सामाजिक कार्यकर्ता शिवाजी दादा – भाग 1

निधि सोलंकी

गांधीवादी विचारों वाले शिवाजी दादा ने अपना संपूर्ण जीवन सामाजिक भलाई के कामों में लगाया। उन्होंने लोगों की अनेक समस्याओं के समाधान दिए एवं उनके बेहतर भविष्य के लिए नींव रखी। अपने कार्यों के लिए पुरस्कारों से सम्मानित शिवाजी दादा से मेरी मुलाकात मेरी एक फील्ड यात्रा के दौरान हुई और मैं उनसे प्रभावित हुए बिना न रह सकी। उनकी सादगी और कार्यों ने मुझे उनके बारे में लिखने के लिए प्रेरित किया। प्रस्तुत है यहां दो लेखों की शृंखला में उनके कार्यों और जीवन का परिचय।

म तौर पर हम सभी रोटी, कपड़ा, मकान, और जाने किस-किस चीज़ के पीछे पूरी ज़िंदगी भागते रहते हैं। लेकिन कुछ समय पहले एक शख्सियत से मेरा परिचय इन शब्दों में कराया गया था: “इनका कोई घर नहीं है और पूरा गांव ही इनका घर है।” और वह शख्सियत थे शिवाजी दादा।

शिवाजी दादा ने गांववासियों की अनगिनत समस्याओं के लिए न केवल संघर्ष किया, बल्कि उनके समाधान के लिए ठोस कदम भी उठाए। पानी की समस्या के लिए उन्होंने गांववासियों के साथ मिलकर वॉटरशेड (watershed development), कुएं और तालाब बनवाए और लगभग 1.50 लाख पेड़ लगवाए। बच्चों के लिए नाइट स्कूल (night schools in rural India) शुरू किए, बालवाड़ी शुरू की, इत्यादि। और अभी वे आर्गेनिक फॉर्मिंग (organic farming) के काम में ज़ोर-शोर से लगे हुए हैं।

शिवाजी दादा न केवल गांधी की बातों को मानते हैं, बल्कि उन्हें जीते भी हैं। व्यक्तित्व के सरल शिवाजी दादा का पहनावा भी उतना ही साधारण है। वैसे उनका पूरा नाम शिवाजी कागनीकर है, लेकिन प्रेम से सभी उन्हें ‘शिवाजी दादा’ कहकर बुलाते हैं। उनका जन्म बेलगांव शहर के पास करोड़ी नामक गांव में हुआ था। अपनी मातृभाषा मराठी के अलावा वे कन्नड़, हिंदी और अंग्रेज़ी भी जानते हैं। मुश्किल हालातों एवं गरीबी में बड़े हुए शिवाजी ने कॉलेज के दूसरे वर्ष में ही पढ़ाई छोड़ दी थी ताकि वे लोगों के लिए कुछ कर सकें। अपने जीवन में उन्होंने जातिगत भेदभाव (caste discrimination in India) झेला। इसके बाद भी जब दादा को अपना भविष्य बनाने का मौका मिला, ऐसा मौका जिससे उनके जीवन की सारी मुश्किलें दूर हो जाती, तो उन्होंने वह मौका हाथ से जाने दिया जिसके कारण लोग उन्हें पागल भी कहते थे। दादा पढ़ाई छोड़ने के ठीक बाद ही विनोबा भावे द्वारा शुरू किए सर्वोदय आंदोलन (Sarvodaya Movement) में शामिल हो गए थे।

इसके बाद उन्होंने सामाजिक कार्यकर्ता श्रीरंग कामत और बाद में उनके बेटे दिलीप कामत के साथ मिलकर कामगारों के हक के लिए कई प्रोटेस्ट किए। उसी दौरान उनकी मुलाकात वसंत पल्शीकर से हुई, जो उनके मार्गदर्शक बने। शिवाजी दादा मज़दूरों का समर्थन करते थे, लेकिन मालिकों से घृणा नहीं करते थे। वे कहते थे कि मज़दूरों के हक के लिए लड़ना ज़रूरी है, लेकिन मालिकों से नफरत का रास्ता अपनाना ठीक नहीं। और इस वजह से लोग उन्हें एंटी कम्युनिस्ट (anti-communist views) कहते थे। शिवाजी दादा ने उस काम को छोड़ देना ही ठीक समझा।

इसके बाद वे एक पादरी से मिले, जो चर्च में प्रार्थना करने की बजाय लोगों के लिए कुछ करने में यकीन करते थे। शिवाजी दादा ने उनके साथ मिलकर ‘जन जागरण’ नामक एक संस्था की शुरुआत की। इसके अंतर्गत उन्होंने स्व-सहायता समूह, वॉटरशेड, वृक्षारोपण जैसे काम किए। लेकिन बाद में उन्होंने देखा कि स्व-सहायता समूहों (self-help groups) में भी भ्रष्टाचार होने लगा है। उन्होंने ऐसे कई काम सालों तक करने के बाद छोड़ दिए क्योंकि वे ऐसी संस्थाओं का हिस्सा नहीं बनना चाहते थे, जो लोगों के लिए शुरू की गई थीं लेकिन आगे चलकर लोगों के लिए नहीं रहीं। जन जागरण के लिए इतना काम करने के बाद भी उनका ज़िक्र वेबसाइट या संस्था के वेबपेज (NGO website recognition) पर नहीं है। पूछने पर उन्होंने कहा “मुझे फर्क नहीं पड़ता कि मेरा नाम हो या नहीं, मैं बस काम करते रहना चाहता हूं।”

60 वर्ष की उम्र तक वे साइकिल से ही गांव आया-जाया करते थे। लेकिन डायबिटीज़ (diabetes) और ब्लड प्रेशर (blood pressure) के बाद से उन्होंने साइकिल चलाना छोड़कर बस से ही आना-जाना शुरू किया। वे अपना एक छोटा सा झोला, जिसमें किताबें, कागज़ और उनकी दवाइयां होती हैं, उठाए इधर-उधर काम करने में लगे रहते हैं। वे जहां भी जाते हैं, लोगों को काम करने के लिए प्रेरित करते रहते हैं। उन्होंने मेरे सामने अपने एक पुराने स्टूडेंट को कॉल किया, जो अभी किसी इंटरनेशनल स्कूल (international school construction) की बिल्डिंग बनाने में काम कर रहा है, और कहा, “हमें जल्दी ही कलिका केंद्र फिर से शुरू करना है क्योंकि निधि ताई आई हैं, खास उनके लिए।” अब आप सोच रहे होंगे कि ये कलिका केंद्र क्या है?

दरअसल, बेलगाम और उसके आसपास के गांव में एक समस्या शिक्षा की थी। बहुत से गांवों में स्कूल नहीं थे। जहां स्कूल थे, वहां बच्चे स्कूल नहीं जा रहे थे। ऐसे में रात में स्कूल शुरू करने का विचार आया। इसे ही कलिका केंद्र कहा गया। कलिका केंद्र बच्चों के लिए शिक्षा पाने का एक अवसर तो था ही, महिलाओं के लिए अपनी समस्याएं साझा करने का माध्यम भी था।

कई दशकों तक काम करने के बाद, 2019 में कर्नाटक राज्य ने शिवाजी दादा को राज्य के दूसरे सर्वोच्च नागरिक सम्मान, यानी राज्योत्सव पुरस्कार (Rajyotsava award Karnataka) से सम्मानित किया। उस वक्त एक संस्था द्वारा दिए गए फंड से गांवों में नाइट स्कूल चल रहे थे। फंड की कमी के कारण नाइट स्कूल के कार्यकर्ताओं को पर्याप्त पैसा नहीं मिल रहा था।

किसी ने इसी बात को मुद्दा बनाकर कहा कि शिवाजी दादा तो पुरस्कार बटोर रहे हैं, लेकिन तुम्हें इतना कम पैसा दिलवा रहे हैं। और इसी कारण लोगों ने काम बंद कर दिया। दादा के बहुत समझाने पर भी वे नहीं माने। इस बात से दादा को बहुत ठेस पहुंची क्योंकि वे नाइट स्कूल के महत्व को न केवल समझते थे, बल्कि इतने सालों में उन्होंने इसके प्रभाव को भी देखा था।

शिवाजी दादा के लिए यह चिंता का विषय था, और एक दिन उनकी मुलाकात उनके पुराने विद्यार्थी से हुई। बातचीत में उस विद्यार्थी ने दादा को बताया कि कैसे नाइट स्कूल ने उसकी मदद की और कहा: “आपने मुझे तो लिखना-पढ़ना सिखा दिया, लेकिन मेरे बच्चों का क्या होगा?” यह सुनते ही दादा ने पुनः स्कूल शुरू करने का निर्णय लिया।

उनकी इसी लगन के चलते कुछ लोग दादा को बेलगाम का अन्ना (Belgaum Anna) भी कहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

शिवाजी दादा के बारे में कुछ और बातें अगली कड़ी में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सराहनीय व्यक्तित्व अन्ना मणि

