हाइड्रोजन: भविष्य का स्वच्छ ईंधन – डॉ. रुचिका मिश्रा

र्तमान समय की सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है पर्यावरण को बचाते हुए ऊर्जा की अपूरणीय मांग को पूरा करना, जो कि मानव जाति के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक अर्थव्यवस्था पेट्रोलियम, कोयला, गैस आदि जैसे जीवाश्म ईंधनों पर बहुत अधिक निर्भर है, लेकिन ये तेज़ी से चुक रहे हैं। स्पष्ट है कि ये संसाधन हमेशा उपलब्ध नहीं रहने वाले, और ये हमारे ग्रह को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। इससे सभी देशों में एक गंभीर बहस छिड़ गई है कि पर्यावरण दिन-ब-दिन बदहाल हो रहा है और पृथ्वी धीरे-धीरे भावी पीढ़ी के लिए अनुपयुक्त होती जा रही है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए हमें ऊर्जा संकट से उबरना होगा, और इसके लिए नए एवं बेहतर ऊर्जा स्रोतों की खोज करना अत्यंत आवश्यक है। हाल के दिनों में, शोधकर्ताओं का ध्यान ऊर्जा के एक स्वच्छ और टिकाऊ नवीकरणीय स्रोत विकसित करने पर केंद्रित हुआ है। इस सम्बंध में, हाइड्रोजन एक संभावित उम्मीदवार की तरह उभरी है जो स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा प्रदान करके बढ़ती जलवायु चुनौतियों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। देखें तो यह विचार क्रिन्यावित करने में बहुत सरल और आसान-सा लगता है। लेकिन, एक सुस्थापित जीवाश्म ईंधन आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था से हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था में तबदीली इतना सीधा-सहज मामला नहीं है। इसके लिए समग्र रूप से वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों और समाज के बीच सहज और निर्बाध सहयोग की दरकार है। साथ ही ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिनसे हाइड्रोजन का व्यावसायीकरण करने से पहले निपटना होगा। इसलिए, यह समझना ज़रूरी है कि यह नई ‘रामबाण दवा’ किस तरह हमारी समस्याओं को हल करने का दावा करती है और आगे के मार्ग में किस तरह की चुनौतियां हैं। आगे बढ़ने से पहले, हाइड्रोजन के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं।

हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है, जो द्रव्यमान के हिसाब से सभी सामान्य पदार्थों का 74 प्रतिशत है। तात्विक हाइड्रोजन गैसीय H2 के रूप में हो सकती है, और यह गैर-विषाक्त एवं निहायत हल्की होती है। ब्रह्मांड का सबसे प्रचुर तत्व होने के बावजूद मुक्त हाइड्रोजन गैस पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत दुर्लभ है क्योंकि यह अत्यधिक क्रियाशील होती है और हल्की होने के कारण आसानी से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से निकल जाती है। इसलिए, हम वायुमंडल से सीधे हाइड्रोजन प्राप्त करने के बारे में नहीं सोच सकते। फिर, इसका सबसे आम स्रोत पानी है जो सभी जीवित प्राणियों में भी मौजूद है। दूसरे शब्दों में कहें तो, हाइड्रोजन हम सभी में मौजूद है!

कई वैज्ञानिकों एवं समृद्धजनों ने हाइड्रोजन को कार्बन आधारित ईंधन के आकर्षक और आशाजनक विकल्प के रूप में सुझाया है। यह सुझाव निम्नलिखित तथ्यों से उपजा है:

  1. हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है।
  2. हाइड्रोजन से चलने वाले ईंधन सेल बिजली, ऊष्मा और पानी का उत्पादन करते हैं एवं बहुत ही कम कार्बन फुटप्रिंट छोड़ते हैं।
  3. आणविक हाइड्रोजन के ऑक्सीजन के साथ दहन से ऊष्मा उत्पन्न होती है और इसका एकमात्र उपोत्पाद पानी होता है। दूसरी ओर, जीवाश्म ईंधन का दहन कई हानिकारक प्रदूषक और भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करता है।
  4. उल्लेखनीय है कि कई वाहन निर्माता कंपनियों ने यह दर्शाया है कि हाइड्रोजन का उपयोग सीधे अंत:दहन इंजन में किया जा सकता है। इसलिए, परिवहन उद्योग अब वाहनों के लिए हाइड्रोजन आधारित ईंधन में भारी निवेश कर रहे हैं।

अलबत्ता, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसा पहली बार नहीं है जब हाइड्रोजन को ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। किसी ज़माने में, ‘टाउन गैस’ नामक मिश्रण का महत्वपूर्ण घटक हाइड्रोजन थी, इसका उपयोग खाना पकाने और घरों एवं सड़कों को रोशन करने के ईंधन के रूप में व्यापक तौर पर किया जाता था। बाद में, टाउन गैस की जगह तेज़ी से प्राकृतिक गैस और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों ने ले ली। विद्युत के आने से टाउन गैस का महत्व और भी कम हो गया। कहा गया कि बिजली स्वच्छ ऊर्जा है।

समस्याएं

क्रांतिकारी ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का महत्व काफी बढ़ा दिया गया है, और यह माना जा रहा है कि यह जल्द ही पेट्रोलियम जैसे पारंपरिक ईंधन की जगह ले लेगी और दुनिया की ऊर्जा एवं पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं का समाधान करेगी। दुर्भाग्य से, हमें यह मानना होगा कि इसे साकार करना इतना आसान नहीं है। हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था स्थापित करने की तीन मुख्य चुनौतियां हैं: हाइड्रोजन का स्वच्छ उत्पादन, कुशल और रिसाव रोधी भंडारण और सुरक्षित परिवहन।

स्वच्छ उत्पादन

जैसा कि पहले बताया गया है, पृथ्वी पर तात्विक हाइड्रोजन बहुत अधिक मात्रा में मौजूद नहीं है। इसे पानी से प्राप्त करना आसान नहीं है, और महंगा भी है। बेशक ऐसा लगता है हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन की भूमिका निभा सकता है, लेकिन वास्तव में यह ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत नहीं बल्कि ऊर्जा का वाहक है। इसका उत्पादन कुछ अन्य स्रोतों से करना होगा और उसके बाद ही इसकी रासायनिक ऊर्जा का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए किया जा सकेगा। वर्तमान में, अधिकांश हाइड्रोजन का उत्पादन जीवाश्म ईंधनों से ही होता है, जो परोक्ष रूप से कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाता है। अगर हम मौजूदा मांग को देखें, मसलन सिर्फ परिवहन के लिए ही देखें, तो इसकी आपूर्ति के लिए बहुत अधिक मात्रा में हाइड्रोजन की आवश्यकता होगी। और हाइड्रोजन उत्पादन के मौजूदा संसाधनों से इस मांग की आपूर्ति करना बेहद मुश्किल है। इसलिए, यदि हम हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था पर आना चाहते हैं तो हमें हाइड्रोजन उत्पादन के लिए अधिक टिकाऊ, गैर-प्रदूषणकारी और कम लागत वाली विधियों की दरकार है। इस संदर्भ में स्वच्छ ऊर्जा के इस स्रोत के उत्पादन के लिए कार्यक्षम सामग्री व विधियां विकसित करने के कई प्रयास किए जा रहे हैं।

सुरक्षित भंडारण

दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है हाइड्रोजन के लिए सुरक्षित भंडारण व्यवस्था बनाना ताकि औद्योगिक, घरेलू और परिवहन के लिए पर्याप्त ईंधन उपलब्ध हो सके। गौरतलब है कि समान मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए आयतन के हिसाब से गैसोलीन की तुलना में हाइड्रोजन 3000 गुना अधिक लगती है, यानी आयतन के हिसाब से इसका ऊर्जा घनत्व कमतर है। इसका मतलब है कि इसका उपयोग करने के लिए इसके भंडारण हेतु विशाल टैंकों की आवश्यकता होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम समझ सकते हैं कि हाइड्रोजन टैंक कारों जैसे छोटे वाहनों के लिए मुनासिब नहीं हो सकते हैं, और इन छोटे वाहनों की कॉम्पैक्ट डिज़ाइन में टैंकों को फिट करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा, हाइड्रोजन की एक खासियत यह है कि वह कई धातुओं में से रिस जाती है। इसलिए धातु-आधारित मौजूदा ईंधन तंत्रों (टैंक, पाइप, चैम्बर वगैरह) को ठीक से इन्सुलेट करना होगा। उचित प्रौद्योगिकी के बिना हाइड्रोजन का भंडारण हाइड्रोजन रिसाव का कारण बन सकता है, जिससे न केवल ईंधन ज़ाया होगा बल्कि सुरक्षा सम्बंधी गंभीर खतरे भी पैदा हो सकते हैं क्योंकि हाइड्रोजन अत्यधिक ज्वलनशील और विस्फोटक गैस है। कुल मिलाकर, वाहनों के लिए हाइड्रोजन का भंडारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैसे, भंडारण को लेकर कई प्रस्ताव हैं ताकि उसका ऊर्जा घनत्व बढ़ाया जा सके – चाहे गैस के रूप में या अन्य तत्वों के साथ जोड़कर।

