दीर्घायु की प्रार्थनाएं और पुरुषों की अल्प-आयु

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पुरुषों के लिए लंबी आयु (life expectancy in men) की सारी कामनाओं, प्रार्थनाओं के बावजूद मैं अपने परिजनों में पाता हूं कि पुरुष पहले स्वर्ग सिधारते हैं और अक्सर महिलाएं लंबी आयु प्राप्त करती हैं। तो क्या पुरुष जन्म से ही पहले मरने के लिए नियत है? सभी परिस्थितियां समान मिलें तो भी मेरे साथ पैदा हुई महिला की तुलना में मैं तीन वर्ष पूर्व मरने के लिए अभिशप्त हूं।

महिला-पुरुष के जीवनकाल (male vs female lifespan)  में अंतर बहुत पहले से ज्ञात है। यह केवल भारत में ही नहीं पूरे विश्व में पत्थर की लकीर-सा नियम है। तो पुरुषों में ऐसा क्या है कि वे महिलाओं की तुलना में अल्प आयु में मर जाते हैं। हाल ही के शोध कार्यों से हम इस तथ्य का कारण समझने के समीप पहुंचे हैं।

कुछ लोग पुरुषों के छोटे जीवनकाल का कारण व्यवहार में अंतर (lifestyle differences)  को मानते हैं। व्यवहार, जैसे पुरुष युद्ध लड़ते हैं, खदानों में कार्य करते हैं, श्रमयुक्त मज़दूरी करते हैं और इस प्रकार अपने शरीर पर अतिरिक्त दबाव डालकर भी मैदान में डटे रहते हैं। सामाजिक विज्ञान के कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि पुरुष आदतन झक्की होते हैं। वे अत्यधिक धूम्रपान (smoking habits)  करते हैं, अनियंत्रित पीते हैं और पेटू होते हैं इसलिए उनका वज़न ज़्यादा होता है। बीमार होने पर चिकित्सीय सहायता लेने में भी आना-कानी करते हैं और बीमारी का पता चल जाए तो भी अधिक संभावना इस बात की रहती हैं कि वे पूरा उपचार ना लें। साथ ही, वे गुस्सैल होते हैं और आपसी लड़ाई, दुर्घटना और अत्यधिक जोखिम भरे कार्य पसंद करते हैं। इस दौरान चोट अथवा बीमारी से उनका शरीर कमज़ोर हो जाता है। किंतु यदि ऐसा ही था तो पुरुषों को आरामदायक कार्य मिलने पर तो दोनों का जीवनकाल एक जैसा होना था।

तो क्या हमारे करीबी रिश्तेदार वानरों में भी ऐसा ही है? मानव को छोड़कर बाकी सभी प्रायमेट्स (primates study)  पर भी वैज्ञानिकों ने शोध किया। वे देखना चाहते थे कि क्या हमारे नज़दीकी रिश्तेदार वानरों में भी मादा की आयु नर से ज़्यादा होती है? वैज्ञानिकों ने 6 जंगली प्रायमेट्स (सिफाकास, मुरिक्विस, गोरिल्ला, चिम्पैंजी और बबून) के ऐसे समूह से उम्र सम्बंधी आंकड़े बटोरे जिनकी संख्या समूह में 400 से 1500 तक थी। फिर शोधकर्ताओं ने आधुनिक एवं ऐतिहासिक दोनों समय के छह मानव समूह की आबादी के आंकड़े भी देखे। वैज्ञानिकों ने पाया कि पिछली शताब्दी की तुलना में मानव आयु में बहुत वृद्धि होने के बावजूद पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर कम नहीं हुआ। शोध से यह भी बात सामने आई कि मानव आबादी में यद्यपि महिलाएं ज़्यादा समय तक जीवित रहती हैं परंतु भौगोलिक वितरण के अनुसार यह अंतर अलग-अलग रहा था। उदाहरण के लिए आधुनिक रूस में पुरुष-महिला के जीवनकाल में अंतर लगभग 10 वर्ष का है जो सबसे अधिक है।

अधिक उम्र का जैविक कारण (biological reasons for longevity)

जीव विज्ञानी अल्पायु के लिए पुरुषों के गुणसूत्रों (chromosomes in men) को दोषी ठहराते हैं। महिलाओं को निश्चित रूप से जैविक लाभ जन्म के साथ ही प्राप्त होने लगता है। बाहरी प्रभावों के अभाव में भी लड़कों की मृत्यु दर लड़कियों से 25-30 प्रतिशत अधिक देखी गई है। आंकड़े भी महिलाओं के जन्मजात आनुवंशिक (genetic advantage in women)  लाभ दर्शाते हैं।

मनुष्यों तथा कई अन्य जंतुओं में लिंग का निर्धारण गुणसूत्रों द्वारा होता है। मनुष्यों की कोशिकाओं में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र पाए जाते हैं। इनमें 22 जोड़ियों में तो गुणसूत्र परस्पर पूरक होते हैं। लेकिन 23वीं जोड़ी में दो गुणसूत्र अलग-अलग किस्म के होते हैं। शुक्राणु दो प्रकार के होते हैं (X तथा Y), जबकि सारे अंडाणु एक ही प्रकार के होते हैं (X)। यदि व्यक्ति में दोनों गुणसूत्र X हों तो मादा यानी लड़की बनती है और जब एक गुणसूत्र X तथा Y दूसरा हो तो नर यानी लड़का।

जब इन X गुणसूत्रों के जीन्स में से एक जीन उत्परिवर्तित होता है तो महिलाओं में पाया जाने वाला दूसरा X गुणसूत्र उसके कार्य को संभाल लेता है या उसके दुष्प्रभाव को दबा देता है। जबकि पुरुषों में केवल एक X गुणसूत्र होने के कारण उसमें उत्परिवर्तन हो जाए तो गंभीर परिस्थिति उत्पन्न कर सकता है।

इस प्रकार दोनों लिंगों के बीच जेनेटिक अंतर (genetic difference) एक लिंग में उम्र बढ़ाता है तो दूसरे में कम कर देता है। इसके अलावा महिलाओं के हार्मोन (female hormones)  और प्रजनन में महिलाओं की अगली पीढ़ी में निवेश की महत्वपूर्ण भूमिका को भी दीर्घायु से जोड़ा गया है। उदाहरण के लिए महिलाओं में बनने वाला हार्मोन एस्ट्रोजन (estrogen hormone) खराब कोलेस्ट्रॉल को खत्म करने में कारगर है जिससे महिलाओं का शरीर हृदय सम्बंधी बीमारियों (heart disease risk)  से प्राय: सुरक्षित बना रहता है। दूसरी ओर केवल पुरुषों में बनने वाला टेस्टोस्टेरॉन हार्मोन उनमें हिंसा और जोखिम लेने की उत्कंठा उत्पन्न करता है। आखिर में महिलाओं का शरीर गर्भावस्था (pregnancy health) और स्तनपान की ज़रूरतों के अनुसार भोजन का भंडारण करने के लिए बना होता है। वे भोजन की ज़्यादा मात्रा को भी उचित तरीके से संग्रहित या शरीर के बाहर निकालने के अनुरूप ढली हुई हैं। इसके अलावा भी अनेक आनुवंशिक एवं जैविक कारण ज्ञात हैं जिनका स्त्री और पुरुष दोनों के शरीर पर समग्र प्रभाव को मापना असंभव है। पिछले कुछ दशकों में असाधारण आर्थिक और सामाजिक प्रगति से मातृत्व बोझ में नाटकीय कमी भी देखी गई है। इस प्रकार सभी परिस्थितियां महिलाओं को अनुकूल बनाती हैं।

