चर्बी की कोशिकाओं से हड्डी का निर्माण

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर होना एक गंभीर स्थिति होती है (spinal fracture) जिससे ज़ख्मी व्यक्ति में पीठ में तीव्र दर्द, मांसपेशियों में जकड़न, पीठ का झुकना या टेढ़ा होना और अत्यंत गंभीर मामलों में मूत्र और मल नियंत्रण खो देना और निचले शरीर का लकवाग्रस्त होना भी देखा गया है। मरीज़ का उपचार इस बात पर निर्भर करता है कि चोट कितनी गंभीर है और मेरु-रज्जु (स्पाइनल कॉर्ड) क्षतिग्रस्त (spinal cord injury) हुई है या नहीं। साधारण चोट को तो लंबे उपचार के बाद ठीक किया जा सकता है लेकिन पूरी तरह कट गई या नष्ट हो गई मेरु-रज्जु को पुन: ठीक करना फिलहाल संभव नहीं है।

इस संदर्भ में हाल ही में ओसाका मेट्रोपोलिटन युनिवर्सिटी के शोधार्थियों ने शरीर के वसा ऊतक (एडिपोज़ ऊतक) से निकाली गई स्टेम कोशिकाओं का इस्तेमाल करके स्पाइनल फ्रैक्चर को ठीक करने का एक नया और असरदार तरीका विकसित किया है (stem cell therapy)। इंसानों में अस्थिछिद्रता (ऑस्टियोपोरोसिस) से होने वाले फ्रैक्चर (osteoporosis fracture) जैसी स्थिति जब चूहों में दोहराई गई तो एडिपोज़ ऊतक उपचार के बाद रीढ़ की हड्डी और नसें सफलतापूर्वक ठीक होती देखी गई। ऐसा उपचार बुज़ुर्गों में ऑस्टियोपोरोसिस की देखभाल और हड्डियों के पुन:निर्माण में क्रांति ला सकता है।

अस्थिछिद्रता 

यह हड्डियों की एक बहुत आम लेकिन गंभीर बीमारी है, जो वृद्धों में, खासकर महिलाओं में अधिक पाई जाती है। इस रोग में हड्डियों में मौजूद कैल्शियम और खनिज कम हो जाते हैं जिससे हड्डियां धीरे-धीरे कमज़ोर और खोखली (bone density loss) हो जाती हैं, एवं पतली और नाज़ुक होकर आसानी से टूट जाती हैं। वृद्धों की आबादी बढ़ने के साथ अस्थिछिद्रता की वजह से होने वाले फ्रैक्चर, रीढ़ की हड्डी के फ्रैक्चर के मामलों (osteoporosis treatment) में भी वृद्धि दिखती है। इन चोटों से लंबे समय तक विकलांगता हो सकती है और जीवन की गुणवत्ता बहुत कम हो सकती है; इसलिए सुरक्षित और ज़्यादा असरदार इलाज की ज़रूरत है।

मेसेनकाइमल स्टेम कोशिकाएं

स्टेम कोशिकाएं ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो शरीर में किसी भी प्रकार की विशेष कोशिका (जैसे हड्डी, मांसपेशी, तंत्रिका, रक्त आदि) में बदलने की क्षमता (regenerative medicine) रखती है। मेसेनकाइमल स्टेम कोशिकाएं हड्डी, मांसपेशी, उपास्थि, और रक्तवाहिनी जैसी कई कोशिकाओं में बदलने की क्षमता रखती हैं। इन्हें शरीर की चर्बी से प्राप्त किया जाता है। इनका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इन्हें काफी संख्या में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है और प्रत्यारोपण के बाद शरीर इन्हें अस्वीकार भी नहीं करता।

हड्डी की मरम्मत

वसा ऊतक से मिलने वाली स्टेम कोशिकाओं में हड्डी की क्षति को ठीक करने की ज़बरदस्त क्षमता (bone regeneration) होती है। ये बहुसक्षम कोशिकाएं हड्डी समेत कई तरह के ऊतकों में बदल सकती हैं। सर्वप्रथम शरीर के किसी हिस्से (जैसे पेट या जांघ) से चर्बी निकाली जाती है। फिर चर्बी में से स्टेम कोशिकाओं को अलग किया जाता है और प्रयोगशाला में संख्या वृद्धि की जाती है। अब इन स्टेम कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त हड्डी में इंजेक्ट किया जाता है, या एक ढांचे के साथ लगाया जाता है। ये कोशिकाएं हड्डी जैसी कोशिकाओं में बदलकर नई हड्डी का निर्माण करती हैं।

टोकियो के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ मेडिसिन के विद्यार्थी यूटा सवाडा और डॉ. शिंजी ताकाहाशी के नेतृत्व में, ओसाका रिसर्च टीम ने एडिपोज़ टिश्यू से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं को β-ट्राइकैल्शियम फॉस्फेट (β-TCP biomaterial) के साथ मिलाया, जो हड्डी के पुनर्निर्माण में आम तौर पर इस्तेमाल होने वाला पदार्थ है। जब इस मिश्रण को रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर-ग्रस्त चूहों पर लगाया गया, तो हड्डी के ठीक होने और मज़बूती में काफी सुधार हुआ (spinal repair improvement)। इन स्टेम कोशिकाओं के साथ कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएं करने पर उनकी प्रभाविता बढ़ गई। जैसे, जब इन कोशिकाओं की वृद्धि द्वारा गोलाकार संरचना (स्फेरॉइड) बनाई गई तो उनकी मरम्मत की क्षमता बेहतर रही।

चर्बी की कोशिकाओं से हड्डी का निर्माण सुरक्षित, सस्ता और अत्यधिक संभावनाओं वाला तरीका है (adipose stem cells)। भविष्य में यह फ्रैक्चर, अस्थिछिद्रता, हड्डी क्षति, और स्पाइनल इंजरी के उपचार में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बहुउपयोगी गन्ना

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में ओलिवियर गार्समूर और उनके साथियों ने सेल पत्रिका में एक शोधपत्र प्रकाशित किया है। इसका शीर्षक है ‘जंगली गन्ना प्रजातियों के जीनोमिक चिन्ह गन्ने को पालतू बनाने, उसके विविधिकरण और उसकी आधुनिक खेती के बारे में बताते हैं (The genomic footprints of wild Saccharum species trace domestication, diversification, and modern breeding of sugarcane)’। इस शोध में ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, चीन, फ्रांस, फ्रेंच पोलिनेशिया, भारत, जापान और यू.एस. की गन्ने की 390 किस्मों का जीनोमिक विश्लेषण किया गया।

ये पौधे कई तरह के जीन्स के संकर (हाइब्रिड) थे, जिनमें कई क्रोमोसोम एकाधिक (पॉलीप्लॉइडी) थे। ऐसी पॉलीप्लॉइड (polyploid crops) किस्में मनुष्यों द्वारा व्यावसायिक निर्यात की वजह से बनीं। मनुष्य गन्नों को देश के अलग-अलग राज्यों से लेकर अफगानिस्तान, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों में निर्यात करते और बेचते थे।

उन्होंने यह भी बताया कि एक ओर तो गन्ना एक मुनाफे की फसल है, जिसका इस्तेमाल इसकी मिठास के कारण किया जाता है। दूसरी ओर, इसका इस्तेमाल बायोएथेनॉल बनाने (bioethanol production) के लिए भी किया जाता है, जिसे निजी, सार्वजनिक और व्यावसायिक वाहनों के जीवाश्म ईंधन के एक स्वच्छ विकल्प के तौर पर बनाया जाता है।

भारत में गन्ना

भारत में गन्ने की पैदावार बहुत ज़्यादा होती है, खासकर 13 राज्यों में। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और गुजरात 2018-19 से 2023-24 तक गन्ने के शीर्ष पांच उत्पादक राज्य रहे। 2024-2025 में करीब 4400 लाख टन गन्ने का उत्पादन (India sugarcane production) हुआ था।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भी देश भर में कई शुगर रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाए हैं जो गन्ने की किस्मों और पैदावार को बेहतर बनाने (sugarcane breeding) के लिए पारंपरिक वानस्पतिक तरीकों और आणविक जीव विज्ञान के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से तमिलनाडु के कोयंबटूर में स्थित सबसे पुराने शुगरकेन ब्रीडिंग इंस्टीट्यूट ने गन्नों में जेनेटिक विविधता देखने के लिए भारत भर के चार अलग-अलग मूल के गन्नों का आणविक जेनेटिक विश्लेषण किया था। 2006 में किए गए इस विश्लेषण के नतीजे जेनेटिक रिसोर्सेज़ एंड क्रॉप इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुए थे।

शुरुआत में वर्णित गार्समूर के शोध में विश्लेषण के लिए पश्चिमी देशों और चीन के गन्नों के नमूने लिए गए थे। वहीं कोयंबटूर के शोधकर्ताओं ने अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के नमूनों का विश्लेषण किया। जेनेटिक विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि अरुणाचल प्रदेश में गन्ने की किस्मों में सबसे अधिक विविधता थी (genetic diversity crops)।

2018 में, 3 बायोटेक में प्रकाशित एक पेपर में लखनऊ स्थित भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने देश के उपोष्णकटिबंधीय हिस्सों की गन्ने की 92 किस्मों की जेनेटिक विविधता और आबादी की संरचना का भी विश्लेषण किया (molecular markers) । इसके नतीजे भी भारत में कई तरह के गन्ने की प्रचुरता की ओर इशारा करते हैं।

