वन्यजीव अध्ययन को नए आयाम दिए जेन गुडॉल ने

संकेत राऊत

जेन गुडॉल

(3 अप्रैल 1934 – 1 अक्टूबर 2025)

बचपन से ही टारज़न और डॉक्टर डूलिटल जैसी किताबें पढ़ने वाली जेन का सपना था अफ्रीका (Africa) जाना और किताबों के ज़रिए परिचित हुए अपने पसंदीदा जानवरों के साथ काम करना। उन्हें जानवरों के जीवन को गहराई से समझने और उनके बारे में लिखने की तीव्र इच्छा थी। इस सपने को पूरा करने के लिए उन्होंने कई छोटे-मोटे काम किए, पैसे बचाए और अथक मेहनत की जो उनके दृढ़ निश्चयी (determined personality) होने का प्रमाण है।

शोध और अध्ययन

उनके शोध से यह सिद्ध हुआ कि चिम्पैंज़ियों के भी मनुष्य की तरह व्यक्तित्व होते हैं। इससे यह धारणा गलत साबित हुई कि ‘जानवर केवल आदत के अनुसार व्यवहार करते हैं’। उस समय कई वैज्ञानिक उनके निष्कर्षों से असहमत थे, क्योंकि तब यह विश्वास दृढ़ था कि ‘मनुष्य अन्य प्रजातियों से बिल्कुल अलग है’।

जेन ने जिन चिम्पैंज़ियों का अध्ययन किया, उन्हें पहचान के लिए संख्या नहीं बल्कि नाम दिए। उस समय यह ‘अवैज्ञानिक’ माना जाता था, लेकिन शायद इससे उनके निरीक्षण में भावनात्मक गहराई आई। उनमें से एक चिम्पैंज़ी, डेविड ग्रेबियर्ड (David Greybeard), ने सबसे पहले जेन पर भरोसा किया और पास आने दिया। वह अपने समूह का प्रमुख था, जिससे अन्य चिम्पैंज़ियों ने भी जेन को स्वीकार किया। उसी डेविड ग्रेबियर्ड को जेन ने घास की डंडी की मदद से दीमक निकालते हुए देखा — पहली बार यह साबित हुआ कि ‘मनुष्य के अलावा अन्य प्रजातियां भी औज़ार का उपयोग करती हैं’। इस खोज ने मनुष्य और जानवरों के बीच की सीमा रेखा धुंधली कर दी। नेशनल जियॉग्राफिक (National Geographic) में प्रकाशित इस खोज ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि दिलाई।

जेन के अध्ययन ने चिकित्सा क्षेत्र (medical research) में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। गॉम्बे के कुछ चिम्पैंज़ियों में SIVcpz नामक वायरस पाया गया, जो मनुष्यों में एड्स उत्पन्न करने वाले वायरस HIV-1 (HIV AIDS research) का निकट सम्बंधी है। अध्ययनों में यह भी पाया गया कि SIVcpz से संक्रमित चिम्पैंज़ियों में CD4+ टी कोशिकाओं की संख्या घटती है, एड्स जैसे लक्षण दिखाई देते हैं और मृत्यु का खतरा 10 से 16 गुना बढ़ जाता है। इस खोज से यह स्पष्ट हुआ कि एड्स का उद्भव संभवत: चिम्पैंज़ी या गोरिल्ला जैसे ऐप (ape) में होकर मानव में हस्तातंरण हुआ; संभवत: शिकार या मांस काटने के दौरान।

इन खोजों की वजह से जेन को आगे के अध्ययन के लिए आर्थिक सहायता (research funding) मिली, जिससे उनका प्रारंभिक पांच महीने का प्रोजेक्ट आगे बढ़कर दुनिया का सबसे लंबा वन्यजीव अध्ययन (longest wildlife study) बन गया जो आज भी 60 वर्षों से अधिक समय से चल रहा है। चिम्पैंज़ियों के दीर्घ जीवनकाल को देखते हुए, उनका दीर्घकालीन अध्ययन आवश्यक भी था। अब तक इस पर लगभग 300 से अधिक शोधपत्र प्रकाशित हो चुके हैं।

जेन की यात्रा में डॉ. लुईस लीकी (Louis Leakey) का मार्गदर्शन अत्यंत महत्वपूर्ण रहा। उन्होंने जेन की जिज्ञासा और प्रकृति-प्रेम को पहचाना और उन्हें तंज़ानिया में शोध का अवसर दिया। आगे चलकर, उन्होंने ही जेन को कैंब्रिज विश्वविद्यालय से पीएचडी करने का अवसर दिलाया, भले ही उनके पास स्नातक की डिग्री नहीं थी। 1966 में जेन ने गॉम्बे नदी के किनारे संरक्षित क्षेत्र में मुक्त रूप से रहने वाले चिम्पैंज़ियों के व्यवहार (The Behaviour of Free-living Chimpanzees in the Gombe Stream Reserve) विषय पर पीएचडी पूरी की। उनकी शोध पद्धति, नैतिकता और अनुशासन आज भी आदर्श माने जाते हैं।

संरक्षण कार्य

पीएचडी के बाद भी जेन का कार्य रुका नहीं। वे गॉम्बे वापस आ गई लेकिन अब उद्देश्य वन्यजीव संरक्षण था। दुनिया भर में वनों की कटाई और वन्यजीवों के आवासों का विनाश तेज़ी से बढ़ रहा था। गॉम्बे नेशनल पार्क (Gombe National Park) भी इन चुनौतियों से अछूता नहीं था। मानव हस्तक्षेप और चराई के कारण जानवरों में रोगों का संक्रमण बढ़ रहा था; विशेष रूप से चिम्पैंज़ियों में, जो अलग-थलग समूहों में रहते हैं और समूह के बाहर जाकर बिरले ही प्रजनन करते हैं। ऐसी स्थिति में जेन के संरक्षण कार्यों का महत्व और बढ़ गया। जेन के इस कार्य व प्रयासों के चलते 1968 में गॉम्बे स्ट्रीम गेम रिज़र्व को राष्ट्रीय उद्यान घोषित किया गया।

1977 में उन्होंने जेन गुडॉल इंस्टीट्यूट (Jane Goodall Institute) की स्थापना की। प्रारंभ में इसका उद्देश्य गॉम्बे प्रोजेक्ट को सहायता देना था, लेकिन आगे चलकर यह संस्था वन्यजीव संरक्षण हेतु 25 देशों में सक्रिय हो गई। प्रयोगशालाओं में इस्तेमाल किए जा रहे जानवरों पर हो रहे अत्याचारों के चलते उन्होंने पशु कल्याण (animal welfare) के लिए भी इंस्टीट्यूट के जरिए वैश्विक अभियान शुरू किया और जन जागरूकता बढ़ाई। 1991 में उन्होंने युवाओं के लिए Roots & Shoots कार्यक्रम (Roots and Shoots program) शुरू किया जो केवल 12 छात्रों से शुरू होकर आज 75 देशों में कार्यरत है। यह कार्यक्रम पर्यावरण, वन्यजीव संरक्षण और समाज में सकारात्मक परिवर्तन लाने पर केंद्रित है।

तंज़ानिया के स्थानीय लोगों की भागीदारी से वन्यजीव संरक्षण में मदद के लिए, 1994 में जेन गुडॉल इंस्टीट्यूट ने TACARE (Lake Tanganyika Catchment Reforestation and Education Program) शुरू किया। यह कार्यक्रम स्थानीय ज़रूरतों को ध्यान में रखकर बनाया गया है जो लोगों की आवश्यकताओं को पूरा करते हुए वन्यजीवों के आवासों का पुनर्निर्माण भी करता है। इसके अंतर्गत वृक्षारोपण (reforestation), वानिकी और स्वास्थ्य जैसी पहलें की गईं।

लेखन

जेन ने अपने कार्य पर आधारित कई किताबें लिख कर अपना दूसरा सपना भी पूरा कर दिया। उनकी पहली किताब माय फ्रेंड दी वाइल्ड चिम्पैंज़ीस (My Friends the Wild Chimpanzees) आम लोगों के लिए थी। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक इन दी शेडो ऑफ मैन (In the Shadow of Man) का 48 भाषाओं में अनुवाद हुआ। बच्चों के लिए भी जेन ने बहुत सारी किताबें लिखी हैं। उनके अध्ययन और निरीक्षण पर आधारित किताब दी चिम्पैंज़ीस ऑफ गॉम्बे: पैट्रन ऑफ बिहेवियर (The Chimpanzees of Gombe: Patterns of Behavior) आज भी प्राइमेट व्यवहार विज्ञान की ‘बाइबल’ मानी जाती है।

सम्मान और पुरस्कार

जेन गुडॉल जीवन के अंतिम दिनों तक सक्रिय रहीं। वे हर वर्ष लगभग 300 दिन यात्रा करके व्याख्यान देतीं, नेताओं और उद्यमियों से मिलतीं और वन्यजीव संरक्षण के लिए निधि जुटातीं। उन्हें अपने अथक कार्य के लिए अनेक सम्मान मिले। 2002 में संयुक्त राष्ट्र (United Nations) ने उन्हें शांतिदूत (‘Messenger of Peace’) घोषित किया। उन्हें गांधी–किंग पुरस्कार (Gandhi King Award) भी प्रदान किया गया। जेन के जीवन पर कई फिल्में और वृत्तचित्र बने। नेशनल जियॉग्राफिक ने उनके जीवन पर आधारित घूमती हुई प्रदर्शनी बिकमिंग जेन (Becoming Jane) बनाई, जो आज भी लोकप्रिय है।

91 वर्ष का समृद्ध जीवन जीकर जेन गुडॉल ने हमें विदा कहा, पर उनका अध्याय यहीं समाप्त नहीं होता। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि विपरीत परिस्थितियों में भी एक महिला अनुसंधान (women in science) में महान कार्य कर सकती है। उन्होंने अनेक पीढ़ियों को प्रेरित किया और असंख्य लोगों में नई आशा जगाई। वे कहा करती थीं, “आप जो भी करते हैं, उसका असर पड़ता है, अब आपको तय करना है कि आप किस तरह का असर चाहते हैं।” जेन का कार्य और विचार आने वाली पीढ़ियों को सदैव प्रेरणा देते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