सुरक्षित परिवहन

भंडारण की तरह ही हाइड्रोजन का परिवहन भी तकनीकी रूप से पेचीदा है, और इसके भंडारण के विभिन्न चरणों में हाइड्रोजन के प्रबंधन की अपनी अलग-अलग सुरक्षा चुनौतियां हैं। वर्तमान में, हाइड्रोजन की आपूर्ति मुख्यत: स्टील सिलेंडर में संपीड़ित गैस, या टैंक में तरल हाइड्रोजन के रूप में की जाती है। इस तरह से आपूर्ति करना किफायती नहीं है, और यह अंतिम उपयोगकर्ताओं की जेब पर भारी पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वह दिन अभी दूर है जब हम अपनी कारों में पेट्रोल-डीज़ल की तरह हाइड्रोजन भरवा सकेंगे। जब तक हाइड्रोजन के सुरक्षित और निरंतर परिवहन के लिए उचित बुनियादी ढांचा नहीं बनेगा, तब तक हाइड्रोजन से चलने वाले वाहन आम आदमी को लुभा नहीं पाएंगे। अलबत्ता, यदि भंडारण का मुद्दा सुलझ गया, तो परिवहन सम्बंधी समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो सकेंगी।

स्वच्छ भविष्य का वरदान यानी हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में उपयोग करने के फायदे और चुनौतियां हमने इस लेख में देखीं। लेकिन, आदर्श बदलाव लाने के लिए विभिन्न हितधारकों का समन्वित प्रयास आवश्यक है। लोगों के बीच हाइड्रोजन के फायदों को प्रचारित कर इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है, और एक व्यापक वर्ग से भागीदारी का आग्रह किया जा सकता है।

कई देशों ने वास्तव में इन समस्याओं पर काम करना शुरू कर दिया है। सरकारों, उद्योग व शिक्षा जगत को एकजुट होकर काम करना होगा ताकि इस कठिन परिस्थिति का उपयोग स्वच्छ एवं हरित हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था पर स्थानांतरित होने के अवसर के रूप में हो सके। हाइड्रोजन में पूरे ऊर्जा क्षेत्र में क्रांति लाने की ताकत है, लेकिन इसकी कई वैज्ञानिक और तकनीकी बाधाओं को दूर करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समतापमंडल से पानी हटाकर गर्मी से राहत

ब भी जलवायु परिवर्तन की बात होती है, चर्चाओं का केंद्र कार्बन डाईऑक्साइड और मीथेन होते हैं। लेकिन जलवाष्प भी एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस है जो जलवायु पर गंभीर प्रभाव डालती है। जलवाष्प कई वर्षों तक समताप मंडल में बनी रहती है और धरातल की गर्मी को अवशोषित कर इसे वापस धरती पर फेंकती है। एक अध्ययन में पाया गया था कि 1990 के दशक में संभवत: समतापमंडलीय पानी में आई उछाल ने उस समय वैश्विक तापमान को 30 प्रतिशत तक बढ़ा दिया था। और साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार वैज्ञानिक इन दिनों जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए जलवाष्प आधारित एक क्रांतिकारी रणनीति पर काम कर रहे हैं – समताप मंडल का निर्जलीकरण।

समतापमंडल के निर्जलीकरण का सिद्धांत यह है कि नमी से भरी हवा को समतापमंडल में पहुंचने से पहले ही रोक लिया जाए और उसे कणों के आसपास बादलों का रूप दे दिया जाए। नेशनल ओशियनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के भौतिक विज्ञानी शुका श्वार्ज़ के नेतृत्व में इस रणनीति ने पारंपरिक जियोइंजीनियरिंग विधियों का एक विकल्प प्रदान किया है। इस तकनीक में प्रति सप्ताह केवल 2 किलोग्राम पदार्थ की आवश्यकता होती है, जो संसाधन-कुशल साबित  होगा। इसके अलावा, बिस्मथ ट्रायआयोडाइड नामक इस पदार्थ के छिड़काव के लिए हवाई जहाज़ की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; गुब्बारे या ड्रोन से इसका छिड़काव किया जा सकता है।

इस तकनीक का उपयोग करने के लिए कुछ ऐसे विशिष्ट क्षेत्रों की पहचान की गई है जहां से ऊपर की ओर उठने वाली हवाओं की तेज़ धाराएं समताप मंडल तक पहुंचती हैं। जैसे पश्चिमी भूमध्यरेखीय प्रशांत महासागर का क्षेत्र।

अलबत्ता, इस तकनीक में कई चुनौतियां और जोखिम भी हैं। एक संभावना अनपेक्षित परिणाम है; यदि सीडिंग कण के कारण बादल वांछित जगह पर न बनकर अन्यत्र कहीं एवं अलग तरह के बादल बन जाना जो गर्मी को परावर्तित करने की बजाय धरती से निकलने वाली गर्मी को सोखने लगें। ऐसे में इस तकनीक की व्यवहार्यता का आकलन करने के लिए गहन शोध आवश्यक है।

बहरहाल, नीति निर्माताओं और शोधकर्ताओं के बीच अपरंपरागत रणनीतियों के लिए खुलापन बढ़ रहा है। ताप-रोधी बादलों की जांच जैसी पहल जलवायु सम्बंधी बदलती सोच की द्योतक है। हालांकि, इस मुद्दे पर अभी भी चर्चाएं जारी है और अनिश्चितताएं बनी हुई हैं। फिर भी यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए साहसिक और कल्पनाशील रणनीतियां आवश्यक हैं। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आप सूंघकर बीमारी पता कर सकते हैं

सूंघने की शक्ति कई खतरों को टालने में मदद करती है; जैसे हम खराब खाना खाने से बचने के लिए उसे सूंघकर देखते हैं या हम गैस रिसने या कुछ जलने जैसी गंध के प्रति सचेत रहते हैं। तो क्या हम सूंघकर बीमारी की आहट नहीं भांप सकते?

वैज्ञानिकों का कहना है कि दुरुस्त घ्राण इंद्रियों वाला कोई भी व्यक्ति किसी ‘बीमारी की गंध’ पहचान सकता है। वैज्ञानिकों ने देखा है कि कई बीमारियों की अपनी एक विशेष गंध होती है, जिसे पहचान कर आप बता सकते हैं कि कोई व्यक्ति उस बीमारी से पीड़ित है या नहीं। जैसे डायबिटीज़ के रोगी के मूत्र से सड़े हुए सेब जैसी गंध आती है, टायफाइड के कारण शरीर की गंध ब्रेड जैसी हो सकती है, यहां तक कि पीत-ज्वर के कारण आपका शरीर कसाई की दुकान (कच्चे मांस) की तरह गंध मार सकता है।

दरअसल, हमारा शरीर हवा में लगातार वाष्पशील रासायनिक पदार्थ छोड़ता रहता है, जो हमारी सांस और त्वचा के सूक्ष्म छिद्रों द्वारा बाहर निकलते रहते हैं। इनकी अपनी एक विशिष्ट गंध हो सकती है। हमारे चयापचय तंत्र में उम्र, आहार, या किसी बीमारी के कारण आए बदलाव के कारण बाहर निकलने वाले वाष्पशील अणु बदल सकते हैं, जिसके चलते गंध भी अलग हो सकती है। फिर, हमारी आंत और त्वचा पर रहने वाले सूक्ष्मजीव भी चयापचय उप-उत्पादों के विघटन से विभिन्न गंधयुक्त अणु पैदा कर सकते हैं।