संकलन: आभा सूर

न्ना मणि दक्षिण भारत की एक पूर्व रियासत, त्रावणकोर रियासत, के एक समृद्ध परिवार में पली-बढ़ीं। यह रियासत अब केरल का हिस्सा है। 1918 में जन्मी अन्ना मणि आठ भाई-बहनों में सातवीं थीं। उनके पिता एक सिविल इंजीनियर थे, और उनके इलायची के बड़े बागान थे। उनका परिवार प्राचीन सीरियाई ईसाई चर्च से सम्बंधित था; हालांकि उनके पिता ताउम्र अनिश्वरवादी रहे।

मणि का परिवार ठेठ उच्च-वर्गीय पेशेवर परिवार था, जहां बचपन से ही लड़कों की तर्बियत बेहतरीन करियर बनाने के हिसाब से की जाती थी, जबकि बेटियों को शादी के लिए तैयार किया जाता था। लेकिन अन्ना मणि ने इसकी कोई परवाह नहीं की। उनके जीवन के शुरुआती साल किताबों में डूबे हुए बीते। आठ साल की उम्र तक उन्होंने स्थानीय सार्वजनिक लाइब्रेरी में उपलब्ध लगभग सभी मलयालम किताबें पढ़ ली थीं और बारह साल की उम्र तक उन्होंने लगभग सभी अंग्रेज़ी किताबें पढ़ ली थीं। जब उनके आठवें जन्मदिन पर उनके परिवार ने उन्हें पारंपरिक उपहार स्वरूप हीरे की बालियां दीं तो उन्होंने यह उपहार लेने से इन्कार कर दिया और इसके बदले एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका (Encyclopaedia Britannica) को चुना। किताबों ने उन्हें नए विचारों से परिचित कराया और उनमें सामाजिक न्याय (social justice) की गहरी भावना भर दी, जिसने उनके जीवन को प्रभावित किया और आकार दिया।

1925 में, वाइकोम सत्याग्रह (Vaikom Satyagraha) अपने चरम पर था। दरअसल वाइकोम शहर के एक मंदिर के पुजारियों ने मंदिर के बगल वाली सड़क से दलितों के आने-जाने पर रोक लगाई थी। पुजारियों के इस निर्णय के विरोध में त्रावणकोर के सभी जाति और धर्म के लोग इकट्ठा हुए थे। महात्मा गांधी लोगों के इस सविनय अवज्ञा आंदोलन (वाइकोम सत्याग्रह – civil disobedience movement) को अपना समर्थन देने के लिए वाइकोम आए थे। सत्याग्रह का आदर्श वाक्य, ‘एक जाति, एक धर्म और एक ईश्वर’ प्रगतिवादियों का नारा बन गया था। उनकी मांग थी कि सभी हिंदुओं को, चाहे वे किसी भी जाति के हों, राज्य के मंदिरों में प्रवेश दिया जाए। इस सत्याग्रह ने, और विशेष रूप से गांधीजी की शामिलियत ने, युवा और आदर्शवादी अन्ना को बहुत प्रभावित किया।

बाद के सालों में, जब राष्ट्रवादी आंदोलन ने गति पकड़ी और भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने पूर्ण स्वतंत्रता (complete independence) को अपना लक्ष्य बनाया तो अन्ना मणि धीरे-धीरे राष्ट्रवादी राजनीति से आकर्षित हुईं। हालांकि वे किसी विशेष आंदोलन में शामिल नहीं हुईं, लेकिन उन्होंने अपनी राष्ट्रवादी सहानुभूति के प्रतीक के रूप में खादी पहनना शुरू कर दिया। राष्ट्रवाद की सशक्त भावना ने उनमें अपनी स्वछंदता के लिए लड़ने की तीव्र इच्छा को भी मजबूत किया। जब उन्होंने अपनी बहनों के नक्श-ए-कदम, जिनकी शादी किशोरावस्था में ही हो गई थी, पर चलने के बजाय उच्च शिक्षा (higher education) हासिल करने की ठानी तो उनके परिवार ने न तो कोई कड़ा विरोध किया और न ही कोई हौसला दिया।

अन्ना मणि चिकित्सा की पढ़ाई करना चाहती थीं, लेकिन जब यह संभव नहीं हुआ तो उन्होंने भौतिकी (physics) पढ़ने का विकल्प चुना क्योंकि वे इस विषय में अच्छी थीं। अन्ना मणि ने मद्रास (अब चेन्नई) के प्रेसीडेंसी कॉलेज (Presidency College, Chennai) में भौतिकी ऑनर्स प्रोग्राम में दाखिला लिया। 1940 में, कॉलेज की पढ़ाई समाप्त करने के एक साल बाद अन्ना मणि को भारतीय विज्ञान संस्थान (Indian Institute of Science, IISc) में भौतिकी में शोध करने के लिए छात्रवृत्ति मिली और उन्हें सी. वी. रमन की प्रयोगशाला में स्नातक छात्र के रूप में लिया गया। रमन की प्रयोगशाला में, अन्ना मणि ने हीरे और माणिक की स्पेक्ट्रोस्कोपी (spectroscopy of diamonds and rubies) पर काम किया। उस समय रमन की प्रयोगशाला हीरे के अध्ययन में लगी हुई थी क्योंकि उस समय रमन का विवाद चल रहा था – मैक्स बोर्न के साथ क्रिस्टल डायनेमिक्स (crystal dynamics) के सिद्धांत पर और कैथलीन लोन्सडेल के साथ हीरे की संरचना पर। रमन के पास भारत और अफ्रीका के तीन सौ हीरे थे और उनके सभी शोधार्थी हीरे के किसी न किसी पहलू पर काम कर रहे थे।

अन्ना मणि ने तीस से अधिक विविध हीरों के प्रतिदीप्ति (fluorescence) वर्णक्रम, अवशोषण वर्णक्रम और रमन वर्णक्रम रिकॉर्ड करके विश्लेषण किया। साथ ही उन्होंने हीरों के वर्णक्रम पर तापमान के प्रभाव और ध्रुवीकरण प्रभावों को भी देखा। प्रयोग लंबे और श्रमसाध्य थे: (हीरे) क्रिस्टल को तरल हवा के तापमान (-196 डिग्री सेल्सियस) पर रखा जाता था, और कुछ हीरों की दुर्बल चमक के वर्णक्रम को फोटोग्राफिक प्लेट पर रिकॉर्ड करने के लिए पंद्रह से बीस घंटे इस तापमान पर रखना पड़ता था। अन्ना मणि ने प्रयोगशाला में कई घंटों तक काम किया, कभी-कभी तो उन्होंने रात-रात भर काम किया।

1942 से 1945 के बीच उन्होंने हीरे और माणिक की कांति पर पांच शोधपत्र (research papers) प्रकाशित किए। इन शोधपत्रों का कोई सह-लेखक नहीं था, सभी अकेले उन्होंने लिखे थे। अगस्त 1945 में उन्होंने मद्रास विश्वविद्यालय में अपना पीएचडी शोध प्रबंध प्रस्तुत किया, और उन्हें इंग्लैंड में इंटर्नशिप के लिए सरकारी छात्रवृत्ति दी गई। हालांकि, अन्ना मणि को कभी भी पीएचडी की उपाधि नहीं दी गई जिसकी वे हकदार थीं। मद्रास विश्वविद्यालय, जो उस समय औपचारिक रूप से भारतीय विज्ञान संस्थान में किए गए कार्य के लिए डिग्री प्रदान किया करता था, का कहना था कि अन्ना मणि के पास एमएससी की डिग्री नहीं है और इसलिए उन्हें पीएचडी उपाधि नहीं दी जा सकती। मद्रास विश्वविद्यालय ने इस बात को नज़रअंदाज किया कि अन्ना मणि ने भौतिकी ऑनर्स और रसायन विज्ञान ऑनर्स (chemistry honours) में ग्रेजुएट किया है, और अपनी अंडर-ग्रेजुएट की डिग्री के आधार पर भारतीय विज्ञान संस्थान में ग्रेजुएट अध्ययन के लिए छात्रवृत्ति हासिल की है। उनका संपूर्ण पीएचडी शोध प्रबंध आज तक रमन शोध संस्थान (Raman Research Institute Museum) के संग्रहालय में अन्य जिल्दबंद शोध प्रबंधों के साथ रखा हुआ है, बिना इस भेद के कि अन्ना मणि को इस शोधकार्य के बावजूद पीएचडी डिग्री नहीं मिली। हालांकि, अन्ना मणि ने इस अन्याय के खिलाफ कोई गिला-शिकवा नहीं पाला, और ज़ोर देकर यही कहा कि पीएचडी डिग्री न होने से उनके काम/जीवन पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता।

रमन प्रयोगशाला में अपना शोध कार्य पूरा करने के तुरंत बाद वे इंग्लैंड चली गईं। हालांकि उनका मन भौतिकी में अनुसंधान कार्य करने का था, लेकिन उन्होंने मौसम सम्बंधी उपकरणों (meteorological instruments) में विशेषज्ञता हासिल की क्योंकि उस समय उनके लिए यही एकमात्र छात्रवृत्ति उपलब्ध थी।

