जीसस का तथाकथित कफन फर्जी है

पिछली सदियों में कई बार कई लोगों ने दावा किया है कि उन्हें जीसस क्राइस्ट का कफन मिला है। इनमें से सबसे मशहूर ट्यूरिन का कफन है जो 1578 से इटली के ट्यूरिन शहर में सेंट जॉन दी बैप्टिस्ट के कैथेड्रल में रखा है। हाल ही में वैज्ञानिकों ने इसका फॉरेंसिक अध्ययन करके बताया है कि यह कफन फर्जी है।

ट्यूरिन का कफन 13वीं सदी में प्रकट हुआ था। यह 14 फुट लंबा एक कपड़ा है जिस पर सूली पर चढ़े एक व्यक्ति की छवि नज़र आती है। वैसे तो वैज्ञानिक कई बार यह जता चुके हैं कि यह कफन वास्तविक नहीं है। वैज्ञानिक यह भी स्पष्ट कर चुके हैं कि यह ‘कफन’ चौदहवीं सदी में निर्मित किया गया था। एक बार फिर प्रयोगों के ज़रिए इस कफन को प्रामाणिक साबित करने की कोशिश की गई है।

यह प्रयोग ट्यूरिन श्राउड सेंटर ऑफ कोलेरेडो के वैज्ञानिकों ने किया है। उन्होंने कुछ वालंटियर्स को सूली पर बांधा और उन्हें रक्त से तरबतर कर दिया। यह एक मायने में मूल घटना को पुनर्निर्मित करने का प्रयास था। शोधकर्ताओं ने अपने प्रयोग के सारांश में बताया है कि उन्होंने कफन पर उभरी तस्वीर की मदद से यह पता लगाया कि सूली पर चढ़ाने की क्रिया को किस तरह अंजाम दिया गया होगा। वालंटियर्स का चुनाव भी तस्वीर में नज़र आने वाले व्यक्ति के डील-डौल के हिसाब से किया गया था। पूरे प्रयोग में पेशेवर चिकित्साकर्मी भी शामिल थे ताकि वालंटियर्स की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके और आंकड़ों के विश्लेषण में मदद मिले।

इस अध्ययन ने पूर्व में किए गए एक अध्ययन के निष्कर्षों को चुनौती दी है। जर्नल ऑफ फॉरेंसिक साइंसेज़ में 2018 में प्रकाशित उस शोध पत्र के लेखकों ने माना था कि व्यक्ति को सूली पर चढ़ाते समय उसके हाथों को सिर के ऊपर क्रॉस करके रखा जाता था। इसे इतिहासकारों ने गलत बताया था। उस अध्ययन को करने वाले वैज्ञानिक मौटियो बोरिनी का कहना है कि नया अध्ययन चर्चा के योग्य है क्योंकि कम से कम हम भौतिक चीज़ों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। वैसे बोरिनी के मुताबिक ऐतिहासिक दस्तावेज़ और कार्बन डेटिंग से स्पष्ट हो चुका है कि यह कफन मध्य युग में कभी तैयार किया गया था।

कोलेरेडो सेंटर का अध्ययन जॉन जैकसन के नेतृत्व में किया गया है। जैकसन एक भौतिक शास्त्री हैं और 1978 में कफन से जुड़े एक वैज्ञानिक सर्वेक्षण में शामिल थे। 1981 में प्रकाशित अध्ययन की रिपोर्ट में कहा गया था कि कफन पर दढ़ियल व्यक्ति की तस्वीर एक वास्तविक व्यक्ति की है जिसे सूली पर चढ़ाया गया था। जैकसन का यहां तक कहना था कि कफन पर जो निशान हैं वे ऐसे व्यक्ति द्वारा छोड़े गए हैं जो गायब हो गया था और जिसके शरीर से शक्तिशाली विकिरण निकलता था।

लेकिन लगता है कि कफन की प्रामाणिकता का मामला ले-देकर आस्था पर टिका है। लेकिन अन्य वैज्ञानिक सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि आस्था अलग चीज़ हैं और प्रामाणिकता अलग बात है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में वनों का क्षेत्रफल बढ़ा – नरेन्द्र देवांगन

भारत के जीडीपी में वनों का योगदान 0.9 फीसदी है। इनसे र्इंधन के लिए सालाना 12.8 करोड़ टन लकड़ी प्राप्त होती है। हर साल 4.1 करोड़ टन इमारती लकड़ी मिलती है। महुआ, शहद, चंदन, मशरूम, तेल, औषधीय पौधे प्राप्त होते हैं। पेड़-पौधों का हर अंग अचंभित करता है। पत्तियां, टहनियां और शाखाएं शोर को सोखती हैं, तेज़ बारिश का वेग धीमा कर मृदा क्षरण रोकती है। पेड़ पक्षियों, जानवरों और कीट-पतंगों को आवास मुहैया कराते हैं। शाखाएं, पत्ते छाया प्रदान करते हैं, हवा की रफ्तार कम करने में सहायक होते हैं। जड़ें मिट्टी के क्षरण को रोकती हैं।