कुल मिलाकर हमारा शरीर गंध का एक कारखाना है। और यदि हम गंधों पर ध्यान दें, अपनी घ्राण शक्ति का भरपूर उपयोग करें और उसे प्रशिक्षित करें तो संभवत: हम बीमारियों की गंध पहचान पाएंगे।

कुछ समय पहले ऐसा ही एक मामला सामने आया था, जिसमें पता चला था कि एक महिला पार्किंसन रोग की गंध सूंघ सकती है। गौरतलब है कि समय रहते पार्किंसन का पता करना बेहद मुश्किल है, और जब तक इस बीमारी के लक्षण सामने आते हैं और इसकी पुष्टि हो पाती है तब तक काफी देर हो चुकी होती है। दरअसल, इस महिला के पति को पार्किंसन से ग्रसित पाया गया था। लेकिन पति में पार्किंसन का पता चलने के छह साल पहले से ही इस महिला को अपने पति में से कुछ अजीब सी गंध आने लगी थी – यह गंध थोड़ी लकड़ी, थोड़ी कस्तूरी जैसी थी। बाद में महिला जब पार्किंसन के रोगियों से भरे वार्ड में गई तो उन्हें अहसास हुआ कि ऐसी गंध सिर्फ उनके पति से ही नहीं, बल्कि सभी पार्किंसन रोगियों से आती है।

उनकी इस क्षमता को परखा गया। इसके लिए उन्हें छह पार्किंसन-पीड़ित और छह स्वस्थ लोगों की टी-शर्ट सुंघाई गई, और उन्हें पार्किंसन रोगियों की टी-शर्ट पहचानना था। उन्होंने छह के छह पार्किंसन पीड़ितों की टी-शर्ट की सही पहचान की, लेकिन उन्होंने कंट्रोल (यानी स्वस्थ व्यक्तियों वाले) समूह में से भी एक व्यक्ति को पार्किसन पीड़ित बताया।

तब तो यह लगा था कि उन्होंने पहचानने में गड़बड़ी की है, लेकिन आठ महीने बाद वास्तव में उस व्यक्ति को पार्किंसन से पीड़ित पाया गया।

लेकिन इस तरह की विशिष्ट क्षमता वाले किसी व्यक्ति को हमेशा बीमारी की पहचान के लिए बुलाना कहां तक संभव है? साथ ही यह भी समस्या है कि गंध की अदला-बदली भी हो सकती है: एक-दूसरे के कपड़े पहनने से, खचाखच भरी बस या ट्रेन में चिपक-चिपक कर बैठे हुए लोगों से।

इनमें से कुछ चुनौतियों से निपटने के लिए मैनचेस्टर इंस्टीट्यूट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी की एनालिटिकल केमिस्ट पर्डिटा बैरेन की टीम ने यह पहचानने का प्रयास किया है कि पार्किंसन की गंध के लिए कौन से अणु ज़िम्मेदार हैं। उन्हें ऐसे तीन अणु (आईकोसेन, हिपुरिक एसिड और ऑक्टाडेकेनल) मिले जो पार्किंसन पीड़ितों में अधिक होते हैं और एक अणु (पेरिलिक एल्डिहाइड) ऐसा मिला जो उनमें कम होता है। इन अणुओं के मिश्रण से उन्होंने पार्किंसन की विशिष्ट गंध बनाई। इसकी मदद से उन्होंने एक ऐसा परीक्षण बनाया जो गंध से लोगों में पार्किंसन की पहचान कर सके। प्रयोगशाला जांच में उनका यह परीक्षण 95 प्रतिशत सटीक रहा। अब वे इसे लोगों के उपयोग लायक बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं।

लेकिन हमने जहां से बात शुरू की थी वापिस उसी पर आते हैं कि क्या हम जैसे साधारण लोग सूंघकर बीमारी पहचान सकते हैं? अध्ययनों ने पाया है कि हमारी घ्राण शक्ति बहुत शक्तिशाली है। हमारे मस्तिष्क के घ्राण बल्बों में न्यूरॉन्स की संख्या को देखकर पता चलता है कि मनुष्यों की सूंघने की क्षमता चूहों से बेहतर हो सकती है जबकि हम चूहों और कुत्तों की घ्राण शक्ति के कायल हैं और कई मामलों में उनकी इस क्षमता का उपयोग भी करते हैं। बस हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम गंधों पर उतना गौर नहीं करते जितना करना चाहिए। फिर हमारे पास ‘गंध कैसी है’ इसका विवरण देने वाली भाषा भी सीमित है।

लेकिन ऐसा देखा गया है कि यदि हम बारीकी से गौर करें तो हम बीमारी पहचान सकते हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में प्रतिभागियों ने शरीर की गंध और तस्वीरों के आधार पर बीमार और स्वस्थ लोगों की पहचान कर ली थी। तो हम भी अपनी या अपनों की गंध पर बारीकी से गौर करने की और शरीर का हाल जानने की कोशिश तो कर ही सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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अति-संसाधित भोजन नुकसानदेह है

सोडा, कैंडी और फ्रोज़न फूड जैसे अति-संसाधित खाद्य पदार्थ हमारी लालसा को तो संतुष्ट कर सकते हैं, लेकिन अनुसंधान से पता चल रहा है कि ये हृदय और मस्तिष्क के लिए हानिकारक हो सकते हैं। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में प्रकाशित शोध सारांश में इन खाद्य पदार्थों की अधिक खपत का हृदय रोग, मधुमेह, मोटापा, सांस की दिक्कत, चिंता, अवसाद और संज्ञानात्मक क्षति के जोखिमों से सीधा सम्बंध बताया गया है। एक अन्य अध्ययन के मुताबिक ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन अवसाद और चिंता के जोखिम में क्रमश: 44 और 48 प्रतिशत की वृद्धि करता है। अध्ययन यह भी बताते हैं कि कुल कैलोरी उपभोग में से इन खाद्य पदार्थों का कुछ हिस्सा ही जोखिम को बढ़ा देता है। इंग्लैंड, स्कॉटलैंड और वेल्स में 5 लाख लोगों पर किए गए एक अध्ययन में अति-संसाधित खाद्य उपभोग में केवल 10 प्रतिशत वृद्धि से मनोभ्रंश के जोखिम में 25 प्रतिशत की वृद्धि पाई गई है। वैसे अभी भी यह स्पष्ट नहीं है कि ऐसे खाद्य पदार्थों और स्वास्थ्य के बीच कार्य-कारण सम्बंध क्या है।

यह तो सब जानते हैं उच्च मात्रा में नमक, चीनी और संतृप्त वसा लेने के कारण जीर्ण शोथ, उच्च रक्तचाप और टाइप-2 मधुमेह होने की संभावना होती है। लेकिन अधिकतर लोग इस बात से अनभिज्ञ हैं कि ये परिस्थितियां मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर भी प्रतिकूल प्रभाव डालती हैं। कृत्रिम मिठास और मोनोसोडियम ग्लूटामेट जैसे पदार्थ मस्तिष्क द्वारा कतिपय रसायनों (जैसे डोपामाइन, सीरोटोनिन, नॉरएपिनेफ्रीन) के उत्पादन और विमोचन को बाधित कर सकते हैं, जिससे मानसिक और भावनात्मक स्वास्थ्य सम्बंधी समस्याएं बढ़ सकती हैं।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की लत भी लग सकती है जिसे कंपनियां भोजन चुनाव सम्बंधी हमारे निर्णयों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल करती हैं।

नैसर्गिक तौर पर मिलने वाले फल या तो मीठे होते हैं (जैसे सेब) या वसा से भरपूर होते हैं (जैसे मूंगफली)। प्रकृति में सामान्यत: ऐसे खाद्य पदार्थ नहीं मिलेंगे जिनमें शकर, नमक और वसा तीनों हों। दूसरी ओर, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों में चीनी और वसा दोनों एक साथ होते हैं, और ऊपर से नमक, कृत्रिम गंध और रंग-रोगन। ऐसे में, दिमाग बेकाबू हो जाता है। इन खाद्य पदार्थों की खपत कम करने और कम संसाधित विकल्पों को चुनने से बेहतर शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य परिणाम हासिल हो सकते हैं।

हम तीन तरह की चीज़ें खाते हैं – अ-संसाधित, संसाधित और अति-संसाधित। असंसाधित खाद्य पदार्थ यानी ताज़ा या फ्रिज में रखे फल-सब्ज़ियां, आटा वगैरह। इनमें प्राय: एक ही पोषक पदार्थ होता है।

