जलवायु, सूक्ष्मजीवों की याददाश्त और कृषि

डॉ. इरफान ह्यूमन

पृथ्वी पर जीवन सबसे पहले सूक्ष्मजीव (microorganisms) के रूप में प्रकट हुआ था। ये मिट्टी, पानी, हवा, मानव शरीर, गर्म झरनों से लेकर गहरे समुद्र तक हर जगह पाए जाते हैं। हाल ही में अमेरिका के कैंसास और नॉटिंघम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का एक अध्ययन नेचर माइक्रोबायोलॉजी जर्नल (Nature Microbiology) में प्रकाशित हुआ है, जो दिखाता है कि सूखी मिट्टी, देशी पौधों को 20-30 प्रतिशत बेहतर अनुकूलन देती है। इस अध्ययन का दूसरा पहलू, सूक्ष्मजीवों का तनाव, उनके याद रखने की क्षमता से जुड़ा हुआ है।

जैसा कि हम जानते हैं, जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण सूखे की घटनाएं बढ़ रही हैं, जो पौधों और फसलों की वृद्धि को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीव (जैसे बैक्टीरिया और कवक) (soil microbes) पिछले पर्यावरणीय तनावों को ‘याद’ रख सकते हैं, और पौधों को भविष्य के सूखों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। इसे ‘सूक्ष्मजीवी स्मृति’ या विरासत प्रभाव (लेगसी इफेक्ट) कहते हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कैंसास के छह घास के मैदानों (प्रेयरी) से मिट्टी (prairie soils) के नमूने लिए। नमूना स्थल पूर्वी कैंसास (पर्याप्त वर्षा) से लेकर पश्चिमी हाई प्लेन्स (सूखा) तक फैले हुए थे। विभिन्न वर्षा इतिहास वाली इन सूक्ष्मजीवी मिट्टियों में दो प्रकार के पौधे उगाए गए – देशी पौधे गैमाग्रास, जो कैंसास की देशज घास है और गैर-देशी फसल मक्का, जो मध्य अमेरिका से आया है और कैंसास में केवल कुछ हज़ार वर्ष पुराना है। इन सूक्ष्मजीवी समुदायों को प्रयोगशाला में दो स्थितियों में रखा गया – एक में पर्याप्त पानी और दूसरे में सीमित पानी। प्रयोग के बाद पता चला कि इससे सूक्ष्मजीवों में सूखे की यादें विकसित हुईं। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि ये यादें (microbial memory) हज़ारों पीढ़ियों के बाद भी बनी रह सकती हैं।

कैसे संजोते हैं यादें

इस अध्ययन के निष्कर्ष में पाया गया कि सूखा इतिहास वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव पौधों को सूखे के दौरान बेहतर वृद्धि और उत्तरजीविता प्रदान करते हैं। ये यादें समुदाय की संरचना और जीन अभिव्यक्ति (gene expression) में बदलाव के रूप में प्रकट होती हैं। सूखे वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव पौधों में निकोटियानामाइन सिंथेज़ जीन को सक्रिय करते हैं, जो सूखे में लौह की कमी को दूर करता है। इससे पौधे अधिक मज़बूत हो जाते हैं। सामान्य पानी वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव यह लाभ नहीं देते।

अध्ययन में देशी पौधे (जैसे गैमाग्रास) (native plants) में सूक्ष्मजीवी विरासत प्रभाव बहुत मज़बूत पाया गया। ये पौधे स्थानीय सूक्ष्मजीवों के साथ लंबे समय से सह-विकास के कारण बेहतर अनुकूलित होते हैं। सूखे इतिहास वाले सूक्ष्मजीव इनकी वृद्धि को 20-30 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। वहीं मक्का जैसे गैर-देशी पौधों में प्रभाव कमज़ोर रहा। मक्का सूखे में उतना लाभ नहीं उठा पाता, क्योंकि यह स्थानीय सूक्ष्मजीवों से कम जुड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि बाहरी फसलें जलवायु तनाव में कम अनुकूलित होती हैं। यह अध्ययन दिखाता है कि मिट्टी के सूक्ष्मजीव जलवायु परिवर्तन के प्रति पौधों की स्मृति का काम करते हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र अधिक लचीले बन सकते हैं; कार्बन संग्रहण और पोषण चक्रण बेहतर होगा। यह अध्ययन पर्यावरणीय स्मृति के महत्व को रेखांकित करता है और दर्शाता है कि प्रकृति खुद को कैसे अनुकूलित करती है (plant-microbe interaction)।

खोज का वैज्ञानिक इतिहास

सूक्ष्मजीवों में पारिस्थितिक स्मृति की वैज्ञानिक खोजबीन का इतिहास नया नहीं है। इसकी शुरुआती बुनियाद पादप उत्तराधिकार और भूमि उपयोग विरासत के रूप में रखी गई थी। 1916 में फ्रेडरिक क्लेमेंट्स ने पादप उत्तराधिकार (प्लांट सक्सेशन) (plant succession) का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जो बताता है कि अतीत के वनस्पति समुदाय भविष्य की संरचना को प्रभावित करते हैं। यह विरासत प्रभाव की मूल अवधारणा का आधार बना, हालांकि इसमें सूक्ष्मजीव पहलू अनुपस्थित था। 1980-90 में भूमि उपयोग परिवर्तनों के लंबे प्रभावों पर फोकस रहा। 1997 में, जॉन अबर और सहयोगियों ने वन पारिस्थितिक तंत्रों में नाइट्रोजन संतृप्ति के मॉडल विकसित किए, जो कृषि या कटाई जैसी प्रथाओं के सदियों तक चलने वाले प्रभाव दिखाते थे। लेगसी इफेक्ट शब्द 1990 के दशक में पादप उत्तराधिकार और आक्रामक प्रजातियों (ecosystem legacy effects) के अध्ययनों से प्रचलित हुआ था।

1998-2003 में पारिस्थितिक स्मृति का औपचारिक आगाज़ हुआ। जे. के. हार्डिंग ने 1998 में अतीत के विक्षोभों को स्मृति के रूप में वर्णित किया, जो पारिस्थितिक लचीलापन बढ़ाती है। 2003 में, जे. बेंग्टसन और ड्रू फोस्टर ने इसे वैश्विक परिवर्तन के संदर्भ में विस्तारित किया – अतीत के तनाव वर्तमान प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

2005 में मृदा संपीड़न के प्रभावों पर अध्ययन (बैसेट एवं साथियों) ने दिखाया कि अतीत के भूमि उपयोग से जड़ विकास बाधित होता है, जो मिट्टी की स्मृति को दर्शाता है। इसी वर्ष, डेन्समोर ने नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से मिट्टी विरासत को पादप-वृद्धि से जोड़ा। 2008 में पादप-मृदा फीडबैक (plant–soil feedback) पर महत्वपूर्ण खोज हुई। जैकबिया वल्गेरिस के अध्ययन में प्रजातियों के बीच नकारात्मक फीडबैक दिखे – अतीत के पौधे सूक्ष्मजीव समुदाय को बदलते हैं, जो उत्तराधिकार को प्रभावित करते हैं।

2009-2010 में पूरा ध्यान सूक्ष्मजीवी विरासत पर रहा। जापानी बरबेरी के आक्रामक प्रभावों ने मृदा की सूक्ष्मजीवी संरचना और एंज़ाइम गतिविधियों में स्थायी बदलाव दिखाए। 2010 में, जंगलों की अंडरस्टोरी वनस्पति के प्रयोग से पता चला कि अतीत की सूक्ष्मजीवी संरचना वनस्पति और पोषक चक्रण को निर्धारित करती है।

2011-2020 के काल को सूक्ष्मजीवी स्मृति का उदय माना जाता है। 2011 में पी. कडोल और सहयोगियों ने भूमि उपयोग विरासतों को जैव विविधता से जोड़ा, जो सूक्ष्मजीवी स्मृति की दिशा में एक कदम था। 2014 में सूखे पर प्रारंभिक सूक्ष्मजीवी अध्ययन हुए। एस. ई. इवांस ने बैक्टीरियल नमी निशे का वर्णन किया, जो समुदाय में दीर्घकालिक परिवर्तनों की भविष्यवाणी करता है। एल. फुच्स्लूगर ने दिखाया कि सूखा होने पर पौधे मृदा सूक्ष्मजीवों तक कम कार्बन पहुंचाते हैं, जो समुदाय की संरचना को बदलता है। 2017 के अध्ययनों में कुल और सक्रिय मृदा सूक्ष्मजीवी समुदायों की सूखे के प्रति संवेदनशीलता (soil drought response) दिखाई दी। वहीं, 2020 में सूखे से सूक्ष्मजीवी जीन अभिव्यक्ति और मेटाबोलाइट उत्पादन में बदलाव दिखा, जो स्मृति निर्माण के आणविक आधार को इंगित करता है।

2021 में नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित एक लैंडमार्क अध्ययन से ज्ञात हुआ कि बार-बार सूखे से सूक्ष्मजीवी समुदायों में विविधता बढ़ी, जो मिट्टी बहुकार्यता को मज़बूत करती है। इससे साबित होता है कि सूखे की स्मृति पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को संशोधित करती है। 2022 में सूखे के सूक्ष्मजीवी लक्षण वितरण पर प्रभाव अध्ययन ने एक लक्षण-आधारित फ्रेमवर्क प्रदान किया। सूखा धीमी-वृद्धि वाले सूक्ष्मजीवों को चुनता है। 2023 में अल्पाइन घासभूमियों की सूखी मिट्टी में सूक्ष्मजीव वृद्धि के एक अध्ययन से भविष्य की जलवायु परिस्थितियों में सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया का अनुमान मिला। 2025 में कैंसास प्रेयरी पर किया गया अध्ययन वर्षा विरासत प्रभावों को पौधे की जीन अभिव्यक्ति से जोड़ता है।

समग्र विकास और महत्व की बात की जाए तो 1990 से 2010 के दौरान यह क्षेत्र सामान्य पारिस्थितिकी से सूक्ष्मजीव-केंद्रित खोजों तक विकसित हुआ। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में, ये खोजें बताती हैं कि स्मृति पारिस्थितिक लचीलापन बढ़ाती है, लेकिन गहन तनाव से हम इसे खो सकते हैं।

सूक्ष्मजैविक कृषि उद्योग

किसानों के लिए अच्छी खबर है कि अब सूखा-सहिष्णु सूक्ष्मजीवों (microbial biofertilizer) को व्यावसायिक रूप से विकसित किया जा सकता है। जैसे, गैमाग्रास के जीन मक्का में डाले जा सकते हैं ताकि फसलें सूखे में बेहतर उगें। सूक्ष्मजैविक कृषि उद्योग (जो जैव उर्वरकों, कीटनाशकों और मिट्टी सुधारकों का उत्पादन करता है) में यह स्मृति एक क्रांतिकारी तत्व है। यह उद्योग टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देगा।