एक परिकल्पना ‘जॉगिंग हार्ट’ (jogging heart hypothesis) के अनुसार माहवारी चक्र के उत्तरार्ध में, यानी अंडोत्सर्ग के बाद, हृदय की गति बढ़ जाती है। हृदय गति बढ़ने से वैसी ही लाभकारी परिस्थिति उत्पन्न होती है जैसी हल्का व्यायाम (light exercise benefits) करने पर या जॉगिंग करने पर होती है। बाद के जीवन में इसके लाभकारी असर देखे जा सकते हैं। इसलिए हृदय रोग का जोखिम भी महिलाओं को बेहद कम होता है।

अधिक कद भी एक महत्वपूर्ण कारक (height and aging factor) है। लंबे लोगों में अधिक कोशिकाएं होती हैं। इसलिए उन्हें अधिक ऊर्जा की आवश्यकता होती है। अधिक कोशिकाओं में उत्परिवर्तन की संभावनाएं भी अधिक हो जाती है तथा ज़्यादा ऊर्जा खर्च करने से कोशिकाएं जल्दी बूढ़ी हो जाती हैं। अत: पुरुषों की अधिक ऊंचाई उन्हें अधिक दीर्घकालीन क्षति की ओर धकेलती है।

वे कारण जो महिलाओं को लंबी उम्र (women longevity reasons) देते हैं कई बार अटपटे, अनिश्चित और रहस्यमयी लगते हैं। लेकिन इतना तो तय है कि सारी प्रार्थनाएं और व्रत-उपवास इस खाई को पाट नहीं सके हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वनस्पति-आधारित भोजन रोगों के जोखिम कम करता है

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

साइंटिफिक रिपोर्ट्स जर्नल (Scientific Reports Journal)  के जुलाई 2024 के अंक में वी. वियालॉन और साथियों द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई थी। इस रिपोर्ट में विशिष्ट रोगों के होने के जोखिम की जांच के लिए एक स्वस्थ जीवनशैली सूचकांक (Healthy Lifestyle Index -HLI) के उपयोग पर चर्चा की गई थी। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा था कि हर जीवनशैली का रोगों का शिकार होने से क्या सम्बंध है। इसके लिए उन्होंने युरोपियन पर्सपेक्टिव इनवेस्टीगेशन इनटू कैंसर एंड न्यूट्रीशियन (EPIC) के डैटा और टाइप-2 डायबिटीज़, कैंसर और हृदय सम्बंधी विकारों से होने वाली अकाल मृत्यु के जोखिम का डैटा उपयोग किया था। इनमें से कुछ तरह की जीवनशैली में धूम्रपान करना, अत्यधिक मद्यपान करना, खान-पान की आदतें, मोटापा (शरीर में अतिरिक्त वसा) (obesity)  और अत्यधिक नींद जैसी अस्वास्थ्यकर चीज़ें भी शामिल थीं।

इसी सिलसिले में, स्पेन के रेनाल्डो कॉर्डोवा और डेनमार्क, दक्षिण कोरिया, और उत्तरी आयरलैंड-यूके के सह-लेखकों का एक शोधपत्र दी लैंसेट – हेल्दी लॉन्गेविटी (The Lancet Healthy Longevity) के अगस्त 2025 के अंक में प्रकाशित हुआ था, जिसका शीर्षक था ‘वनस्पति-आधारित आहार पैटर्न एवं कैंसर तथा कॉर्डियोमेटाबोलिक रोगों की बहु-रुग्णता का आयु-विशिष्ट जोखिम: एक दूरदर्शी विश्लेषण (Plant-based dietary patterns and age-specific risk of multimorbidity of cancer and cardiometabolic diseases: a prospective analysis)। ‘मल्टीमॉर्बिडिटी’ का मतलब है एक ही व्यक्ति में दो या दो से अधिक जीर्ण (क्रॉनिक) रोग होना।

शोधकर्ताओं ने ऐसे मल्टीमॉर्बिड कैंसर (cancer research)  से पीड़ित लगभग 2.3 लाख लोगों का डैटा EPIC डैटा बैंक से लिया और 1.81 लाख लोगों का डैटा यूके बायोबैंक (UK Biobank)  से लिया और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने चयापचय रोगों में इंसुलिन प्रतिरोध तंत्र की महत्वपूर्ण भूमिका पाई। 35-70 वर्ष की आयु वाले विशिष्ट समूहों के लोगों की खान-पान की आदतों जैसी विशेषताओं तुलना करने पर शोधकर्ताओं ने पाया कि वनस्पति-आधारित स्वाथ्यकर आहार (plant-based diet) कैंसर और कॉर्डियोमेटाबोलिक रोगों की बहु-रुग्णता का बोझ कम कर सकता है।

अध्ययन में इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि कैसे पशु उत्पाद (मांस, मछली, अंडे सहित) (animal products)  की अधिकता वाले आहार की तुलना में पादप-आधारित आहार (vegan diet)  पर्यावरण की दृष्टि से अधिक निर्वहनीय होता हैं। शोधकर्ताओं ने स्वास्थ्यकर वनस्पति-आधारित आहार के सेवन का कैंसर और (उच्च रक्तचाप, दिल का दौरा और टाइप-2 डायबिटीज़ सहित) हृदय रोगों (heart diseases) के कम जोखिम से मज़बूत सम्बंध पाया।

तंबाकू उत्पादों (tobacco consumption)  के सेवन से भी कैंसर होता है। बहुप्रशंसित भूमध्यसागरीय आहार (Mediterranean diet) को बहुत अच्छा बताया गया है, हालांकि भूमध्यसागरीय आहार में मछली, चिकन और रेड वाइन भी शामिल होती है। गौरतलब है कि शाकाहारी या वीगन आहार (जिसमें पशु-आधारित कोई भी वस्तु शामिल नहीं होती है) से ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन (greenhouse gas emission) भी कम होता है। शाकाहारी आहार में दूध और कभी-कभी अंडे का सेवन शामिल होता है। लेकिन वीगन आहार में दूध, जोकि एक पशु उत्पाद है, से भी सख्त परहेज़ किया जाता है।

भारत की स्थिति

भारत की बात करें तो लगभग 35 प्रतिशत लोग शाकाहारी (vegetarian population)  हैं; वे अपने दैनिक भोजन में अनाज और सब्ज़ियों के साथ दूध भी लेते हैं; इनमें से कुछ लोग अंडे भी खाते हैं। लगभग 10 प्रतिशत लोग वीगन हैं, जो दूध या कोई भी दुग्ध उत्पाद नहीं खाते।

किसी व्यक्ति में दो या उससे अधिक जीर्ण स्वास्थ्य स्थितियों (multiple chronic conditions) की उपस्थिति चिंताजनक है। अनुमान है कि 16.4 प्रतिशत शहरी आबादी डायबिटीज़ (diabetes) से पीड़ित है जबकि 8 प्रतिशत ग्रामीण आबादी डायबिटीज़-पूर्व स्थिति में है। लगभग 26 प्रतिशत शहरी भारतीय पुरुष और महिलाएं चयापचय विकारों के साथ इंसुलिन प्रतिरोधी भी हैं। दुर्भाग्य से, उनमें से लगभग 29 प्रतिशत लोग बीड़ी, सिगरेट और हुक्का पीते हैं, और इनमें मौजूद तंबाकू कैंसर का कारण बनता है। ग्रामीण आबादी न केवल धूम्रपान करती है बल्कि कई लोग सुपारी भी खाते हैं, जिसकी अधिकता से मुंह का कैंसर (oral cancer) हो सकता है। 60 वर्ष से अधिक आयु के 16 प्रतिशत लोग मधुमेह से पीड़ित हैं और इसके अलावा वे उम्र से सम्बंधित मनोभ्रंश और अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease)  जैसे रोगों से भी पीड़ित हैं।