दो देखने योग्य वीडियो

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गाज़ा का पुनर्निर्माण: वैज्ञानिकों की भूमिका

गाज़ा में हालिया युद्धविराम (Gaza ceasefire) की घोषणा के बाद एक ओर तो लोग खुशियां मना रहे हैं, लेकिन दूसरी ओर विशेषज्ञों का मानना है कि जब तक फिलिस्तीन के स्थानीय वैज्ञानिक (Palestinian scientists), शिक्षक और योजनाकार पुनर्निर्माण की ज़िम्मेदारी नहीं संभालते, तब तक गाज़ा को फिर से खड़ा करना मुश्किल होगा।

यह चेतावनी उन शोधकर्ताओं (researchers on Gaza reconstruction) की है जो युद्ध के बाद पुनर्निर्माण और उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम करते हैं। उनका मानना है कि यदि यह काम विदेशी संस्थाओं या सरकारों के हाथों में दिया गया, तो पहले जैसी गलतियां दोहराई जा सकती हैं और असली जानकार यानी जो अपनी ज़मीन और समाज की ज़रूरतों को समझते हैं वे पीछे रह जाएंगे।

गौरतलब है कि अमेरिका द्वारा तैयार और इस्राइल द्वारा मंज़ूर की गई योजना के तहत, हमास द्वारा अपने हथियार डालने (Hamas disarmament), बंधकों को रिहा करने और राजनीति से पीछे हटने की उम्मीद है। बदले में इस्राइल अपनी सैन्य कार्रवाई रोकने, सेना को गाज़ा से हटाएगा, मानवीय सहायता (humanitarian aid in Gaza) बढ़ाने और संयुक्त राष्ट्र को क्षेत्र में काम करने की अनुमति देगा। हालांकि इस योजना में यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि गाज़ा का पुनर्निर्माण कैसे होगा और उससे भी महत्वपूर्ण कि कौन करेगा।

अक्टूबर 2023 में शुरू हुए इस्राइल के सैन्य अभियान (Israel Gaza conflict 2023) ने गाज़ा को पूरी तरह तबाह कर दिया। अगस्त के अंत तक सहायता पर लगे प्रतिबंधों के कारण लोगों को खाने की भारी कमी का सामना करना पड़ा। एक स्वतंत्र समिति की रिपोर्ट के अनुसार, पांच लाख से अधिक लोग भुखमरी (Gaza famine crisis) से जूझ रहे हैं। वहीं, दी लैंसेट की रिपोर्ट के अनुसार पांच साल से छोटे लगभग 55,000 बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं।

मानव संसाधन (human resources in Gaza) के स्तर पर भी स्थिति बहुत खराब है। 2200 से अधिक डॉक्टर्स, नर्सें और शिक्षक मारे जा चुके हैं। युनेस्को के अनुसार, लगभग 80 प्रतिशत विश्वविद्यालय और कॉलेज या तो क्षतिग्रस्त हो गए हैं या पूरी तरह ढह गए हैं, जिससे करीब 88,000 विद्यार्थियों को अपनी पढ़ाई बीच में ही छोड़नी पड़ी है।

दक्षिण अफ्रीका स्थित नेल्सन मंडेला युनिवर्सिटी के शोधकर्ता सावो हेलीटा का अनुमान है कि युद्ध में गाज़ा के उच्च शिक्षा क्षेत्र (higher education in Gaza) को लगभग 222 मिलियन डॉलर (1950 करोड़ रुपए) का नुकसान हुआ है। उनका कहना है कि इसे दोबारा खड़ा करने में करीब एक अरब डॉलर लग सकते हैं, क्योंकि निर्माण से पहले मलबा हटाना और बमों को निष्क्रिय (bomb disposal in Gaza) करना होगा।

इस काम के लिए आवश्यक सहायता राशि मुख्य रूप से खाड़ी देशों और तुर्की से मिलने की संभावना है। हालांकि पहले के वर्षों में फिलिस्तीनी विश्वविद्यालयों को सालाना लगभग 20 मिलियन डॉलर की बहुत कम आर्थिक सहायता (financial aid for Gaza universities) मिलती थी।

कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि पुनर्निर्माण केवल इमारतों तक सीमित नहीं रहना चाहिए। इसके साथ में ऑनलाइन शिक्षा (online learning in Gaza) को जारी रखना होगा, विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानसिक स्वास्थ्य का ध्यान रखना होगा और गाज़ा के शोधकर्ताओं को दुनिया के शैक्षणिक समुदाय से दोबारा संपर्क (global academic collaboration) बनाना होगा। चूंकि गाज़ा के अधिकांश विश्वविद्यालय विद्यार्थियों की फीस पर निर्भर हैं, ऐसे में सुझाव है कि अंतर्राष्ट्रीय सहायता से फीस भरी जाए ताकि विश्वविद्यालय पुनर्निर्माण के दौरान भी चलते रहें।

स्थानीय विशेषज्ञता की ताकत

विशेषज्ञों का मानना है कि गाज़ा के पुनर्निर्माण का नेतृत्व उन्हीं फिलिस्तीनियों को करना चाहिए जो अपनी ज़मीन, संस्कृति और समाज को सबसे अच्छी तरह जानते हैं। गाज़ा के शिक्षाविदों (Gaza academics) के पास अपनी धरती और लोगों की अनोखी और गहरी समझ है, जिसे कोई बाहरी व्यक्ति नहीं समझ सकता। इसके अलावा गाज़ा के माहौल को फिर से बसाने में उन लोगों की भागीदारी ज़रूरी है जो वहां रहेंगे और इसके परिणामों को झेलेंगे। इलाके के भविष्य से जुड़े फैसले उन्हीं समुदायों से आने चाहिए जो सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं।

लेकिन राष्ट्रपति ट्रम्प की पुनर्निर्माण योजना (Trump Gaza reconstruction plan) के तहत, गाज़ा की सार्वजनिक सेवाएं एक ‘तकनीकी समिति’ चलाएगी, जिसमें कुछ फिलिस्तीनी और कुछ अंतर्राष्ट्रीय विशेषज्ञ होंगे। इस समिति की निगरानी ‘बोर्ड ऑफ पीस’ नामक एक अंतर्राष्ट्रीय निकाय करेगा, जिसका नेतृत्व खुद ट्रम्प करेंगे और जिसमें ब्रिटेन के पूर्व प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर भी शामिल होंगे।

कई विशेषज्ञों के लिए यह व्यवस्था काफी चिंताजनक है, क्योंकि उन्हें डर है कि इससे फिलिस्तीनी नेतृत्व (Palestinian leadership) को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। कतर स्थित हमद बिन खलीफा युनिवर्सिटी (Hamad Bin Khalifa University) के प्रोफेसर सुल्तान बराकात चेतावनी देते हैं कि अगर यह समिति ‘कब्ज़े का प्रबंधन’ बनकर रह गई, तो कई सम्मानित शिक्षाविद इसमें शामिल होने से इंकार कर देंगे। असली पुनर्निर्माण तभी संभव है जब फिलिस्तीनियों को योजना बनाने से लेकर शिक्षा और पर्यावरण सुधार (education and environment reform) तक में नेतृत्व और अधिकार दिया जाए।

इसी तरह का विचार गाज़ा युनिवर्सिटी (Gaza University) के पूर्व अध्यक्ष और शोधकर्ता फरीद अल-कीक का भी है जिन्होंने युद्धविराम के जश्न के दौरान कहा कि “आज खुशी और उम्मीद का दिन है, लेकिन गाज़ा का भविष्य गाज़ा के लोगों के हाथों से ही बनना चाहिए।” (स्रोत फीचर्स)

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अब खून बताएगा थकान की असली वजह

वैज्ञानिक अब खून की एक सरल जांच विकसित करने के करीब हैं, जिससे क्रॉनिक फटीग सिंड्रोम (CFS) (blood test for Chronic Fatigue Syndrome) या मायाल्जिक एन्सेफेलोमेलाइटिस (ME) (Myalgic Encephalomyelitis diagnosis) का निदान आसानी से किया जा सकेगा। CFS की वजह से लाखों लोग वर्षों तक लगातार थकान और ऊर्जा की कमी से पीड़ित रहते हैं।

ब्रिटेन स्थित युनिवर्सिटी ऑफ ईस्ट एंग्लिया (University of East Anglia research) के शोधकर्ताओं के नए अध्ययन में पाया गया कि ME/CFS से पीड़ित लोगों की रक्त कोशिकाओं में एपिजेनेटिक (epigenetic changes in CFS) बदलाव होते हैं। ये ऐसे रासायनिक परिवर्तन हैं जो जीन के काम करने के तरीके को प्रभावित करते हैं, हालांकि जीन की संरचना में कोई बदलाव नहीं होता। दशकों से पहेली बनी इस बीमारी के निदान के लिए यह खोज एक भरोसेमंद परीक्षण विकसित करने में मदद कर सकती है।

गौरतलब है कि CFS दुनिया भर में लगभग 1.7 से 2.4 करोड़ लोगों को प्रभावित करता है। लेकिन कोई निश्चित जांच न होने के कारण इसे अक्सर पहचाना नहीं जाता या अन्य बीमारियों के साथ जोड़ लिया जाता है। मरीज़ न केवल अत्यधिक थकान से जूझते हैं, बल्कि बदन दर्द, नींद की समस्याएं और एकाग्रता में कठिनाई का सामना भी करते हैं।

डॉ. दिमित्रि पीशेज़ेत्स्की की शोध टीम ने एक विशेष एपिजेनेटिक परीक्षण का इस्तेमाल किया, जिससे यह पता लगाया गया कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं (immune cells in ME/CFS) के अंदर डीएनए कैसे व्यवस्थित होता है। 47 गंभीर मरीज़ों और 61 स्वस्थ लोगों के रक्त नमूनों की तुलना में इस परीक्षण ने 96 प्रतिशत मामलों में सही पहचान की, जिससे इसके भविष्य में शक्तिशाली नैदानिक विधि (clinical diagnostic tool) बनने की संभावना है।

