वैज्ञानिक प्रकाशनों में एक्रोनिम और संक्षिप्त रूप – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब भी मैं अखबार का बिज़नेस पेज पढ़ता हूं तो मुझे कुछ एक्रोनिम (यानी संक्षिप्त रूप) मिलते हैं जिनका अर्थ मुझे पता नहीं होता, जैसे NCLT या MCLR। इनका मतलब जानने के लिए मुझे इंटरनेट का सहारा लेना पड़ता है (NCLT यानी नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल और MCLR यानी मार्जिनल कॉस्ट ऑफ फंड्स-बेस्ड लेंडिंग रेट)। हालांकि उस पेशे से जुड़े लोगों के लिए ये शब्द रोज़मर्रा की बात हैं। ज़ाहिर है, ये व्यवसाय की भाषा के अंग हैं, मेरी भाषा के नहीं। इसी प्रकार से, हममें से कितने लोग सरकार द्वारा उपयोग किए जाने वाले एक्रोनिम जैसे PMCARES fund, या ATAL, या AYUSH का पूरा या विस्तारित रूप जानते हैं? ज़रा पता करें। ATAL तो वास्तव में एक एक्रोनिम का भी एक्रोनिम है।

प्रसंगवश बता दूं कि एब्रेविएशन या लघु-रूप का मतलब होता है किसी लंबे शब्द को छोटे रूप में लिखना जैसे प्रोफेसर को प्रो. डॉक्टर को डॉ.। दूसरी ओर एक्रोनिम का मतलब होता है कई शब्दों के प्रथम अक्षरों से मिलकर बना एक शब्द, जैसे डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड का DNA, सेंट्रल ब्यूरो ऑफ इंवेस्टीगेशन का CBI, या न्यू डेल्ही टेलीविज़न लिमिटेड का NDTV।

अफसोस कि ये एक्रोनिम वैज्ञानिक शोध पत्रों और प्रस्तुतियों में खूब देखने को मिलते हैं। और इनका उपयोग बढ़ता ही जा रहा है। यह बात तो समझ आती है कि खगोल भौतिकी के एक्रोनिम जीव विज्ञानियों की समझ में ना आएं, लेकिन यह स्थिति तो जीव विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र से जुड़े लोगों के अंदर भी बन जाती है!

एड्रियन बार्नेट और ज़ो डबलडे ने ईलाइफ पत्रिका में हाल ही में एक पेपर प्रकाशित किया है जिसका शीर्षक है मेटा-अनुसंधान: वैज्ञानिक साहित्य में एक्रोनिम का बढ़ता उपयोग। यह पेपर जीव वैज्ञानिकों और चिकित्सा वैज्ञानिकों को ध्यान में रखकर लिखा गया है और पठनीय है। (लिंक – DOI: https://doi.org/10.7554/eLife.60080)

मेटा-अनुसंधान पूर्व में किए गए शोध कार्यों के अध्ययन को कहते हैं। उस विषय पर पूर्व शोधकर्ताओं द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट, उनको दोहराने की संभाविता, और मूल्यांकन। इस तरह के मेटा-विश्लेषण काफी उपयोगी होते हैं। उदाहरण के लिए, किसी दवा की यथेष्ट खुराक तय करने के लिए।

उपरोक्त मेटा-विश्लेषण जो कहता है उसे मैं यहां उद्धृत कर रहा हूं: “हर साल प्रकाशित होने वाले वैज्ञानिक शोध पत्रों की संख्या जैसे-जैसे बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे ये शोध पत्र तेज़ी से अपने आप में विशिष्ट और जटिल होते जा रहे हैं। जानकारियों का यह अंबार ज्ञान-अज्ञान के बीच एक विरोधाभास पैदा कर रहा है जिसमें जानकारी तो बढ़ती है लेकिन ऐसा ज्ञान नहीं बढ़ता जिसे अच्छे उपयोग में लाया जा सके! ऐसे वैज्ञानिक शोध पत्र लिखना, जो पढ़ने-समझने में स्पष्ट हों, इस खाई को पाटने में मदद कर सकते हैं और वैज्ञानिक अनुसंधानों की उपयोगिता बढ़ा सकते हैं।”

