे 0.1 प्रतिशत संख्या वृद्धि करते रहते हैं, बल्कि प्रतिस्पर्धा के अभाव में और तेज़ी से संख्या वृद्धि करते हैं। इसकी वजह से ऐसी संतति पैदा होती है जो एंटीबायोटिक की प्रतिरोधी होती है। धीरे-धीरे दवा-प्रतिरोधी गुण वाले बैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करके कॉलोनी पर हावी हो जाते हैं। यह एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी किस्म है। उसी एंटीबायोटिक से इन्हें मारने की कोशिश में सफलता कम या नहीं मिलेगी। इस प्रक्रिया के चलते हमारे द्वारा खोजे गए कई एंटीबायोटिक निष्प्रभावी हो चुके हैं। एंटीबायोटिक-प्रतिरोध की समस्या को स्वास्थ्य जगत में अत्यंत महत्वपूर्ण समस्या माना गया है।

यही हाल डीडीटी का भी हुआ था और विभिन्न कीटनाशकों (पेस्टिसाइड्स) का भी। और अब हम घर-घर पर, सतह-सतह पर यही प्रयोग दोहराने को तत्पर हैं। सोचने वाली बात यह है कि यदि एक साथ इतने सारे जर्म-नाशी निष्प्रभावी हो गए तो क्या होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक फल के नीले रंग का अद्भुत रहस्य

युरोप में एक काफी लोकप्रिय झाड़ी है – लॉरस्टाइनस (विबर्नम टाइनस) और वहां कई बाग-बगीचों में शौक से लगाई जाती है। इसके चमकदार नीले फलों पर हर किसी की निगाहें ठहर जाती हैं। लेकिन युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल की रॉक्स मिडलटन और उनके साथी इन फलों की रंगत के पीछे का कारण जानने को उत्सुक थे।

शोधकर्ताओं ने फलों की आंतरिक संरचना पता करने के लिए फल के ऊतक लिए और इनका अवलोकन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में किया। अब तक कई वैज्ञानिकों को लगता था कि अन्य नीले फलों (जैसे ब्लूबेरी) की तरह लॉरस्टाइनस के फलों का नीला रंग भी किसी नीले रंजक से आता होगा। लेकिन करंट बायोलॉजी में उक्त शोधकर्ताओं ने बताया है कि इन फलों में सिर्फ वसा की छोटी बूंदें कई परतों में इस तरह व्यवस्थित होती हैं कि वे नीले रंग को परावर्तित करती हैं। ऐसे रंगों को स्ट्रक्चरल कलर (यानी संरचनागत रंग) कहा जाता है जो किसी पदार्थ की उपस्थिति की वजह से नहीं बल्कि पदार्थों की जमावट के कारण पैदा होते हैं।

वसा की बूंदों के नीचे गहरे लाल रंजक की एक परत भी थी, जो किसी भी अन्य तरंग लंबाई के प्रकाश को सोख लेती है और नीले रंग को गहरा बनाती है। शोधकर्ताओं ने कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद से इन निष्कर्षों की जांच की और दर्शाया कि वास्तव में स्ट्रक्चरल कलर लॉरस्टाइनस के फलों का नीला रंग बना सकता है।

संभावना है कि लॉरस्टाइनस फलों का चटख रंग पक्षियों को इनमें उच्च वसा मौजूद होने का संकेत देता हो।

वैसे तो स्ट्रक्चरल कलर के उदाहरण जानवरों में काफी दिखते हैं। जैसे मोर पंख और तितली के पंखों के चटख रंग। लेकिन पौधों में ऐसे रंग कम ही देखे गए हैं। और ऐसा पहली बार ही देखा गया है कि इन रंगों के लिए वसा ज़िम्मेदार है। शोधकर्ताओं को लगता है कि ऐसी व्यवस्था कई अन्य पौधों में भी हो सकती है और उनके बारे में पता लगाया जाना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हर बच्चा वैज्ञानिक है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन द्वारा ‘लचीले खाद्य, पोषण और आजीविका के लिए विज्ञान: समकालीन चुनौतियां’ विषय पर एक वर्चुअल कसंल्टेशन आयोजित किया गया था। इसमें कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के ब्रूस एल्बर्ट्स ने विज्ञान शिक्षा पर बहुत ही प्रासंगिक व्याख्यान दिया। व्याख्यान का विषय था विज्ञान संप्रेषण। यह विषय हमारे यहां निकट भविष्य में लागू की जाने वाली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है।

प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान संप्रेषण में भागीदारी के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। वे साइंस पत्रिका के मुख्य संपादक रह चुके हैं। उनकी किताब मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी ऑफ सेल (कोशिका का आणविक जीव विज्ञान) जीव विज्ञान के किसी भी स्नातक छात्र के लिए ‘बाइबल’ है। मैं यहां उनके उपरोक्त व्याख्यान की कुछ मुख्य बातों का ज़िक्र करूंगा।

विज्ञान शिक्षा पर बात करने से पहले प्रो. एल्बर्ट्स भौतिक विज्ञानी पियरे होहेनबर्ग के कथन की याद दिलाते हैं, “किसी भी वैज्ञानिक का काम छोटे एस (‘s’) से शुरू होने वाला साइंस (विज्ञान) होता है, स्वतंत्र वैज्ञानिकों द्वारा कई बार परीक्षण किए जाने के बाद यह छोटा एस (‘s’) सामूहिक सार्वजनिक ज्ञान के रूप में बड़े एस (‘S’) में बदलता है जो विरोधाभास से मुक्त और सार्वभौमिक होता है।” (किसी वैज्ञानिक द्वारा किया गया दावा जब तक अन्य वैज्ञानिकों द्वारा उसी प्रक्रिया से पुन:प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक वह सिर्फ दावा रहता है सत्य नहीं)। उदाहरण के लिए, नॉर्मन बोरलॉग ने खोज की थी कि मेक्सिकन बौने किस्म के गेहूं के पौधे उच्च पैदावार देते हैं; इसका एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा स्वतंत्र रूप से परीक्षण किया गया और सत्य साबित किया गया। इस खोज ने आगे चलकर भारत में हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया; या यूं कहें कि इस प्रक्रिया में नॉर्मन बोरलॉग की खोज साइंस के ‘s’ से ‘S’ में बदल गई, और सामाजिक रूप से मूल्यवान के रूप में पहचानी और स्वीकार की गई। इसे एक ट्रांसलेशनल रिसर्च के रूप में भी जाना जाता है (बेशक, ‘s’ का तात्पर्य यहां STEM के सभी क्षेत्रों, यथा चिकित्सा, कृषि और सामाजिक विज्ञान से भी है)।