चीन, भारत और पाकिस्तान में पारंपरिक औषधि (traditional medicine) बनाने वाले भी अपनी चिकित्सा में गन्ने का इस्तेमाल करते रहे हैं। इस संदर्भ में हाल ही में चीन के शोधकर्ताओं द्वारा एक समीक्षपत्र प्रकाशित किया गया है, जिसका शीर्षक है ‘गन्ने का रासायनिक संगठन और जैविक गतिविधियां: संभावित औषधीय महत्व एवं निर्वहनीय विकास’, (The chemical composition and biological activities of sugarcane: Potential medicinal value and sustainable development)। यह पेपर बताता है कि पारंपरिक चीनी औषधियों के स्रोत टिकाऊ विकास के मामले में गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं, ये स्रोत घट रहे हैं। और, यह समस्या प्राकृतिक पर्यावरण में हो रहे बदलावों और मनुष्यों द्वारा की जा रही अनियंत्रित कटाई से और बढ़ रही है।

इसलिए, पारंपरिक चीनी औषधियों के स्रोतों के रखरखाव और विकास के लिए उन स्रोतों का अध्ययन करना बहुत ज़रूरी है जिनमें औषधीय महत्व और कृषि क्षमता है, साथ ही उनके नए इस्तेमाल खोजना भी ज़रूरी है। अपनी समीक्षा में, लेखकों ने गन्ने के रासायनिक संगठन और इसकी संभावित जैवगतिविधियों पर चर्चा की है, चिकित्सा में इसके उपयोग को समझा है, और भविष्य के शोध की संभावित दिशा बताई है।

गार्समूर और उनके साथियों ने भी बताया है, गन्ने का इस्तेमाल बायोएथेनॉल बनाने के लिए भी किया जाता है (green fuel), जो कार और बस जैसी सवारी गाड़ियों के साथ-साथ ट्रकों के डीज़ल या पेट्रोल का एक हरित विकल्प है। भारत ने भी बायोएथेनॉल बनाने के लिए गन्ने के अपशिष्ट, चावल और गेहूं का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। पेट्रोलियम एंड नेचुरल गैस मंत्रालय ने असम में बायोएथेनॉल बनाना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर, हम गन्ने पर आधारित एक हरित भारत की उम्मीद करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या दुनिया चरम कार्बन उत्सर्जन के करीब है?

ज़ुबैर सिद्दिकी

ह तो हम जानते हैं कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ रहा है। वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते आए हैं कि जब तक हर साल वातावरण में और अधिक कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जुड़ती जाएंगी, पृथ्वी गर्म (global warming) होती जाएगी।

लेकिन हाल ही में एक अप्रत्याशित संकेत मिला है — बहुत छोटा, लेकिन इतना महत्वपूर्ण कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। उपग्रह और ऊर्जा उत्पादन डैटा की मदद से रीयल-टाइम उत्सर्जन ट्रैक करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समूह Climate TRACE ने साल की शुरुआत में वैश्विक उत्सर्जन में हल्की गिरावट (real-time emissions) दर्ज की है। इस वर्ष जनवरी, फरवरी और मार्च में उत्सर्जन पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में थोड़ा कम पाया गया। वैसे तो यह बदलाव मामूली लग सकता है, लेकिन लंबे समय से ऊपर जाते उत्सर्जन ग्राफ में इस तरह की छोटी-सी गिरावट भी किसी बड़े परिवर्तन का संकेत हो सकती है।

वर्षों से यह क्षण दूर की कौड़ी लगता था। वैश्विक उत्सर्जन हर साल औसतन 1 प्रतिशत बढ़ता रहा है, जबकि कई देशों ने बड़े कटौती के वादे (climate targets) किए थे। युरोप और अमेरिका में उत्सर्जन कई दशक पहले ही चरम पर पहुंचकर घटने लगा था, लेकिन दुनिया का कुल उत्सर्जन लगातार बढ़ता रहा, खासकर चीन के कारण।

गौरतलब है कि चीन की विशाल उद्योग व्यवस्था और ऊर्जा ज़रूरतें दुनिया में सबसे अधिक हैं (China emissions)। 2015 के पेरिस समझौते के बाद से वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा चीन अकेले जोड़ चुका है। जब तक चीन का उत्सर्जन बढ़ता रहता, तब तक दुनिया के कुल उत्सर्जन की चरम आना संभव ही नहीं था।

लेकिन हाल के वर्षों में चीन के इतिहास का सबसे तेज़ और व्यापक स्वच्छ ऊर्जा (renewable energy China) विस्तार हो रहा है। सिर्फ पिछले साल चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा पर 625 अरब डॉलर खर्च किए जो अमेरिका और युरोपीय संघ दोनों के संयुक्त निवेश से भी अधिक है। विशाल सौर ऊर्जा परियोजनाएं रेगिस्तानों में दूर-दूर तक फैली हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र, बैटरी कारखाने, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाले कारखाने और हाई-वोल्टेज बिजली नेटवर्क तेज़ गति से फैल रहे हैं।

चीन में बदलाव इतनी तेज़ी से हो रहा है कि साल की पहली छमाही में सिर्फ सौर ऊर्जा की बढ़ोतरी (solar power growth) ही देश की सारी अतिरिक्त बिजली ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी थी। इसका मतलब है कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए चीन को अतिरिक्त कोयला संयंत्र नहीं बनाने पड़े। चीन के लोग भी इस बदलाव को तेज़ी से अपना रहे हैं। दुनिया में बनने वाली इलेक्ट्रिक कारों में से आधी से अधिक अब चीन में खरीदी जाती हैं। हर महीने 10 लाख से अधिक ईवी बिक रही हैं।

अगर शुरुआती आंकड़े सच में एक नए रुझान की शुरुआत दिखा रहे हैं, तो संभव है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन का चरम पहले ही आ चुका हो या फिर सिर्फ एक–दो साल दूर (emission peak) हो।

लेकिन ‘चरम कार्बन’ पहचानना आसान नहीं है। ग्रीनहाउस गैसों (GHG measurement) का सही-सही हिसाब रखना एक कठिन काम है। वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को मापना तो सरल है — हवाई स्थित मौना लोआ ज्वालामुखी या दक्षिण ध्रुव जैसे दूर-दराज़ स्टेशनों पर लगे सेंसर यह जानकारी दे देते हैं। लेकिन यह पता लगाना मुश्किल है कि हर साल इंसान कुल कितना उत्सर्जन कर रहे हैं।

कार्बन उत्सर्जन कई बिखरे हुए स्रोतों से आता है — बिजलीघर, फैक्टरियां, कारें, ट्रक, हवाई जहाज़, जहाज़, खेती, पशुपालन, जंगल, कचरा-घाट, निर्माण कार्य, भारी उद्योग और प्राकृतिक प्रक्रियाएं जैसे जंगल की आग या बर्फीली जमीन (पर्माफ्रॉस्ट) का पिघलना (carbon sources)। इनमें से कई स्रोत बहुत छोटे होते हैं, कुछ इतने बिखरे होते हैं कि पकड़ में नहीं आते, और कुछ तो देशों द्वारा जानबूझकर कम दिखाए जाते हैं।

कई दशकों तक वैज्ञानिक उत्सर्जन का अनुमान लगाने के लिए मुख्य रूप से ऊर्जा खपत के राष्ट्रीय आंकड़ों, जीवाश्म ईंधन के उपयोग, औद्योगिक उत्पादन और आर्थिक मॉडलों पर निर्भर रहे हैं (fossil fuel data)। इस पद्धति की शुरुआत वैज्ञानिक चार्ल्स कीलिंग ने की थी, जिन्होंने प्रसिद्ध ‘कीलिंग कर्व’ बनाया जो वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड की लगातार वृद्धि दर्शाता है। यह तरीका उपयोगी था, लेकिन पूर्ण नहीं।

1970 और 1980 के दशक में राल्फ रॉटी और ग्रेग मारलैंड जैसे शोधकर्ताओं ने वैश्विक उत्सर्जन के शुरुआती डैटाबेस (emission database) बनाए, जो लंबे समय तक मानक माने गए। लेकिन इन आंकड़ों में बड़े अंतर हो सकते थे और इन्हें अद्यतन करने में कई साल लग जाते थे, क्योंकि देशों को सही ऊर्जा आंकड़े भेजने में बहुत समय लगता था।

2017 में, अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने अचानक कार्बन डाईऑक्साइड इन्फर्मेशन एनालिसिस सेंटर को बंद कर दिया, जो एक बड़ा और भरोसेमंद स्रोत था। इसके बंद होते ही एक बड़ा खालीपन (climate data loss) पैदा हो गया। तब से स्वतंत्र शोधकर्ता इस कमी को भरने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में उत्सर्जन निगरानी में एक तरह की क्रांति आई है।

झू लियू द्वारा स्थापित कार्बन मॉनिटर में एक नया तरीका अपनाया गया, जिसमें रियल टाइम डैटा को लिया जाता है; जैसे हर घंटे की बिजली-ग्रिड जानकारी, GPS से ट्रैफिक का स्तर, हवाई यात्रा का डैटा, और औद्योगिक गतिविधि के संकेत। इन सभी के आधार पर लगभग हर महीने वैश्विक उत्सर्जन का अनुमान लगाया (real-time climate data) जाता है।

