भरपेट संतुलित भोजन कई बीमारियों के लिए टीके से कम नहीं

डॉ. अनुराग भार्गव

हाल ही में डॉ. अनुराग भार्गव ने PLOS Global Public Health के एक आलेख में पर्याप्त संतुलित पोषण और संक्रामक गैरसंक्रामक रोगों से बचाव के इतिहास पर विचार करते हुए बताया है कि भरपेट संतुलित आहार को टीके की संज्ञा देना उचित ही है। प्रस्तुत है उनके उपरोक्त आलेख का रूपांतरित सार।

यह तो जानी-मानी बात है कि जीवित रहने, स्वास्थ्य और बीमारियों के बचाव के लिए पोषण अनिवार्य है। 1970 के दशक में यह तक कहा गया था कि निमोनिया जैसे सांस सम्बंधी रोगों, दस्त (डायरिया) व अन्य आम संक्रमणों (infections) के विरुद्ध पर्याप्त भोजन ही सबसे कारगर टीका है। यह देखा जा चुका था कि कुपोषण की हालत में पूरक पोषण से संक्रमणों के प्रकोप में कमी आती है। हाल ही में झारखंड में एक परीक्षण किया गया था – रैशन्स (RATIONS) यानी रिड्यूसिंग एक्टिवेशन ऑफ ट्यूबरकुलोसिस थ्रू इम्प्रूवमेंट ऑफ न्यूट्रिशनल स्टेटस (अर्थात पोषण की स्थिति में सुधार के ज़रिए सक्रिय टीबी में कमी)। इस परीक्षण ने स्पष्ट रूप से दर्शाया है कि पूरक पोषण परिवारों में टीबी (TB) प्रकोप को 50 प्रतिशत तक कम करता और कुपोषित मरीज़ों में मृत्यु दर को भी 35-50 प्रतिशत तक कम कर सकता है।

टीका भी तो यही करता है कि व्यक्ति को किसी संक्रमण से लड़ने या बीमारी से बचने में मदद करता है और इस लिहाज़ से पोषण की भूमिका टीके की अवधारणा का विस्तार ही है।

1970 के दशक में पोषण विशेषज्ञ और विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) में पोषण निदेशक रहे डॉ. मॉइज़ेस बेहर ने अपने एक लेख में कहा था, एक ओर तो “टीकाकरण या पर्यावरण में सुधार जैसे विशिष्ट उपायों द्वारा संक्रामक रोगों (infectious diseases)  पर नियंत्रण से समुदाय की पोषण की स्थिति बेहतर होती है। दूसरी ओर, पर्याप्त भोजन संक्रामक रोगों के ज़्यादा गंभीर प्रभावों से सुरक्षा देता है; उन रोगों के संदर्भ में भी जिनके लिए हमारे पास सटीक या आसान उपाय उपलब्ध नहीं हैं। फिलहाल तो समुचित भोजन ही दस्त, श्वसन तथा अन्य आम संक्रमणों के विरुद्ध सबसे कारगर ‘टीका’ (vaccine) है।”

यह बात रैशन्स परीक्षण में प्रत्यक्ष रूप में सामने आई ही है, लेकिन इसके कई ऐतिहासिक प्रमाण भी उपलब्ध हैं। ये प्रमाण हमें बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में हुए कुछ ‘कुदरती प्रयोगों’ से मिले हैं।

कुछ अनायास प्रयोग

यू.के. में 1918 में टीबी मरीज़ों की देखभाल और पुनर्वास (rehabilitation) के लिए पैपवर्थ विलेज सेटलमेंट स्थापित किया गया था। इसके पीछे सोच यह थी कि मात्र सेनेटोरियम उपचार पर्याप्त नहीं है, बल्कि टीबी (tuberculosis) के मरीज़ों के लिए रोज़गार व सामुदायिक जीवन जैसे सहारे की भी ज़रूरत होती है। यहां रह रहे सक्रिय टीबी ग्रस्त मरीज़ों के संपर्क में आए परिवारों में टीबी के प्रकोप में जो 84 प्रतिशत की कमी आई थी, उसके लिए समुचित पोषण को मुख्य कारण माना गया था। आश्चर्य की बात यह थी कि उस दौरान टीबी संक्रमण के कुल प्रसार में कोई कमी नहीं आई थी मगर पोषण ने संक्रमण (infection) को बीमारी में परिवर्तित होने से बचा लिया था।

जर्मनी के युद्धबंदी शिविरों (prison camps) में ब्रिटेन तथा रूस के युद्धबंदी सैनिक (POW – पीओडब्ल्यू) एक जैसे हालात में रह रहे थे। देखा गया कि ऐसे एक शिविर में मात्र 1.2 प्रतिशत ब्रिटिश सैनिकों में ही टीबी विकसित हुई थी जबकि 15 प्रतिशत रूसी सैनिक टीबी से ग्रस्त हुए। यानी रूसी सैनिकों के मुकाबले ब्रिटिश सैनिकों में टीबी का प्रकोप 92 प्रतिशत कम रहा। इसका कारण इस तथ्य से जोड़कर देखा गया था कि रेड क्रॉस (red cross) द्वारा दिया जाने वाला अतिरिक्त पोषण पार्सल (1000 किलोकैलोरी तथा 30 ग्राम प्रोटीन) मात्र ब्रिटिश सैनिकों को मिलता था।

ऐसे ही एक अन्य युद्धबंदी शिविर में एक ब्रिटिश डॉक्टर आर्किबाल्ड कोक्रेन ने पाया था कि टीबी का प्रकोप रूसियों में 6 प्रतिशत, फ्रांसिसियों में 0.5 प्रतिशत और ब्रिटिश सैनिकों में शून्य प्रतिशत था। गौरतलब है कि फ्रांसिसियों को भी 1944 के बाद अतिरिक्त फूड पैकेट मिलना बंद हो गया था।

युद्धबंदी शिविरों में किए गए इन अवलोकनों के अलावा आम आबादी के आंकड़े भी यही कहानी कहते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2015-2023 के दरम्यान दुनिया भर में टीबी (global TB cases) के प्रकोप में 8.3 प्रतिशत तथा टीबी मृत्यु दर में 23 प्रतिशत की कमी आई है। सवाल यह उठता है कि रासायनिक उपचार और (टीबी के लिए) बीसीजी टीका (BCG vaccine) आने से पहले के दौर में टीबी के प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों की क्या स्थिति थी।

पहली बात तो यह है कि यू.के. जैसे जिन देशों में आज टीबी का बोझ कम है, वहां भी अतीत में टीबी का प्रकोप और टीबी से होने वाली मौतों का आंकड़ा काफी अधिक था। एक अनुमान के मुताबिक 1851 में यू.के. में श्वसन सम्बंधी टीबी (respiratory TB) से प्रति लाख आबादी में 268 मौतें होती थी। और तो और, वहां हर चार में से 1 मौत टीबी के कारण होती थी। गौर करने वाली बात यह है कि यू.के. में टीबी प्रकोप और मृत्यु में गिरावट रासायनिक उपचार (drug treatement of TB) और टीकाकरण जैसे उपाय लागू होने से पहले हो गई थी। 1891 में टीबी से होने वाली मौतों में 50 प्रतिशत की गिरावट आ चुकी थी और यह मात्र 139 प्रति लाख रह गई थी।

यू.के. में 1913 में टीबी का प्रकोप प्रति एक लाख आबादी में 300 था और मृत्यु दर प्रति लाख आबादी में 100 थी और 1940 में यह इसकी 50 प्रतिशत रह गई थी। गौरतलब है कि टीबी के लिए रासायनिक उपचार 1947 में उपलब्ध हुआ था। रासायनिक उपचार शुरू होने से पहले यू.के. में टीबी प्रकोप 3 प्रतिशत प्रति वर्ष की दर से कम हो रहा था और उपचार उपलब्ध होने के बाद गिरावट की दर 10 प्रतिशत वार्षिक हो गई थी।

1962 में थॉमस मैककिओन का महत्वपूर्ण पर्चा प्रकाशित हुआ था जिसमें उन्होंने 1850 से 1950 की अवधि में यू.के. में टीबी सम्बंधी मौतों में गिरावट के विभिन्न कारकों का विश्लेषण किया था। उनका निष्कर्ष था कि टीबी प्रकोप में गिरावट का प्रमुख कारक जीवन स्तर (living standards) में सुधार, खासकर पोषण में सुधार रहा था। 1850 के दशक के बाद यू.के. में कामगारों की आमदनी में सुधार हुआ था। यह देखा गया था कि आमदनी में सुधार और श्वसन सम्बंधी टीबी से मृत्यु दर में गिरावट लगभग एक ही दर पर हुए थे। मैककिओन का सुझाव था कि बेहतर पोषण (improved nutrition) से व्यक्तियों में रोग के विरुद्ध प्रतिरोध पैदा होता है और यह मृत्यु दर में गिरावट का कारण बनता है। इसके पक्ष में उन्होंने कुछ परोक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे।

वैसे नोबेल विजेता रॉबर्ट फोगेल ने 1850 से 1950 के बीच यू.के. में कैलोरी के उपभोग में वृद्धि (increase in calorie intake) के प्रत्यक्ष प्रमाण भी प्रस्तुत किए थे। इसी सम्बंध में एक और प्रमाण यह था कि 1870 से 1970 के बीच ब्रिटेन समेत युरोपीय लोगों के कद में औसतन 11 से.मी. (यानी प्रति दशक 1 से.मी.) की वृद्धि हुई थी। कद को किसी भी आबादी के पोषण व जीवन स्तर का एक सूचकांक माना जाता है।

इस बात के और भी प्रमाण प्रस्तुत हुए हैं कि यू.के. में टीबी के प्रकोप व मृत्यु दर में कमी का सम्बंध पोषण में सुधार से रहा है।