प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान शिक्षा पर अपनी बात की शुरुआत इस कथन से करते हैं कि हरेक बच्चा एक वैज्ञानिक है। कितनी सही बात है! चाहे शिशु हो या स्कूली छात्र हों, वे अपने आसपास के परिवेश, आसपास के लोगों, जानवरों, पेड़-पौधों, मिट्टी और धूल से वाकिफ होते हैं। बच्चे उत्सुक प्रेक्षक होते हैं। जानकारी इकट्ठी करना उनके स्वभाव में होता है। उनकी इस क्षमता को बढ़ावा देने और फलने-फूलने का मौका देने के लिए अमेरिका के कई स्कूलों में ‘व्हाइट सॉक्स’ नामक प्रयोग किया गया था।

व्हाइट सॉक्स प्रयोग

इस प्रयोग में 5 साल की उम्र के स्कूली बच्चे शामिल थे। प्रयोग में शामिल हरेक बच्चे से अपने जूते उतारने के लिए कहा गया और सिर्फ सफेद मौज़े (जो उनकी युनिफॉर्म का हिस्सा थे) पहनकर पूरे परिसर में घूमने को कहा गया। इसके बाद उन्हें उनके मौज़ों पर चिपके हुए कणों को इकट्ठा करने और उन्हें वर्गीकृत करने को कहा गया: इनमें से कौन-से बीज हैं, और कौन-से महज़ धूल-मिट्टी? इसके बाद शिक्षक ने हरेक छात्र से स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी द्वारा विकसित कम लागत वाले माइक्रोस्कोप का उपयोग कर इन कणों का विश्लेषण कर इस बात की पुष्टि करने के लिए कहा कि बीज और धूल के लिए जो उनके निष्कर्ष थे क्या वे सही हैं। (माइक्रोस्कोप के लिए देखें https://www.foldscope.com/)। कई छात्रों ने माइक्रोस्कोप विश्लेषण कर अपने अनुमान की पुष्टि की कि नियमित आकार वाले कण वाकई बीज हैं। वे माइक्रोस्कोप में अपने दोस्तों के नमूनों को देखकर इस बात की जांच भी कर सकते थे कि उनके दोस्तों के निष्कर्ष सही हैं या नहीं। ‘व्हाइट सॉक्स’ अध्ययन ऐसे ही सरल प्रयोगों का एक समूह था जिसमें तकनीक का उपयोग, अनुमान की जांच और आपस में समीक्षा शामिल थी।

भारत का डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (डीबीटी) प्रो. मनु प्रकाश की प्रकाश लैब से कम लागत वाले फोÏल्डग माइक्रोस्कोप खरीदकर कई छात्रों को देने की तैयारी कर रहा है। (देखें <ted.com/talk by Manu Prakash>)

भारत में अमल

यह अच्छी बात है कि पूरे भारत में कई भाषाओं में काम करने वाले कई एनजीओ हैं जो विज्ञान को आसान/लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रहे हैं, और राज्य और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियां और सरकारी एजेंसियां इन प्रयासों का समर्थन भी कर रही हैं। ये संस्थाएं व्हाइट सॉक्स प्रयोग में स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तन कर इसे आसानी से अपना सकती हैं। मीडिया भी छात्रों और नवाचारियों के स्थानीय प्रयासों को उजागर करने में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई शिक्षा नीति के तहत, अब इस तरह के नवाचारी प्रयोग 5+3+3+4 के स्तर (आंगनबाड़ी से लेकर कक्षा 12 तक) से लेकर विश्वविद्यालयों के माध्यम से स्नातक और उच्च शिक्षा तक किए जाने चाहिए। और, जैसा कि 4 अगस्त के दी हिंदू के अंक में प्रकाशित लेख स्कूल्स विदाउट फ्रीडम में कृष्ण कुमार कहते हैं, इन योजनाओं को बनाने व क्रियांवयन का काम स्थानीय परिवेश से परिचित शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए ना कि किसी सरकारी फतवे के द्वारा।

उपयोगी संसाधन

विश्वविद्यालयों के लिए नैन्सी कोबर की किताब Reaching students: what research says about effective instruction in undergraduate science and engineering (यानी छात्रों तक पहुंचना: स्नातक स्तर पर कारगर विज्ञान व इंजीनियरिंग शिक्षण को लेकर शोध क्या कहता है) काफी उपयोगी संसाधन है। इस किताब का पीडीएफ संस्करण www.nap.edu पर मुफ्त उपलब्ध है। और वर्ल्ड साइंस एकेडमीस द्वारा शुरू किया गया एक नया प्रोजेक्ट ‘स्थानीय प्रयासों से संचालित विज्ञान’ स्मिथसोनियन साइंस एजुकेशन सेंटर के माध्यम से उपलब्ध है। इसके लिए डॉ. कैरोल ओ’डॉनेल से संपर्क कर सकते हैं: O’Donnell@si.edu।