अन्ना मणि 1948 में स्वतंत्र भारत लौट आईं और पुणे के भारतीय मौसम विभाग (India Meteorological Department, IMD) में शामिल हो गईं। विभाग में वे विकिरण उपकरणों के निर्माण की प्रभारी थीं। लगभग 30 साल के अपने करियर में उन्होंने वायुमंडलीय ओज़ोन (atmospheric ozone) से लेकर अंतर्राष्ट्रीय उपकरणों की तुलना की आवश्यकता, और मौसम सम्बंधी उपकरणों के राष्ट्रीय मानकीकरण जैसे विषयों पर कई शोधपत्र प्रकाशित किए। 1976 में वे भारतीय मौसम विभाग के उप महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुईं। इसके बाद वे रमन रिसर्च इंस्टीट्यूट में तीन साल के लिए विज़िटिंग प्रोफेसर रहीं।

उन्होंने दो पुस्तकें भी लिखी हैं: दी हैंडबुक फॉर सोलर रेडिएशन डैटा फॉर इंडिया (1980) और सोलर रेडिएशन ओवर इंडिया (1981)। उन्होंने भारत में पवन ऊर्जा (wind energy in India) के दोहन के लिए कई परियोजनाओं पर काम किया। बाद में, अन्ना मणि ने बैंगलोर के औद्योगिक उपनगर में एक छोटी-सी कंपनी शुरू की जो पवन गति और सौर ऊर्जा को मापने के उपकरण बनाती थी। अन्ना मणि का मानना था कि भारत में पवन और सौर ऊर्जा (solar energy) के विकास के लिए विभिन्न क्षेत्रों में आपतित सौर ऊर्जा और पवन पैटर्न की विस्तृत जानकारी की ज़रूरत है। और उन्हें उम्मीद थी कि उनके कारखाने में बने उपकरण इस संदर्भ में काफी उपयोगी होंगे।

पर्यावरण के मुद्दों में रुचि और भागीदारी होने बावजूद अन्ना मणि ने खुद को कभी पर्यावरणवादी (environmentalist) के रूप में नहीं देखा। वे ऐसे लोगों को ‘कारपेट बैगर्स’ कहा करती थीं, जो हमेशा यहां से वहां और वहां से यहां डोलते रहते थे। वे एक स्थान पर टिके रहना पसंद करती थीं।

अपने जीवन और उपलब्धियों के बारे में अन्ना मणि का नज़रिया बहुत ही तटस्थ था। उन्होंने उस ज़माने में भौतिकी पढ़ने को कोई बड़ी बात नहीं माना, जिस ज़माने में भारत में गिनी-चुनी महिला भौतिकविद (women physicists) थीं। उन्होंने एक महिला वैज्ञानिक के रूप में अपने सामने आने वाली कठिनाइयों और भेदभाव को दिल पर नहीं लिया और ‘बेचारेपन’ की राजनीति से दूर ही रहीं, उससे घृणा ही की। लेकिन महिलाओं की क्षमता को सीमित करने वाली एवं महिला और पुरुषों की बौद्धिक क्षमताओं में अंतर बताने वाली, थोपी गई लैंगिक पहचान (gender bias) का उन्होंने लगातार सक्रियता से विरोध किया।

इसमें कोई दो राय नहीं कि अन्ना मणि सफलता के ऐसे पड़ाव पर पहुंचीं जिसकी आकांक्षा चंद महिलाएं (या पुरुष) कर सकते हैं। वे उपलब्ध सीमित सांस्कृतिक दायरों से आगे गईं, और न केवल अपने लिए जगह बनाई और अपनी प्रयोगशाला बनाई, बल्कि अपनी एक वर्कशॉप, एक फैक्ट्री बनाई। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धान की फसल को बचाएगा एक खास जीन

चीन के वैज्ञानिकों ने हाल ही में धान से जुड़ी एक बड़ी खोज की है। उन्होंने धान में एक ऐसा प्राकृतिक जीन पाया है जो दिन-ब-दिन गर्मा रही जलवायु (climate change impact on rice) में भी फसल की गुणवत्ता और पैदावार को बढ़िया बनाए रख सकता है। इस जीन से गेहूं और मक्का जैसी अन्य फसलों (heat-tolerant crops) को भी फायदा हो सकता है।

गौरतलब है कि धान की फसल को गर्माहट तो चाहिए होती है लेकिन अगर रातें ज़्यादा गर्म हो जाएं, खासकर धान फूलने के समय(flowering stage in rice), तो फसल को नुकसान होता है। गर्म रातों के कारण धान के दाने ‘चॉक’ जैसे सफेद और भुरभुरे हो जाते हैं, कुटाई के वक्त ये दाने टूट जाते हैं, और पकने पर चिपचिपे स्वादहीन लगते हैं। यह समस्या अब ज़्यादा बढ़ रही है क्योंकि जलवायु परिवर्तन की वजह से रात का तापमान दिन की तुलना में दोगुनी रफ्तार से बढ़ रहा है, खासकर एशिया और अफ्रीका के उन इलाकों में जहां धान उगाया जाता है (rice cultivation in Asia and Africa)।

2004 की एक रिपोर्ट के अनुसार यदि रात का औसत तापमान एक डिग्री सेल्सियस बढ़ता है तो धान की पैदावार 10 प्रतिशत तक घट सकती है (rice yield temperature effect)।

इसके समाधान के लिए 2012 में चीन की हुआझोंग एग्रीकल्चरल युनिवर्सिटी (Huazhong Agricultural University) के वनस्पति वैज्ञानिक यीबो ली और उनकी टीम ने धान की ऐसी किस्में खोजनी शुरू कीं जो अधिक गर्म रातें झेल सकें। उन्होंने चीन के चार गर्म इलाकों में धान 533 की किस्मों का परीक्षण किया। इनमें से दो किस्मों, Chenghui448 और OM1723, की गुणवत्ता और उपज गर्मी में भी अच्छी रही। फिर, इन दोनों किस्मों से संकर धान तैयार किया। इसके जीन विश्लेषण (gene analysis in rice) में क्रोमोसोम 12 पर उन्हें एक खास जीन मिला, जिसे QT12 नाम दिया गया है।

सामान्य स्थिति में तीन कारक QT12 जीन का नियमन करते हैं, और मिलकर इसे संतुलित रूप से काम करने देते हैं। लेकिन जब तापमान बढ़ता है तो इन तीनों में से एक नियामक अलग हो जाता है और QT12 ज़्यादा सक्रिय हो जाता है (heat-responsive genes in crops)। इससे धान की कोशिकाओं में एंडोप्लाज़्मिक रेटिकुलम प्रभावित होता है। यह कोशिका का वह हिस्सा है जो प्रोटीन को तह करने और उन्हें सही जगह पहुंचाने का काम करता है।

जब तापमान के कारण यह प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है तो दाने के भ्रूणपोष में प्रोटीन कम और स्टार्च ज़्यादा जमा होने लगता है। यही असंतुलन दानों को ‘भुरभुरा’ (grain chalkiness due to heat) बनाता है।

वैज्ञानिकों ने QT12 की भूमिका को साबित करने के लिए एक ताप-संवेदी धान की किस्म में इस जीन को शांत कर दिया। नतीजे चौंकाने वाले थे: संशोधित धान ने गर्मी में भी सामान्य मात्रा में पैदावार दी, जबकि असंशोधित धान ने 58 प्रतिशत कम पैदावार दी। इसका मतलब है कि QT12 केवल दानों की गुणवत्ता नहीं, बल्कि उपज को भी प्रभावित करता है।

एक दिलचस्प बात यह है कि जीन एडिटिंग की तकनीक के बिना, पारंपरिक ब्रीडिंग (traditional breeding techniques) से भी काम चल सकता है। वैज्ञानिकों ने धान की कुछ किस्मों में QT12 के ऐसे प्राकृतिक रूप पाए हैं जो गर्मी में सक्रिय नहीं होते। जब उन्होंने इन्हें चीन की लोकप्रिय हाइब्रिड किस्म हुआझेन में जोड़ा, तो नतीजे आशाजनक मिले। गर्मी-सह्य इस नई हुआझेन किस्म ने 31-78 प्रतिशत तक अधिक पैदावार दी। सफेद और भुरभुरे दाने भी कम थे।

QT12 के ऐसे रूप ज़्यादातर गर्म इलाकों में उगाई जाने वाली इंडिका किस्मों (indica rice variety)  में पाए जाते हैं, जबकि जेपोनिका किस्मों में ये जीन पूरी तरह अनुपस्थित हैं, जो ठंडे इलाकों (जैसे जापान, चीन के पहाड़ी क्षेत्र और अमेरिका) (temperate climate rice) में उगाई जाती हैं। QT12 जीन को जेपोनिका किस्मों में भी डाल कर इन क्षेत्रों की फसलों को भी गर्मी से बचाया जा सकेगा।