स्मृति वाले सूक्ष्मजीव समुदाय फसल उपज और पोषण दक्षता बढ़ाते हैं। जैसे, चावल उत्पादन में सूक्ष्मजीव-आधारित एकीकृत पोषक प्रबंधन से मृदा स्वास्थ्य संरक्षित होता है। सूखे जैसे वैश्विक परिवर्तनों के प्रति सूक्ष्मजीवों की चयनात्मक प्रतिक्रियाएं पौधों की रक्षा करती हैं। यही नहीं, गोबर प्रबंधन से मृदा सूक्ष्मजीव संसार का प्रबंधन करके कृषि उत्सर्जन कम किया जा सकता है।

भविष्य की चुनौतियां

शोधकर्ता चेतावनी देते हैं कि सूक्ष्मजीवों की स्मृति लाभदायक होने के बावजूद, जलवायु परिवर्तन की अनियमितताएं (जैसे अचानक वर्षा) (extreme rainfall) नई समस्याएं पैदा कर सकती हैं। यह दृष्टिकोण पारिस्थितिकी, आनुवंशिकी और कृषि को एकीकृत करके एक बहु-विषयी सोच प्रदान करता है। जैसे, सूखे के बाद अचानक भारी वर्षा सूक्ष्मजीवों के लिए शॉक की तरह काम करती है। सूखे में सूक्ष्मजीव निष्क्रिय हो जाते हैं और ऊर्जा संरक्षित रखते हैं। लेकिन अचानक पानी आने पर उनकी गतिविधि तेज़ी से बढ़ जाती है, जिससे मिट्टी से कार्बन डाईऑक्साइड का विस्फोटक उत्सर्जन होता है। यह मिट्टी के कार्बन स्टॉक को 10-20 प्रतिशत तक कम कर सकता है। इससे जीवाणु और कवक की कोशिकाएं फट सकती हैं। अध्ययन में पाया गया कि सूखा-स्मृति वाली मिट्टी में यह तनाव अधिक गंभीर होता है, क्योंकि सूक्ष्मजीव अनुकूलित हो चुके होते हैं लेकिन अचानक बदलाव के लिए तैयार नहीं। इससे पौधों की जड़ें जल-जमाव के चलते ऑक्सीजन की कमी का सामना कर सकती हैं, जो वृद्धि रोकता है। जलवायु मॉडल्स के अनुसार, 2050 तक अनियमित वर्षा 30 प्रतिशत बढ़ सकती है। तब मृदा-स्मृति का लाभ उल्टा पड़ सकता है, कार्बन संग्रहण घटेगा और ग्रीनहाउस गैसें बढ़ेंगी।

इस दिशा में संतुलित जल प्रबंधन (water management) की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है। सूक्ष्मजीवों की स्मृति को बनाए रखने के लिए धीमी और नियंत्रित जल आपूर्ति ज़रूरी है। इससे सूक्ष्मजीवों को अनुकूलन का समय मिलता है, और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक कम हो सकता है। इससे मिट्टी की बहुकार्यता को संरक्षित रखा जा सकता है।

हमारे देश में किसानों को प्रशिक्षण और सस्ती तकनीक की आज भी कमी है। विकासशील देशों में, जहां 60 प्रतिशत कृषि वर्षा-निर्भर है, जल प्रबंधन नीतियों का अभाव एक बड़ा जोखिम है। शोधकर्ता सुझाते हैं कि कृत्रिम-बुद्धि आधारित मौसम पूर्वानुमान से स्मार्ट इरिगेशन (smart irrigation) अपनाने की ज़रूरत है।

स्मृति को व्यावसायिक रूप से स्थिर रखना (भंडारण और क्षेत्र अनुकूलन) मुश्किल है। 2025 में, क्रिस्पर (CRISPR) जैसी तकनीकों से सुपर सूक्ष्मजीव विकसित हो रहे हैं, जो स्मृति को बढ़ाकर टिकाऊ कृषि को नया आयाम देंगे। जैविक खेती के बढ़ते चलन में यह उद्योग किसानों की आय बढ़ा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मौन कैदी ‘क्षामेन्क’ और हमारी नैतिकता की परीक्षा

कुमार सिद्धार्थ

र्जेंटीना के तट पर स्थित एक छोटा-सा समुद्री पार्क आज संसार के सबसे गूंगे श्रुति-स्थलों में से एक बन चुका है। पार्क के कॉन्क्रीट के टैंक में लहरों की आवाज़ें नहीं, बल्कि एक स्थिर सन्नाटा पसरा है। उस सन्नाटे का नाम है क्षामेन्क। यह एक नर ओर्का व्हेल (समुद्री व्याघ्र मछली) (orca captivity) है, जो पिछले तैंतीस वर्षों से कैद में है और बीस वर्षों से पूरी तरह अकेला है। यह दक्षिण अमेरिका में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रखा हुआ है।

टैंक का आकार क्षामेन्क के शरीर के हिसाब से बहुत छोटा है – एक निर्जीव अंडाकार कटघरा, जिसमें धूप से चमकता कॉन्क्रीट और क्लोरीनयुक्त पानी है। घंटों तक क्षामेन्क बिल्कुल निष्क्रिय तैरता रहता है। वहां लहरें नहीं, वहां जीवन नहीं, वहां सिर्फ प्रतीक्षा है। उसकी कहानी आज सिर्फ एक जीव की नहीं, बल्कि उन अनगिनत समुद्री प्रजातियों की कहानी है जिन्हें हमारी तमाशा देखने की भूख ने समुद्र से काट दिया है(marine animal captivity)।

व्हेल, डॉल्फिन और ओर्का जैसी प्रजातियां पृथ्वी के सबसे जटिल, सबसे सामाजिक और सबसे बुद्धिमान जीवों में गिनी जाती हैं। जंगल में नहीं, समुद्र की अनंत गहराई में ये प्रजातियां मातृवंशीय समूहों में रहती हैं, ध्वनि-भाषा सीखती हैं, शोक मनाती हैं, सहयोग करती हैं। रोज़ाना सौ किलोमीटर से अधिक दूरी तय करना इनके लिए सहज है। किंतु जब इन्हें समूह से अलग कर कैद में रखा जाता है, तो यह केवल बंदीकरण नहीं, बल्कि उनका संवेदनात्मक ध्वंस है(animal welfare issues)।

आंकड़ों के अनुसार, ओर्का की वैश्विक आबादी अनुमानित पचास हज़ार है। कुछ स्थानों पर यह संख्या और अधिक बताई गई है, किंतु निरंतर गिरावट की आशंका (orca population decline) भी जताई गई है। उदाहरण के लिए, अंटार्कटिक सागर के दक्षिणी भाग में लगभग 25 हज़ार ओर्का हो सकते हैं।

इन विशाल और बुद्धिमान जीवों के लिए समुद्र-आश्रय उपयुक्त था लेकिन मानव गतिविधियों ने उन्हें उनके प्राकृतिक घर से बेदखल कर दिया।

क्षामेन्क की ही तरह, ये जीव न केवल प्राकृतिक घर से बेदखल हो रहे हैं, बल्कि उनका जीवन भी मानव मनोरंजन के लिए नुमाया किया जा रहा है। पार्कों में बताया जाता है कि ये व्हेल-डॉल्फिन हमारी पृथ्वी के राजदूत हैं, प्रकृति और मनुष्य के बीच सेतु हैं। परंतु हर टिकट, हर शो उस संदेश के विपरीत सिद्ध हो रहा है। यह मात्र दर्शनीय-मनोरंजन बन जाता है और उस मनोरंजन के पीछे पसरी है एक भय, विषाद और उपेक्षा से भरी कहानी(marine theme parks impact)।

भारत ने इस संदर्भ में एक साहसिक कदम उठाया है। वर्ष 2013 में भारत सरकार ने डॉल्फिनों को ‘गैर-मानव व्यक्ति’ का दर्जा दिया था(non-human person dolphins)। यह दुनिया में ऐसा पहला कदम था, जिसने यह माना कि अत्यधिक बुद्धिमान और संवेदनशील प्रजातियों को मनोरंजन-उद्देश्य से कैद में रखना न केवल अनैतिक है, बल्कि समय की मांग के अनुरूप नहीं है। इसके बाद भारत ने डॉल्फिन शो व मनोरंजन-उद्देश्य से प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया। भारत की गंगा-डॉल्फिन का संरक्षण भी इसी दृष्टिकोण का उदाहरण है, जहां नदी का सफाई अभियान और जलीय परितंत्र का पुनरुद्धार करते हुए इन जीवों की भूमिका ध्यान में रखी गई है(river dolphin conservation)।

शायद यही बदलाव संसार के लिए संकेत है कि मनोरंजन के नाम पर वन्यजीवों को कैद में रखना अब विवेचना का विषय बन गया है। फ्रांस ने डॉल्फिन शो बंद कर दिए हैं; कनाडा ने मनोरंजन-उद्देश्य के लिए व्हेलों व डॉल्फिनों का प्रजनन व आयात बंद कर दिया है; अमेरिका में कुछ समुद्री पार्कों ने अपने गेट बंद कर दिए हैं। परंतु क्षामेन्क जब तक उस टैंक में तैरता रहेगा, हमारा सवाल अनुत्तरित रहेगा कि क्या हमने वास्तव में उसकी आज़ादी की ओर कदम उठाया है (end captivity movement)।

मण्डो मरीनो नामक उस पार्क का तर्क है कि क्षामेन्क को 1992 में किनारे पर फंसे होने से बचाया गया था और वह अब प्राकृतवास में जीवित नहीं रह पाएगा। हालांकि यह तर्क भावनात्मक दिखता है, पर न्याय-विचार के तहत यह उचित नहीं कि जीवनभर का कारावास ही एकमात्र विकल्प हो। ठीक यही विचार विश्व स्तर पर फैल रहा है। अब ‘कैद बंद करो’ और ‘प्राकृतिक आश्रय दो’ की आवाज़ें तेज़ हो रही हैं (marine sanctuary concept)।

उदाहरण के रूप में, उत्तर अटलांटिक क्षेत्र में ‘व्हेल सेंक्चुरी प्रोजेक्ट’ नामक पहल ने कैद से लाई गई व्हेलों के लिए समर्पित प्राकृतिक ठंडे पानी का संरक्षण-स्थल स्थापित करने की तैयारी शुरू की है। गहरे समुद्री जल, खुले समुद्री प्रवाह और पेशेवर देखभाल, यह वहां का आधार होगा जहां ये जीव नियंत्रण से करुणा की ओर बढ़ेंगे।

समुद्री पार्कों का स्वरूप आज मनोरंजन और संरक्षण के बीच बहुत धुंधला गया है। वे कहते हैं कि यह शोध है, पुनर्वास है, शिक्षा है। लेकिन उनकी आमदनी प्रदर्शन और तमाशे पर टिकी है। परिणामस्वरूप, हमारी नैतिकता को धोखा दिया जा रहा है।