अध्ययन में पाया गया कि जीन और एपिजेनेटिक स्तर पर बदलाव प्रतिरक्षा और शोथ प्रतिक्रिया (immune response in CFS) से जुड़े हैं, जो ME/CFS में प्रतिरक्षा प्रणाली के असंतुलन का संकेत देते हैं। ये बदलाव नॉन-कोडिंग डीएनए (non-coding DNA regions) में पाए गए, जो प्रोटीन नहीं बनाते बल्कि अन्य जीन के चालू या बंद होने को नियंत्रित करते हैं।

यह अध्ययन एक बड़ी सफलता (scientific breakthrough in CFS research) है, लेकिन विशेषज्ञों ने और शोध की आवश्यकता जताई है। कॉर्नेल युनिवर्सिटी (Cornell University study) की डॉ. केटी ग्लास, जो स्वयं कभी ME/CFS से पीड़ित रही हैं, ने इसे सराहा लेकिन कहा है कि यह अध्ययन बहुत छोटे स्तर पर हुआ है, इसलिए इसे अभी निदान के रूप में उपयोग नहीं किया जा सकता। फिर भी यह लंबे समय से इस अबूझ बीमारी (mystery illness) से जूझ रहे लाखों लोगों के लिए उम्मीद जगाती है। (स्रोत फीचर्स)

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पाषाणकालीन चित्रकारों के पास नीला रंग भी था

ध्यप्रदेश के भोपाल के पास स्थित भीमबेटका शैलाश्रय (Bhimbetka rock shelters) और होशंगाबाद में स्थित आदमगढ़ की पहाड़ियां पुरापाषाण (Paleolithic period) और नवपाषाण युगीन पुरातात्विक स्थल (archaeological sites) हैं। ये शैलाश्रय उस युग के मनुष्यों द्वारा बनाए गए शैलचित्रों (रॉक पेंटिंग्स) के लिए प्रसिद्ध हैं और पुरातात्विक महत्व रखते हैं। इनमें तरह-तरह की आकृतियों में बने शैलचित्र मिलते हैं: शिकार करते मनुष्यों के, उस समय की वनस्पतियों के, जीव-जंतुओं आदि के चित्र मिलते हैं। लेकिन ये चित्र गेरूआ या/और सफेद रंग से ही बने हैं। और लगभग यही बात प्रागैतिहासिक काल के सभी शैलाश्रयों में दिखती हैं: विविध तरह की आकृतियों में बनाए गए शैलचित्रों में बस काले, लाल-गेरूए, सफेद और हल्के पीले रंग का ही इस्तेमाल दिखता है। ऐसा लगता था कि इस समय के चित्रकारों के पास नीला रंग था ही नहीं, इसलिए वह चित्रों से भी गायब ही रहा। नीले रंग के इस्तेमाल का पहला प्रमाण आज से 5000 साल पहले की कृतियों में मिलता है, जो मिस्र में नीले रंग (Egyptian blue pigment) के आविष्कार की बात कहता है।

पुरातत्वविदों (archaeologists) को प्राचीन कृतियों में नीले रंग के नदारद होने का एक कारण यह लगता है कि गेरूए और काले रंग के विपरीत, नीला रंग प्रकृति में सीधे तौर पर नहीं मिलता। हालांकि कुछ वनस्पतियों से इसे हासिल किया जा सकता है लेकिन इसे हासिल करने के लिए एक लंबी प्रक्रिया करनी पड़ती है, और फिर इनसे हासिल रंग समय के साथ उड़ भी जाते हैं। या फिर अफगानिस्तान की खदानों में मौजूद लाजवर्द (Lapis Lazuli) पत्थरों से नीला रंग हासिल किया जा सकता था, लेकिन ऐसा लगता है कि उस समय के लोगों की इस तक पहुंच नहीं थी।

लेकिन हाल ही में एंटिक्विटी (Antiquity journal) में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि नीले रंग का इस्तेमाल अनुमान से कहीं पहले होने लगा था: लगभग 13,000 साल पहले मध्य जर्मनी के कलाकार नीला रंग अपनी कृतियों में भर रहे थे।

दरअसल 1970 में मध्य जर्मनी के मुलहाइम-डाइटशाइम नामक खुदाई स्थल (जो 13,000 पहले शिकारी-संग्राहक समूह का निवास स्थल था) (archaeological excavation site) से लगभग हथेली जैसी आकृति का और उसी जितना बड़ा पत्थर मिला था। इस पत्थर को देखकर पुरातत्वविदों ने इसे दीये के रूप में पहचाना था। उसके बाद से यह संग्रहालय में रखा रहा। कुछ समय पहले जब शोधकर्ता इस पत्थर की दोबारा जांच-पड़ताल कर रहे थे, तब उन्हें इसकी सतह पर नीले रंग के छोटे-छोटे से धब्बे दिखाई दिए। पहले तो लगा कि शायद संग्रहालय के रख-रखाव या सफाई-पुताई के दौरान इस पत्थर में ये धब्बे लग गए हैं। लेकिन जब इन धब्बों की एक्स-रे फ्लोरेसेंस (X-ray fluorescence analysis)  और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी स्कैनिंग की तो पता चला कि यह कोई आज की रंगाई-पुताई के रंग के धब्बे नहीं हैं बल्कि ये धब्बे तो एज़ुराइट के रंग हैं, जिससे उन्होंने इस पत्थर पर संभवत: रंग-बिंरगी धारियां बनाई थी। गौरतलब है कि एज़ुराइट (Azurite mineral pigment) एक दुर्लभ लेकिन प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला नीला खनिज है जो जर्मनी में कई स्थानों पर पाया जाता है।

प्रागैतिहासिक मानव बस्तियों (prehistoric settlements) के पास से मिले एक साधारण पत्थर पर नीले रंग की उपस्थिति से पता चलता है कि वहां के लोग नीले रंग से वाकिफ थे और इस रंगत के लिए एज़ुराइट का इस्तेमाल करते थे। लेकिन हो सकता है किसी कारणवश या सांस्कृतिक पसंद के कारण उन्होंने इसका इस्तेमाल शैलाश्रय के चित्रों में नहीं किया। शायद वे नीले रंग का इस्तेमाल लकड़ी, बर्तन या कपड़ों पर चित्रकारी (ancient body art or textile dye) या शरीर पर टैटू के लिए करते होंगे। और ऐसी चीज़ें समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, इसलिए नीले रंग के प्रमाण नहीं मिलते हों।

और, ऐसा लगता है कि सिर्फ जर्मनी में पुरापाषाणकालीन लोग ही नीले रंग का इस्तेमाल नहीं करते थे, बल्कि उससे काफी पहले के जॉर्जियावासी भी करते थे। दरअसल जॉर्जिया के एक खुदाई स्थान से प्राप्त 33,000 साल पुराने सिल-बट्टे के पत्थर पर नीला रंग देने वाले पौधे (नील का पौधा, Isatis tinctoria) के अवशेष मिले हैं।

गौरतलब है कि नील के पौधे को खाया नहीं जाता है। चूंकि इससे किसी तरह का पोषण नहीं मिलता है इसलिए सिल-बट्टे के पत्थर पर इसे पीसने के प्रमाण मिलना इसके भोजन के इतर किसी उपयोग की ओर इशारा करता है। हम यह भी जानते हैं कि इस पौधे से नीला रंग बनाने के लिए सबसे पहले इसकी पत्तियों को कूटना-पीसना पड़ता है। और सिल-बट्टे पर नील के अवशेष दर्शाते हैं कि जॉर्जियावासियों ने भले ही नीले रंग का इस्तेमाल किया हो या नहीं, लेकिन वे इसे हासिल करने की कोशिश तो कर ही रहे थे।

बहरहाल ऐसे सिर्फ दो प्रमाण मिले (ancient pigment evidence) हैं: एक रंग के इस्तेमाल के और दूसरा इसे बनाने के प्रयास के। व्यापक इस्तेमाल की पुष्टि के लिए कई और प्रमाण खोजने की ज़रूरत है। हालांकि कुछ पुरातन चीज़ों के साथ समस्या यह है कि वे समय के साथ नष्ट हो जाती हैं, ऐसे में व्यापक इस्तेमाल के बावजूद उनके उतने प्रमाण नहीं मिलते। एक बात यह है कि अब तक वैज्ञानिक मानकर चल रहे थे कि पाषाणकालीन लोगों के पास नीला रंग था ही नहीं। यह शोध अब उनके शैलचित्रों या उनकी अन्य कलाकृतियों में नया रंग तलाशने की प्रेरणा देगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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युद्ध, पाबंदियों और चिंताओं के साये में इगनोबेल पुरस्कार

प्रतिका गुप्ता

हालांकि दौर नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize) की घोषणा का चल रहा है, लेकिन इसके कुछ दिनों पहले इगनोबेल पुरस्कार (Ig Nobel Prize) की घोषणा भी हुई थी।

धीर-गंभीर लगने वाली वैज्ञानिक खोजों (Scientific Discoveries) के लिए दिए जाने वाले नोबेल पुरस्कारों के विपरीत इगनोबेल पुरस्कार उन वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए दिए जाते हैं जिनके विषय/सवाल पहली नज़र में तो थोड़े मज़ाकिया लगते हैं, लेकिन फिर उन्हें लेकर शोध उतनी ही शिद्दत से किया जाता है जितनी शिद्दत से वे अनुसंधान किए जाते हैं जो नोबेल के हकदार बनते हैं।

इन पुरस्कार विजेताओं का चयन एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च (Annals of Improbable Research) पत्रिका द्वारा किया जाता है। लेकिन कोई भी व्यक्ति किसी ‘मज़ेदार लेकिन विचारशील’ लगने वाले शोधकार्य को इस पते पर भेज कर पुरस्कार के लिए नामित कर सकता है: marc@improbable.com)। (पर ध्यान रहे, उनकी वेबसाइट पर जारी चेतवानी के अनुसार, स्वयं को नामित किए गए बहुत ही कम शोधकार्य इस पुरस्कार के हकदार बने हैं।)