दिलचस्प बात यह है कि QT12 जीन सिर्फ धान में ही नहीं बल्कि गेहूं और मक्का जैसी दूसरी महत्वपूर्ण फसलों में भी ऐसे जीन मौजूद हैं(QT12 gene in wheat and maize)। वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि इस खोज की मदद से अब इन फसलों की भी गर्मी-सह्य किस्में तैयार की जा सकेंगी, जो खाद्य सुरक्षा को मज़बूती देगी(climate-resilient crops for food security)। हालांकि विशेषज्ञ यह भी कहते हैं कि अकेले QT12 बहुत ज़्यादा गर्मी से सभी धान की किस्मों को नहीं बचा सकता, खासकर जब रात का तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से ऊपर चला जाए। इसलिए वैज्ञानिक अभी भी अन्य जीन और किस्मों पर शोध कर रहे हैं ताकि जलवायु संकट से लड़ने के और उपाय मिल सकें (genes for climate change adaptation in crops)। (स्रोत फीचर्स)

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मैग्नेटार: अंतरिक्ष में बेशकीमती धातुओं का कारखाना

क्या आप जानते हैं कि बेशकीमती सोना-चांदी (gold-silver origin in universe) संभवत: अरबों साल पहले एक ज़बर्दस्त ब्रह्मांडीय विस्फोट (cosmic explosion) में बने थे? दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसे भारी तत्व केवल तब बनते हैं जब दो मृत तारे (न्यूट्रॉन स्टार) (neutron star collision) आपस में टकराते हैं। लेकिन अब शोधकर्ताओं को ऐसी कीमती धातुएं बनने एक और तरीका पता चला है।

दी एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स में प्रकाशित नए अध्ययन (astrophysical journal research) में बताया गया है कि एक विशेष प्रकार के तारे, जिन्हें मैग्नेटार (magnetar flares) कहा जाता है, से निकली उग्र लपटों (flare) में भी सोना, चांदी और प्लेटिनम जैसे भारी तत्व बन सकते हैं।

गौरतलब है कि मैग्नेटार उन विशाल तारों के बचे हुए केंद्र होते हैं जो सुपरनोवा (supernova remnant) में फट चुके होते हैं। इनका चुंबकीय क्षेत्र पृथ्वी के मुकाबले खरबों गुना शक्तिशाली होता है। इस कारण ये तारे कभी-कभी बहुत तेज़ी से भभकते हैं।

2004 में एक मैग्नेटार ऐसी ही भयंकर उग्र लपटें निकली थीं, जिसने कुछ ही सेकंड में उतनी ऊर्जा फेंकी जितना हमारा सूरज लाखों सालों में छोड़ता है। दस मिनट बाद उसी जगह से कुछ और हल्की लपटें निकलीं, जिन्हें आफ्टरग्लो (afterglow radiation) कहा गया। तब वैज्ञानिक इस रहस्यमयी संकेत को समझ नहीं पाए थे लेकिन अब उन्हें इसका मतलब समझ आने लगा है।

इस खोज की अहमियत समझने के लिए पहले यह जान लेते हैं कि भारी तत्व कैसे बनते हैं। सोना, चांदी और प्लेटिनम जैसे भारी तत्व आम तारों के अंदर नहीं बनते। इन्हें बनने के लिए एक बेहद तेज़ और उग्र प्रक्रिया की ज़रूरत होती है, जिसे आर-प्रक्रिया (r-process nucleosynthesis) कहते हैं। इस प्रक्रिया में परमाणु नाभिक बहुत तेज़ी से न्यूट्रॉन्स सोखते हैं और भारी तत्वों में बदल जाते हैं।

अब तक वैज्ञानिकों को आर-प्रक्रिया का एक ही पुष्ट स्रोत पता था – दो न्यूट्रॉन तारों की टक्कर। लेकिन ऐसी टक्करें बहुत बिरली होती हैं और हमारी निहारिका के ‘जीवन’ के आखिरी समय में होती हैं। तो फिर शुरुआती समय में भारी तत्व कैसे बने (early universe element formation)?

कोलंबिया युनिवर्सिटी के खगोलशास्त्री अनिरुद्ध पटेल और उनकी टीम ने 2004 में मैग्नेटार से निकली लपटों के डैटा को फिर से देखा। उन्होंने कंप्यूटर सिमुलेशन (astrophysics simulation) के ज़रिए यह जांचा कि क्या इस तरह की भभक से आर-प्रक्रिया हो सकती है। उन्होंने पाया कि भभक के बाद दिखी आफ्टरग्लो में बिल्कुल वैसी ही गामा किरणें थीं जैसी आर-प्रक्रिया के दौरान निकलती हैं। ये गामा किरणें उस ऊर्जा का संकेत थीं जो भारी तत्व बनने के समय निकलती हैं।

20 साल से ऐसे ही पड़े डैटा ने अंतत: साबित कर दिया कि सोना और अन्य भारी तत्व केवल एक ही तरह की ब्रह्मांडीय घटना से नहीं बनते। बल्कि इन्हें बनाने वाली आर-प्रक्रिया के और भी स्रोत हो सकते हैं (alternative r-process sources), जो अभी तक अनदेखे हैं। ये नतीजे अधिक शोध के रास्ते खोलते हैं। 2017 में हुई न्यूट्रॉन तारों की टक्कर धरती से बहुत दूर थी, इसलिए वैज्ञानिक उस घटना को ठीक से नहीं देख सके। लेकिन भविष्य में अगर किसी नज़दीकी मैग्नेटार से लपटें उठती हैं तो शायद वैज्ञानिक सोना-चांदी बनने के चश्मदीद बन जाएं। (स्रोत फीचर्स)

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गर्भावस्था में पोषण, स्वास्थ्य व देखभाल – डॉ. पूनम विशाल ज्वैल और सुदर्शन सोलंकी

प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की महिलाओं में खराब पोषण (poor nutrition) के दीर्घकालिक परिणाम होते हैं। महिला के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर के अलावा, इससे कुपोषित बच्चे को जन्म देने का जोखिम भी बढ़ जाता है, जिससे कुपोषण का चक्र पीढ़ियों तक चलता रहता है।

गर्भावस्था और मातृत्व के दौरान अलग-अलग पोषण सम्बंधी ज़रूरतें होती (pregnancy nutrition requirements, prenatal care) हैं। गर्भावस्था से पहले, महिलाओं को स्वस्थ शरीर के लिए पौष्टिक और संतुलित आहार की ज़रूरत होती है। गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान, ऊर्जा और पोषक तत्वों की ज़रूरत बढ़ जाती है।

किंतु दुनिया के कई देशों में महिलाओं की पोषण(global malnutrition in women) सम्बंधी स्थिति खराब बनी हुई है। बहुत-सी महिलाएं – विशेषकर वे जो पोषण सम्बंधी जोखिम में हैं, उन्हें वे पोषण सेवाएं नहीं मिल रही हैं जो उन्हें स्वस्थ रहने और अपने बच्चों को जीवित रहने, बढ़ने और विकसित होने का सबसे अच्छा मौका देने के लिए आवश्यक हैं।

भारत में बच्चों के बीच खराब पोषण और स्वास्थ्य परिणामों का मुख्य कारण गर्भावस्था से पहले और उसके दौरान माताओं का खराब पोषण है (child malnutrition India, maternal health and child growth)। शोध से पता चलता है कि दो साल की उम्र तक विकास में लगभग 50 प्रतिशत विफलता गर्भधारण और प्रसव के बीच घटिया पोषण के कारण होती है। इसलिए बच्चों में कुपोषण से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए मातृ कुपोषण से निपटना महत्वपूर्ण है।

एक कुपोषित मां अनिवार्य रूप से एक कुपोषित बच्चे को जन्म देती है (malnourished mother and child)। भारत में कुपोषण की समस्या गंभीर है, और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, 2019-2021 के बीच 22.4 करोड़ से अधिक लोग कुपोषित थे (UN malnutrition report India); जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। भारत में लगभग आधी महिलाओं, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया का प्रकोप देश की खाद्य सुरक्षा पर गंभीर बोझ डालता है (anemia in pregnant women, nutrition and food security India)

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) भी दर्शाता है कि भारत में कुपोषण की समस्या लगातार बनी हुई है (NFHS-5 findings on nutrition)। पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा और देश की हर पांचवी महिला कुपोषित है, और अधिक वज़न वाली महिलाओं की संख्या बढ़कर एक चौथाई हो गई है। आधे से ज़्यादा बच्चे, किशोर और महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं (anemia in adolescents and women)

गर्भावस्था के दौरान पोषण का अत्यधिक महत्व होता है, क्योंकि यह न केवल मां के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के विकास और भविष्य के स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालता है (importance of nutrition in pregnancy, baby development during pregnancy)। संतुलित और पोषक तत्वों से भरपूर आहार गर्भवती महिला और शिशु दोनों के लिए आवश्यक है (balanced diet in pregnancy, nutrients for pregnant women)। उचित आहार योजना और स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर गर्भवती  महिलाएं स्वस्थ गर्भावस्था और स्वस्थ शिशु के जन्म की दिशा में कदम बढ़ा सकती हैं।

ऊर्जा (Energy)