और हम पूछते हैं, जब कोई बच्चा उस ऐक्रेलिक शीशे को छूकर अंदर तैरते व्हेल को देखता है, तो क्या उसे यह संदेश नहीं मिलता कि वर्चस्व और आनंद के नाम पर किसी जीव की स्वतंत्रता छीनी जा सकती है? क्षामेन्क की कहानी अब असाधारण नहीं रही। यह एक आईना है जो दिखाता है कि हम क्या जानते हैं, किन्ही नियमों में बंधे हुए हैं, किन बातों को स्वीकार कर लेते हैं।

वैज्ञानिक शोध स्पष्ट कर चुके हैं व्हेल-डॉल्फिन जैसी प्रजातियों को सामाजिक समूह, गहरी समुद्री गतियां, सुनने-सुनाने का तरीका, संवाद की भाषा प्राप्त है। प्राकृतिक परिस्थितियों में उनका जीवन अलग हैै। कैद में इनके लिए वह जीवन मजबूरी-सा हो जाता है। हमने कानूनी ढांचा तो बना लिया है, उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन अब वक्त है कार्रवाई करने का।

क्षामेन्क बहुत लंबे समय से अकेला है। हमें यह तय करना होगा कि अगली सुर्खियां उसके बारे में क्या होंगी। क्या यह अंत की खबर होगी “एक ओर्का की मृत्यु” या यह घोषणा होगी “कैद से मुक्ति, स्वाभाविक जीवन की ओर पहला कदम”? हमें स्वीकार करना होगा कि करुणा कमज़ोरी नहीं, बल्कि सभ्यता की सच्ची पहचान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उम्र के साथ मस्तिष्क में परिवर्तन

इंसानी मस्तिष्क उम्र के साथ लगातार बदलता (human brain aging) है। बचपन से बुढ़ापे तक हमारी सीखने, याद रखने, सोचने और अनुकूलन की क्षमता कई बार बदलती है। एक बड़े अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क की आंतरिक ‘वायरिंग’ (brain connectivity) के विकास के चार प्रमुख पड़ाव होते हैं, जो लगभग 9, 32, 66 और 83 साल की उम्र के आसपास दिखाई देते हैं। शायद इसी वजह से बचपन में सीखना आसान लगता है, युवाओं की सोच तेज़ होती है, और उम्र बढ़ने के साथ याददाश्त और मानसिक क्षमता घटने लगती है।

इस शोध में यूके और अमेरिका के करीब 3800 लोगों (सभी गोरे और किसी तंत्रिका क्षति से रहित) के एमआरआई स्कैन का विश्लेषण (MRI brain study) किया गया – इनमें नवजात शिशु से लेकर 90 वर्ष तक के लोग शामिल थे। पहले के अध्ययनों में माना जाता था कि शरीर में उम्र बढ़ने के बड़े बदलाव 40, 60 और 80 की उम्र पर दिखते हैं, लेकिन मस्तिष्क की जटिलता के चलते इन परिवर्तनों को समझना मुश्किल है। मस्तिष्क में मूलत: दो भाग होते हैं – व्हाइट मैटर और ग्रे मैटर (white matter, grey matter)। व्हाइट मैटर मुख्य रूप से तंत्रिकाओं से बना होता है जिनसे लंबे-लंबे तंतु निकलते हैं। इन तंतुओं को एक्सॉन कहते हैं। ग्रे मैटर के अलग-अलग हिस्से व्हाइट मैटर के इन्हीं एक्सॉन के ज़रिए जुड़े होते हैं। एक्सॉन ऐसे तंतु हैं जो सूचना को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक पहुंचाते हैं। ये तंतु जितने लंबे, घने या मज़बूत होते हैं, उतना ही मस्तिष्क के हिस्से एक-दूसरे से बेहतर संवाद कर पाते हैं।

चरण 1: जन्म से 9 वर्ष – कई सारे नए कनेक्शन, लेकिन कम क्षमता

बचपन में मस्तिष्क के व्हाइट मैटर के एक्सॉन लंबे और उलझे हुए होते हैं, जिससे सूचना का प्रवाह धीमा और कम प्रभावी हो जाता है। लगता है कि मस्तिष्क धीरे-धीरे उन तंत्रिकाओं की छंटनी कर देता है जो उपयोगी नहीं हैं जबकि कुछ तंत्रिकाओं को प्राथमिकता देता है जो भाषा, गति, तर्क, और नई क्षमताएं सीखने (child brain development) में मददगार होती हैं।

चरण 2: 9 से 32 वर्ष तेज़ी, छंटाई, और सोचने की चरम क्षमता

लगभग 9 साल की उम्र के बाद स्थिति बदलने लगती है। किशोरावस्था और हार्मोनल बदलावों के प्रभाव से मस्तिष्क अपने नेटवर्क को व्यवस्थित करता है। गैर-ज़रूरी कनेक्शन हटने लगते हैं, और ज़रूरी कनेक्शन छोटे व तेज़ बन जाते हैं। इसी समय योजना बनाने, फैसले लेने, याद रखने और भावनाओं को संभालने जैसी क्षमताएं मज़बूत होती हैं। इस अवधि में संज्ञान क्षमता अपने चरम (cognitive peak performance) पर होती है।

चरण 3: 32 से 66 वर्ष – क्षमताओं में धीरे-धीरे गिरावट

30 से लेकर 60 की उम्र में बदलाव जारी तो रहता है, लेकिन बहुत धीमी गति से। कुल मिलाकर, अलग-अलग हिस्सों के बीच जानकारी पहुंचाने की क्षमता थोड़ी कम होने लगती है – यानी दिमाग के दूरस्थ हिस्सों के बीच संदेश पहुंचने में थोड़ा ज़्यादा समय लगता है। वैज्ञानिक अभी ठीक-ठीक नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है, लेकिन इसका कारण उम्र बढ़ना, लगातार तनाव, या जीवन की जिम्मेदारियां जैसे बच्चे, नौकरी का दबाव या कम नींद हो सकते हैं (brain aging slowdown)।

चरण 4: 66 से 83 वर्ष – पास के कनेक्शन मज़बूत, दूर के कनेक्शन कमज़ोर

66 वर्ष के बाद दिमाग में एक नया पैटर्न दिखाई देता है। किसी एक हिस्से के भीतर के कनेक्शन तो ठीक रहते हैं, लेकिन दूर-दराज़ के हिस्सों के बीच के कनेक्शन कमज़ोर होने लगते हैं। यही समय स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया- dementia risk) के बढ़ते जोखिम से भी जुड़ा होता है। इससे संकेत मिलता है कि लंबी दूरी के कनेक्शनों की कमज़ोरी बुज़ुर्गों में शुरुआती मानसिक गिरावट में भूमिका निभा सकती है।

चरण 5: 83 से 90 वर्ष – मस्तिष्क का कुछ केंद्रों पर निर्भर होना

इस अंतिम चरण में मस्तिष्क की वायरिंग और कमज़ोर हो जाती है। पहले जहां कई हिस्से सीधे-सीधे जुड़कर जानकारी भेजते थे, वहीं अब मस्तिष्क जानकारी को कुछ चुनिंदा और महत्वपूर्ण केंद्रों के ज़रिए भेजता है। यह इस बात को दिखाता है कि उम्र बढ़ने पर दिमाग के पास संसाधन कम हो जाते हैं और वह बची हुई क्षमता के साथ काम चलाने की कोशिश करता है (brain decline in old age)।

इन मुख्य पड़ावों को समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य की कई समस्याएं 25 साल से पहले क्यों उभरती हैं, और 65 के बाद डिमेंशिया का खतरा क्यों तेज़ी से बढ़ता है। साथ ही, यह जानकारी वैज्ञानिकों को ऐसी स्थितियों – जैसे शिज़ोफ्रेनिया, ऑटिज़्म या अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) – में असामान्य दिमागी पैटर्न जल्दी पकड़ने में मदद कर सकती है। अलबत्ता, शोधकर्ता मानते हैं कि इन निष्कर्षों को दुनिया भर पर लागू करने से पहले अलग-अलग,  विविध आबादियों के अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नाभिकीय रसायन शास्त्री डारलीन हॉफमैन का निधन

डारलीन हॉफमैन (1926–2025)

डारलीन हॉफमैन एक नाभिकीय रसायन शास्त्री (nuclear chemist) थीं जिनके कार्य ने तत्वों की आवर्त सारणी को विस्तार दिया और सबसे भारी तत्वों और परमाणु विखंडन (heavy elements research) की हमारी समझ को आगे बढ़ाया। 4 दिसंबर 2025 के दिन 92 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

पहले माना जाता था कि युरेनियम (परमाणु भार 238) प्रकृति में पाया जाने वाली सबसे भारी तत्व है। उन सारे तत्वों को रसायन शास्त्री ट्रांसयुरेनियम तत्व (trans uranium elements) कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या युरेनियम (92) से अधिक हो। ये सभी अत्यंत अस्थिर होते हैं और रेडियोसक्रिय होते हैं। लेकिन हॉफमैन द्वारा प्लूटोनियम (परमाणु भार 244, परमाणु संख्या 94) की खोज ने इस धारणा को बदल डाला। इसके अलावा उनके शोध कार्य से हमें नाभिकीय विखंडन को समझने में मदद मिली, कैंसर के उपचार में तरक्की हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि उनके शोध की बदौलत परमाणु कचरा प्रबंधन (nuclear waste management) के बेहतर प्रोटोकॉल विकसित हुए।

उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह मानी जाती है कि उन्होंने परमाणु संख्या 106 वाले तत्व (जिसे आगे चलकर सीबोर्गीयम कहा गया) की खोज (seaborgium discovery) को सत्यापित किया था। 

1951 में नाभिकीय रसायन शास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के बाद 1971 में हॉफमैन ने कैलिफोर्निया की माउंटेन पास खदान से प्राप्त चट्टानों के नमूने के विश्लेषण के दौरान प्लूटोनियम-244 की खोज की थी। इससे पहले वैज्ञानिकों का मत था कि युरेनियम से भारी तत्वों का संश्लेषण तेज़ रफ्तार कणों की टक्कर से कृत्रिम रूप से ही करना होता है (synthetic elements)।

आगे बढ़कर हॉफमैन ने फर्मियम-257 (परमाणु संख्या 100) खोजा और यह भी दर्शाया कि इस तत्व को बराबर भार के खंडों में तोड़ा जा सकता है। उस समय यह एक अनपेक्षित परिणाम था क्योंकि विखंडन से एक बड़ा और एक छोटा टुकड़ा ही बनता है। उनकी इस खोज ने नाभिकीय विखंडन (nuclear fission) को लेकर हमारी सोच को काफी प्रभावित किया था।