पोषण, संक्रमण और प्रतिरक्षा

1968 में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा प्रकाशित एक मोनोग्राफ (monograph) में पोषण व संक्रमण के बीच दो-तरफा सम्बंध की समीक्षा की गई थी। मोनोग्राफ में स्पष्ट किया गया था कि पोषण की स्थिति टीबी समेत कई संक्रमणों (infections) की आवृत्ति, गंभीरता और मृत्यु दर पर असर डालती है और संक्रमण अपने तईं पोषण की स्थिति को बदतर करते हैं। इस परस्पर क्रिया के अनुकूली प्रतिरक्षा सम्बंधी क्रियामार्गों का खुलासा 1960 व 1970 के दशकों में हुआ। इसके बाद यह भी दर्शाया गया था कि कुपोषण (malnutrition) का प्रतिकूल असर शारीरिक अवरोधों, जन्मजात प्रतिरक्षा तथा अनुकूली प्रतिरक्षा के कई पहलुओं पर होता है। यह भी पता चला था कि टी-कोशिकाओं और मैक्रोफेज (macrophage) द्वारा प्रदत्त सुरक्षा टीबी से बचाव में महत्वपूर्ण होती है और कुपोषण टी-कोशिकाओं (T-cells) के कामकाज को कमज़ोर करता है।

टीबी की बीमारी होने के लिए संक्रमण ज़रूरी होता है लेकिन मात्र संक्रमण हो जाए तो टीबी नहीं होती – संक्रमण के बाद मात्र 10 प्रतिशत लोग ही सक्रिय टीबी की हालत में पहुंचते हैं। इसका मतलब है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र 90 प्रतिशत संक्रमणों को बीमारी तक पहुंचने से रोक लेता है। अर्थात सक्रिय टीबी के विकास का कुछ न कुछ सम्बंध तो प्रतिरक्षा तंत्र के कामकाज में गड़बड़ी से है।

यूएस सर्जन जनरल का मत है कि प्रतिरक्षा तंत्र की अर्जित कमज़ोरी (जिसे ठीक किया जा सकता है) का प्रमुख कारण कुपोषण है। जॉन्स हॉपकिन्स विश्वविद्यालय (John Hopkins University) के डॉ. विलियम बाइसेल ने इसे न्यूट्रिशनली एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएंसी (N-AIDS) यानी ‘कुपोषण की वजह से अर्जित प्रतिरक्षा अभाव’ की संज्ञा दी है। यह N-AIDS दुनिया भर में टीबी के बोझ का प्रमुख कारण है।

2022 में दुनिया भर में पांच साल से कम उम्र के 49 लाख बच्चों की मौत हुई थी (यानी रोज़ाना 13,000 से अधिक) और इनमें से आधी मौतें कुपोषण और संक्रमण के जानलेवा गठबंधन का परिणाम थीं।

1959 से 1964 के बीच ग्वाटेमाला (guatemala) में एक प्रयोग हुआ था। यहां एक गांव में चिकित्सा सुविधा या स्वच्छता व्यवस्था में कोई सुधार न करते हुए मात्र पूरक पोषण (supplementary nutrition) दिया गया था। इस गांव में संक्रमणों का प्रकोप काफी कम हुआ, बनिस्बत उस गांव के जहां उत्कृष्ट चिकित्सा सुविधाएं और साफ-सफाई व्यवस्था उपलब्ध कराई गई थी। गांवों के बीच अंतर उल्लेखनीय था – चार वर्षों की अवधि में पूरक पोषण प्राप्त करने वाले गांव में प्रति बच्चा 6.6 अस्वस्थताएं हुईं जबकि दूसरे गांव में 18.7 अस्वस्थता प्रति बच्चा।

भ्रूणावस्था का कुपोषण

शुरुआती जीवन में कुपोषण के सेहत पर असर नवजात शिशु (newborn) में, शैशवावस्था में, स्कूल-पूर्व उम्र में और जीवन भर देखे जाते हैं। मां का कुपोषण भ्रूण के कुपोषण में दिखता है जो जन्म के समय कम वज़न के रूप में सामने आता है। भ्रूणावस्था में कुपोषण का सम्बंध आगे चलकर गैर-संक्रामक रोगों (जैसे मोटापे(obesity), मधुमेह(diabetes), उच्च रक्तचाप(hypertension), हृदय रोगों (heart diseases) तथा गुर्दों के जीर्ण रोगों) (NCDs) से देखा गया है।

निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-income countries) में गैर-संक्रामक रोगों का प्रकोप तेज़ी से बढ़ रहा है। इन देशों में जन्म के समय कम वज़न आम बात है। पिछले 30 वर्षों में अनुसंधान से प्रमाणित हुआ है कि उच्च रक्तचाप, डायबिटीज़, गुर्दा रोग जैसी बीमारियों की उत्पत्ति का सम्बंध विकसित होते भ्रूण को मिलने वाले पोषण में कमी से हो सकता है। यह इस बात की व्याख्या कर देता है कि क्यों भारत के निम्न आय वर्ग में भी ये रोग काफी व्याप्त हैं। वैसे इसका सम्बंध अस्वस्थ भोजन तथा सुस्त जीवनशैली से भी हो सकता है। अस्वस्थ भोजन का सम्बंध प्राय: खाद्यान्न असुरक्षा (food security) से देखा जाता है। पर्याप्त संतुलित भोजन के अभाव में प्रोसेस्ड भोजन (processed food) का उपभोग बढ़ता है जिसमें अत्यधिक शर्करा, संतृप्त वसाएं, सोडियम होते हैं लेकिन पोषक तत्वों का अभाव होता है। भारत में इसका असर डायबिटीज़ (जल्दी शुरू होने वाले) के बढ़ते प्रकोप में दिख रहा है। भ्रूणावस्था में कुपोषण के बाद यदि बढ़ती उम्र में अधिक ऊर्जा का सेवन किया जाए या प्रोटीन व कैलोरी का अभाव रहे तो डायबिटीज़ का जोखिम बढ़ सकता है।

जन्म के समय कम वज़न (low birth weight) का परिणाम शरीर की वृद्धि कम होने और संज्ञान के विलंबित विकास के रूप में सामने आ सकता है। लिहाज़ा, बच्चों को सबसे पहला टीका तो गर्भावस्था के दौरान महिला को पर्याप्त संतुलित आहार (balanced diet) के रूप में होगा।

जन स्वास्थ्य पर पोषण के असर का प्रथम प्रमाण तो ग्रेट ब्रिटेन द्वारा द्वितीय विश्व युद्ध के समय अपनाई गई युद्धकालीन खाद्य नीति थी। इस नीति ने सारे नागरिकों के लिए, उनकी आमदनी की परवाह न करते हुए, ज़रूरी खुराक सुनिश्चित की थी। लोगों की खुराक में दूध और सब्ज़ियों के सेवन में क्रमश: 28 प्रतिशत और 34 प्रतिशत वृद्धि देखी गई जबकि मांस की खपत में 21 प्रतिशत की कमी आई। परिणाम यह रहा कि “शिशुओं, नवजात बच्चों और माताओं की मृत्यु दर न्यूनतम स्तर पर पहुंच गई और एनीमिया का प्रकोप कम हुआ, स्कूली बच्चों की विकास दर तथा दांतों की सेहत बेहतर हुई, और आम आबादी का पोषण स्तर युद्ध-पूर्व की स्थिति से बेहतर हो गया।”

पर्याप्त संतुलित भोजन: एक कारगर टीका

उपरोक्त चर्चा से स्पष्ट है कि पर्याप्त संतुलित भोजन बीमारियों की रोकथाम (disease prevention) में अहम भूमिका निभाता है। एक मायने में यह टीके (vaccine alternative) का काम करता है। पर्याप्त संतुलित भोजन उसे कह सकते हैं जो व्यक्ति की उम्र, वज़न, काम के अनुसार पर्याप्त ऊर्जा व प्रोटीन प्रदान करे और विविध अनाजों, दालों, फलों, सब्ज़ियों, स्वस्थ वसाओं, मेवों, जंतु स्रोतों से प्राप्त भोजन (दूध, पोल्ट्री, मछली) की दृष्टि से संतुलित हो (balanced diet)। यह टीबी पैदा करने वाले एसिड-फास्ट बैसिली के विरुद्ध एक टीके की क्षमता रखता है। इसकी कई खूबियां इसे एक अनोखा टीका बनाती हैं।

पर्याप्त संतुलित भोजन रोग की रोकथाम का उपाय भी है और रोग हो जाने पर मुत्यु से बचाव का तरीका भी है। यह टीबी उपचार के दौरान कुपोषण सम्बंधी जोखिमों से बचाव कर सकता है। ये जोखिम काफी होते हैं। जैसे, रैशन्स परीक्षण में देखा गया था कि शुरुआत में लगभग आधे टीबी मरीज़ काफी कम वज़न वाले थे और अगले दो महीनों में उनका वज़न औसतन 5 प्रतिशत बढ़ा और मृत्यु का खतरा 60 प्रतिशत कम हुआ। इसके विपरीत जिन टीबी मरीज़ों को पोषण का सहारा नहीं दिया गया था, उनका वज़न पहले दो महीनों में या तो स्थिर रहा या कम होता गया। और मृत्यु का जोखिम पांच गुना अधिक रहा।

एक व्यवस्थित समीक्षा में यह भी देखा गया कि कम वज़न (underweight) का सम्बंध उपचार-उपरांत मृत्यु से भी है। कम वज़न वाले मरीज़ों में यह 14.8 प्रतिशत रही जबकि अन्य मरीज़ों में मात्र 5.6 प्रतिशत। जिन मरीज़ों का वज़न शुरुआत में कम था और परीक्षण के दौरान उनका वज़न पर्याप्त नहीं बढ़ा, उनमें टीबी (TB relapse) के फिर से सिर उठाने का ज़ोखिम लगभग दुगना रहा।