इसी दौरान Climate TRACE नाम का एक और प्रोजेक्ट सामने आया, जिसने उत्सर्जन मापने का बिल्कुल अलग लेकिन पूरक तरीका अपनाया। यह उपग्रह तस्वीरों, तापीय डैटा, एआई मॉडल और मशीन लर्निंग का उपयोग (AI emissions tracking) करता है। हज़ारों ज्ञात प्रदूषण स्रोतों के आधार पर प्रशिक्षित यह प्रणाली बिजली संयंत्रों, स्टील फैक्ट्रियों, कचरा भूमि, पशुपालन, जंगल कटाई, यहां तक कि धान के खेतों से होने वाले उत्सर्जन तक को पहचानने की कोशिश करती है। यह अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी वैश्विक उत्सर्जन-निगरानी प्रोजेक्ट माना जाता है।

हालांकि Climate TRACE की तकनीक शक्तिशाली है, लेकिन यह सटीक नहीं है। कभी-कभी इसमें गलतियां (satellite errors) भी होती हैं। जैसे नॉर्वे के एक तेल प्लेटफॉर्म को गलती से प्रदूषण स्रोत मान लेना, जबकि वह उत्सर्जन करता ही नहीं; या ओस्लो के पास उस लैंडफिल में मीथेन दिखा देना जहां जैविक कचरा डालना पहले ही बंद है। इस तकनीक में लगातार सुधार हो रहा है।

बहरहाल, गिरावट के आंकड़ों को लेकर वैज्ञानिक सावधान (climate uncertainty) रहना चाहते हैं। पहले भी कई बार ऐसी अस्थायी गिरावटों ने भ्रम पैदा किया है। पिछले दशक की शुरुआत में, जब कोयले की खपत थोड़े समय के लिए घटी थी, कुछ लोगों को लगा था कि चरम उत्सर्जन आ गया है। लेकिन जल्द ही एशिया में आर्थिक वृद्धि के चलते कोयले की खपत फिर बढ़ गई।

लेकिन इस बार स्थिति अलग लग रही है। अब न सिर्फ कुछ बड़े क्षेत्रों में उत्सर्जन स्थिर होने लगा है, बल्कि दुनिया की ऊर्जा व्यवस्था में एक गहरा और टिकाऊ बदलाव (energy transition) दिख रहा है – खासकर चीन की तेज़ स्वच्छ ऊर्जा क्रांति के कारण। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन का रियल-एस्टेट सेक्टर अब धीमा पड़ गया है जो पहले स्टील और सीमेंट का सबसे बड़ा उपभोक्ता था और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का बड़ा कारण भी था।

उधर भारत भी धीरे-धीरे ही सही लेकिन स्थिर बदलाव की ओर बढ़ रहा है। सौर तथा पवन ऊर्जा की बढ़ती क्षमता (renewable energy India) की वजह से इस साल की पहली छमाही में भारत के बिजली क्षेत्र में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन नहीं बढ़ा है। आज देश की लगभग एक-तिहाई बिजली नवीकरणीय और परमाणु ऊर्जा से आती है।

वहीं, अमेरिका में राजनीतिक नीतियों में बदलाव के चलते उत्सर्जन में उतार–चढ़ाव देखने को मिला है। हाल ही में वहां जीवाश्म ईंधनों का उत्पादन बढ़ा है, मीथेन उत्सर्जन के नियम ढीले किए गए हैं और तेल–गैस निर्यात के ढांचे का विस्तार हुआ है। नतीजतन, अनुमान है कि इस वर्ष अमेरिकी उत्सर्जन लगभग 2.7 प्रतिशत बढ़ (US emissions rise) गया है।

इन सब जटिलताओं के बावजूद वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया एक ऐतिहासिक मोड़ (global turning point) के बिल्कुल करीब है। अगर चीन का उत्सर्जन सचमुच 2024 या 2025 में अपने चरम पर पहुंचकर घटने लगे तो वैश्विक उत्सर्जन भी जल्द ही स्थिर हो सकता है। यही कारण है कि ब्राज़ील में हुए हालिया संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में चीन की ऊर्जा नीति पर विशेष ध्यान रहा।

फिर भी मानव-जनित उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंचने के बाद भी यह ज़रूरी नहीं है कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 persistence) तुरंत स्थिर हो जाए। जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्रीनहाउस गैसों के ‘प्राकृतिक’ स्रोतों से उत्सर्जन में और तेज़ी आ रही है। जंगल अब पहले से ज़्यादा बार और ज़्यादा तीव्रता से जल रहे हैं, जिससे भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है। साइबेरिया और आर्कटिक में जब परमाफ्रॉस्ट पिघलती है, तो उसमें फंसी हुई मीथेन हवा में पहुंच जाती है। उष्णकटिबंधीय आर्द्रभूमियां गर्म होती हैं तो वे भी अधिक मीथेन छोड़ने लगती हैं। समुद्र अब तक दुनिया की कार्बन डाईऑक्साइड का बड़ा हिस्सा सोखते थे, लेकिन गर्म होने और प्रवाह पैटर्न बदलने के कारण पहले जितना कार्बन नहीं सोख पा रहे हैं।

पिछला साल इसका साफ उदाहरण था जिसमें मानव-उत्सर्जन में हल्की-सी बढ़ोतरी हुई, लेकिन वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गई। इसका मतलब है कि धरती की प्राकृतिक सुरक्षा व्यवस्था यानी जंगल, मिट्टी और समुद्र जो अब तक कार्बन को सोख कर हमें बचाते रहे हैं, अब जलवायु परिवर्तन के दबाव में कमज़ोर पड़ रहे हैं।

इसलिए दुनिया को उत्सर्जन को बहुत तेज़ी से और वर्तमान रफ्तार से कहीं अधिक गति से घटाना (net zero path) होगा ताकि कमज़ोर हो रहे प्राकृतिक कार्बन-सिंक की भरपाई की जा सके।

सही मायनों में असली चुनौती चरम के बाद शुरू होती है। उत्सर्जन को धीरे-धीरे शून्य की ओर ले जाना है। इसके लिए सिर्फ पवन और सौर ऊर्जा बढ़ाना ही काफी नहीं होगा, बल्कि हर क्षेत्र में भारी बदलाव (decarbonization) करने होंगे, जैसे:

  • परिवहन को पूरी तरह बिजली आधारित बनाना होगा,
  • सीमेंट और स्टील जैसे भारी उद्योगों को कम-कार्बन तकनीक अपनानी होगी,
  • इमारतों को अधिक ऊर्जा-कुशल बनाना होगा,
  • कृषि क्षेत्र का मीथेन उत्सर्जन घटाना होगा,
  • जंगलों को संरक्षित करना और उनका क्षेत्र बढ़ाना होगा।

इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, बड़े निवेश, राजनीतिक स्थिरता और नई तकनीकों (climate action) की ज़रूरत पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

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प्यास लगना और बुझना

भीषण गर्मी में एक गिलास ठंडा पानी जितना सुकून (thirst relief) देता है, उसका कोई सानी नहीं। पहला घूंट हलक में जाते ही राहत मिलती है। तो इस राहत का राज़ क्या है?

कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जीव वैज्ञानिक युकी ओका इस बात का अध्ययन करते हैं कि दिमाग शरीर में विभिन्न चीज़ों का संतुलन (होमियोस्टेसिस – homeostasis) कैसे बनाए रखता है, खासकर तरल पदार्थों का संतुलन कैसे बनाता है और इसके लिए पानी व खनिज लवणों का तालमेल कैसे बनाता (brain hydration mechanism) है।

दरअसल, हमारे शरीर में एक व्यवस्था है जो हमारी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति का ख्याल रखती है। प्यास को बुझाना इनमें से एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था की एक खासियत है कि इसके साथ ही पारितोषिक तंत्र जुड़ा होता है ताकि तरल संतुलन बना रहे। दिमाग में मौजूद प्यास तंत्रिका हमारे शरीर को एक स्पष्ट संकेत प्रेषित करती है – सूखा गला, और हलक के पिछले हिस्से में खराश जैसी संवेदना (thirst signal)। इस संवेदना का मकसद यह है कि आप पानी पीएं और खून में लवणों की सांद्रता सही स्तर पर पहुंच जाए।

पानी का पहला घूंट हलक में उतरते ही एक संतुष्टि का एहसास होता है क्योंकि ऐसा होते ही दिमाग में डोपामाइन का सैलाब आता है। डोपामाइन एक तंत्रिका-संप्रेषण रसायन है जो अच्छा महसूस (dopamine release) कराने का काम करता है। यह संतुष्टि का एहसास पानी गटकते ही महसूस होता है, हालांकि पानी पीने के 15-30 मिनट बाद ही खून पतला होने लगता है, उसकी सांद्रता सही स्तर पर पहुंचने लगती है।

युकी ओका कहते हैं कि इसका मतलब है कि पानी पीने से मिलने वाली तत्काल संतुष्टि और खून की सांद्रता का सही स्तर पर पहुंचना दो अलग-अलग एहसास (hydration process) हैं।