नाभिकीय रसायन शास्त्र में अपने अहम योगदान के अलावा, हॉफमैन विज्ञान में महिलाओं (women in science) की भागीदारी की सशक्त प्रवक्ता भी थीं। (स्रोत फीचर्स)    

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चर्बी की कोशिकाओं से हड्डी का निर्माण

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर होना एक गंभीर स्थिति होती है (spinal fracture) जिससे ज़ख्मी व्यक्ति में पीठ में तीव्र दर्द, मांसपेशियों में जकड़न, पीठ का झुकना या टेढ़ा होना और अत्यंत गंभीर मामलों में मूत्र और मल नियंत्रण खो देना और निचले शरीर का लकवाग्रस्त होना भी देखा गया है। मरीज़ का उपचार इस बात पर निर्भर करता है कि चोट कितनी गंभीर है और मेरु-रज्जु (स्पाइनल कॉर्ड) क्षतिग्रस्त (spinal cord injury) हुई है या नहीं। साधारण चोट को तो लंबे उपचार के बाद ठीक किया जा सकता है लेकिन पूरी तरह कट गई या नष्ट हो गई मेरु-रज्जु को पुन: ठीक करना फिलहाल संभव नहीं है।

इस संदर्भ में हाल ही में ओसाका मेट्रोपोलिटन युनिवर्सिटी के शोधार्थियों ने शरीर के वसा ऊतक (एडिपोज़ ऊतक) से निकाली गई स्टेम कोशिकाओं का इस्तेमाल करके स्पाइनल फ्रैक्चर को ठीक करने का एक नया और असरदार तरीका विकसित किया है (stem cell therapy)। इंसानों में अस्थिछिद्रता (ऑस्टियोपोरोसिस) से होने वाले फ्रैक्चर (osteoporosis fracture) जैसी स्थिति जब चूहों में दोहराई गई तो एडिपोज़ ऊतक उपचार के बाद रीढ़ की हड्डी और नसें सफलतापूर्वक ठीक होती देखी गई। ऐसा उपचार बुज़ुर्गों में ऑस्टियोपोरोसिस की देखभाल और हड्डियों के पुन:निर्माण में क्रांति ला सकता है।

अस्थिछिद्रता 

यह हड्डियों की एक बहुत आम लेकिन गंभीर बीमारी है, जो वृद्धों में, खासकर महिलाओं में अधिक पाई जाती है। इस रोग में हड्डियों में मौजूद कैल्शियम और खनिज कम हो जाते हैं जिससे हड्डियां धीरे-धीरे कमज़ोर और खोखली (bone density loss) हो जाती हैं, एवं पतली और नाज़ुक होकर आसानी से टूट जाती हैं। वृद्धों की आबादी बढ़ने के साथ अस्थिछिद्रता की वजह से होने वाले फ्रैक्चर, रीढ़ की हड्डी के फ्रैक्चर के मामलों (osteoporosis treatment) में भी वृद्धि दिखती है। इन चोटों से लंबे समय तक विकलांगता हो सकती है और जीवन की गुणवत्ता बहुत कम हो सकती है; इसलिए सुरक्षित और ज़्यादा असरदार इलाज की ज़रूरत है।

मेसेनकाइमल स्टेम कोशिकाएं

स्टेम कोशिकाएं ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो शरीर में किसी भी प्रकार की विशेष कोशिका (जैसे हड्डी, मांसपेशी, तंत्रिका, रक्त आदि) में बदलने की क्षमता (regenerative medicine) रखती है। मेसेनकाइमल स्टेम कोशिकाएं हड्डी, मांसपेशी, उपास्थि, और रक्तवाहिनी जैसी कई कोशिकाओं में बदलने की क्षमता रखती हैं। इन्हें शरीर की चर्बी से प्राप्त किया जाता है। इनका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इन्हें काफी संख्या में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है और प्रत्यारोपण के बाद शरीर इन्हें अस्वीकार भी नहीं करता।

हड्डी की मरम्मत

वसा ऊतक से मिलने वाली स्टेम कोशिकाओं में हड्डी की क्षति को ठीक करने की ज़बरदस्त क्षमता (bone regeneration) होती है। ये बहुसक्षम कोशिकाएं हड्डी समेत कई तरह के ऊतकों में बदल सकती हैं। सर्वप्रथम शरीर के किसी हिस्से (जैसे पेट या जांघ) से चर्बी निकाली जाती है। फिर चर्बी में से स्टेम कोशिकाओं को अलग किया जाता है और प्रयोगशाला में संख्या वृद्धि की जाती है। अब इन स्टेम कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त हड्डी में इंजेक्ट किया जाता है, या एक ढांचे के साथ लगाया जाता है। ये कोशिकाएं हड्डी जैसी कोशिकाओं में बदलकर नई हड्डी का निर्माण करती हैं।

टोकियो के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ मेडिसिन के विद्यार्थी यूटा सवाडा और डॉ. शिंजी ताकाहाशी के नेतृत्व में, ओसाका रिसर्च टीम ने एडिपोज़ टिश्यू से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं को β-ट्राइकैल्शियम फॉस्फेट (β-TCP biomaterial) के साथ मिलाया, जो हड्डी के पुनर्निर्माण में आम तौर पर इस्तेमाल होने वाला पदार्थ है। जब इस मिश्रण को रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर-ग्रस्त चूहों पर लगाया गया, तो हड्डी के ठीक होने और मज़बूती में काफी सुधार हुआ (spinal repair improvement)। इन स्टेम कोशिकाओं के साथ कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएं करने पर उनकी प्रभाविता बढ़ गई। जैसे, जब इन कोशिकाओं की वृद्धि द्वारा गोलाकार संरचना (स्फेरॉइड) बनाई गई तो उनकी मरम्मत की क्षमता बेहतर रही।

चर्बी की कोशिकाओं से हड्डी का निर्माण सुरक्षित, सस्ता और अत्यधिक संभावनाओं वाला तरीका है (adipose stem cells)। भविष्य में यह फ्रैक्चर, अस्थिछिद्रता, हड्डी क्षति, और स्पाइनल इंजरी के उपचार में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बहुउपयोगी गन्ना

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में ओलिवियर गार्समूर और उनके साथियों ने सेल पत्रिका में एक शोधपत्र प्रकाशित किया है। इसका शीर्षक है ‘जंगली गन्ना प्रजातियों के जीनोमिक चिन्ह गन्ने को पालतू बनाने, उसके विविधिकरण और उसकी आधुनिक खेती के बारे में बताते हैं (The genomic footprints of wild Saccharum species trace domestication, diversification, and modern breeding of sugarcane)’। इस शोध में ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, चीन, फ्रांस, फ्रेंच पोलिनेशिया, भारत, जापान और यू.एस. की गन्ने की 390 किस्मों का जीनोमिक विश्लेषण किया गया।

ये पौधे कई तरह के जीन्स के संकर (हाइब्रिड) थे, जिनमें कई क्रोमोसोम एकाधिक (पॉलीप्लॉइडी) थे। ऐसी पॉलीप्लॉइड (polyploid crops) किस्में मनुष्यों द्वारा व्यावसायिक निर्यात की वजह से बनीं। मनुष्य गन्नों को देश के अलग-अलग राज्यों से लेकर अफगानिस्तान, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों में निर्यात करते और बेचते थे।

उन्होंने यह भी बताया कि एक ओर तो गन्ना एक मुनाफे की फसल है, जिसका इस्तेमाल इसकी मिठास के कारण किया जाता है। दूसरी ओर, इसका इस्तेमाल बायोएथेनॉल बनाने (bioethanol production) के लिए भी किया जाता है, जिसे निजी, सार्वजनिक और व्यावसायिक वाहनों के जीवाश्म ईंधन के एक स्वच्छ विकल्प के तौर पर बनाया जाता है।

भारत में गन्ना

भारत में गन्ने की पैदावार बहुत ज़्यादा होती है, खासकर 13 राज्यों में। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और गुजरात 2018-19 से 2023-24 तक गन्ने के शीर्ष पांच उत्पादक राज्य रहे। 2024-2025 में करीब 4400 लाख टन गन्ने का उत्पादन (India sugarcane production) हुआ था।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भी देश भर में कई शुगर रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाए हैं जो गन्ने की किस्मों और पैदावार को बेहतर बनाने (sugarcane breeding) के लिए पारंपरिक वानस्पतिक तरीकों और आणविक जीव विज्ञान के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से तमिलनाडु के कोयंबटूर में स्थित सबसे पुराने शुगरकेन ब्रीडिंग इंस्टीट्यूट ने गन्नों में जेनेटिक विविधता देखने के लिए भारत भर के चार अलग-अलग मूल के गन्नों का आणविक जेनेटिक विश्लेषण किया था। 2006 में किए गए इस विश्लेषण के नतीजे जेनेटिक रिसोर्सेज़ एंड क्रॉप इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुए थे।

शुरुआत में वर्णित गार्समूर के शोध में विश्लेषण के लिए पश्चिमी देशों और चीन के गन्नों के नमूने लिए गए थे। वहीं कोयंबटूर के शोधकर्ताओं ने अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के नमूनों का विश्लेषण किया। जेनेटिक विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि अरुणाचल प्रदेश में गन्ने की किस्मों में सबसे अधिक विविधता थी (genetic diversity crops)।

2018 में, 3 बायोटेक में प्रकाशित एक पेपर में लखनऊ स्थित भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने देश के उपोष्णकटिबंधीय हिस्सों की गन्ने की 92 किस्मों की जेनेटिक विविधता और आबादी की संरचना का भी विश्लेषण किया (molecular markers) । इसके नतीजे भी भारत में कई तरह के गन्ने की प्रचुरता की ओर इशारा करते हैं।

चीन, भारत और पाकिस्तान में पारंपरिक औषधि (traditional medicine) बनाने वाले भी अपनी चिकित्सा में गन्ने का इस्तेमाल करते रहे हैं। इस संदर्भ में हाल ही में चीन के शोधकर्ताओं द्वारा एक समीक्षपत्र प्रकाशित किया गया है, जिसका शीर्षक है ‘गन्ने का रासायनिक संगठन और जैविक गतिविधियां: संभावित औषधीय महत्व एवं निर्वहनीय विकास’, (The chemical composition and biological activities of sugarcane: Potential medicinal value and sustainable development)। यह पेपर बताता है कि पारंपरिक चीनी औषधियों के स्रोत टिकाऊ विकास के मामले में गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं, ये स्रोत घट रहे हैं। और, यह समस्या प्राकृतिक पर्यावरण में हो रहे बदलावों और मनुष्यों द्वारा की जा रही अनियंत्रित कटाई से और बढ़ रही है।

इसलिए, पारंपरिक चीनी औषधियों के स्रोतों के रखरखाव और विकास के लिए उन स्रोतों का अध्ययन करना बहुत ज़रूरी है जिनमें औषधीय महत्व और कृषि क्षमता है, साथ ही उनके नए इस्तेमाल खोजना भी ज़रूरी है। अपनी समीक्षा में, लेखकों ने गन्ने के रासायनिक संगठन और इसकी संभावित जैवगतिविधियों पर चर्चा की है, चिकित्सा में इसके उपयोग को समझा है, और भविष्य के शोध की संभावित दिशा बताई है।

गार्समूर और उनके साथियों ने भी बताया है, गन्ने का इस्तेमाल बायोएथेनॉल बनाने के लिए भी किया जाता है (green fuel), जो कार और बस जैसी सवारी गाड़ियों के साथ-साथ ट्रकों के डीज़ल या पेट्रोल का एक हरित विकल्प है। भारत ने भी बायोएथेनॉल बनाने के लिए गन्ने के अपशिष्ट, चावल और गेहूं का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। पेट्रोलियम एंड नेचुरल गैस मंत्रालय ने असम में बायोएथेनॉल बनाना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर, हम गन्ने पर आधारित एक हरित भारत की उम्मीद करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या दुनिया चरम कार्बन उत्सर्जन के करीब है?