युवा अकादमियों की भूमिका

प्रो. एल्बर्ट्स युवा वैज्ञानिकों के लिए अकादमियों की आवश्यकता पर भी ज़ोर देते हैं, जो इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। अब तक 40 देशों में इस तरह की विज्ञान युवा अकादमियां स्थापित की गई हैं, जिनमें से भारत की भारतीय राष्ट्रीय युवा विज्ञान अकादमी (INYAS) एक है। आम तौर पर युवा वैज्ञानिक ‘दकियानूसी बुज़ुर्गों’ के मुकाबले अधिक सुलभ और स्वीकार्य होते हैं। तो, INYAS यह है आपकी भूमिका!(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 की दीर्घकालीन समस्याएं

ए कोरोनावायरस लक्षणों की सूची अनुमान से अधिक विविध होती जा रही है। थकान, दिल का तेज़ धड़कना, सांस लेने में तकलीफ, जोड़ों में दर्द, सोच-विचार करने में परेशानी, गंध संवेदना में कमी जैसी कुछ समस्याओं के अलावा हाल ही में दिल, फेफड़े, गुर्दे और मस्तिष्क की क्षति जैसी दिक्कतें भी शामिल हो गई हैं। 

इस तरह का एक मामला युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन (युसीएल) की न्यूरोसाइंस प्रयोगशाला की एथेना अकरमी के साथ हुआ। नए कोरोनावायरस के शुरुआती लक्षणों (बुखार और खांसी) के बाद अकरमी को सांस लेने में तकलीफ, सीने में दर्द और अत्यधिक थकान की शिकायत होने लगी। इसके अलावा उनको सोच-विचार करने में परेशानी के अलावा जोड़ों और मांसपेशियों में भी तकलीफ होने लगी। चार सप्ताह तक घर में आराम करने पर भी ये समस्याएं समय के साथ बढ़ती-घटती रहीं लेकिन खत्म नहीं हुर्इं। ऐसे में मार्च से लेकर अब तक उनका तापमान सिर्फ 3 सप्ताह ही सामान्य रहा है।

आम तौर पर कोविड-19 रोगी या तो हल्के लक्षणों के साथ जल्दी ठीक हो जाते हैं या फिर अधिक बीमार होकर आईसीयू तक पहुंचते हैं। लेकिन अकरमी का मामला कुछ अलग ही था। आम तौर पर कोविड-19 रोगियों में दीर्घावधि लक्षणों के विकसित होने की संभावना का आकलन करना मुश्किल होता है। इस सम्बंध में विभिन्न अध्ययनों से अलग-अलग परिणाम सामने आए हैं क्योंकि इनमें मरीज़ों के किसी समूह की निगरानी अलग-अलग समय तक की गई है।

इटली के एक समूह द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि कोविड-19 के अत्यधिक गंभीर रोगियों में से 87 प्रतिशत लोग बीमार होने के 2 माह बाद तक ऐसे लक्षणों से जूझते रहे। जबकि अमेरिका, ब्रिटेन और स्वीडन में किए गए अन्य अध्ययनों से पता चलता है कि 10-15 प्रतिशत रोगियों को ठीक होने में काफी समय लगा जिनमें हल्के लक्षणों वाले लोग भी शामिल हैं। इसी तरह जर्मनी के रेडियोलॉजिस्ट मार्टिन रिक्टर ऐसे मामलों के बारे में भी बताते हैं जिनमें कोविड-19 से वृद्ध एवं गंभीर स्थिति में पहुंच चुके रोगी स्वस्थ हुए जबकि मामूली निमोनिया वाले अधेड़ लोग 3 महीने से भी अधिक समय तक अधिक नींद आने की समस्याओं से जूझते रहे।  

यह रोग नया-नया है, इसलिए अभी यह कहना मुश्किल है कि ऐसे जीर्ण लक्षण कब तक परेशान करेंगे।

शोधकर्ता इस रहस्यपूर्ण बीमारी को समझने के प्रयास कर रहे हैं। युनिवर्सिटी ऑफ लायसेस्टर की फेफड़ा वैज्ञानिक रेचल एवांस ने रोग से ठीक हो चुके 10,000 लोगों पर 1 वर्ष से लेकर 25 वर्ष तक के अध्ययन की शुरुआत की है। शोधकर्ताओं को उम्मीद है कि इस अध्ययन से ना सिर्फ रोग को गहराई से समझा जा सकेगा बल्कि यह भी आकलन किया जा सकेगा कि किन रोगियों में दीर्घकालिक समस्याएं पैदा होने का खतरा है और क्या शुरुआती इलाज से ऐसी स्थिति से निपटा जा सकता है।           

यह तो महामारी की शुरुआत में ही चिकित्सकों को पता चल गया था कि सार्स-कोव-2 वायरस कोशिकाओं की सतह पर ACE2 रिसेप्टर्स से जुड़कर ऊतकों को नष्ट करना शुरू कर देता है। ऐसे में फेफड़े, दिल, आंत, गुर्दे, रक्त वाहिकाएं और तंत्रिका तंत्र भी इसकी चपेट में आ जाते हैं। वैसे सार्स-कोव-2 के दीर्घकालिक प्रभाव उसी तरह के हैं जैसे फ्लू जैसे अन्य वायरस संक्रमणों में देखे जाते हैं। इनसे निपटने के लिए चिकित्सक आम तौर पर दवाइयों का उपयोग करते हैं। ऐसे पूर्व अनुभवों की मदद से चिकित्सक कोविड-19 के दीर्र्घकालिक प्रभावों को कम करने में मदद कर सकते हैं।

सार्स-कोव-2 के परिणामों में कुछ भिन्नता भी देखने को मिलती है। पूर्व के कोरोनावायरस, जैसे सार्स और मर्स, के अनुभवों से चिकित्सकों का मानना था कि नया वायरस भी फेफड़ों को स्थायी नुकसान पहुंचा सकता है। 2003 में सार्स से संक्रमित एक व्यक्ति के फेफड़ों में जो घाव पाया गया था वह 15 वर्ष बाद भी मौजूद था। युनिवर्सिटी ऑफ सदर्न कैलिफोर्निया में एशिया में कोविड-19 रोगियों के फेफड़ों के स्कैन में पता चला कि कोविड-19 सार्स की तुलना में फेफड़ों को कम गति और आक्रामकता से क्षति पहुंचाता है।

