दृष्टि बहाली के लिए एक मॉडल जीव घोंघा

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

काश ऐसा कोई स्विच होता जो ऑन होकर हमें आंखों की रोशनी (vision restoration) जैसी असाधारण क्षमताएं वापिस दे सकता? मनुष्यों और कई अन्य प्रजातियों की आंखें कैमरे की तरह होती हैं; आंख में एक लेंस होता है जो प्रकाश को रेटिना पर फोकस करता है। पुनर्जनन (regeneration) आंखों की उस क्षमता को कहेंगे जिसमें वह पूरी तरह से हटाए जाने या घायल हो जाने के बाद फिर से अपना निर्माण कर सके। नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) में एलिस एकोर्सी और एलेज़ांद्रो सांचेज़ अल्वारेडो की टीम ने अपने हालिया काम में दिखाया है कि गोल्डन एप्पल घोंघे में आंख का ऐसा पुनर्निर्माण कैसे होता है।

घोंघा एक मोलस्क (mollusk) जीव है, यानी अकेशरुकी (invertebrate) जीव जिसके ऊपर खोल होती है और वह भूमि और पानी दोनों में अच्छी तरह से जीवित रह सकता है।

घोंघे में पुनर्जनन का यह कारनामा कोई जादू नहीं है, बल्कि सुंदर आणविक संयोजन (molecular mechanisms) का नतीजा है। जब घोंघा अपनी एक आंख खो देता है तो हज़ारों जीन स्विच (खटकों) की तरह ऑन हो जाते हैं: पहले वे स्विच ऑन होते हैं जो घाव भरने में मदद करते हैं, फिर वे जीन सक्रिय होते हैं जो कोशिकाओं के विकास और विभाजन के लिए ज़िम्मेदार होते हैं, उसके बाद नई रेटिना कोशिकाओं, प्रकाशग्रहियों और लेंस के निर्माण के लिए ज़िम्मेदार अलग-अलग जीन/नेटवर्क सक्रिय होते हैं। इनमें से एक जीन, PAX6 (eye development gene), आंख के प्रारंभिक विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। घोंघे में, यह प्रक्रिया कई अन्य जीन्स द्वारा सावधानीपूर्वक प्रबंधित की जाती है। इसमें नई तंत्रिका कोशिकाओं को बनाने वाले जीन, तंत्रिका तंतुओं को उनके सही लक्ष्यों तक पहुंचाने वाले और प्रकाश को ताड़ने के लिए ज़िम्मेदार जीन शामिल हैं। आंख एकदम ठीक तरीके से विकसित हो, इसे सुनिश्चित करने के लिए इनमें से प्रत्येक जीन एकदम ठीक चरण पर सक्रिय हो जाता है।

फिलहाल, हम मनुष्य ऐसा नहीं कर सकते हैं, लेकिन इन जेनेटिक ट्रिगर्स (genetic triggers) को समझकर एक दिन हम अपनी सुप्त पुनर्निर्माण प्रणाली (regenerative system) को सक्रिय कर पाएंगे।

जिस तरह घोंघे अपनी आंखें फिर से विकसित सकते हैं, उसी तरह मेंढक, प्लेनेरिया (planaria) और अफ्रीकी कांटेदार चूहे (African spiny mouse) जैसे अन्य जीवों में भी मज़बूत पुनर्जनन क्षमताएं होती हैं। एक तरह के सैलेमेंडर (एक्सोलोट्ल- (axolotl)) में क्षतिग्रस्त ऊतक हरफनमौला स्टेम कोशिका (stem cells) जैसे बन सकते हैं और हड्डियों, मांसपेशियों और शरीर के अन्य अंगों का पुनर्निर्माण कर सकते हैं। क्रिस्पर (CRISPR gene editing)  एक जीन-संपादन तकनीक है, जिसकी मदद से हम अपनी वांछित जीनोम संरचना को फिर से डिज़ाइन कर सकते हैं, रीमॉडल कर सकते हैं और पुनर्निर्मित कर सकते हैं।

हैदराबाद के एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट (LV Prasad Eye Institute) में, वैज्ञानिकों ने ज़ेब्राफिश (zebrafish model) को जंतु मॉडल के तौर पर इस्तेमाल करके लेबर कॉन्जेनाइटल एमॉरोसिस (LCA) (Leber Congenital Amaurosis – LCA) और स्टारगार्ड्ट (Stargardt disease) जैसी आंखों की जेनेटिक बीमारियों को ठीक करने के लिए क्रिस्पर तकनीक का इस्तेमाल किया है।

जंतुओं से मनुष्यों तक

शुरुआती परीक्षणों में पहले से ही क्रिस्पर संपादन का इस्तेमाल करके मनुष्यों की जेनेटिक बीमारियों (genetic disorders) को दूर करने के प्रयास किए जा रहे हैं, जैसे सिकल सेल एनीमिया (sickle cell anemia); β-थैलेसीमिया (beta thalassemia), जन्मजात खून की कमी; और LCA (genetic blindness), जो एक तरह का जन्मजात अंधापन है।

हाल ही में, हार्वर्ड युनिवर्सिटी (Harvard University) की एक टीम द्वारा क्रिस्पर तकनीक का इस्तेमाल करके मनुष्यों में LCA के इलाज के लिए किए जा रहे पहले क्लीनिकल परीक्षण (clinical trials) के नतीजे सामने आए हैं। ये नतीजे दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित हुए हैं जिसमें जन्मांधता से पीड़ित लोगों की दृष्टि में सुधार दिखाई दिया है। यह प्रयास, जंतु मॉडल में पुनर्जनन को समझकर मानव कोशिकाओं में मरम्मत प्रोग्राम को फिर से सक्रिय कर सकने की उम्मीद जगाता है। यह जीन-निर्देशित पुनर्जनन चिकित्सा (gene-guided regenerative medicine) के लिए एक फ्रेमवर्क देता है।

ये उदाहरण हमें याद दिलाते हैं कि पुनर्जनन (biological regeneration) कोई दुर्लभ चमत्कार नहीं है। बल्कि यह एक प्राचीन जैविक कार्यप्रणाली (biological process) है जो अभी भी कई प्रजातियों के DNA (genetic code) में अंकित है, और जिसे विज्ञान धीरे-धीरे समझना और फिर से सक्रिय करना सीख रहा है।

गोल्डन एप्पल घोंघे (golden apple snail study) पर किए गए नए अध्ययन ने खुलासा किया है कि कैसे उसका जीनोम (genome memory) उस अंग को पुनर्निर्मित करना याद रखता है जिसे दोबारा बनाना हमें असाध्य लगता है। और, घोंघे की इस याददाश्त (biological memory) को डीकोड करके चिकित्सा विज्ञान मनुष्य की आंखों को बहाल करने की क्षमता के करीब पहुंच सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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टीकों में एल्युमिनियम को लेकर छिड़ी बहस

डॉ. सुशील जोशी

हाल में इस बात को लेकर विवाद पैदा हो गया है कि टीकों में एल्युमिनियम (aluminum in vaccines) के उपयोग से शारीरिक नुकसान होता है और इसकी वजह से ऑटिज़्म (autism) जैसी तकलीफों में वृद्धि हो रही है। यह विवाद अमेरिका में चल रहा है। लेकिन उस विवाद में जाने से पहले यह देखना लाभप्रद होगा कि टीके काम कैसे करते हैं और उनमें एल्युमिनियम के उपयोग का आधार क्या है।

सरल शब्दों में कहें तो टीके (vaccination) किसी रोगजनक (pathogen) की नकल करते पदार्थ होते हैं जो रोग पैदा नहीं करते। तकनीकी शब्दों में इन टीकों पर उस रोगजनक का कोई अणु होता है जिसे एंटीजन कहते हैं। जब यह एंटीजन शरीर में पहुंचता है तो शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र (immune system) की कोशिकाएं इस पर हमला करती हैं और हमला करते हुए वे सीख जाती हैं कि यह कोई हानिकारक चीज़ है और इसे कैसे निष्क्रिय करना है। यही स्थिति तब भी होती है जब वास्तविक रोगजनक शरीर में पहुंचता है। प्रतिरक्षा तंत्र उससे निपटने की कोशिश करता है और कई बार निपट भी लेता है। टीके इसी संघर्ष के लिए प्रतिरक्षा तंत्र को तैयार करते हैं। हाल में टीकों पर जो शोध कार्य हुआ है उसे छोड़ दिया जाए तो टीके दो प्रकार के होते हैं – एक प्रकार वह है जिसमें वास्तविक रोगजनक को जीवित अवस्था में दुर्बल करके (सैबिन द्वारा विकसित पोलियो (oral polio vaccine) का जीवित दुर्बल टीका) या मारकर (सैबिन का मृत पोलियो वायरस टीका) इस्तेमाल किया जाता है और दूसरा प्रकार वह है जिसमें रोगजनक के एंटीजन को पृथक करके इस्तेमाल किया जाता है (जैसे डिफ्थीरिया-टिटेनस-पर्टूसिस (DPT vaccine) या हिपेटाइटिस (hepatitis vaccine) ए व बी के टीके)।

इसके बाद मामला आता है एल्युमिनियम (aluminum adjuvant) का। दरअसल, एल्युमिनियम टीके के साथ एक सह-औषध (एडजुवेंट- adjuvant) के तौर पर मिलाया जाता है। अलबत्ता, यही एकमात्र एडजुवेंट नहीं है। पिछले लगभग 40 सालों में वैज्ञानिकों ने शोध करके कई एडजुवेंट (vaccine adjuvants) पहचाने हैं और इस्तेमाल किए हैं। वैसे तो कई लोगों में टीकों को लेकर ही शंकाएं हैं और वे मानते हैं कि टीके हानिकारक होते हैं। खैर, फिलहाल बात करते हैं एडजुवेंट्स की चूंकि वर्तमान विवाद का मुद्दा यही है।