एक्रोनिम का अत्यधिक उपयोग वैज्ञानिक शोध पत्रों को पढ़ने और उनके संदेश समझने में मुश्किलें पैदा करता है। उक्त शोधकर्ताओं ने 1950 से 2019 के बीच पबमेड के ज़रिए प्राप्त जीव विज्ञान और चिकित्सा क्षेत्र में प्रकाशित कुल 2.40 करोड़ शोध पत्र और 1.8 करोड़ सार-संक्षेप देखे।

शोधकर्ताओं ने पाया कि इनमें से 11 लाख शोध पत्रों में एकदम निराले एक्रोनिम उपयोग किए गए थे। यहां एक्रोनिम से तात्पर्य ऐसे संक्षिप्त रूपों से है जिनमें आधे या आधे से अधिक अक्षर कैपिटल अक्षर हों – इस परिभाषा के अनुसार mRNA और BRCA1 एक्रोनिम हैं, लेकिन N95 (मास्क जो हम पहनते हैं) वह नहीं है। एक्रोनिम के उपयोग की भरमार अस्पष्टता, गलतफहमी और अकार्यक्षमता पैदा करती है। उदाहरण के लिए एक्रोनिम UA के चिकित्सा जगत में 18 अलग-अलग मतलब हैं। (उनमें से कुछ हैं: यूरैसिल एडेनाइन, अंबिलिकल एक्टिविटी, यूरिन एनालिसिस, युनिवर्सल एनेस्थीसिया)।

लेखक कई ऐसे शोधपत्रों का भी हवाला देते हैं जिनमें एक-एक वाक्य में कई एक्रोनिम होते हैं जो समझने में बाधा डालते हैं: जैसे Applying PROBAST showed that ADO, B-AE-D, B-AE-D-C, extended ADO, updated BODE , and a model developed by Bertens et al were derived in studies assessed as being at low risk of bias.

मैंने बहुत कोशिश की मगर इसका मतलब नहीं समझ सका। इसलिए मैंने अपने जीव विज्ञान के साथियों को चुनौती दी कि वे मुझे इसका मतलब समझाएं। (मैंने यह पद्यांश देश के 8 युवा साथियों को भेजा, और कहा कि जो सबसे पहले इसका मतलब मुझे समझाएगा उसे इसके बदले एक गिलास वाइन या एक कप कॉफी और मेरे लेख में इसका श्रेय मिलेगा। जिन्होंने सबसे पहले, 18 घंटों के भीतर, जवाब दिया वे थीं पोस्टग्रेजुएट इंस्टिट्यूट ऑफ मेडिकल एजुकेशन एंड रिसर्च, चंडीगढ़ की मन्नीलुथरा गुप्तसर्मा। मैं उनका धन्यवाद करता हूं और उनकी डॉक्टरेट थीसिस मार्गदर्शक के रूप में खुद को गौरवान्वित महसूस करता हूं!)

कई विश्लेषकों ने इसके संभावित समाधान सुझाए हैं:

(1) एक पेपर में 3 से ज़्यादा एक्रोनिम का उपयोग ना करें।

(2) केवल सुस्थापित एक्रोनिम का उपयोग करें। और उन एक्रोनिम का उपयोग ना करें जो भ्रम पैदा कर सकते हैं; जैसे, HR जिसका मतलब हार्ट रेट या हैज़ार्ड रेशियो हो सकता है। उचित होगा कि पूरा शब्द ही लिखें।

(3) जब भी किसी नवनिर्मित एक्रोनिम का उपयोग करें तो यह स्पष्ट करें कि इसका मतलब क्या है और इसकी आवश्यकता क्यों है।

(4) लघु-रूप शब्द के प्रयोग करने के सम्बंध में, जहां तक संभव हो लघु-रूप शब्द ना लिखें। अक्सर लोगों या नीति निर्माताओं के लिए की गई वैज्ञानिक समीक्षा, और चिकित्सकीय शोध में कई एक्रोनिम और लघु-रूप शब्द उपयोग किए जाते हैं। तो बेहतर होगा कि इनमें शुरुआत या अंत में इन शब्दों की एक सूची दे दी जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/pzhwt8/article32475028.ece/ALTERNATES/FREE_960/30TH-SCIAB-SARSjpg

भारत में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की स्थिति – स्नेहा सुधा कोमथ