ओका के समूह ने प्यास बुझाने से सम्बंधित दो तरह की तंत्रिकाएं पहचानी हैं। एक होती हैं जो पानी गटकते ही सक्रिय हो जाती हैं और डोपामाइन मुक्त (dopamine neurons) करती है। दूसरी तंत्रिकाएं आंतों में पानी की सांद्रता (gut sensors) में हो रहे परिवर्तनों का ध्यान रखती हैं।

ओका ने पाया कि प्यास के पूरी तरह बुझने के लिए ज़रूरी है कि ये दोनों किस्म की तंत्रिकाएं सक्रिय हों। दोनों के सक्रिय होने पर ही पानी पीने का पारितोषिक संकेत मिलता है और पर्याप्त पानी पीने के बाद ही सांद्रता ठीक होने का संकेत मिलता (dual thirst pathway) है।

इन दो व्यवस्थाओं के सहयोगी कार्य को जांचने के लिए ओका के दल ने एक प्रयोग किया। उन्होंने पानी को सीधा आंत में पहुंचा दिया। ऐसा करने पर गटकने से मिलने वाला पारितोषिक संकेत नहीं मिला क्योंकि डोपामाइन मुक्त हुआ ही नहीं। यानी घूंट-दर-घूंट पानी मिलने पर दिमाग एक जश्न मनाता है (reward system) और प्यास तो बुझती ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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धरती की सीमाएं: लांघना नहीं था, हमने लांघ दिया

सीमा मुंडोली

में सुरक्षित क्या महसूस कराता है? भरोसेमंद दोस्तों और परिवार का साथ। एक ऐसा जाना-पहचाना माहौल (safe environment) जो हमें निश्चिंत रखता है और जहां हमारे द्वारा तय की गई सीमा रेखाओं/हदों का सम्मान (personal boundaries) होता है।

आखिरी बात हमारे एकमात्र घर (planet Earth) धरती के लिए भी सच है।

धरती पर जीवन लगभग 3.7 अरब साल पहले एक-कोशिकीय जीव के रूप में शुरू हुआ था। लेकिन हमें – होमो सेपियंस को – पृथ्वी पर अस्तित्व में आने में बहुत ज़्यादा समय लगा। हम महज़ 3,00,000 साल पहले ही अफ्रीका में विकसित हुए। उसके बाद मनुष्य अफ्रीका से निकलकर तमाम महाद्वीपों में फैल गए। हिमयुग के बाद, पिछले 12,000 साल – होलोसीन काल (Holocene epoch)– वह समय था जब खेती की शुरुआत, शहरों के बसने और तेज़ी से आबादी बढ़ने के साथ बड़े-बड़े बदलाव हुए। होलोसीन के दौरान स्थिर मौसम (stable climate) ने मनुष्य के जीवन और नैसर्गिक प्रणाली को फलने-फूलने में मदद की।

फिर औद्योगिक क्रांति आई, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल (industrial pollution) बढ़ा और प्रदूषण जैसे बुरे पर्यावरणीय असर भी हुए। एक बार जब हम औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 के दशक तक, यह स्पष्ट होता गया था कि सालों की औद्योगिक गतिविधियों ने प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान (environmental degradation) पहुंचाया है – नदियां प्रदूषित हुई हैं, हवा ज़हरीली हुई है, जंगल कट गए हैं और समंदरों की हालत खराब हो गई है।

किंतु सवाल बना रहा: कितना नुकसान हद से ज़्यादा है?

2009 में, जोहान रॉकस्ट्रॉम ने अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ग्रह पर मनुष्य के प्रभाव के पैमाने का अंदाज़ा लगाने के लिए प्लेनेटरी बाउंड्रीज़ (Planetary Boundaries) फ्रेमवर्क का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नौ सीमा रेखाओं (प्लेनेटरी बाउंड्रीज़- environmental thresholds) की पहचान की, जिन्हें अगर लांघा गया तो पृथ्वी की कार्यप्रणाली डगमगा सकती है। हद में रहने से यह सुनिश्चित होगा कि हम एक सुरक्षित कामकाजी दायरे में रहेंगे। ये नौ सीमा रेखाएं हैं: जलवायु परिवर्तन, जैवमण्डल समग्रता, भू-प्रणाली परिवर्तन, मीठे पानी में बदलाव, जैव भू-रसायन चक्र, समुद्र अम्लीकरण, वायुमंडलीय एरोसोल (निलंबित कणीय पदार्थ) का भार, समतापमंडल में ओज़ोन क्षरण और नवीन कारक।

इनमें से हर सीमा के लिए वैज्ञानिकों ने एक या दो मात्रात्मक परिवर्ती मानक तय किए, जिनके आधार पर हम यह जांच सकते हैं कि पृथ्वी की वह प्रणाली क्या सुरक्षित सीमा के अंदर है। मसलन, जलवायु परिवर्तन की सीमा में परिवर्ती कारकों में से एक है कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (CO2 concentration), जिसे पार्ट्स पर मिलियन (ppm) में मापा जाता है। इसकी सांद्रता की सीमा 350ppm तय की गई है। और कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता इससे अधिक होने या सीमा पार करने का मतलब है कि ग्रह की प्रणाली पर खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।

जब 2009 में यह फ्रेमवर्क पहली बार पेश किया गया था, तब ग्रह की तीन हदों – जलवायु परिवर्तन, जैवमंडल समग्रता और भू-जैवरसायन चक्र – का उल्लंघन हो भी चुका था। यह एक चेतावनी थी कि ग्रह स्तर पर हम मुश्किल में थे। 2015 तक, भू-प्रणाली बदलाव का उल्लंघन हो चुका था। 2023 में दो और सीमाएं उल्लंघन की सूची में जुड़ गई थीं – नए कारक और मीठा पानी परिवर्तन (freshwater change)। और अब, सितंबर 2025 में हमने एक और सीमा को लांघ दिया है – समुद्र अम्लीकरण (तालिका देखें) (ocean acidification) ये सीमाएं 15 साल पूर्व पहली बार इस उम्मीद के साथ प्रस्तावित की गई थीं कि हमें यह समझने में मदद मिले कि मनुष्य की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या असर पड़ रहा है, और हमें तुरंत सुधार के लिए कदम उठाने का तकाज़ा मिले। तब से हम नौ में से सात सीमाओं का उल्लंघन कर चुके हैं।

इसका क्या मतलब है? सीधे शब्दों में: हमारी पृथ्वी अब स्वस्थ नहीं रही (planetary health)

फिलहाल वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 423ppm है, जो 350ppm की सुरक्षित सीमा से बहुत अधिक है। नतीजतन पृथ्वी तेज़ी से गर्म हो रही है, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्ती इलाके खतरे में हैं।

जैवमंडल समग्रता (biosphere integrity) सीमा भी बहुत ज़्यादा खतरे में है। सजीवों के विलुप्त होने की दर पहले से दस गुना अधिक है, और दुनिया भर के कई पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ज़्यादा खतरे में हैं। संभव है कि हमारे द्वारा खोजे जाने से पहले ही कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। अकेले 2024 में, पक्षियों की कई प्रजातियां (जैसे स्लेंडर-बिल्ड कर्ल्यू और ओउ), मछलियों की प्रजातियां (जैसे थ्रेसियन शैड और चीम व्हाइटफिश), और अकशेरुकी जीव (जैसे कैप्टन कुक्स बीन स्नेल) विलुप्त घोषित कर दिए गए। 2024 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 सालों में जंगली जानवरों की आबादी में 73 प्रतिशत की भारी गिरावट (biodiversity loss) आई है – इस मामले में समुद्री, थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र समान रूप से प्रभावित हैं। दुखद तथ्य यह है कि विलुप्ति निश्चित है और इसे पलटा नहीं जा सकता। विलुप्त होने से जेनेटिक विविधता खत्म हो जाती है और पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यात्मक क्षमता कम हो जाती है। कितना दुखद है कि हम उन प्रजातियों को फिर कभी नहीं देख पाएंगे जो कभी इस ग्रह पर हमारे साथ रहती थी।

हाल ही में समुद्र के अम्लीकरण की सीमा का उल्लंघन खास चिंता की बात है। समुद्र हमारे ग्रह के 70 प्रतिशत हिस्से पर मौजूद हैं, और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग एक चौथाई हिस्सा सोख (carbon sink) लेते हैं। वे लंबे समय से हमारे लिए उत्सर्जन के सोख्ता की तरह काम करते रहे हैं। साथ ही ये अपने अंदर बहुत अधिक जैव विविधता को बनाए हुए हैं और लाखों लोगों को भोजन देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, वे अधिक अम्लीय होते जाते हैं। इससे कोरल का क्षरण (कोरल ब्लीचिंग) होता है – अनगिनत समुद्री प्रजातियों का प्राकृतवास खत्म (marine ecosystem decline) हो जाता है। और समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ हो जाता है। समुद्र के अम्लीकरण की सीमा पार करने का मतलब है बड़े-बड़े बदलाव। ऐसी घटनाएं शुरू हो गई हैं जिनके असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते।