6.4 लाख गांवों में से 2 लाख गांव जंगलों में या इनके आसपास बसे हैं। 40 करोड़ आबादी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वनों पर निर्भर है। इनकी आय में वन उत्पादों का योगदान 40 से 60 फीसदी है। वन हर साल 27 करोड़ मवेशियों को 74.1 करोड़ टन चारा उपलब्ध कराते हैं। हालांकि इससे 78 फीसदी जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है। 18 फीसदी जंगल बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। खुद को कीटों से बचाने के लिए पेड़-पौधे वाष्पशील फाइटोनसाइड रसायन हवा में छोड़ते हैं। इनमें एंटी बैक्टीरियल गुण होता है। सांस के ज़रिए जब ये रसायन हमारे शरीर में जाते हैं तो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।

8 करोड़ हैक्टर भूमि हवा और पानी से होने वाले अपरदन से गुज़र रही है। 50 फीसदी भूमि को इसके चलते गंभीर नुकसान हो रहा है। भूमि की उत्पादकता घट रही है। इस भूमि को पेड़-पौधों के ज़रिए ही बचाया जा सकता है। पेड़-पौधे वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर ऑक्सीजन देते हैं। एक एकड़ में लगे पेड़ उतना कार्बन सोखने में सक्षम हैं जितनी एक कार 40,000 कि.मी. चलने में उत्सर्जित करती है। साथ ही वे वातावरण में मौजूद हानिकारक गैसों को भी कैद कर लेते हैं। पेड़-पौधे धूप की अल्ट्रा वायलेट किरणों के असर को 50 फीसदी तक कम कर देते हैं। ये किरणें त्वचा के कैंसर के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। घर के आसपास, बगीचे और स्कूलों में पेड़ लगाने से बच्चे धूप की हानिकारक किरणों से सुरक्षित रहते हैं। यदि किसी घर के आसपास पौधे लगाए जाएं तो ये गर्मियों के दौरान उस घर की एयर कंडीशनिंग की ज़रूरत को 50 फीसदी तक कम कर देते हैं। घर के आसपास पेड़-पौधे लगाने से बगीचे से वाष्पीकरण बहुत कम होता है, नमी बरकरार रहती है।

ऐसा नहीं है कि सिमटती हरियाली और उसके दुष्प्रभावों को लेकर लोग चिंतित नहीं है। लोग चिंतित भी हैं और चुपचाप बहुत संजीदा तरीके से अपने फर्ज़ को अदा भी कर रहे हैं। अपनी इस मुहिम में वे नन्हे-मुन्नों को सारथी बना रहे हैं, जिससे आज के साथ कल भी हरा-भरा हो सके। जहां दुनिया के तमाम देशों के वन क्षेत्र का रकबा लगातार कम होता जा रहा है, वहीं भारत ने अपने वन और वृक्ष क्षेत्र में एक फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की है। इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 के अनुसार 2015 से 2017 के बीच कुल वन और वृक्ष क्षेत्र में 8021 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है। लगातार चल रहे सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों और जागरूकता कार्यक्रमों से ही ऐसा संभव हो सका है।

कुल वन क्षेत्र के लिहाज़ से दुनिया में हम दसवें स्थान पर हैं और सालाना वन क्षेत्र में होने वाली वृद्धि के लिहाज़ से दुनिया में आठवें पायदान पर। अच्छी बात यह है कि जनसंख्या घनत्व को देखा जाए तो शीर्ष 9 देशों के लिए यह आंकड़ा 150 प्रति वर्ग कि.मी. है जबकि भारत का 350 है। इसका मतलब है कि आबादी और पशुओं के दबाव के बावजूद भी हमारे संरक्षण और संवर्धन के प्रयासों से ये नतीजे संभव हुए हैं। 

आज के दौर में पेड़-पौधों की महत्ता और बढ़ गई है। शहरीकरण की दौड़ में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को रोकना भी बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने के लिए वनीकरण को बढ़ावा देने के अलावा और कोई चारा नहीं है। जलवायु परिवर्तन पर आयोजित पेरिस जलवायु समझौते में भारत संयुक्त राष्ट्र को भरोसा दिला चुका है कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 2.5 से 3 अरब टन तक की कमी करेगा। यह इतनी बड़ी चुनौती है कि इसके लिए 50 लाख हैक्टर में वनीकरण की ज़रूरत है। मात्र अधिसूचित वनों की बदौलत यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

यह तभी हो पाएगा, जब आज की पीढ़ी भी इस काम में मन लगाकर जुटेगी। निजी व कृषि भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा देकर पेरिस समझौते के मुताबिक परिणाम दिए जा सकते हैं। इस काम के लिए युवाओं को जागरूक करना बेहद जरूरी है।

हर साल एक से सात जुलाई तक देश में वन महोत्सव मनाया जाता है। इसमें पौधे लगाने के लिए लोगों को जागरूक किया जाता है। हमें एक सप्ताह के इस हरियाली उत्सव को साल भर चलने वाले अभियान में बदलना होगा। जैसे ही मानूसनी बारिश धरती को नम करे, चल पड़े पौधारोपण का सिलसिला। अगर सांस लेने के लिए शुद्ध ऑक्सीजन चाहिए तो इतना तो करना ही होगा। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री जीवों के लिए जानलेवा हैं गुब्बारे