एक तरह से इगनोबेल पुरस्कार पिछले 35 सालों से मज़े से विज्ञान करने और विज्ञान में मज़ा (Fun Science) करने का मौका बनाते हैं। हर साल जब ये पुरस्कार दिए जाते हैं तो इनको पाने वाले अपने खर्चे पर बोस्टन में आयोजित अवॉर्ड समारोह (Award Ceremony) में शामिल होते हैं। समारोह का माहौल एकदम हल्का-फुल्का होता है; यहां ओपेरा, सर्कस जैसे कार्यक्रम होते हैं; पुरस्कार प्राप्त करने वाले वैज्ञानिकों को व्याख्यान के लिए महज 24 सेकंड का समय दिया जाता है; और कागज़ का हवाई जहाज़ उड़ाकर समारोह का समापन हो जाता है।

लेकिन इस साल दुनिया भर में चल रही तमाम तरह की समस्याओं, सख्तियों, पाबंदियों और युद्ध (War & Restrictions) के चलते लगभग आधे इगनोबेल विजेता इस समारोह में शामिल नहीं हो सके। ऐसा इस समारोह के इतिहास में पहली बार हुआ है कि पुरस्कार विजेताओं ने इस समारोह में शामिल न हो सकने की बात कही है।

दुर्गंधरहित शू-रैक बनाने (Shoe Rack Design) के लिए (इंजीनियरिंग का) इगनोबेल पाने वाले भारत के विकास कुमार (Vikas Kumar) के लिए समारोह में शामिल होने में दो बाधाएं थीं: पहली तो समारोह में शामिल होने का खर्चा; लेकिन उससे बड़ी बाधा थी यह खबर कि भारत के अपंजीकृत प्रवासियों को बेड़ियों में जकड़कर अमेरिका से निर्वासित किया जा रहा है। इस खबर ने उन्हें डरा दिया कि कहीं उनके साथ भी ऐसा सलूक न हो जाए। और यदि, इस डर से उबरकर वे और उनके साथी समारोह में शामिल होने का फैसला करते, तो भी अमेरिका द्वारा भारत के लिए लागू सख्त वीज़ा नियमों (US Visa Rules) के चलते उन्हें वीज़ा हासिल करने में ही 7-8 महीनों का समय लग जाता, तब तक समारोह का वक्त निकल जाता और चाहते हुए भी वे समारोह में शामिल नहीं हो पाते। इसकी बजाय उन्होंने अपने साथी के साथ भारत में ही इस पुरस्कार की खुशी मना ली।

इगनोबेल शांति पुरस्कार (Peace Prize) विजेता भी अमेरिकी राजनीति के चलते इस समारोह का हिस्सा नहीं बन सकीं। जर्मनी के चिकित्सा मनोवैज्ञानिक फ्रिट्ज़ रेनर और जेसिका वर्थमैन इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर पा रहे थे कि कैसे अमेरिकी सरकार विश्वविद्यालयों के वित्तपोषण में दखलंदाज़ी कर रही है और उनकी स्वतंत्रता एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर डाल रही है। साथ ही वे सीमा पर चल रहे संघर्षों को लेकर भी चिंतित थे। और घर पर अपने तीन बच्चों को छोड़कर अमेरिका में फंस जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते थे। इसलिए उन्होंने समारोह में शामिल होने से इंकार कर दिया।

इस्राइल के बायोफिज़िकल इकॉलॉजिस्ट (Biophysical Ecologist) बेरी पिनशो और उनकी टीम को एविएशन में इगनोबेल पुरस्कार मिला। लेकिन उन्होंने भी समारोह में शामिल न होने का फैसला लिया, कुछ तो स्वास्थ्य और पारिवारिक कारणों से और कुछ इस चिंता से कि इस्राइल-हमास (Israel Hamas War) युद्ध के कारण इस समारोह में उनकी मौजूदगी अन्य देशों में युद्ध के खिलाफ हो रहे प्रदर्शनों को और भड़का सकती है या वहां मौजूद लोगों को विचलित कर सकती है। मौजूदा राजनीतिक माहौल में उन्होंने न जाना ही ठीक समझा। हालांकि टीम से कोलंबिया के पारिस्थितिकीविद फ्रांसिस्को सांचेज़ और मूल रूप से अर्जेंटीना की जीवविज्ञानी मारू मेलकॉन ने इस समारोह में शामिल होने का फैसला किया। मेलकॉन का कहना था कि दुनिया में समस्याएं तो चल ही रही हैं, लेकिन विज्ञान भी हो रहा है। यह हम पर है कि हम किसे ज़्यादा तवज्जो देते हैं। हालांकि अंत में मेलकॉन इस समारोह में शामिल नहीं हो पाईं क्योंकि सैन डिएगो अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डे पर एक आपात स्थिति के कारण उनकी उड़ान रद्द हो गई।

मनोविज्ञान में इगनोबेल विजेता मनोवैज्ञानिक मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की (Marcin Zajenkowski) रूस-युक्रेन युद्ध (Russia Ukraine Conflict) के चलते जाने से कतरा रहे थे। हालांकि अंत में वे समारोह में शामिल हुए, लेकिन कब उनके देश के ऊपर के उड़ान क्षेत्र को बंद कर दिया जाएगा, कब उड़ान रद्द हो जाएगी यह चिंता उन्हें लगातार सताती रही।

इस समारोह के आयोजक मार्क अब्राहम्स के लिए यह बहुत दुखद बात रही कि माहौल को हल्का-फुल्का और मज़ेदार बनाने वाले समारोह पर दुनिया भर कि चिंताएं भारी पड़ गईं और इसके कई विजेता समारोह में शामिल नहीं हो सके। फिर भी वे अलग-अलग जगह समारोह आयोजित करने की योजना बना रहे हैं ताकि जो विजेता बोस्टन के मुख्य समारोह में शामिल नहीं हो पाए थे वे कम से कम इनमें से किसी एक समारोह में आ सकें।

इस साल मिले इगनोबेल पुरस्कार (Ig Nobel Prize 2025 Winners) पर एक नज़र

साहित्य के लिए इस साल इगनोबेल दिवंगत चिकित्सक विलियम बीन को मिला है, जिन्होंने 35 वर्षों तक लगातार अपने एक नाखून (बाएं हाथ के अंगूठे के नाखून) की वृद्धि दर को रिकॉर्ड किया और उसका विश्लेषण किया। उन्होंने बताया कि उम्र बढ़ने के साथ नाखून बढ़ने की गति धीमी पड़ जाती है। 32 वर्ष की उम्र में नाखून हर रोज़ 0.123 मिलीमीटर बढ़ते थे जबकि 67 साल की उम्र में नाखून हर रोज़ 0.095 मिलीमीटर ही बढ़ रहे थे।

मनोविज्ञान में इगनोबेल पुरस्कार मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की और गाइल्स गिग्नैक को मिला जिन्होंने इस बात की जांच की कि जब आप किसी आत्ममुग्ध/सामान्य व्यक्ति को यह बताते हैं कि वे बुद्धिमान हैं तो इसका असर क्या होता है। इसके लिए उन्होंने 360 प्रतिभगियों को दो समूहों में बांटा। कुछ टेस्ट और आईक्यू टेस्ट के बाद दोनों समूह को फीडबैक दिए। एक समूह को पॉज़िटिव या उच्च आई-क्यू फीडबैक (औसत से बेहतर) होने का फीडबैक दिया और दूसरे समूह को नेगेटिव या निम्न आई-क्यू फीडबैक (औसत से कमतर) दिया। पाया गया कि जो लोग आत्ममुग्ध थे और उन्हें पॉज़ीटिव फीडबैक मिला तो उनका आत्मसम्मान और बढ़ा था (Personality Psychology)।

पोषण का इगनोबल (Nutrition Research) डेनियल डेंडी, गेब्रियल सेग्नियागबेटो, रोजर मीक और लुका लुइसेली को मिला है। उन्होंने बताया कि एक खास तरह की इंद्रधनुषी छिपकली (Agama agama) एक खास टॉपिंग वाला पिज़्ज़ा खाना पसंद करती है। अफ्रीका में पाए जानी वाली इन छिपकलियों का मुख्य भोजन वैसे तो आर्थ्रोपोड जीव होते हैं लेकिन टोगो शहर के एक तटीय रिसॉर्ट में शोधकर्ताओं ने इसके एक समूह को नियमित रूप से मानव-निर्मित भोजन (पिज़्ज़ा) खाते हुए देखा है: वो भी किसी भी टॉपिंग वाला पिज़्ज़ा नहीं बल्कि एक विशेष प्रकार की टॉपिंग वाला (फोर-चीज़) पिज़्ज़ा, जिसमें चार तरह की चीज़ की टॉपिंग्स होती है। उनका अनुमान है कि समूह की सभी छिपकलियों द्वारा एक खास तरह का पिज़्ज़ा खाना किन्हीं खास रसायनों के प्रति आकर्षण का संकेत हो सकता है।

जूली मेनेला और गैरी बोचैम्प को शिशु रोग (Infant Studies) में इगनोबेल यह बताने के लिए मिला है कि जब एक दूध पीते बच्चे की मां लहसुन खाती है तो बच्चे को कैसा अनुभव होता है। उन्होंने स्तनपान कराने वाली महिलाओं के लहसुन खाने के बाद उनके दूध में लहसुन के गंध/स्वाद की तीव्रता मापी। पाया कि लहसुन खाने के एक घंटे बाद लहसुन की उतनी गंध नहीं आती; दो घंटे बाद गंध की तीव्रता अपने चरम पर होती है और उसके बाद कम होने लगती है। पाया गया कि बच्चा मां के दूध में इन बदलावों को पहचान लेता है; यह इस आधार पर कहा गया कि जब मां के दूध में लहसुन की गंध आई तो शिशु ज़्यादा देर तक स्तन से जुड़े रहे और उन्होंने ज़्यादा दूध चूसा।