ज़ुबैर सिद्दिकी

ह तो हम जानते हैं कि वैश्विक कार्बन उत्सर्जन का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ रहा है। वैज्ञानिक लंबे समय से चेतावनी देते आए हैं कि जब तक हर साल वातावरण में और अधिक कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन जुड़ती जाएंगी, पृथ्वी गर्म (global warming) होती जाएगी।

लेकिन हाल ही में एक अप्रत्याशित संकेत मिला है — बहुत छोटा, लेकिन इतना महत्वपूर्ण कि दुनिया भर के वैज्ञानिकों का ध्यान उस ओर आकर्षित हुआ। उपग्रह और ऊर्जा उत्पादन डैटा की मदद से रीयल-टाइम उत्सर्जन ट्रैक करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समूह Climate TRACE ने साल की शुरुआत में वैश्विक उत्सर्जन में हल्की गिरावट (real-time emissions) दर्ज की है। इस वर्ष जनवरी, फरवरी और मार्च में उत्सर्जन पिछले साल की इसी अवधि की तुलना में थोड़ा कम पाया गया। वैसे तो यह बदलाव मामूली लग सकता है, लेकिन लंबे समय से ऊपर जाते उत्सर्जन ग्राफ में इस तरह की छोटी-सी गिरावट भी किसी बड़े परिवर्तन का संकेत हो सकती है।

वर्षों से यह क्षण दूर की कौड़ी लगता था। वैश्विक उत्सर्जन हर साल औसतन 1 प्रतिशत बढ़ता रहा है, जबकि कई देशों ने बड़े कटौती के वादे (climate targets) किए थे। युरोप और अमेरिका में उत्सर्जन कई दशक पहले ही चरम पर पहुंचकर घटने लगा था, लेकिन दुनिया का कुल उत्सर्जन लगातार बढ़ता रहा, खासकर चीन के कारण।

गौरतलब है कि चीन की विशाल उद्योग व्यवस्था और ऊर्जा ज़रूरतें दुनिया में सबसे अधिक हैं (China emissions)। 2015 के पेरिस समझौते के बाद से वैश्विक उत्सर्जन वृद्धि का लगभग 90 प्रतिशत हिस्सा चीन अकेले जोड़ चुका है। जब तक चीन का उत्सर्जन बढ़ता रहता, तब तक दुनिया के कुल उत्सर्जन की चरम आना संभव ही नहीं था।

लेकिन हाल के वर्षों में चीन के इतिहास का सबसे तेज़ और व्यापक स्वच्छ ऊर्जा (renewable energy China) विस्तार हो रहा है। सिर्फ पिछले साल चीन ने नवीकरणीय ऊर्जा पर 625 अरब डॉलर खर्च किए जो अमेरिका और युरोपीय संघ दोनों के संयुक्त निवेश से भी अधिक है। विशाल सौर ऊर्जा परियोजनाएं रेगिस्तानों में दूर-दूर तक फैली हैं। पवन ऊर्जा संयंत्र, बैटरी कारखाने, इलेक्ट्रिक वाहन बनाने वाले कारखाने और हाई-वोल्टेज बिजली नेटवर्क तेज़ गति से फैल रहे हैं।

चीन में बदलाव इतनी तेज़ी से हो रहा है कि साल की पहली छमाही में सिर्फ सौर ऊर्जा की बढ़ोतरी (solar power growth) ही देश की सारी अतिरिक्त बिजली ज़रूरतें पूरी करने के लिए काफी थी। इसका मतलब है कि बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए चीन को अतिरिक्त कोयला संयंत्र नहीं बनाने पड़े। चीन के लोग भी इस बदलाव को तेज़ी से अपना रहे हैं। दुनिया में बनने वाली इलेक्ट्रिक कारों में से आधी से अधिक अब चीन में खरीदी जाती हैं। हर महीने 10 लाख से अधिक ईवी बिक रही हैं।

अगर शुरुआती आंकड़े सच में एक नए रुझान की शुरुआत दिखा रहे हैं, तो संभव है कि चीन में कार्बन उत्सर्जन का चरम पहले ही आ चुका हो या फिर सिर्फ एक–दो साल दूर (emission peak) हो।

लेकिन ‘चरम कार्बन’ पहचानना आसान नहीं है। ग्रीनहाउस गैसों (GHG measurement) का सही-सही हिसाब रखना एक कठिन काम है। वायुमंडल में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड को मापना तो सरल है — हवाई स्थित मौना लोआ ज्वालामुखी या दक्षिण ध्रुव जैसे दूर-दराज़ स्टेशनों पर लगे सेंसर यह जानकारी दे देते हैं। लेकिन यह पता लगाना मुश्किल है कि हर साल इंसान कुल कितना उत्सर्जन कर रहे हैं।

कार्बन उत्सर्जन कई बिखरे हुए स्रोतों से आता है — बिजलीघर, फैक्टरियां, कारें, ट्रक, हवाई जहाज़, जहाज़, खेती, पशुपालन, जंगल, कचरा-घाट, निर्माण कार्य, भारी उद्योग और प्राकृतिक प्रक्रियाएं जैसे जंगल की आग या बर्फीली जमीन (पर्माफ्रॉस्ट) का पिघलना (carbon sources)। इनमें से कई स्रोत बहुत छोटे होते हैं, कुछ इतने बिखरे होते हैं कि पकड़ में नहीं आते, और कुछ तो देशों द्वारा जानबूझकर कम दिखाए जाते हैं।

कई दशकों तक वैज्ञानिक उत्सर्जन का अनुमान लगाने के लिए मुख्य रूप से ऊर्जा खपत के राष्ट्रीय आंकड़ों, जीवाश्म ईंधन के उपयोग, औद्योगिक उत्पादन और आर्थिक मॉडलों पर निर्भर रहे हैं (fossil fuel data)। इस पद्धति की शुरुआत वैज्ञानिक चार्ल्स कीलिंग ने की थी, जिन्होंने प्रसिद्ध ‘कीलिंग कर्व’ बनाया जो वायुमंडलीय कार्बन डाईऑक्साइड की लगातार वृद्धि दर्शाता है। यह तरीका उपयोगी था, लेकिन पूर्ण नहीं।

1970 और 1980 के दशक में राल्फ रॉटी और ग्रेग मारलैंड जैसे शोधकर्ताओं ने वैश्विक उत्सर्जन के शुरुआती डैटाबेस (emission database) बनाए, जो लंबे समय तक मानक माने गए। लेकिन इन आंकड़ों में बड़े अंतर हो सकते थे और इन्हें अद्यतन करने में कई साल लग जाते थे, क्योंकि देशों को सही ऊर्जा आंकड़े भेजने में बहुत समय लगता था।

2017 में, अमेरिका के ऊर्जा विभाग ने अचानक कार्बन डाईऑक्साइड इन्फर्मेशन एनालिसिस सेंटर को बंद कर दिया, जो एक बड़ा और भरोसेमंद स्रोत था। इसके बंद होते ही एक बड़ा खालीपन (climate data loss) पैदा हो गया। तब से स्वतंत्र शोधकर्ता इस कमी को भरने की कोशिश कर रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में उत्सर्जन निगरानी में एक तरह की क्रांति आई है।

झू लियू द्वारा स्थापित कार्बन मॉनिटर में एक नया तरीका अपनाया गया, जिसमें रियल टाइम डैटा को लिया जाता है; जैसे हर घंटे की बिजली-ग्रिड जानकारी, GPS से ट्रैफिक का स्तर, हवाई यात्रा का डैटा, और औद्योगिक गतिविधि के संकेत। इन सभी के आधार पर लगभग हर महीने वैश्विक उत्सर्जन का अनुमान लगाया (real-time climate data) जाता है।

इसी दौरान Climate TRACE नाम का एक और प्रोजेक्ट सामने आया, जिसने उत्सर्जन मापने का बिल्कुल अलग लेकिन पूरक तरीका अपनाया। यह उपग्रह तस्वीरों, तापीय डैटा, एआई मॉडल और मशीन लर्निंग का उपयोग (AI emissions tracking) करता है। हज़ारों ज्ञात प्रदूषण स्रोतों के आधार पर प्रशिक्षित यह प्रणाली बिजली संयंत्रों, स्टील फैक्ट्रियों, कचरा भूमि, पशुपालन, जंगल कटाई, यहां तक कि धान के खेतों से होने वाले उत्सर्जन तक को पहचानने की कोशिश करती है। यह अब तक का सबसे महत्वाकांक्षी वैश्विक उत्सर्जन-निगरानी प्रोजेक्ट माना जाता है।

हालांकि Climate TRACE की तकनीक शक्तिशाली है, लेकिन यह सटीक नहीं है। कभी-कभी इसमें गलतियां (satellite errors) भी होती हैं। जैसे नॉर्वे के एक तेल प्लेटफॉर्म को गलती से प्रदूषण स्रोत मान लेना, जबकि वह उत्सर्जन करता ही नहीं; या ओस्लो के पास उस लैंडफिल में मीथेन दिखा देना जहां जैविक कचरा डालना पहले ही बंद है। इस तकनीक में लगातार सुधार हो रहा है।

बहरहाल, गिरावट के आंकड़ों को लेकर वैज्ञानिक सावधान (climate uncertainty) रहना चाहते हैं। पहले भी कई बार ऐसी अस्थायी गिरावटों ने भ्रम पैदा किया है। पिछले दशक की शुरुआत में, जब कोयले की खपत थोड़े समय के लिए घटी थी, कुछ लोगों को लगा था कि चरम उत्सर्जन आ गया है। लेकिन जल्द ही एशिया में आर्थिक वृद्धि के चलते कोयले की खपत फिर बढ़ गई।