गभग 1,700 से अधिक मृत समुद्री पक्षियों के हालिया सर्वेक्षण में मालूम चला है कि एक चौथाई से अधिक मौतें प्लास्टिक खाने से हुई हैं। इसमें देखा जाए तो 10 में से चार मौतें गुब्बारे जैसा नरम कचरा खाने से हुई हैं जो अक्सर प्लास्टिक से बने होते हैं। भले ही पक्षियों के पेट में केवल 5 प्रतिशत अखाद्य कचरा मिला हो लेकिन यह जानलेवा साबित हुआ है।

समुद्री पक्षी अक्सर भोजन की तरह दिखने वाले तैरते हुए कूड़े को खा जाते हैं। एक बार निगलने के बाद यह पक्षियों की आंत में अटक जाता है और मौत का कारण बनता है। शोधकर्ताओं के अनुसार अगर कोई समुद्री पक्षी गुब्बारा निगलता है, तो उसके मरने की संभावना 32 गुना अधिक होती है।

इस अध्ययन के प्रमुख यूनिवर्सिटी ऑफ तस्मानिया, ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टरेट छात्र लॉरेन रोमन के अनुसार अध्ययन किए गए पक्षियों की मृत्यु का प्रमुख कारण आहार नाल का ब्लॉकेज था, जिसके बाद संक्रमण या आहार नाल में अवरोध के कारण अन्य जटिलताएं उत्पन्न हुई थीं।

ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में लगभग 2,80,000 टन तैरता समुद्री कचरा लगभग आधी समुद्री प्रजातियों द्वारा निगला जाता है। जिसमें पक्षियों द्वारा गुब्बारे निगलने की संभावना सबसे अधिक होती है क्योंकि वे उनके भोजन स्क्विड जैसे दिखते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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बीमारियों को सूंघने के लिए इलेक्ट्रॉनिक नाक

ह तो जानी-मानी बात है कि कुत्तों की सूंघने की क्षमता ज़बरदस्त होती है। मगर जिस इलेक्ट्रॉनिक नाक की बात हो रही है वह कुत्तों को सूंघने का काम करती है। यह इलेक्ट्रॉनिक नाक खास तौर से लेश्मानिएसिस नामक रोग से ग्रस्त कुत्तों को पहचानने के लिए विकसित की गई है। इस रोग को भारत में कालाज़ार या दमदम बुखार के नाम से भी जाना जाता है।

लेश्नानिएसिस एक रोग है जो कुत्तों और इंसानों में एक परजीवी लेश्मानिया की वजह से फैलता है और इस परजीवी की वाहक एक मक्खी (सैंड फ्लाई) है। मनुष्यों में इस रोग के लक्षणों में वज़न घटना, अंगों की सूजन, बुखार वगैरह होते हैं। कुत्तों में दस्त, वज़न घटना तथा त्वचा की तकलीफें दिखाई देती हैं। सैंड फ्लाई इस रोग के परजीवियों को कुत्तों से इंसानों में फैलाने का काम करती है। यह रोग ब्राज़ील में ज़्यादा पाया जाता है और इसका प्रकोप लगातार बढ़ रहा है।

इलेक्ट्रॉनिक नाक दरअसल वाष्पशील रसायनों का विश्लेषण करने का उपकरण है। इसमें नमूने के वाष्पशील रसायनों के द्वारा उत्पन्न वर्णक्रम के आधार पर उनकी पहचान की जाती है। फिलहाल स्वास्थ्य विभाग के पास लेश्मानिएसिस की जांच के लिए जो तरीका है उसमें काफी समय लगता है। इलेक्ट्रॉनिक नाक इसमें मददगार हो सकती है।

पिछले दिनों शोधकर्ताओं ने 16 लेश्मानिया पीड़ित कुत्तों और 185 अन्य कुत्तों के बालों के नमूनों पर प्रयोग किया। इन बालों को एक पानी भरी थैली में रखकर गर्म किया गया ताकि इनमें उपस्थित वाष्पशील रसायन वाष्प बन जाएं। इसके बाद प्रत्येक नमूने का विश्लेषण इलेक्ट्रॉनिक नाक द्वारा किया गया। ई-नाक ने लेश्मानिएसिस पीड़ित कुत्तों की पहचान 95 प्रतिशत सही की। अब इसे और सटीक बनाने के प्रयास चल रहे हैं।

वैज्ञानिकों का मानना है कि जल्दी ही इलेक्ट्रॉनिक नाक रोग निदान का एक उम्दा उपकरण साबित होगा। उम्मीद तो यह है कि इसका उपयोग मलेरिया, मधुमेह जैसे अन्य रोगों की पहचान में भी किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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जल संकट से समूचा विश्व जूझ रहा है – डॉ. आर.बी. चौधरी

भारत के जल संसाधनों के संकट की शुरुआत आंकड़ों से होती है। भारत में जल विज्ञान सम्बंधी आंकड़े संग्रह करने का काम मुख्यत: केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) करता है। सीडब्लूसी का नाम लिए बगैर नीति आयोग की रिपोर्ट भारत में जल आंकड़ा प्रणाली को कठघरे में खड़ी करती है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बातें तो खरी हैं: “यह गहरी चिंता की बात है कि भारत में 60 करोड़ से अधिक लोग ज़्यादा से लेकर चरम स्तर तक का जल दबाव झेल रहे हैं। भारत में तकरीबन 70 फीसदी जल प्रदूषित है, जिसकी वजह से पानी की गुणवत्ता के सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है।”