गर्भावस्था के दौरान ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ जाती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR Pregnancy guidelines) के अनुसार, गर्भ की दूसरी और तीसरी तिमाही में प्रतिदिन 350 किलो कैलोरी अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जिसकी पूर्ति प्रत्येक भोजन में थोड़ा-थोड़ा आहार बढ़ाकर की जाती है।

प्रोटीन (Protein)

प्रोटीन गर्भाशय, स्तनों और शिशु के शरीर के ऊतकों (protein for fetal growth) के विकास के लिए आवश्यक है। आईसीएमआर के अनुसार, महिला के प्रति किलो वज़न पर पहली तिमाही में 1 ग्राम प्रतिदिन, दूसरी तिमाही में 8 ग्राम और तीसरी तिमाही में 18 से 20 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। दूध और पनीर, दही जैसे दुग्ध उत्पाद, अंडे, मांस, चिकन, सैल्मन मछली, दालें, नट्स वगैरह प्रोटीन के अच्छे स्रोत (sources of protein) हैं।

कैल्शियम (Calcium)

कैल्शियम शिशु की हड्डियों (baby bone health) और दांतों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 1 ग्राम अतिरिक्त  कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, दही, पनीर जैसे डेयरी उत्पाद, हरी पत्तेदार सब्जियां, सूखे मेवे. तिल के बीज इसके बढ़िया स्रोत हैं।

फोलिक एसिड (Folic acid)

फोलिक एसिड न्यूरल ट्यूब सम्बंधी दोषों (neural tube defect prevention) की रोकथाम में मदद करता है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 600 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड की आवश्यकता होती है। यह हरी पत्तेदार सब्ज़ियों, संतरा, केला, चना, राजमा, साबुत अनाज, दलिया वगैरह में पाया जाता है।

लौह (Iron)

गर्भावस्था के दौरान लौह की आवश्यकता बढ़ जाती है ताकि शिशु और मां दोनों के लिए हीमोग्लोबिन का उत्पादन सुनिश्चित हो सके। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 36 मिलीग्राम अतिरिक्त लौह की आवश्यकता (iron requirement during pregnancy) होती है। हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, काले किशमिश, खुबानी, लाल मांस, चिकन, खड़े मसूर, चना, राजमा वगैरह लौह के अच्छे स्रोत (soruces of iron) हैं।

आयोडीन (Iodene)

आयोडीन शिशु के मस्तिष्क के विकास (brain development fetus) के लिए आवश्यक है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 200-220 माइक्रोग्राम अतिरिक्त आयोडीन की आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक, समुद्री खाद्य पदार्थ, मछली, झींगा, दुग्ध उत्पाद इसके अच्छे स्रोत (Iodene sources) हैं।

विटामिन डी (Vitamin D)

विटामिन डी कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है और हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। सूर्य का प्रकाश (Sunlight for vitamin D) (प्रतिदिन सुबह या शाम की धूप में 15-20 मिनट बिताना), मछली,  सैल्मन, मैकेरल, अंडे का पीला भाग इसके बढ़िया स्रोत (sources of vitamin D) हैं।

पानी

गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त मात्रा में पानी पीना आवश्यक (hydration during pregnancy) है। प्रतिदिन कम से कम 3 लीटर (10-12 गिलास) पानी का सेवन करें। गर्मी के मौसम में 2 गिलास अतिरिक्त पानी पीना चाहिए। थोड़े-थोड़े अंतराल पर पानी, जूस या वेजिटेबल सूप पीते रहें।

कुछ सावधानियां

– कैफीन का सेवन सीमित करें प्रतिदिन 200 मिलीग्राम से अधिक कैफीन लेने से गर्भपात और शिशु के कम वजन वाला रह जाने का खतरा बढ़ सकता है (caffeine limit in pregnancy)

– मदिरा और धूम्रपान (alcohol and smoking risks pregnancy) शिशु के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

– कच्चे या अधपके खाद्य पदार्थों (raw food in pregnancy) से बचें।

– अत्यधिक मसालेदार, तले हुए खाद्य पदार्थों और पैक्ड प्रोसेस्ड भोजन से परहेज करें (avoid processed food in pregnancy), ये अपच और एसिडिटी का कारण बन सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना उतना ही ज़रूरी है जितना शारीरिक स्वास्थ्य का (mental and emotional health during pregnancy)। यह न केवल मां के लिए, बल्कि शिशु के विकास और भावनात्मक सेहत के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस दौरान तनाव, चिंता और मूड स्विंग्स होना आम बात है। इन्हें सही तरीके से मैनेज करना ज़रूरी है।

भारत को सतत विकास लक्ष्य-2 (‘भूख से मुक्ति’) को प्राप्त करने और 2030 तक सभी प्रकार की भूख और कुपोषण को समाप्त करने के लिए संतुलित आहार, उचित पोषण को हर महिला व शिशु तक पहुंचाकर कुपोषण व एनीमिया की व्यापकता को समाप्त करना होगा (SDG 2 Zero Hunger, nutrition targets India 2030)। इसके लिए समुदाय में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निकोबार द्वीप समूह की कीमत पर विकास

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं, इस बात पर दृढ़ विश्वास रखने वाले प्रसिद्ध वृक्ष प्रेमी और वृक्ष योद्धा श्री ‘वनजीवी’ रमैया (vanjeevi ramaiah) का पिछले महीने निधन हो गया। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित इस शख्सियत ने तेलंगाना में एक करोड़ से अधिक पौध-रोप लगायीं (tree plantation in Telangana), ताकि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य में रह सकें। लेकिन कांचा गच्चीबावली क्षेत्र को लेकर तेलंगाना राज्य सरकार और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बीच मौजूदा विवाद ने रमैया को निराश ही किया होगा। विश्वविद्यालय चाहता है कि यह क्षेत्र एक हरे-भरे वन क्षेत्र (urban green space) के रूप में बना रहे, जिसमें निसर्ग की उपहार रूपी 700 किस्म की वनस्पतियां, 200 तरह के पक्षी और 10-20 स्तनधारी प्रजातियां संरक्षित रहें। लेकिन राज्य सरकार चाहती है कि इसमें क्षेत्र प्रौद्योगिकी पार्क (technology park development)  और ऐसे ही अन्य निर्माण किए जाएं। ज़मीन की यह ‘लड़ाई’ सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court case) तक पहुंच गई है, और हम न्यायलय के फैसले के मुंतज़िर हैं।

दुर्भाग्य से, भारत के कई अन्य राज्यों में भी यही हालात हैं। राज्य ऐसी वन भूमि पर हाई-टेक शहर (hi-tech city projects), फार्माश्युटिकल क्षेत्र, राजमार्ग, तेज़ रफ्तार ट्रेन ट्रैक और हवाई अड्डे निर्माण किए जा रहे हैं। हालांकि ये सभी निर्माण सार्वजनिक ज़रूरत के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन ज़रूरतों की पूर्ति हरियाली, फूलदार पौधों (biodiversity loss) और इन पर निर्भर रहने वाले आदिवासी लोगों के विनाश की कीमत पर होना चाहिए? ऐसा करना क्या वनजीवी रमैया के कामों और विचारों के साथ विश्वासघात नहीं माना जाएगा?

हमने यहां ‘विश्वासघात’ शब्द प्रोफेसर पंकज सेकसरिया के नज़रिए से उपयोग किया है। पंकज सेकसरिया समाज, पर्यावरण (environmental justice), विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच के जटिल सम्बंधों के साथ-साथ पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण को जानने-समझने का काम करते हैं, इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने निकोबार द्वीप समूह पर तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने दी ग्रेट निकोबार बिट्रेयल नामक एक पुस्तक संकलित की है। इस पुस्तक में बताया गया है कि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वह किस तरह निकोबार द्वीप समूह का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए करेगी: मालवाहक जहाज़ के लिए गैलाथिया खाड़ी में एक ट्रांस-शिपमेंट सुविधा (transshipment port project) बनेगी, एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (international airport construction) बनेगा और बिजली के लिए एक बिजली संयंत्र लगेगा। इसके अलावा, छुट्टियां बिताने और उपरोक्त परियोजनाओं के संचालन के लिए मुख्य भारत भूमि से लोगों को यहां बुलाया और बसाया जाएगा, जिससे यहां की आबादी 8000 (मूल निवासियों) से बढ़कर लगभग 3.5 लाख तक हो जाएगी। इस आबादी को बसाने के लिए एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप (greenfield township) बनाने की योजना भी है।

पुस्तक में पारिस्थितिक भव्यता से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं, जो निकोबार द्वीप समूह की 2000 से अधिक जंतु प्रजातियों और 811 वनस्पति प्रजातियों के भविष्य और यहां के मूल निवासियों के भविष्य की चिंता से सम्बंधित हैं। ये सभी केंद्र सरकार द्वारा नियोजित ‘विकास’ से प्रभावित होंगे। इसके अलावा, मूल निकोबारी जनजातियों की आजीविका जंगलों पर निर्भर है, जंगल उनके लिए अनिवार्य हैं। लेकिन ‘विकास’ के चलते जैसे-जैसे वनों की कटाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, मूल निकोबारी जनजातियां – खासकर असुरक्षित आदिवासी समुदाय शोम्पेन (Shompen tribe displacement) – इससे प्रभावित होंगी। फिर, विकास के लिए समुद्र तट भी हथियाया जाएगा, इसके चलते समुद्र तट पर हर मौसम में पाए जाने वाले विशालकाय लेदरबैक कछुओं (leatherback turtles endangered) पर भी खतरा मंडराने लगेगा। आदिवासी कल्याण मंत्रालय ने इन चिंताओं पर अब तक कोई जवाब नहीं दिया है।

लेकिन, जनवरी 2023 में पूर्व लोक सेवकों के एक समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बताया था कि कैसे भारत सरकार विभिन्न दुर्लभ और देशज प्रजातियों के प्राचीन प्राकृतिक आवास को नष्ट करने पर उतारू है। आगे वे कहते हैं कि कैसे सरकार निकोबार से 2600 किलोमीटर दूर हरियाणा में जंगल लगाकर इस नुकसान की ‘क्षतिपूर्ति’ (forest offset policy) करेगी!