पर्याप्त संतुलित आहार टीके की खूबियां

  1. पर्याप्त संतुलित आहार (suffecient balanced diet) टीबी मरीज़ों के लिए रोकथाम और इलाज दोनों भूमिकाएं निभा सकता है – तत्काल व दीर्घावधि दोनों तरह के प्रतिकूल परिणामों के लिहाज़ से। यह बीमारी के रोकथाम (disease prevention) में तो कारगर है ही, साथ ही यह मृत्यु की रोकथाम तथा बीमारी के वापिस सिर उठाने से रोकथाम में भी कारगर है।
  2. पर्याप्त संतुलित आहार एक ऐसा टीका है जिसे मुंह से लिया जा सकता है और कोल्ड चेन (cold chain) वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं होती। वैसे तो मां का दूध पहला संतुलित आहार टीका है जिसके लाभदायक असर जाने-माने हैं।
  3. पर्याप्त संतुलित आहार एक बहुआयामी (पोलीवैलेंट – polyvalent) टीका है यानी यह व्यक्ति के प्रतिरक्षा तंत्र को कई संक्रामक रोगों के खिलाफ मज़बूती देता है। और यह मज़बूती आने वाली पीढ़ियों को भी मिल जाती है। और यह कई गैर-संक्रामक रोगों की भी रोकथाम का काम करता है। कुपोषण की स्थिति में कई संक्रमण बार-बार होते हैं और गंभीर हो जाते हैं। संतुलित आहार इसे कम करता है।
  4. यह बच्चों, बुज़ुर्गों, गर्भवती तथा दूध पिलाती माताओं सबके लिए समान रूप से उपयोगी है। और यह सामान्य स्वास्थ्य को भी बेहतर करता है।
  5. पर्याप्त संतुलित आहार टीका खेतों में उगाकर आसानी से वितरित किया जा सकता है। इसके उत्पादन के लिए किसी उच्च टेक्नॉलॉजी की ज़रूरत नहीं होती और न किसी डॉक्टर की ज़रूरत होती है जो इसे लिखे।
  6. सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसमें पेटेंट(patent), बौद्धिक संपदा अधिकार (intellectual property rights – IPR) वगैरह जैसे झंझट भी नहीं होते। वैसे भी भोजन के अधिकार को मानव अधिकार के सार्वभौमिक घोषणा पत्र तथा आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों की अंतर्राष्ट्रीय संधि में मान्य किया गया है।
  7. पर्याप्त संतुलित आहार टीके में अनुपालन की गारंटी होती है क्योंकि यह प्राप्तकर्ता को प्रसन्नता का एहसास देता है।
  8. पर्याप्त संतुलित आहार टीके के असर आने वाली पीढ़ियों (future generation) पर भी होते हैं। किसी व्यक्ति को मिलने वाला भोजन कई पीढ़ियों को प्रभावित करता है। कम वज़न वाली स्त्री के बच्चे भी कम वज़नी होने का खतरा होता है और उनके बच्चे भी कम वज़न के होने की संभावना ज़्यादा होती है।
  9. पर्याप्त संतुलित आहार स्वास्थ्य में सुधार लाने के अलावा संज्ञान क्षमता व उत्पादकता को भी बढ़ाता है। ग्वाटेमाला (guatemala) में किए गए अध्ययन से पता चला है कि शुरुआती बचपन में दिए गए पूरक पोषण से बच्चों के शैक्षिक परिणामों (educational outcomes) में सुधार आया और आगे चलकर उनकी आर्थिक उत्पादकता भी बेहतर रही।
  10. पर्याप्त संतुलित आहार टीबी (TB) एवं अन्य रोगों के खिलाफ उपलब्ध टीकों के असर को बढ़ा सकता है। एक समुचित प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया काफी हद तक ज़रूरी पोषक पदार्थों की उपस्थिति पर निर्भर करती है। लिहाज़ा, व्यक्ति में पोषण की स्थिति टीकों के प्रति व्यक्ति की प्रतिक्रिया को प्रभावित करती है।

कुल मिलाकर, पर्याप्त संतुलित आहार को एक ऐसा टीका कहना अनुचित न होगा जो कारगर है, उपाचारात्मक है, रोकथाम करता है, मुंह से दिया जा सकता है, सुरक्षित है, वृद्धि को बढ़ावा देता है, और प्रसन्नता देता है, जिसका उपयोग अन्य टीकों के साथ सहकारी के रूप में किया जा सकता है, जिसे पेटेंट वगैरह झंझट के बिना खेतों में उगाया जा सकता और सीधे उपभोक्ता को दिया जा सकता है। कुछ लोगों को शायद यह बात अतिरंजित लगे लेकिन निम्न-मध्यम आमदनी वाले देशों (low-medium income countries) में आबादी में व्याप्त कुपोषण – जो टीबी प्रकोप का एक प्रमुख चालक है – को नज़रअंदाज़ करना हमें कभी टीबी मुक्त दुनिया की ओर नहीं ले जा सकता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ग्लोबल वार्मिंग पर विवादित रिपोर्ट से मचा हंगामा

हाल ही में अमेरिका के ऊर्जा विभाग (Department of Energy, USA) द्वारा जारी एक रिपोर्ट से बड़ी बहस छिड़ गई है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि ग्लोबल वार्मिंग से होने वाला आर्थिक नुकसान पूर्व मान्यता की अपेक्षा कम होगा। लेकिन कई वैज्ञानिकों का कहना है कि यह रिपोर्ट जलवायु विज्ञान (climate science) को गलत तरीके से पेश कर रही है और इसका मकसद अमेरिकी सरकार को 2009 के उस अहम फैसले को रद्द करने में मदद करना है, जिसमें ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) को जन स्वास्थ्य के लिए खतरनाक माना गया था।

गौरतलब है कि बराक ओबामा (Barack Obama) के कार्यकाल में पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (Environmental Protection Agency – EPA) ने ठोस सबूतों के आधार पर निष्कर्ष दिया था कि कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) जैसी ग्रीनहाउस गैसें इंसानों और पर्यावरण के लिए हानिकारक हैं, और इसी के आधार पर वाहनों, बिजली संयंत्रों और अन्य स्रोतों से होने वाले उत्सर्जन पर नियंत्रण के नियम बने थे। लेकिन अब सरकार इस फैसले को पलटने की कोशिश कर रही है। गौरतलब है कि राष्ट्रपति ट्रंप (Donald Trump)  जलवायु परिवर्तन को शिगूफा (climate change hoax) करार दे चुके हैं।

यह रिपोर्ट ऊर्जा सचिव क्रिस राइट (Chris Wright) ने पांच व्यक्तियों से तैयार करवाई है। इनमें वायुमंडलीय वैज्ञानिक जॉन क्रिस्टी, जलवायु वैज्ञानिक जूडिथ करी, भौतिक विज्ञानी स्टीवन कूनिन, अर्थशास्त्री रॉस मैक्किट्रिक व मौसम वैज्ञानिक रॉय स्पेंसर शामिल हैं।

रिपोर्ट के लेखकों ने कहा है कि वे तथ्यों पर आधारित खुली और पारदर्शी चर्चा (scientific debate) के लिए तैयार है, और अगर गंभीर वैज्ञानिक सुझाव मिलते हैं तो रिपोर्ट में बदलाव किया जाएगा। एजेंसी ने इस दस्तावेज़ को जनता और विशेषज्ञों द्वारा समीक्षा (public review) के लिए 2 सितंबर तक खुला रखा है।

लेकिन कई वैज्ञानिक नाराज़ हैं। एरिज़ोना विश्वविद्यालय (University of Arizona)  की महासागर विज्ञानी जोएलेन रसेल का मानना है कि यह रिपोर्ट विज्ञान को आगे बढ़ाने की बजाय दबा रही है। फिलहाल कई शोधकर्ता रिपोर्ट के हर दावे का एक तथ्यात्मक जवाब (scientific rebuttal) तैयार कर रहे हैं। इस मामले में टेक्सास स्थित ए एंड एम युनिवर्सिटी के एंड्रयू डेस्लर सुप्रीम कोर्ट तक जाने को तैयार हैं। कुछ वैज्ञानिक बताते हैं कि वर्तमान जलवायु खतरे (climate risks) के सबूत पहले से कहीं अधिक मज़बूत हैं। ऐसे में इस तरह की रिपोर्ट दुर्भाग्यपूर्ण है।

यदि ट्रंप प्रशासन जोखिम सम्बंधी निष्कर्ष को रद्द करने में सफल हो जाता है, तो पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी का ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रित करने का अधिकार समाप्त हो सकता है। इससे जलवायु प्रदूषण व परिवर्तन (climate pollution & change) पर कानूनी कार्रवाई मुश्किल हो जाएगी, और वैश्विक तापमान वृद्धि (global temperature rise) का प्रभाव और अधिक बदतर हो जाएगा। जलवायु वैज्ञानिकों (climate scientists) के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक रिपोर्ट की नहीं है बल्कि दशकों के शोध परिणामों की रक्षा, विज्ञान पर भरोसा बनाए रखने और यह सुनिश्चित करने की है कि सार्वजनिक नीतियां ठोस सबूतों पर आधारित हों, न कि संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ पर। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या लीथियम याददाश्त बचाने में मददगार है?

लीथियम धातु (Lithium metal) का उपयोग फोन और लैपटॉप की बैटरियों में किया जाता है। लेकिन चिकित्सा, खासकर मानसिक स्वास्थ्य (mental health) सम्बंधी चिकित्सा, में भी लीथियम का उपयोग होता है। इसका उपयोग मूडवर्धक के तौर पर सॉफ्ट ड्रिंक तथा बाइपोलर डिसऑर्डर (bipolar disorder) में मूड स्विंग नियंत्रित करने के लिए किया जाता रहा है। और अब नेचर पत्रिका (Nature journal) में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार लीथियम याददाश्त और दिमाग की सेहत के लिए भी अहम हो सकता है।

इस अध्ययन में हारवर्ड (Harvard University) के न्यूरोसाइंटिस्ट ब्रूस यैंकनर और उनकी टीम ने मृत्यु के पश्चात सैकड़ों बुज़ुर्गों के मस्तिष्क का अध्ययन किया। इनमें से कुछ को अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) था, कुछ में हल्की स्मृतिभ्रंश (mild dementia) की समस्या थी, और बाकी पूरी तरह स्वस्थ थे। उन्होंने पाया कि अल्ज़ाइमर और मामूली संज्ञानात्मक समस्या (cognitive impairment) वाले लोगों के मस्तिष्क में लीथियम का स्तर स्वस्थ लोगों की तुलना में कम था। और तो और, ऐसे लोगों में जो लीथियम था वह भी ज़्यादातर अल्ज़ाइमर से जुड़े एमिलॉइड प्लाक (amyloid plaques) के बीच फंसा था जिससे दिमाग के सामान्य कार्य के लिए और भी कम लीथियम बचा था।