टीकों का उपयोग तो काफी पहले शुरू हो चुका था। इसका श्रेय एडवर्ड जेनर (Edward Jenner) को दिया जाता है जिन्होंने 1796 में पहली बार एक लड़के को चेचक का टीका (smallpox vaccine) लगाया था। 1926 में एक प्रतिरक्षा वैज्ञानिक एलेंक्जेंडर थॉमस ग्लेनी (Alexander Glenny) ने एक महत्वपूर्ण अवलोकन किया था जिसने एडजुवेंट की बुनियाद रखी थी। उन्होंने देखा कि यदि टीकाकरण से पहले घुलनशील एंटीजन को फिटकरी (एल्यूमिनियम पोटेशियम सल्फेट) के साथ रखा जाए तो वह एंटीजन फिटकरी के साथ अवक्षेपित हो जाता है और इस प्रकार उपचारित एंटीजन कहीं बेहतर प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया उत्पन्न करता है। यह प्रक्रिया लगभग वैसी ही है जैसी मटमैले पानी को साफ करने के लिए फिटकरी का उपयोग। उन्होंने ये प्रयोग गिनी पिग पर किए थे और देखा था कि अवक्षेपित एंटीजन से उनमें एंटीबॉडी का उत्पादन अधिक होता है। इसी बाहर से मिलाए गए पदार्थ को एडजुवेंट कहते हैं।

इस खोज के बाद सबसे पहले एल्यूमिनियम लवण (aluminum salts) एडजुवेंट का उपयोग टिटेनस (tetanus vaccine) तथा डिफ्थीरिया टॉक्साइड के टीकों (diphtheria vaccine) में किया गया था। आजकल तो दुनिया भर में अघुलनशील एल्युमिनियम लवणों का उपयोग विभिन्न टीकों में किया जाता है।

वैसे 1940 के दशक में जूल्स फ्रायंड (Jules Freund) ने एडजुवेंट की एक और किस्म विकसित की थी। ये पानी और तेल के इमल्शन थे जो एंटीजन के साथ दिए जाने पर एंटीजन की उम्र बढ़ा देते हैं और वह काफी समय तक प्रतिरक्षा प्रणाली को सक्रिय रखता है। अलबत्ता, फ्रायंड के एडजुवेंट का उपयोग सीमित ही रहा है।

यहां एक सवाल यह उठता है कि ये एडजुवेंट करते क्या हैं। रोचक बात है कि एडजुवेंट्स (immune adjuvants) का उपयोग करते हमें एक सदी बीत चुकी है लेकिन आज भी इनकी क्रियाविधि (mechanism of action) को लेकर बहुत स्पष्टता नहीं है। काफी अनुसंधान के बाद यह समझ में आया है कि एडजुवेंट दो-तीन तरह से काम करते हैं और टीके की प्रभावशीलता या उनकी क्रियाशील अवधि को बढ़ाते हैं। एक तरीका तो यह है कि एडजुवेंट शरीर में एंटीजन के प्रसार में मदद करते हैं और इस तरह से प्रतिरक्षा तंत्र की ज़्यादा कोशिकाएं उसके संपर्क में आती हैं। इसके अलावा इमल्शन में घुले हुए एंटीजन अपेक्षाकृत धीरे-धीरे विघटित होते हैं। इसके चलते प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देर तक बनी रहती है और दीर्घावधि प्रतिरक्षा (long-term immunity) प्राप्त होती है।

दूसरा तरीका यह है कि (खास तौर से एल्युमिनियम लवण जैसे एडजुवेंट (aluminum-based adjuvants)) एंटीजन से जुड़ जाते हैं और उसे प्रतिरक्षा कोशिकाओं में प्रवेश करने में मदद करते हैं। ये प्रतिरक्षा कोशिकाएं जन्मजात प्रतिरक्षा का हिस्सा होती हैं। जब एंटीजन इनमें प्रवेश करता है तो कोशिका उसे प्रोसेस करती है और परिणाम यह होता है कि वह कोशिका की सतह पर दिखने लगता है। अब ये कोशिकाएं अनुकूली प्रतिरक्षा (adaptive immunity) कोशिकाओं (जैसे टी कोशिकाओं) के संपर्क में आती हैं और टी कोशिकाएं उस एंटीजन को पहचानकर आगे की कार्रवाई शुरू कर देती हैं। कहने का मतलब है कि जन्मजात प्रतिरक्षा तंत्र अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र को सक्रिय करता है और एडजुवेंट इसमें मदद करते हैं।

अर्थात कुल मिलाकर एडजुवेंट अनुकूली प्रतिरक्षा कोशिकाओं को सक्रिय करने में और एंटीजन को देर तक शरीर में टिके रहने में मदद करते हैं।

अब आते हैं एल्युमिनियम (aluminum exposure) पर। सबसे पहले तो यह जान लेना ज़रूरी है कि टीकों में एडजुवेंट के तौर पर एल्युमिनियम लवणों का उपयोग एक सदी से होता आया है। लिहाज़ा इनके उपयोग का परीक्षण और जांच भी सबसे अधिक हुई है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि एल्यूमिनियम से हमारा संपर्क कई तरह से होता है – खानपान (dietary aluminum) के साथ और हवा के ज़रिए। मानव शरीर में एल्युमिनियम का अवशोषण पाचन तंत्र और श्वसन तंत्र में होता है। फिर इसे बाहर निकालने का काम होता है। बहरहाल, एक इंसान द्वारा सांस के साथ लिए गए एल्युमिनियम में से 3 प्रतिशत और खानपान के रूप में लिए गए एल्युमिनियम में से 1 प्रतिशत पूरे शरीर में फैल जाता है। वैसे शरीर में जमा कुल एल्युमिनियम में से 95 प्रतिशत तो खानपान के साथ आता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) ने कुल अंतर्ग्रहित एल्युमिनियम की मात्रा तय की है – 1 मिलीग्राम/प्रति किलोग्राम प्रतिदिन (safe intake limit)। यानी यदि आपका वज़न 60 किलो है तो अधिकतम 60 मि.ग्रा. एल्युमिनियम ले सकते हैं। इसके अलावा इंजेक्शन से दिया जाने वाला एल्युमिनियम तो खून के ज़रिए पूरे शरीर में फैल सकता है। इसलिए निर्धारित किया गया है कि ऐसे किसी भी घोल में एल्युमिनियम प्रति लीटर 25 ग्राम से कम होना चाहिए (vaccine safety)।

एक बार अवशोषित होने के बाद एल्युमिनियम हड्डियों, लीवर, फेफड़ों तथा तंत्रिका तंत्र (nervous system) में जमा हो जाता है। सामान्यत: यह धीरे-धीरे उत्सर्जित किया जाता है लेकिन गुर्दों की समस्याओं से ग्रस्त लोगों में उत्सर्जन बहुत प्रभावी नहीं होता। ऐसे लोगों में काफी सारा एल्युमिनियम मस्तिष्क में जमा हो सकता है। इसे लेकर कई प्रयोग हुए हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि वयस्कों में स्थायी रूप से जमा हुए एल्युमिनियम की मात्रा 30-50 मिलीग्राम ही पाई गई है।

टीके की प्रति खुराक में एल्युमिनियम की अधिकतम मात्रा भी निर्धारित की गई है। जैसे युरोप में यह मात्रा प्रति खुराक 1.25 मि.ग्रा. और यूएस में 0.85 मि.ग्रा. प्रति खुराक है। भारत में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा निर्धारित मानकों का उपयोग होता है। गौरतलब है कि हम खानपान के ज़रिए प्रतिदिन इससे कहीं अधिक मात्रा में एल्युमिनियम का सेवन करते हैं। एक बड़ा अंतर यह भी है कि टीकों में एल्युमिनियम अघुलनशील लवणों के रूप में होता है जबकि खानपान में प्राय: घुलनशील लवण पाए जाते हैं। लिहाज़ा, टीकों के एल्युमिनियम का शरीर में अवशोषण अपेक्षाकृत कम होता है।

जंतुओं पर किए गए कुछ प्रयोगों में पता चला है कि 0.85 ग्राम एल्युमिनियम देने पर सीरम में एल्युमिनियम की मात्रा 2 माइक्रोग्राम प्रति लीटर रही जो सामान्य स्तर से महज 7 प्रतिशत थी। इस प्रयोग में यह भी देखा गया था कि मस्तिष्क में एल्युमिनियम की मात्रा (brain aluminum levels) कितनी रही। देखा गया कि मस्तिष्क में एल्युमिनियम 0.0001 माइक्रोग्राम प्रति ग्राम बढ़ा जो मस्तिष्क में एल्युमिनियम के सामान्य औसत (0.2 माइक्रोग्राम प्रति ग्राम) से 2000 गुना कम है। यह संभव है कि गुर्दों की दिक्कत से पीड़ित लोगों में यह स्तर ज़्यादा होता होगा। वैसे तंत्रिका-क्षति तथा उससे जुड़े रोगों के एल्युमिनियम से सम्बंध को लेकर कोई ठोस प्रमाण भी नहीं हैं।

कुछ समय से टीकों को लेकर एक और शंका जताई जा रही है। कहा गया है कि टीके प्रतिरक्षा तंत्र को स्वयं अपनी शरीर की कोशिकाओं के विरुद्ध सक्रिय कर सकते हैं। हालांकि यह भी सामने आया है कि ऐसी प्रतिक्रिया कतिपय अन्य कारकों (जैसे किसी संक्रामक इकाई) की उपस्थिति की वजह से होती है और उस कारक को हटाने पर वह प्रतिक्रिया भी समाप्त हो जाती है।