वक्त रहते चिकित्सा समुदाय(healthcare community), राजनेता, केंद्र व राज्य सरकारों को ध्यान देकर कोई रास्ता निकालना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्र की आवाज़ बताएगी अम्लीयता का स्तर

मुद्र (ocean)  तरह-तरह की आवाज़ों से गुंजायमान (sound waves)  है – मनुष्य के जहाज़ों की धीमी गड़गड़ाहट से लेकर उसके नैसर्गिक रहवासियों जैसे व्हेल(whales), डॉल्फिन और झींगों की धीमी-तेज़ आवाज़ों तक से। और अब, शोधकर्ताओं ने पाया है कि समुद्र की ये नैसर्गिक आवाज़ें यह बताने में मदद कर सकती हैं कि पानी कितना अम्लीय है: ये आवाज़ें समुद्री अम्लीयकरण (ocean acidification)  जैसे गंभीर पर्यावरणीय खतरे को समझने का नया तरीका बन सकती हैं।

जर्नल ऑफ जियोफिज़िकल रिसर्च: ओशियन (Journal of Geophysical Research: Oceans) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार लहरों, हवा और बारिश की आवाज़ें पानी की अम्लीयता को दूर तक और गहराई तक मापने में मददगार हो सकती हैं।

गौरतलब है कि समुद्र हर वर्ष मानव गतिविधियों (carbon emissions) से उत्सर्जित कार्बन डाईऑक्साइड का लगभग एक-तिहाई भाग सोख लेता है। इससे ग्लोबल वार्मिंग (global warming) में कुछ हद तक कमी तो होती है, लेकिन परिणामस्वरूप समुद्र के पानी की pH घटती है और वह अधिक अम्लीय हो जाता है। 1985 से अब तक समुद्र की सतह का pH 8.11 से घटकर 8.04 हो गई है। यह मामूली फर्क भी कोरल रीफ(coral reefs), समुद्री जीवों की खोल और पूरे समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र के लिए खतरा है।

इसी समस्या को समझने के लिए कनाडा के वैज्ञानिक डेविड बार्कले और उनकी टीम ने एक नया तरीका खोजा। उन्होंने हाइड्रोफोन (hydrophone technology)  से लैस ‘डीप साउंड’ नामक उपकरण को 5000 मीटर गहराई तक भेजा और पाया कि इतनी गहराई में भी सतह की लहरों की आवाज़ें सुनी जा सकती है। शोध में पता चला कि समुद्र में मौजूद बोरिक एसिड और मैग्नीशियम सल्फेट जैसे रसायन अलग-अलग आवृत्तियों की ध्वनि (sound frequency) सोखते हैं। और अम्लीयता बढ़ने पर दोनों पर अलग-अलग असर होते हैं – जहां बोरिक एसिड घटता जाता है (और उसके द्वारा सोखी गई ध्वनि भी), वहीं मैग्नीशियम सल्फेट अप्रभावित रहता है। जैसे-जैसे समुद्र अम्लीय होता है, यह संतुलन बदलता है और ध्वनि की आवृत्ति की मदद से वैज्ञानिक समुद्र की pH माप सकते हैं। इस खोज (scientific discovery)  को मुकम्मल करने में टीम को लगभग 15 साल लगे। लेकिन अब उनका नया उपकरण 10,000 मीटर की गहराई (मैरियाना ट्रेंच के चैलेंजर डीप) (Mariana Trench)  तक काम कर सकता है। यह तकनीक बड़े पैमाने पर pH मॉनीटरिंग (pH monitoring)  को संभव बनाती है।

हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह तरीका अभी पारंपरिक रासायनिक मापों जितना सटीक नहीं है। अलबत्ता, मौजूदा रोबोटिक सेंसर आधारित BGC-Argo तकनीकें फंडिंग और सप्लाई की दिक्कतों से जूझ रही हैं, ऐसे में यह ध्वनि-आधारित तकनीक एक महत्वपूर्ण विकल्प (alternative technology)  बन सकती है।

बहरहाल, योजना इन उपकरणों को महीनों तक समुद्र तल पर छोड़कर दीर्घकालिक डैटा (long-term data) जुटाने की है। (स्रोत फीचर्स)

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भूतिया आग को समझने में एक कदम और

ई बार ऐसी खबरें मिलती हैं कि किसी दलदली जगह (swamp area) पर रोशनियां नृत्य करती नज़र आती हैं। इनके बारे में लोक विश्वास है कि ये हड्डियों का नाच होता है या आत्माएं मुसाफिरों को भ्रमित करने या राह दिखाने के लिए रोशनी दिखाती हैं। अंग्रेज़ी में इसे विल-ओ-दी-विस्प (Will-o’-the-wisp) कहते हैं।

आम तौर पर वैज्ञानिक मानते आए हैं कि इन रोशनियों का स्रोत दलदल से निकलती मीथेन गैस (methane gas) होती है जो सतह पर ऑक्सीजन (oxygen) के संपर्क में आकर जल उठती है। दलदलों में सड़ता जैविक पदार्थ ही इस गैस का स्रोत होता है। लेकिन यह समझ से परे रहा था कि यह गैस आग कैसे पकड़ लेती है क्योंकि वहां न तो कोई चिंगारी होती है और न ही तापमान इतना अधिक होता है कि गैस जल उठे। अब शोधकर्ताओं (researchers) ने इसकी एक नई व्याख्या पेश की है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेस (यूएस) (PNAS) में प्रकाशित एक शोध पत्र में स्टेनफर्ड विश्वविद्यालय (Stanford University) के रिचर्ड ज़ेयर (Richard Zare) और उनके सहकर्मियों ने बताया है कि यह दलदल से निकलने वाले सूक्ष्म बुलबुलों (microbubbles) का करिश्मा है। ये बुलबुले अत्यंत सूक्ष्म (साइज़ नैनोमीटर से लेकर माइक्रोमीटर) के होते हैं। ज़ेयर और उनके साथी ऐसे बुलबुलों का अध्ययन करते रहे हैं। उन्होंने पाया कि जब अलग-अलग साइज़ के बुलबुले हवा और पानी की संपर्क सतह पर आते हैं तो उनकी सतहों पर आवेश (electric charge) पैदा हो जाते हैं। होता यह है कि छोटे बुलबुलों पर ऋणावेश संग्रहित हो जाता है जबकि बड़े बुलबुले धनावेशित हो जाते हैं। यदि ये बुलबुले पास-पास आ जाएं तो उनके बीच विद्युत क्षेत्र बन जाता है और विद्युत प्रवाह (electric discharge) के कारण चिंगारी पैदा होती है।