जीवविज्ञान (Biology Research) का इगनोबेल तोमोकी कोजिमा, काज़ातो ओइशी और उनकी टीम को यह पता लगाने के लिए मिला है कि गायों में ज़ेब्रा जैसी धारियां पोतने से क्या गाय मक्खियों से निजात पा सकती हैं। उन्होंने अध्ययन के लिए यह विषय चुना क्योंकि मक्खियों (कीट) के चलते मवेशियों का बहुत नुकसान होता है। उन्होंने प्रयोग जापान की काली गायों पर किया। कुछ गायों पर ज़ेब्रा की तरह काले-सफेद रंग के पेंट से धारियां बनाई, कुछ गायों पर सिर्फ काले रंग की धारियां बनाईं और कुछ पर कोई रंग नहीं पोता। फिर उन्होंने गायों के मक्खियां हटाने वाले व्यवहार पर नज़र रखी, जैसे पूंछ से फटकारना, सिर झटकना, लात पटकना, कान फड़फड़ाना या त्वचा हिलाना। उन्होंने पाया कि जिन गायों को काली-सफेद धारियों से पोता था उनमें मक्खियां हटाने का व्यवहार कम दिखा।

रसायन विज्ञान (Chemistry Study) में इगनोबेल रोटेम नफ्तालोविक, डैनियल नफ्तालोविक और फ्रैंक ग्रीनवे को यह पता लगाने के लिए मिला है कि क्या एक तरह का प्लास्टिक (टेफ्लॉन) भोजन में कैलोरी की मात्रा बढ़ाए बिना पेट भरने का एहसास और तृप्ति दे सकता है। दरअसल मोटापे की समस्या से निजात पाने के लिए शोधकर्ता एक ऐसे पदार्थ की तलाश में थे जो पेट भरने का एहसास तो दे लेकिन उसके खाने से कैलोरी की खपत न बढ़े। वे ऐसे विकल्प की तलाश में थे जिसे पेट का अम्ल ना पचा सके, जो स्वादहीन हो, शरीर की गर्मी का असर न पड़े, चिकना हो और सस्ता हो। टेफ्लॉन में उन्हें यह संभावना दिखी, तो चूहों पर उन्होंने इसकी कारगरता जांची। पाया कि 75 प्रतिशत खाने में यदि 25 प्रतिशत टेफ्लॉन मिलाकर खाया जाए तो वज़न घटाने में मददगार होता है। 90 दिनों तक किए इस परीक्षण में चूहों पर इसके कोई दुष्प्रभाव देखने को नहीं मिले हैं।

शांति का इगनोबल पुरस्कार (Peace Research) फ्रिट्ज़ रेनर, इंगे केर्सबर्गेन और उनकी टीम को यह दिखाने के लिए मिला है कि शराब पीकर व्यक्ति विदेशी (या नई) भाषा थोड़ा अच्छे से बोलने लगता है। यह अध्ययन उन्होंने 50 ऐसे जर्मन लोगों के साथ किया जिन्होंने नई-नई डच भाषा बोलना सीखा था। उनमें से कुछ को शराब और कुछ को कंट्रोल के तौर पर कोई पेय पीने को दिया। और फिर उनके द्वारा डच में की जा रही चर्चा को रिकॉर्ड किया गया। इस रिकॉर्डिंग को दो डचभाषी लोगों को और खुद प्रतिभागियों को सुनाया गया, और उनसे उसका आकलन करने कहा गया। डचभाषी लोगों ने कहा कि जिन लोगों ने शराब पी थी उनकी भाषा, खासकर उच्चारण, अन्य की तुलना में बेहतर थे। हालांकि सेल्फ रेटिंग में ऐसा कोई फर्क नहीं दिखा।

इंजीनियरिंग डिज़ाइन (Engineering Innovation) में विकास कुमार और सार्थक मित्तल को यह बताने के लिए इगनोबेल मिला है कि बदबूदार जूते शू-रैक के इस्तेमाल पर क्या असर डालते हैं। उन्होंने यह देखा था कि शू-रैक होने के बावजूद भी लोग उसमें जूते-चप्पल नहीं रखते और वे बाहर पड़े रहते हैं। कारण: बदबूदार जूते। उन्होंने इसका एक समाधान भी दिया है: यदि शू-रैक में यूवी लाइट की व्यवस्था हो तो बदबू कम हो सकती है।

एविएशन (Aviation Research) में फ्रांसिस्को सांचेज़, बेरी पिनशो और उनकी टीम को यह पता लगाने के लिए इगनोबेल मिला है कि क्या शराब पीने से चमगादड़ों की उड़ने और इकोलोकेशन की क्षमता (Echolocation Study) कम हो सकती है। देखा गया था कि फलों में एथेनॉल की मात्रा 1 प्रतिशत से अधिक होने (फल पकने) पर मिस्र के रूसेटस एजिपियाकस चमगादड़ इन फलों का सेवन सीमित कर देते हैं। अनुमान था कि 1 प्रतिशत से अधिक एथेनॉल युक्त भोजन इन चमगादड़ों के लिए विषाक्त/नशीला होगा जिससे उनका नेविगेशन और इकोलोकेशन से जगह का अंदाज़ा लेने का कौशल प्रभावित होता होगा। पाया गया कि एथेनॉल युक्त भोजन खाने के बाद चमगादड़ अन्य की तुलना में काफी धीमी गति से उड़ते हैं। इससे चमगादड़ों की इकोलोकशन क्षमता भी प्रभावित होती है।

भौतिकी (Physics Research) में जियाकोमो बार्टोलुची, डैनियल मारिया और उनकी टीम को परफेक्ट पास्ता सॉस की रेसिपी (Pasta Sauce Science) बताने के लिए इगनोबेल मिला है। आसान सी लगने वाली यह रेसिपी दरअसल है थोड़ी मुश्किल, खासकर नौसिखियों के लिए। यदि सारे अवयव सही मात्रा में न पड़ें तो सॉस या तो थक्केदार बनता है या उसमें गुठलियां पड़ जाती हैं। शोधकर्ताओं ने कई विधियां आज़माने के बाद बताया है कि बढ़िया टेक्सचर वाला सॉस बनाने में चीज़ के साथ स्टार्च की मात्रा का अनुपात बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जब स्टार्च की मात्रा चीज़ की मात्रा के 2-3 प्रतिशत के बीच रहती है, तो सॉस एकदम बढ़िया बनता है। स्टार्च की मात्रा 1 प्रतिशत से कम होने पर सॉस थक्केदार बनता है और 4 प्रतिशत से ज़्यादा होने पर उसमें कड़क गुठलियां पड़ जाती हैं।

ये विवरण पढ़कर आपको भी हंसी आई होगी कि ये भी कोई शोध के विषय हैं। लेकिन देखने वाली बात यह है कि सम्बंधित शोधकर्ताओं ने इन्हें कितनी गंभीरता से लेकर कितनी गहनता से इन विषयों पर काम किया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान के नोबेल पुरस्कार 9 वैज्ञानिकों को दिए गए

स साल के नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prize 2025) की घोषणा कर दी गई है। विज्ञान के तीन क्षेत्रों – भौतिकी, रसायन और कार्यिकी अथवा चिकित्सा – में पुरस्कार उन खोजों के लिए दिए गए हैं जो वर्षों पहले की गई थीं लेकिन विज्ञान और समाज में उनके असर का खुलासा होते देर लगी। तो एक नज़र इस वर्ष के नोबेल सम्मान पर डालते हैं।

भौतिकी (Physics Nobel Prize)

भौतिकी में क्वांटम (Quantum Physics) शब्द अब जाना-पहचाना है। क्वांटम भौतिकी का प्रादुर्भाव 1900 में मैक्स प्लांक द्वारा ब्लैक बॉडी विकिरण की व्याख्या के साथ माना जा सकता है। आगे चलकर अल्बर्ट आइंस्टाइन, नील्स बोर, एर्विन श्रोडिंजर जैसे वैज्ञानिकों ने इसे आगे बढ़ाया। यह पदार्थ और ऊर्जा को एकदम बुनियादी स्तर पर समझने का प्रयास है। इसके कई विचित्र पहलुओं में से एक है क्वांटम टनलिंग (Quantum Tunneling)।

आम तौर पर जब हम किसी गेंद को दीवार पर मारते हैं तो वह सौ फीसदी बार टकराकर वापिस लौट आती है। लेकिन अत्यंत सूक्ष्म स्तर (जैसे इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन जैसे कण) पर पदार्थ का व्यवहार थोड़ा विचित्र हो जाता है। जब एक इकलौते कण को दीवार पर मारा जाए तो कभी-कभी वह टकराकर लौटने की बजाय दीवार के पार चला जाता है। इसे टनलिंग कहते हैं। ऐसा व्यवहार सूक्ष्म कणों के संदर्भ में ही देखा गया था। लेकिन इस वर्ष के नोबेल विजोताओं ने इसे स्थूल स्तर पर भी प्रदर्शित करके सबको चौंका दिया और क्वांटम कंप्यूटर (Quantum Computer Technology) जैसी टेक्नॉलॉजी का मार्ग खोल दिया है।

इस वर्ष का भौतिकी नोबेल संयुक्त रूप से कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के जॉन क्लार्क, येल विश्वविद्यालय के माइकेल डेवोरेट तथा कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (सांटा बारबरा) के जॉन मार्टिनिस को दिया गया है। इन्होंने यह दर्शाया कि टनलिंग स्थूल स्तर पर भी संभव है। दरअसल उनके प्रयोगों से स्पष्ट हुआ कि कुछ मामलों में बुनियादी कणों का पुंज भी क्वांटम कण की तरह व्यवहार कर सकता है। उनके प्रयोग विद्युत परिपथ से सम्बंधित थे और वे दर्शा पाए कि विद्युत परिपथ क्वांटम परिपथ (Quantum Circuit Research) की तरह व्यवहार कर सकता है।

रसायन (Chemistry Nobel Prize)