भारत में विज्ञान के क्षेत्र में महिलाएं विषय पर अधिकांश साहित्य, विज्ञान में महिलाओं की ‘अनुपस्थिति’ ही दर्शाता है जबकि अब हालात ऐसे नहीं हैं। उपलब्ध प्रमाणों के व्यापक विश्लेषण के आधार पर यह आलेख बताता है कि विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है, हालांकि अलग-अलग विषयों में स्थिति काफी अलग-अलग है। अलबत्ता, विज्ञान के क्षेत्र में भले ही महिलाओं की संख्या बढ़ी है, लेकिन अब भी उन्हें रुकावटों का सामना करना पड़ता है। इस प्रकार से लिंग-आधारित ढांचा बरकरार है और वैज्ञानिक संस्थानों को आकार देता है। आलेख का तर्क है कि संस्थानों-संगठनों के मौजूदा मानदंडों और मानसिकता में बदलाव लाए बिना महिला-समर्थक नीतियां शुरू करना प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

साल 2017 की विश्व आर्थिक मंच की रिपोर्ट बताती है कि 144 सर्वेक्षित देशों में से भारत, लैंगिक-असमानता के मामले में 87वें पायदान से गिरकर 108वें पायदान पर आ गया था। स्वास्थ्य और औसत आयु के मामले में भारत 141वें पायदान पर और आर्थिक अवसरों के मामले में 139वें पायदान पर था। यहां तक कि शिक्षा के मामले में भारत का स्थान 112वां था। कोई ताज्जुब नहीं कि भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भी लैंगिक-अंतर काफी अधिक है। युनेस्को सांख्यिकी संस्थान (2017) के अनुसार वैज्ञानिक अनुसंधान के क्षेत्र में भले ही लोगों की संख्या में 37.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है लेकिन महिला शोधकर्ताओं की संख्या में मामूली कमी आई है, 2010 में महिला शोधकर्ताओं का प्रतिशत 14.3 था जो 2015 में गिरकर 13.9 प्रतिशत हो गया।

हो सकता है कि भारतीय मध्यम वर्ग इन आंकड़ों को ‘अन्य’ भारत से जोड़कर देखे, जैसे कि ये ग्रामीण इलाकों और शहरी झुग्गियों में रहने वाले हाशियाकृत और गरीब लोगों के हों। लेकिन भारतीय विज्ञान समुदाय, या सामाजिक-आर्थिक मध्यम वर्ग और शिक्षित वर्गों के लिए इन आंकड़ों के क्या मायने हैं? क्या भारतीय वैज्ञानिक अनुसंधान और शिक्षा में महिलाओं की स्थिति वाकई चिंतनीय है? यदि है, तो क्या इन आंकड़ों का महिलाओं की उच्च शिक्षा या विज्ञान अनुसंधान प्रशिक्षण तक पहुंच में कमी से है, या ये दर्शाते हैं कि कितनी महिलाएं इन क्षेत्रों को छोड़ देती हैं? क्या कोई ऐसे खास विषय या खास क्षेत्र हैं जिनमें महिलाओं की उपस्थिति बेहतर है और इसके क्या कारण हैं? क्या ढांचागत कारण विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं को बराबर भागीदारी से रोकते हैं? क्या विज्ञान अनुसंधान समुदाय में महिलाओं को मिलने वाली मान्यता, इन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति से मेल खाती है? इस सम्बंध में उपलब्ध प्राथमिक और द्वितीयक जानकारी के आधार पर यहां ऐसे कुछ सवालों को जांचने का प्रयास है।

संक्षिप्त इतिहास और वर्तमान संदर्भ

स्वतंत्रता के तुरंत बाद भारत सरकार ने 1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की स्थापना की थी। अन्य उद्देश्यों के अलावा एक उद्देश्य यह था कि भारत में विश्वविद्यालयीन शिक्षा और शोध के उद्देश्यों व लक्ष्यों की छानबीन की जाए। स्पष्ट रूप से, नवनिर्मित राष्ट्र में ज़ोर सामाजिक परिवर्तन के लिए शिक्षा पर था। 1950 में आयोग द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का एक पूरा हिस्सा महिला शिक्षा पर केंद्रित था। इसमें अनुशंसाओं के खंड में बताया गया था कि “कुछ क्षेत्र महिलाओं के लिए बहुत ही उपयुक्त हैं… जिनमें महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में महिलाओं को शिक्षा दी जा सकती है।” समिति द्वारा सुझाए गए विषय थे गृह अर्थशास्त्र, नर्सिंग, अध्यापन और ललित कलाएं। रिपोर्ट के इस हिस्से की प्रस्तावना में कई उत्कृष्ट नैतिक आदर्शों का प्रतिपादन किया गया था, जैसे:

हमें कई सुझाव मिले हैं जो कहते हैं कि महिलाओं की शिक्षा ड्राइंग, पेंटिंग या इसी तरह की अन्य सुंदर ‘उपलब्धियां’ हासिल करने के लिए होनी चाहिए ताकि जब उनके पति महत्वपूर्ण काम कर रहे हों तब सम्पन्न महिलाएं अपना वक्त बिना किसी नुकसान के काट सकें। यह सोच अब नहीं रहना चाहिए। महिलाएं पुरुषों के साथ जीवन और आज के ज़माने के विचार और रुचियों में बराबर की हिस्सेदार होनी चाहिए। वे पुरुषों के समान शैक्षणिक कार्य करने के योग्य हैं, उनमें विचारों और गुणवत्ता की कमी नहीं है। महिलाओं की क्षमताएं पुरुषों के समान हैं। (1950 में जारी विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग की रिपोर्ट, अध्याय 12, पृ. 343-344)

हालांकि, इस दौर में कुशल महिला वैज्ञानिक बनाने पर ज़ोर नहीं था। यह बात शुरुआती वर्षों में विभिन्न कोर्स में हुए दाखिलों में भी झलकती है। वर्ष 1961-62 में ‘लड़कों और लड़कियों के पाठ्यक्रम में भेद’ पर राष्ट्रीय महिला शिक्षा परिषद द्वारा गठित हंसा मेहता समिति की सिफारिश के साथ दोनों के लिए ‘समान पाठ्यक्रम’ के मुद्दे पर गंभीरता से चर्चा शुरू हुई। 1964-66 में कोठारी आयोग ने इससे एक कदम आगे बढ़कर आग्रह किया कि महिलाओं को भी विज्ञान पढ़ने के लिए सक्रिय रूप से प्रोत्साहित करना चाहिए।

कहने का मतलब यह नहीं है कि इस समय तक भारत में उच्च शिक्षा या विज्ञान शिक्षा से महिलाएं नदारद थीं। कई अध्ययनों ने भारत में औपनिवेशिक काल से आधुनिक वैज्ञानिक अनुसंधान में महिलाओं की स्थिति की छानबीन की है। कई अध्ययन, ना केवल महिला वैज्ञानिकों के व्यक्तिगत संघर्ष बयां करती जीवनियां बताते हैं बल्कि उस समय के सामाजिक-राजनैतिक हालात के बारे में भी बताते हैं। कमला सोहोनी, आसीमा चटर्जी या जानकी अम्मल जैसी कई महिला वैज्ञानिकों ने नई ज़मीन तोड़ी थी और जाति और लिंग की दोहरी बाधाओं को पार करके प्रयोगशाला तक का रास्ता तय किया और तमाम पाबंदियों की कठोर परिस्थितियों में भी काम करती रहीं। लेकिन चूंकि इस समय तक इन क्षेत्रों में महिलाओं को शामिल करना राजकीय नीति का हिस्सा नहीं था इसलिए उस समय जिन महिलाओं ने मुकाम हासिल किया वे दरअसल एक ज़्यादा बड़ी लड़ाई लड़ रही थीं। जैसे कमला सोहोनी विज्ञान (जैव-रसायन शास्त्र) में पीएचडी की डिग्री हासिल करने वाली पहली महिला बनीं। ग्रेजुएशन में अव्वल आने के बावजूद उन्हें भारतीय विज्ञान संस्थान, बैंगलौर में प्रवेश देने से इन्कार कर दिया गया था। और इन्कार करने वाले कोई और नहीं, नोबेल पुरस्कार विजेता सी. वी. रमन थे। अंतत: जब रमन ने प्रवेश दिया तो उन्होंने प्रवेश के साथ सख्त और अपमानजनक शर्तें रखीं – जैसे, पहले एक वर्ष में उन्हें नियमित छात्र नहीं माना जाएगा; उनके मार्गदर्शक दिन में जिस समय कहेंगे, उन्हें काम करना होगा, और उन्हें यह सुनिश्चित करना होगा कि उनकी उपस्थिति अन्य छात्रों को विचलित ना करे। जिन महिलाओं ने इन क्षेत्रों में काम करना संभव बनाया, उन्होंने बहुत ही विषम परिस्थितियों में कार्य किया। लेकिन, इनमें से कई महिलाओं ने तो यह माना ही नहीं कि उन्हें हाशिए पर धकेला गया था और इसे लिंग-भेद की तरह देखने से इन्कार किया।