ज़ेयर के मन में विचार आया कि कहीं यह विद्युत प्रवाह ही भूतिया रोशनी (ghost light) के लिए ज़िम्मेदार न हो। इस बात का पता लगाने के लिए उन्होंने एक मशीन (experimental setup) बनाई जिसमें एक नोज़ल थी जो पानी में डूबी थी। फिर उन्होंने इस नोज़ल से मीथेन और हवा के बुलबुले पानी में उड़ाए। हाई-स्पीड कैमरा (high-speed camera)  में नज़र आया कि इन बुलबुलों के टकराने पर हल्की रोशनी पैदा होती है।

टीम ने यह भी देखा कि रोशनी तब भी पैदा होती है जब मात्र हवा के बुलबुले बनाए गए थे। अर्थात सूक्ष्म रोशनी आवेशों के पृथक्करण (charge separation)  की वजह से पैदा होती है, न कि मीथेन के स्वत:स्फूर्त दहन (spontaneous combustion) के कारण। अलबत्ता, जब मीथेन भी मौजूद हो तो रोशनी तेज़ होती है और तापमान भी बढ़ता है।

वैसे तो अभी भी बात पूरी तरह स्पष्ट नहीं है लेकिन कई वैज्ञानिकों का मत है कि ऐसे बुलबुले तो धरती की शुरुआत (early Earth) में भी उपस्थित रहे होंगे, और संभव है कि इनकी परस्पर क्रिया से जीवन के रसायन (origin of life chemistry) बनने के लिए ज़रूरी रासायनिक क्रियाओं को ऊर्जा मिली हो। यह भी सोचा जा रहा है कि यह प्रक्रिया रासायनिक संश्लेषण का एक मार्ग उपलब्ध करा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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परजीवियों की बातें और रोचक अनुसंधान

टोनी गोल्डबर्ग प्रायमेट प्राणियों में परजीवी प्रकोप का अध्ययन करते हैं। उनके अनुभव रोचक हैं, उनके द्वारा किए गए अध्ययन महत्वपूर्ण रहे हैं और उनके पास आपके लिए कई सलाहें हैं।

मारे शरीर पर कोई कीड़ा (insect) रेंगे तो हम क्या करेंगे? तुरंत उसे झटक कर फेंक देंगे। उसका बारीकी से अवलोकन (observe) तो दूर की बात है, अक्सर तो यह भी नहीं देखते कि कीड़ा था कौन-सा। लेकिन कीड़े-मकोड़ों (कीटों) में रुचि रखने वाले चंद लोग ऐसे मौके नहीं गंवाते। बल्कि ऐसे मौके उनके लिए कुछ नया खोजने का अवसर बन जाते हैं, जो कीटों के बारे में हमारी समझ को बढ़ाते हैं।

ऐसे ही मौकापरस्त हैं टोनी गोल्डबर्ग (Tony Goldberg)। वे पेशे से वन्यजीव महामारी विज्ञानी (wildlife epidemiologist) हैं और विस्कॉन्सिन-मैडिसन विश्वविद्यालय में कार्यरत हैं। परजीवियों में उनकी खासी रुचि है। उन्होंने अपनी पिछली कुछ खोजी यात्राओं के दौरान उनके शरीर पर सवार हुए परजीवी कीटों का अध्ययन कर कुछ गुत्थियां सुलझाईं हैं।

2013 में जब वे युगांडा के किबले राष्ट्रीय उद्यान (Kibale National Park) गए थे तो उनकी नाक में एक किलनी (टिक) घुस गई थी। उन्होंने उसे निकाल फेंकने की बजाय उसका जेनेटिक अनुक्रमण (genetic sequencing) किया, और पता चला कि वह तो किलनी की एक नई प्रजाति (new species) है।

पिछले दिनों जब वे किबले राष्ट्रीय उद्यान की यात्रा से लौटे तो उनकी कांख में मक्खी का लार्वा (fly larva) फंसकर आ गया। सरसरी तौर पर देखा तो लगा वह उस क्षेत्र में आम तौर पर पाई जाने वाली मक्खी का लार्वा है। लेकिन जब उन्होंने उसका जीन अनुक्रमण किया पता चला कि ये लार्वा आम अफ्रीकी बॉट फ्लाई (African botfly) के लार्वा नहीं बल्कि एक दुर्लभ प्रजाति के लार्वा हैं।

इसी प्रकार से, वे किबले राष्ट्रीय उद्यान के जंगल में प्राइमेट्स (primates) का अध्ययन कर रहे थे। जिन प्राइमेट्स का वे उपचार/देखभाल कर रहे थे, उनके शरीर में उन्हें कुछ परजीवी कीट (parasitic insects) मिले। इन कीटों को देखने पर वे उप-सहारा अफ्रीका में बहुतायत में पाई जाने वाली सामान्य परजीवी मक्खी कॉर्डिलोबिया एंथ्रोपोफैगा (Cordylobia anthropophaga) लग रहे थे। लेकिन इन मक्खियों को प्राइमेट्स को संक्रमित करते कभी देखा नहीं गया था और इस बात के ज़्यादा सबूत नहीं थे कि यह प्रजाति प्राइमेट्स को संक्रमित करती है।

लिहाज़ा, उन्होंने वे कीट अध्ययन के लिहाज़ से इकट्ठा कर लिए। इन्हें जमा करने में उनके साथियों ने भी खूब साथ दिया – उन्होंने अपने-अपने शरीर पर चढ़ आए कीटों को निकाल-निकाल कर गोल्डबर्ग देना शुरू कर दिया। वापिस आकर जब उन्होंने इन कीटों का अनुक्रमण (DNA sequencing) किया तो पता चला कि ये कीट वे मक्खियां नहीं हैं बल्कि यह उन्हीं से सम्बंधित एक अन्य दुर्लभ प्रजाति है – कॉर्डिलोबिया रोडेनी (Cordylobia rodhaini)

दिलचस्प बात यह है कि परजीवी विज्ञान (parasitology) में 120 सालों से यह रहस्य रहा है कि अफ्रीकी बॉट मक्खी की यह दूसरी प्रजाति (कॉर्डिलोबिया रोडेनी) रहती कहां है। और यह अध्ययन पहला ऐसा ठोस प्रमाण है कि गैर-मानव प्राइमेट इस प्रजाति के एक महत्वपूर्ण प्राकृतिक मेज़बान (natural host) हैं।

एक और गौरतलब बात जो गोल्डबर्ग कहते हैं वह यह कि पूरी दुनिया में देखा जाए तो बॉट मक्खियां दुर्लभ हो सकती हैं, लेकिन हो सकता है कि जहां उनके लिए माकूल परिस्थितियां हों वहां वे प्रचुरता में मौजूद हों, जैसे किबले नेशनल पार्क। यहां उनके मेज़बान गैर-मानव प्राइमेट (यानी जिन पर उनके लार्वा पनपते हैं), अच्छी जलवायु (climate), और उन्हें फैलने की आदर्श परिस्थिति है, जो इन मक्खियों और अन्य बॉट मक्खियों के लिए एक आकर्षक जगह हो सकती है।

तेज़ी से बदलती जलवायु (climate change) और बढ़ते मानव हस्तक्षेप (human interference) के मद्देनज़र बॉट मक्खियों (botflies) समेत तमाम परजीवियों के बारे में जानना सिर्फ वैज्ञानिकों की रुचि का मामला नहीं है। यह कृषि और जीव-जंतुओं के स्वास्थ्य के लिए भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि इनका अनियंत्रित प्रसार कृषि और जीव-जंतुओं को प्रभावित करेगा।