लेकिन कोविड-19 से होने वाली जटिलताएं भी काफी तीव्र हैं। अप्रैल के अंत में अकरमी ने कोविड-19 से उबर चुके 600 से अधिक लोगों का सर्वेक्षण किया जिनमें 2 सप्ताह से भी अधिक समय तक कोविड-19 के लक्षण उपस्थित रहे। उन्होंने 62 से अधिक लक्षण दर्ज किए हैं। फिलहाल यह तो स्पष्ट हो गया है कि कोविड-19 से गंभीर रूप से बीमार लोगों को पूरी तरह स्वस्थ होने में काफी अधिक समय लग रहा है।

अध्ययन के दौरान कोविड-19 रोगियों में ह्रदय से जुड़ी काफी समस्याएं सामने आर्इं। यह वायरस ह्रदय को कई तरह से प्रभावित करता है। यह ह्रदय की कोशिकाओं के ACE2 रिसेप्टर पर हमला करता है। ACE2 रिसेप्टर ह्रदय की कोशिकाओं की रक्षा करने के अलावा रक्तचाप बढ़ाने वाले हॉर्मोन एंजियोटेंसिन-II को नष्ट करता है। वायरस से लड़ने के लिए शरीर में एड्रीनेलीन और एपिनेफ्रिन के स्राव से भी ह्रदय को क्षति पहुंचती है। कोविड-19 के कारण जिन लोगों में ह्रदय की समस्या पैदा हुई उनमें से अधिकांश लोगों में पहले से ही मधुमेह और उच्च रक्तचाप की समस्याएं उपस्थित थीं। विशेषज्ञों को आशंका है कि कोविड-19 ने ह्रदय समस्याओं को और तीव्र कर दिया।

इस दौरान तंत्रिका तंत्र से जुड़े लक्षण भी सामने आए हैं। ब्रेन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार 43 लोगों में गंभीर तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं देखने को मिलीं। इसके अलावा चिकित्सकों को कई रोगियों में सोच-विचार करने में परेशानी की शिकायतें भी मिलीं।                 

कई स्थानों पर कोविड-19 से उबर चुके लोगों पर अध्ययन किया जा रहा है। कहीं ह्रदय से जुड़े रोगों पर अध्ययन किया जा रहा है, तो कहीं आने वाले दो वर्षों तक फेफड़ों के आकलन की योजना बनाई जा रही है।

हालांकि वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि वे दीर्घकालिक लक्षणों को टाल पाएंगे जिससे ऐसी समस्याओं से जूझ रहे रोगियों की मदद की जा सकेगी। अलबत्ता, इस वायरस की क्षमता को कम आंकना उचित नहीं होगा। यह रोग एक बार स्थापित हो गया तो वापस जाने का कोई रास्ता नहीं होगा।(स्रोत फीचर्स)

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मेंढक के पेट से ज़िंदा बच निकलता है यह गुबरैला

मेंढक द्वारा ज़िंदा निगल लिए जाने पर अधिकांश कीटों की मौत तो तय ही समझो, लेकिन एक प्रजाति का गुबरैला, रेजिम्बार्टिया एटेनुएटा, पचकर मेंढक का नाश्ता बनने की बजाय गुदा के रास्ते जीवित बाहर निकल जाता है।

जापान के कोबे विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर शिनजी सुगिउरा को यकीन था कि आर. एटेनुएटा गुबरैलों ने मेंढकों का भोजन बनने से बचने का तरीका विकसित कर लिया है। उनका अनुमान था कि अपने बचाव की प्रक्रिया में गुबरैले मेंढकों द्वारा मुंह से ही बाहर निकाल दिए जाएंगे। जांच के लिए उन्होंने प्रयोगशाला में एक किशोर तालाबी मेंढक, पेलोफाइलैक्स निग्रोमैकुलैटस, को एक वयस्क जलीय गुबरैला (आर. एटेनुएटा) भोजन के लिए दिया जिसे मेंढक ने पूरा का पूरा ज़िंदा निगल लिया। इस घटना के लगभग 105 मिनट बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि वह गुबरैला मेंढक के शरीर से जीवित बाहर निकल आया, लेकिन मुंह के रास्ते नहीं बल्कि मल के साथ गुदा के रास्ते। यह देखकर शोधकर्ता हैरान रह गए।

उन्होंने एक दर्जन से अधिक बार इस प्रयोग को दोहराया और पाया कि 93 प्रतिशत गुबरैले मल के साथ बाहर आ गए और हर बार गुबरैलों का सिर पहले बाहर आया। ये नतीजे शोधकर्ताओं ने करंट बायोलॉजी पत्रिका में रिपोर्ट किए हैं। गुबरैले बाहर आने पर मल में धंसे हुए थे लेकिन जल्दी ही उससे बाहर निकल गए और इसके बाद कम से कम दो सप्ताह तक जीवित रहे।

खाए जाने के बाद एक घंटे से छह घंटे के भीतर गुबरैले मेंढक के शरीर से बाहर आ गए थे। सामान्यत: मांसपेशियां गुदा-द्वार को कसकर बंद रखती हैं, ये मांसपेशियां तभी शिथिल होती हैं जब मेंढक मल त्याग करता है। देखा गया है कि आम तौर पर मेंढक भोजन के बाद इतनी जल्दी मल त्याग नहीं करते हैं। उक्त अवलोकनों से तो लगता है कि गुबरैले मेंढकों को विष्ठा त्याग के लिए उकसाते हैं।