भारत विश्व के उन 200 देशों में से एक है जिन्होंने जैव विविधता समझौते (biodiversity agreement) पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके तहत भारत अधिक पारिस्थितिक समग्रता वाले पारिस्थितिकी तंत्रों सहित उच्च जैव विविधता महत्व वाले क्षेत्रों के ह्रास (विनाश) को लगभग शून्य करने के लिए प्रतिबद्ध है। पूर्व लोक सेवकों का राष्ट्रपति और भारत सरकार से अनुरोध है कि वे ग्रेट निकोबार में शुरू की जा रही विनाशकारी परियोजनाओं को तुरंत रोक दें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या सिंधु नदी का पानी रोक पाना संभव और उचित है?

डॉ. इरफान ह्यूमन

सिंधु नदी (indus river) भारत की प्रमुख नदियों में से एक है, और दक्षिण एशिया (south asia) की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में गिनी जाती है। यह तिब्बत की मानसरोवर झील के पास कैलाश पर्वत से निकलती है और जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व पंजाब से होकर पाकिस्तान में प्रवेश करती है, जहां यह अरब सागर में मिलती है। इसकी कुल लंबाई लगभग 3180 किलोमीटर है।

1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के पानी के बंटवारे के लिए एक समझौता (Indus Water Treaty) हुआ था, जिसके तहत भारत को तीन पूर्वी नदियों (सतलुज, ब्यास, रावी) और पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, चिनाब, झेलम) के पानी का अधिकांश उपयोग करने का अधिकार मिला। भारत ने 23 अप्रैल, 2025 को सिंधु जल समझौते को निलंबित करने की घोषणा की है, जिसके तहत सिंधु और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) के पानी को पाकिस्तान की ओर बहने पर नियंत्रण करने की योजना बनाई गई है। कारण है पिछले दिनों हुआ पहलगाम आतंकी हमला(Pahalgam terror attack)।

सवाल यह उठता है कि क्या सिंधु नदी के पानी को रोका जा सकता है? भारत से पाकिस्तान जाने वाली सिंधु नदी के पानी को पूरी तरह रोकना तकनीकी(engineering challenges), कानूनी(legal complications), और भौगोलिक दृष्टिकोण (geopolitical limitations)  से बेहद जटिल है और वर्तमान में पूरी तरह संभव नहीं है। हालांकि, भारत की घोषणा के बाद पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने की संभावनाएं बढ़ी हैं। लेकिन हमें इसकी तकनीकी और बुनियादी ढांचे की सीमाओं को भी समझना होगा। साथ ही यदि ऐसा किया गया तो इससे पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का भी आकलन करना होगा।

सिंधु नदी और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) पर भारत के मौजूदा बांध, जैसे सलाल, बगलिहार, और किशनगंगा, अधिकतर ‘रन-ऑफ-दी-रिवर’ जलविद्युत परियोजनाएं (hydropower projects) हैं। इनकी भंडारण क्षमता बहुत कम (लगभग 3.6 अरब घन मीटर) है, जिससे पानी को लंबे समय तक रोकना मुश्किल है। उदाहरण के लिए, विशेषज्ञों के अनुसार, भारत अधिकतम 9 दिन तक पानी रोक सकता है। मतलब भारत के पास बड़े बांधों की कमी एक बाधा है।

पानी को पूरी तरह रोकने या मोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर बांध, जलाशय, और नहरों की आवश्यकता होगी। ऐसी परियोजनाओं को पूरा होने में 10 से 20 साल लग सकते हैं, क्योंकि यह भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में हैं। एक विशेष बात और, सिंधु नदी का भारी जल प्रवाह(monsoon river flow), खासकर मानसून के दौरान, रोकना असंभव है। बिना पर्याप्त बुनियादी ढांचे के पानी का अतिप्रवाह भारत में ही जलभराव या बाढ़ का कारण बन सकता है।

सिंधु जल समझौता (1960) (Indus Water Treaty 1960) के तहत भारत की पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम, चिनाब) मुख्य रूप से पाकिस्तान को आवंटित हैं। भारत इनका गैर-खर्चीला उपयोग (जैसे जलविद्युत) कर सकता है, लेकिन प्रवाह को रोकने की अनुमति नहीं थी। अप्रैल 2025 में समझौते के निलंबन के बाद, भारत को कानूनी रूप से बांध बनाने या पानी रोकने की छूट मिल गई है, लेकिन यह निलंबन अंतर्राष्ट्रीय दबाव (global diplomatic pressure) का विषय हो सकता है। विश्व बैंक, जो समझौते का मध्यस्थ है, एवं अन्य वैश्विक मंच इस निलंबन पर सवाल उठा सकते हैं। पाकिस्तान ने पानी रोकने को ‘युद्ध का कृत्य’ करार दिया है, जिससे क्षेत्रीय तनाव बढ़ सकता है।

सिंधु नदी का पानी रोकने में चीन एक बड़ी समस्या बन सकता है। पानी रोकने से भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ेगा, और चीन ब्रह्मपुत्र नदी (Brahmaputra River) पर पानी रोक सकता है (क्योंकि सिंधु का उद्गम तिब्बत में है), जिससे भारत की 30 प्रतिशत ताज़ा पानी और 44 प्रतिशत जलविद्युत क्षमता प्रभावित हो सकती है। साथ ही हिमालयी क्षेत्र की नाज़ुक पारिस्थितिकी (fragile Himalayan ecology) को और भी नुकसान हो सकता है।

इस दिशा में भारत की वर्तमान रणनीति की बात करें तो भारत ने समझौते को निलंबित करने के बाद त्रिस्तरीय योजना (अल्पकालिक, मध्यकालिक, दीर्घकालिक) (short-term, mid-term, long-term strategy) बनाई है, जिसमें शामिल हैं – मौजूदा बांधों की भंडारण क्षमता बढ़ाना, जल प्रवाह डैटा साझा करना और सिल्ट (गाद) (glaical silt management) को बिना चेतावनी के छोड़ना, जो पाकिस्तान में नुकसान कर सकता है। जम्मू-कश्मीर में नई जलविद्युत परियोजनाओं (जैसे रातले, किशनगंगा) को तेज़ करना, जिन्हें पहले पाकिस्तान ने रोका था। बड़े बांध और नहरें बनाकर पानी को मोड़ना, जैसे मरुसुदर परियोजना, लेकिन यह लंबा समय लेगा। यदि देखा जाए तो भारत ने पहले ही रावी नदी का पानी शाहपुर-कांडी बैराज के माध्यम से रोक लिया है, जो समझौते के तहत उसका अधिकार था। यह पानी अब जम्मू-कश्मीर और पंजाब में उपयोग हो रहा है।

भारत से पाकिस्तान जाने वाली सिंधु नदी के पानी को रोकने की कोशिश से कई गंभीर पर्यावरणीय जोखिम (environmental risks) उत्पन्न हो सकते हैं, जो भारत, पाकिस्तान और क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र पर व्यापक प्रभाव डाल सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं नदी के प्राकृतिक प्रवाह में व्यवधान की। बड़े बांध या जलाशय बनाकर पानी रोकने से सिंधु और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होगा। इसका दुष्प्रभाव यह होगा कि मछलियों (जैसे महसीर, हिल्सा) और अन्य जलीय प्रजातियों का प्रवास रुक सकता है, जिससे उनकी आबादी घटेगी। पाकिस्तान का सिंधु डेल्टा और भारत के जम्मू-कश्मीर, पंजाब की नदी पर निर्भर आर्द्रभूमि और डेल्टा क्षेत्र सूख सकते हैं, जिससे जैव-विविधता नष्ट (biodiversity loss) हो सकती है।