कुछ सामान्य बातें…

यदि आप ऐसी जगह जा रहे हैं जहां परजीवियों (parasites) के आपके ऊपर सवार होकर आने की संभावना है तो आप थोड़ी ऐहतियात बरतें ताकि आप और अन्य सुरक्षित रहें। जैसे आप किबले राष्ट्रीय उद्यान या ऐसे ही जलवायु और परिस्थिति (tropical forest conditions) वाले किसी स्थान पर जा रहे हैं तो झाड़ियों, पेड़ों से सटकर न गुज़रे। ऐसा कर आप अपने साथ इन्हें लाने की संभावना बढ़ाते हैं। दूसरा कपड़ों को बाहर न सुखाएं। क्योंकि वयस्क मक्खी मिट्टी या अन्य गीली जगहों पर अंडे देती है। आपके गीले कपड़े अंडे देने की बढ़िया जगह बन सकते हैं। और यदि आप कपड़े बाहर सुखा भी रहे हैं तो उन्हें बिना अच्छे से इस्तरी किए न पहने यहां तक कि अंत:वस्त्र भी। इस संदर्भ में गोल्डबर्ग ने अपने साथियों के कुछ अनुभव साझा किए हैं।

और खुदा न ख्वास्ता आप किसी परजीवी (parasite infection) को अपने संग ले आते हैं, तो जूं के काटने-रेंगने जैसे एहसास से आपको उनकी मौजूदगी का पता चल जाएगा। जैसे ही आपको उनकी मौजूदगी का एहसास हो उनसे बचने का सबसे अच्छा उपाय है कि आप उन्हें निकाल कर अलग कर दें। कई लोग पेट्रोलियम जेली (petroleum jelly) लगाने की सलाह देते हैं जो प्राय: कारगर होता है क्योंकि सांस न ले पाने के कारण लार्वा मर जाता है। लेकिन अगर लार्वा अपने किए घाव में मर जाए तो आपकी त्वचा में संक्रमण (skin infection) फैल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कीड़े-मकोड़े भी आम खाद्य हो सकते हैं

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व की आबादी के लिए खाद्य उत्पादन (food production) में कीट कई तरह से मदद करते हैं। कीट हमारे फसली पौधों का परागण करते हैं, सड़ते-गलते पौधों और जानवरों के अवशेषों को विघटित करते हैं, और प्राकृतिक कीट नियंत्रक (natural pest control) भी हैं। और तो और, हम मधुमक्खियों से प्राप्त शहद खाते हैं।

कीट हमारे चारों ओर मौजूद हैं। लेकिन यदि हम कीटभक्षण (entomophagy), यानी कीटों या उनके लार्वा को खाने की बात करेंगे तो हममें से कई लोग इन्हें खाने के नाम से कतराएंगे। इसका एक कारण शायद निओफोबिया (neophobia) है, यानी कुछ नया आज़माने का डर या हिचक।

साथ ही, आज हम पृथ्वी के अत्यधिक दोहन (overexploitation) को लेकर भी चिंतित हैं। हमें ऐसे खाद्य पदार्थों की ज़रूरत है जो प्राकृतिक संसाधनों का बेतहाशा दोहन/उपभोग किए बिना उच्च-गुणवत्ता की कैलोरी (nutrition) दें सकें। कीट इस अपेक्षा पर खरे उतरते हैं। शुष्क भार के हिसाब से उनमें 40 प्रतिशत प्रोटीन, 20-30 प्रतिशत वसा और पोटेशियम-आयरन जैसे खनिज (minerals) भी होते हैं।

दुनिया की लगभग एक-चौथाई आबादी पहले से ही खाने योग्य कीट (edible insects) खा रही है। कुछ कीटों को स्वादिष्ट माना जाता है। मैक्सिकन एस्कैमोल (Mexican escamoles) का स्वाद मक्खन लगे बेबीकॉर्न जैसा होता है। मैक्सिकन एस्कैमोल को ‘रेगिस्तान का पकवान’ कहा जाता है, जो वास्तव में पेड़ों पर बिल बनाने वाली मखमली चींटी (Liometopum occidentale) के तले हुए प्यूपा और लार्वा होते हैं। शेफ शेरिल किर्शेनबाम (Cheryl Kirshenbaum) ने वर्ष 2023 में पीबीएस पर ‘सर्विंग अप साइंस’ के एक एपिसोड में स्वादिष्ट कीट मेनू के बारे में बताया था।

भारत में, पूर्वोत्तर राज्यों, ओडिशा और पश्चिमी घाट के स्थानीय समुदाय के लोग खाद्य कीट (insect diet in India) खाते हैं। इन्हें खाने के चलन की जड़ उनकी पोषण सम्बंधी आवश्यकताओं (nutrition needs), सांस्कृतिक आदतों और लोक चिकित्सा तरीकों में निहित है। पूर्वोत्तर में आदिवासी और ग्रामीण आबादी कथित तौर पर प्रोटीन पूर्ति के लिए 100 से अधिक खाद्य कीट प्रजातियां खाती हैं। इन कीटों को स्थानीय बाज़ारों में बेचा भी जाता है। तले, भुने या पके हुए गुबरैले, पतंगे, हॉर्नेट और जलकीट (water bugs) चाव से खाए जाते हैं – जबकि मक्खियां नहीं खाई जातीं।

चूंकि कीटों की आबादी घट रही है, ऐसे में प्रकृति में मौजूद कीटों को पकड़ना और उन्हें खाना, टिकाऊ विचार नहीं हो सकता। इसलिए कुछ समूहों ने अर्ध-पालतूकरण (semi-domestication) का तरीका अपनाया है, जिसमें कीटों और उनके लार्वा का पालन-पोषण (insect farming) और वृद्धि मनुष्यों द्वारा की जाती है। लुमामी स्थित नागालैंड विश्वविद्यालय (Nagaland University) के नृवंशविज्ञानी इस पर अध्ययन कर रहे हैं कि कीट पालन के पारंपरिक तरीकों और नई प्रजातियों की खेती के लिए कैसे इन तरीकों को अनुकूलित किया जा सकता है।

नागालैंड और मणिपुर (Northeast India) की चाखेसांग और अंगामी जनजातियां एशियाई जायंट हॉर्नेट (Asian giant hornet) को एक स्वादिष्ट व्यंजन मानती हैं; वे इनके वयस्क जायंट हार्नेट को भूनकर और इनके लार्वा को तलकर खाते हैं। इन हॉर्नेट का अब अर्ध-पालतूकरण किया जा रहा है। इनकी खेती इनका खाली छत्ता/बिल खोजने से शुरू होती है। मिलने पर इनके छत्ते/बिल को एक मीटर गहरे पालन गड्ढे (rearing pit) में लाया जाता है, जो मिट्टी से थोड़ा भरा होता है। खाली छत्ते/बिल को गड्ढे के ठीक ऊपर एक खंभे से बांध दिया जाता है और पोली मिट्टी से ढंक दिया जाता है। जल्द ही एक रानी हॉर्नेट (queen hornet) के साथ श्रमिक हॉर्नेट इसमें आ जाते हैं, जो ज़मीन के नीचे छत्ते/बिल को विस्तार देना शुरू कर देते हैं। परिणामस्वरूप एक उल्टे पिरामिड जैसी एक बड़ी बहुस्तरीय संरचना बनती है। दोहन के लिए, वयस्क हॉर्नेट को धुआं दिखाया जाता है और लार्वा निकाल लिए जाते हैं।