मस्तिष्क में लीथियम का कम स्तर मिलना सिर्फ पहला कदम था। इसके बाद टीम ने जांचा कि क्या लीथियम का स्तर बढ़ाने से मदद मिल सकती है। उन्होंने लीथियम ओरोटेट (Lithium orotate) नामक यौगिक को उन चूहों पर आज़माया जिन्हें आनुवंशिक रूप से अल्ज़ाइमर जैसे लक्षण विकसित करने के लिए तैयार किया गया था। गौरतलब है कि बाइपोलर डिसऑर्डर की चिकित्सा (bipolar disorder treatment) में लीथियम के एक अन्य लवण लीथियम कार्बोनेट (Lithium carbonate) का इस्तेमाल किया जाता है।

उन्होंने पाया कि जिन चूहों को पीने के पानी में थोड़ी मात्रा में लीथियम ओरोटेट दिया गया, उनमें एमिलॉइड प्लाक्स (amyloid plaques) या टाउ (tau protein) नहीं बना। यहां तक कि जिन वृद्ध चूहों की याददाश्त कमज़ोर हो चुकी थी, वे फिर से चीज़ों को पहचानने और भूल-भुलैया में रास्ता ढूंढने लगे। इसमें सबसे अहम बात यह रही कि इतनी कम मात्रा में लीथियम देने से किडनी (kidney health) या थायरॉयड (thyroid) को वह नुकसान नहीं हुआ जो कभी-कभी लीथियम कार्बोनेट से हो जाता है। दूसरी ओर, जिन चूहों को लीथियम की कमी वाला आहार दिया गया, उनकी याददाश्त कमज़ोर हो गई और उनके मस्तिष्क में और अधिक प्लाक्स बनने लगे।

गौरतलब है कि लीथियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों, समुद्री पानी, कुछ सब्ज़ियों (जैसे पत्ता गोभी और टमाटर) और कुछ क्षेत्रों के पीने के पानी में पाया जाता है। फिर भी विशेषज्ञ इस खोज (scientific discovery) को काफी महत्वपूर्ण मानते हैं और एंटी-एमिलॉइड दवाओं (anti-amyloid drugs) में हालिया प्रगति के बावजूद, इसे एक प्रभावी उपचार (effective treatment) के रूप में देखते हैं।

हालांकि ये नतीजे उम्मीद जगाने वाले हैं, लेकिन महज़ इन नतीजों के आधार पर लीथियम सप्लीमेंट (lithium supplements) न लेने लगें। एक तो अभी यह अध्ययन बस चूहों पर हुआ है, दूसरा डॉक्टर की सलाह के बिना इसे न लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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संक्रमण सुप्त कैंसर कोशिकाओं को जगा सकते हैं

चूहों पर हुए एक अध्ययन के अनुसार कोविड-19 (covid-19 infection) और फ्लू (flu infection) जैसे संक्रमण ‘सुप्त’ कैंसर कोशिकाओं को सक्रिय कर सकते हैं। नेचर (Nature journal study) में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक, ऐसे संक्रमण कुछ मरीज़ों में कैंसर से मौत का खतरा (cancer risk) लगभग दुगना कर सकते हैं।

दरअसल, कैंसर के इलाज (cancer treatment) में मुख्य ट्यूमर हटा देने के बाद भी कुछ कैंसर कोशिकाएं अस्थिमज्जा या फेफड़ों जैसी जगहों में छिपी रह सकती हैं। इन्हें सुप्त कैंसर कोशिकाएं (dormant cancer cells) कहते हैं, जो सालों तक निष्क्रिय रहती हैं लेकिन मौका मिलने पर मेटास्टेसिस (cancer metastasis) यानी कैंसर फैलने की वजह बन सकती हैं।

लेकिन इनके जागने का कारण क्या है? पूर्व अध्ययनों में पाया गया था कि धूम्रपान (smoking risk), उम्र बढ़ना (aging factor) या कुछ बीमारियों से होने वाला जीर्ण शोथ इसका कारण हो सकते हैं। लेकिन कोलोराडो युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन (Colorado University School of Medicine) के जेम्स डीग्रेगरी और उनकी टीम को लगा कि शायद सांस के संक्रमण (respiratory infection) से होने वाले गंभीर शोथ का भी इसमें हाथ हो सकता है।

इसे परखने के लिए उन्होंने चूहों को इस तरह तैयार किया कि उनमें स्तन कैंसर ट्यूमर बनें और फेफड़ों में सुप्त कैंसर कोशिकाएं मौजूद रहें। फिर इन चूहों को या तो SARS-CoV-2 (कोविड-19 वायरस) या इन्फ्लुएंज़ा (फ्लू) वायरस (Influenza virus)  से संक्रमित किया। नतीजे चौंकाने वाले थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि संक्रमण के कुछ ही दिनों में सोई हुई कैंसर कोशिकाएं तेज़ी से बढ़ने लगीं और फेफड़ों में मेटास्टेटिक घाव (metastatic lesions) बनने लगे। इसका कारण सिर्फ वायरस नहीं, बल्कि इंटरल्यूकिन-6 (IL-6 -immune molecule) नाम का एक प्रतिरक्षा अणु था, जो संक्रमण से लड़ने में अहम भूमिका निभाता है।

जब वैज्ञानिकों ने ऐसे चूहों पर प्रयोग किया जिनमें IL-6 नहीं था, तो कैंसर कोशिकाओं की वृद्धि काफी धीमी रही। इससे साबित हुआ कि IL-6 इस प्रक्रिया का मुख्य कारक है। एक और चौंकाने वाली बात यह निकली कि हेल्पर T कोशिकाएं (Helper T cells), जो आम तौर पर बीमारियों से बचाव करती हैं, वे इन कैंसर कोशिकाओं को प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system protection) के हमले से बचा रही थीं।

इन निष्कर्षों के बाद वैज्ञानिकों ने यूके बायोबैंक का डैटा (UK Biobank data) देखा और पाया कि जिन लोगों को कोविड-19 हुआ था, उनमें कैंसर से मरने का खतरा (cancer mortality risk) उन लोगों की तुलना में लगभग दुगना था जिन्हें कोविड नहीं हुआ। इसके अलावा यह खतरा संक्रमण के बाद (post-infection risk) शुरुआती कुछ महीनों में सबसे ज़्यादा था।

वैसे तो ये निष्कर्ष शुरुआती (initial research) हैं और अभी और अधिक अनुसंधान की ज़रूरत है। लेकिन चीज़ें और स्पष्ट होने तक संक्रमण (infection prevention) से एहतियात बरतना ही बेहतर होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अनावश्यक गर्भाशय निकालने के विरुद्ध अभियान ज़रूरी

भारत डोगरा

दिसंबर 2023 में सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) ने अपने एक निर्णय में निर्देश दिए थे कि बिना चिकित्सीय आवश्यकता के गर्भाशय हटा देने का ऑपरेशन (हिस्टरेक्टोमी – hysterectomy surgery) करने की हानिकारक प्रवृत्ति को रोकना चाहिए एवं इसकी रोकथाम के लिए केंद्र, राज्य, ज़िला एवं क्षेत्रीय स्तर पर व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए।

चिकित्सा विज्ञान (medical science) में यह मान्य है कि कुछ गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं के चलते गर्भाशय को ऑपरेशन कर हटाया जा सकता है। परंतु यदि ये स्वास्थ्य समस्याएं दवाइयों या अन्य इलाज से ठीक हो जाएं तो बेहतर है, क्योंकि गर्भाशय हटा देने से कई अन्य स्वास्थ्य समस्याएं भी पैदा हो सकती हैं। अत: गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन अंतिम विकल्प (last resort) होना चाहिए।

दूसरी ओर, हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि चिकित्सीय आवश्यकता न होने पर भी गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन (uterus removal surgery) किए जा रहे हैं। कई बार ऐसे ऑपरेशन अतिरिक्त धन अर्जन या मुनाफे के लिए किए जाते हैं। यह भी देखा गया कि कुछ बीमा योजनाओं (health insurance schemes) के अंतर्गत ऐसे बहुत से ऑपरेशन कर दिए गए जिनकी चिकित्सीय आवश्यकता नहीं थी।

वर्ष 2010 के आसपास ऐसी प्रवृत्तियां अनेक स्थानों पर दिखाई दीं। इसमें दौसा (राजस्थान) में बड़े स्तर पर होने वाले ऐसे ऑपरेशनों पर गहरी चिंता व्यक्त की गई थी। ऐसी शिकायतों की जांच की गई व इसके आधार पर राष्ट्रीय स्तर पर विमर्श (national discussion) भी हुआ। इसी दौरान डॉ. नरेन्द्र गुप्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशनों की बढ़ती प्रवृत्ति पर रोक लगाने की अपील (public interest litigation) की।

इस अपील का दायरा वैसे तो राष्ट्रीय स्तर का था, किंतु इसमें राजस्थान, बिहार व छत्तीसगढ़ राज्यों का उल्लेख विशेष तौर पर था। अत: सुप्रीम कोर्ट ने इन राज्यों को नोटिस (legal notice) जारी किए तथा वहां के अधिकारियों ने जांच आरंभ की। इस जांच के आधार पर बिहार की सरकार ने पाया कि इस तरह की हानिकारक प्रवृत्ति अनेक स्थानों पर मौजूद है। वर्ष 2022 में स्वास्थ्य मंत्रालय (Ministry of Health) ने इस सम्बंध में दिशानिर्देश जारी किए ताकि इस चिंताजनक प्रवृत्ति पर रोक लग सके।

वर्ष 2023 में सुप्रीम कोर्ट ने इन दिशानिर्देशों को और स्पष्ट रूप से अपने आदेश (court order) में जारी किया। दुर्भाग्यवश, इसके बाद भी इन दिशानिर्देशों को सही भावना में कार्यान्वित नहीं किया जा सका है। उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी अनावश्यक रूप से गर्भाशय हटाने के गंभीर समाचार मिल रहे हैं।

इस सिलसिले में महाराष्ट्र से गन्ने की कटाई में लगी महिला मज़दूरों (female laborers) के गर्भाशय हटाने का ऑपरेशन किए जाने के जो समाचार मिले हैं, वे विशेष तौर पर चिंताजनक हैं।

अब समय आ गया है कि इस गंभीर विषय (serious issue) पर अधिक सक्रियता दिखाई जाए व इस समस्या को कम करने के जो दिशानिर्देश पहले ही जारी हो चुके हैं, उन्हें कारगर ढंग से लागू किया जाए।