हर लांघी गई सीमा अन्य स्थितियों/सीमाओं को और बदतर करती है, जिससे एक दुष्चक्र (vicious cycle) बनता है जो पृथ्वी को अस्थिरता के और करीब ले जाता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि ग्रह की सीमा रेखाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जैसे भू-प्रणाली में परिवर्तन, जिसमें खेती या जानवर पालने के लिए जंगल कटाई से जैवविविधता की क्षति होगी और कार्बन का अवशोषण कम होगा, जिससे जलवायु परिवर्तन और तेज़ होगा (deforestation impact)। पानी में बढ़े हुए नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के साथ बदले हुए भू-जैव-रासायनिक मृत क्षेत्र बनते हैं जो बदले में ताज़े पानी की उपलब्धता और जैवविविधता पर असर डालते हैं। हर सीमा दूसरी सीमा से जुड़ी है जिससे खतरा बढ़ जाता है।

ग्रहों की सीमा रेखाओं के उल्लंघन की विशिष्ट जवाबदेही तय नहीं हो पाई है, खासकर इसलिए क्योंकि पश्चिम के कुछ अमीर देशों के उपभोग ने ऐतिहासिक रूप से सीमाओं के उल्लंघन में अधिक योगदान दिया है – और यह जारी है। लेकिन ग्रह-स्तरीय सीमा की अवधारणा ने हमें पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियों (human impact) के असर का वैज्ञानिक और मात्रात्मक तरीके से आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क ज़रूर दिया है। हमें 2009 में ही सावधान हो जाना चाहिए था, जब सिर्फ तीन सीमाएं पार हुई थीं, और समझ जाना चाहिए था कि धरती पर मनुष्यों के क्रियाकलापों के कैसे-कैसे बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लेकिन तब हमने अनसुना-अनदेखा कर दिया। अधिकांश दुनिया वैसे ही काम करती रही, बीच-बीच में कुछ मामूली सुधार होते रहे। अब, 2025 में जब नौ में से सात सीमा रेखाएं पार हो चुकी हैं, तो हम सुरक्षित नहीं हैं (climate emergency)।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर हम याद रखें कि हम इस मुश्किल में एक साथ हैं। उस तरह, जिस तरह हम लांघी गई एक सीमा रेखा – ओज़ोन परत के क्षरण (ozone depletion) – को पलटने के लिए एकजुट हुए थे। 1985 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर वगैरह में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से ओज़ोन परत में छेद हो गया था। ओज़ोन परत में छेद का मतलब था कि अब हमारे पास सूरज की पराबैंगनी किरणों से कोई सुरक्षा नहीं थी, जिससे हम त्वचा कैंसर के शिकार हो सकते थे और कई पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ सकते थे। तब सरकारें मॉन्ट्रियल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए साथ आईं (global cooperation), जिसमें ओज़ोन में छेद करने वाले रसायनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने का वादा किया गया था। प्रयास सफल रहे।

यह सफलता हमें याद दिलाती है: अगर एक सीमा रेखा (planetary boundary) के उल्लंघन को पलट सकते हैं, तो हम ऐसा फिर से कर सकते हैं। हमारा – और पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी का – भविष्य इस पर निर्भर करता है। (स्रोत फीचर्स)  

तालिका: ग्रह की नौ सीमा रेखाएं और उनकी स्थिति

सीमाव्याख्यास्थिति
जलवायु परिवर्तनजीवाश्म ईंधन जलाने से ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु गर्माती है। नतीजतन बर्फ की चादरें पिघलती हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है।उल्लंघन हो चुका
जैवमण्डल की समग्रता में परिवर्तनप्राकृतिक संसाधनों का दोहन, आक्रामक प्रजातियों का आना और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव। इससे जेनेटिक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत में गिरावट आती है।उल्लंघन हो चुका
भू-प्रणाली में परिवर्तनशहरीकरण, पशुपालन और खेती के लिए जंगल काटकर ज़मीन बनाना। इससे कार्बन सोखने की क्षमता और अन्य पारिस्थिकीय कार्यों में कमी आती है।उल्लंघन हो चुका
मीठे पानी में परिवर्तनखेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी की बढ़ती खपत। ब्लू वॉटर (जैसे नदियां और झीलें) और ग्रीन वॉटर (मिट्टी की नमी) का खराब होना, कार्बन भंडारण और जैव विविधता पर असर डालता है।उल्लंघन हो चुका
भू-जैव-रसायन में परिवर्तनफॉस्फोरस व नाइट्रोजन वाले औद्योंगिक उर्वरकों के ज़्यादा इस्तेमाल से समुद्री और मीठे पानी तंत्र में मृत क्षेत्र बनते हैं।उल्लंघन हो चुका
समुद्र अम्लीकरणजीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जिसे समुद्र सोख लेता है और अम्लीय हो जाता है। समुद्री जीवों के खोल को नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाता है।उल्लंघन हो चुका
नए कारकउद्योगों, खेती और उपभोक्ता सामान से निकलने वाले कृत्रिम रसायन प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं। और मनुष्य और जैव विविधता को हमेशा की क्षति का खतरा पैदा करते हैं।उल्लंघन हो चुका
वायुमण्डलीय एरोसोल में बढ़ोतरीजीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक गतिविधियों से हवा में मौजूद कणीय पदार्थ बढ़ते हैं, जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आता है, खासकर तापमान और बारिश में।सुरक्षित सीमा में
ओज़ोन में क्षरणसिंथेटिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्पादन और उत्सर्जन से ओज़ोन परत पतली होती है और नुकसानदायक पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंचती हैं।सुरक्षित सीमा में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ईरान में गहराता जल संकट

रान इस समय अपने इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट (Iran water crisis) से गुज़र रहा है। हालात निरंतर खराब हो रहे हैं। तेहरान शहर की जल आपूर्ति वाले बांध लगभग खाली हो चुके हैं (water shortage) और सरकार देश के लिए पीने का पानी जुटाने के लिए जूझ रही है। लंबे सूखे, तेज़ गर्मी, कुप्रबंधन, बढ़ती आबादी, आर्थिक मुश्किलों, पुरानी कृषि प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन (climate change) के मिले-जुले कारणों से देश बेहद कठिन स्थिति में पहुंच गया है।

गौरतलब है कि करीब 1 करोड़ आबादी वाले तेहरान की जल आपूर्ति पांच बड़े बांधों से होती है, लेकिन इन बांधों में अब अपनी सामान्य क्षमता से सिर्फ 10 प्रतिशत (dam depletion) पानी है। देश में 19 बांध सूखने की कगार पर हैं। करज जैसे भरोसेमंद जलाशय भी इतनी तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं कि लोग यहां चहल-कदमी कर रहे हैं।

राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियन ने चेतावनी दी है कि अगर जल्द बारिश नहीं हुई, तो तेहरान में सख्त पानी राशन (water rationing) या सबसे बुरी स्थिति में कुछ इलाकों को खाली कराने तक की नौबत आ सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरा शहर खाली होना मुश्किल है, लेकिन यह चेतावनी हालात की गंभीरता दिखाती है।

ईरान पिछले छह वर्षों से लगातार सूखे (drought conditions) का सामना कर रहा है। पिछले साल गर्मियों का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक दर्ज किया गया था जिससे पानी तेज़ी से वाष्पित हुआ और पहले से कमज़ोर जल–प्रणालियों पर दबाव और बढ़ गया। पिछला जल-वर्ष सबसे सूखे वर्षों में से एक रिकॉर्ड किया गया था, और इस साल की स्थिति उससे भी खराब है। नवंबर की शुरुआत तक ईरान में सिर्फ 2.3 मि.मी.बारिश हुई – जो सामान्य औसत से 81 प्रतिशत कम है। बारिश और बर्फबारी न होने की वजह से बांध, नदियां और जलाशय तेज़ी से सिमट़ गए हैं।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी इस संकट को और गंभीर बना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति के लिए दशकों का खराब प्रबंधन (water mismanagement) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। ईरान ने कृषि और उद्योग को बढ़ाने की कोशिश तो की, लेकिन पानी की सीमाओं को ध्यान में नहीं रखा। सरकार लगातार नए बांध बनाती रही, गहरे कुएं खोदती रही और दूर-दराज़ के इलाकों से पानी खींचती रही – जैसे पानी की आपूर्ति कभी खत्म ही नहीं होगी।

यू.एन. विश्वविद्यालय के कावेह मदानी कहते हैं कि ईरान ने दशकों तक ऐसे व्यवहार किया जैसे उसके पास पानी अनंत मात्रा (unlimited water myth) में हो। आज पानी ही नहीं, बल्कि ऊर्जा और गैस प्रणालियां भी दबाव में हैं, जो संसाधन प्रबंधन की व्यापक विफलता दिखाता है।

सरकार ने चेतावनी दी है कि जल्द ही रात में पानी की सप्लाई बंद की जा सकती है, या पूरे देश में पानी की सख्त राशनिंग हो सकती (national water cuts) है। कई लोगों ने गर्मियों में अचानक पानी बंद होने का सामना किया था, जिससे जनता की नाराज़गी बढ़ी है।

अब पानी की कमी कई जगह तनाव और विरोध (water protest) का कारण बन रही है, खासकर गरीब इलाकों में। लंबे समय से चल रहे प्रतिबंधों, बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक संकट ने लोगों की हालत पहले ही कमज़ोर कर दी है, इसलिए वे नए मुश्किल हालात झेल नहीं पा रहे।