तमिलनाडु में अन्नामलाई पहाड़ियों के आसपास के आदिवासी समूह बुनकर चींटियों (weaver ants) का उपयोग भोजन और औषधीय संसाधन (medicinal use) के रूप में करते हैं। अंडों, लार्वा और वयस्कों की मौजूदगी वाले पत्तों के घोंसलों को भूनकर और फिर सिल-बट्टे पर पीसकर मसालेदार सूप बनाया जाता है। ततैया और दीमक के छत्तों का भी ऐसा ही उपयोग किया जाता है और मधुमक्खियों को श्वसन (respiratory diseases) और जठरांत्र सम्बंधी बीमारियों (digestive health) को कम करने के लिए स्वास्थ्य पूरक के रूप में खाया जाता है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) का मानना है कि आहार में कीटों को शामिल करना (insect-based diet) स्थायी खाद्य उत्पादन (sustainable food production) की कुंजी हो सकती है। कीट प्रसंस्करण (insect processing) की रणनीतियां उन्हें अधिक स्वीकार्य बना सकती हैं। झींगुर (crickets), भंभीरी (beetles) और टिड्डे (locusts) के पाउडर (या आटे) का उपयोग अब मट्ठा पाउडर की तरह ही प्रोटीन पूरक (protein supplement) के रूप में किया जाता है।

जैसे-जैसे आहार सम्बंधी रुझान (food trends) विकसित हो रहे हैं, वैसे-वैसे हम मोटे अनाज (millets) अपना रहे हैं, और प्रयोगशाला में तैयार किए गए मांस (lab-grown meat) को आज़माना चाह रहे हैं; हो सकता है कि जल्द ही हमारी थाली में कीट (insect cuisine) भी परोसे जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दर्द निवारण के दुष्प्रभावों से मुक्ति की राह

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चोट लगने अथवा संक्रमण (infection) की स्थिति में शरीर स्वयं उसका उपचार (healing process) करता है। चोट लगने या संक्रमण होने पर शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) सक्रिय हो जाता है। प्रभावित स्थान पर तमाम प्रतिरक्षा कोशिकाएं पहुंचने लगती हैं। उस स्थान की रक्त नलिकाएं थोड़ी ज़्यादा पारगम्य हो जाती हैं। वहां उनसे रिसकर द्रव भरने लगता है और साथ में श्वेत रक्त कोशिकाएं भी। इसे इन्फ्लेमेशन या शोथ कहते हैं। सूजन इसका एक गोचर असर होता है। कुल मिलाकर शोथ और उसके साथ आई सूजन शरीर की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है।

अर्थात शोथ और सूजन चोट को ठीक करने का स्वाभाविक इलाज है। हम इस चोट का इलाज करने के लिए प्रायः आइबुप्रोफेन (Ibuprofen) या अन्य दर्द निवारक गोलियां लेते हैं। ये गोलियां दर्द निवारण तो करती हैं किंतु साथ ही शोथ भी खत्म कर देती हैं। लेकिन शोथ तो शरीर में इलाज की अपनी व्यवस्था है। यानी शोथ को  खत्म करना इलाज में हस्तक्षेप माना जाएगा। अतः अब वैज्ञानिकों ने शरीर के स्वाभाविक उपचार के साथ छेड़छाड़ न करते हुए (अर्थात शोथ को कम किए बगैर) दर्द निवारण (pain management) का एक तरीका खोज लिया है।

हाल ही में प्रकाशित एक नए शोध (scientific study) ने कोशिकाओं की सतह पर एक ऐसे रिसेप्टर (ग्राही) (receptor discovery) की पहचान की है जो शोथ में हस्तक्षेप किए बिना केवल दर्द को समाप्त कर चोट को शीघ्र ठीक होने में अधिक मदद करता है। इसे ‘दर्द स्विच’ (pain switch) कह सकते हैं। 

वेदना की अनुभूति

हमारे शरीर में चोट ग्रस्त कोशिकाओं से निकले प्रोस्टाग्लैंडिन (prostaglandin) नामक रसायन से हमें वेदना की अनुभूति होती है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय (New York University Pain Research Center) पेन रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने दर्द के मुख्य कारक प्रोस्टाग्लैंडिन से जुड़ने वाले ऐसे रिसेप्टर की पहचान की है जो दर्द के प्रति संवेदनशील है लेकिन शोथ के प्रति नहीं। वर्तमान में आम तौर पर माना जाता रहा है कि शोथ और दर्द साथ-साथ चलते हैं। लेकिन नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications study) में प्रकाशित शोध निष्कर्ष बताते हैं कि इन दो प्रक्रियाओं को अलग-अलग संभाला जा सकता है और केवल दर्द को रोककर और शोथ को बढ़ने देने से उपचार में मदद मिल सकती है।

दर्द निवारक दवाएं

गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक तथा शोथरोधी दवाएं (Non-Steroid Anti-inflammatory Drugs – NSAID), दुनिया में सबसे अधिक ली जाने वाली दवाओं में से हैं, जिनकी अनुमानित 30 अरब खुराकें अकेले अमेरिका में ली जाती हैं। भारत के बारे में निश्चित आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। इनमें से कई दवाइयां बिना डॉक्टरी पर्चे के भी उपलब्ध होती हैं। इनका उपयोग लंबे समय तक होता है। इससे शरीर को गंभीर समस्याएं होती हैं, जिनमें पेट के अस्तर (stomach damage) को नुकसान, रक्तस्राव में वृद्धि और हृदय, गुर्दे और यकृत से जुड़ी समस्याएं शामिल हैं।

हमारे शरीर के लगभग सभी ऊतक प्रोस्टाग्लैंडिन्स (prostaglandins function) उत्पन्न करते हैं जो दर्द और बुखार का कारण बनते हैं। प्रोस्टाग्लैंडिन हार्मोन के समान यौगिकों (hormone-like compounds) का एक समूह है। यह समूह शोथ, दर्द और गर्भाशय संकुचन सहित कई शारीरिक क्रियाओं को प्रभावित करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन के ज़रिए दर्द की अनुभूति के रासायनिक संकेत मस्तिष्क (brain signaling) तक पहुंचते हैं और तदनुसार मस्तिष्क कार्य करता है। प्रोस्टाग्लैंडिन प्रभावित क्षेत्र में रक्त वाहिकाओं को फैलाते हैं, जिससे रक्त प्रवाह बढ़ता है और सूजन आती है। वे दर्द पैदा करने वाले रासायनिक संकेतों को भी सक्रिय करते हैं।

सूजन

शोथ का एक प्रकट लक्षण सूजन है, जिसे चिकित्सा की भाषा में एडिमा (edema) कहते हैं। यह शरीर के ऊतकों या किसी अंग में तरल पदार्थ का जमाव (fluid retention) है। तरल के इस जमाव से वह हिस्सा फूल जाता है। यह तरल चोटग्रस्त क्षेत्र में फैली हुई रक्त वाहिकाओं से रिसकर बाहर निकलता है और जमा हो जाता है। इसमें श्वेत रक्त कोशिकाएं (white blood cells), विशेषतः न्यूट्रोफिल्स तथा इम्युनोग्लोबुलिन (अर्थात एंटीबाडीज़ – (antibodies)) भरपूर मात्रा में होती हैं जो घाव की मरम्मत करने में सहायक होती हैं। 