वर्ष 2025 का रसायन नोबेल पुरस्कार क्योतो विश्वविद्यालय के सुसुमु कितागावा, मेलबर्न विश्वविद्यालय के रिचर्ड रॉबसन और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (बर्कले) के ओमर एम. यागी को दिया गया है।

इन वैज्ञानिकों ने ऐसी आणविक संरचनाएं निर्मित की हैं जिनमें अंदर विशाल खाली स्थान होते हैं। इसके लिए उन्होंने धातु के आयन और कार्बनिक अणुओं के संयोजन से नवीन आणविक रचनाएं बनाने में सफलता प्राप्त की है। इन्हें मेटल ऑर्गेनिक फ्रेमवर्क (एमओएफ)) (Metal Organic Framework – MOF) नाम दिया गया है। इनकी विशेषता यह है कि इनमें उपस्थित खाली स्थानों में कई अन्य पदार्थ समा सकते हैं। जैसे इनमें कार्बन डाईऑक्साइड (Carbon Dioxide Storage) भर सकती है, विभिन्न प्रदूषणकारी पदार्थ जमा हो सकते हैं, पर्यावरण में उपस्थित कणीय पदार्थ भरे रह सकते हैं। अर्थात एमओएफ जलवायु परिवर्तन(Climate Change Solutions), वातावरण के प्रदूषण वगैरह जैसी कई चुनौतियों से निपटने में मददगार साबित हो सकते हैं।

चिकित्सा विज्ञान (Medicine Nobel Prize)

इस वर्ष का चिकित्सा नोबेल इंस्टीट्यूट फॉर सिस्टम्स बायोलॉजी (सिएटल) की मैरी ई. ब्रन्कॉव, सोनोमा बायोथेराप्युटिक्स के फ्रेड राम्सडेल और ओसाका विश्वविद्यालय के शिमोन साकागुची को संयुक्त रूप से दिया गया है।

इन्होंने मिलकर इस बात का खुलासा किया है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र (Immune System Research) अफरा-तफरी क्यों नहीं मचा देता। दरअसल हमारे प्रतिरक्षा तंत्र (इम्यूनिटी) के लिए लाज़मी है कि वह बाहर से आने वाली विभिन्न चुनौतियों (जैसे बैक्टीरिया, फफूंद, वायरस वगैरह) से निपटने को तत्पर रहे। इस काम को अंजाम देने के लिए प्रतिरक्षा तंत्र में विभिन्न किस्म की कोशिकाएं होती हैं – कुछ कोशिकाएं घुसपैठियों को पहचानने का काम करती हैं, कुछ उन्हें बांध कर अन्य मारक कोशिकाओं के समक्ष पेश करती हैं। बाहर से तो कुछ भी आ सकता है। इसलिए पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं पर ऐसे अणु होते हैं जो हर उस चीज़ को पहचान लेते हैं जो पराई है। यानी उनमें अपने-पराए का भेद करने की क्षमता होनी चाहिए।

इस साल के नोबेल विजेताओं का प्रमुख योगदान यह समझाने में रहा है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं का नियमन करके कैसे अनुशासित व्यवहार करता है। पहले माना जाता था कि पहचानने वाली प्रतिरक्षा कोशिकाओं का प्रशिक्षण थायमस नामक ग्रंथि (Thymus Gland Function) में होता है। वहां समस्त पहचान कोशिकाओं को शरीर की कोशिकाओं से जोड़कर परखा जाता है। जो कोशिका अपने शरीर की कोशिका से जुड़ती है, उसे नष्ट कर दिया जाता है। इस प्रकार से प्रतिरक्षा तंत्र की वही कोशिकाएं बचती हैं जो अपने ही शरीर की कोशिकाओं को हमलावर के रूप में नहीं पहचातीं।

फिर ब्रन्कॉव, राम्सडेल और साकागुची ने चूहों पर प्रयोगों के दम पर प्रतिरक्षा तंत्र में एक नई किस्म की कोशिकाएं पहचानी जो अन्य कोशिकाओं के निरीक्षण व नियमन का काम करती हैं। इन्हें नियामक टी-कोशिकाएं कहते हैं। तब से नियामक टी-कोशिकाओं (Regulatory T Cells – Tregs) पर काफी अनुसंधान से कई रोगों के उपचार की दिशा में महत्वपूर्ण प्रगति हुई है। इनमें खास तौर से तथाकथित आत्म-प्रतिरक्षा रोग (Autoimmune Diseases) और कैंसर शामिल हैं। आत्म प्रतिरक्षा रोगों में टाइप-ए डायबिटीज़, आर्थ्राइटिस, ल्यूपस वगैरह शामिल हैं। इन रोगों का कारण यह है कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र स्वयं अपनी कोशिकाओं और ऊतकों पर हमला कर देता है। नियामक टी-कोशिकाओं की खोज और आगे शोध ने ऐसे रोगों (Cancer Immunotherapy) के प्रबंधन के रास्ते प्रदान किए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रचनात्मक शौक मस्तिष्क को जवां रखते हैं

नृत्य (Dance), संगीत (Music), पेंटिंग (Painting) या वीडियो गेम (Video Games) जैसे रचनात्मक शौक सिर्फ मज़े के लिए नहीं होते बल्कि ये मस्तिष्क की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को भी धीमा कर सकते हैं। एक हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न देशों के नर्तकों, संगीतकारों, कलाकारों और गेमर्स का विश्लेषण किया ताकि यह समझा जा सके कि क्या रचनात्मक गतिविधियां (Creative Activities) मस्तिष्क को जवां बनाए रखने में मददगार होती हैं।

नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications Journal) में प्रकाशित इस अध्ययन में ‘ब्रेन क्लॉक’ (Brain Clock) तकनीक का इस्तेमाल किया गया है। यह मॉडल किसी व्यक्ति की वास्तविक उम्र और उसके मस्तिष्क की दिखाई देने वाली उम्र की तुलना करता है। ब्रेन इमेजिंग (Brain Imaging) और मशीन लर्निंग (Machine Learning) से यह मापा गया कि मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्से कितनी अच्छी तरह आपस में जुड़ते हैं। परिणाम दिखाते हैं कि रचनात्मक गतिविधियों में शामिल होने से मस्तिष्क के कनेक्शन मज़बूत होते हैं, खासकर उन हिस्सों में जो उम्र बढ़ने के साथ सबसे अधिक प्रभावित होते हैं।

इस अध्ययन के सह-लेखक और न्यूरोसाइंटिस्ट (Neuroscientist) अगस्टिन इबान्ज़ बताते हैं कि पहले के अध्ययनों से पता चला था कि रचनात्मक गतिविधियां मस्तिष्क और भावनात्मक स्वास्थ्य के लिए लाभदायक हैं, लेकिन अब तक इसके जैविक कारण ठीक से समझे नहीं गए थे। यह अध्ययन दर्शाता है कि रचनात्मकता (Creativity Benefits) शारीरिक रूप से मस्तिष्क की उम्र बढ़ने की प्रक्रिया को धीमा कर सकती है।

शोधकर्ताओं ने चार रचनात्मक क्षेत्रों में 232 प्रतिभागियों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि अधिक कुशल और अनुभवी लोगों के मस्तिष्क उनके कम अनुभवी साथियों की तुलना में जवां दिखाई देते हैं। सबसे मज़बूत असर पेशेवर टैंगो डांसरों (Tango Dancers Study) में देखा गया, जिनके मस्तिष्क औसतन सात साल युवा दिखे। टैंगो नृत्य में जटिल हाव-भाव, तालमेल, लय और योजना की आवश्यकता होती है, जो मस्तिष्क को स्वस्थ (Brain Health) बनाए रखने में विशेष रूप से प्रभावी है।

अध्ययन में यह भी पाया गया कि रचनात्मकता मस्तिष्क के फ्रंटोपैरीटल क्षेत्र (Frontoparietal Region) की सबसे ज़्यादा रक्षा करती है, जो कार्यशील स्मृति (Working Memory), निर्णय लेने और योजना बनाने के लिए महत्वपूर्ण है। अनुभवी प्रतिभागियों में इस क्षेत्र की कनेक्टिविटी बेहतर थी, खासकर उन हिस्सों में जो गति, तालमेल और लय को नियंत्रित करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि नए रचनात्मक कौशल को सीखना भी मस्तिष्क के बुढ़ाने की प्रक्रिया को धीमा (Brain Anti-Ageing) करता है, जिससे पता चलता है कि किसी भी उम्र में नया शौक शुरू करना फायदेमंद हो सकता है। कुल मिलाकर, अध्ययन दिखाता है कि रचनात्मकता सिर्फ मनोरंजन नहीं है बल्कि यह मस्तिष्क को जवां बनाए रखती है। (स्रोत फीचर्स)

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लीथियम, पर्यावरणऔर राष्ट्रों के बीच संघर्ष

र्ष 2015 में, सभी देशों ने पेरिस समझौते (Paris agreement ) को स्वीकारा था, जिसका लक्ष्य कार्बन उत्सर्जन (carbon emission) कम करना, नवीकरणीय ऊर्जा (renewable energy) बढ़ाना, इलेक्ट्रिक परिवहन को अपनाना और तकनीक के ज़रिए संसाधनों की खपत घटाना था। यह समाधान लगता आसान था, लेकिन इसे लागू करना उतना आसान साबित नहीं हुआ।

इस संदर्भ में राजनीति वैज्ञानिक थीआ रियोफ्रांकोस ने अपनी किताब एक्सट्रैक्शन (Extraction) में इस बदलाव के एक अहम पहलू लीथियम (lithium mining) पर ध्यान दिया है। बैटरियों और कई नवीकरणीय तकनीकों के लिए ज़रूरी लीथियम ग्रीन अर्थव्यवस्था (green economy) का केंद्र है। रियोफ्रांकोस के अनुसार इस धातु की वैश्विक होड़़ ने नैतिक और सामाजिक समस्याएं पैदा की हैं। केवल उत्सर्जन घटाने पर ध्यान देने से देशों और कंपनियों ने खनन से जुड़ी मानव और पर्यावरणीय लागत को नज़रअंदाज़ कर दिया है, जिससे ‘कार्बन रहित पूंजीवाद’ की भ्रामक धारणा बनी।