एक सोच यह थी कि गुबरैले ऐसा अपने पैरों की मदद से करते हैं। इस बात की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने गुबरैले के पैरों को मोम से चिपका दिया और फिर उन्हें मेंढक को भोजन के रूप में दिया। उन्होंने पाया कि इनमें से एक भी गुबरैला जीवित नहीं बचा।

प्रयोग में अन्य जलीय गुबरैले इतने भाग्यशाली नहीं थे। शोधकर्ताओं ने जब अन्य गुबरैलों (जैसे एनोक्रस जेपोनिकस) मेंढकों को पेश किए तो वे सभी मेंढकों द्वारा निगले जाने के बाद अंदर ही मर गए और निगले जाने के 24 घंटे बाद टुकड़ों में बाहर आए।

हालांकि शिकार के शरीर में पचने से बचने का यह पहला उदाहरण नहीं है। 2018 में सुगिउरा ने पाया था कि बम्बार्डियर गुबरैले (फेरोपोफस जेसेओन्सिस) मेंढक द्वारा निगले जाने पर ऐसा ज़हरीला रसायन छोड़ते हैं कि शिकारी उल्टी कर देता है और वे बाहर आ जाते हैं। लेकिन गुदा के रास्ते मल के साथ बाहर आने का यह पहला उदाहरण है।

बहरहाल, यह विस्तार से देखने की ज़रूरत है कि गुबरैले बाहर निकलने के लिए मांसपेशियों को शिथिल होने के लिए कैसे प्रेरित करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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कांटों, सूंडों, सुइयों का भौतिक शास्त्र

चुभने वाली चीज़ें प्रकृति में कई भूमिकाएं अदा करती हैं। कैक्टस व अन्य पौधों के कांटे उन्हें सुरक्षा प्रदान करते हैं, मच्छर की सूंड उसे खून पीने में मदद करती है, साही का कंटीला आवरण उसे बचाता है। ये सभी सीधी रचनाएं हैं जो एक सिरे पर नुकीली होती हैं। भौतिकविदों के लिए इनकी रचना में समानताएं कौतूहल का विषय रही हैं।

वैज्ञानिकों ने पहली समानता तो यह देखी कि चाहे वह नैनोमीटर की साइज़ के बैक्टीरियाभक्षी वायरस के तंतु हों या आर्कटिक सागर में पाई जाने वाली नारव्हेल की 2-3 मीटर लंबी सूंड हो, सभी लंबूतरे, पतले शंकु होते हैं जिनके आधार का व्यास उनकी कुल लंबाई की तुलना में बहुत कम होता है।

किसी भी चुभने वाली चीज़ का आकार दो परस्पर विरोधी बाधाओं से निर्धारित होता है। पहली, लक्ष्य को बेधने के लिए उसे इतना बल लगाना पड़ेगा जो लक्ष्य द्वारा उत्पन्न घर्षण के दबाव को पार कर सके। और दूसरी, यह बल इतना भी नहीं हो सकता कि बेधक रचना टूट जाए या मुड़ जाए।

वैसे तो इन दो सीमाओं को साधने के लिए कई आकृतियां – पतली और लंबी से लेकर चौड़ी और छोटी – उपयोगी हो सकती हैं लेकिन प्रकृति ने जिस आकृति को सामान्य रूप से अपनाया है उसमें आधार के व्यास और लंबाई का अनुपात लगभग 0.06 होता है। यानी यदि चुभने वाली रचना की लंबाई 5 से.मी. है तो उसके आधार का व्यास लगभग 0.3 से.मी. होगा।

डेनमार्क के तकनीकी विश्वविद्यालय के भौतिक शास्त्री कारे जेंसन का कहना है कि प्रकृति में आम तौर पर इस आकृति का चयन होने का कारण है कि प्रकृति ‘किफायत’ से काम करती है। यह सही है कि मोटे बेधक ज़्यादा टिकाऊ होंगे लेकिन उनमें कुल पदार्थ भी तो ज़्यादा लगेगा, जो सम्बंधित जीव को ही भरना पड़ेगा। इसलिए जैव विकास ऐसी रचना को वरीयता देगा जो लक्ष्य को बेधने के लिए बस पर्याप्त मज़बूत हो। नेचर फिज़िक्स में प्रकाशित शोध पत्र में जेंसन की टीम ने डिज़ाइन के इस सिद्धांत की मदद से बेधने वाली चीज़ों की आकृतियों का सटीक पूर्वानुमान प्रस्तुत किया है।

जेंसन की टीम ने ठोस शंक्वाकार बेधक चीज़ों के लिए एक सैद्धांतिक मॉडल विकसित किया। उनकी गणनाओं से पता चला कि आधार का यथेष्ट व्यास मात्र तीन बातों पर निर्भर करता है – बेधक की लंबाई, उसके पदार्थ की कठोरता और लक्षित ऊतक द्वारा उत्पन्न घर्षण का दबाव। उन्होंने यह भी पाया कि पदार्थ की कठोरता और घर्षण का दबाव ज़्यादा असर नहीं डालता। उनके अनुसार मुख्य बात आधार के व्यास और लंबाई के अनुपात की है।

पहले प्रकाशित एक मॉडल में कहा गया था कि आधार का व्यास लंबाई की तुलना में 2/3 के अनुपात में बदलता है। यानी यदि लंबाई दुगनी हो तो व्यास में 59 प्रतिशत की वृद्धि होगी। जेंसन की समीकरण दर्शाती है कि इन दो के बीच सम्बंध समानुपात का है – लंबाई दुगनी होगी तो व्यास भी दुगना हो जाएगा।