लेकिन इस बार स्थिति अलग लग रही है। अब न सिर्फ कुछ बड़े क्षेत्रों में उत्सर्जन स्थिर होने लगा है, बल्कि दुनिया की ऊर्जा व्यवस्था में एक गहरा और टिकाऊ बदलाव (energy transition) दिख रहा है – खासकर चीन की तेज़ स्वच्छ ऊर्जा क्रांति के कारण। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन का रियल-एस्टेट सेक्टर अब धीमा पड़ गया है जो पहले स्टील और सीमेंट का सबसे बड़ा उपभोक्ता था और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का बड़ा कारण भी था।

उधर भारत भी धीरे-धीरे ही सही लेकिन स्थिर बदलाव की ओर बढ़ रहा है। सौर तथा पवन ऊर्जा की बढ़ती क्षमता (renewable energy India) की वजह से इस साल की पहली छमाही में भारत के बिजली क्षेत्र में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन नहीं बढ़ा है। आज देश की लगभग एक-तिहाई बिजली नवीकरणीय और परमाणु ऊर्जा से आती है।

वहीं, अमेरिका में राजनीतिक नीतियों में बदलाव के चलते उत्सर्जन में उतार–चढ़ाव देखने को मिला है। हाल ही में वहां जीवाश्म ईंधनों का उत्पादन बढ़ा है, मीथेन उत्सर्जन के नियम ढीले किए गए हैं और तेल–गैस निर्यात के ढांचे का विस्तार हुआ है। नतीजतन, अनुमान है कि इस वर्ष अमेरिकी उत्सर्जन लगभग 2.7 प्रतिशत बढ़ (US emissions rise) गया है।

इन सब जटिलताओं के बावजूद वैज्ञानिक मानते हैं कि दुनिया एक ऐतिहासिक मोड़ (global turning point) के बिल्कुल करीब है। अगर चीन का उत्सर्जन सचमुच 2024 या 2025 में अपने चरम पर पहुंचकर घटने लगे तो वैश्विक उत्सर्जन भी जल्द ही स्थिर हो सकता है। यही कारण है कि ब्राज़ील में हुए हालिया संयुक्त राष्ट्र जलवायु सम्मेलन में चीन की ऊर्जा नीति पर विशेष ध्यान रहा।

फिर भी मानव-जनित उत्सर्जन अपने चरम पर पहुंचने के बाद भी यह ज़रूरी नहीं है कि वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 persistence) तुरंत स्थिर हो जाए। जलवायु परिवर्तन की वजह से ग्रीनहाउस गैसों के ‘प्राकृतिक’ स्रोतों से उत्सर्जन में और तेज़ी आ रही है। जंगल अब पहले से ज़्यादा बार और ज़्यादा तीव्रता से जल रहे हैं, जिससे भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है। साइबेरिया और आर्कटिक में जब परमाफ्रॉस्ट पिघलती है, तो उसमें फंसी हुई मीथेन हवा में पहुंच जाती है। उष्णकटिबंधीय आर्द्रभूमियां गर्म होती हैं तो वे भी अधिक मीथेन छोड़ने लगती हैं। समुद्र अब तक दुनिया की कार्बन डाईऑक्साइड का बड़ा हिस्सा सोखते थे, लेकिन गर्म होने और प्रवाह पैटर्न बदलने के कारण पहले जितना कार्बन नहीं सोख पा रहे हैं।

पिछला साल इसका साफ उदाहरण था जिसमें मानव-उत्सर्जन में हल्की-सी बढ़ोतरी हुई, लेकिन वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड रिकॉर्ड स्तर तक बढ़ गई। इसका मतलब है कि धरती की प्राकृतिक सुरक्षा व्यवस्था यानी जंगल, मिट्टी और समुद्र जो अब तक कार्बन को सोख कर हमें बचाते रहे हैं, अब जलवायु परिवर्तन के दबाव में कमज़ोर पड़ रहे हैं।

इसलिए दुनिया को उत्सर्जन को बहुत तेज़ी से और वर्तमान रफ्तार से कहीं अधिक गति से घटाना (net zero path) होगा ताकि कमज़ोर हो रहे प्राकृतिक कार्बन-सिंक की भरपाई की जा सके।

सही मायनों में असली चुनौती चरम के बाद शुरू होती है। उत्सर्जन को धीरे-धीरे शून्य की ओर ले जाना है। इसके लिए सिर्फ पवन और सौर ऊर्जा बढ़ाना ही काफी नहीं होगा, बल्कि हर क्षेत्र में भारी बदलाव (decarbonization) करने होंगे, जैसे:

  • परिवहन को पूरी तरह बिजली आधारित बनाना होगा,
  • सीमेंट और स्टील जैसे भारी उद्योगों को कम-कार्बन तकनीक अपनानी होगी,
  • इमारतों को अधिक ऊर्जा-कुशल बनाना होगा,
  • कृषि क्षेत्र का मीथेन उत्सर्जन घटाना होगा,
  • जंगलों को संरक्षित करना और उनका क्षेत्र बढ़ाना होगा।

इसके लिए अंतर्राष्ट्रीय सहयोग, बड़े निवेश, राजनीतिक स्थिरता और नई तकनीकों (climate action) की ज़रूरत पड़ेगी। (स्रोत फीचर्स)

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प्यास लगना और बुझना

भीषण गर्मी में एक गिलास ठंडा पानी जितना सुकून (thirst relief) देता है, उसका कोई सानी नहीं। पहला घूंट हलक में जाते ही राहत मिलती है। तो इस राहत का राज़ क्या है?

कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जीव वैज्ञानिक युकी ओका इस बात का अध्ययन करते हैं कि दिमाग शरीर में विभिन्न चीज़ों का संतुलन (होमियोस्टेसिस – homeostasis) कैसे बनाए रखता है, खासकर तरल पदार्थों का संतुलन कैसे बनाता है और इसके लिए पानी व खनिज लवणों का तालमेल कैसे बनाता (brain hydration mechanism) है।

दरअसल, हमारे शरीर में एक व्यवस्था है जो हमारी बुनियादी ज़रूरतों की पूर्ति का ख्याल रखती है। प्यास को बुझाना इनमें से एक व्यवस्था है। इस व्यवस्था की एक खासियत है कि इसके साथ ही पारितोषिक तंत्र जुड़ा होता है ताकि तरल संतुलन बना रहे। दिमाग में मौजूद प्यास तंत्रिका हमारे शरीर को एक स्पष्ट संकेत प्रेषित करती है – सूखा गला, और हलक के पिछले हिस्से में खराश जैसी संवेदना (thirst signal)। इस संवेदना का मकसद यह है कि आप पानी पीएं और खून में लवणों की सांद्रता सही स्तर पर पहुंच जाए।

पानी का पहला घूंट हलक में उतरते ही एक संतुष्टि का एहसास होता है क्योंकि ऐसा होते ही दिमाग में डोपामाइन का सैलाब आता है। डोपामाइन एक तंत्रिका-संप्रेषण रसायन है जो अच्छा महसूस (dopamine release) कराने का काम करता है। यह संतुष्टि का एहसास पानी गटकते ही महसूस होता है, हालांकि पानी पीने के 15-30 मिनट बाद ही खून पतला होने लगता है, उसकी सांद्रता सही स्तर पर पहुंचने लगती है।

युकी ओका कहते हैं कि इसका मतलब है कि पानी पीने से मिलने वाली तत्काल संतुष्टि और खून की सांद्रता का सही स्तर पर पहुंचना दो अलग-अलग एहसास (hydration process) हैं।

ओका के समूह ने प्यास बुझाने से सम्बंधित दो तरह की तंत्रिकाएं पहचानी हैं। एक होती हैं जो पानी गटकते ही सक्रिय हो जाती हैं और डोपामाइन मुक्त (dopamine neurons) करती है। दूसरी तंत्रिकाएं आंतों में पानी की सांद्रता (gut sensors) में हो रहे परिवर्तनों का ध्यान रखती हैं।

ओका ने पाया कि प्यास के पूरी तरह बुझने के लिए ज़रूरी है कि ये दोनों किस्म की तंत्रिकाएं सक्रिय हों। दोनों के सक्रिय होने पर ही पानी पीने का पारितोषिक संकेत मिलता है और पर्याप्त पानी पीने के बाद ही सांद्रता ठीक होने का संकेत मिलता (dual thirst pathway) है।

इन दो व्यवस्थाओं के सहयोगी कार्य को जांचने के लिए ओका के दल ने एक प्रयोग किया। उन्होंने पानी को सीधा आंत में पहुंचा दिया। ऐसा करने पर गटकने से मिलने वाला पारितोषिक संकेत नहीं मिला क्योंकि डोपामाइन मुक्त हुआ ही नहीं। यानी घूंट-दर-घूंट पानी मिलने पर दिमाग एक जश्न मनाता है (reward system) और प्यास तो बुझती ही है। (स्रोत फीचर्स)

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धरती की सीमाएं: लांघना नहीं था, हमने लांघ दिया

सीमा मुंडोली

में सुरक्षित क्या महसूस कराता है? भरोसेमंद दोस्तों और परिवार का साथ। एक ऐसा जाना-पहचाना माहौल (safe environment) जो हमें निश्चिंत रखता है और जहां हमारे द्वारा तय की गई सीमा रेखाओं/हदों का सम्मान (personal boundaries) होता है।

आखिरी बात हमारे एकमात्र घर (planet Earth) धरती के लिए भी सच है।

धरती पर जीवन लगभग 3.7 अरब साल पहले एक-कोशिकीय जीव के रूप में शुरू हुआ था। लेकिन हमें – होमो सेपियंस को – पृथ्वी पर अस्तित्व में आने में बहुत ज़्यादा समय लगा। हम महज़ 3,00,000 साल पहले ही अफ्रीका में विकसित हुए। उसके बाद मनुष्य अफ्रीका से निकलकर तमाम महाद्वीपों में फैल गए। हिमयुग के बाद, पिछले 12,000 साल – होलोसीन काल (Holocene epoch)– वह समय था जब खेती की शुरुआत, शहरों के बसने और तेज़ी से आबादी बढ़ने के साथ बड़े-बड़े बदलाव हुए। होलोसीन के दौरान स्थिर मौसम (stable climate) ने मनुष्य के जीवन और नैसर्गिक प्रणाली को फलने-फूलने में मदद की।

फिर औद्योगिक क्रांति आई, जिसमें जीवाश्म ईंधन का इस्तेमाल (industrial pollution) बढ़ा और प्रदूषण जैसे बुरे पर्यावरणीय असर भी हुए। एक बार जब हम औद्योगिकीकरण के रास्ते पर चल पड़े तो हमने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। 1970 के दशक तक, यह स्पष्ट होता गया था कि सालों की औद्योगिक गतिविधियों ने प्राकृतिक पर्यावरण को नुकसान (environmental degradation) पहुंचाया है – नदियां प्रदूषित हुई हैं, हवा ज़हरीली हुई है, जंगल कट गए हैं और समंदरों की हालत खराब हो गई है।

किंतु सवाल बना रहा: कितना नुकसान हद से ज़्यादा है?