निष्कर्ष के तौर पर, एल्युमिनियम एडजुवेंट को लेकर जो सवाल उठ रहे हैं, उनका कोई वैज्ञानिक या ऐतिहासिक आधार नहीं है। दरअसल, टीकों ने और टीकों में जोड़े गए एडजुवेंट्स ने हमें कई रोगों से बचाया है। एडजुवेंट जोड़ने से एंटीजन की कम मात्रा इंजेक्ट करना होती है और वे दीर्घावधि सुरक्षा प्रदान करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीव-जंतुओं में सुरक्षा के जुगाड़

जीवजगत में तमाम किस्म के सम्बंध पाए जाते हैं। सारे जंतु परपोषी (heterotrophic organisms) होते हैं यानी वे अपने भोजन के लिए किसी अन्य पर निर्भर रहते हैं। अधिकांश जंतु तो वनस्पतियों को खाते हैं (शाकाहारी) लेकिन कई जीव दूसरों का भक्षण करते हैं (मांसाहारी- carnivores), कुछ जंतु दूसरे जंतुओं से भोजन चुराते हैं लेकिन उन्हें मारते नहीं (परजीवी), जबकि कई जीव किसी अन्य जीव के साथ परस्पर फायदे का सम्बंध बना लेते हैं (symbiosis)।

लंबे समय से कीट सूक्ष्मजीवों (microorganisms) पर निर्भर रहे हैं। जैसे एम्ब्रोसिया गुबरैले (ambrosia beetles) पेड़ों में बिल बनाते समय साथ में फफूंद भी जमा कर लेते हैं, जो उन्हें भोजन मुहैया कराती हैं। कुछ गुबरैले अपने अंडों और इल्लियों को मकड़ियों से बचाने के लिए उन पर घातक बैक्टीरिया (bacteria) का लेप कर देते हैं। और अब इसी क्रम में एक और उदाहरण खोजा गया है।

स्टिंकबग (बदबूदार कीड़ा – stink bug) अपने अंडों पर फफूंद (protective fungus) का एक आवरण चढ़ा देता है जो उस अंडे में पनपते भ्रूण को परजीवी ततैया (parasitic wasp) से सुरक्षा प्रदान करता है।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस्ड इंडस्ट्रियल साइन्स एंड टेक्नॉलॉजी (National Institute of Advanced Industrial Science and Technology) के टेकेमा फुकात्सु (Takema Fukatsu) कई वर्षों से कीटों में सहजीविता का अध्ययन कर रहे हैं। उन्हें खास तौर से स्टिंकबग की प्रजाति मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न (Megymenum gracilicorne) ने आकर्षित किया था। वैसे फुकात्सु के अध्ययन का मकसद इस कीट और फफूंद के सम्बंधों को समझना नहीं था। वे तो संयोगवश यहां तक पहुंच गए।

इसी से सम्बंधित अन्य कीटों के समान मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न की पिछली टांगों का एक हिस्सा काफी फूला हुआ होता है। ऐसा माना जाता था कि यह रचना कान के पर्दे (टिम्पेनल झिल्ली – tympanal membrane) के समान है और कई तरह के कीटों में पाई जाती है। लेकिन फुकात्सु को इस बात पर हैरानी हुई कि यह रचना सिर्फ मादा कीट (female insect) में पाई जाती है। आम तौर पर ऐसी श्रवण संरचनाएं (hearing structures) दोनों लिंगों में पाई जाती हैं।

तब फुकुत्सा का संपर्क एक सेवानिवृत्त स्टिंकबग विशेषज्ञ (stink bug expert) शुजी ताचीकावा (Shuji Tachikawa) से हुआ। ताचीकावा ने अपने अध्ययनों में देखा था मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न की मादा की टांगों पर एक सफेद पदार्थ पाया जाता है और यह पदार्थ उनके अंडों पर भी पुता होता है।

जब फुकात्सु और उनके साथियों ने एक नदी के किनारे खीरे की बेल से मेजिमेनम ग्रेसिलिकोर्न के नमूने एकत्रित किए तो उन्होंने भी देखा कि लैंगिक रूप से परिपक्व मादाओं पर ऐसे रेशे चिपके हुए थे। यह पट्टी चावल के दाने से भी छोटी थी और इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी (electron microscope) से देखने पर पता चला कि इसकी सतह कान के पर्दे के समान चिकनी नहीं बल्कि खुरदरी है और उस पर महीन छिद्र थे जिनमें से फफूंद पनप रही थी। सावधानीपूर्वक विच्छेदन करने पर दिखा कि हरेक छिद्र में एक ग्रंथि है जिसमें से तरल रिस रहा है।

इसी दौरान कीट के एक विचित्र व्यवहार (insect behavior) ने शोधकर्ताओं का ध्यान खींचा। अंडे देते समय मादा हरेक टांग पर उग रही फफूंद को कुरेद रही थी। इसके बाद मादा ने प्रत्येक नवीन अंडे को रगड़ा। यह देखा गया कि इसके बाद हरेक अंडे पर फफूंद फैल गई। तीन दिनों के अंदर फफूंद ने अंडों पर 2-2 मिलीमीटर मोटी परत बना डाली। ज़ाहिर था कि फफूंद की परत अंडे से कहीं अधिक वज़नी थी।

प्रयोगशाला (laboratory experiment) में देखा गया कि मादा स्टिंकबग अपने नखरों से अपनी पिछली टांगों पर बनी फफूंद की पट्टी को छूती है और फिर उसे अंडों पर पोत देती है।

देखा जाए तो अंडों पर फफूंद का उगना अच्छी बात नहीं है। लेकिन डीएनए अनुक्रमण (DNA sequencing) से पता चला कि वहां उपस्थित सारी फफूंदें कीट के लिए लाभदायक (beneficial microbes) हैं। तो सवाल उठा कि क्या यह फफूंद आवरण उस ततैया (Trissolcus brevinotaulus) को अंडों से दूर रखने काम करेगी जो स्टिंकबग के अंडों के अंदर अपने अंडे देती है। यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में तैयार की गई पांच ततैया मादाओं (wasp females) को एक चेम्बर में रख दिया। इस चेम्बर में स्टिंकबग के करीब 20 अंडे रखे गए थे। इनमें से आधे अंडों पर फफूंद का आवरण था जबकि शेष आधे अंडों पर से फफूंद को पोंछकर हटा दिया गया था।

यानी फफूंद का आवरण स्टिंकबग के अंडों को सुरक्षा (egg protection) प्रदान करता है। लेकिन एक आश्चर्यजनक बात सामने आई है। शोधकर्ताओं को फफूंद आवरण में किसी रासायनिक सुरक्षा (जैसे कोई बैक्टीरिया वगैरह) (chemical defense)  के संकेत नहीं मिले। दूसरा, शोधकर्ताओं का विचार है कि संभवत: फफूंद को उस ग्रंथि के स्राव से कुछ पोषण (nutrient secretion) मिलता है।

आगे और प्रयोगों में पता चला कि जब फफूंद आवरण वाले अंडे फूटते हैं, तो उनमें से निकलने वाले शिशु स्टिंकबग थोडी फफूंद साथ लेकर जाते हैं (fungal transfer) लेकिन निर्मोचन के बाद वे उसे झड़ा देते हैं। यानी वयस्क होने पर अगली पीढ़ी को यह फफूंद फिर से हासिल करनी होगी। तो एक सवाल जिस पर फुकुत्सा काम करने जा रहे हैं, वह यही है कि हर मादा स्टिंकबग दोस्ताना फफूंद (symbiotic fungi) का चयन कैसे करती है। (स्रोत फीचर्स)

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शाकनाशी के असर सम्बंधी एक शोध पत्र रद्द किया गया 

शाकनाशक ग्लायफोसेट (glyphosate) के स्वास्थ्य पर असर को लेकर एक शोध पत्र 2000 में रेग्यूलेटरी टॉक्सिकोलॉजी एंड फार्मेकोलॉजी (Regulatory Toxicology and Pharmacology) नामक जर्नल में प्रकाशित हुआ था। हाल ही में जर्नल ने इस शोध पत्र को निरस्त यानी रीट्रेक्ट (paper retraction) करने का निर्णय लिया है। निरस्त करने का कारण इस शोध पत्र के साथ जुड़े गंभीर नैतिक सरोकारों और इसके निष्कर्षों की वैधता के प्रति संदेहों को बताया गया है।

इस शोध पत्र में कहा गया था कि कीटनाशक ग्लायफोसेट (जिसे राउंड-अप के नाम से बेचा जाता है) मानव स्वास्थ्य पर कोई प्रतिकूल असर नहीं डालता है।   

दरअसल, पूरा मामला तब शुरू हुआ था जब कुछ लोगों ने मॉनसेंटो के खिलाफ मुकदमा (Monsanto lawsuit) दायर किया कि उन्हें जो कैंसर (नॉन-हाजकिन्स लिम्फोमा – non-Hodgkin lymphoma) हुआ है वह ग्लायफोसेट की वजह से हुआ है। इस मुकदमे के दौरान यह उजागर हुआ था कि 2015 में इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर की रिपोर्ट (IARC report)  में यह निष्कर्ष दिया गया था कि संभवत: ग्लायफोसेट एक कैंसरकारी पदार्थ है। यह प्रमाण मुकदमे की सुनवाई के दौरान प्रस्तुत किया जा सकता था।

मॉनसेंटो इस प्रमाण को गलत साबित करने में जुट गई। सुनवाई के दौरान सामने आया कि कंपनी ने कुछ शोधकर्ताओं से संपर्क किया था कि वे एक समीक्षा पर्चे (review paper) में यह कहें कि ग्लायफोसेट का ऐसा कोई असर नहीं होता है। कंपनी अधिकारियों के आंतरिक ईमेल वार्तालाप (internal emails) से यह साज़िश उजागर हो गई।