संसाधित पदार्थ वे कहलाते हैं जिन्हें असंसाधित खाद्य से सीधे प्राप्त किया जाता है – जैसे वनस्पति तेल, शकर वगैरह।

इसके बाद आते हैं थोड़े संसाधित खाद्य पदार्थ जैसे मक्खन, प्रिज़र्वेटिव रहित ब्रेड, अचार वगैरह। इनमें भी घटकों की सूची बहुत छोटी होती है।

फिर आते हैं अति-संसाधित खाद्य – केक, ऊर्जादायक बार वगैरह, प्रिज़र्वेटिव्स के साथ रखे गए तैयारशुदा भोजन वगैरह। इनमें अक्सर भरपूर वसा, शकर, नमक वगैरह होते हैं और ऊपर से तमाम खुशबुएं, रंग-रोगन वगैरह डाले जाते हैं। इनमें उपस्थित घटकों की फेहरिस्त काफी लंबी हो सकती है।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन मस्तिष्क के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। ये खाद्य पदार्थ कैलोरी से भरपूर होते हैं, जिससे मोटापा बढ़ता है। शरीर की वसा कोशिकाएं निष्क्रिय होकर शोथजनक अणु मुक्त करने लगती है जिनसे अवसाद, चिंता और मनोभ्रंश जैसी समस्याएं उत्पन्न होती हैं।

कई शोध अध्ययनों से पता चला है कि संभावना रहती है कि आबादी का एक बड़ा हिस्सा इन खाद्य पदार्थों का आदी हो जाएगा, जिससे उनकी खपत में और अधिक वृद्धि हो सकती है। इसके अतिरिक्त, अति-संसाधित खाद्य पदार्थों का सेवन करने वाले व्यक्ति फलों, सब्ज़ियों और साबुत अनाज में पाए जाने वाले आवश्यक पोषक तत्वों से वंचित रह जाएंगे जो मस्तिष्क के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होते हैं। इन आवश्यक तत्वों की कमी से अवसाद जैसी मानसिक समस्याएं हो सकती हैं।

यह देखा गया है कि गरीब लोग ऐसे खाद्य पदार्थों का अत्यधिक सेवन करते हैं। लुभावने विज्ञापनों और हर गली-नुक्कड़ पर मौजूद गुमठियों में आसानी से मिलने के कारण अति-संसाधित खाद्य पदार्थ लोगों को आकर्षित करते हैं, और खुद को रोक पाना काफी मुश्किल होता है।

अति-संसाधित खाद्य पदार्थों से बचने के लिए, विशेषज्ञ कुछ सुझाव देते हैं:

  1. खुद को दोष देने की बजाय इस बात को जानें कि इन खाद्यों के आदी होने के लिए पूरा माहौल बनाया गया है।
  2.  भूख से प्रेरित लालसा से बचने के लिए नियमित समय पर भोजन करें।
  3. अति-संसाधित खाद्य पदार्थों की जगह गिरियों और ताज़े फलों जैसे विकल्प अपनाएं।
  4. कम सोडियम और कम शर्करा वाले खाद्य पदार्थों को प्राथमिकता दें।
  5. कुछ अति-संसाधित खाद्य पदार्थ अन्य अति-संसाधित खाद्य पदार्थ की तुलना में स्वास्थ्यवर्धक विकल्प हो सकते हैं, जैसे मैदे की बजाय आटे की ब्रेड।
  6. बच्चों को खाद्य विपणन की तिकड़मों के बारे में शिक्षित करें।

मुख्तसर सी बात है कि अति-संसाधित खाद्यों के प्रति सजग रहें और स्वयं को इनकी गिरफ्त से बचाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चिकित्सा में महत्व के चलते जोंक पतन – ज़ुबैर सिद्दिकी

धुनिक युरोप के इतिहास में जाने-माने ट्यूलिप उन्माद और रियल एस्टेट का जुनून सवार होने के बाद 19वीं सदी में जोंक चिकित्सा की एक नई सनक सवार हुई थी। लेकिन खून चूसने वाले ये अकशेरुकी प्राणि, युरोपीय चिकित्सकीय जोंक (Hirudo medicinalis), चिकित्सा सम्बंधित उन्माद के चलते विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। वैसे इन नन्हें जंतुओं ने मौसम की भविष्यवाणी में भी अपना नाम दर्ज कराया था।

वास्तव में चिकित्सीय उपचार के लिए जोंक का उपयोग सबसे पहले मिस्र में किया गया और आगे चलकर यूनान, रोम और भारत में भी इनका उपयोग होने लगा। जोंक को मुख्य रूप से शरीर के विभिन्न द्रवों को संतुलित करने के उद्देश्य से खून चुसवाने के लिए उपयोग किया जाता था। जबकि यूनानी चिकित्सक, विभिन्न अन्य रोगों, जैसे गठिया, बुखार और बहरेपन, के इलाज में भी जोंक का उपयोग किया करते थे। ये नन्हें जीव बड़ी आसानी से अपने तीन बड़े जबड़ों से त्वचा पर चिपक जाते थे और लार में प्राकृतिक निश्चेतक और थक्कारोधी गुण की मदद से रक्त चूसने लगते थे। इस तरह से रोगी को बिलकुल दर्द नहीं होता था और उपचार के बाद बस एक हल्का निशान रह जाता था जो समय के साथ  ठीक हो जाता था। 

लंबे समय से चली आ रही यह पद्धति उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में तब काफी सुर्खियों में रही जब पेरिस स्थित वाल-डी-ग्रे के प्रमुख चिकित्सक डॉ. फ्रांस्वा-जोसेफ-विक्टर ब्रूसे ने युरोपीय चिकित्सकीय जोंक उपचार को एक रामबाण उपचार के रूप में प्रचारित किया। ब्रूसे का मानना था कि सभी बीमारियों का मूल कारण है सूजन, और इसके इलाज के लिए रक्तस्राव सबसे उचित उपचार है। चूंकि यह सुरक्षित था और इसके लिए किसी विशेष कौशल की आवश्यकता भी नहीं थी, इसलिए जोंक की मांग में निरंतर वृद्धि होती गई। यहां तक कि कैंसर से लेकर मानसिक बीमारी सहित विभिन्न बीमारियों के इलाज में जोंक का खूब उपयोग किया जाने लगा।

इनकी मांग इतनी अधिक थी कि 1830 से 1836 तक फ्रांस्वा ब्रूसे के अस्पताल में ही 20 लाख से अधिक जोंकों का उपयोग किया गया जबकि फ्रांस के अन्य अस्पतालों में चरम लोकप्रियता के वर्षों में सालाना 5,000 से 60,000 जोंकों का उपयोग किया गया।

जोंक को रक्त निकालने के लिए एक बार में 20 से 45 मिनट तक चिपकाया जाता था। चूंकि एक जोंक केवल 10 से 15 मिलीलीटर तक ही खून चूस सकती है, इसलिए विभिन्न प्रकार के उपचार के लिए अलग-अलग डोज़ भी तय किए जाते थे – जैसे निमोनिया के लिए 80 जोंक और पेट की सूजन के लिए 20 से 40 जोंक।

यह काफी दिलचस्प बात है कि विक्टोरिया युग में जोंक ने चिकित्सा के साथ फैशन और कला को भी प्रभावित किया था। महिलाओं की पोशाकों पर जोंक के चित्र काढ़े जाते थे और औषधालय बड़े-बड़े पात्रों में जोंक का प्रदर्शन करते थे। और तो और, ब्रिटेन के सर्वोच्च अधिकारी लॉर्ड चांसलर थॉमस एर्स्किन जोंक को अपने सबसे प्रिय पालतू जानवर के रूप में पालने लगे थे।

जोंक के प्रति यह दीवानगी जोंक की आबादी को गंभीर रूप से प्रभावित करने लगी। कुछ सरकारों ने इन्हें विलुप्ति से बचाने के लिए वन्यजीव संरक्षण कानून लागू किया और जोंक के निर्यात पर प्रतिबंध लगाने के साथ इनके संग्रहण को भी नियंत्रित किया। 1848 में, रूस ने जोंक के प्रजनन काल के दौरान जोंक संग्रह पर प्रतिबंध लगाया था। जोंक को कृत्रिम रूप से पालने व संवर्धन की भी कोशिशें की गईं।