शोथ चोट या संक्रमण के विरुद्ध प्रतिरक्षा प्रणाली (immune response) की प्रतिक्रिया में वृद्धि करती है। यह चोटग्रस्त ऊतकों की मरम्मत के द्वारा सामान्य कार्यप्रणाली को दुरुस्त करती है और उसे बहाल करती है। इसके विपरीत, गैर-स्टेरॉइड दर्द निवारक दवाएं दर्द के साथ-साथ शोथ भी दूर करती हैं जिससे उपचार में देरी हो सकती है और दर्द से उबरने में भी देरी हो सकती है। अत: प्रोस्टाग्लैंडिन से उत्पन्न दर्द के इलाज के लिए एक बेहतर रणनीति यह होगी कि शोथ से मिलने वाली सुरक्षा (healing protection) को प्रभावित किए बिना केवल दर्द को चुनिंदा रूप से खत्म किया जाए।

एस्पिरिन (Aspirin) और अन्य गैर-स्टेरॉइड शोथ-रोधी दवाइयां प्रोस्टाग्लैंडिन बनाने वाले एंज़ाइमों को अवरुद्ध (enzyme inhibition) करके इसके निर्माण को रोक देती हैं, जिससे सूजन और दर्द कम हो जाता है।

श्वान कोशिकाएं

श्वान (Schwann) कोशिकाएं मस्तिष्क के बाहर परिधीय तंत्रिका तंत्र (peripheral nervous system) में पाई जाती हैं और माइग्रेन (migraine pain) तथा अन्य प्रकार के दर्द का कारण होती हैं। फ्लोरेंस विश्वविद्यालय (University of Florence) के पियरेंजेलो गेपेटी ने श्वान कोशिकाओं में एक किस्म के प्रोस्टाग्लैंडिन (PGE2) पर ध्यान केंद्रित किया, जिसे शोथ सम्बंधी दर्द (inflammatory pain) का एक मुख्य मध्यस्थ माना जाता है।

कोशिका झिल्लियों पर PGE2 (PGE2 receptors) के लिए चार अलग-अलग रिसेप्टर्स होते हैं। गेपेटी के पूर्व अध्ययनों ने PGE2 के लिए EP4 रिसेप्टर (EP4 receptor) को शोथ सम्बंधी दर्द उत्पन्न करने वाले मुख्य रिसेप्टर के रूप में इंगित किया है। हालांकि, नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications research) में, शोधकर्ताओं ने एकाधिक लक्ष्य आधारित दृष्टिकोण अपनाया और पाया कि एक अलग रिसेप्टर (EP2) दर्द के लिए काफी हद तक ज़िम्मेदार था। श्वान कोशिकाओं में केवल EP2 रिसेप्टर को शांत करने के लिए स्थानीय रूप से दवाइयां देने पर चूहों में शोथ को प्रभावित किए बिना दर्द प्रतिक्रियाएं दूर हो गईं। इस प्रकार शोथ को दर्द से प्रभावी रूप से अलग कर दिया गया। यह शोध दर्द निवारण (pain relief research) के क्षेत्र में एक नई दिशा देता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खून की जांच से अल्ज़ाइमर की पहचान संभव है?

हाल ही में अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer test) के लिए एक नए रक्त परीक्षण (blood test) को मंज़ूरी मिली है। अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा स्वीकृति प्राप्त इस जांच को बीमारी की पहचान में एक बड़ा कदम माना जा रहा है। Elecsys pTau181 नामक यह परीक्षण दो दवा कंपनियों (रोश और एली लिली) ने मिलकर विकसित किया है। इस जांच से डॉक्टर यह बता पाएंगे कि किसी मरीज़ की याददाश्त कम होना या भ्रम अल्ज़ाइमर (Alzheimer diagnosis) की वजह से है या इसका कोई और कारण है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर का कारण (Alzheimer cause) दो हानिकारक प्रोटीन, एमिइलॉइड-बीटा (amyloid-β) और टाउ (tau), का मस्तिष्क में जमाव है। यह जांच रक्त में टाउ प्रोटीन के एक विशेष – pTau181) – को मापता है: इस प्रोटीन का अधिक स्तर यानी अल्ज़ाइमर रोग।

यह जांच 97.9 प्रतिशत मामलों (312 लोग) में ठीक-ठीक बता पाई कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। अर्थात अगर टेस्ट का परिणाम नकारात्मक आता है, तो लगभग निश्चित है कि व्यक्ति को अल्ज़ाइमर नहीं है। इस वजह से यह टेस्ट प्राथमिक स्वास्थ्य चिकित्सकों (primary care doctors) के लिए जांच का बेहतरीन तरीका है। ज़ाहिर है, यह परीक्षण अल्ज़ाइमर की पुष्टि करने के लिए नहीं, बल्कि इसे खारिज (screening test) करने के लिए बनाया गया है।

गौरतलब है कि अल्ज़ाइमर की जांच के लिए एकमात्र Elecsys टेस्ट नहीं है। मई में Lumipulse (blood biomarker test) नाम का एक और रक्त परीक्षण आया है जो दो प्रोटीन, pTau217 (protein marker) और amyloid-β (1–42) के अनुपात को मापता है। इसके ज़रिए अल्ज़ाइमर की पुष्टि और खारिज दोनों किए जा सकते हैं।

वैज्ञानिक ने चेताया देते हैं कि रक्त आधारित अल्ज़ाइमर परीक्षण (Alzheimer blood tests) पूरी तरह सटीक नहीं हैं। कई लोगों के परिणाम ‘ग्रे ज़ोन’ में आते हैं, यानी उन्हें ब्रेन स्कैन (brain scan) या स्पाइनल फ्लूइड टेस्ट (spinal fluid test) की ज़रूरत पड़ती है। उदाहरण के लिए, Quanterix कंपनी के एक अन्य pTau217 आधारित टेस्ट (diagnostic accuracy) में लगभग 30 प्रतिशत व्यक्ति ऐसे थे जिनके नतीजे अनिश्चित रहे।

विशेषज्ञों के अनुसार परीक्षणों के परिणाम उत्साहजनक तो हैं और अल्ज़ाइमर के पारंपरिक (Alzheimer detection) और अधिक जटिल परीक्षणों से मेल खाते हैं। लेकिन जब तक ट्रायल के सभी आंकड़े (clinical data) उपलब्ध नहीं होते, तब तक टेस्ट की सटीकता को पूरी तरह स्पष्ट मानना मुश्किल है।

लेकिन इन परीक्षणों का फायदा तो तभी होगा जब बीमारी का इलाज (Alzheimer treatment) मौजूद हो। इसलिए इलाज खोजने की दिशा में प्रयास भी ज़रूरी हैं। बहरहाल, इन परीक्षणों से इतना तो किया जा सकता है कि अल्ज़ाइमर की संभावना (risk detection) पता कर ऐहतियात बरती जाए। (स्रोत फीचर्स)

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मलभक्षी गुबरैले ने मांस खाना कैसे शुरू किया

गभग 3.7 करोड़ साल पूर्व अर्जेंटीना के पेटागोनिया क्षेत्र (Patagonia region) के घास के मैदान जीवन से समृद्ध थे। यहां मैदानों में घोड़े (prehistoric horses) और टेपर जैसे बड़े-बड़े शाकाहारी से लेकर नुकीले दांतों वाले मार्सुपियल प्राणि (marsupial animals) और पक्षी विचरते थे। लेकिन पैरों के नीचे एक अलग कहानी चल रही थी। गोबर (विष्ठा) खाने वाले छोटे गुबरैले धीरे-धीरे सड़े हुए मांस (rotting meat) का रुख कर रहे थे। क्यों?