हमारे यहां पानी के इस्तेमाल और संरक्षण से जुड़ी कई समस्याएं हैं। पानी के प्रति हमारा रवैया ही ठीक नहीं है। हम इस भ्रम में रहते हैं कि चाहे जितने भी पानी का उपयोग/दुरुपयोग कर लें, बारिश से हमारी नदियों और जलाशयों में फिर से नया पानी आ ही जाएगा। यह रवैया सरकारी एजेंसियों का भी है और आम लोगों का भी। अगर किसी साल बारिश नहीं होती तो इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं।

पानी के इस्तेमाल के मामले में घरेलू उपयोग की बड़ी भूमिका नहीं है लेकिन कृषि की है। 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से कृषि में पानी की मांग बढ़ी है। इससे भूजल का दोहन हुआ है, जल स्तर नीचे गया है। इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जब भी बारिश नहीं होती तब संकट पैदा होता है। नदियों के पानी का मार्ग बदलने से भी समाधान नहीं हो रहा है। स्थिति काफी खराब है। इस वर्ष अच्छी वर्षा होने का अनुमान है तो जल संचय के लिए अभी से ही कदम उठाने होंगे। लोगों को चाहिए कि पानी की बूंद-बूंद को बचाएं।

गर्मियां आते ही जल संकट पर बातें शुरू हो जाती हैं लेकिन एक पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट काफी डराने वाली है क्योंकि यह रिपोर्ट भारत में एक बड़े जल संकट की ओर इशारा कर रही है। भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में सिकुड़ते जलाशयों की वजह से इन चार देशों में नलों से पानी गायब हो सकता है। दुनिया के 5 लाख बांधों के लिए पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली बनाने वाले डेवलपर्स के अनुसार भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में जल संकट ‘डे ज़ीरो’ तक पहुंच जाएगा। यानी नलों से पानी एकदम गायब हो सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में नर्मदा नदी से जुड़े दो जलाशयों में जल आवंटन को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर तनाव है।

पिछले साल कम बारिश होने की वजह से मध्य प्रदेश के इंदिरा सागर बांध में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। जब इस कमी को पूरा करने के लिए निचले क्षेत्र में स्थित सरदार सरोवर जलाशय को कम पानी दिया गया तो काफी होहल्ला मच गया था क्योंकि सरदार सरोवर जलाशय में 3 करोड़ लोगों के लिए पेयजल है। पिछले महीने गुजरात सरकार ने सिंचाई रोकते हुए किसानों से फसल नहीं लगाने की अपील की थी।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जबकि इसके पास विश्व के शुद्ध जल संसाधन का मात्र 4 प्रतिशत ही है। किसी भी देश में अगर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1700 घन मीटर से नीचे जाने लगे तो उसे जल संकट की चेतावनी और अगर 1000 घन मीटर से नीचे चला जाए, तो उसे जल संकटग्रस्त माना जाता है। भारत में यह फिलहाल 1544 घन मीटर प्रति व्यक्ति हो गया है, जिसे जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। नीति आयोग ने यह भी बताया है कि उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है।

हम चीन और अमेरिका की तुलना में एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ग्याहरवीं योजना के अंत तक भी लगभग 13 करोड़ हैक्टर भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाने का प्रवधान था। इसे बढ़ाकर अधिक-से-अधिक 1.4 करोड़ हैक्टर तक किया जा सकता है। इसके अलावा भी काफी भूमि ऐसी बचेगी, जहां सिंचाई असंभव होगी और वह केवल मानसून पर निर्भर रहेगी। भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है।

लगातार दो वर्षों से मानसून की खराब स्थिति ने देश के जल संकट को गहरा दिया है। आबादी लगातार बढ़ रही है, जबकि जल संसाधन सीमित हैं। अगर अभी भी हमने जल संरक्षण और उसके समान वितरण के लिए उपाय नहीं किए तो देश के तमाम सूखा प्रभावित राज्यों की हालत और गंभीर हो जाएगी। नीति आयोग द्वारा समय-समय पर जल समस्या पर अध्ययन किए जाते हैं किंतु आंकड़े जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं उस पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन के समय-समय पर कई सुझाव दिए जाते हैं किंतु विशेषज्ञों की राय में निम्नलिखित बातों का स्मरण रखा जाना अति आवश्यक है। जैसे, लोगों में जल के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करना, पानी की कम खपत वाली फसलें उगाना, जल संसाधनों का बेहतर नियंत्रण एवं प्रबंधन एवं जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाया जाना इत्यादि। हांलाकि, संवैधानिक तौर पर जल का मामला राज्यों से संबंधित है लेकिन अभी तक किसी राज्य ने अलग-अलग क्षेत्रों को जल आपूर्ति सम्बंधी कोई निश्चित कानून नहीं बनाए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस की घोषणा ब्राज़ील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया। 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था। इसी दशक के तहत पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केप टाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रही।