सरकार ने लोगों से पानी कम इस्तेमाल करने और घरों में पानी स्टोरेज टैंक लगाने की अपील की है। लेकिन इस उपाय में एक बड़ी समस्या है – घरेलू उपभोग कुल पानी का सिर्फ 8 प्रतिशत है, जबकि 90 प्रतिशत से ज़्यादा पानी कृषि (agriculture water use) में जाता है। इसलिए अगर हर घर 20 प्रतिशत पानी कम भी इस्तेमाल करे, तो भी कुल मिलाकर इसका असर बहुत कम होगा।

ईरान के कानून के अनुसार, देश का 85 प्रतिशत भोजन घरेलू स्तर पर ही उगाया (food security policy) जाना चाहिए। इसका उद्देश्य तो खाद्य सुरक्षा है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे जल सुरक्षा पर भारी असर पड़ा है। ईरान के पास इतना पानी और उपजाऊ ज़मीन ही नहीं है कि वह इतनी बड़ी मात्रा में खेती जारी रख सके। उधर, भूजल को इतनी तेज़ी से उलीचा जा रहा है कि इस्फहान जैसे मध्य क्षेत्रों में जमीन धंसने (land subsidence) लगी है। सिस्तान और बलूचिस्तान जैसे इलाकों में तो पूरे के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त होने की कगार पर हैं।

ईरान में सुधार की राह में एक बड़ा रोड़ा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध (international sanctions) हैं। इन प्रतिबंधों की वजह से विदेशी निवेश देश में नहीं आ पाता। असर यह है कि न तो आधुनिक जल प्रबंधन प्रणाली विकसित हो पाती है, न खेती की उन्नत तकनीकें अपनाई जा सकती हैं, और न ही असरदार पानी-रीसाइक्लिंग तकनीकें लगाई जा सकती हैं।

ग्रामीण इलाकों में ज़्यादातर लोग खेती पर निर्भर (rural agriculture dependence) हैं। प्रतिबंधों के चलते नए रोज़गार निर्मित करना मुश्किल है। इसी कारण सरकार कृषि क्षेत्र को पानी देती है। इससे लंबे समय में जल संकट बढ़ सकता है लेकिन सामाजिक अशांति और विरोध से बचने के लिए सरकार इसे अपना रही है।

विशेषज्ञों का मत है कि पानी के संकट से उबरने के लिए बड़े और लंबे समय के सुधार करने होंगे, जैसे:

  • भूजल का पुनर्भरण;
  • भूजल भंडार की मरम्मत;
  • पानी से जुड़ा स्पष्ट और पारदर्शी डैटा (water data transparency);
  • पानी, ऊर्जा व कृषि पर बराबर ध्यान देकर योजना बनाना;
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी;
  • लंबी अवधि वाली पर्यावरणीय नीतियां;
  • आधुनिक, कम पानी-खर्ची कृषि तकनीकें;
  • क्षेत्रों के बीच पानी के न्यायपूर्ण बंटवारे को प्राथमिकता।

यदि ये सुधार नहीं किए गए, तो पानी की कमी देश में सामाजिक व आर्थिक असमानता (water inequality) को और बढ़ा सकती है और अस्थिरता पैदा हो सकती है। असली सुधारों के लिए नीति-निर्माताओं को कठिन फैसले लेने की हिम्मत दिखाना होगा।

फिलहाल निगाहें सर्दियों की बारिश पर टिकी हैं। लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि चाहे बारिश अच्छी भी हो जाए, जब तक गंभीर सुधार नहीं किए जाते, ईरान को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा (water scarcity future)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आखिर कब कम होगा ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 

नगिनत जलवायु सम्मेलनों और चर्चाओं के बाद भी ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन (greenhouse gas emission) निरंतर बढ़ रहा है। इस साल भी जीवाश्म ईंधन से होने वाला प्रदूषण (fossil fuel pollution) एक नया रिकॉर्ड बना सकता है। यह जानकारी ब्राज़ील के बेलेम शहर में आयोजित COP30 जलवायु सम्मेलन (COP30 climate summit) से मिली है। लेकिन इस बुरी खबर के बीच वैज्ञानिकों को कुछ सकारात्मक संकेत भी दिख रहे हैं। शायद दुनिया अब उस मोड़ के करीब है जहां उत्सर्जन चरम पर पहुंचकर नीचे आना शुरू हो सकता है।

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार, जीवाश्म ईंधनों और सीमेंट उत्पादन से होने वाला कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन लगभग 1.1 प्रतिशत बढ़कर इस वर्ष 38.1 अरब टन पहुंचने की आशंका है जो अब तक का सबसे अधिक होगा (CO2 emission record)। अगर वनों की कटाई और भूमि-उपयोग में परिवर्तन में कमी को ध्यान में रखें, तो कुल वैश्विक उत्सर्जन पिछले साल जैसा ही रह सकता है या थोड़ा कम भी हो सकता है। लेकिन वैज्ञानिकों के अनुसार इस छोटे से बदलाव यह नहीं कहा जा सकता कि दुनिया सचमुच जीवाश्म ईंधनों से मुक्त होने की शुरुआत कर चुकी है।

पेरिस जलवायु समझौते (Paris Agreement) के लगभग दस साल बाद भी वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन 2015 की तुलना में करीब 10 प्रतिशत ज़्यादा है। पिछले दो दशकों में अनेक विकसित देशों ने अपने उत्सर्जन कम किए हैं, लेकिन अधिकांश विकासशील देशों में प्रदूषण (developing countries emissions) लगातार बढ़ रहा है। भारत और चीन पर अक्सर सबसे ज़्यादा ध्यान जाता है क्योंकि उनकी आबादी अधिक है और अर्थव्यवस्था तेज़ी से बढ़ रही है। लेकिन सच यह है कि ऊर्जा की ज़रूरतों और आर्थिक विकास को पूरा करने की कोशिश में कई निम्न और मध्यम आय वाले देशों में भी उत्सर्जन बढ़ रहा है।

पिछले बीस वर्षों से चीन अकेले ही वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि (China emissions)  का सबसे बड़ा कारण रहा है। दुनिया के कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन का लगभग एक-तिहाई चीन से आता है। इसका मुख्य कारण है वहां स्थापित विशाल कोयला-आधारित बिजली संयंत्र, जिनमें 2023 में करीब 2.3 अरब टन कोयला जलाया गया।

इसके बावजूद, चीन दुनिया में सबसे तेज़ी से स्वच्छ ऊर्जा (clean energy transition)अपनाने वाले देशों में भी शामिल है। वह इलेक्ट्रिक वाहन, सोलर पैनल और पवन ऊर्जा उत्पादन में दुनिया का अग्रणी देश बन चुका है। चीन का संकल्प है कि वह 2035 तक अपने उत्सर्जन को अधिकतम स्तर से कम से कम 7 प्रतिशत घटाएगा। कई वैज्ञानिकों का मानना है कि जब चीन का उत्सर्जन चरम पर पहुंचकर कम होना शुरू होगा तब विश्व के कुल उत्सर्जन में भी गिरावट होगी।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन पहले ही कम होना शुरू हो गया है (carbon reduction trend)। कार्बन मॉनीटर नामक संस्था के मुताबिक चीन का कार्बन उत्सर्जन 2024 में अपने उच्चतम स्तर पर पहुंच चुका था, और इस साल यह लगभग 1.2 प्रतिशत कम हो सकता है। स्वच्छ ऊर्जा पर काम करने वाला समूह CREA भी इसी तरह के घटते रुझान की ओर इशारा करता है।

हालांकि, इस गिरावट का एक बड़ा कारण चीन के रियल-एस्टेट क्षेत्र में मंदी (real estate slowdown) है। मकान-बनाने की गति कम होने से स्टील और सीमेंट की मांग घट गई है और इन्हीं दोनों से बहुत बड़ी मात्रा में कार्बन उत्सर्जन होता है।

फिर भी, कई शोधकर्ताओं का मानना है कि चीन का उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंच चुका है, क्योंकि वहां स्वच्छ ऊर्जा बहुत तेज़ी से बढ़ रही है और चीन ने अपने जलवायु लक्ष्य (climate targets) भी तय किए हुए हैं। अब बड़ा सवाल यह है कि यदि कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन कम होना शुरू हो गया है, तो क्या अन्य ग्रीनहाउस गैसें — जैसे मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड और अन्य औद्योगिक गैसें (methane emissions) — भी जल्द ही घटने लगेंगी?

अभी के लिए दुनिया का उत्सर्जन-ग्राफ ‘ऊपर चढ़ती’ हुई स्थिति में है। लेकिन उत्सर्जन में लंबे समय से जिस टर्निंग पॉइंट का इंतज़ार था उसके शुरूआती संकेत (global emission trends) दिखने लगे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कौन कर रहा है अमेज़न को तबाह?