कई दशकों तक वैज्ञानिकों का मानना था कि गुबरैलों ने लगभग 1,30,000 से 12,000 साल पहले ही मांस खाना शुरू किया था। यह भी माना जाता था कि जब दक्षिण अमेरिका के बड़े जीव जलवायु परिवर्तन (climate change) और मानव शिकार (human hunting) के कारण विलुप्त हो गए, तो विष्ठा की कमी से गुबरैलों को मजबूरन लाशों पर निर्भर होना पड़ा।

लेकिन कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ऐसा बड़ा बदलाव इतनी जल्दी संभव नहीं है, क्योंकि इसके लिए कई एंज़ाइम (enzymes) और नई संवेदी क्षमताओं (sensory adaptations) की ज़रूरत होती है, जिन्हें विकसित होने में बहुत समय लगता है। हालिया अध्ययन (scientific study) ने कुछ नए तथ्य उजागर किए हैं जिनसे लगता है कि गुबरैलों ने मांस खाना तभी शुरू कर दिया था जब बड़े जंतु और उनकी विष्ठा प्रचुरता से उपलब्ध थी।

समस्या यह है कि गुबरैलों के जीवाश्म (fossils) बहुत कम मिलते हैं, इसलिए उनके अतीत के बारे में जानकारी सीमित थी। लेकिन उनकी एक चीज़ ज़रूर बची रही – ‘ब्रूड बॉल्स’, यानी मिट्टी के वे गोले जिन्हें वे अपने अंडों की सुरक्षा और नवजातों के भोजन के लिए बनाते हैं। यही अब उनके विकास की कहानी समझने की अहम कड़ी (evolutionary link) बन गए हैं।

अर्जेंटीना स्थित बर्नार्डिनो रिवादाविया नेचुरल साइंसेज़ म्यूज़ियम (Bernardino Rivadavia Natural Sciences Museum) की डॉ. लिलियाना कैंटिल के नेतृत्व में टीम ने अर्जेंटीना, चिली, उरुग्वे और इक्वाडोर से मिले लगभग 5 करोड़ साल पुराने 5000 से ज़्यादा अश्मीभूत ब्रूड बॉल्स का अध्ययन किया। पाया कि इनमें से कुछ ब्रूड बॉल्स की बनावट में एक खास तरह की संरचना थी। इनके अंदर एक छोटी-सी बाहर निकली मचान-सी (पर्च) (perch-like structure) थी। आज के गुबरैलों में यह संरचना सिर्फ उन्हीं प्रजातियों में पाई जाती है जो सड़े हुए मांस (carrion-feeding beetles) पर निर्भर रहते हैं। इनके लार्वा इस मचान पर बैठकर पास पड़े सड़े मांस को खाते हैं, न कि सीधे गोबर को।

पैलियोंटोलॉजी (paleontology study) में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विशेष संरचनाएं लगभग 3.77 करोड़ वर्ष पुराने जीवाश्मों में मिलीं। इसका मतलब है कि कुछ गुबरैलों ने बड़े जीवों के विलुप्त होने से बहुत पहले ही मांस खाना शुरू कर दिया था: गुबरैलों के भोजन में बदलाव तभी हो गया था जब घास के मैदान और बड़े शाकाहारी जीव खूब फल-फूल रहे थे। शोध दल के अनुसार यह परिवर्तन प्रतिस्पर्धा (ecological competition) के कारण हुआ। जब बहुत-सी प्रजातियां गोबर पर निर्भर थीं, तो कुछ प्रजातियों ने मांसाहार का रास्ता अपना लिया।

यह खोज 2020 के एक जेनेटिक अध्ययन (genetic study) से मेल खाती है, जिसमें पाया गया था कि मांस खाने वाले गुबरैले लगभग 3.5 से 4 करोड़ साल पहले दक्षिण अमेरिका (South America evolution) में विकसित हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

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विद्युत आवेश से निशाना साधते कृमि

वैसे तो यह पता ही है कि कई मामलों में स्थिर विद्युत (static electricity) पेड़-पौधों और जंतुओं की मदद करती है। जैसे यह देखा जा चुका है कि स्थिर विद्युत परागकणों (pollen transfer) को कीटों पर चिपकने में मदद करती है, कीटों को मकड़ी के जालों (spider web) में फंसाने में काम आती है और मकड़ियों को समुद्र पार करने में मददगार होती है।

अब इसी स्थिर विद्युत का एक और करिश्मा (scientific discovery) उजागर हुआ है। वैसे स्थिर विद्युत काफी जानी-पहचानी चीज़ है। जब कंघी को सूखे बालों पर रगड़ते हैं या मोरपंख को कागज़ में से घसीटते हैं तो उनमें आसपास पड़े कागज़ के टुकड़ों को आकर्षित करके चिपकाने का गुण आ जाता है। आजकल प्लास्टिक की कुर्सियों को किसी ऊनी कपड़े से रगड़कर चिंगारियां (electric sparks) पैदा करना बच्चों का पसंदीदा खेल बन गया है। और चिंगारियां इसलिए पैदा होती हैं क्योंकि कुर्सी पर स्थिर विद्युत आवेश पैदा हो जाता है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस (यूएस) (PNAS study) में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया गया है कि आधा मिलीमीटर साइज़ का एक गोल कृमि (Steinernema carpocapsae) भी इससे लाभान्वित होता है। यह कृमि अपनी साइज़ से 20 गुना तक ऊंची छलांग लगाकर उड़ते कीटों (flying insects) को निशाना बना लेता है और उनके शरीर में जानलेवा बैक्टीरिया डालकर उन्हें मार देता है।

दरअसल इल्लियों और अन्य नुकसानदेह कीटों को मारने के लिए किसान अपने खेतों में गोल कृमि (nematode parasite) छोड़ते हैं। ये जीव खेत में विचरती इल्लियों और कीटों (जैसे फलमक्खियों) को मारने के लिए इनकी ओर हवा में लंबी छलांग लगाते हैं, और अपने मेज़बानों के शरीर में घातक बैक्टीरिया (pathogenic bacteria) छोड़ देते हैं।

अलबत्ता, निशाना थोड़ा भी चूका तो जानलेवा हो सकता है क्योंकि वहां पहुंचकर भोजन नहीं मिलेगा और सूखने की नौबत आ सकती है। शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि निशाना चूकने की वारदात क्यों नहीं होती।

जांच करने के लिए शोधकर्ताओं ने जीवित फलमक्खी (fruit fly) को लिया और उसे तांबे के तारों से जोड़ दिया। यह फलमक्खी गोल कृमि का आम शिकार है। तांबे का तार फलमक्खी के स्थिर विद्युत आवेश का नियंत्रण करता था। इसके बाद उन्होंने इस मक्खी को Steinernema carpocapsae की एक बस्ती से करीब 6 मिलीमीटर ऊपर लटका दिया। आगे की वारदात स्लो मोशन कैमरा (slow motion camera) पर रिकॉर्ड की गई। देखा गया कि जब मक्खी पर आवेश एक सामान्य उड़ते हुए कीट के आवेश के स्तर का था, तब सारे के सारे 18 गोल कृमि अपने शिकार पर पहुंच गए थे। दूसरी ओर स्थिर विद्युत की अनुपस्थिति में सफलता की दर बहुत कम रही। पूरी वारदात का वीडियो देखने के लिए: https://phys.org/news/2025-10-fatal-electric-worm-aerial-prey.html (स्रोत फीचर्स)

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