रियोफ्रांकोस ने व्यापक फील्डवर्क में स्थानीय समुदायों और पर्यावरण पर लीथियम खनन के प्रभावों को देखा है। उदाहरण के तौर पर चिली का अटाकामा रेगिस्तान (Atacama desert) लीथियम से भरपूर है और 12,000 साल से लोग यहां रहते आए हैं। सदियों तक यहां के लोग समृद्ध व्यापार नेटवर्क बनाए रखते थे, लेकिन उपनिवेशीकरण और बाद में औद्योगिक कंपनियों ने इसे बंजर ज़मीन दिखाकर खनन को सही ठहराया। आज भी बहुराष्ट्रीय कंपनियां स्थानीय अधिकारों और पर्यावरण संरक्षण (Environmental protection) के नियमों को चुनौती देती हैं।

रियोफ्रांकोस की खोजों से पता चलता है कि केवल कार्बन उत्सर्जन घटाने पर ध्यान देना खतरनाक हो सकता है। रियोफ्रांकोस का मानना है कि ‘नेट-ज़ीरो’ (net zero goals) पर सिर्फ एक तरह से काम करने के बजाय कई उपाय अपनाए जाएं – जैसे बेहतर सार्वजनिक परिवहन (public transport), पैदल और साइकिल से चलने वालों के लिए इंफ्रास्ट्रक्चर, अधिक घनी आबादी वाले शहर, कम कारें और अधिक रिसायक्लिंग (recycling)। इन उपायों से जलवायु लक्ष्यों के साथ सामाजिक समता और पर्यावरण संरक्षण का संतुलन बनाए रखा जा सकता है।

वैश्विक स्तर पर, लीथियम की दौड़ भू-राजनीति को भी प्रभावित करती है। इलेक्ट्रिक वाहनों (EV market) और नवीकरणीय ऊर्जा में चीन (china supply chain) की तेज़ बढ़त ने अमेरिका और युरोप को अपनी सप्लाई चेन को बदलने पर मजबूर किया है, ताकि वे ज़रूरी खनिजों पर नियंत्रण पा सकें। इस प्रतिस्पर्धा से तनाव बढ़ता है, वैश्विक सहयोग प्रभावित होता है, और संसाधन-समृद्ध क्षेत्र नए शोषण (resource exploitation) के केंद्र बन सकते हैं।

रियोफ्रांकोस चेतावनी देती हैं कि हरित ऊर्जा की ओर बदलाव अपने आप में न्यायसंगत नहीं है। कार्बन उत्सर्जन घटाना (Carbon Reduction) केवल एक हिस्सा है; न्याय सुनिश्चित करना, आदिवासी अधिकारों (indigenous rights) की रक्षा करना और पारिस्थितिकी की सुरक्षा (ecology protection) करना भी उतना ही ज़रूरी है। इन बातों को नज़रअंदाज़ करते हुए, जीवाश्म ईंधन से नवीकरणीय ऊर्जा की ओर जाना असमानता और पर्यावरणीय नुकसान को दोहरा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इरावती कर्वे: एक असाधारण जीवन की कहानी

जय निंबकर और वर्षा केलकर-माने

रावती: यह नाम जितना अनोखा है, उतना ही असाधारण उनका जीवन भी था। 1905 में बर्मा (Burma) में जन्मी इरावती का नाम वहां बहने वाली इरावती नदी (Irrawaddy river) पर रखा गया था। उनके पिता हरि गणेश करमाकर वहां इंजीनियर थे। सात साल की उम्र में उन्हें पढ़ाई के लिए पुणे स्थित हुज़ूर पागा बोर्डिंग स्कूल भेजा गया, जो महाराष्ट्र में लड़कियों के पहले-पहले स्कूलों (girls’ schools) में से एक था।

वहां उनकी दोस्ती शकुंतला परांजपे से हुई जो एक साईस (अश्वपाल) आर. पी. परांजपे की बेटी थी। शकुंतला की मां ने इरावती को अपने परिवार के साथ रहने के लिए आमंत्रित किया। इसने इरावती के जीवन की दिशा ही बदल दी। इस परिवार के बौद्धिक, कलात्मक माहौल (intellectual environment) ने इरावती को किताबों और लोगों से जोड़ा। उनमें से एक थे न्यायाधीश बालकराम। न्यायाधीश बालकराम ने उनमें मानवशास्त्र (anthropology) के प्रति रुचि जगाई; आगे चलकर वे इसी विषय में काम करके अपनी छाप छोड़ने वाली थीं। यहीं उनकी मुलाकात दिनकर कर्वे से हुई, जो फर्ग्यूसन कॉलेज (Fergusson College) में रसायनशास्त्र के प्रोफेसर थे। वे महर्षि धोंडो केशव कर्वे के बेटे थे जिन्होंने देश में महिला शिक्षा (women education) व विधवा पुनर्विवाह (widow remarriage) के कार्य में अग्रणि भूमिका निभाई थी। बाद में इरावती ने दिनकर कर्वे से विवाह किया।

फर्ग्यूसन कॉलेज से बीए करने के बाद इरावती ने बॉम्बे विश्वविद्यालय (University of Bombay) में समाजशास्त्र विभाग के संस्थापक डॉ. जी. एस. घुर्ये, के मार्गदर्शन में समाजशास्त्र में एम.ए. किया। उनके पति ने उनकी प्रतिभा को पहचाना और सुझाव दिया कि वे विदेश जाकर अपनी संभावनाओं को साकार करें। इस उद्देश्य से उन्होंने बर्लिन जाकर मानवशास्त्र में पीएच.डी. के लिए दाखिला लिया। वहां कैसर विल्हेम इंस्टीट्यूट फॉर एंथ्रोपोलॉजी, यूजीनिक्स एंड ह्यूमन हेरेडिटी (Kaiser Wilhelm Institute for Anthropology, Eugenics and Human Heredity) के निदेशक प्रोफेसर यूजेन फिशर के मार्गदर्शन में पीएच.डी. करने के बाद वे 1930 में भारत लौटीं।

भारत लौटने के बाद इरावती ने पुणे के एस.एन.डी.टी. कॉलेज (SNDT College) में कुछ समय के लिए रजिस्ट्रार के रूप में काम किया। लेकिन उनका असली रुझान प्रशासनिक कामों में नहीं, बल्कि वैज्ञानिक शोध और शिक्षा के क्षेत्र में था। उन्होंने बाद में डेक्कन कॉलेज पोस्ट-ग्रेजुएट रिसर्च इंस्टीट्यूट (Deccan College Post-Graduate Research Institute) में एक पद स्वीकार किया और अपना पूरा पेशेवर जीवन इसी संस्थान में अपने चुने हुए क्षेत्र में काम करते हुए बिताया।

उनके शोध का मुख्य उद्देश्य यह समझना था: “हम भारतीय कौन हैं और हम जैसे हैं, वैसे क्यों हैं?” उन्होंने जो लक्ष्य तय किए थे वे मानवशास्त्र के व्यापक उद्देश्यों के अनुरूप थे। उन्होंने जिन विशिष्ट सवालों के जवाब खोजने की कोशिश की इनमें कुछ मुख्य सवाल इस प्रकार थे: 

1. क्या भारत में लोगों के ऐतिहासिक (historical) और प्रागैतिहासिक (prehistoric) आवागमन के आधार पर अधिक विस्तृत सांस्कृतिक और भौतिक बनावट की पहचान की जा सकती है?

2. जिन लोगों ने समूचे भारत के ऐतिहासिक और प्रागैतिहासिक स्थलों (historical sites) का निर्माण किया, उनके शारीरिक गुणधर्म क्या थे? जाति क्या है?

इन सवालों के जवाब खोजने के लिए उन्होंने एक एथ्नो-ऐतिहासिक दृष्टिकोण (ethno-historical approach) अपनाया, जो संभवत: बर्लिन में मिली उनकी ट्रेनिंग का नतीजा था। उन्होंने चार बहुविषयी क्षेत्रों में एक साथ काम शुरू किया: पुरा-मानवशास्त्र (पैलियो-एंथ्रोपोलॉजी – (paleo-anthropology)), भारत अध्ययन (इंडोलॉजिकल स्टडीज़ – Indological studies), महाकाव्य और मौखिक परंपराएं(epics and oral traditions), विभिन्न क्षेत्रों में व्यवस्थित भौतिक मानवशास्त्रीय (physical anthropology) और भाषाई क्षेत्रों में विस्तृत समाजशास्त्रीय अध्ययन(sociological study)।

इरावती कर्वे का मानना था कि पूरे भारत में बेतरतीब ढंग से लोगों के आंकड़े इकट्ठा करने की बजाय, किसी एक सीमित क्षेत्र के लोगों का व्यवस्थित अध्ययन (systematic study) करना अधिक उपयोगी होगा और किसी सांस्कृतिक क्षेत्र की नस्लीय संरचना (racial structure) को समझा जा सकेगा। वे आदिम समूहों या जनजातीय समूहों के सामान्य माप लेने के पक्ष में नहीं थीं। उदाहरण के लिए, उनका कहना था कि महाराष्ट्र के 100 ब्राह्मणों का नमूना, 12 अंतर्विवाही उपजातियों (सब-कास्ट – sub-casts) के जीन पूल (gene pool) का सही अंदाज़ा नहीं दे सकता।

उन्होंने यह भी बताया कि ब्राह्मणों की दो प्रमुख उपजातियां, चितपावन और देशस्थ ऋग्वेदी, काफी अलग-अलग हैं, और देशस्थ ऋग्वेदी मराठों (Marathas) के अधिक करीब हैं। इसी कारण उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि भारतीय आबादी का नमूना जाति स्तर पर लिया जाना चाहिए, न कि जाति समूह स्तर पर। जाति को अध्ययन की एक इकाई और शोध के उपकरण के रूप में उपयोग करने की उनकी इस सोच ने भारतीय मानवशास्त्र (Indian anthropology) में एक क्रांति ला दी। 