कुमार सिद्धार्थ

दुनिया के सबसे विशाल वर्षावन अमेज़न (Amazon rainforest)  पर खतरा अब कोई दूर की आशंका नहीं, बल्कि एक आसन्न सच्चाई है। वनों की अंधाधुंध कटाई (deforestation), तेल और गैस के खनन तथा जलवायु परिवर्तन ने इसे उस बिंदु तक पहुंचा रहे हैं, जहां से लौटना शायद संभव नहीं रहेगा। वैज्ञानिक चेतावनी दे रहे हैं कि अमेज़न अब ‘कार्बन सोखने वाले’ वन से ‘कार्बन छोड़ने वाले’ क्षेत्र (carbon emitter) में बदलने की कगार पर है।

ऐसे समय में एक नई रिपोर्ट ने अमेज़न के विनाश के लिए ज़िम्मेदार वित्तीय ढांचे (financial systems) को बेनकाब किया है। पर्यावरण संगठन ‘स्टैंड.अर्थ’ की रिपोर्ट ‘बैंक्स वर्सेस दी अमेज़न स्कोरकार्ड’ बताती है कि 2016 में पेरिस समझौते के बाद से अमेज़न क्षेत्र में तेल और गैस परियोजनाओं को मिलने वाले वित्त का लगभग तीन-चौथाई हिस्सा सिर्फ दस बैंकों से आता रहा है। इनमें जेपी मॉर्गन चेज़, सिटी बैंक ऑफ अमेरिका, इताउ युनिबैंको (ब्राज़ील) और एचएसबीसी जैसे बड़े नाम शामिल हैं। इन बैंकों ने अमेज़न के भीतर जीवाश्म ईंधन से जुड़ी परियोजनाओं में 15 अरब डॉलर से अधिक झोंक दिए हैं (fossil fuel financing)।

युरोप पीछे हटा, अमेरिका आगे बढ़ा

पिछले कुछ वर्षों में युरोप के कई बैंकों ने अपने कदम पीछे खींचे हैं। फ्रांस का बीएनपी परिबा और ब्रिटेन का एचएसबीसी अब अमेज़न से जुड़ी कंपनियों को ऋण देना बंद कर चुके हैं (banking policy change)। उन्होंने ऐसी नीतियां अपनाई हैं जो अमेज़न में तेल और गैस खनन कंपनियों को वित्त नहीं देतीं।

लेकिन जहां युरोपीय बैंक पीछे हटे, वहीं अमेरिका और लैटिन अमेरिका के बैंक उस खाली जगह को भरने में लगे हैं। ब्राज़ील का इताउ युनिबैंको अब शीर्ष पर पहुंच गया है – पिछले 18 महीनों में उसने 37.8 करोड़ डॉलर की नई फंडिंग दी है। जेपी मॉर्गन चेज़ और बैंक ऑफ अमेरिका उससे थोड़ा पीछे हैं। इसी अवधि में पेरू के क्रेडिकॉर्प और कनाडा के स्कोटियाबैंक ने भी अपने निवेश को लगभग तीन गुना बढ़ा दिया है (Amazon oil projects)।

रिपोर्ट की प्रमुख शोधकर्ता डॉ. देवयानी सिंह का कहना है, “युरोपीय बैंकों ने अपेक्षाकृत सख्त नीतियां लागू की हैं, लेकिन कोई भी बैंक अब तक अपने वित्तपोषण को शून्य नहीं कर पाया है। हर बैंक को लूपहोल बंद करने होंगे और बिना देरी अमेज़न से बाहर निकलना होगा।”

तेल के धब्बे और बीमारियां

दी इकॉलॉजिस्ट में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, अमेज़न में तेल और गैस की खुदाई (oil drilling impact) सिर्फ पर्यावरण को ही नहीं, बल्कि स्थानीय जीवन को भी गहराई से प्रभावित कर रही है। ब्राज़ील, इक्वाडोर, पेरू और कोलंबिया में 6000 से अधिक तेल-संदूषित स्थल दर्ज किए गए हैं। खनन क्षेत्रों के आसपास रहने वाले समुदायों में कैंसर, गर्भपात व श्वसन रोगों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं (health impact)।

इसके बावजूद, सरकारें पीछे हटने को तैयार नहीं। ब्राज़ील ने इस साल की शुरुआत में 68 नए तेल ब्लॉक की नीलामी की। इक्वाडोर में 2023 में यासुनी नेशनल पार्क में ड्रिलिंग रोकने के पक्ष में हुए जनमत-संग्रह के बाद भी काम जारी है। पेरू में 31 नए तेल ब्लॉक आवंटित किए गए हैं, जिनमें से कई 400 से अधिक देशज समुदायों की भूमि से ओवरलैप करते हैं।

अमेज़न की ओलीविया बिसा कहती हैं, “जब जंगल खुद संकट में है, तब बैंक ऑफ अमेरिका, स्कोटियाबैंक और इताउ जैसे बैंक इन परियोजनाओं को बढ़ावा दे रहे हैं। दशकों से हमारे देशज समुदाय इस विनाश का सबसे बड़ा भार उठा रहे हैं। अब समय आ गया है कि बैंक अमेज़न को तेल की लत से मुक्त करें।”

भ्रष्टाचार और चुप्पी

रिपोर्ट में बताया गया है कि 2024 से अब तक अमेज़न क्षेत्र में 2 अरब डॉलर से अधिक की नई फंडिंग केवल छह कंपनियों को मिली है – पेट्रोब्रास, एनेवा, गनवोर, ग्रैन टिएरा, प्लसपेट्रोल कैमिसेआ एवं हंट ऑयल पेरू। इन सभी पर भ्रष्टाचार (corruption cases), पर्यावरणीय क्षति और देशज अधिकारों के उल्लंघन के आरोप हैं।

ब्राज़ील की कंपनी एनेवा को हाल ही में संघीय अदालत ने अपनी गतिविधियां रोकने का आदेश दिया था क्योंकि उसने देशज समुदायों के अधिकारों और पर्यावरण कानूनों का उल्लंघन किया था। फिर भी, उसे इताउ यूनिबैंको, बैंको डो ब्रासिल, सैंटेंडर और अन्य बैंकों से वित्त पोषण मिलता रहा।

इसी तरह, स्विस कंपनी गनवोर को 2013 से 2020 के बीच इक्वाडोर में अधिकारियों को रिश्वत देकर तेल अनुबंध हासिल करने का दोषी पाया गया था, लेकिन इसके बावजूद उसे आईएनजी बैंक से वित्तीय सहायता मिलती रही (oil corruption scandal)। इससे यह साफ होता है कि आंशिक प्रतिबंध और ‘परियोजना-स्तर’ की नीतियां अक्सर औपचारिकता से ज़्यादा कुछ नहीं होतीं।

वित्तीय नीतियों की ज़िम्मेदारी

रिपोर्ट में सभी बैंकों से अपील की गई है कि वे 2030 तक अमेज़न में तेल और गैस परियोजनाओं के वित्तपोषण को पूरी तरह समाप्त करें (fossil finance exit) – चाहे वह ऋण के रूप में हो, बॉन्ड में निवेश के रूप में हो या परामर्श सेवाओं के रूप में। साथ ही, संयुक्त राष्ट्र की देशज लोगों के अधिकारों पर घोषणा (UNDRIP rights) के अनुरूप नीतियां अपनाने की सिफारिश की गई है।

अमेज़न वह सांस है जिससे पृथ्वी जीवित है। पर यदि यह सांस रुक गई, तो इसका असर पूरे ग्रह पर पड़ेगा। आने वाला दशक तय करेगा कि यह महान वन जीवित रहेगा या इतिहास बन जाएगा? यह सवाल सिर्फ सरकारों या पर्यावरणविदों के लिए नहीं, बल्कि उन बैंकों के लिए भी है जिनके धन से यह विनाश चल रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सामूहिक हास-परिहास का जैविक जादू

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जर्मन बाल रोग विशेषज्ञ विनफ्रेड बार्थलेन द्वारा किए गए एक अध्ययन में, मसखरों (hospital clowns) से अस्पताल में भर्ती ऐसे बच्चों के साथ मेलजोल करने को कहा गया जिनकी सर्जरी होने वाली थी (pre-surgery anxiety)। आश्चर्य की बात नहीं थी कि मसखरे के साथ एक खुशनुमा सत्र के बाद इन बच्चों में सर्जरी को लेकर चिंता कम देखी गई। फ्रंटियर्स इन पीडियाट्रिक्स में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि उनके लार के नमूनों में ऑक्सीटोसिन का स्तर बढ़ा हुआ था।

ऑक्सीटोसिन को बॉन्डिंग ह़ॉर्मोन (bonding hormone oxytocin) भी कहा जाता है क्योंकि सामाजिक मेलजोल और शारीरिक स्पर्श से इसका स्तर बढ़ जाता है। इसकी उपस्थिति विश्वास की भावना को बढ़ाती है और यह संकेत देती है कि व्यक्ति सुरक्षित वातावरण में है। ऐसे तंत्रिका-रासायनिक परिवर्तन भावनात्मक रूप से स्वस्थ होने के पलों में होते हैं। सर्जरी को लेकर चिंतित बच्चों के लिए, मसखरे की करामातें न सिर्फ ध्यान भटकाने का ज़रिया थीं, बल्कि साझा हंसी का स्रोत भी थीं; दरअसल, मसखरे की उपस्थिति ने एक प्रामाणिक सामाजिक मेल-जोल को सुगम बनाया।

अन्य अध्ययनों से पता चला है कि जिन लोगों को हंसने के लिए उकसाया जाता है, खासकर जब वे उन लोगों के साथ होते हैं जिनके साथ उनके सामाजिक सम्बंध होते हैं, तो उनमें एड्रीनेलीन और कॉर्टिसोल का स्तर कम (stress hormones reduction) हो जाता है। इन हॉर्मोन का स्तर तब भी कम होता है जब प्रतिभागियों को अजनबियों के साथ हंसने के लिए प्रेरित किया जाता है।