इस समस्या का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि अनुचित ढंग के गर्भाशय निकालने के ऑपरेशन (unnecessary hysterectomy) अधिकतम निर्धन व कम शिक्षित महिलाओं (poor and uneducated women) के हो रहे हैं। उनकी कम जानकारी (lack of awareness) का लाभ उठाकर या उन्हें गलत जानकारी देते हुए यह ऑपरेशन कर दिया जाता है। फिर वर्षों तक महिलाएं इससे जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं (health complications) को झेलती रहती हैं। मेहनतकश महिलाओं (working women) को दैनिक जीवन में वैसे भी स्वास्थ्य समस्याएं अधिक होती हैं, गर्भाशय हटाए जाने से ये और बढ़ जाती हैं।

अनावश्यक गर्भाशय हटाने के ऑपरेशन को रोकना महिला स्वास्थ्य (women’s health) के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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होर्मुज़ जलडमरूमध्य का महत्त्व

डॉ. इरफ़ान ह्यूमन

होर्मुज़ जलडमरूमध्य (जलसंधि) (Strait of Hormuz) हाल के दिनों में चर्चा में है क्योंकि यह वैश्विक तेल व्यापार (global oil trade) का एक महत्वपूर्ण मार्ग है, जिससे दुनिया का लगभग 20-25 प्रतिशत तेल और एक तिहाई एलएनजी (Liquified Natural Gas) आपूर्ति होकर गुज़रती है। यह फारस की खाड़ी और ओमान की खाड़ी को जोड़ता है।

हाल के भू-राजनीतिक तनावों (geopolitical tensions), खासकर ईरान और इस्राइल-अमेरिका (Iran-Israel–US) के बीच बढ़ते संघर्ष के कारण, इस जलडमरूमध्य की रणनीतिक स्थिति ने इसे सुर्खियों में ला दिया है। बीते दिनों अमेरिका और इस्राइल द्वारा ईरान के परमाणु ठिकानों (nuclear sites) पर हवाई हमले किए गए, जिसके जवाब में ईरान ने होर्मुज़ जलडमरूमध्य को बंद करने की धमकी दी है, जिससे वैश्विक तेल आपूर्ति(global oil supply) पर संकट मंडरा सकता है। इस बीच होर्मुज़ जलडमरूमध्य में एक बड़ा तेल टैंकर (oil tanker) जलने की घटना सामने आई है, जिसने अफरा-तफरी मचा दी है। अमेरिका और इस्राइल के बीच हुए युद्धविराम के बावजूद, इस क्षेत्र में तनाव बना हुआ है जिससे जलडमरूमध्य और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर अनिश्चितता बढ़ी है।

भौगोलिक स्थिति और संरचना

होर्मुज़ जलडमरूमध्य ईरान के दक्षिणी तट और संयुक्त अरब अमीरात (UAE) व ओमान के उत्तरी तटों के बीच स्थित है। इसकी चौड़ाई सबसे संकीर्ण स्थान पर लगभग 33 किलोमीटर है, और गहराई 30 से 90 मीटर तक है। यह गहराई बड़े तेल टैंकरों (super tankers) के लिए पर्याप्त है, जिससे यह व्यापारिक मार्ग (shipping route) के रूप में महत्वपूर्ण है। हालांकि यह जलडमरूमध्य ऊबड़-खाबड़ है। इसमें कई स्थानों पर चट्टानें और उथले क्षेत्र हैं, जो नौवहन (marine navigation) को दुष्कर बनाते हैं।

यह क्षेत्र पेट्रोलियम (petroleum reserves) और प्राकृतिक गैस (natural gas reserves) के भंडारों से भरपूर है। समुद्र तल की भूगर्भीय परतों में हाइड्रोकार्बन (hydrocarbons) भंडार मौजूद हैं।

होर्मुज़ का जलविज्ञान

होर्मुज़ जलडमरूमध्य की उच्च लवणीयता (high salinity) इसके जल प्रवाह (water circulation) और घनत्व को प्रभावित करती है, जो समुद्री धाराओं और नौवहन के लिए महत्वपूर्ण हैं।

यहां ज्वार-भाटा का असर कम रहता है, लेकिन तेज़ धाराएं नौवहन को प्रभावित कर सकती हैं। यहां का ज्वार प्रतिदिन दो बार चढ़ता है, जिससे जहाज़ों की आवाजाही और समुद्री जीवन प्रभावित होता है। ज्वार की ऊंचाई आम तौर पर 1-2 मीटर होती है।

फारस की खाड़ी से ओमान की खाड़ी की ओर एक सतही धारा बहती है, जो खाड़ी के गर्म और खारे पानी को बाहर ले जाती है। इसके विपरीत, गहराई पर ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से फारस की खाड़ी की ओर बहता है।

इसकी लवणीयता की बात करें तो होर्मुज़ जलडमरूमध्य में सतही पानी की लवणीयता सामान्यत: 40-42 पीपीटी के बीच रहती है, जो समुद्री जीवन को चुनौतीपूर्ण बना देता है। पीपीटी लवणीयता नापने की एक इकाई है जो लगभग ग्राम प्रति लीटर के बराबर होती है। यह क्षेत्र ‘अतिलवणीय’ क्षेत्र कहलाता है। यह समुद्र की औसत लवणीयता (लगभग 35 पीपीटी) से काफी अधिक है। इसका कारण फारस की खाड़ी में उच्च वाष्पीकरण दर और (नदियों आदि से) कम मीठे पानी की आपूर्ति है। वहीं, गहरे पानी में लवणीयता थोड़ी कम हो सकती है (लगभग 38-39 पीपीटी), क्योंकि यहां ठंडा और कम खारा पानी ओमान की खाड़ी से प्रवेश करता है। साथ ही, जलडमरूमध्य के बाहर, ओमान की खाड़ी और अरब सागर की ओर जाने पर लवणीयता कम होकर लगभग 36 पीपीटी तक पहुंच जाती है, क्योंकि यह क्षेत्र खुले समुद्र से जुड़ा है और यहां वाष्पीकरण का प्रभाव कम होता है।

लवणीयता को प्रभावित करने वाले कारकों की बात करें तो इसमें पहला है उच्च वाष्पीकरण। होर्मुज़ जलडमरूमध्य और फारस की खाड़ी में गर्म और शुष्क जलवायु के कारण वाष्पीकरण की दर बहुत अधिक है। इस क्षेत्र में वर्षा नगण्य होती है, जिससे पानी में लवण की सांद्रता बढ़ती है। इसका दूसरा कारक है कम मीठा पानी। फारस की खाड़ी में दजला और फरात के संगम से बनी शट्ट-अल-अरब जैसी कुछ नदियां ही मीठा पानी लाती हैं, लेकिन यह लवणीयता को कम करने के लिए पर्याप्त नहीं है।

पर्यावरण और पारिस्थितिकी

उच्च लवणीयता वाले होर्मुज़ जलडमरूमध्य में मूंगा चट्टानें (coral reefs), मछलियां (marine fish) और अन्य समुद्री जीव (डॉल्फिन, समुद्री कछुए) और प्लवक पाए जाते हैं। उच्च लवणीयता और गर्म पानी के लिए अनुकूलित प्रजातियां ही यहां जीवित रह पाती हैं। लेकिन प्रदूषण और भारी नौवहन से इन जीवों पर असर पड़ रहा है।

होर्मुज़ जलडमरूमध्य में प्रदूषण का सबसे बड़ा कारण तेल रिसाव है। होर्मुज़ जलडमरूमध्य दुनिया के सबसे व्यस्त तेल शिपिंग मार्गों में से एक है, जहां से प्रतिदिन लाखों बैरल तेल गुज़रता है। टैंकरों में आग या तेल रिसाव जैसी घटनाएं समुद्री पर्यावरण को नुकसान पहुंचाती हैं। तेल प्रदूषण मूंगा चट्टानों, मछलियों और अन्य समुद्री जीवों के लिए घातक है।

यहां की मौसमी हवाएं भी नौवहन को प्रभावित करती हैं, जिससे तेल रिसाव का जोखिम बढ़ जाता है, दूसरी चुनौती है औद्योगिक अपशिष्ट। फारस की खाड़ी के आसपास के देशों से औद्योगिक (industrial waste) और नगरीय अपशिष्ट जलडमरूमध्य में आते हैं, जिससे पानी की गुणवत्ता बिगड़ती है। साथ ही प्लास्टिक (plastic pollution) और माइक्रोप्लास्टिक (micro plastic) भी एक बड़ी पर्यावरणीय समस्या है। समुद्री कचरे, विशेष रूप से प्लास्टिक, का बढ़ता स्तर जलडमरूमध्य के पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित कर रहा है।

जलवायु और मौसम का प्रभाव

होर्मुज़ जलडमरूमध्य का पर्यावरण जलवायु और मौसमी कारकों से भी प्रभावित होता है। जलवायु परिवर्तन (climate change)  के कारण जलडमरूमध्य के सतही पानी का तापमान (sea surface temperature) बढ़ रहा है, जो समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र को प्रभावित करता है। चूंकि मूंगे उच्च तापमान सहन नहीं कर पाते इसलिए गर्म पानी मूंगा चट्टानों को नुकसान पहुंचा रहा है। गर्मी के प्रति संवेदनशील मछलियां और अन्य जीव या तो मर रहे हैं या क्षेत्र छोड़ रहे हैं, जिससे मछली पालन प्रभावित हो रहा है।

उच्च वाष्पीकरण के अलावा यहां की शमाल (उत्तर-पश्चिमी) हवाएं और धूल भरी आंधियां पानी की सतह पर धूल की परत जमा देती हैं, जो सूर्य प्रकाश को अवरुद्ध कर प्लवक की वृद्धि को प्रभावित करती हैं।

मानवीय गतिविधियों का प्रभाव भी यहां के पर्यावरण को प्रभावित कर रहा है। भारी तेल टैंकर और जहाज़ों की आवाजाही से समुद्री ध्वनि प्रदूषण (underwater noise pollution) बढ़ रहा है, जो डॉल्फिन (dolphins) और व्हेल (whales) जैसी प्रजातियों के लिए हानिकारक है। भू-राजनीतिक तनावों के कारण सैन्य अभ्यास और जहाज़ों की मौजूदगी भी पर्यावरण पर दबाव डालती है। फारस की खाड़ी के देशों में डीसेलिनेशन संयंत्रों से निकलने वाला अति-खारा पानी जलडमरूमध्य में छोड़ा जाता है, जो लवणीयता को और बढ़ाता है और पारिस्थितिकी तंत्र को असंतुलित करता है।