शोध पत्र को निरस्त करते हुए जर्नल ने कहा है कि उपरोक्त शोध पत्र के लेखकों ने मात्र उन्हीं अध्ययनों को समीक्षा में शामिल किया था जो मॉनसेंटो द्वारा किए गए थे और अप्रकाशित (unpublished studies) थे। लेखकों ने कई सारे बाहरी प्रकाशित अध्ययनों को अनदेखा कर दिया था, हालांकि वे भी समकक्ष समीक्षा (पीयर रिव्यू – peer review) आधारित जर्नल्स में प्रकाशित नहीं हुए थे।

उपरोक्त शोध पत्र के तीन लेखकों में से दो (रॉबर्ट क्रोस और इयान मनरो) का निधन हो चुका है। जर्नल ने शोध पत्र निरस्त करने से पहले तीसरे लेखक गैरी विलियम्स (Gary Williams) से संपर्क किया मगर उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।

समीक्षा पर्चे के निरस्त होने के बाद मॉनसेंटो के खिलाफ मुकदमा लड़ रहे फरियादियों (plaintiffs) की राह की एक बाधा दूर हो गई है। इस समीक्षा पर्चे के आधार पर मॉनसेंटो दावा कर रहा था कि वैज्ञानिक अध्ययन ग्लायफोसेट को हानिरहित प्रमाणित करते हैं। वैसे मॉनसेंटो (अब बायर (Bayer acquisition) के स्वामित्व में) ने एक बयान में कहा है कि इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर की रिपोर्ट मात्र एक रिपोर्ट है और दुनिया भर की नियामक संस्थाएं सहमत हैं कि ग्लायफोसेट का उपयोग निरापद है और यह कैंसरकारी नहीं है।

अब इतना तो स्पष्ट है कि इस समीक्षा पर्चे को कहीं भी उद्धरित (citation ban) नहीं किया जा सकेगा और इसके हवाले से ग्लायफोसेट को हानिरहित नहीं बताया जा सकेगा। लेकिन अभी भी यूएस पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (US EPA) और युरोपियन केमिकल्स एजेंसी (European Chemicals Agency) ने अपना निर्णय बदला नहीं है। दूसरी ओर, मॉनसेंटो के प्रभाव में लिखे गए कुछ अन्य शोध पत्रों (industry-funded research) पर भी अब सवाल उठने लगे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलवायु, सूक्ष्मजीवों की याददाश्त और कृषि

डॉ. इरफान ह्यूमन

पृथ्वी पर जीवन सबसे पहले सूक्ष्मजीव (microorganisms) के रूप में प्रकट हुआ था। ये मिट्टी, पानी, हवा, मानव शरीर, गर्म झरनों से लेकर गहरे समुद्र तक हर जगह पाए जाते हैं। हाल ही में अमेरिका के कैंसास और नॉटिंघम विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं का एक अध्ययन नेचर माइक्रोबायोलॉजी जर्नल (Nature Microbiology) में प्रकाशित हुआ है, जो दिखाता है कि सूखी मिट्टी, देशी पौधों को 20-30 प्रतिशत बेहतर अनुकूलन देती है। इस अध्ययन का दूसरा पहलू, सूक्ष्मजीवों का तनाव, उनके याद रखने की क्षमता से जुड़ा हुआ है।

जैसा कि हम जानते हैं, जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण सूखे की घटनाएं बढ़ रही हैं, जो पौधों और फसलों की वृद्धि को बुरी तरह प्रभावित करती हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि मिट्टी में मौजूद सूक्ष्मजीव (जैसे बैक्टीरिया और कवक) (soil microbes) पिछले पर्यावरणीय तनावों को ‘याद’ रख सकते हैं, और पौधों को भविष्य के सूखों से लड़ने में मदद कर सकते हैं। इसे ‘सूक्ष्मजीवी स्मृति’ या विरासत प्रभाव (लेगसी इफेक्ट) कहते हैं।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने कैंसास के छह घास के मैदानों (प्रेयरी) से मिट्टी (prairie soils) के नमूने लिए। नमूना स्थल पूर्वी कैंसास (पर्याप्त वर्षा) से लेकर पश्चिमी हाई प्लेन्स (सूखा) तक फैले हुए थे। विभिन्न वर्षा इतिहास वाली इन सूक्ष्मजीवी मिट्टियों में दो प्रकार के पौधे उगाए गए – देशी पौधे गैमाग्रास, जो कैंसास की देशज घास है और गैर-देशी फसल मक्का, जो मध्य अमेरिका से आया है और कैंसास में केवल कुछ हज़ार वर्ष पुराना है। इन सूक्ष्मजीवी समुदायों को प्रयोगशाला में दो स्थितियों में रखा गया – एक में पर्याप्त पानी और दूसरे में सीमित पानी। प्रयोग के बाद पता चला कि इससे सूक्ष्मजीवों में सूखे की यादें विकसित हुईं। वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया कि ये यादें (microbial memory) हज़ारों पीढ़ियों के बाद भी बनी रह सकती हैं।

कैसे संजोते हैं यादें

इस अध्ययन के निष्कर्ष में पाया गया कि सूखा इतिहास वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव पौधों को सूखे के दौरान बेहतर वृद्धि और उत्तरजीविता प्रदान करते हैं। ये यादें समुदाय की संरचना और जीन अभिव्यक्ति (gene expression) में बदलाव के रूप में प्रकट होती हैं। सूखे वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव पौधों में निकोटियानामाइन सिंथेज़ जीन को सक्रिय करते हैं, जो सूखे में लौह की कमी को दूर करता है। इससे पौधे अधिक मज़बूत हो जाते हैं। सामान्य पानी वाली मिट्टी के सूक्ष्मजीव यह लाभ नहीं देते।

अध्ययन में देशी पौधे (जैसे गैमाग्रास) (native plants) में सूक्ष्मजीवी विरासत प्रभाव बहुत मज़बूत पाया गया। ये पौधे स्थानीय सूक्ष्मजीवों के साथ लंबे समय से सह-विकास के कारण बेहतर अनुकूलित होते हैं। सूखे इतिहास वाले सूक्ष्मजीव इनकी वृद्धि को 20-30 प्रतिशत तक बढ़ा सकते हैं। वहीं मक्का जैसे गैर-देशी पौधों में प्रभाव कमज़ोर रहा। मक्का सूखे में उतना लाभ नहीं उठा पाता, क्योंकि यह स्थानीय सूक्ष्मजीवों से कम जुड़ा हुआ है। इससे पता चलता है कि बाहरी फसलें जलवायु तनाव में कम अनुकूलित होती हैं। यह अध्ययन दिखाता है कि मिट्टी के सूक्ष्मजीव जलवायु परिवर्तन के प्रति पौधों की स्मृति का काम करते हैं। इससे पारिस्थितिकी तंत्र अधिक लचीले बन सकते हैं; कार्बन संग्रहण और पोषण चक्रण बेहतर होगा। यह अध्ययन पर्यावरणीय स्मृति के महत्व को रेखांकित करता है और दर्शाता है कि प्रकृति खुद को कैसे अनुकूलित करती है (plant-microbe interaction)।

खोज का वैज्ञानिक इतिहास

सूक्ष्मजीवों में पारिस्थितिक स्मृति की वैज्ञानिक खोजबीन का इतिहास नया नहीं है। इसकी शुरुआती बुनियाद पादप उत्तराधिकार और भूमि उपयोग विरासत के रूप में रखी गई थी। 1916 में फ्रेडरिक क्लेमेंट्स ने पादप उत्तराधिकार (प्लांट सक्सेशन) (plant succession) का सिद्धांत प्रस्तुत किया, जो बताता है कि अतीत के वनस्पति समुदाय भविष्य की संरचना को प्रभावित करते हैं। यह विरासत प्रभाव की मूल अवधारणा का आधार बना, हालांकि इसमें सूक्ष्मजीव पहलू अनुपस्थित था। 1980-90 में भूमि उपयोग परिवर्तनों के लंबे प्रभावों पर फोकस रहा। 1997 में, जॉन अबर और सहयोगियों ने वन पारिस्थितिक तंत्रों में नाइट्रोजन संतृप्ति के मॉडल विकसित किए, जो कृषि या कटाई जैसी प्रथाओं के सदियों तक चलने वाले प्रभाव दिखाते थे। लेगसी इफेक्ट शब्द 1990 के दशक में पादप उत्तराधिकार और आक्रामक प्रजातियों (ecosystem legacy effects) के अध्ययनों से प्रचलित हुआ था।

1998-2003 में पारिस्थितिक स्मृति का औपचारिक आगाज़ हुआ। जे. के. हार्डिंग ने 1998 में अतीत के विक्षोभों को स्मृति के रूप में वर्णित किया, जो पारिस्थितिक लचीलापन बढ़ाती है। 2003 में, जे. बेंग्टसन और ड्रू फोस्टर ने इसे वैश्विक परिवर्तन के संदर्भ में विस्तारित किया – अतीत के तनाव वर्तमान प्रतिक्रियाओं को प्रभावित करते हैं।

2005 में मृदा संपीड़न के प्रभावों पर अध्ययन (बैसेट एवं साथियों) ने दिखाया कि अतीत के भूमि उपयोग से जड़ विकास बाधित होता है, जो मिट्टी की स्मृति को दर्शाता है। इसी वर्ष, डेन्समोर ने नाइट्रोजन स्थिरीकरण के माध्यम से मिट्टी विरासत को पादप-वृद्धि से जोड़ा। 2008 में पादप-मृदा फीडबैक (plant–soil feedback) पर महत्वपूर्ण खोज हुई। जैकबिया वल्गेरिस के अध्ययन में प्रजातियों के बीच नकारात्मक फीडबैक दिखे – अतीत के पौधे सूक्ष्मजीव समुदाय को बदलते हैं, जो उत्तराधिकार को प्रभावित करते हैं।