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है। और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं। वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है। भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है। ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है। विभिन्न देशों में ये मानक बदलते रहते हैं। लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां औसतन प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 90 लीटर प्रतिदिन है। अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा। 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकाश प्रदूषण का हाल एक क्लिक से

दि आपको आकाश-दर्शन का शौक है और आप निराश हैं कि आपके इलाके में उजाले की वजह से तारे बहुत कम नज़र आते हैं तो आप एक वेबसाइट की मदद से पता कर सकते हैं कि आप जहां खड़े हैं वहां रात में कितना उजाला है। आप यह भी पता कर सकते हैं कि आकाश का अच्छा नज़ारा देखने के लिए कहां जाना उपयुक्त होगा।

पॉट्सडैम स्थित जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइन्स के भौतिक शास्त्री क्रिस्टोफर कायबा ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो पूरी धरती पर कहीं भी रात के समय उजाले की स्थिति बता सकता है। आपको बस इतना करना है कि Radiance Light Trends पर जाएं और अपने इलाके का नाम टाइप करें। तत्काल आपको उस जगह में रात के प्रकाश का अनुमान मिल जाएगा।

इस सॉफ्टवेयर को विकसित करने के लिए कायबा ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है। ये उपग्रह पृथ्वी पर लगातार नज़र रखते हैं। इनसे प्राप्त सूचनाओं से पता चलता है कि किसी स्थान पर स्ट्रीट लाइट्स, नियॉन साइन्स या अन्य किसी स्रोत से रात के समय कितना प्रकाश पैदा होता है। मगर इन आंकड़ों को हासिल करना और इनका विश्लेषण करके रात्रि-प्रकाश का अंदाज़ लगाना खासा मुश्किल काम है। कायबा ने इस काम को आसान बना दिया है।

कायबा ने इसके लिए पिछले पच्चीस वर्षों के उपग्रह आंकड़ों को शामिल किया है। यह सॉफ्टवेयर किसी भी स्थान के लिए पिछले पच्चीस वर्षों के रात्रि-प्रकाश का ग्राफ प्रस्तुत कर देता है। वैसे आप चाहें तो पर्यावरण के अन्य कारकों के आंकड़े भी यहां से प्राप्त कर सकते हैं और उनका विश्लेषण कर सकते हैं। यह सॉफ्टवेयर युरोपीय संघ की मदद से जियोएसेंशियल प्रोजेक्ट के तहत विकसित किया गया है।

यह सॉफ्टवेयर कई तरह से उपयोगी साबित होगा। जैसे एक अध्ययन से पता चला है कि प्रकाश-प्रदूषण लगभग 80 प्रतिशत धरती को प्रभावित करता है। इसका असर जलीय पारिस्थितिक तंत्रों पर पड़ता है। कुछ अध्ययनों से यह भी संकेत मिला है कि प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह संक्रामक रोगों के फैलने में भी भूमिका निभाता है। यह सॉफ्टवेयर इन सब मामलों में मददगार होगा। और शौकिया खगोल शास्त्री इसकी मदद से यह तय कर सकते हैं कि उनके आसपास आकाश को निहारने का सबसे अच्छा स्थान कौन-सा होगा। (स्रोत फीचर्स)

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90 दिनों का अंतरिक्ष अभियान जो 15 वर्षों तक चला – प्रदीप

मारे सौरमंडल में मंगल ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो कई मायनों में पृथ्वी जैसा है और भविष्य में पृथ्वी से बाहर मानव बस्ती बसाने के लिए भी सबसे उपयुक्त पात्र यही ग्रह नज़र आता है। इसके बारे में हमारे ज्ञान में वृद्धि के साथ-साथ वैज्ञानिकों और जनसाधारण की इसके प्रति रुचि में भी निरंतर वृद्धि हुई है। अंतरिक्ष खोजी अभियानों के लिहाज़ से भी अन्य ग्रहों-उपग्रहों और तारों की तुलना में मंगल सर्वाधिक उपयोगी और उपयुक्त ग्रह है। इसलिए पिछली सदी के उत्तरार्ध में शुरू हुए ज़्यादातर अंतरिक्ष के खोजी अभियानों का लक्ष्य मंगल ही रहा है। इस सदी की शुरुआत में मंगल अन्वेषण के मामले में जिस खोजी अभियान ने सबसे ज़्यादा सुर्खियां बटोरीं और जिसने वैज्ञानिकों और जनसाधारण को सबसे ज्यादा आकर्षित किया, वह निश्चित रूप से नासा का ‘अपॉर्चुनिटी रोवर मिशन’ था।

13 फरवरी 2019 को अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपॉर्चुनिटी रोवर मिशन की समाप्ति की घोषणा की। हालांकि इसका निर्धारित जीवनकाल केवल 90 दिनों का था, फिर भी इसने लगभग 15 वर्षों तक अपनी भूमिका कुशलतापूर्वक निभाई। अपनी अनुमानित उम्र को 60 गुना से अधिक करने के अलावा, रोवर ने मंगल की धरती पर 45 किलोमीटर से अधिक की यात्रा की, जबकि योजना अनुसार इसे मंगल पर एक किलोमीटर ही चलना था।