लेकिन इनके संवर्धन तथा व्यावसायीकरण में कई चुनौतियां थीं। आम तौर पर उपयोग की गई जोंक को खाइयों या तालाबों में फेंक दिया जाता था, जिससे प्रजातियों का अत्यधिक दोहन होता था। इसी के साथ कृषि के लिए जल निकासी और दलदली भूमि के पुनर्विकास ने उनकी आबादी को और कम कर दिया। कई प्रयासों के बावजूद, 20वीं सदी की शुरुआत तक कई स्थानों पर चिकित्सीय जोंक लुप्तप्राय हो गए थे।

दरअसल, जोंक उपचार से कुछ फायदे थे तो कुछ नुकसान भी थे। जहां इस उपचार के बाद रोगी दर्द से राहत, सूजन में कमी और रक्त परिसंचरण में सुधार महसूस करते थे, थ्रम्बोसिस जैसी समस्याओं में राहत पाते थे, वहीं इससे खून की कमी, एनीमिया, संक्रमण और एलर्जी जैसी समस्याओं की संभावना रहती थी। इससे सिफिलस, तपेदिक और मलेरिया जैसी बीमारियां भी फैल सकती थी। इसके अलावा, कई रोगियों ने जोंक के प्रति भय और घृणा के कारण मनोवैज्ञानिक समस्याओं का अनुभव किया।

जोंक के लुप्तप्राय होने को छोड़ भी दिया जाए तो इनके उपयोग में कमी का एक कारण चिकित्सा विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास है जिसने कई बीमारियों के लिए अधिक प्रभावी उपचार प्रदान किए। इसके अलावा रोगाणु सिद्धांत तथा चिकित्सा विज्ञान में सार्वजनिक स्वास्थ्य और स्वच्छता के उदय होने से संक्रामक रोगों की घटनाओं और प्रसार में कमी आई। हालांकि 20वीं सदी के मध्य तक जोंक उपचार को काफी हद तक छोड़ दिया गया था लेकिन कुछ देशों में वैज्ञानिक अनुसंधान और विनियमन के साथ जोंक उपचार को एक मूल्यवान पूरक चिकित्सा के रूप में देखा जा रहा है। आजकल जोंक का प्रजनन युरोप और यूएसए की कुछ प्रयोगशालाओं में किया जा रहा है। 

मौसम भविष्यवाणी

दरअसल, जेनर ने अपनी कविता में बारिश के आगमन कई ऐसे कुदरती संकेतों का ज़िक्र किया था – जैसे मोर का शोर मचाना, सूर्यास्त का पीला पड़ जाना वगैरह। लेकिन मेरीवेदर का ध्यान कविता के उस हिस्से पर गया जहां जेनर ने कहा था, “जोंक परेशान हो जाती है, अपने पिंजड़े के शिखर पर चढ़ जाती है।

जॉर्ज मेरीवेदर नामक एक ब्रिटिश चिकित्सक और आविष्कारक ने जोंक को औषधीय उपयोग से परे देखा। एडवर्ड जेनर की कविता से प्रेरित होकर उन्होंने एक ऐसा उपकरण (टेम्पेस्ट प्रोग्नॉस्टिकेटर) बनाया जो जोंक की कथित रहस्यमयी क्षमता का उपयोग कर तूफानों की भविष्यवाणी करता था।

मेरीवेदर द्वारा तैयार किए गए तूफान-सूचक में बारह बोतलों को एक घेरे में जमाया गया था। प्रत्येक बोतल में कुछ इंच बारिश का पानी भरा गया था और प्रत्येक बोतल में एक-एक जोंक रखी गई थी। जोंक को इस तरह रखा गया था कि वे एक-दूसरे को देख सकती थीं और एकांत कारावास की पीड़ा से मुक्त रहती थीं।

सामान्य परिस्थितियों में सभी जोंक बोतल में नीचे पड़ी रहती थीं लेकिन बारिश आने से पहले वे ऊपर चढ़ने लगती थीं। और ऊपर चढ़कर जब वे बोतल के मुंह तक पहुंच जाती थीं, तब वहां लगी एक छोटी व्हेलबोन पिन सरक जाती थी और उपकरण के केंद्र में लगी घंटी बजने लगती थी। जितनी अधिक जोंकें ऊपर की ओर बढ़ती थीं उतनी ही अधिक बार घंटी बजती थी। वैसे मेरीवेदर ने यह भी देखा कि कुछ जोंक बढ़िया संकेत देती थीं जबकि अन्य निठल्ली पड़ी रहती थीं और अपनी जगह से टस से मस नहीं होती थीं।

मेरीवेदर ने महीने भर अपने उपकरण का परीक्षण किया और व्हिटबाय फिलॉसॉफिकल सोसाइटी को आसन्न तूफानों की सूचना भेजते रहे। हालांकि उन्होंने अपनी असफलताओं की सूचना नहीं दी थी। एक अखबार के मुताबिक इस उपकरण ने अक्टूबर 1850 के विनाशकारी तूफान की सटीक भविष्यवाणी की थी, जिसके बाद इसे मान्यता मिली और 1851 में हाइड पार्क में इसे सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया गया।

हालांकि, मेरीवेदर का यह तूफान सूचक उतना व्यावहारिक नहीं था जितना वे सरकार को विश्वास दिला रहे थे। यह उपकरण न तो तूफान की दिशा बताता था और न ही इससे तूफान आने का सटीक समय पता चलता था। इसके अलावा, उपकरण की सबसे बड़ी कमी थी जोंक के लिए मासिक आहार की व्यवस्था और हर पांचवे दिन इसके पानी को बदलना। ऐसे में इसका नियमित रखरखाव थोड़ा मुश्किल काम था और विशेष रूप से जहाज़ों पर मौसम पूर्वानुमान के लिए यह अव्यावहारिक था। इसकी तुलना में स्टॉर्म ग्लास अधिक व्यावहारिक विकल्प के रूप में उभरा।

स्टॉर्म ग्लास एक कांच का उपकरण है जिसमें आम तौर पर कपूर, कुछ रसायन, पानी, एथेनॉल और हवा का मिश्रण होता है। ऐसा माना जाता था कि तरल में क्रिस्टल और बादल के बनने से मौसम में आगामी बदलावों का संकेत मिलता है। हालांकि, यह जोंक की तुलना में कम प्रभावी था लेकिन उपयोग में अधिक व्यवहारिक होने के कारण इसे दशकों तक उपयोग किया जाता रहा। मेरीवेदर का मूल तूफान भविष्यवक्ता तो शायद कहीं खो गया है, लेकिन लगभग एक सदी बाद 1951 में प्रदर्शनी के लिए इसकी कई प्रतिकृतियां बनाई गई थीं।

युरोपीय औषधीय जोंक और तूफान सूचक की आकर्षक कथाएं 19वीं सदी के विज्ञान और सामाजिक विचित्रताओं को एक बहुआयामी दृष्टिकोण प्रदान करती हैं। विलुप्त होने की कगार से लेकर मौसम के भविष्यवक्ता के एक संक्षिप्त कार्यकाल तक, जोंक ने उन क्षेत्रों का भ्रमण किया जिन्होंने इतिहास को आकार दिया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जलमग्न पर्वत शृंखला पर मिली व्यापक जैव विविधता

हरे समुद्र में स्थित चट्टानों पर आकर्षक बैंगनी, हरे और नारंगी रंग के स्पॉन्ज हैं। मैरून कांटों वाले समुद्री अर्चिन झुंड में है और खसखसी रंग के क्रस्टेशियंस उनके बीच विचर रहे हैं। पारदर्शी, भूतिया से दिखने वाले जीव अंधेरे में इधर-उधर फिर रहे हैं। ये नज़ारे हैं चिली तट से कुछ दूरी पर स्थित जलमग्न पहाड़ों के आसपास के, जिन्हें श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं ने रोबोट पर कैमरा लगाकर कैद किया है।