अपनी समीकरण को परखने के लिए जेंसन और उनके साथियों ने सजीवों में उपस्थित 140 बेधक अंगों, कांटों वगैरह का अध्ययन किया। इनमें कशेरुकी-अकशेरुकी, जलचर-थलचर, पौधे, शैवाल और वायरस शामिल थे। इन सभी में बेधक समीकरण से मेल खाते पाए गए। इनके अलावा मानव निर्मित सुइयां, कीलें, तीर वगैरह भी इस समीकरण पर खरे उतरे। तो लगता है समीकरण सही है। वैसे अभी इसमें कई अन्य बातों को जोड़ना शेष है – जैसे कई ऐसी रचनाएं खोखली होती हैं, कई इस तरह बनी होती हैं कि बेधते समय वे मुड़ें, या घुमावदार होती हैं वगैरह। इस प्रकार के विश्लेषण के कई वास्तविक अनुप्रयोग हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या ध्रुवीय भालू विलुप्त हो जाएंगे? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

नियंत्रित जलवायु परिवर्तन के प्रकोप हम सभी झेल रहे हैं। हाल ही में एक अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि आर्कटिक में समुद्री बर्फ सिकुड़ने के कारण ध्रुवीय भालू सदी के अंत तक शायद विलुप्त ही हो जाएंगे।

अलास्का में ब्यूफोर्ट सागर से लेकर साइबेरियाई आर्कटिक तक ध्रुवीय भालू की आबादी वाले 19 क्षेत्रों में लगभग 25 हज़ार ध्रुवीय भालू पाए जाते हैं। यह हिस्सा नवंबर से मार्च तक बर्फ से ढंका रहता है। यहां दिन का तापमान ऋण 15 से ऋण 1 डिग्री सेल्सियस होता है। मांसाहारी ध्रुवीय भालू शिकार के लिए पूरी तरह समुद्री बर्फ पर निर्भर होते हैं और सील का शिकार करते हैं। किंतु प्रति वर्ष वैश्विक तापमान बढ़ने से समुद्री बर्फ में कमी उनकी भोजन आपूर्ति में बाधा डालती है और वे प्रति वर्ष भूखे रह जाते हैं।

टोरोन्टो विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डॉ. पिटर मोलनर ने हाल ही में नेचर क्लाइमेट चेंज में छपे शोध में कहा है कि बर्फ की कमी के कारण शिकार खोजने के लिए भालुओं को लंबी दूरी तक जाना पड़ता है और लगातार भोजन की कमी उनका अंत कर देगी।

आर्कटिक समुद्र पर जमी बर्फ में सील की खुशबू खोजते-खोजते ये उन स्थानों पर पहुंच जाते हैं जहां बर्फ के मैदानों में छेद होते हैं। भालू को देखते ही सील छेदों से समुद्र के अंदर चली जाती है परंतु कुछ समय पश्चात उन्हें सांस लेने के लिए सतह पर आना ही होता है। सील के शिकार के लिए छेद के मुहाने पर बैठे भालू को इसी पल का इंतज़ार रहता है और वे सील का शिकार कर भोजन प्राप्त करते हैं। बढ़ते वैश्विक तापमान के कारण अब लंबे समय तक बर्फ नहीं जमती और सील के शिकार के लिए भालू को खूब भटकना पड़ता है जिससे वे भूखे और कमज़ोर हो जाते हैं और समुद्री किनारों पर भोजन खोजने लगते हैं। सील के शिकार से भालुओं को अत्यधिक वसा मिलती है जो उन्हें वर्ष के बाकी समय भूखा रहने पर भी बचा लेती है।

आर्कटिक में हाल के दशकों में तापमान बढ़ा है। 1981 की तुलना में 2010 में गर्मियों के दौरान बर्फ 13 प्रतिशत कम रही। आर्कटिक के वे स्थान जहां पहले गर्मियों में भी बर्फ पाई जाती थी, वहां बर्फ गायब है। डॉ. मोलनर और सहयोगियों ने ध्रुवीय भालू की 13 उप-आबादियों, जो कुल ध्रुवीय भालू की आबादी का 80 प्रतिशत है, पर अध्ययन करके भालुओं की ऊर्जा आवश्यकता पता की। जैसे, मादा भालू अकेले रहने या बच्चे पालने के दौरान कितने दिनों तक भूखा रह सकती है?

वैश्विक गरमाहट की इसी दर और बर्फ न जमने वाले दिनों को जोड़कर वर्ष 2100 के जलवायु-मॉडल अनुमानों को एक साथ देखने पर यह अनुमान लगाया जा सकता है कि 2100 में भालूओं को लंबे समय तक भूखा रहना पड़ेगा जो उनकी बर्दाश्त के बाहर होगा। भालुओं के लिए एक समय ऐसा भी आएगा जब भुखमरी के कारण वे ऊर्जा विहीन हो जाएंगे। ऐसे में भोजन खोजना तथा प्रजनन के लिए साथी खोजना और कठिन हो जाएगा एवं अनेक उप-आबादियां खत्म हो जाएगी। पिछले कुछ सालों में भालू वैकल्पिक खाद्य स्रोत के रूप में व्हेल को भोजन बनाकर ऊर्जा प्राप्त कर रहे हैं किंतु वैश्विक गरमाहट के कारण व्हेल भी मिलना बंद हो जाएगी। स्थिति इतनी गंभीर है कि अगर ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन का स्तर सामान्य रहा तो भी ध्रुवीय भालुओं का बचना असंभव है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सर्पदंश से होने वाली मौतों को रोका जा सकता है – भारत डोगरा

जुलाई माह में सेंटर आफ ग्लोबल हेल्थ रिसर्च द्वारा सर्पदंश सम्बंधी अध्ययन से पता चला है कि भारत में सांप के काटने से प्रति वर्ष 58 हज़ार मौतें होती हैं। इससे तीन गुना अधिक लोग इस कारण अपंगता या गंभीर क्षति से प्रभावित होते हैं। इस अध्ययन में भारतीय शोधकर्ता भी जुड़े हैं। अध्ययन के अनुसार वर्ष 2000 के बाद भारत में लगभग 12 लाख मौतें सर्पदंश से हुई व एक वर्ष का औसत लगभग 58 हज़ार रहा।