अपॉर्चुनिटी रोवर को फ्लोरिडा के केप कैनावेरल एयरफोर्स स्टेशन से 7 जुलाई 2003 को प्रक्षेपित किया गया था। इसके लगभग सात महीने बाद 24 जनवरी, 2004 को अपॉर्चुनिटी रोवर  मंगल ग्रह के मेरिडियानी प्लायम नामक क्षेत्र में उतरा था। अपॉर्चुनिटी का जुड़वां स्पिरिट रोवर उससे 20 दिन पहले ही मंगल की सतह पर उतरा था और मई 2011 में अपने मिशन को पूरा करने से पहले स्पिरिट ने लगभग 8 किलोमीटर की दूरी तय की। इन दोनों रोबोटों ने इन्हें बनाने वालों की उम्मीदों से कहीं बेहतर प्रदर्शन किया।

अंतरिक्ष के खोजी अभियानों की विशेषज्ञ और दी प्लेनेटरी सोसाइटी की सीनियर एडिटर एमिली लकड़ावाला के मुताबिक अपॉर्चुनिटी रोवर से आम लोगों के लिए बड़ा बदलाव यह आया है कि मंगल अब एक सक्रिय ग्रह बन गया है, एक ऐसी जगह जिसे आप हर रोज़ खोज सकते हैं। अपॉर्चुनिटी ने मंगल की सतह पर उतरने के बाद अपनी आधी ज़िंदगी वहां घूमते हुए बिताई। चपटी सतह पर घूमते-घूमते यह एक बार रेत के टीले में कई हफ्तों तक फंसा रहा। वहीं पर भूगर्भीय उपकरणों की मदद से इसने मंगल ग्रह पर कभी तरल रूप में पानी होने की पुष्टि की। इससे वहां सूक्ष्मजीवों के पनपने की संभावना को बल मिला। मंगल पर अपने जीवन के दूसरे चरण में अपॉर्चुनिटी एंडेवर क्रेटर की कगारों पर चढ़ गया और इसने वहां से शानदार तस्वीरें खींचीं।  इसके साथ ही इसने जिप्सम की भी खोज कर डाली जिससे मंगल पर कभी तरल रूप में पानी की मौजूदगी की बात को और मज़बूती मिली।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय में रोवर्स साइंस पेलोड के मुख्य अन्वेषक स्टीव स्क्विरेस के मुताबिक यदि अपॉर्चुनिटी और स्पिरिट दोनों की खोजों को जोड़कर देखें तो पता चलता है कि आज निर्जन, वीरान और ठंडा दिखाई देने वाला यह ग्रह, जिसका पर्यावरण जीवन के अनुकूल नहीं है, सुदूर अतीत में कितना अलग था। अपॉर्चुनिटी ने 15 साल के अपने जीवन में मंगल की सतह की 2,17,000 से अधिक विहंगम तस्वीरें पृथ्वी पर भेजीं। 

मंगल पर पिछले साल जून में रेतीला तूफान आया था। इससे अपॉर्चुनिटी के ट्रांसमिशन पर बुरा प्रभाव पड़ा। इस तूफान के कारण सौर ऊर्जा संचालित रोवर से हमारा संपर्क टूट गया और करीब आठ महीने तक इससे कोई संपर्क नहीं हो पाया। रोवर ने आखिरी बार 10 जून 2018 को पृथ्वी के साथ संपर्क किया था। अभियान की टीम के अनुसार, संभावना यह है कि अपॉर्चुनिटी रोवर ने ऊर्जा की कमी के कारण काम करना बंद कर दिया। हालांकि टीम के सदस्यों ने रोवर से तकरीबन 800 बार संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन सफलता न मिलने पर इसे मृत घोषित करने का फैसला किया गया। अपॉर्चुनिटी के प्रोजेक्ट मैनेजर जॉन कल्लास ने कहा, “अलविदा कहना कठिन है, लेकिन समय आ गया है। इसने इतने सालों में शानदार प्रदर्शन किया है जिसकी बदौलत एक दिन आएगा, जब हमारे अंतरिक्ष यात्री मंगल की सतह पर चल सकेंगे।”

बहरहाल, मंगल की खोज निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक लैंडिंग कर चुका है और जल्दी ही लाल ग्रह की वैज्ञानिक जांच-पड़ताल शुरू करने जा रहा है। क्यूरियॉसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर दोनों जुलाई 2020 में लॉन्च होंगे, और इस तरह यह पहला रोवर मिशन बन जाएगा, जिसे मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन के संकेतों की तलाश के लिए बनाया गया होगा। अलविदा अपॉर्चुनिटी! (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हथियारों की दौड़ को कम करना ज़रूरी – भारत डोगरा

भारत ही नहीं अनेक अन्य विकासशील देशों में भी प्राय: हथियार सौदों से जुड़ा भ्रष्टाचार सुर्खियों में छाया रहता है। यह भ्रष्टाचार ज़रूर एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर इससे एक कदम आगे जाकर यह मुद्दा भी उठाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के साथ-साथ हथियारों की दौड़ को ही समाप्त करने के अधिक बुनियादी प्रयास होने चाहिए।

दक्षिण एशिया मानव विकास रिपोर्ट ने इस बारे में काफी हिसाब-किताब किया कि कुछ हथियारों के खर्च की विकास के मदों पर खर्च से क्या बराबरी है। इस आकलन के अनुसार:-