एड्रीनेलीन और कॉर्टिसोल दोनों ही तनाव हार्मोन (stress hormones) हैं, लेकिन दोनों की क्रियाविधि अलग-अलग है। एड्रीनेलीन एक त्वरित प्रतिक्रिया वाला हार्मोन है: इसकी उपस्थिति रक्तचाप, हृदय गति और रक्त शर्करा के स्तर को बढ़ाती है। अपरिचित चेहरों से मुलाकात से उत्पन्न होने वाला हल्का सामाजिक तनाव एड्रीनेलीन के कम होने पर तुरंत निष्क्रिय हो जाता है, आप सहज हो जाते हैं। कॉर्टिसोल धीरे-धीरे काम करता है और इससे उत्पन्न तनाव लंबे समय तक रहता है। जब कॉर्टिसोल का स्तर कम होता है, तो चिंता की भावनाएं भी कम हो जाती हैं।

2017 में फिनलैंड के शोधकर्ताओं ने एक साथ कॉमेडी क्लिप देख रहे दोस्तों के समूहों का पॉज़िट्रॉन एमिशन टोमोग्राफी (PET) की मदद से स्कैन किया था (brain activity study)। उन्होंने पाया कि थैलेमस और मस्तिष्क के अन्य भागों में एंडोजीनस ओपिऑइड (शरीर के अंदर बनने वाले अफीमनुमा रसायन) स्रावित होते हैं। एंडोजीनस ओपिऑइड दर्द निवारक के रूप में कार्य करते हैं और दर्द की अनुभूति को रोकते हैं, जिससे आप शांत रहते हैं। सामाजिक जुड़ाव के संदर्भ में, साथ में मौज-मस्ती करने से तनाव और दर्द कम होता है। यह एक पारितोषिक तंत्र के रूप में भी कार्य करता है, उत्साह की भावना आपको आनंददायक संगत में अधिक समय बिताने के लिए प्रोत्साहित करती है।

चिम्पैंज़ी और अन्य पूंछविहीन वानर भी हंसी को एक सामाजिक स्नेहक के रूप में उपयोग करते हैं (chimpanzee behavior)। गहरी सांस लेने जैसी ध्वनि चिम्पैंज़ियों में हंसी-विनोद के खेल के दौरान पैदा होती है; जैसे पीछा करते समय या धींगामुश्ती करते समय, या जब उन्हें गुदगुदी की जाती है। उनके सामाजिक नेटवर्क आपसी देखभाल/साफ-सफाई (ग्रूमिंग) और खेल द्वारा पोषित होते हैं। चिम्पैंज़ी सामाजिक ग्रूमिंग में काफी समय व्यतीत करते हैं: जागने के 12 घंटों में से लगभग दो घंटे। किसी चिम्पैंज़ी की ‘संपर्क सूची’ में लगभग 80-100 परिचित होते हैं, जिनमें से 20 से कम मुख्य/अजीज़ साथी होते हैं।

लोगों की मोबाइल फोन संपर्क सूची में आम तौर पर 300 से 600 कॉन्टेक्ट होते हैं (social network size)। समय के साथ बनते जाने वाले संपर्कों में मनुष्य लगभग 1500 व्यक्तियों के नाम याद रख सकते हैं और उनके चेहरे पहचान सकते हैं। इन आंकड़ों से स्पष्ट है कि मनुष्य का सामाजिक नेटवर्क प्रत्यक्ष टिकाऊ सामाजिक नातों के लिए उपलब्ध समय से कहीं अधिक विस्तृत हो गया है। ऑक्सफोर्ड के मानवविज्ञानी रॉबिन डनबर ने एक सिद्धांत प्रस्तावित किया है, जो कहता है कि मनुष्यों में सामाजिक हंसी संपर्क में आने वाले सभी सदस्यों के बीच साझा भावनात्मक अनुभव का साझा एहसास प्रदान करने के लिए विकसित हुई है।

जैसे-जैसे हमारा सोशल मीडिया उपयोग बढ़ता है, हमारा अकेले समय बिताना तेज़ी से बढ़ता है (social media loneliness)। यह सही है कि सोशल मीडिया पर फॉरवर्ड किए गए बिल्ली के बच्चे के वीडियो (या अन्य मनोरंजक पोस्ट) देखकर आप हंसते हैं और अच्छा महसूस करते हैं। लेकिन यहां आप अकेले हंसते हैं। जब सामाजिक माहौल में सबके साथ हंसते हैं, तो हंसी अधिक ज़ोरदार और अधिक बार होती है। कारण यह है कि पूरे समूह की मस्तिष्क गतिविधि सिंक्रोनाइज़ हो जाती है यानी ताल से ताल मिलाकर होने लगती है। यह तालमेल हमारे सामाजिक रिश्तों का मूल है। हमें अपने प्रियजनों के साथ ज़्यादा समय बिताना चाहिए! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया की सबसे महंगी बिल्ली-विष्ठा कॉफी का राज़

कोपी लुवाक (Kopi Luwak) नामक कॉफी (specialty coffee) का एक कप भी किसी आलीशान डिनर जितना महंगा हो सकता है। यह कॉफी अपने कड़क और अनोखे स्वाद के लिए जानी जाती है, जिसमें गिरियों, मिट्टी, चॉकलेट और कभी-कभी मछली की हल्की महक आती है (coffee flavor profile)।

इस कॉफी को स्वाद तब मिलता है जब एक एशियाई बिल्ली – पाम सिवेट (Paradoxurus hermaphroditus) – पकी हुई कॉफी बेरी (लाल गूदेदार फल) खाती है। सिवेट के पेट के एंज़ाइम इन बेरी (coffee cherry) की बाहरी परत को थोड़ा पचा देते हैं, लेकिन अंदर के बीज (बीन्स) साबुत ही रहते हैं। इन्हें सिवेट की विष्ठा से निकाल लिया जाता है, फिर उन्हें साफ करके भूना जाता है और इसी से बनती है कॉफी ‘कोपी लुवाक’।

इतनी लंबी श्रमसाध्य प्रक्रिया और इसकी कम उपलब्धता के कारण इसका एक प्याला जेब से 75 डॉलर (लगभग 6600 रुपए) खर्च करवाता (expensive coffee) है। लेकिन ऐसा स्वाद आता कैसे है?

यह पता लगाया है भारतीय वैज्ञानिकों की एक टीम ने। केरल स्थित सेंट्रल युनिवर्सिटी के प्राणी विज्ञानी पालट्टी अलेश सीनू और उनकी टीम ने कर्नाटक के कोडगु जिले में पाए जाने वाले जंगली सिवेट के मल से कॉफी बीन्स इकट्ठे किए और उनकी तुलना सीधे पौधों से तोड़े गए कॉफी बीन्स से की (wild civet coffee)।

गैस क्रोमैटोग्राफी-मास स्पेक्ट्रोमेट्री तकनीक (GC–MS analysis) का इस्तेमाल करके वैज्ञानिकों ने सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे बीन्स में कैप्रिलिक एसिड और कैप्रिक एसिड की मात्रा सामान्य बीन्स की तुलना में कहीं अधिक पाई। ये वही फैटी एसिड हैं जो डेयरी उत्पादों को स्वादिष्ट बनाने के काम आते हैं। सिवेट के पेट में मौजूद ग्लूकोनोबैक्टर नामक बैक्टीरिया और एंज़ाइम इन यौगिकों को बनाते या बढ़ाते हैं, जिससे कॉफी के स्वाद और खुशबू में परिवर्तन आता है।

पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सिवेट के पाचन तंत्र से गुज़रे कॉफी बीन्स सामान्य बीन्स की तुलना में ज़्यादा भुरभुरे होते हैं, उनमें प्रोटीन की मात्रा कम लेकिन वसा की मात्रा अधिक होती है (coffee bean chemistry)। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि जंगली सिवेट हमेशा पकी और बड़ी कॉफी बेरी ही चुनते हैं।

फिलहाल यह अध्ययन भारत में मौजूद रोबस्टा कॉफी पर किया गया था लेकिन वाणिज्यिक तौर पर कोपी लुवाक अधिकतर अरेबिका (Arabica coffee) से बनती है। इसलिए वैज्ञानिक इसे अरेबिका बीन्स पर दोहराने का सुझाव देते हैं। इसके साथ ही, वे यह भी समझना चाहते हैं कि भूनने की प्रक्रिया के दौरान ये फैटी एसिड कैसे बदलते हैं और अंतिम स्वाद को कैसे प्रभावित करते हैं।

बेशक यह कॉफी स्वादिष्ट है जिसके मंहगे दाम चुकाकर हम इसे पी सकते हैं, लेकिन इस स्वाद का खामियाजा सिवेट को चुकाना (animal cruelty) पड़ता है। बीन्स के लिए सिवेट को छोटे पिंजरों में बंद कर जबरन कॉफी बेरी खिलाई जाती हैं। उम्मीद है सिवेट के पेट में होने वाली पाचन और किण्वन प्रक्रिया को समझकर सिवेट को इस अत्याचार से बचाया जा सकेगा और हमें स्वाद भी मिलेगा (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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