2009-2010 में पूरा ध्यान सूक्ष्मजीवी विरासत पर रहा। जापानी बरबेरी के आक्रामक प्रभावों ने मृदा की सूक्ष्मजीवी संरचना और एंज़ाइम गतिविधियों में स्थायी बदलाव दिखाए। 2010 में, जंगलों की अंडरस्टोरी वनस्पति के प्रयोग से पता चला कि अतीत की सूक्ष्मजीवी संरचना वनस्पति और पोषक चक्रण को निर्धारित करती है।

2011-2020 के काल को सूक्ष्मजीवी स्मृति का उदय माना जाता है। 2011 में पी. कडोल और सहयोगियों ने भूमि उपयोग विरासतों को जैव विविधता से जोड़ा, जो सूक्ष्मजीवी स्मृति की दिशा में एक कदम था। 2014 में सूखे पर प्रारंभिक सूक्ष्मजीवी अध्ययन हुए। एस. ई. इवांस ने बैक्टीरियल नमी निशे का वर्णन किया, जो समुदाय में दीर्घकालिक परिवर्तनों की भविष्यवाणी करता है। एल. फुच्स्लूगर ने दिखाया कि सूखा होने पर पौधे मृदा सूक्ष्मजीवों तक कम कार्बन पहुंचाते हैं, जो समुदाय की संरचना को बदलता है। 2017 के अध्ययनों में कुल और सक्रिय मृदा सूक्ष्मजीवी समुदायों की सूखे के प्रति संवेदनशीलता (soil drought response) दिखाई दी। वहीं, 2020 में सूखे से सूक्ष्मजीवी जीन अभिव्यक्ति और मेटाबोलाइट उत्पादन में बदलाव दिखा, जो स्मृति निर्माण के आणविक आधार को इंगित करता है।

2021 में नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित एक लैंडमार्क अध्ययन से ज्ञात हुआ कि बार-बार सूखे से सूक्ष्मजीवी समुदायों में विविधता बढ़ी, जो मिट्टी बहुकार्यता को मज़बूत करती है। इससे साबित होता है कि सूखे की स्मृति पारिस्थितिक प्रक्रियाओं को संशोधित करती है। 2022 में सूखे के सूक्ष्मजीवी लक्षण वितरण पर प्रभाव अध्ययन ने एक लक्षण-आधारित फ्रेमवर्क प्रदान किया। सूखा धीमी-वृद्धि वाले सूक्ष्मजीवों को चुनता है। 2023 में अल्पाइन घासभूमियों की सूखी मिट्टी में सूक्ष्मजीव वृद्धि के एक अध्ययन से भविष्य की जलवायु परिस्थितियों में सूक्ष्मजीवों की प्रतिक्रिया का अनुमान मिला। 2025 में कैंसास प्रेयरी पर किया गया अध्ययन वर्षा विरासत प्रभावों को पौधे की जीन अभिव्यक्ति से जोड़ता है।

समग्र विकास और महत्व की बात की जाए तो 1990 से 2010 के दौरान यह क्षेत्र सामान्य पारिस्थितिकी से सूक्ष्मजीव-केंद्रित खोजों तक विकसित हुआ। जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में, ये खोजें बताती हैं कि स्मृति पारिस्थितिक लचीलापन बढ़ाती है, लेकिन गहन तनाव से हम इसे खो सकते हैं।

सूक्ष्मजैविक कृषि उद्योग

किसानों के लिए अच्छी खबर है कि अब सूखा-सहिष्णु सूक्ष्मजीवों (microbial biofertilizer) को व्यावसायिक रूप से विकसित किया जा सकता है। जैसे, गैमाग्रास के जीन मक्का में डाले जा सकते हैं ताकि फसलें सूखे में बेहतर उगें। सूक्ष्मजैविक कृषि उद्योग (जो जैव उर्वरकों, कीटनाशकों और मिट्टी सुधारकों का उत्पादन करता है) में यह स्मृति एक क्रांतिकारी तत्व है। यह उद्योग टिकाऊ कृषि को बढ़ावा देगा।

स्मृति वाले सूक्ष्मजीव समुदाय फसल उपज और पोषण दक्षता बढ़ाते हैं। जैसे, चावल उत्पादन में सूक्ष्मजीव-आधारित एकीकृत पोषक प्रबंधन से मृदा स्वास्थ्य संरक्षित होता है। सूखे जैसे वैश्विक परिवर्तनों के प्रति सूक्ष्मजीवों की चयनात्मक प्रतिक्रियाएं पौधों की रक्षा करती हैं। यही नहीं, गोबर प्रबंधन से मृदा सूक्ष्मजीव संसार का प्रबंधन करके कृषि उत्सर्जन कम किया जा सकता है।

भविष्य की चुनौतियां

शोधकर्ता चेतावनी देते हैं कि सूक्ष्मजीवों की स्मृति लाभदायक होने के बावजूद, जलवायु परिवर्तन की अनियमितताएं (जैसे अचानक वर्षा) (extreme rainfall) नई समस्याएं पैदा कर सकती हैं। यह दृष्टिकोण पारिस्थितिकी, आनुवंशिकी और कृषि को एकीकृत करके एक बहु-विषयी सोच प्रदान करता है। जैसे, सूखे के बाद अचानक भारी वर्षा सूक्ष्मजीवों के लिए शॉक की तरह काम करती है। सूखे में सूक्ष्मजीव निष्क्रिय हो जाते हैं और ऊर्जा संरक्षित रखते हैं। लेकिन अचानक पानी आने पर उनकी गतिविधि तेज़ी से बढ़ जाती है, जिससे मिट्टी से कार्बन डाईऑक्साइड का विस्फोटक उत्सर्जन होता है। यह मिट्टी के कार्बन स्टॉक को 10-20 प्रतिशत तक कम कर सकता है। इससे जीवाणु और कवक की कोशिकाएं फट सकती हैं। अध्ययन में पाया गया कि सूखा-स्मृति वाली मिट्टी में यह तनाव अधिक गंभीर होता है, क्योंकि सूक्ष्मजीव अनुकूलित हो चुके होते हैं लेकिन अचानक बदलाव के लिए तैयार नहीं। इससे पौधों की जड़ें जल-जमाव के चलते ऑक्सीजन की कमी का सामना कर सकती हैं, जो वृद्धि रोकता है। जलवायु मॉडल्स के अनुसार, 2050 तक अनियमित वर्षा 30 प्रतिशत बढ़ सकती है। तब मृदा-स्मृति का लाभ उल्टा पड़ सकता है, कार्बन संग्रहण घटेगा और ग्रीनहाउस गैसें बढ़ेंगी।

इस दिशा में संतुलित जल प्रबंधन (water management) की आवश्यकता पर बल दिया जा रहा है। सूक्ष्मजीवों की स्मृति को बनाए रखने के लिए धीमी और नियंत्रित जल आपूर्ति ज़रूरी है। इससे सूक्ष्मजीवों को अनुकूलन का समय मिलता है, और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन 40 प्रतिशत तक कम हो सकता है। इससे मिट्टी की बहुकार्यता को संरक्षित रखा जा सकता है।

हमारे देश में किसानों को प्रशिक्षण और सस्ती तकनीक की आज भी कमी है। विकासशील देशों में, जहां 60 प्रतिशत कृषि वर्षा-निर्भर है, जल प्रबंधन नीतियों का अभाव एक बड़ा जोखिम है। शोधकर्ता सुझाते हैं कि कृत्रिम-बुद्धि आधारित मौसम पूर्वानुमान से स्मार्ट इरिगेशन (smart irrigation) अपनाने की ज़रूरत है।

स्मृति को व्यावसायिक रूप से स्थिर रखना (भंडारण और क्षेत्र अनुकूलन) मुश्किल है। 2025 में, क्रिस्पर (CRISPR) जैसी तकनीकों से सुपर सूक्ष्मजीव विकसित हो रहे हैं, जो स्मृति को बढ़ाकर टिकाऊ कृषि को नया आयाम देंगे। जैविक खेती के बढ़ते चलन में यह उद्योग किसानों की आय बढ़ा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मौन कैदी ‘क्षामेन्क’ और हमारी नैतिकता की परीक्षा

कुमार सिद्धार्थ

र्जेंटीना के तट पर स्थित एक छोटा-सा समुद्री पार्क आज संसार के सबसे गूंगे श्रुति-स्थलों में से एक बन चुका है। पार्क के कॉन्क्रीट के टैंक में लहरों की आवाज़ें नहीं, बल्कि एक स्थिर सन्नाटा पसरा है। उस सन्नाटे का नाम है क्षामेन्क। यह एक नर ओर्का व्हेल (समुद्री व्याघ्र मछली) (orca captivity) है, जो पिछले तैंतीस वर्षों से कैद में है और बीस वर्षों से पूरी तरह अकेला है। यह दक्षिण अमेरिका में सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए रखा हुआ है।

टैंक का आकार क्षामेन्क के शरीर के हिसाब से बहुत छोटा है – एक निर्जीव अंडाकार कटघरा, जिसमें धूप से चमकता कॉन्क्रीट और क्लोरीनयुक्त पानी है। घंटों तक क्षामेन्क बिल्कुल निष्क्रिय तैरता रहता है। वहां लहरें नहीं, वहां जीवन नहीं, वहां सिर्फ प्रतीक्षा है। उसकी कहानी आज सिर्फ एक जीव की नहीं, बल्कि उन अनगिनत समुद्री प्रजातियों की कहानी है जिन्हें हमारी तमाशा देखने की भूख ने समुद्र से काट दिया है(marine animal captivity)।