एक टैंक = 40 लाख बच्चों के टीकाकरण का खर्च

एक मिराज = 30 लाख बच्चों की एक वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा

एक आधुनिक पनडुब्बी = 6 करोड़ लोगों को एक वर्ष तक साफ पेयजल

इसके बावजूद एक ओर तो अधिक हथियारों का उत्पादन हो रहा है, तथा दूसरी ओर उनकी विध्वंसक क्षमता बढ़ती जा रही है।

केवल सेना के उपयोग के लिए एक वर्ष में 16 अरब बंदूक-गोलियों का उत्पादन किया गया – यानी विश्व की कुल आबादी के दोगुनी से भी ज़्यादा गोलियां बनाई गर्इं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तैयार की गई ‘हिंसा व स्वास्थ्य पर विश्व रिपोर्ट’ के अनुसार, “अधिक गोलियां, अधिक तेज़ी से, अधिक शीघ्रता से व अधिक दूरी तक फायर कर सकती हैं और साथ ही इन हथियारों की विनाश क्षमता भी बढ़ी है।” एक एके-47 रायफल में तीन सेकंड से भी कम समय में 30 राउंड फायर करने की क्षमता है व प्रत्येक गोली एक कि.मी. से भी अधिक की दूरी तक जानलेवा हो सकती है।

पिछले सात दशकों में विश्व की एक बड़ी विसंगति यह रही है कि महाविनाशक हथियारों के इतने भंडार मौजूद हैं जो सभी मनुष्यों को व अधिकांश अन्य जीवन-रूपों को एक बार नहीं कई बार ध्वस्त करने की विनाशक क्षमता रखते हैं। परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए गठित आयोग ने दिसंबर 2009 में जारी अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया में 23 हज़ार परमाणु हथियार मौजूद हैं, जिनकी विध्वंसक क्षमता हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम से डेढ़ लाख गुना ज़्यादा है। आयोग ने आगे बताया है कि अमेरिका और रूस के पास 2000 परमाणु हथियार ऐसे हैं जो बेहद खतरनाक स्थिति में तैनात हैं व मात्र चार मिनट में दागे जा सकते हैं। आयोग का स्पष्ट मत है कि जब तक कुछ देशों के पास परमाणु हथियार हैं, तब तक कई अन्य देश भी ऐसे हथियार प्राप्त करने का भरसक प्रयास करते रहेंगे।

आगामी दिनों में रोबोट हथियार या ए.आई. हथियार बहुत खतरनाक हथियारों के रूप में उभरने वाले हैं। अनेक विशेषज्ञों ने जारी चेतावनी में कहा है कि इससे जीवन के अस्तित्व मात्र का खतरा उत्पन्न हो सकता है। इन्हें आरंभिक स्थिति में ही प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए पर ऐसा प्रतिबंध लगाने में भी अनेक कठिनाइयां आ रही हैं। इस तरह के प्रतिबंधों के लिए ऐसे मुद्दों पर लोगों में जानकारी का प्रसार बहुत जरूरी है ताकि वे आगामी व वर्तमान खतरों की गंभीरता को समझ सकें।

अत: इन बढ़ते खतरों के बीच अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि विश्व स्तर पर सभी तरह के हथियारों व गोला-बारूद को न्यूनतम करने का एक बड़ा अभियान बहुत व्यापक स्तर पर निरंतरता से चले। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी पर वायुमंडल क्यों है?

मारी पृथ्वी का वायुमंडल काफी विशाल है। यह इतना बड़ा है कि इसके कारण अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन का मार्ग भी प्रभावित हो जाता है। लेकिन यह विशाल गैसीय आवरण कैसे बना? यानी सवाल यह है कि पृथ्वी पर वायुमंडल क्यों है?

वायुमंडल की उपस्थिति गुरुत्वाकर्षण की वजह से है। आज से लगभग 4.5 अरब वर्ष पहले जब पृथ्वी का निर्माण हुआ तब हमारा ग्रह तरल अवस्था में था और वायुमंडल न के बराबर था। स्मिथसोनियन एन्वायरमेंटल रिसर्च सेंटर के मुताबिक जैसे-जैसे पृथ्वी ठंडी होती गई, ज्वालामुखियों से निकलने वाली गैसों से इसका वायुमंडल बनता गया। यह वायुमंडल आज के वायुमंडल से काफी अलग था। उस समय के वायुमंडल में हाइड्रोजन सल्फाइड, मीथेन और आज की तुलना में 10 से 200 गुना अधिक कार्बन डाईऑक्साइड थी।

युनाइटेड किंगडम के साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय के भौतिक रसायन विज्ञानी प्रोफेसर जेरेमी फ्रे के अनुसार पृथ्वी का वायुमंडल पहले कुछ-कुछ शुक्र ग्रह जैसा था जिसमें नाइट्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन मौजूद थी। इसके बाद जीवन अस्तित्व में आया। लगभग यकीन से कहा जा सकता है कि यह किसी समुद्र के पेंदे में हुआ। फिर लगभग 3 अरब वर्षों बाद, प्रकाश संश्लेषण विकसित होने के बाद से एक-कोशिकीय जीवों ने सूर्य की ऊर्जा का उपयोग करके कार्बन डाईऑक्साइड और पानी के अणुओं को शर्करा और ऑक्सीजन गैस में परिवर्तित किया। इसी के साथ ऑक्सीजन का स्तर बढ़ता गया।