2009 में, जोहान रॉकस्ट्रॉम ने अन्य वैज्ञानिकों के साथ मिलकर ग्रह पर मनुष्य के प्रभाव के पैमाने का अंदाज़ा लगाने के लिए प्लेनेटरी बाउंड्रीज़ (Planetary Boundaries) फ्रेमवर्क का प्रस्ताव रखा। उन्होंने नौ सीमा रेखाओं (प्लेनेटरी बाउंड्रीज़- environmental thresholds) की पहचान की, जिन्हें अगर लांघा गया तो पृथ्वी की कार्यप्रणाली डगमगा सकती है। हद में रहने से यह सुनिश्चित होगा कि हम एक सुरक्षित कामकाजी दायरे में रहेंगे। ये नौ सीमा रेखाएं हैं: जलवायु परिवर्तन, जैवमण्डल समग्रता, भू-प्रणाली परिवर्तन, मीठे पानी में बदलाव, जैव भू-रसायन चक्र, समुद्र अम्लीकरण, वायुमंडलीय एरोसोल (निलंबित कणीय पदार्थ) का भार, समतापमंडल में ओज़ोन क्षरण और नवीन कारक।

इनमें से हर सीमा के लिए वैज्ञानिकों ने एक या दो मात्रात्मक परिवर्ती मानक तय किए, जिनके आधार पर हम यह जांच सकते हैं कि पृथ्वी की वह प्रणाली क्या सुरक्षित सीमा के अंदर है। मसलन, जलवायु परिवर्तन की सीमा में परिवर्ती कारकों में से एक है कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता (CO2 concentration), जिसे पार्ट्स पर मिलियन (ppm) में मापा जाता है। इसकी सांद्रता की सीमा 350ppm तय की गई है। और कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता इससे अधिक होने या सीमा पार करने का मतलब है कि ग्रह की प्रणाली पर खतरा बहुत तेज़ी से बढ़ेगा।

जब 2009 में यह फ्रेमवर्क पहली बार पेश किया गया था, तब ग्रह की तीन हदों – जलवायु परिवर्तन, जैवमंडल समग्रता और भू-जैवरसायन चक्र – का उल्लंघन हो भी चुका था। यह एक चेतावनी थी कि ग्रह स्तर पर हम मुश्किल में थे। 2015 तक, भू-प्रणाली बदलाव का उल्लंघन हो चुका था। 2023 में दो और सीमाएं उल्लंघन की सूची में जुड़ गई थीं – नए कारक और मीठा पानी परिवर्तन (freshwater change)। और अब, सितंबर 2025 में हमने एक और सीमा को लांघ दिया है – समुद्र अम्लीकरण (तालिका देखें) (ocean acidification) ये सीमाएं 15 साल पूर्व पहली बार इस उम्मीद के साथ प्रस्तावित की गई थीं कि हमें यह समझने में मदद मिले कि मनुष्य की गतिविधियों का पृथ्वी पर क्या असर पड़ रहा है, और हमें तुरंत सुधार के लिए कदम उठाने का तकाज़ा मिले। तब से हम नौ में से सात सीमाओं का उल्लंघन कर चुके हैं।

इसका क्या मतलब है? सीधे शब्दों में: हमारी पृथ्वी अब स्वस्थ नहीं रही (planetary health)

फिलहाल वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता 423ppm है, जो 350ppm की सुरक्षित सीमा से बहुत अधिक है। नतीजतन पृथ्वी तेज़ी से गर्म हो रही है, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं, समुद्र का जलस्तर बढ़ रहा है और तटवर्ती इलाके खतरे में हैं।

जैवमंडल समग्रता (biosphere integrity) सीमा भी बहुत ज़्यादा खतरे में है। सजीवों के विलुप्त होने की दर पहले से दस गुना अधिक है, और दुनिया भर के कई पारिस्थितिकी तंत्र बहुत ज़्यादा खतरे में हैं। संभव है कि हमारे द्वारा खोजे जाने से पहले ही कई प्रजातियां विलुप्त हो जाएं। अकेले 2024 में, पक्षियों की कई प्रजातियां (जैसे स्लेंडर-बिल्ड कर्ल्यू और ओउ), मछलियों की प्रजातियां (जैसे थ्रेसियन शैड और चीम व्हाइटफिश), और अकशेरुकी जीव (जैसे कैप्टन कुक्स बीन स्नेल) विलुप्त घोषित कर दिए गए। 2024 की लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 50 सालों में जंगली जानवरों की आबादी में 73 प्रतिशत की भारी गिरावट (biodiversity loss) आई है – इस मामले में समुद्री, थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिकी तंत्र समान रूप से प्रभावित हैं। दुखद तथ्य यह है कि विलुप्ति निश्चित है और इसे पलटा नहीं जा सकता। विलुप्त होने से जेनेटिक विविधता खत्म हो जाती है और पारिस्थितिकी तंत्र बाधित होता है, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र की कार्यात्मक क्षमता कम हो जाती है। कितना दुखद है कि हम उन प्रजातियों को फिर कभी नहीं देख पाएंगे जो कभी इस ग्रह पर हमारे साथ रहती थी।

हाल ही में समुद्र के अम्लीकरण की सीमा का उल्लंघन खास चिंता की बात है। समुद्र हमारे ग्रह के 70 प्रतिशत हिस्से पर मौजूद हैं, और कुल कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन का लगभग एक चौथाई हिस्सा सोख (carbon sink) लेते हैं। वे लंबे समय से हमारे लिए उत्सर्जन के सोख्ता की तरह काम करते रहे हैं। साथ ही ये अपने अंदर बहुत अधिक जैव विविधता को बनाए हुए हैं और लाखों लोगों को भोजन देते हैं। लेकिन जैसे-जैसे समुद्र ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं, वे अधिक अम्लीय होते जाते हैं। इससे कोरल का क्षरण (कोरल ब्लीचिंग) होता है – अनगिनत समुद्री प्रजातियों का प्राकृतवास खत्म (marine ecosystem decline) हो जाता है। और समुद्री जीवों के खोल और कंकाल कमज़ोर हो जाते हैं, जिससे उन्हें ‘ऑस्टियोपोरोसिस’ हो जाता है। समुद्र के अम्लीकरण की सीमा पार करने का मतलब है बड़े-बड़े बदलाव। ऐसी घटनाएं शुरू हो गई हैं जिनके असर का हम अंदाज़ा भी नहीं लगा सकते।

हर लांघी गई सीमा अन्य स्थितियों/सीमाओं को और बदतर करती है, जिससे एक दुष्चक्र (vicious cycle) बनता है जो पृथ्वी को अस्थिरता के और करीब ले जाता है। हमें यह भी याद रखना होगा कि ग्रह की सीमा रेखाएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई हैं। जैसे भू-प्रणाली में परिवर्तन, जिसमें खेती या जानवर पालने के लिए जंगल कटाई से जैवविविधता की क्षति होगी और कार्बन का अवशोषण कम होगा, जिससे जलवायु परिवर्तन और तेज़ होगा (deforestation impact)। पानी में बढ़े हुए नाइट्रोजन और फॉस्फोरस के साथ बदले हुए भू-जैव-रासायनिक मृत क्षेत्र बनते हैं जो बदले में ताज़े पानी की उपलब्धता और जैवविविधता पर असर डालते हैं। हर सीमा दूसरी सीमा से जुड़ी है जिससे खतरा बढ़ जाता है।

ग्रहों की सीमा रेखाओं के उल्लंघन की विशिष्ट जवाबदेही तय नहीं हो पाई है, खासकर इसलिए क्योंकि पश्चिम के कुछ अमीर देशों के उपभोग ने ऐतिहासिक रूप से सीमाओं के उल्लंघन में अधिक योगदान दिया है – और यह जारी है। लेकिन ग्रह-स्तरीय सीमा की अवधारणा ने हमें पृथ्वी पर मनुष्य की गतिविधियों (human impact) के असर का वैज्ञानिक और मात्रात्मक तरीके से आकलन करने के लिए एक फ्रेमवर्क ज़रूर दिया है। हमें 2009 में ही सावधान हो जाना चाहिए था, जब सिर्फ तीन सीमाएं पार हुई थीं, और समझ जाना चाहिए था कि धरती पर मनुष्यों के क्रियाकलापों के कैसे-कैसे बुरे प्रभाव पड़ेंगे।

लेकिन तब हमने अनसुना-अनदेखा कर दिया। अधिकांश दुनिया वैसे ही काम करती रही, बीच-बीच में कुछ मामूली सुधार होते रहे। अब, 2025 में जब नौ में से सात सीमा रेखाएं पार हो चुकी हैं, तो हम सुरक्षित नहीं हैं (climate emergency)।

लेकिन सब कुछ खत्म नहीं हुआ है, अगर हम याद रखें कि हम इस मुश्किल में एक साथ हैं। उस तरह, जिस तरह हम लांघी गई एक सीमा रेखा – ओज़ोन परत के क्षरण (ozone depletion) – को पलटने के लिए एकजुट हुए थे। 1985 में वैज्ञानिकों ने बताया था कि रेफ्रिजरेटर, एयर कंडीशनर वगैरह में इस्तेमाल होने वाले रसायनों की वजह से ओज़ोन परत में छेद हो गया था। ओज़ोन परत में छेद का मतलब था कि अब हमारे पास सूरज की पराबैंगनी किरणों से कोई सुरक्षा नहीं थी, जिससे हम त्वचा कैंसर के शिकार हो सकते थे और कई पारिस्थितिकी तंत्र खतरे में पड़ सकते थे। तब सरकारें मॉन्ट्रियल संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए साथ आईं (global cooperation), जिसमें ओज़ोन में छेद करने वाले रसायनों का इस्तेमाल धीरे-धीरे खत्म करने का वादा किया गया था। प्रयास सफल रहे।

यह सफलता हमें याद दिलाती है: अगर एक सीमा रेखा (planetary boundary) के उल्लंघन को पलट सकते हैं, तो हम ऐसा फिर से कर सकते हैं। हमारा – और पृथ्वी पर जीवित हर प्राणी का – भविष्य इस पर निर्भर करता है। (स्रोत फीचर्स)  