व्हेल, डॉल्फिन और ओर्का जैसी प्रजातियां पृथ्वी के सबसे जटिल, सबसे सामाजिक और सबसे बुद्धिमान जीवों में गिनी जाती हैं। जंगल में नहीं, समुद्र की अनंत गहराई में ये प्रजातियां मातृवंशीय समूहों में रहती हैं, ध्वनि-भाषा सीखती हैं, शोक मनाती हैं, सहयोग करती हैं। रोज़ाना सौ किलोमीटर से अधिक दूरी तय करना इनके लिए सहज है। किंतु जब इन्हें समूह से अलग कर कैद में रखा जाता है, तो यह केवल बंदीकरण नहीं, बल्कि उनका संवेदनात्मक ध्वंस है(animal welfare issues)।

आंकड़ों के अनुसार, ओर्का की वैश्विक आबादी अनुमानित पचास हज़ार है। कुछ स्थानों पर यह संख्या और अधिक बताई गई है, किंतु निरंतर गिरावट की आशंका (orca population decline) भी जताई गई है। उदाहरण के लिए, अंटार्कटिक सागर के दक्षिणी भाग में लगभग 25 हज़ार ओर्का हो सकते हैं।

इन विशाल और बुद्धिमान जीवों के लिए समुद्र-आश्रय उपयुक्त था लेकिन मानव गतिविधियों ने उन्हें उनके प्राकृतिक घर से बेदखल कर दिया।

क्षामेन्क की ही तरह, ये जीव न केवल प्राकृतिक घर से बेदखल हो रहे हैं, बल्कि उनका जीवन भी मानव मनोरंजन के लिए नुमाया किया जा रहा है। पार्कों में बताया जाता है कि ये व्हेल-डॉल्फिन हमारी पृथ्वी के राजदूत हैं, प्रकृति और मनुष्य के बीच सेतु हैं। परंतु हर टिकट, हर शो उस संदेश के विपरीत सिद्ध हो रहा है। यह मात्र दर्शनीय-मनोरंजन बन जाता है और उस मनोरंजन के पीछे पसरी है एक भय, विषाद और उपेक्षा से भरी कहानी(marine theme parks impact)।

भारत ने इस संदर्भ में एक साहसिक कदम उठाया है। वर्ष 2013 में भारत सरकार ने डॉल्फिनों को ‘गैर-मानव व्यक्ति’ का दर्जा दिया था(non-human person dolphins)। यह दुनिया में ऐसा पहला कदम था, जिसने यह माना कि अत्यधिक बुद्धिमान और संवेदनशील प्रजातियों को मनोरंजन-उद्देश्य से कैद में रखना न केवल अनैतिक है, बल्कि समय की मांग के अनुरूप नहीं है। इसके बाद भारत ने डॉल्फिन शो व मनोरंजन-उद्देश्य से प्रदर्शन पर प्रतिबंध लगा दिया। भारत की गंगा-डॉल्फिन का संरक्षण भी इसी दृष्टिकोण का उदाहरण है, जहां नदी का सफाई अभियान और जलीय परितंत्र का पुनरुद्धार करते हुए इन जीवों की भूमिका ध्यान में रखी गई है(river dolphin conservation)।

शायद यही बदलाव संसार के लिए संकेत है कि मनोरंजन के नाम पर वन्यजीवों को कैद में रखना अब विवेचना का विषय बन गया है। फ्रांस ने डॉल्फिन शो बंद कर दिए हैं; कनाडा ने मनोरंजन-उद्देश्य के लिए व्हेलों व डॉल्फिनों का प्रजनन व आयात बंद कर दिया है; अमेरिका में कुछ समुद्री पार्कों ने अपने गेट बंद कर दिए हैं। परंतु क्षामेन्क जब तक उस टैंक में तैरता रहेगा, हमारा सवाल अनुत्तरित रहेगा कि क्या हमने वास्तव में उसकी आज़ादी की ओर कदम उठाया है (end captivity movement)।

मण्डो मरीनो नामक उस पार्क का तर्क है कि क्षामेन्क को 1992 में किनारे पर फंसे होने से बचाया गया था और वह अब प्राकृतवास में जीवित नहीं रह पाएगा। हालांकि यह तर्क भावनात्मक दिखता है, पर न्याय-विचार के तहत यह उचित नहीं कि जीवनभर का कारावास ही एकमात्र विकल्प हो। ठीक यही विचार विश्व स्तर पर फैल रहा है। अब ‘कैद बंद करो’ और ‘प्राकृतिक आश्रय दो’ की आवाज़ें तेज़ हो रही हैं (marine sanctuary concept)।

उदाहरण के रूप में, उत्तर अटलांटिक क्षेत्र में ‘व्हेल सेंक्चुरी प्रोजेक्ट’ नामक पहल ने कैद से लाई गई व्हेलों के लिए समर्पित प्राकृतिक ठंडे पानी का संरक्षण-स्थल स्थापित करने की तैयारी शुरू की है। गहरे समुद्री जल, खुले समुद्री प्रवाह और पेशेवर देखभाल, यह वहां का आधार होगा जहां ये जीव नियंत्रण से करुणा की ओर बढ़ेंगे।

समुद्री पार्कों का स्वरूप आज मनोरंजन और संरक्षण के बीच बहुत धुंधला गया है। वे कहते हैं कि यह शोध है, पुनर्वास है, शिक्षा है। लेकिन उनकी आमदनी प्रदर्शन और तमाशे पर टिकी है। परिणामस्वरूप, हमारी नैतिकता को धोखा दिया जा रहा है।

और हम पूछते हैं, जब कोई बच्चा उस ऐक्रेलिक शीशे को छूकर अंदर तैरते व्हेल को देखता है, तो क्या उसे यह संदेश नहीं मिलता कि वर्चस्व और आनंद के नाम पर किसी जीव की स्वतंत्रता छीनी जा सकती है? क्षामेन्क की कहानी अब असाधारण नहीं रही। यह एक आईना है जो दिखाता है कि हम क्या जानते हैं, किन्ही नियमों में बंधे हुए हैं, किन बातों को स्वीकार कर लेते हैं।

वैज्ञानिक शोध स्पष्ट कर चुके हैं व्हेल-डॉल्फिन जैसी प्रजातियों को सामाजिक समूह, गहरी समुद्री गतियां, सुनने-सुनाने का तरीका, संवाद की भाषा प्राप्त है। प्राकृतिक परिस्थितियों में उनका जीवन अलग हैै। कैद में इनके लिए वह जीवन मजबूरी-सा हो जाता है। हमने कानूनी ढांचा तो बना लिया है, उदाहरण मौजूद हैं, लेकिन अब वक्त है कार्रवाई करने का।

क्षामेन्क बहुत लंबे समय से अकेला है। हमें यह तय करना होगा कि अगली सुर्खियां उसके बारे में क्या होंगी। क्या यह अंत की खबर होगी “एक ओर्का की मृत्यु” या यह घोषणा होगी “कैद से मुक्ति, स्वाभाविक जीवन की ओर पहला कदम”? हमें स्वीकार करना होगा कि करुणा कमज़ोरी नहीं, बल्कि सभ्यता की सच्ची पहचान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उम्र के साथ मस्तिष्क में परिवर्तन

इंसानी मस्तिष्क उम्र के साथ लगातार बदलता (human brain aging) है। बचपन से बुढ़ापे तक हमारी सीखने, याद रखने, सोचने और अनुकूलन की क्षमता कई बार बदलती है। एक बड़े अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क की आंतरिक ‘वायरिंग’ (brain connectivity) के विकास के चार प्रमुख पड़ाव होते हैं, जो लगभग 9, 32, 66 और 83 साल की उम्र के आसपास दिखाई देते हैं। शायद इसी वजह से बचपन में सीखना आसान लगता है, युवाओं की सोच तेज़ होती है, और उम्र बढ़ने के साथ याददाश्त और मानसिक क्षमता घटने लगती है।

इस शोध में यूके और अमेरिका के करीब 3800 लोगों (सभी गोरे और किसी तंत्रिका क्षति से रहित) के एमआरआई स्कैन का विश्लेषण (MRI brain study) किया गया – इनमें नवजात शिशु से लेकर 90 वर्ष तक के लोग शामिल थे। पहले के अध्ययनों में माना जाता था कि शरीर में उम्र बढ़ने के बड़े बदलाव 40, 60 और 80 की उम्र पर दिखते हैं, लेकिन मस्तिष्क की जटिलता के चलते इन परिवर्तनों को समझना मुश्किल है। मस्तिष्क में मूलत: दो भाग होते हैं – व्हाइट मैटर और ग्रे मैटर (white matter, grey matter)। व्हाइट मैटर मुख्य रूप से तंत्रिकाओं से बना होता है जिनसे लंबे-लंबे तंतु निकलते हैं। इन तंतुओं को एक्सॉन कहते हैं। ग्रे मैटर के अलग-अलग हिस्से व्हाइट मैटर के इन्हीं एक्सॉन के ज़रिए जुड़े होते हैं। एक्सॉन ऐसे तंतु हैं जो सूचना को एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र तक पहुंचाते हैं। ये तंतु जितने लंबे, घने या मज़बूत होते हैं, उतना ही मस्तिष्क के हिस्से एक-दूसरे से बेहतर संवाद कर पाते हैं।

चरण 1: जन्म से 9 वर्ष – कई सारे नए कनेक्शन, लेकिन कम क्षमता

बचपन में मस्तिष्क के व्हाइट मैटर के एक्सॉन लंबे और उलझे हुए होते हैं, जिससे सूचना का प्रवाह धीमा और कम प्रभावी हो जाता है। लगता है कि मस्तिष्क धीरे-धीरे उन तंत्रिकाओं की छंटनी कर देता है जो उपयोगी नहीं हैं जबकि कुछ तंत्रिकाओं को प्राथमिकता देता है जो भाषा, गति, तर्क, और नई क्षमताएं सीखने (child brain development) में मददगार होती हैं।