पृथ्वी के वायुमंडल में आज लगभग 80 प्रतिशत नाइट्रोजन और 20 प्रतिशत ऑक्सीजन है। इसके साथ ही यहां आर्गन, कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प और कई अन्य गैसें भी मौजूद हैं। वायुमंडल में उपस्थित ये गैसें पृथ्वी को सूरज की तीक्ष्ण किरणों से बचाती हैं। प्रमुख ग्रीनहाउस गैसें हैं कार्बन डाईऑक्साइड, जल वाष्प, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड। इनका होना भी आवश्यक है वरना पृथ्वी का तापमान शून्य से भी नीचे जा सकता है। हालांकि, आज ग्रीनहाउस गैसें नियंत्रण से बाहर हैं। जैसे-जैसे हम अधिक कार्बन डाईऑक्साइड वायुमंडल में छोड़ रहे है, पृथ्वी का ग्रीनहाउस प्रभाव और अधिक मज़बूत हो रहा है और धरती गर्म हो रही है।

देखा जाए तो सौर मंडल के किसी भी अन्य ग्रह पर पृथ्वी जैसा वायुमंडल नहीं है। शुक्र का वायुमंडल सल्फ्यूरिक एसिड और कार्बन डाईऑक्साइड से भरा हुआ है, हवा इतनी गर्म है कि कोई भी इंसान वहां सांस नहीं ले सकता। शुक्र की सतह का तापमान इतना अधिक है कि सीसे जैसी धातु को पिघला दे और वायुमंडलीय दबाव तो पृथ्वी से लगभग 90 गुना अधिक है। 

पृथ्वी का वायुमंडल हमारे लिए जीवन है जिसके बिना हमारा अस्तित्व नहीं है। जेरेमी फ्रे के अनुसार जीवन के पनपने के लिए पृथ्वी पर सही वातावरण होना आवश्यक था। जब यह वातावरण अस्तित्व में आया तब जीवन के लिए परिस्थितियां निर्मित हुर्इं। वायुमंडल जैविक प्रणाली का अभिन्न अंग है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक झील बहुमत से व्यक्ति बनी

संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की सरहद पर एक झील है एरी झील। हाल ही में इस झील के किनारे बसे शहर टोलेडो (ओहायो प्रांत) के नागरिकों ने 61 प्रतिशत मतों से इसे एक व्यक्ति का दर्जा देने के कानून को समर्थन दिया है।

एरी झील अमेरिका की चौथी सबसे बड़ी और दुनिया भर की ग्यारहवीं सबसे बड़ी झील है। झील लगभग 25,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है। पिछले वर्षों में यह अत्यधिक प्रदूषित झीलों में से एक रही है। आसपास के खेतों से बहकर जो पानी इस झील में पहुंचता है उसमें बहुत अधिक मात्रा में फॉस्फोरस व नाइट्रोजन होते हैं। ये शैवाल के लिए उर्वरक का काम करते हैं और झील की पूरी सतह ज़हरीली शैवाल से ढंक जाती है। हालत यह हो गई थी कि इस झील का पानी पीने योग्य नहीं रह गया था। पिछले वर्ष गर्मियों में यहां के 5 लाख नागरिकों को पूरी तरह बोतल के पानी पर निर्भर रहना पड़ा था। यह झील इसके आसपास लगभग 875 कि.मी. के तट पर बसे विभिन्न शहरों के करीब 1 करोड़ लोगों के लिए पेयजल का स्रोत है।

झील की इस स्थिति से चिंतित होकर पिछले कई वर्षों से ओहायो में एक आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन ने एक कानून तैयार किया है जिसके तहत एरी झील को व्यक्ति का दर्जा दिया जाएगा। पिछले माह हुए मतदान में 61 प्रतिशत मतदाताओं ने इस कानून को समर्थन दिया है। इस कानून के तहत टोलेडो के नागरिकों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वे एरी झील की ओर से प्रदूणकारियों पर मुकदमा चला सकेंगे।

इससे पहले इक्वेडोर, न्यूज़ीलैंड, कोलंबिया और भारत में भी नदियों, और जंगलों को व्यक्ति का दर्जा दिया जा चुका है। संभावना जताई जा रही है कि यूएस की इस नज़ीर के बाद कई अन्य स्थानों पर भी ‘प्रकृति के अधिकारों’ का यह आंदोलन ज़ोर पकड़ेगा।

कानूनी विशेषज्ञ ऐसे किसी कानून को लेकर दुविधा में हैं। कुछ लोगों को लगता है कि यह कानून संवैधानिक मुकदमों में टिक नहीं पाएगा। उनको लगता है कि परिणाम सिर्फ यह होगा कि मुकदमेबाज़ी में ढेरों पैसा खर्च होगा।

दूसरी ओर, कई अन्य लोगों का मानना है कि चाहे यह कानून मुकदमेबाज़ी में उलझ जाए किंतु यहां नागरिकों ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वे प्रकृति के अतिक्रमण को बर्दाश्त नहीं करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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