दूसरा सबसे बड़ा खतरा है भारत में जलभराव और बाढ़ का। भारत के पास पानी भंडारण की सीमित क्षमता है। पानी रोकने से मानसून के दौरान जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में जलभराव या बाढ़ हो सकती है, जिससे कृषि भूमि, बस्तियों, और बुनियादी ढांचे को बड़ा नुकसान हो सकता है। वहीं, मिट्टी का कटाव और गाद जमा होने से बांधों की दक्षता कम हो सकती है। यहां एक बड़ा खतरा जैव-विविधता के नुकसान का है, क्योंकि पानी का प्रवाह कम होने से नदी पर निर्भर प्रजातियां और उनके आवास नष्ट हो सकते हैं, जिससे इंडस रिवर डॉल्फिन (Indus River Dolphin – endangered species) (पाकिस्तान में लुप्तप्राय) और अन्य जलीय जीव विलुप्त हो सकते हैं। इसके साथ प्रवासी पक्षी (जैसे साइबेरियन क्रेन) और नदी किनारे की वनस्पतियां प्रभावित हो सकती हैं।

इस कृत्य से मिट्टी और जल की गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है, जिससे पानी रोकने से जलाशयों में गाद जमा होगी और नदी में प्रदूषण की सांद्रता बढ़ेगी। गाद जमा होने से भारत के जलाशयों की क्षमता और जल की गुणवत्ता कम होगी। वहीं, पाकिस्तान में कम पानी के कारण प्रदूषक (औद्योगिक और घरेलू) अधिक सघन होंगे, जिससे सिंचाई और पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित होगी। यह समस्या मिट्टी की उर्वरता में कमी तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि इससे अनेक स्वास्थ्य समस्याएं जन्म लेंगी। सिंधु नदी पर पाकिस्तान की 80 प्रतिशत कृषि और 90 प्रतिशत खाद्य उत्पादन निर्भर है। पानी कम होने से सूखा (drought) और मरुस्थलीकरण बढ़ेगा। सिंधु डेल्टा के सूखने के साथ समुद्र के खारे पानी का अतिक्रमण (saltwater intrusion) होगा, जिससे तटीय पारिस्थितिकी नष्ट होने की कगार पर पहुंच सकती है। इसके दीर्घकालिक जोखिम के चलते बड़े क्षेत्र बंजर हो सकते हैं।

सिंधु नदी हिमालयी ग्लेशियरों (Himalayan glaciers) पर निर्भर है, जो जलवायु परिवर्तन (climate change impact) के कारण तेज़ी से पिघल रहे हैं। अनुमान है कि 1900 से अब तक हिमालय के ग्लेशियर 30-50 प्रतिशत सिकुड़ चुके हैं, और 2100 तक 66 प्रतिशत तक गायब हो सकते हैं। पानी रोकने से जल प्रवाह और भी अनिश्चित हो जाएगा। बड़े बांध और जलाशय स्थानीय जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे हिमालयी क्षेत्र में तापमान बढ़ सकता है। इससे ग्लेशियर और तेज़ी से पिघलेंगे, जिससे दीर्घकालिक जल संकट उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि ग्लेशियरों का जल भंडार समाप्त हो जाएगा। जलाशयों में जैविक पदार्थों के सड़ने से मीथेन (एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस) (methane emission) का उत्सर्जन बढ़ेगा, जो जलवायु परिवर्तन को और तेज़ करेगा। इससे वैश्विक तापमान और हिमालयी पारिस्थितिकी पर दबाव में वृद्धि होगी।

सिंधु नदी का पानी रोकने के लिए बनाए जाने वाले बड़े-बड़े बांधों से भूकंपीय जोखिम पैदा हो सकता है; वैसे भी जम्मू-काश्मीर जैसे भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों में बड़े बांध बनाना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। भूकंप से बांध टूटने का खतरा बना रहेगा, जिससे बाढ़ और तबाही हो सकती है। जलाशयों का वज़न ‘प्रेरित भूकंप’ को ट्रिगर कर सकता है। यदि देखा जाए तो हिमालयी क्षेत्र में पहले से ही भूकंपीय गतिविधियां उच्च हैं। सारतः सिंधु नदी का पानी रोकना भारत और पकिस्तान, दोनों के लिए पर्यावरणीय और सामाजिक जोखिम (environmental and geopolitical risks) भरा सिद्ध हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पत्ती है या पतंगा?

हां दी गई तस्वीर को ध्यान से देखिए। आपके ख्याल से यह किसकी तस्वीर है? यदि आपका कहना है कि यह तो किसी सूखी सी, मुड़ी हुई पत्ती की तस्वीर है तो इस कीट की युक्ति सफल हुई है और आप धोखा खा गए हैं। वास्तव में, इस तस्वीर में जो दिखाई दे रहा है वह कोई पत्ती नहीं बल्कि एक तरह का पतंगा (Eudocima salaminia) (camouflage moth) है। इस पतंगे के पत्ती सरीखे शरीर का उद्देश्य ही है अपने शिकारियों को चकमा देना ([mimicry in insects], [natural camouflage]) और उनसे बचना। और, मज़ेदार बात यह है कि सिर्फ हम-आप या इसके शिकारी ही नहीं बल्कि एआई (कृत्रिम बुद्धि – artificial intelligence) भी इसके इस रूप-रंग के कारण धोखा खा गया और इसे पत्ती या पेड़ की छाल मान बैठा।

बताते चलें कि यह पत्तीरूपिया पतंगा मुख्यत: भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया (India and Southeast Asia insects) में पाया जाता है, और साइट्रस फलों (जैसे नींबू, संतरा, मौसंबी) को पसंद करता है।

अब आते हैं इस बात पर कि एआई ने इसे कहां देख लिया और कैसे धोखा खा गया। असल में शोधकर्ता डीप लर्निंग एआई (deep learning model, AI in biology) से छद्मावरणधारी छह तरह के पतंगों की 3-डी तस्वीर बनवाना चाह रहे थे। इसके लिए उन्होंने पैटर्न पहचानने में दक्षता रखने वाले एक डीप लर्निंग एआई को जानकारी के तौर पर उन्हीं पतंगों की 2-डी तस्वीरें दिखाई जिनकी 3-डी तस्वीर उन्हें बनवानी थी। इन्हीं छह पतंगों में Eudocima salaminia पतंगे की तस्वीरें भी शामिल थीं।

बस यहीं एआई पतंगे के शरीर का पैटर्न समझने में धोखा खा गया और उसने Eudocima salaminia की पतंगेनुमा तस्वीर बनाने की बजाय मुड़े हुए पत्ते या पेड़ की छाल जैसी 3-डी छवियां बना डालीं। यह खबर शोधकर्ताओं ने जर्नल ऑफ दी रॉयल सोसाइटी इंटरफेस (journal of royal society interface) में प्रकाशित की है।

अब आगे वैज्ञानिक एआई को अलग-अलग दिशा से आती रोशनी में खींची गई और अलग-अलग पृष्ठभूमि में खींची गई तस्वीरें दिखा कर देखना चाहते हैं कि क्या इन प्राकृतिक परिवेश (natural environments) में भी एआई धोखा खाता है या पत्ती और पतंगे में भेद कर पाता है। साथ ही वे शिकारियों को धोखा देने के उद्देश्य के अलावा अन्य उद्देश्य से छद्मावरण धारण करने वाले विभिन्न जीवों पर भी ऐसे प्रयोग करके देखना चाहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकृति के रहस्यों की खोज

सत्यवती एम. सिरसाट

सत्यवती एम. सिरसाट
(अक्टूबर 1925 – जुलाई 2010)

पने बारे में लिखने बैठें, तो बचपन से जुड़े अनुभव और यादें उभर ही आती हैं। मेरा जन्म कराची में हुआ था, और मेरे पिता के शिपिंग व्यवसाय के कारण हम कई देशों में भटक ते रहे। मेरे माता-पिता कट्टर थियोसॉफिस्ट (theosophist) थे इसलिए उन्होंने मुझे बेसेंट मेमोरियल स्कूल में भेजा, जिसे डॉ. जॉर्ज और रुक्मणी अरुंडेल चलाते थे। रुक्मणी ने कलाक्षेत्र में रहते हुए प्राचीन भारतीय कला (ancient indian art) और संगीत का पुनर्जागरण किया था। किशोरावस्था में मैंने पॉल डी क्रुइफ की किताब दी माइक्रोब हंटर्स पढ़ी, जिसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। औपचारिक शिक्षा के साथ मुझे सांस्कृतिक धरोहर का भी लाभ मिला। मैंने मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से माइक्रोबायोलॉजी (Microbiology Degree) में डिग्री प्राप्त की। पहली बार जब मैंने प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (Light Microscope) से ग्राम पॉज़िटिव व ग्राम नेगेटिव जीवाणुओं (Gram Positive and Gram Negative Bacteria) की मिली-जुली स्लाइड देखी तो मुझे ऐसा जज़बाती रोमांच हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती।

डिग्री प्राप्त करने के अगले ही दिन मैं बिना सोचे-समझे प्रयोगशाला के अध्यक्ष और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (Tata Memorial Hospital) के प्रमुख पैथोलॉजिस्ट (कैंसर और सम्बंधित रोग) (Pathologist for Cancer)  डॉ. वी. आर. खानोलकर के कार्यालय के बाहर खड़ी थी। न कोई फोन कॉल, न कोई अपॉइंटमेंट – मैं तो बस उनसे मुलाकात के इंतज़ार में खड़ी रही। करीब दो घंटे बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और लंबी बातचीत की। मुझे नहीं पता था कि यह उनका युवाओं का साक्षात्कार लेने का तरीका था। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी जिस बारे में बातचीत हुई है, क्या मैं वह सब संभाल पाऊंगी। मैंने युवा अक्खड़पन के साथ कहा, “बिलकुल!” और इस तरह मेरे विज्ञान के जीवन की शुरुआत हुई!