जलवायु परिवर्तन से दीर्घकालिक जोखिम के चलते समुद्र जलस्तर बढ़ रहा है, जो जलडमरूमध्य के तटीय पारिस्थितिकी तंत्रों, जैसे मैंग्रोव और दलदली क्षेत्रों, को खतरे में डाल सकता है।

वैसे यहां पर्यावरण संरक्षण के प्रयास भी चल रहे हैं। कुछ तटीय क्षेत्रों में समुद्री संरक्षण क्षेत्र स्थापित किए गए हैं, लेकिन जलडमरूमध्य का अधिकांश हिस्सा इन क्षेत्रों से बाहर है। तेल रिसाव और प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए क्षेत्रीय संगठन काम कर रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित है। वहीं भू-राजनीतिक तनाव और आर्थिक हित पर्यावरण संरक्षण को मुश्किल बनाते हैं।

उपग्रह विज्ञान और निगरानी

इस क्षेत्र में समुद्री गतिविधियों की निगरानी (maritime monitoring) जीआईएस (GIS – Geographic Information System) और रिमोट सेंसिंग तकनीकों के माध्यम से की जाती है। रिमोट सेंसिंग (remote sensing) डैटा जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को ट्रैक करने में मदद करता है। समुद्री रास्तों की सुरक्षा और जलवायु अध्ययन के लिए भी उपग्रह डैटा उपयोगी होता है। ये कृत्रिम उपग्रह मल्टी-स्पेक्ट्रल सेंसर का उपयोग करके पानी की गर्मी और लवणीयता में बदलाव का विश्लेषण करते हैं। वहीं, सेंटिनल-1 (Sentinel-1) और सेंटिनल-2 (Sentinel-2) जैसे उपग्रह तेल रिसाव पर नज़र रखते हैं और रिसाव के दायरे और प्रभाव का आकलन करते हैं।

उपग्रह डैटा (satellite data)  से प्लवक घनत्व (plankton density) और पानी में क्लोरोफिल स्तर (chlorophyll level) की निगरानी भी होती है, जो प्रदूषण और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत का संकेतक है। इसके अलावा, धूल भरी आंधियों, नौवहन जोखिम, अवैध गतिविधियों, भू-राजनीतिक और सुरक्षा निगरानी के लिए उपग्रह डैटा का उपयोग करके पर्यावरण का अध्ययन किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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मछुआरा बिल्ली की खोज में

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

भारत में जगंली (wild) बिल्ली परिवार (wild cat family) की 15 प्रजातियां पाई जाती हैं। लेकिन ज़्यादा ध्यान अमूमन बड़ी बिल्ली प्रजातियों जैसे शेर, बाघ पर दिया जाता है। लोगों को छोटी जंगली बिल्लियों, जैसे स्याहगोश (कैरकाल, caracal), रोहित-द्वीपी बिल्ली (rusty spotted cat), मछुआरा बिल्ली (fishing cat) आदि के बारे में ज़्यादा मालूमात नहीं है। ये छोटी और गुमनाम बिल्लियां भी उचित पहचान की हकदार हैं, क्योंकि ये अपने से कहीं ज़्यादा बड़े और बढ़ते खतरों से भरी दुनिया में विचरण कर रही हैं।

भारत की आर्द्रभूमियां (wetlands) मछुआरा बिल्लियों (Prionailurus viverrinus) के घर हैं। देश में इनके कई नाम हैं: बनबिरल, खुप्या बाघ, माचा बाघा वगैरह। यह पश्चिम बंगाल की राज्य पशु है और इसे बघरोल या मेचो बिराल कहा जाता है।

ये बिल्लियां आकार में घरेलू बिल्ली (domestic cat) से दुगनी होती हैं, वज़न 7 से 12 किलोग्राम होता है, और इनके भूरे-भूरे रंग के बालों पर काले चित्ते (black spots) होते हैं। अपने अधिकार-क्षेत्र (इलाके) में यह बिल्ली अक्सर शीर्ष शिकारी (apex predator) होती है, यानी कोई अन्य प्राणी इनका शिकार नहीं करता। आर्द्रभूमियां जीवंत पारिस्थितिक तंत्र होती हैं, नदी के बाढ़ क्षेत्र या मैंग्रोव (mangroves) और दलदल (swamps) जहां ये पाई जाती है।

मछुआरा बिल्ली में हुए कुछ असामान्य अनुकूलन (adaptations) उन्हें नम परिवेश में जीवित रहने में सक्षम बनाते हैं। आंशिक रूप से जालीदार पंजे (webbed paws), घना जलरोधी आवरण (फर – waterproof fur) और पानी में पूरी तरह डूबे होने पर भी तैरने की क्षमता इसकी जलीय प्रवृत्ति बताती है। उभरे हुए पंजे, जिन्हें पूरी तरह से अंदर नहीं खींचा जा सकता, बिल्ली को फिसलन भरी मिट्टी (slippery mud) में पकड़ बनाने और मछलियों को पकड़ने में मदद करते हैं। बिल्लियों का आहार मुख्य रूप से मछली है, हालांकि कृंतक (rodents), मुर्गियां (chickens) और अन्य छोटे जानवर खाने से भी ये परहेज़ नहीं करती हैं।

शिकार (hunting) की फिराक में मछुआरा बिल्ली का आधा समय जलस्रोत (water source) के किनारे खड़े, बैठे या दुबके हुए बीतता है। इसके शिकार करने का बमुश्किल 5 प्रतिशत समय ही पानी के अंदर बीतता है। उथले पानी में बिल्ली धीरे-धीरे चलती रहती है, अपने पंजों से मछली को उचकाती है और फिर उसे मुंह से पकड़ लेती है।

मछुआरा बिल्लियों को फैलाव (distribution) काफी बिखरा हुआ है: हिमालय का तराई क्षेत्र (Terai region), पश्चिमी भारत के कुछ दलदली क्षेत्र (marshes), सुंदरवन (Sundarbans), पूर्वी तट (east coast) और श्रीलंका (Sri Lanka)।

इन निशाचर (nocturnal), छुपी रुस्तम (elusive) बिल्ली की बिखरी हुई आबादी पर नज़र रखने के लिए वन्यजीव सर्वेक्षणकर्ता जलस्रोतों के नज़दीक कैमरा ट्रैप लगाते हैं। फिशिंग कैट प्रोजेक्ट (Fishing Cat Project) की तियासा आद्या और उनके सहयोगियों के एक नेटवर्क (fishingcat.org) द्वारा चिल्का झील (Chilika Lake) में विस्तृत गिनती की गई है, जहां मछलियां बहुतायत में हैं और मनुष्यों के साथ उनका टकराव सीमित है। उनके परिणामों का विस्तार करने पर ऐसा अनुमान है कि मछुआरा बिल्लियों की संख्या झील के 1100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में करीबन 750 है।

यह आशाजनक संख्या सुंदरबन में बिल्लियों की तेज़ी से घटती संख्या के विपरीत है। इस साल की शुरुआत में केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (भरतपुर) (Keoladeo National Park, Bharatpur) में मछुआरा बिल्ली देखी गई है, इसके दिखने के पहले तक ऐसा माना जाता था कि मछुआरा बिल्लियां राजस्थान (Rajasthan) में विलुप्त हो चुकी हैं।

यह गिरावट मुख्यत: उनके प्राकृतवास (habitat) में कमी के कारण है। ऐसा अनुमान है कि पिछले चार दशकों में भारत की 30-40 प्रतिशत आर्द्रभूमियां खत्म हो गई हैं या बहुत अधिक सिमट गई हैं। इसलिए, आर्द्रभूमि पारिस्थितिकी तंत्र की रक्षा करना मछुआरा बिल्लियों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। मनुष्यों के अतिक्रमण (human encroachment) ने भी मछुआरा बिल्लियों और उनके प्राकृतवास को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। कई लोग उन्हें मछलियों और मुर्गियों के शिकारी के रूप में देखते हैं, नतीजतन मनुष्य अपने पालतुओं के शिकार का बदला इन्हें मारकर लेते हैं। मनुष्यों द्वारा बदले की भावना से की गई हत्याओं (retaliatory killings) की एक बड़ी संख्या दर्ज है। समुदाय-आधारित संरक्षण (community-based conservation) कार्यक्रम इस शत्रुभाव को कम करने में मुख्य भूमिका निभा सकते हैं।

इस वर्ष, देहरादून स्थित भारतीय वन्यजीव संस्थान (Wildlife Institute of India) ने आंध्र प्रदेश में कोरिंगा वन्यजीव अभयारण्य (Coringa Wildlife Sanctuary) में गोदावरी नदी के मुहाने (Godavari river delta) पर मछुआरा बिल्लियों की निगरानी के लिए एक परियोजना शुरू की है। बिल्लियों में जीआईएस तकनीक (GIS technology) से लैस जीपीएस कॉलर (GPS collar) लगाकर उनका स्थान सम्बंधी सटीक डैटा एकत्र किया जाएगा। कॉलर से प्राप्त सतत डैटा उनके पसंदीदा आवासों, उनकी गतिविधियों और मानव बस्तियों के संपर्क में आने के स्थानों के बारे में जानकारी देगा। ये सभी जानकारियां मछुआरा बिल्लियों की के संरक्षण व आबादी बढ़ाने की रणनीतियां बनाने में उपयोगी होंगी। (स्रोत फीचर्स)

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निसार सैटेलाइट से धरती की हर हलचल पर नज़र

हाल ही में भारत स्थित श्रीहरिकोटा से निसार (NISAR – NASA–ISRO Synthetic Aperture Radar) उपग्रह का प्रक्षेपण (satellite launch) हुआ है। यह उपग्रह वैज्ञानिकों को पृथ्वी की बदलती सतह की बेहद सटीक (1 सेंटीमीटर की सूक्ष्मता तक) तस्वीर दे सकता है। 1.2 अरब डॉलर की लागत वाला यह नासा (NASA) और इसरो (ISRO) का अब तक का सबसे बड़ा संयुक्त मिशन (joint mission) है, जिसका उद्देश्य ग्रह की निगरानी (planet monitoring) के तरीकों में क्रांतिकारी बदलाव लाना है।