वास्तव में उन्होंने समुद्र के भीतर फैली नाज़्का और सालास वाई गोमेज़ पर्वतमाला के पास 4500 मीटर की गहराई तक रिकॉर्डिंग की है। ये दो पर्वतमालाएं मिलकर लगभग 3000 किलोमीटर में फैली हैं। यहां उन्हें स्पॉन्ज, एम्फिपोड, समुद्री अर्चिन, क्रस्टेशियंस और मूंगा सहित कई जीवों की करीब 100 से अधिक नई प्रजातियां मिली हैं। उन्होंने चिली के नज़दीक समुद्र के नीचे चार समुद्री पर्वतों का मानचित्रण किया जिनके बारे में पहले पता नहीं था। इनमें से सबसे ऊंचा पर्वत समुद्र तल से 3530 मीटर ऊंचा है, जिसे शोधकर्ताओं ने सोलिटो नाम दिया है।

तस्वीरों के अलावा, रोबोट यहां से कुछ जीवों को लेकर भी आया है। इनकी मदद से उनकी प्रजातियों को पहचानने या उन्हें नई प्रजातियों में वर्गीकृत करने में मदद मिलेगी। इन नई प्रजातियों से वैज्ञानिकों को इस विशाल क्षेत्र की जटिल वंशावली बनाने और इन जीवों को अस्तित्व में लाने वाले वैकासिक पड़ावों के बारे में जानने में मदद मिल सकती है। शोधकर्ताओं का कहना है कि इन समुद्री पर्वतों पर इतनी अधिक जैव विविधता पाए जाने और बचे रहने का श्रेय काफी हद तक इन जगहों के समुद्री पार्क के रूप में संरक्षण को जाता है। इस क्षेत्र का काफी बड़ा हिस्सा चिली द्वारा प्रशासित जुआन फर्नांडीज़ और नाज़्का-डेसवेंचुरडास समुद्री पार्कों के अंतर्गत संरक्षित है। (स्रोत फीचर्स)

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जब हंसी मज़ाकिया न हो

ई के पहले रविवार को विश्व ठहाका दिवस होगा। इस अवसर पर अखबारों से लेकर व्हाट्सएप संदेश व अन्य (सोशल) मीडिया प्लेटफॉर्म हंसने के फायदे के बारे बताएंगे। बताया जाएगा कि हंसना हमारे स्वास्थ्य के लिए अच्छा है, यह हमारी धमनियों को तंदुरुस्त रखता है, आईवीएफ की सफलता दर को बढ़ाता है, तनाव से राहत देता है, यहां तक कि कैंसर को ठीक भी कर देता है।

लेकिन हंसना एक बीमारी भी हो सकती है जो बे-वक्त, बे-मौके पर फूटकर व्यक्ति को शर्मिंदा कर सकती है/परेशानी में डाल सकती है। अधिक हंसी जीर्ण सिरदर्द का कारण भी बन सकती है। यहां तक कि हंसी के बेकाबू दौरे पड़ सकते हैं।

हंसने के कारण उपजी ऐसी ही एक स्थिति है ‘परिस्थितिजन्य सिरदर्द’। एक 52 वर्षीय महिला परिस्थितिजन्य सिरदर्द यानी अत्यधिक हंसने के कारण उपजे सिरदर्द से 32 वर्षों से पीड़ित थी। मस्तिष्क का स्कैन करने पर पता चला कि उसके मस्तिष्क में तीन जगहों पर मस्तिष्क-मेरु द्रव के थक्के जमा हैं। जब वह हंसती थी तो हंसी के कारण द्रव के दबाव में होने वाले परिवर्तन के कारण सिरदर्द होने लगता था। हालांकि खांसने-छींकने पर भी उसे सिरदर्द होने लगता था। लेकिन हंसी भी सिरदर्द का कारण तो बनती थी।

इससे अलग, द्विध्रुवी विकार (बायपोलर डिसऑर्डर) से पीड़ित एक व्यक्ति को हंस-हंसकर लोट-पोट हो जाने के कारण मिर्गी के दौरे पड़ते थे। टीवी पर कॉमेडी शो देखते हुए जब भी वह कोई चुटकुला सुनता, हंसी आती और हंसते-हंसते जब वह लोट-पोट होने लगता तो उसके हाथ कांपने लगते और उसे ऐसा लगता जैसे उसकी चेतना शून्य हो रही है। एक दिन में पड़ने वाले मिर्गी के दौरों की संख्या और कॉमेडी शो की लंबाई और शो कितना हंसोड़ था के बीच सम्बंध था; औसतन  दिन में पांच बार। पहले तो डॉक्टरों को लगा कि दौरे उसके द्विध्रुवी विकार के कारण पड़ते हैं। लेकिन जब उन्होंने ईईजी के माध्यम से दो दिनों तक उसकी मस्तिष्क तरंगों को नापा तो पता चला कि मिर्गी के दौरों का सम्बंध उसकी लोट-पोट होकर हंसने वाली हंसी से था।

हंसी मस्तिष्क के दो अलग-अलग क्षेत्रों में हलचल से आती है: टेम्पोरल लोब, जो भावनात्मक पहलुओं को संभालता है; और फ्रंटल कॉर्टेक्स, जो क्रियाकारी हिस्से (चलना, दौड़ना, कूदना, फेंकना, झेलना, पकड़ना वगैरह) को संभालता है। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि हंसने के कारण क्रियाकारी क्षेत्र में हलचल होने से मिर्गी के दौरे पड़ते हैं। उपचार लेने से समस्या ठीक तो हो गई लेकिन यदि, खुदा न ख्वास्ता, उनका अनुमान ठीक न निकलता तो शायद उसे टीवी देखना बंद करना पड़ता।

हंसी के कारण एक और जो समस्याप्रद स्थिति बनती है वह है पैथालॉजिकल लाफ्टर। पैथालॉजिकल लाफ्टर से पीड़ित शख्स को अचानक ही वक्त-बेवक्त, मौके-बेमौके ही हंसी आ जाती है। ऐसे ही एक मामले में एक शख्स को अपने परिवार के साथ शराड का खेलते हुए हंसी का दौरा पड़ा। आगे चलकर किसी के अंतिम संस्कार में, यहां तक कि अपनी बीमार मां से मिलते वक्त भी हंसी का दौरा पड़ गया। इसके चलते उसे काफी शर्मिंदगी महसूस हुई और उसने लोगों से मेल-जोल ही छोड़ दिया। मस्तिष्क की इमेजिंग करने पर पाया गया कि मस्तिष्क कोशिकाओं को जोड़ने वाले सफेद पदार्थ में घाव थे। साथ ही, मध्य मस्तिष्क और टेम्पोरल लोब में भी घाव थे। पैथोलॉजिकल लॉफ्टर का कारण तो पता नहीं चल पाया है लेकिन ऐसे मौकों पर एकदम तुरंत हंसी आने के बजाय थोड़ी देर बाद हंसी (विलंबित हंसी) आने के आधार पर लगता है कि इसका कारण सिर्फ घाव नहीं हैं। विलंबित हंसी आने से लगता है कि स्वायत्त क्रियाकारी केंद्र बनने में समय लगता है। जिससे लगता है कि नई तंत्रिका गतिविधि या नए हंसी नियंत्रण केंद्र बन रहे हैं।

ये ऐसे कुछ मामले थे जो हंसी से सम्बंधित समस्याओं को दर्शाते थे। लेकिन इन्हें पढ़कर हंसना मत छोड़िए। बस, जब लगे कि आपका हंसना आपके लिए कोई गंभीर समस्या पैदा कर रहा है तो डॉक्टर से मिलिए। वरना हंसिये-हंसाइए। (स्रोत फीचर्स)

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टीकों में सहायक पदार्थों का उपयोग

टीकों के विज्ञान में एक दिलचस्प रहस्य छिपा है जिसे एडजुवेंट (सहायक पदार्थ) कहते हैं। 1920 के दशक में फ्रांसीसी पशुचिकित्सक गैस्टन रेमन ने पाया था कि टीकों में ब्रेड का चूरा, कसावा या ऐसा ही कोई योजक मिलाने से टीके बेहतर काम करते हैं। सहायक पदार्थों की इस भूमिका को देखते हुए कुछ टीकों में इनका उपयोग किया जा रहा है। साथ ही नए टीके तैयार करने के लिए एडजुवेंट पर शोध जारी है ताकि लंबे समय तक कारगर टीके विकसित किए जा सकें।