इन मौतों को पूरी तरह नहीं रोका जा सकता है पर इनमें बड़ी कमी अवश्य लाई जा सकती है। सर्पदंश की अधिक वारदातें जून से सितंबर के महीनों में व रात के समय होती हैं। खेत में रात को देखरेख या सिंचाई आदि के लिए जाना हो या घर के आसपास निकलना हो तो अच्छी रोशनी वाली टार्च का उपयोग करना मुख्य सावधानी होगी। खेत, बाग या वन में, दुर्गम रास्ते पर, किसी भी कार्यस्थल पर जहां सांप की अधिक संभावना है, मोटे जूते या दस्ताने का उपयोग करना उपयोगी है।

सांप के काटने पर प्राथमिक उपचार के साथ शीघ्र से शीघ्र अस्पताल ले जाना आवश्यक है। प्राथमिक उपचार की विज्ञान-सम्मत जानकारी बहुत कम है व दूर के गांवों से निकटतम अस्पताल पहुंचने में समय लगता है। इस कारण बहुत-सी ऐसी मौतें होती हैं जिन्हें रोका जा सकता है। झाड़-फूंक में समय व्यर्थ करने से समस्या और बढ़ जाती है।

अनेक अस्पतालों में सर्पदंश की दवा की कमी रहती है। प्राय: सर्पदंश की दवा (एंटी स्नेक वेनम) सांप की चार प्रमुख ज़हरीली प्रजातियों को ध्यान में रखकर दी जाती है पर कुछ विशेष क्षेत्रों में सांप की अन्य प्रजातियां पाई जाती हैं। अत: इन क्षेत्रों के लिए उचित दवाओं की व्यवस्था ज़रूरी है।

सरकारी आंकड़ों में सर्पदंश की केवल वे मौतें ही दर्ज़ होती हैं जो अस्पताल में होती हैं। तथ्य यह है कि सर्पदंश से प्रभावित कई लोग तो अस्पताल पहुंचने से पहले ही दम तोड़ देते हैं। अत: सर्पदंश की समस्या की जानकारी का सही आधार तैयार नहीं हो पाता है। इस संदर्भ में नवीनतम अध्ययन में एक सुझाव यह आया है कि सर्पदंश को ‘नोटिफाइड डिसीज़’ घोषित कर दिया जाए ताकि रोग निरीक्षण के समग्र कार्यक्रम के अंतर्गत इसकी जानकारी नियमित रूप से उपलब्ध होती रहे।

फिलहाल जितनी जानकारी उपलब्ध है उसके आधार पर भी सर्पदंश से होने वाली मौतों में कमी लाने का एक समग्र कार्यक्रम तैयार किया जा सकता है। विशेषकर ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यक्रमों व स्वास्थ्य मिशन में इस पर अधिक ध्यान देने की ज़रूरत है।

तमिलनाडु में सपेरों का एक सहकारिता आधारित उद्यम स्थापित हुआ है। चेन्नई स्थित इरुला संपेरा औद्योगिक सहकार सोसायटी ने दवा उद्योग से सम्बंध स्थापित किए व दवा बनाने की अनेक कंपनियां उनसे दवा की ज़रूरी सामग्री लेती हैं। उत्तर भारत में भी संपेरों की अनेक बस्तियां हैं। उनका परंपरागत व्यवसाय कम होता जा रहा है। अत: इरुला मॉडल पर उन्हें भी दवा उपलब्ध करवाने या अन्य उपयोगी गतिविधियों से जोड़ा जा सकता है।

सर्वेक्षणों में यह पाया गया है कि मेडिकल शिक्षा शहरी स्वास्थ्य ज़रूरतों पर अधिक आधारित है व उसमें सर्पदंश के इलाज पर समुचित ध्यान नहीं दिया जाता है। अत: जहां ज़रूरी हो, वहां सर्पदंश के इलाज का प्रशिक्षण नए सिरे से देना चाहिए। ज़रूरी सावधानियों से जुड़ी जानकारी सरल भाषा में लिखित पर्चों व अन्य प्रसार माध्यमों से विशेषकर मानसून के महीनों में प्रसारित करनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राचीन इम्यूनिटी और आज की बीमारियां

हाल ही में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की पैथॉलॉजिस्ट निस्सी वर्की ने बताया कि मनुष्य जिन घातक रोगों (जैसे टाइफॉइड, हैज़ा, गलसुआ, काली खांसी, गनोरिया वगैरह) से पीड़ित होता है, वे कपियों और अन्य स्तनधारी जीवों को नहीं होती। हमारी कोशिका में घुसने के लिए ये रोगाणु शर्करा अणुओं (सियालिक एसिड) का उपयोग करते हैं। और यह देखा गया है कि कपियों का सियालिक एसिड मनुष्यों से भिन्न होता है।

और अब वर्की और उनकी टीम ने आधुनिक मानव जीनोम और हमारे विलुप्त सम्बंधियों – निएंडरथल और डेनिसोवन्स – के डीएनए का विश्लेषण कर पता लगाया है कि लगभग 6 लाख साल पहले हमारे पूर्वजों की प्रतिरक्षा कोशिकाओं में परिवर्तन होना शुरू हुआ था। जीनोम बायोलॉजी एंड इवोल्यूशन में शोधकर्ता बताते हैं कि जेनेटिक परिवर्तनों ने तब सियालिक एसिड का इस्तेमाल करने वाले रोगजनकों से सुरक्षा दी थी, लेकिन साथ ही नई दुर्बलताओं को भी जन्म दिया था। जिस सियालिक एसिड की मदद से आज रोगजनक हमें बीमार करते हैं किसी समय यही सियालिक एसिड हमें रोगों से सुरक्षा देता था।