चरण 2: 9 से 32 वर्ष तेज़ी, छंटाई, और सोचने की चरम क्षमता

लगभग 9 साल की उम्र के बाद स्थिति बदलने लगती है। किशोरावस्था और हार्मोनल बदलावों के प्रभाव से मस्तिष्क अपने नेटवर्क को व्यवस्थित करता है। गैर-ज़रूरी कनेक्शन हटने लगते हैं, और ज़रूरी कनेक्शन छोटे व तेज़ बन जाते हैं। इसी समय योजना बनाने, फैसले लेने, याद रखने और भावनाओं को संभालने जैसी क्षमताएं मज़बूत होती हैं। इस अवधि में संज्ञान क्षमता अपने चरम (cognitive peak performance) पर होती है।

चरण 3: 32 से 66 वर्ष – क्षमताओं में धीरे-धीरे गिरावट

30 से लेकर 60 की उम्र में बदलाव जारी तो रहता है, लेकिन बहुत धीमी गति से। कुल मिलाकर, अलग-अलग हिस्सों के बीच जानकारी पहुंचाने की क्षमता थोड़ी कम होने लगती है – यानी दिमाग के दूरस्थ हिस्सों के बीच संदेश पहुंचने में थोड़ा ज़्यादा समय लगता है। वैज्ञानिक अभी ठीक-ठीक नहीं जानते कि ऐसा क्यों होता है, लेकिन इसका कारण उम्र बढ़ना, लगातार तनाव, या जीवन की जिम्मेदारियां जैसे बच्चे, नौकरी का दबाव या कम नींद हो सकते हैं (brain aging slowdown)।

चरण 4: 66 से 83 वर्ष – पास के कनेक्शन मज़बूत, दूर के कनेक्शन कमज़ोर

66 वर्ष के बाद दिमाग में एक नया पैटर्न दिखाई देता है। किसी एक हिस्से के भीतर के कनेक्शन तो ठीक रहते हैं, लेकिन दूर-दराज़ के हिस्सों के बीच के कनेक्शन कमज़ोर होने लगते हैं। यही समय स्मृतिभ्रंश (डिमेंशिया- dementia risk) के बढ़ते जोखिम से भी जुड़ा होता है। इससे संकेत मिलता है कि लंबी दूरी के कनेक्शनों की कमज़ोरी बुज़ुर्गों में शुरुआती मानसिक गिरावट में भूमिका निभा सकती है।

चरण 5: 83 से 90 वर्ष – मस्तिष्क का कुछ केंद्रों पर निर्भर होना

इस अंतिम चरण में मस्तिष्क की वायरिंग और कमज़ोर हो जाती है। पहले जहां कई हिस्से सीधे-सीधे जुड़कर जानकारी भेजते थे, वहीं अब मस्तिष्क जानकारी को कुछ चुनिंदा और महत्वपूर्ण केंद्रों के ज़रिए भेजता है। यह इस बात को दिखाता है कि उम्र बढ़ने पर दिमाग के पास संसाधन कम हो जाते हैं और वह बची हुई क्षमता के साथ काम चलाने की कोशिश करता है (brain decline in old age)।

इन मुख्य पड़ावों को समझना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इससे पता चलता है कि मानसिक स्वास्थ्य की कई समस्याएं 25 साल से पहले क्यों उभरती हैं, और 65 के बाद डिमेंशिया का खतरा क्यों तेज़ी से बढ़ता है। साथ ही, यह जानकारी वैज्ञानिकों को ऐसी स्थितियों – जैसे शिज़ोफ्रेनिया, ऑटिज़्म या अल्ज़ाइमर (Alzheimer’s disease) – में असामान्य दिमागी पैटर्न जल्दी पकड़ने में मदद कर सकती है। अलबत्ता, शोधकर्ता मानते हैं कि इन निष्कर्षों को दुनिया भर पर लागू करने से पहले अलग-अलग,  विविध आबादियों के अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नाभिकीय रसायन शास्त्री डारलीन हॉफमैन का निधन

डारलीन हॉफमैन (1926–2025)

डारलीन हॉफमैन एक नाभिकीय रसायन शास्त्री (nuclear chemist) थीं जिनके कार्य ने तत्वों की आवर्त सारणी को विस्तार दिया और सबसे भारी तत्वों और परमाणु विखंडन (heavy elements research) की हमारी समझ को आगे बढ़ाया। 4 दिसंबर 2025 के दिन 92 वर्ष की आयु में उनका निधन हो गया।

पहले माना जाता था कि युरेनियम (परमाणु भार 238) प्रकृति में पाया जाने वाली सबसे भारी तत्व है। उन सारे तत्वों को रसायन शास्त्री ट्रांसयुरेनियम तत्व (trans uranium elements) कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या युरेनियम (92) से अधिक हो। ये सभी अत्यंत अस्थिर होते हैं और रेडियोसक्रिय होते हैं। लेकिन हॉफमैन द्वारा प्लूटोनियम (परमाणु भार 244, परमाणु संख्या 94) की खोज ने इस धारणा को बदल डाला। इसके अलावा उनके शोध कार्य से हमें नाभिकीय विखंडन को समझने में मदद मिली, कैंसर के उपचार में तरक्की हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि उनके शोध की बदौलत परमाणु कचरा प्रबंधन (nuclear waste management) के बेहतर प्रोटोकॉल विकसित हुए।

उनकी सबसे महत्वपूर्ण उपलब्धि यह मानी जाती है कि उन्होंने परमाणु संख्या 106 वाले तत्व (जिसे आगे चलकर सीबोर्गीयम कहा गया) की खोज (seaborgium discovery) को सत्यापित किया था। 

1951 में नाभिकीय रसायन शास्त्र में डॉक्टरेट की उपाधि हासिल करने के बाद 1971 में हॉफमैन ने कैलिफोर्निया की माउंटेन पास खदान से प्राप्त चट्टानों के नमूने के विश्लेषण के दौरान प्लूटोनियम-244 की खोज की थी। इससे पहले वैज्ञानिकों का मत था कि युरेनियम से भारी तत्वों का संश्लेषण तेज़ रफ्तार कणों की टक्कर से कृत्रिम रूप से ही करना होता है (synthetic elements)।

आगे बढ़कर हॉफमैन ने फर्मियम-257 (परमाणु संख्या 100) खोजा और यह भी दर्शाया कि इस तत्व को बराबर भार के खंडों में तोड़ा जा सकता है। उस समय यह एक अनपेक्षित परिणाम था क्योंकि विखंडन से एक बड़ा और एक छोटा टुकड़ा ही बनता है। उनकी इस खोज ने नाभिकीय विखंडन (nuclear fission) को लेकर हमारी सोच को काफी प्रभावित किया था।

नाभिकीय रसायन शास्त्र में अपने अहम योगदान के अलावा, हॉफमैन विज्ञान में महिलाओं (women in science) की भागीदारी की सशक्त प्रवक्ता भी थीं। (स्रोत फीचर्स)    

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चर्बी की कोशिकाओं से हड्डी का निर्माण

डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर होना एक गंभीर स्थिति होती है (spinal fracture) जिससे ज़ख्मी व्यक्ति में पीठ में तीव्र दर्द, मांसपेशियों में जकड़न, पीठ का झुकना या टेढ़ा होना और अत्यंत गंभीर मामलों में मूत्र और मल नियंत्रण खो देना और निचले शरीर का लकवाग्रस्त होना भी देखा गया है। मरीज़ का उपचार इस बात पर निर्भर करता है कि चोट कितनी गंभीर है और मेरु-रज्जु (स्पाइनल कॉर्ड) क्षतिग्रस्त (spinal cord injury) हुई है या नहीं। साधारण चोट को तो लंबे उपचार के बाद ठीक किया जा सकता है लेकिन पूरी तरह कट गई या नष्ट हो गई मेरु-रज्जु को पुन: ठीक करना फिलहाल संभव नहीं है।

इस संदर्भ में हाल ही में ओसाका मेट्रोपोलिटन युनिवर्सिटी के शोधार्थियों ने शरीर के वसा ऊतक (एडिपोज़ ऊतक) से निकाली गई स्टेम कोशिकाओं का इस्तेमाल करके स्पाइनल फ्रैक्चर को ठीक करने का एक नया और असरदार तरीका विकसित किया है (stem cell therapy)। इंसानों में अस्थिछिद्रता (ऑस्टियोपोरोसिस) से होने वाले फ्रैक्चर (osteoporosis fracture) जैसी स्थिति जब चूहों में दोहराई गई तो एडिपोज़ ऊतक उपचार के बाद रीढ़ की हड्डी और नसें सफलतापूर्वक ठीक होती देखी गई। ऐसा उपचार बुज़ुर्गों में ऑस्टियोपोरोसिस की देखभाल और हड्डियों के पुन:निर्माण में क्रांति ला सकता है।

अस्थिछिद्रता 

यह हड्डियों की एक बहुत आम लेकिन गंभीर बीमारी है, जो वृद्धों में, खासकर महिलाओं में अधिक पाई जाती है। इस रोग में हड्डियों में मौजूद कैल्शियम और खनिज कम हो जाते हैं जिससे हड्डियां धीरे-धीरे कमज़ोर और खोखली (bone density loss) हो जाती हैं, एवं पतली और नाज़ुक होकर आसानी से टूट जाती हैं। वृद्धों की आबादी बढ़ने के साथ अस्थिछिद्रता की वजह से होने वाले फ्रैक्चर, रीढ़ की हड्डी के फ्रैक्चर के मामलों (osteoporosis treatment) में भी वृद्धि दिखती है। इन चोटों से लंबे समय तक विकलांगता हो सकती है और जीवन की गुणवत्ता बहुत कम हो सकती है; इसलिए सुरक्षित और ज़्यादा असरदार इलाज की ज़रूरत है।