टीके का मतलब है कि रोगजनक का मृत या दुर्बल रूप या उसके द्वारा बनाया जाने वाला विष शरीर में प्रविष्ट कराया जाता है। शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसे एंटीजन के रूप में पहचान लेता है और जन्मजात प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया पैदा होती है जिसके फलस्वरूप सूजन पैदा होती है। इसके साथ ही, प्रतिरक्षा कोशिकाएं एंटीजन को लिम्फ नोड्स तक पहुंचाती हैं, जहां अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र सक्रिय हो जाता है। प्रतिरक्षा तंत्र मूलत: सूजन के ज़रिए ही काम करता है और कोशिश यही रहती है कि यह सूजन यथेष्ट मात्रा में पैदा हो।

एडजुवेंट प्रतिरक्षा तंत्र की प्रतिक्रिया में सुधार करते हैं। वे सुनिश्चित करते हैं कि टीकों से सूजन ठीक मात्रा में उत्पन्न हो – न बहुत ज़्यादा, न बहुत कम।

हालांकि, कुछ टीके प्रतिरक्षा उत्पन्न करने का अच्छा काम करते हैं, लेकिन प्रतिरक्षा प्रणाली को चकमा देने की क्षमता वाले जटिल रोगजनकों, जैसे एचआईवी, इन्फ्लूएंज़ा और मलेरिया, के लिए टीके विकसित करना काफी चुनौतीपूर्ण है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने प्रतिरक्षा प्रणाली की जटिलताओं में गहराई से उतरकर ऐसे टीके बनाने का प्रयास किया जो व्यापक सुरक्षा प्रदान करते हैं। एडजुवेंट इस प्रयास में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। रेमन ने देखा था कि जब घोड़ों में टीके के स्थान के आसपास संक्रमण विकसित होता है तो उनमें अधिक शक्तिशाली एंटी-डिप्थीरिया सीरम बनता है। जल्द ही वे उसी प्रतिक्रिया को बढ़ाने और प्रतिरक्षा में सहायता करने के लिए टीकों में ब्रेड का चूरा वगैरह चीज़ें मिलाने लगे।

इसे आगे बढ़ाते हुए एल्युमीनियम लवण जैसे एडजुवेंट्स का विकास हुआ। एडजुवेंट पर काम कर रहे एमआईटी के डेरेल इरविन का विचार है कि एमआरएनए टीकों में संयोगवश चुने गए लिपिड नैनोकण शायद एडजुवेंट के समान कार्य करते हैं। कुछ टीकों में सहायक पदार्थ इस आधार पर चुने जाते हैं कि उनमें संक्रामक बैक्टीरिया के कुछ घटक होते हैं। ऐसे अणुओं के खिलाफ प्रतिक्रिया के ज़रिए एडजुवेंट सूजन बढ़ाते हैं और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया मज़बूत होती है।

अंतत: एडजुवेंट प्रतिरक्षा कोशिकाओं की जीन गतिविधि को पुन: प्रोग्राम कर पाएंगे, जिससे एक साथ कई बीमारियों से सुरक्षा मिल सकेगी। चूहों पर हुए अध्ययनों से पता चला है कि एडजुवेंट युक्त तपेदिक का बीसीजी टीका विभिन्न संक्रमणों के खिलाफ सुरक्षा प्रदान करता है। इस शोध के आधार पर वैज्ञानिकों का लक्ष्य ऐसे एडजुवेंट विकसित करना है जो दीर्घकालिक एंटीवायरल प्रतिरक्षा प्रेरित कर सकें और विभिन्न रोगजनकों के खिलाफ व्यापक सुरक्षा प्रदान करें।

इरविन का मानना है कि एडजुवेंट पर अधिक अनुसंधान से कैंसर जैसी लाइलाज बीमारियों के विरुद्ध टीकों के निर्माण में मदद मिल सकती है। ट्यूमर द्वारा बनाए जाने वाले प्रोटीन और एडजुवेंट के मिश्रण के परीक्षण मेलेनोमा और अग्न्याशय के कैंसर के विरुद्ध प्रतिरक्षा को उत्तेजित करने में प्रभावी रहे हैं।

विशेषज्ञों का मत है कि भविष्य में एडजुवेंट सूजन पर हमारी समझ विकसित होने पर एचआईवी, मलेरिया, कैंसर, इन्फ्लूएंज़ा और सार्स-कोव-2 के नए स्ट्रेन जैसे संक्रामक खतरों सहित कई बीमारियों से एक साथ निपटने के लिए समाधान मिल सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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कीटनाशक: प्रभाव और विकल्प – डॉ. आष्मा अग्रवाल

कीटनाशक प्राकृतिक या रासायनिक रूप से संश्लेषित यौगिक हैं जो संपूर्ण खाद्य और पशु आहार उत्पादन चक्र के दौरान कीटों को रोकने, नष्ट करने, खदेड़ने या नियंत्रित करने के लिए उपयोग किए जाते हैं। कीटनाशक कई तरह के होते हैं। जैसे, पौधों के विकास नियामक, डिफॉलिएटर्स (पत्तीनाशी), डेसिकैंट्स (जलशोषक), फलों की तादाद कम करने वाले रसायन, और परिवहन एवं भंडारण के दौरान फसल को खराब होने से बचाने वाले रसायन जिन्हें कटाई के पहले या बाद में फसलों पर लगाया जाता है। जंतुओं के बाह्य-परजीवियों का प्रबंधन भी कीटनाशकों के माध्यम से किया जाता है। कीटनाशी, शाकनाशी, कवकनाशी, कृमिनाशी और पक्षीनाशी वगैरह कीटनाशकों की विभिन्न श्रेणियां हैं।

कीटनाशकों को उनके सक्रिय घटक, रासायनिक संरचना, क्रिया के तरीके और विषाक्तता के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। कीटनाशक कार्बनिक और अकार्बनिक दोनों तरह के हो सकते हैं। जैविक कीटनाशक कार्बन आधारित होते हैं, जैसे प्राकृतिक पदार्थों से प्राप्त कीटनाशक या कार्बनिक रसायनों से संश्लेषित कीटनाशक। अकार्बनिक कीटनाशक खनिज या ऐसे रासायनिक यौगिकों से प्राप्त होते हैं जो प्रकृति में जमा होते हैं। इनमें मुख्य रूप से एंटीमनी, तांबा, बोरॉन, फ्लोरीन, पारा, सेलेनियम, थैलियम, जस्ता के यौगिक तथा तात्विक फास्फोरस और सल्फर होते हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कीटनाशकों को उनकी विषाक्तता के आधार पर वर्गीकृत किया है। अत्यधिक खतरनाक कीटनाशकों को वर्ग-1a, अधिक खतरनाक को वर्ग-1b, मध्यम खतरनाक को वर्ग-II और थोड़े खतरनाक को वर्ग-III में वर्गीकृत किया गया है।

किसानों की बढ़ती उत्पादकता और बढ़ती आमदनी के रूप में कीटनाशकों के उपयोग का भारी प्रभाव पड़ा है। लेकिन बढ़ती जनसंख्या के चलते बढ़ती वैश्विक खाद्य मांग ने इनके उपयोग को बेतहाशा बढ़ा दिया है।

कीटनाशकों के अंधाधुंध उपयोग से खाद्य उपज में कीटनाशक अवशेष बचे रह जाते हैं जो मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होते हैं। कीटनाशकों के अनियमित उपयोग और दुरुपयोग के कारण पर्यावरण में अवशेष जमा हो जाते हैं, जिनमें से कई आसानी से नष्ट नहीं होते और वर्षों तक वहीं बने रहते हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र का संतुलन बिगड़ जाता है और मानव स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अनाज, सब्ज़ियों, फलों, शहद और उनसे व्युत्पन्न उत्पादों, जैसे जूस आदि में कीटनाशकों के अंश पाए गए हैं। लापरवाह और अनुचित निपटान प्रथाएं मछली, अन्य जलीय जीवन, प्राकृतिक परागणकर्ताओं (मधुमक्खियों और तितलियों) सहित गैर-लक्षित जीवों  (पशुधन, पक्षी और लाभकारी सूक्ष्मजीव) पर नकारात्मक प्रभाव डालती हैं।