चूंकि सियालिक एसिड कोशिकाओं की ऊपरी सतह पर लाखों की संख्या में होते हैं इसलिए हमलावर रोगजनकों से इनका सामना सबसे पहले होता है। मानव कोशिकाओं पर Neu5Ac सियालिक एसिड का आवरण होता है जबकि वानरों और अन्य स्तनधारियों में Neu5Gc सियालिक एसिड होता है।

कई आणविक घड़ी विधियों से पता चला है कि कोई 20 लाख साल पहले गुणसूत्र-6 के CMAH जीन में हुए उत्परिवर्तन ने हमारे पूर्वजों में Neu5Gc बनना असंभव कर दिया था। और उनमें Neu5Ac अधिक बनने लगा था। इस परिवर्तन से कुछ रोगों के प्रति सुरक्षा विकसित हुई। लेकिन अगले कुछ लाख सालों में Neu5Ac कई अन्य रोगजनकों के लिए मानव कोशिका में प्रवेश करने का साधन बना गया।

सिग्लेक्स (यानी सियालिक एसिड-बाइंडिंग इम्यूनोग्लोबुलिन-टाइप लेक्टिन) सियालिक एसिड की जांच करते हैं। यदि सिग्लेक्स द्वारा सियालिक एसिड क्षतिग्रस्त या गायब पाया जाता है तो वे प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय होने संकेत देते हैं। यदि सियालिक एसिड सामान्य दिखाई देता है तो सिग्लेक्स प्रतिरक्षा तंत्र को अपने ही ऊतकों पर हमला करने से रोक देते हैं।

शोधकर्ताओं को मनुष्यों, निएंडरथल और डेनिसोवन्स के गुणसूत्र-19 के CD33 जीन में 13 सिग्लेक्स कोड में से 8 सिग्लेक्स के जीनोमिक डीएनए में परिवर्तन दिखे। यह परिवर्तन केवल सिग्लेक जीन में दिखे निकटवर्ती अन्य जीन में नहीं। इससे लगता है कि प्राकृतिक चयन इन परिवर्तनों के पक्ष में था, संभवत: इसलिए क्योंकि तब वे ऐसे रोगजनकों से लड़ने में मदद करते थे जो Neu5Gc को निशाना बनाते थे। लेकिन जो सिग्लेक्स रोगजनकों से बचाते हैं, वे अन्य बीमारियों के लिए ज़िम्मेदार भी हो सकते हैं। परिवर्तित सिग्लेक्स में से कुछ सूजन और अस्थमा जैसे ऑटोइम्यून विकार से जुड़े हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि यह शोध व्यापक वैकासिक सिद्धांतों को रेखांकित करता है। इससे पता चलता है कि प्राकृतिक चयन हमेशा इष्टतम समाधान के लिए नहीं होता, क्योंकि इष्टतम समाधान हर समय बदलता रहता है। जो परिवर्तन आज के लिए बेहतर हैं, हो सकता है वे आने वाले समय के लिए सही साबित ना हों।(स्रोत फीचर्स)

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हरे वृक्ष मेंढकों के हरे रंग की पहेली

वृक्ष मेंढक चटख हरे होते हैं। लेकिन उन्हें हरा बनाता कौन है? ताज़ा शोध बताता है कि उनकी चमड़ी के नीचे उपस्थित नीला पदार्थ उन्हें हरा बनाता है। यह हरा रंग उन्हें अपने आसपास के परिवेश में घुल-मिलकर ओझल होने में मदद करता है। लेकिन यह एक पहेली रही है कि कैसे ये मेंढक यह हरा रंग अपनी चमड़ी के नीचे जमा करके रखते हैं जबकि यह अत्यंत विषैला होता है।

दरअसल, शोधकर्ता यही समझने की कोशिश कर रहे थे कि वृक्ष मेंढकों की सैकड़ों प्रजातियां कैसे इस विषैले हरे रंजक बिलिवर्डिन को इतनी भारी मात्रा में जमा करके रख पाती हैं। अधिकांश प्राणियों के लिए बिलिवर्डिन इतना विषैला होता है कि इसे तत्काल नष्ट कर दिया जाता है अथवा उत्सर्जित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, मनुष्यों में जब लाल रक्त कोशिकाएं नष्ट होती हैं तो बिलिवर्डिन बनता है। कभी-कभी खरोचों पर जो हरापन दिखता है वह इसी के कारण होता है।

लेकिन वृक्ष मेंढक इतनी भारी मात्रा में बिलिवर्डिन जमा करते हैं तो उन्हें कोई नुकसान क्यों नहीं होता? होता यह है कि इन मेंढकों में बिलिवर्डिन छुट्टा नहीं छोड़ा जाता। शोधकर्ताओं ने आठ प्रजातियों में से यह रंजक प्राप्त किया और पाया कि यह काफी टिकाऊ भी था और हानिरहित भी। टीम ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ में बताया है कि इन मेंढकों में बिलिवर्डिन एक अन्य प्रोटीन सर्पिन के साथ जुड़कर एक संकुल बना लेता है। यह संकुल उन्हें लसिका ग्रंथियों, मांसपेशियों और त्वचा जैसे सारे अंगों में मिला। मज़ेदार बात है कि यह संकुल नीला होता है। और मेंढक हरे इसलिए दिखते हैं कि उनकी त्वचा थोड़ी पीली होती है और नीला व पीला मिलकर हरा बना देते हैं। इसीलिए जिन हिस्सों की त्वचा में पीलापन नहीं होता, वहां मेंढक नीला ही नज़र आता है। जैसे मेंढक के पेट वाला हिस्सा।

और तो और, नीले-पीले का यह मिश्रण दिन भर एक-सा नहीं रहता। दिन के समय नीला रंजक पूरे शरीर में फैल जाता है, जिससे मेंढक परिवेश में नज़र नहीं आता और मज़े से सो सकता है। दूसरी ओर, रात के समय यह प्रोटीन-संकुल मेंढक की टांगों और आंतों में इकट्ठा हो जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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