तालिका: ग्रह की नौ सीमा रेखाएं और उनकी स्थिति

सीमाव्याख्यास्थिति
जलवायु परिवर्तनजीवाश्म ईंधन जलाने से ग्रीनहाउस गैसों और एरोसोल का उत्सर्जन होता है, जिससे जलवायु गर्माती है। नतीजतन बर्फ की चादरें पिघलती हैं, समुद्र का स्तर बढ़ता है।उल्लंघन हो चुका
जैवमण्डल की समग्रता में परिवर्तनप्राकृतिक संसाधनों का दोहन, आक्रामक प्रजातियों का आना और ज़मीन के इस्तेमाल में बदलाव। इससे जेनेटिक विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र की सेहत में गिरावट आती है।उल्लंघन हो चुका
भू-प्रणाली में परिवर्तनशहरीकरण, पशुपालन और खेती के लिए जंगल काटकर ज़मीन बनाना। इससे कार्बन सोखने की क्षमता और अन्य पारिस्थिकीय कार्यों में कमी आती है।उल्लंघन हो चुका
मीठे पानी में परिवर्तनखेती, उद्योगों और घरेलू इस्तेमाल के लिए पानी की बढ़ती खपत। ब्लू वॉटर (जैसे नदियां और झीलें) और ग्रीन वॉटर (मिट्टी की नमी) का खराब होना, कार्बन भंडारण और जैव विविधता पर असर डालता है।उल्लंघन हो चुका
भू-जैव-रसायन में परिवर्तनफॉस्फोरस व नाइट्रोजन वाले औद्योंगिक उर्वरकों के ज़्यादा इस्तेमाल से समुद्री और मीठे पानी तंत्र में मृत क्षेत्र बनते हैं।उल्लंघन हो चुका
समुद्र अम्लीकरणजीवाश्म ईंधन के जलने से कार्बन डाईऑक्साइड निकलती है जिसे समुद्र सोख लेता है और अम्लीय हो जाता है। समुद्री जीवों के खोल को नुकसान होता है और पारिस्थितिकी तंत्र नष्ट हो जाता है।उल्लंघन हो चुका
नए कारकउद्योगों, खेती और उपभोक्ता सामान से निकलने वाले कृत्रिम रसायन प्राकृतिक चक्र को बाधित करते हैं। और मनुष्य और जैव विविधता को हमेशा की क्षति का खतरा पैदा करते हैं।उल्लंघन हो चुका
वायुमण्डलीय एरोसोल में बढ़ोतरीजीवाश्म ईंधन के जलने और औद्योगिक गतिविधियों से हवा में मौजूद कणीय पदार्थ बढ़ते हैं, जिससे मौसम के पैटर्न में बदलाव आता है, खासकर तापमान और बारिश में।सुरक्षित सीमा में
ओज़ोन में क्षरणसिंथेटिक क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFCs) और नाइट्रस ऑक्साइड के उत्पादन और उत्सर्जन से ओज़ोन परत पतली होती है और नुकसानदायक पराबैंगनी किरणें धरती तक पहुंचती हैं।सुरक्षित सीमा में

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.pik-potsdam.de/en/news/latest-news/earth-exceed-safe-limits-first-planetary-health-check-issues-red-alert/@@images/image.png

ईरान में गहराता जल संकट

रान इस समय अपने इतिहास के सबसे गंभीर जल संकट (Iran water crisis) से गुज़र रहा है। हालात निरंतर खराब हो रहे हैं। तेहरान शहर की जल आपूर्ति वाले बांध लगभग खाली हो चुके हैं (water shortage) और सरकार देश के लिए पीने का पानी जुटाने के लिए जूझ रही है। लंबे सूखे, तेज़ गर्मी, कुप्रबंधन, बढ़ती आबादी, आर्थिक मुश्किलों, पुरानी कृषि प्रणालियों और जलवायु परिवर्तन (climate change) के मिले-जुले कारणों से देश बेहद कठिन स्थिति में पहुंच गया है।

गौरतलब है कि करीब 1 करोड़ आबादी वाले तेहरान की जल आपूर्ति पांच बड़े बांधों से होती है, लेकिन इन बांधों में अब अपनी सामान्य क्षमता से सिर्फ 10 प्रतिशत (dam depletion) पानी है। देश में 19 बांध सूखने की कगार पर हैं। करज जैसे भरोसेमंद जलाशय भी इतनी तेज़ी से सिकुड़ रहे हैं कि लोग यहां चहल-कदमी कर रहे हैं।

राष्ट्रपति मसूद पेज़ेश्कियन ने चेतावनी दी है कि अगर जल्द बारिश नहीं हुई, तो तेहरान में सख्त पानी राशन (water rationing) या सबसे बुरी स्थिति में कुछ इलाकों को खाली कराने तक की नौबत आ सकती है। विशेषज्ञ मानते हैं कि पूरा शहर खाली होना मुश्किल है, लेकिन यह चेतावनी हालात की गंभीरता दिखाती है।

ईरान पिछले छह वर्षों से लगातार सूखे (drought conditions) का सामना कर रहा है। पिछले साल गर्मियों का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस से अधिक दर्ज किया गया था जिससे पानी तेज़ी से वाष्पित हुआ और पहले से कमज़ोर जल–प्रणालियों पर दबाव और बढ़ गया। पिछला जल-वर्ष सबसे सूखे वर्षों में से एक रिकॉर्ड किया गया था, और इस साल की स्थिति उससे भी खराब है। नवंबर की शुरुआत तक ईरान में सिर्फ 2.3 मि.मी.बारिश हुई – जो सामान्य औसत से 81 प्रतिशत कम है। बारिश और बर्फबारी न होने की वजह से बांध, नदियां और जलाशय तेज़ी से सिमट़ गए हैं।

जलवायु परिवर्तन और बढ़ती गर्मी इस संकट को और गंभीर बना रहे हैं, लेकिन विशेषज्ञ मानते हैं कि इस स्थिति के लिए दशकों का खराब प्रबंधन (water mismanagement) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। ईरान ने कृषि और उद्योग को बढ़ाने की कोशिश तो की, लेकिन पानी की सीमाओं को ध्यान में नहीं रखा। सरकार लगातार नए बांध बनाती रही, गहरे कुएं खोदती रही और दूर-दराज़ के इलाकों से पानी खींचती रही – जैसे पानी की आपूर्ति कभी खत्म ही नहीं होगी।

यू.एन. विश्वविद्यालय के कावेह मदानी कहते हैं कि ईरान ने दशकों तक ऐसे व्यवहार किया जैसे उसके पास पानी अनंत मात्रा (unlimited water myth) में हो। आज पानी ही नहीं, बल्कि ऊर्जा और गैस प्रणालियां भी दबाव में हैं, जो संसाधन प्रबंधन की व्यापक विफलता दिखाता है।

सरकार ने चेतावनी दी है कि जल्द ही रात में पानी की सप्लाई बंद की जा सकती है, या पूरे देश में पानी की सख्त राशनिंग हो सकती (national water cuts) है। कई लोगों ने गर्मियों में अचानक पानी बंद होने का सामना किया था, जिससे जनता की नाराज़गी बढ़ी है।

अब पानी की कमी कई जगह तनाव और विरोध (water protest) का कारण बन रही है, खासकर गरीब इलाकों में। लंबे समय से चल रहे प्रतिबंधों, बेरोज़गारी, महंगाई और आर्थिक संकट ने लोगों की हालत पहले ही कमज़ोर कर दी है, इसलिए वे नए मुश्किल हालात झेल नहीं पा रहे।

सरकार ने लोगों से पानी कम इस्तेमाल करने और घरों में पानी स्टोरेज टैंक लगाने की अपील की है। लेकिन इस उपाय में एक बड़ी समस्या है – घरेलू उपभोग कुल पानी का सिर्फ 8 प्रतिशत है, जबकि 90 प्रतिशत से ज़्यादा पानी कृषि (agriculture water use) में जाता है। इसलिए अगर हर घर 20 प्रतिशत पानी कम भी इस्तेमाल करे, तो भी कुल मिलाकर इसका असर बहुत कम होगा।

ईरान के कानून के अनुसार, देश का 85 प्रतिशत भोजन घरेलू स्तर पर ही उगाया (food security policy) जाना चाहिए। इसका उद्देश्य तो खाद्य सुरक्षा है, लेकिन विशेषज्ञ कहते हैं कि इससे जल सुरक्षा पर भारी असर पड़ा है। ईरान के पास इतना पानी और उपजाऊ ज़मीन ही नहीं है कि वह इतनी बड़ी मात्रा में खेती जारी रख सके। उधर, भूजल को इतनी तेज़ी से उलीचा जा रहा है कि इस्फहान जैसे मध्य क्षेत्रों में जमीन धंसने (land subsidence) लगी है। सिस्तान और बलूचिस्तान जैसे इलाकों में तो पूरे के पूरे पारिस्थितिकी तंत्र ध्वस्त होने की कगार पर हैं।

ईरान में सुधार की राह में एक बड़ा रोड़ा अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध (international sanctions) हैं। इन प्रतिबंधों की वजह से विदेशी निवेश देश में नहीं आ पाता। असर यह है कि न तो आधुनिक जल प्रबंधन प्रणाली विकसित हो पाती है, न खेती की उन्नत तकनीकें अपनाई जा सकती हैं, और न ही असरदार पानी-रीसाइक्लिंग तकनीकें लगाई जा सकती हैं।

ग्रामीण इलाकों में ज़्यादातर लोग खेती पर निर्भर (rural agriculture dependence) हैं। प्रतिबंधों के चलते नए रोज़गार निर्मित करना मुश्किल है। इसी कारण सरकार कृषि क्षेत्र को पानी देती है। इससे लंबे समय में जल संकट बढ़ सकता है लेकिन सामाजिक अशांति और विरोध से बचने के लिए सरकार इसे अपना रही है।

विशेषज्ञों का मत है कि पानी के संकट से उबरने के लिए बड़े और लंबे समय के सुधार करने होंगे, जैसे:

  • भूजल का पुनर्भरण;
  • भूजल भंडार की मरम्मत;
  • पानी से जुड़ा स्पष्ट और पारदर्शी डैटा (water data transparency);
  • पानी, ऊर्जा व कृषि पर बराबर ध्यान देकर योजना बनाना;
  • स्थानीय समुदायों की भागीदारी;
  • लंबी अवधि वाली पर्यावरणीय नीतियां;
  • आधुनिक, कम पानी-खर्ची कृषि तकनीकें;
  • क्षेत्रों के बीच पानी के न्यायपूर्ण बंटवारे को प्राथमिकता।

यदि ये सुधार नहीं किए गए, तो पानी की कमी देश में सामाजिक व आर्थिक असमानता (water inequality) को और बढ़ा सकती है और अस्थिरता पैदा हो सकती है। असली सुधारों के लिए नीति-निर्माताओं को कठिन फैसले लेने की हिम्मत दिखाना होगा।

फिलहाल निगाहें सर्दियों की बारिश पर टिकी हैं। लेकिन विशेषज्ञ चेताते हैं कि चाहे बारिश अच्छी भी हो जाए, जब तक गंभीर सुधार नहीं किए जाते, ईरान को पानी की कमी का सामना करना पड़ेगा (water scarcity future)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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