खाद्य, कृषि उत्पादों या पशु आहार में कीटनाशक अवशेष विभिन्न रूपों में हो सकते हैं – जैसे उनके चयापचय से बने, परिवर्तन से बने, अभिक्रियाओं से बने पदार्थ। कीटनाशकों के बार-बार उपयोग से लाभकारी जीव मारे जाते हैं, कीटों में प्रतिरोध बढ़ जाता है और जैव विविधता का नुकसान होता है। इन सबके चलते कीटों का वापिस लौटना आसान हो जाता है। हेप्टाक्लोर, एंड्रिन, डायएल्ड्रिन, एल्ड्रिन, क्लोर्डेन, डीडीटी और एचसीबी कुछ टिकाऊ कार्बनिक पर्यावरण प्रदूषक हैं।

भारत कीटनाशकों का एक प्रमुख निर्माता और आपूर्तिकर्ता है। भारत में कीटनाशक उद्योग एक अरब डॉलर का है। जिसमें एसीफेट का उत्पादन सबसे अधिक होता है, इसके बाद अल्फामेथ्रिन और क्लोरपाइरीफॉस का नंबर आता है। एनएसीएल इंडस्ट्रीज़ लिमिटेड, यूपीएल लिमिटेड और भारत रसायन लिमिटेड के अलावा बायर क्रॉप साइंस लिमिटेड, रैलीज़ कुछ प्रमुख कीटनाशक निर्माता हैं। एक ओर भारत से 6,29,606 मीट्रिक टन कीटनाशकों का निर्यात किया जाता है वहीं दूसरी ओर, 1,33,807 मीट्रिक टन कीटनाशकों का आयात किया जाता है।

कीटनाशकों की खपत युरोप में सबसे अधिक है। इसके बाद चीन और यूएसए का नंबर आता है। भारत में भी प्रति हैक्टर कीटनाशकों की खपत बढ़ी है।

2022 की आधिकारिक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में कीटनाशकों की औसत खपत लगभग 0.381 कि.ग्रा सक्रिय घटक/हैक्टर है। तुलना के लिए, विश्व की औसत खपत 0.5 कि.ग्रा. सक्रिय घटक/हैक्टर है। (विश्व स्तर पर) उपयोग के लिए पंजीकृत 293 कीटनाशकों में से भारत में 104 कीटनाशकों का निर्माण हो रहा है। 2022 तक, हमारे देश में 46 कीटनाशकों और 4 कीटनाशक फॉर्मूलेशन पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। अभी भी 39 कीटनाशक वर्ग-1b के हैं, जबकि 23 कीटनाशक वर्ग-II और वर्ग-III स्तर के हैं। भारत में खपत होने वाले कुल कीटनाशकों में से अधिकांश अत्यधिक या अधिक खतरनाक (1a या 1b) श्रेणी में आते हैं और केवल 10-15 प्रतिशत गैर-विषैले कीटनाशक के रूप में पंजीकृत हैं।

भारत में कीटनाशकों के उपयोग का नियमन व नियंत्रण 1968 के कीटनाशक अधिनियम और 1971 के कीटनाशक नियमों के अधीन है। ये नियम-अधिनियम मनुष्यों, जानवरों और पर्यावरण की सुरक्षा के उद्देश्य से कीटनाशकों के आयात, पंजीकरण, निर्माण, बिक्री, परिवहन, वितरण और उपयोग को नियंत्रित करते हैं।

यद्यपि दो कीटनाशकों, बेरियम कार्बोनेट व कूमाक्लोर का उपयोग बंद कर दिया गया है लेकिन तीन बेहद खतरनाक कीटनाशक, ब्रोडिफाकम, ब्रोमैडायओलोन और फ्लोकोमाफेन (1a) अभी भी भारत में उपयोग के लिए पंजीकृत हैं। फरवरी 2020 में प्रकाशित एक मसौदा अधिसूचना (S.O.531(E)) में प्रस्ताव दिया गया था कि मनुष्यों व जानवरों के स्वास्थ्य और पर्यावरण सम्बंधी खतरों को देखते हुए ट्राइसाइक्लाज़ोल और बुप्रोफेज़िन के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए।

वैकल्पिक उपाय

1. जैव कीटनाशक – ये पौधों, जानवरों, बैक्टीरिया और कुछ खनिजों जैसे प्राकृतिक पदार्थों से बने होते हैं। ये पर्यावरण के अनुकूल हैं। और आम तौर पर रासायनिक कीटनाशकों की तुलना में अधिक सुरक्षित होते हैं।

2. एकीकृत कीट प्रबंधन (IPM) – कीट प्रबंधन के लिए एक समग्र दृष्टिकोण जिसमें रासायनिक कीटनाशकों के उपयोग को कम करने के लिए जैविक और यांत्रिक तरीकों सहित विभिन्न कीट नियंत्रण विधियां हैं।

3. मिश्रित फसलें – इसके तहत कीटों को दूर रखने या लाभकारी कीटों को आकर्षित करने के लिए एक साथ विभिन्न फसलें लगाई जाती हैं।

4. जैविक खाद – जैविक खाद का उपयोग मिट्टी के स्वास्थ्य में सुधार और रासायनिक उर्वरकों की आवश्यकता को कम करने के लिए किया जा सकता है; रासायानिक उर्वरक कीटों को आकर्षित कर सकते हैं।

हालांकि ये उपाय उतने प्रभावी नहीं हैं लेकिन अधिक सुरक्षित व टिकाऊ हैं। जैविक खेती, परिशुद्ध खेती और कृषि-पारिस्थितिकी जैसे कुछ अन्य वैकल्पिक उपाय रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता घटाकर अधिक टिकाऊ विधियां अपनाने में मदद कर सकते हैं (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऊदबिलाव की पूंछ पर शल्क पैटर्न ‘फिंगरप्रिंट’ जैसा है

युरेशियाई ऊदबिलाव (Castor fiber) की चपटी और चमड़े सरीखी पूंछ उनको तैरने में काफी मदद करती है। पूंछ उनके लिए पतवार का और दिशा देने का काम करती है। उनकी पूंछ की शल्कों का आवरण जहां पूंछ को उपयोगी बनाता है वहीं यह उनकी शिनाख्त में मदद भी कर सकता है और ‘फिंगरप्रिंट’ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। ‘फिंगरप्रिंट’ पहचान कृत्रिम बुद्धि (एआई) के पैटर्न पहचान एल्गोरिद्म द्वारा पूंछ के शल्कों के पैटर्न देखकर की गई है।

एआई की यह सफलता ऊदबिलाव को उन पर पड़ रहे उस दवाब, तनाव या परेशानी से मुक्त कर सकती है जो उन्हें उनकी पहचान के लिए उन पर टैग और कॉलर-आईडी लगाते वक्त झेलना पड़ता है। दरअसल युरेशियाई ऊदबिलाव 19वीं सदी में लगभग विलुप्ति की कगार पर पहुंच गए थे। उनका शिकार उनके फर और कैस्टोरियम (एक खूशबूदार पदार्थ) के लिए खूब किया जाता था। विलुप्ति की कगार पर पहुंचाने के बाद जब इन्हें बचाने की मुहिम चली तो इनके कानों पर टैग और रेडियो कॉलर लगाकर इनकी आबादी पर नज़र रखना शुरू हुआ। लेकिन इस काम के लिए उन्हें पकड़कर निशानदेही करना उनको परेशान कर सकता है।

इसलिए शोधकर्ताओं ने शिकार हो चुके 100 युरेशियन ऊदबिलावों की पूंछ की तस्वीरें खींचीं और इनसे एआई को पैटर्न सीखने के लिए प्रशिक्षित किया। जब एआई की परीक्षा ली गई तो 96 प्रतिशत बार एआई ने उन्हें सटीक पहचाना था। ये नतीजे इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुए हैं।

किंतु एक दिक्कत यह है कि वैज्ञानिकों ने ये तस्वीरें प्रयोगशाला में अच्छी रोशनी की परिस्थिति में ली थीं और उन्हीं के आधार पर एआई को प्रशिक्षित करके जांचा है। किंतु प्राकृतवास में विचरते हुए जो तस्वीरें मिलेंगी वे संभवत: इस तरह उजली और इतनी साफ नहीं होंगी। और वास्तव में तो प्राकृतवास में खींची गई (पूंछ की) तस्वीरों से ही एआई को ऊदबिलावों में भेद करने में सक्षम होना चाहिए। बहरहाल, शोधकर्ताओं का कहना है कि इन क्षेत्रों में तस्वीर खींचने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले स्वचालित कैमरों में एक छोटा प्लास्टिक लेंस जोड़ने से तस्वीर की गुणवत्ता चार गुना बढ़ाई जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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