डॉ. कर्वे ने ऋग्वेद, अथर्ववेद और महाभारत (Mahabharata) में पारिवारिक संगठन (family organization) और सम्बंधों का भी अध्ययन किया। उन्होंने गुजरात, कर्नाटक, ओडिशा, केरल, तमिलनाडु और उत्तर प्रदेश से आंकड़े एकत्र किए। इन अध्ययनों को उन्होंने अपनी किताब ‘किनशिप ऑर्गेनाइज़ेशन इन इंडिया’ (1953) (Kinship Organization in India) में संकलित किया है। यह किताब, जिसे तीन भागों में प्रकाशित किया गया था, सांस्कृतिक मानवशास्त्र में एक क्लासिक मानी जाती है और इस क्षेत्र में काम करने वाले विद्वानों के लिए एक मूल स्रोत है।

उनके काम ने उन्हें देश-विदेश में पहचान दिलाई। 1947 में, उन्हें भारतीय विज्ञान कांग्रेस (Indian Science Congress) के मानवशास्त्र विभाग की अध्यक्ष चुना गया और लंदन विश्वविद्यालय (University of London) के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज़ (School of Oriental and African Studies) में व्याख्याता पद स्वीकार करने का प्रस्ताव मिला। 

उनके महत्वपूर्ण योगदान में कई किताबें शामिल हैं, जैसे हिंदू सोसाइटी: एन इंटरप्रिटेशन (Hindu Society: An Interpretation), जिसमें उन्होंने जाति संरचना पर एक नया दृष्टिकोण प्रस्तुत किया, किनशिप ऑर्गेनाइज़ेशन इन इंडिया और महाराष्ट्र: लैंड एंड पीपुल (Maharashtra: Land and People)। उन्होंने मराठी में महाभारत पर आधारित आलोचनात्मक किताब युगांत भी लिखी, जिसके लिए उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार (Sahitya Akademi Award) मिला। उनके गैर-परंपरागत दृष्टिकोण ने कुछ परंपरावादियों की भावनाओं को आहत किया, लेकिन इसके बावजूद यह किताब काफी लोकप्रिय हुई। इसे कई भारतीय भाषाओं और अंग्रेज़ी में अनुदित किया गया है और 1970 में उनकी मृत्यु के तीस साल बाद भी इसके नए संस्करण प्रकाशित हो रहे हैं।

इरावती कर्वे का निधन 11 अगस्त 1970 को 65 वर्ष की आयु में नींद के दौरान हो गया। उन्होंने अपनी विद्वता में बौद्धिक ईमानदारी (intellectual honesty), ज़बरदस्त मानसिक ऊर्जा (mental energy)  और विभिन्न प्रकार के लोगों से जुड़ने की क्षमता को जोड़ा और आधुनिक भारत के ज्ञान और साहित्य पर एक स्थायी छाप छोड़ी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इगनोबेल पुरस्कार: मज़े-मज़े में विज्ञान

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हालिया सुर्खियां बताती हैं कि दो भारतीय वैज्ञानिकों (Indian scientists) को इंजीनियरिंग डिज़ाइन (design) श्रेणी में 2025 का इगनोबेल (Ig Nobel) पुरस्कार दिया गया है। हम सब नोबेल पुरस्कारों के बारे में तो जानते हैं, लेकिन क्या इगनोबेल पुरस्कार के बारे में जानते हैं?

साइंस पत्रिका (science magazine) की एक रिपोर्ट के अनुसार, इगनोबेल पुरस्कार ऐसा हल्का-फुल्का आयोजन है जो पुरस्कार पर एक प्रहसन-सा है। ‘इग (Ig)’ उपसर्ग का मतलब होता है गैर-सम्माननीय या निम्न दर्जे का। यहां पुरस्कार का नाम (Ig Nobel) दरअसल ‘ignoble’ शब्द पर एक तंज है। ज्ञानवर्धी (संजीदा) विज्ञान (science), प्रौद्योगिकी (technology), साहित्य (literature), शांति (peace) और अर्थशास्त्र (economics) में दिए जाने वाले वास्तविक नोबेल पुरस्कारों (Nobel Prizes) के विपरीत इगनोबेल पुरस्कार हास्य (humor) का पुट देते हैं।

इगनोबेल पुरस्कार वर्ष 1991 से हर साल दिए जा रहे हैं; मकसद है वैज्ञानिक अनुसंधान (scientific research) के साथ आम लोगों (general public) के जुड़ाव को बढ़ावा देना। ये ऐसे अनुसंधान के लिए दिए जाते हैं जो पहले-पहल तो लोगों को हंसाते हैं लेकिन फिर उन्हें सोचने पर मजबूर करते हैं। प्रत्येक विजेता को 10 ट्रिलियन ज़िम्बाब्वे डॉलर (Zimbabwe dollar) का एक बैंकनोट मिलता है, जिसकी कीमत इसके चलन के समय 40 अमेरिकी सेंट थी लेकिन अब यह विमुद्रीकृत कर दिया गया है और अब ये प्रचलन में नहीं हैं। इसके विपरीत, प्रत्येक नोबेल पुरस्कार (Nobel prize) विजेता को एक स्वर्ण पदक (जिस पर पुरस्कार के संस्थापक अल्फ्रेड नोबेल की तस्वीर उकेरी होती है) और लगभग 1.1 करोड़ स्वीडिश क्रोनर मिलते हैं, जिसे अधिकतम तीन विजेताओं के बीच साझा किया जा सकता है।

प्रत्येक नोबेल विजेता को हर साल दिसंबर में स्वीडिश एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Swedish Academy of Sciences) में एक समारोह में अपना व्याख्यान देने का अवसर भी मिलता है। इसके विपरीत, इगनोबेल पुरस्कार बोस्टन, मैसाचुसेट्स में आयोजित एक समारोह में दिए जाते हैं और प्रत्येक विजेता को अपनी उपलब्धियां प्रस्तुत करने के लिए केवल एक मिनट का समय दिया जाता है।

2025 के इगनोबेल विजेता

इगनोबेल पुरस्कारों (Ig Nobel awards) का चयन एनल्स ऑफ इम्प्रॉबेबल रिसर्च (Annals of Improbable Research) पत्रिका द्वारा किया जाता है। उनकी वेबसाइट के अनुसार, 2025 के इगनोबेल पुरस्कार विजेता ये हैं:

  • जीव विज्ञान (biology) के लिए तोमोकी कोजिमा और उनके साथी, जिन्होंने अपने प्रयोगों के ज़रिए दिखाया है कि गायों पर ज़ेबरा जैसी काली-सफेद धारियां पोतने से मक्खियां उन्हें कम काटती हैं।
  • इंजीनियरिंग डिज़ाइन (engineering design)  या एर्गोनॉमिक्स (ergonomics) में उत्तर प्रदेश के विकास कुमार और सार्थक मित्तलऐ, जिन्होंने बताया कि यदि जूते बदबूदार हों तो कैसे लोग उन्हें शू-रैक में रखने से कतराते हैं।
  • साहित्य (literature) में अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय (Columbia University) के चिकित्सा इतिहासकार और इंटर्निस्ट प्रोफेसर विलियम बीन, जिन्होंने अपने नाखूनों के बढ़ने का दस्तावेज़ीकरण किया; (गौरतलब है कि प्रोफेसर बीन का 2020 में निधन हो गया था और यह पुरस्कार उनके बेटे ने लिया।
  • मनोविज्ञान (psychology) में पोलैंड के मार्सिन ज़ाजेनकोव्स्की और ऑस्ट्रेलिया के गाइल्स गिग्नैक, जिन्होंने दिखाया कि जो लोग आत्ममुग्ध (narcissistic) होते हैं उन्हें यदि कहा जाए कि वे बुद्धिमान (intelligent) हैं तो उनका आत्म-सम्मान बढ़ जाता है।
  • पोषण (nutrition) में नाइजीरिया, टोगो, इटली और फ्रांस के शोधकर्ता, जिन्होंने दिखाया कि इंद्रधनुषी छिपकलियां (rainbow lizards) कुछ प्रकार के पिज्ज़ा का स्वाद पसंद करती हैं।
  • बालरोग (pediatrics)  में अमेरिका की जूली मेनेला और गोरी बोचैम्प, जिन्होंने बताया कि स्तनपान (breastfeeding) कराने वाली माताएं यदि लहसुन खाती हैं तो उनके शिशु अधिक दूध पीते हैं।
  • रसायन विज्ञान (chemistry) में अमेरिका के रोटेम नफ्तालोविक, डैनियल नफ्तालोविक और फ्रैंक ग्रीनवे की टीम, जिन्होंने बताया कि खाने के साथ टेफ्लॉन (Teflon) (जिसका इस्तेमाल नॉन-स्टिक कलई चढ़ाने के लिए किया जाता है) का सेवन कैलोरी की मात्रा बढ़ाए बिना भरपेट भोजन और तृप्ति पूरी करने का एक अच्छा तरीका है।
  • शांति (peace) में नीदरलैंड, यूके और जर्मनी के शोधकर्ता, जिन्होंने यह दिखाया कि कैसे थोड़ी मात्रा में शराब पीने से विदेशी (नई) भाषा (foreign language) बोलने की क्षमता बेहतर हो सकती है।

प्रसंगवश, अब तक केवल एक वैज्ञानिक ऐसे हैं जिन्होंने इगनोबेल और नोबेल दोनों पुरस्कार जीते हैं। वे हैं मैनचेस्टर विश्वविद्यालय (University of Manchester) के भौतिक विज्ञानी आंद्रे जेम। आंद्रे जेम और माइकल बेरी को वर्ष 2000 में, एक मेंढक को उसके आंतरिक चुंबकत्व का उपयोग करके एक शक्तिशाली चुंबकीय क्षेत्र में हवा में उड़ा देने के लिए भौतिकी श्रेणी में इगनोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 2010 में, प्रो. जेम और कॉन्स्टेंटिन नोवोसेलोव (Konstantin Novoselov) को द्वि-आयामी पदार्थ ग्रैफीन से सम्बंधित अभूतपूर्व प्रयोगों के लिए भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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