मेसेनकाइमल स्टेम कोशिकाएं

स्टेम कोशिकाएं ऐसी कोशिकाएं होती हैं, जो शरीर में किसी भी प्रकार की विशेष कोशिका (जैसे हड्डी, मांसपेशी, तंत्रिका, रक्त आदि) में बदलने की क्षमता (regenerative medicine) रखती है। मेसेनकाइमल स्टेम कोशिकाएं हड्डी, मांसपेशी, उपास्थि, और रक्तवाहिनी जैसी कई कोशिकाओं में बदलने की क्षमता रखती हैं। इन्हें शरीर की चर्बी से प्राप्त किया जाता है। इनका सबसे बड़ा लाभ यह है कि इन्हें काफी संख्या में आसानी से प्राप्त किया जा सकता है और प्रत्यारोपण के बाद शरीर इन्हें अस्वीकार भी नहीं करता।

हड्डी की मरम्मत

वसा ऊतक से मिलने वाली स्टेम कोशिकाओं में हड्डी की क्षति को ठीक करने की ज़बरदस्त क्षमता (bone regeneration) होती है। ये बहुसक्षम कोशिकाएं हड्डी समेत कई तरह के ऊतकों में बदल सकती हैं। सर्वप्रथम शरीर के किसी हिस्से (जैसे पेट या जांघ) से चर्बी निकाली जाती है। फिर चर्बी में से स्टेम कोशिकाओं को अलग किया जाता है और प्रयोगशाला में संख्या वृद्धि की जाती है। अब इन स्टेम कोशिकाओं को क्षतिग्रस्त हड्डी में इंजेक्ट किया जाता है, या एक ढांचे के साथ लगाया जाता है। ये कोशिकाएं हड्डी जैसी कोशिकाओं में बदलकर नई हड्डी का निर्माण करती हैं।

टोकियो के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ मेडिसिन के विद्यार्थी यूटा सवाडा और डॉ. शिंजी ताकाहाशी के नेतृत्व में, ओसाका रिसर्च टीम ने एडिपोज़ टिश्यू से प्राप्त स्टेम कोशिकाओं को β-ट्राइकैल्शियम फॉस्फेट (β-TCP biomaterial) के साथ मिलाया, जो हड्डी के पुनर्निर्माण में आम तौर पर इस्तेमाल होने वाला पदार्थ है। जब इस मिश्रण को रीढ़ की हड्डी में फ्रैक्चर-ग्रस्त चूहों पर लगाया गया, तो हड्डी के ठीक होने और मज़बूती में काफी सुधार हुआ (spinal repair improvement)। इन स्टेम कोशिकाओं के साथ कुछ विशिष्ट प्रक्रियाएं करने पर उनकी प्रभाविता बढ़ गई। जैसे, जब इन कोशिकाओं की वृद्धि द्वारा गोलाकार संरचना (स्फेरॉइड) बनाई गई तो उनकी मरम्मत की क्षमता बेहतर रही।

चर्बी की कोशिकाओं से हड्डी का निर्माण सुरक्षित, सस्ता और अत्यधिक संभावनाओं वाला तरीका है (adipose stem cells)। भविष्य में यह फ्रैक्चर, अस्थिछिद्रता, हड्डी क्षति, और स्पाइनल इंजरी के उपचार में क्रांतिकारी बदलाव ला सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बहुउपयोगी गन्ना

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में ओलिवियर गार्समूर और उनके साथियों ने सेल पत्रिका में एक शोधपत्र प्रकाशित किया है। इसका शीर्षक है ‘जंगली गन्ना प्रजातियों के जीनोमिक चिन्ह गन्ने को पालतू बनाने, उसके विविधिकरण और उसकी आधुनिक खेती के बारे में बताते हैं (The genomic footprints of wild Saccharum species trace domestication, diversification, and modern breeding of sugarcane)’। इस शोध में ऑस्ट्रेलिया, ब्राज़ील, चीन, फ्रांस, फ्रेंच पोलिनेशिया, भारत, जापान और यू.एस. की गन्ने की 390 किस्मों का जीनोमिक विश्लेषण किया गया।

ये पौधे कई तरह के जीन्स के संकर (हाइब्रिड) थे, जिनमें कई क्रोमोसोम एकाधिक (पॉलीप्लॉइडी) थे। ऐसी पॉलीप्लॉइड (polyploid crops) किस्में मनुष्यों द्वारा व्यावसायिक निर्यात की वजह से बनीं। मनुष्य गन्नों को देश के अलग-अलग राज्यों से लेकर अफगानिस्तान, श्रीलंका और इंडोनेशिया जैसे देशों में निर्यात करते और बेचते थे।

उन्होंने यह भी बताया कि एक ओर तो गन्ना एक मुनाफे की फसल है, जिसका इस्तेमाल इसकी मिठास के कारण किया जाता है। दूसरी ओर, इसका इस्तेमाल बायोएथेनॉल बनाने (bioethanol production) के लिए भी किया जाता है, जिसे निजी, सार्वजनिक और व्यावसायिक वाहनों के जीवाश्म ईंधन के एक स्वच्छ विकल्प के तौर पर बनाया जाता है।

भारत में गन्ना

भारत में गन्ने की पैदावार बहुत ज़्यादा होती है, खासकर 13 राज्यों में। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, कर्नाटक, तमिलनाडु और गुजरात 2018-19 से 2023-24 तक गन्ने के शीर्ष पांच उत्पादक राज्य रहे। 2024-2025 में करीब 4400 लाख टन गन्ने का उत्पादन (India sugarcane production) हुआ था।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद ने भी देश भर में कई शुगर रिसर्च इंस्टीट्यूट बनाए हैं जो गन्ने की किस्मों और पैदावार को बेहतर बनाने (sugarcane breeding) के लिए पारंपरिक वानस्पतिक तरीकों और आणविक जीव विज्ञान के तरीकों का इस्तेमाल करते हैं। इनमें से तमिलनाडु के कोयंबटूर में स्थित सबसे पुराने शुगरकेन ब्रीडिंग इंस्टीट्यूट ने गन्नों में जेनेटिक विविधता देखने के लिए भारत भर के चार अलग-अलग मूल के गन्नों का आणविक जेनेटिक विश्लेषण किया था। 2006 में किए गए इस विश्लेषण के नतीजे जेनेटिक रिसोर्सेज़ एंड क्रॉप इवॉल्यूशन जर्नल में प्रकाशित हुए थे।

शुरुआत में वर्णित गार्समूर के शोध में विश्लेषण के लिए पश्चिमी देशों और चीन के गन्नों के नमूने लिए गए थे। वहीं कोयंबटूर के शोधकर्ताओं ने अरुणाचल प्रदेश, ओडिशा और तमिलनाडु के नमूनों का विश्लेषण किया। जेनेटिक विश्लेषण में शोधकर्ताओं ने पाया कि अरुणाचल प्रदेश में गन्ने की किस्मों में सबसे अधिक विविधता थी (genetic diversity crops)।

2018 में, 3 बायोटेक में प्रकाशित एक पेपर में लखनऊ स्थित भारतीय गन्ना अनुसंधान संस्थान के वैज्ञानिकों ने देश के उपोष्णकटिबंधीय हिस्सों की गन्ने की 92 किस्मों की जेनेटिक विविधता और आबादी की संरचना का भी विश्लेषण किया (molecular markers) । इसके नतीजे भी भारत में कई तरह के गन्ने की प्रचुरता की ओर इशारा करते हैं।

चीन, भारत और पाकिस्तान में पारंपरिक औषधि (traditional medicine) बनाने वाले भी अपनी चिकित्सा में गन्ने का इस्तेमाल करते रहे हैं। इस संदर्भ में हाल ही में चीन के शोधकर्ताओं द्वारा एक समीक्षपत्र प्रकाशित किया गया है, जिसका शीर्षक है ‘गन्ने का रासायनिक संगठन और जैविक गतिविधियां: संभावित औषधीय महत्व एवं निर्वहनीय विकास’, (The chemical composition and biological activities of sugarcane: Potential medicinal value and sustainable development)। यह पेपर बताता है कि पारंपरिक चीनी औषधियों के स्रोत टिकाऊ विकास के मामले में गंभीर समस्याओं से जूझ रहे हैं, ये स्रोत घट रहे हैं। और, यह समस्या प्राकृतिक पर्यावरण में हो रहे बदलावों और मनुष्यों द्वारा की जा रही अनियंत्रित कटाई से और बढ़ रही है।

इसलिए, पारंपरिक चीनी औषधियों के स्रोतों के रखरखाव और विकास के लिए उन स्रोतों का अध्ययन करना बहुत ज़रूरी है जिनमें औषधीय महत्व और कृषि क्षमता है, साथ ही उनके नए इस्तेमाल खोजना भी ज़रूरी है। अपनी समीक्षा में, लेखकों ने गन्ने के रासायनिक संगठन और इसकी संभावित जैवगतिविधियों पर चर्चा की है, चिकित्सा में इसके उपयोग को समझा है, और भविष्य के शोध की संभावित दिशा बताई है।

गार्समूर और उनके साथियों ने भी बताया है, गन्ने का इस्तेमाल बायोएथेनॉल बनाने के लिए भी किया जाता है (green fuel), जो कार और बस जैसी सवारी गाड़ियों के साथ-साथ ट्रकों के डीज़ल या पेट्रोल का एक हरित विकल्प है। भारत ने भी बायोएथेनॉल बनाने के लिए गन्ने के अपशिष्ट, चावल और गेहूं का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। पेट्रोलियम एंड नेचुरल गैस मंत्रालय ने असम में बायोएथेनॉल बनाना शुरू कर दिया है। कुल मिलाकर, हम गन्ने पर आधारित एक हरित भारत की उम्मीद करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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