सफलतापूर्क स्थापित हो जाने के बाद, अगले 90 दिनों में, निसार अपनी 12 मीटर चौड़ी रडार एंटेना (radar antenna) फैलाकर पृथ्वी पर सिग्नल (signal transmission) भेजना शुरू कर देगा। यह हर 12 दिन में लगभग पूरी पृथ्वी को दो बार स्कैन (earth scan) करेगा। और चाहे बादल हों या अंधेरा, किसी भी परिस्थिति में यह ज़मीन व बर्फ में होने वाले सभी बदलावों को दर्ज करेगा।

निसार में दो रडार सिस्टम (radar systems) हैं — एक नासा का और एक इसरो का — जो अलग-अलग तरंगदैर्घ्य पर काम करते हैं। ये दुनिया भर में मिट्टी की नमी, जंगलों में पेड़ों की संख्या (forest mapping), ग्लेशियरों की गति (glacier movement) और अन्य पर्यावरणीय बदलावों (environmental changes) पर नज़र रखेंगे।

इसके अलावा, निसार तेज़ निगरानी आपदा प्रबंधन में भी बड़ा बदलाव ला सकता है। यह भूकंप के बाद (earthquake monitoring) ज़मीन में आए बदलाव, भूस्खलन की आशंका वाले ढलानों (landslide detection) और बाढ़ग्रस्त (flood-affected areas) इलाकों का लगभग वास्तविक समय (real-time monitoring) में पता लगा सकता है। ऐसे समय पर मिले ये आंकड़े राहत दलों (rescue teams) को प्राथमिकता तय करने और तेज़ी से कार्रवाई करने में मदद करेंगे, जिससे जानें बचाई जा सकती है।

हालांकि वर्ष 2026 से अमेरिकी सरकार नासा के पृथ्वी विज्ञान बजट (Earth science budget) में 50 फीसदी से अधिक कटौती कर सकती है। इससे कई बड़े मिशन (space missions) रद्द हो सकते हैं और वर्तमान परियोजनाएं बंद हो सकती हैं। फिलहाल निसार को फंडिंग मिली हुई है। लेकिन भविष्य में फंडिग की अनिश्चितता का साया तो डोल ही रहा है। इतनी बड़ी कटौतियां पृथ्वी में हो रहे बदलावों (climate and earth changes) को समझने की क्षमता को कमज़ोर कर सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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अमेज़ॉन के जंगलों में बढ़ता पारा प्रदूषण

सुदर्शन सोलंकी

मेज़ॉन के जंगल (Amazon rainforest) 1.7 अरब एकड़ में फैले सर्वाधिक जैव विविधता (biodiversity) वाले उष्णकटिबंधीय वर्षावन (tropical rainforest) हैं। अमेज़ॉन क्षेत्र में नौ देशों के क्षेत्र शामिल हैं, ब्राज़ील (60 प्रतिशत), पेरू (13 प्रतिशत), कोलंबिया (10 प्रतिशत) और वेनेज़ुएला, इक्वाडोर, बोलीविया (6 प्रतिशत), गुयाना, सूरीनाम और फ्रेंच गुयाना के हिस्से हैं।

पेरू के अमेज़ॉन में नदी में खुदाई करके सोने का खनन (gold mining) होता है। खनिक सोनायुक्त तलछट में पारा (mercury) मिलाते हैं, जो सोने के साथ अमलगम (amalgam) बना लेता है। अमलगम को उच्च तापमान पर गर्म किया जाता है; पारा वाष्पित हो जाता है और सोना शेष बच जाता है। इस तरह वाष्पीकृत पारा अमेज़ॉन में पारा प्रदूषण (mercury pollution) का मुख्य कारण है।

2011 में, मात्र सोने के खनन के लिए लगभग 1400 टन पारे का उपयोग किया गया था, जो पारे की वैश्विक खपत का 24 प्रतिशत है। अधिकांश पारे का पुनर्चक्रण नहीं किया जाता है, जिससे सोना खनन पर्यावरण (environment) के लिए पारा प्रदूषण का सबसे बड़ा स्रोत बन जाता है।

पारा एक शक्तिशाली तंत्रिका-विष (neurotoxin) है जो लोगों और वन्यजीवों दोनों में तंत्रिका सम्बंधी क्षति का कारण बन सकता है।

वन्यजीवों में मिथाइल मर्करी (methylmercury) की मौजूदगी के संकेत मिले हैं। 12 पक्षी प्रजातियों में कई गुना अधिक पारा पाया गया है। और तो और, 10 में से 7 ब्लैक-स्पॉटेड बेयर आई पक्षियों (black-spotted bare-eye birds) में पारे की मात्रा उनकी प्रजनन क्षमता को प्रभावित करने के स्तर पर पाई गई।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने पारे को सार्वजनिक स्वास्थ्य चिंता (public health concern) के शीर्ष दस रसायनों में से एक माना है। पारा प्रदूषण वन्यजीवों को खतरे में डाल रहा है, जिससे जगुआर (jaguar) और नदी डॉल्फिन (river dolphin) समेत कई मछलियां खतरे में हैं।

एक नए अध्ययन के अनुसार, वायुमंडल में प्रतिवर्ष मानव निर्मित पारे के उत्सर्जन का लगभग 10 प्रतिशत वैश्विक वनों की कटाई का परिणाम है। वन हवा से विषैले प्रदूषकों को हटाकर सिंक के रूप में कार्य करते हैं। यदि इसी तरह कटाई होती रही तो पारा उत्सर्जन बढ़ेगा।

पारा प्रदूषण एक बड़ी समस्या है क्योंकि यह वाष्पीकृत हो जाता है और हवा के माध्यम से अपने उत्सर्जन स्रोत से बहुत दूर तक जा सकता है, जिससे हवा, पानी और मिट्टी प्रदूषित (air, water, soil pollution) होते हैं। मिट्टी पारे का प्राथमिक भंडार (primary mercury reservoir) है, जिसमें महासागरों में पाए जाने वाले पारे की मात्रा से तीन गुना और वायुमंडल से 150 गुना अधिक पारा संग्रहित होता है। हाल के वर्षों में कोयला दहन (coal combustion) को पीछे छोड़कर सोना खनन दुनिया के सबसे बड़े वायुजनित पारा प्रदूषण स्रोत के रूप में उभरा है। इससे प्रति वर्ष 1000 टन पारा वातावरण में उत्सर्जित होता है।

पारा पक्षियों समेत सभी प्राणियों के लिए एक गंभीर खतरा (environmental threat) है। प्रदूषण को कम करने के लिए कदम उठाना ज़रूरी है। इसके लिए अमेज़ॉन का संरक्षण (Amazon conservation) अत्यंत आवश्यक है क्योंकि अमेज़ॉन वर्षावन पारा सिंक के रूप में विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं। ये वैश्विक भूमि सिंक में लगभग 30 प्रतिशत योगदान देते हैं। अमेज़ॉन वनों की कटाई को रोकने से पारा प्रदूषण काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://today.duke.edu/sites/default/files/styles/1200_x_630px/public/legacy-files/mercury_MelissaMarchese_HERO.jpg?itok=4om8LhV5

खगोल भौतिकी में चहलकदमी

प्रज्ज्वल शास्त्री

मेरा जन्म स्पुतनिक उपग्रह प्रक्षेपण (Sputnik satellite launch) के एक साल बाद हुआ था। बचपन मैंगलोर के पास के एक  छोटे कस्बे में बीता। बचपन की सबसे मीठी यादों में से एक है – बगीचे में चटाई पर लेटकर रात के आसमान (night sky) को निहारना। उन दिनों आकाशगंगा (मिल्की-वे – Milky Way galaxy) साफ दिखाई देती थी, उल्कापात (‘टूटते तारे’), और तारों के बीच कृत्रिम उपग्रह धीरे-धीरे आगे बढ़ते नज़र आते थे। एक बार मैंने एक धूमकेतु (comet) भी देखा था, जिसे मैंने घंटों तक निहारा और आम के पेड़ के साथ उसकी तस्वीर भी बनाई। ब्रह्मांड की ये झलकियां मुझे रोमांचित करती थीं। सात साल की उम्र में इस बात का दुख हुआ कि इंसान अब तक चंद्रमा पर नहीं पहुंचा था। बहरहाल, यूरी गागरिन (Yuri Gagarin) मेरे बचपन के हीरो बन गए, और वेलेंटीना तेरेश्कोवा का नाम तो हर किसी की ज़ुबान पर था। मैं अक्सर कल्पना करती कि एक दिन मैं भी अंतरिक्ष यान में काम करने वाली वैज्ञानिक बनूंगी।

मेरे तर्कवादी अभिभावकों ने मुझे विज्ञान की कई रोचक किताबें लाकर दीं। उनमें से एक किताब थी एटम्स, जिसमें रदरफोर्ड के मशहूर प्रयोग (Rutherford experiment) का सुंदर चित्रण था। इसमें सोने के पतले पतरे पर अल्फा-कणों की बौछार की गई थी, और उनमें से कुछ ही कण टकराकर वापस लौटे थे। इसका मतलब था कि वास्तविक परमाणु बहुत छोटा होता है और परमाणु का अधिकांश भाग खाली होता है। इस प्रयोग की खूबसूरती ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला।

जब मैं ग्यारह साल की थी, तब मेरे पिता ने मुझे इवान येफ्रेमोव लिखित एक विज्ञान-कथा उपन्यास एंड्रोमेडा (Andromeda) पढ़ने के लिए दिया। यह अंतरिक्ष अन्वेषण (space exploration), ग्रहों के बीच संपर्क और विभिन्न जीवन रूपों की एक रोमांचक कहानी है, जिसमें एक नई ‘सामाजिकता’ का भी चित्रण किया गया है: जेंडर से परे लोगों के बीच घनिष्ठ और स्वच्छंद रिश्ते, निश्छल विज्ञान और प्रौद्योगिकी (science and technology) की शक्ति पर विश्वास, साथ ही सभी लोगों के लिए समानता। एंड्रोमेडा ने मेरे लिए एक आदर्श संसार का निर्माण किया था।