डॉ. खानोलकर बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक चिकित्सक थे जिनमें वैज्ञानिक सोच (Scientific Temperament)  तो स्वाभाविक रूप से थी। साथ ही वे कला प्रेमी, भाषाविद और कई भाषाओं के साहित्य के विद्वान भी थे। मैंने उनसे व्यापक वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण सीखा।

1948 में, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टाटा मेमोरियल के पैथोलॉजी विभाग को एक पूर्ण कैंसर अनुसंधान संस्थान (Cancer Research Institute)  बनाने का निर्णय लिया। एक वरिष्ठ शोध छात्र से ऊपर उठकर मैं इस नए शोध केंद्र की संस्थापक सदस्य बनी। हम तीन लोगों को विदेश भेजा गया ताकि हम जैव-चिकित्सा अनुसंधान (Biomedical Research) में उपयोगी नई तकनीकों जैसे जेनेटिक्स (Genetics), टिशू कल्चर (Tissue Culture) और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Electron Microscopy) सीखकर लौटें। विज्ञान के दिग्गजों – हैंसस सेलिये, अल्बर्ट ज़ेंट-गेओरगी, लायनस पॉलिंग, एलेक्स हैडो, चार्ल्स ओबरलिंग और विलियम ऐस्टबरी – की प्रयोगशालाओं में काम करके विज्ञान की विधियों के साथ-साथ, मैंने वह वैज्ञानिक तहजीब भी सीखी जो आधुनिक जैव-चिकित्सा अनुसंधान के लिए आवश्यक है।

लौटकर मैंने अल्ट्रास्ट्रक्चरल सायटोलॉजी और डायग्नोस्टिक मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी (Molecular Pathology) में भारत की पहली बायोमेडिकल प्रयोगशाला स्थापित की। इस केंद्र में विद्यार्थियों की भीड़ जुटने लगी, और यह अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। इस प्रयोगशाला में हमने कोशिका झिल्ली के सामान्य से असामान्य में परिवर्तित होने, कैंसर, जंक्शनल कॉम्प्लेक्स और कैंसर के फैलाव, वायरस, रक्त, स्तन और नाक के कैंसर पर अध्ययन किए। हमारा मुख्य ध्यान मुंह के कैंसर (Oral Cancer from Tobacco) की कैंसर-पूर्व स्थितियों (Oral Pre-Cancer), जैसे ल्यूकोप्लाकिया (Leukoplakia) और ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (Oral Submucous Fibrosis) तथा, सच कहूं तो, भारत में पान और तंबाकू के सेवन से फैलने वाले मुंह के कैंसर पर था। प्रयोगशाला में प्रशिक्षित शोधार्थियों को औपचारिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सीखने को मिला। जब बॉम्बे युनिवर्सिटी ने लाइफ साइंसेज़ में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किए तो यह एक वरदान था।

मैं हमेशा अस्पताल के गलियारों में पीड़ित मानवता के प्रति जागरूक रही। हम अपने काम के वैज्ञानिक पहलुओं (जैसे इलेक्ट्रॉन हिस्टोकेमिस्ट्री, इम्यून इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन ऑटोरेडियोग्राफी, क्रायोइलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी) के साथ-साथ मानवीय पक्ष को लेकर भी सचेत थे। कैंसर रोगियों के जीवन और उनकी मृत्यु की निकटता ने मुझे शांति अवेदना आश्रम – भारत का पहला हॉस्पाइस (India’s First Hospice) (मरणासन्न रोगियों का आश्रय) – शुरू करने के लिए प्रेरित किया। मैं इस संस्थान की संस्थापक ट्रस्टी और काउंसलर रही।

मैं यह बता चुकी हूं कि कैसे युवावस्था में रोमांस और यथार्थ ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे इस रास्ते पर धकेल दिया। जहां तक मार्गदर्शकों की बात है, मेरे पहले गुरु मेरे पिता थे। वे स्वभाव से एक अध्येता थे जिन्होंने शुरुआत सेंट ज़ेवियर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर के रूप में की थी, लेकिन बाद में शिपिंग के क्षेत्र में चले गए। वे खूब पढ़ते थे और संस्कृत के विद्वान थे। ये गुण उन्होंने अपने बच्चों को भी दिए। वे लेखक भी थे।

वैज्ञानिक जीवन में मेरे पहले मार्गदर्शक डॉ. खानोलकर थे, और दूसरे मेरे पति, डॉ. एम. वी. सिरसाट, जिन्होंने मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे बीच उम्र का काफी अंतर था, लेकिन वे मेरे दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने ऑन्को-पैथोलॉजिस्ट (कैंसर-निदान विशेषज्ञ) (Onco-Pathologist)  थे, जो सामान्य से रोगग्रस्त अवस्था की ओर संक्रमण, विशेषकर नियोप्लेसिया और दुर्दम्यता (मैलिगनेंसी) के संदर्भ में गहन जानकारी रखते थे। वे नौजवान पैथोलॉजिस्ट्स के बीच बेहद लोकप्रिय शिक्षक थे। जब भी मुझे इस भयावह बीमारी (Cancer Diagnosis) की जटिलताओं से जूझना पड़ता, वे इसे धैर्य और स्नेह से हल कर देते। हमारा यह साथ काफी अद्भुत था। उन्होंने मेरे शोध को हर संभव समर्थन दिया और मेरी पेशेवर उपलब्धियों पर गर्व महसूस किया।

क्या मैंने कभी अपना करियर बदलने पर विचार किया? नहीं, कभी नहीं! मैं कभी भी अपने पेशे को बदलने के बारे में सोच नहीं सकी। यह सिर्फ एक नौकरी नहीं थी, यह टाटा मेमोरियल सेंटर और पूरी दुनिया की प्रयोगशालाओं में मेरी साधना और तपस्या थी। यह मेरे काम के साथ एक “प्रेम कहानी” (Passion for Science Career) थी, जिसमें मैंने जो ज्ञान अर्जित किया, उसे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सैकड़ों विद्यार्थियों तक पहुंचाया।

सेवानिवृत्त के बाद भी मैं टाटा मेमोरियल सेंटर की मेडिकल एथिक्स कमेटी (Medical Ethics Committee)  के अध्यक्ष के रूप में काम करती रही। मैंने 17 साल तक भारतीय विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र में ‘प्राचीन ज्ञान और आधुनिक खोज’ पर काम किया। इस कार्य में संस्कृत के ज्ञान ने मेरी काफी मदद की। मैंने वृद्धात्रयी – चरक, सुश्रुत और वाग्भट में कैंसर वर्गीकरण (Cancer Classification in Ayurveda)  के एक प्रोजेक्ट पर काम किया। यह देखकर हैरानी होती है कि इन प्राचीन विद्वानों के विवरण आधुनिक विज्ञान से कितनी अच्छी तरह मेल खाते हैं। उन्हें विभिन्न ऊतकों (टिश्यू) के ट्यूमर और उनके जैविक व्यवहार, सौम्य और घातक (Benign and Malignant Tumors) (बेनाइन और मैलिग्नेंट) कैंसर तथा हड्डी और रक्त कैंसर (Bone and Blood Cancer) के बारे में गहरी जानकारी थी। उनके पास तो केवल मानव शरीर, मृत व्यक्ति का बारीकी से निरीक्षण तथा उनका अंतर्ज्ञान ही एकमात्र साधन था।

आखिर में युवा वैज्ञानिकों के लिए कुछ बातें: क्या आप एक सम्मानित वैज्ञानिक कहलाना चाहते हैं? जीवन के सिद्धांत सख्त होते हैं! अपने काम के प्रति ईमानदार रहें और खुद से सच्चे रहें। अनुशासन बनाए रखें। अपने साथी वैज्ञानिकों के काम का कभी अपमान न करें। सतर्क रहें – अपनी लॉगबुक या रिकॉर्ड में किसी पहले से तय सिद्धांत के अनुसार कभी हेरा-फेरी न करें। सबसे ज़रूरी, जीवन सीखने के लिए है – तो सीखते रहिए, सीखते रहिए और सीखते रहिए! आप बहुत रोमांचक यात्रा पर हैं – वह यात्रा है प्रकृति के रहस्यों की खोजबीन की यात्रा! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी संधि के लिए एकजुटता, अमेरिका बाहर

तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।

संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।

स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सुरक्षा

संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।

नए टीकों दवाओं को मंज़ूरी

संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।

छलकने को थामना

कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।

त्वरित डैटा साझेदारी

कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।

पहुंच में समता

पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।

संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing  – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।

एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।

लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।

संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।

इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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