किशोरावस्था में प्रवेश करने पर मेरी मां ने मुझे ईव क्यूरी द्वारा लिखित मारिया स्क्लोदोव्स्का क्यूरी (मैरी क्यूरी – Marie Curie) की जीवनी पढ़ने को दी, जिसमें पियरे क्यूरी के साथ उनकी बौद्धिक और भावनात्मक साझेदारी का वर्णन था। मुझे नहीं मालूम कि इस किताब ने मेरे करियर के चुनाव पर कोई प्रभाव डाला या नहीं, लेकिन मैरी क्यूरी का अपनी विज्ञान कक्षा में एक महिला (woman scientist) के रूप में अलग दिखना मेरे लिए चौंकाने वाला था। शायद यह मेरे लिए वैज्ञानिक दुनिया में लिंग भेदभाव (gender bias in science) का पहला एहसास था।

मेरे स्कूल में कई शिक्षक थे जिन्होंने अपनी सूझबूझ और निष्ठा के साथ मुझे शिक्षा का आनंद दिया, चाहे वह इतिहास की कहानी हो, कन्नड़ व्याकरण की जटिल पहेलियां हो, या फिर गणितीय तर्क (mathematical reasoning)। कॉलेज ने मुझे चुनने की ज़रूरत का एहसास कराया : विज्ञान और गणित बनाम इतिहास और राजनीति विज्ञान। मैं दोनों संकाय पढ़ना चाहती थी। अंतत: मैंने विज्ञान और गणित (science and mathematics) को चुना, क्योंकि इसमें मुझे बाद में विषय बदलने का मौका था, जबकि दूसरा विकल्प चुनने पर मैं ऐसा नहीं कर पाती!

मेरे कॉलेज के हर शिक्षक अपने विषय के प्रति जोश से भरे हुए थे, जिन्होंने हमेशा परिणाम की बजाय प्रक्रिया को अधिक महत्व दिया, चाहे वह गणित की कोई समस्या को हल करना हो, पौधों का वर्गीकरण करना हो, सोडियम की दोहरी वर्णक्रम रेखाओं (सोडियम डबलेट) की माप लेना हो या तिलचट्टे का विच्छेदन करना हो। मैंने अपने छोटे शहर के कॉलेज में जिस तरह से सैद्धांतिक कार्य के बराबर महत्व अनुभवजन्य/प्रायोगिक काम को देना सीखा, वैसा माहौल बाद में मुझे बड़े संस्थानों में नहीं मिला।

तब तक मुझे यह स्पष्ट हो गया था कि मुझे भौतिकी (physics) में आगे बढ़ना है। गणित की भाषा में व्यक्त होता बुनियादी विज्ञान, भौतिकी, मेरा पसंदीदा था, और जिसे प्रयोगशाला (laboratory) नामक ‘बहुत मज़ेदार जगह’ में परखा भी जा सकता था। बचपन का अंतरिक्ष यान पर सवार वैज्ञानिक बनने का जो मासूम सपना था, वह अब धुंधला हो गया था। क्योंकि अव्वल तो, हम (भारत) बमुश्किल ही अंतरिक्ष में कोई अंतरिक्ष यान भेज रहे थे! और दूसरा, अंतरिक्ष यात्री बनने के लिए वायुसेना की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता, जो मुझे थोड़ा कठिन लगता था।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, मुंबई (IIT Bombay) में मास्टर डिग्री के लिए भौतिकी कार्यक्रम में प्रवेश करना काफी रोमांचक था। एकमात्र महिला हॉस्टल में रहते हुए मुझे बहुत सी ऐसी महिलाएं मिलीं, जो भौतिकी या विज्ञान के प्रति मेरी तरह का उत्साह रखती थीं। आईआईटी के भौतिकी समूह में शामिल होकर, पी.एचडी. (PhD in Physics) करना एक स्वाभाविक अगला कदम था।

मैं टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में प्रवेश करके परमाणु भौतिकी (nuclear physics) में प्रयोग करना चाहती थी। इसकी प्रेरणा मुझे आईआईटी के पसंदीदा शिक्षक पी. पी. काने से मिली। उन्होंने मुझे शोध की दुनिया से परिचित कराया, और उनका यह विचार मुझे बहुत आकर्षक लगा कि प्रयोगशाला में समीकरणों को लागू करना न केवल मज़ेदार है, बल्कि इससे कुछ ऐसा भी खोजा जा सकता था जो अब तक अज्ञात है। हालांकि, टीआईएफआर के अनुभव ने मुझे यह महसूस कराया कि खगोल भौतिकी (astrophysics) ही मेरे लिए सबसे उपयुक्त विकल्प है। मैंने यह कभी नहीं सोचा था कि एक शौक कभी एक पेशा बन जाएगा! एक ओर, इसमें अत्याधुनिक तकनीक का उपयोग करके ब्रह्मांड की खोजबीन की जाती है – जो उस आसमान की छवि में कई आयाम जोड़ती है, जिसे मैं बगीचे में चटाई पर लेटकर देखा करती थी। दूसरी ओर, आकाश देखने में तो बहुत जटिल लगता था, फिर भी उसे भौतिकी के नियमों के अनुसार समझा जा सकता था। मैं पूरी तरह से इन सब से हैरान थी।

विजय कपाही को मेंटर (mentor) के रूप में पाना सबसे बेहतरीन अनुभवों में से एक था। उन्होंने सक्रिय निहारकाओं (active galaxies) की कार्यप्रणाली में मेरी रुचि जगाई। ये ब्रह्मांड की सबसे शक्तिशाली शय होती हैं, और अत्यंत विशाल ब्लैक होल्स (supermassive black holes) की गुरुत्वाकर्षण शक्ति से संचालित होती हैं। विजय ने निहारिकाओं के रहस्यों को जज़्बे और मस्ती के साथ हल किया, जो एक प्रेरणादायक नज़रिया था। वे शोधार्थियों और सहकर्मियों के साथ पूरी तरह से लिंग-निरपेक्ष थे, ऐसा नज़रिया तब भी बिरला था और आज भी दुर्लभ है।

इंजीनियर से पर्यावरण वैज्ञानिक बने मेरे जीवनसाथी ने हमें एक साथ बढ़ने और नए दृष्टिकोणों की खोज करने का मौका दिया। इस अनुभव से मुझे विज्ञान को लेकर बचपन की समझ से आगे बढ़कर कहीं अधिक समालोचनात्मक समझ मिली। हाल ही में एक पुराने कॉलेज मित्र ने मुझे 1974 में भारत के पहले परमाणु ‘अंत:स्फोट’ को लेकर मेरा उत्साह याद दिलाया – और यह एहसास दिलाया कि तब मैंने ‘परमाणु के शांतिपूर्ण उपयोग’ पर कितनी मासूमियत से विश्वास कर लिया था। मैं यह मानती थी कि विज्ञान और वैज्ञानिक मानवता को समृद्धि और समानता की ओर ले जाएंगे। लेकिन अंतत: विज्ञान एक मानवीय उद्यम है, जो सामाजिक प्रक्रियाओं से आकार लेता है, और इसके कामकाज में सभी मानवीय दोष शामिल होते हैं। ‘वस्तुनिष्ठता’ पर गर्व करने वाले इस उद्यम में महिला वैज्ञानिकों की अत्यधिक कम संख्या, इस तथ्य का एक क्लासिक उदाहरण है। मेरे लिए, यह मानना कितना स्वाभाविक और सामान्य है कि अन्य महिलाएं भौतिकी के प्रति उत्साही हैं! लेकिन कैसे मेरे सहकर्मियों के लिए भी यह मानना उतना ही स्वाभाविक होता है कि भौतिकी करने वाली महिला जीवनसाथी मिलने तक यह सब ‘टाइमपास’ के लिए करती हैं!! मैं उस दिन के इंतज़ार में हूं जब मेरा (या किसी का भी) जेंडर केवल उतना ही महत्वपूर्ण रहेगा जितना कि उसकी पसंदीदा किताबें। कोई आश्चर्य नहीं कि मैं एंड्रोमेडा पुस्तक के आदर्शलोक के बारे में सोचती हूं, जहां लोगों के बीच लिंग की परवाह किए बिना स्वस्थ और उन्मुक्त रिश्ते हों।

फिर भी, आकाशगंगाओं (galaxies) के केंद्रों में विशाल ब्लैक होल (black hole) के चारों ओर पदार्थों का नृत्य, निहित चुंबकीय क्षेत्र (magnetic field) और आग की लपटें, जो लगभग प्रकाश की गति (speed of light) से निकलती हैं, मुझे मुग्ध करते रहते हैं। ये प्रक्रियाएं वर्णक्रम की हर तरंगदैर्घ्य में प्रकट होती हैं। इसका मतलब है कि इसमें कई उपविषयों के भौतिक सिद्धांत काम में आते हैं। अर्थात जैसा कि टेर हार ने कहा है, खगोलभौतिकी “सामान्यतावादी का आखिरी ठिकाना” है। इसका मतलब यह भी है कि आपको पृथ्वी और अंतरिक्ष दोनों पर दूरबीन के साथ काम करना पड़ता है, जिससे अंतर्राष्ट्रीय सहयोग होता है और आप एक वैश्विक और सम्बद्ध समुदाय का हिस्सा बन जाते हैं। परिकल्पनाओं का परीक्षण करने के लिए नियंत्रित प्रयोगों की कमी भी रोमांच को बढ़ाती है। असली मज़ा उन आधुनिक उपकरणों और जटिल गणितीय तकनीकों का उपयोग करने में है, जो ब्रह्मांड के रहस्यों को उजागर करने में मदद करते हैं। सुंदर छवियां जनमानस की कल्पना को आकर्षित करती हैं, जिससे खगोलभौतिकी वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ावा देने का एक शानदार उपकरण बन जाता है। खगोलभौतिकी जीवन को समझने का भी एक प्यारा तरीका है – यह हमें लगातार याद दिलाता है कि हम वैज्ञानिक और प्रकृति प्रेमी हैं जो उसकी सुंदरता को समझने की कोशिश करते हैं। अंतत:, बगीचे में चटाई पर रात का आकाश (night sky observation) देखने का आकर्षण उस समय और बढ़ जाता है जब हम उसकी कार्यप्रणाली को समझ पाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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