औपनिवेशिक शासन से स्वतंत्रता और नए संविधान (जो सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है) को अपनाने के बाद खेल के नियमों में बुनियादी परिवर्तन हुए। लड़के और लड़कियों के लिए समान पाठ्यक्रम और आधुनिक गणित और विज्ञान का अध्ययन करने के लिए महिलाओं को सक्रिय रूप से प्रोत्साहन की सिफारिश करके हंसा मेहता समिति और कोठारी आयोग की रिपोर्टों ने इन परिवर्तनों की नींव रखी थी। लेकिन हम इस दिशा में कितना आगे बढ़ पाए हैं, और अभी मंज़िल और कितनी दूर है?

जैसा कि यह आलेख दिखाने की कोशिश करता है, पहले की तुलना में आज स्थिति काफी बदल गई है। लेकिन आज भी, मंशाओं और कार्रवाई के बीच काफी अंतर हैं। उदाहरण के लिए प्रमुख विश्वविद्यालयों/कॉलेजों के स्नातक कार्यक्रमों में विज्ञान की अपेक्षा कला और मानविकी जैसे विषयों तक महिलाओं की पहुंच अधिक ‘आसान’ बनाई गई है। दिल्ली विश्वविद्यालय को ही देखें तो पता चलता है कि स्नातक स्तर पर समाजशास्त्र और मनोविज्ञान विषय मात्र ‘महिला’ कॉलेजों में चलाए जाते हैं, जबकि 22 महिला कॉलेजों में से सिर्फ 5 में स्नातक स्तर पर भौतिकी विषय उपलब्ध है। मुंबई के भी कई महिला कॉलेजों में से कुछ ही बुनियादी विज्ञान में स्नातक कोर्स चलाते हैं जबकि कई कॉलेजों में मनोविज्ञान और समाज शास्त्र विषय हैं। चेन्नई के कई महिला कॉलेजों में विज्ञान के कई विषय समूह के रूप में उपलब्ध हैं। जैसे, कुछ कॉलेजों में विज्ञान संकाय के नाम पर सिर्फ गणित के साथ नागरिक शास्त्र और मनोविज्ञान विषय पढ़ाए जाते हैं (हालांकि, गणित की प्रकृति दोहरी है – इसमें बीए और बीएससी दोनों कर सकते हैं)। दिल्ली, मुंबई और चेन्नई में गृह विज्ञान के कोर्स अधिकांशत: महिला कॉलेजों में पढ़ाए जाते हैं। यहां तक कि होम साइंस पढ़ाने के लिए खास महिला कॉलेज भी

हैं। यही स्थिति नर्सिंग और शिक्षा में भी है, जिन्हें पारंपरिक रूप से महिलाओं के लिए उपयुक्त माना गया है।

तालिका – 1:वर्ष 2015-16 में विभिन्न विषयों में दाखिले
भौतिक विज्ञान पुरुष स्त्री कुल %पुरुष %स्त्री
गणित 50081 79523 129604 38.64 61.36
भौतिकी 25540 35349 60889 41.95 58.05
रसायन 44651 55237 99888 44.70 55.30
सांख्यिकी 3691 4618 8309 44.42 55.58
भू-भौतिकी 633 359 992 63.81 36.19
इलेक्ट्रॉनिक्स 2640 2055 4695 56.23 43.77
भूगर्भ शास्त्र 3518 2079 5597 62.86 37.14
जीव विज्ञान          
प्राणि विज्ञान 13811 27214 41025 33.66 66.34
वनस्पति विज्ञान 12021 24715 36736 32.72 67.28
जैव-रसायन 2137 4447 6584 32.46 67.54
बायोटेक्नॉलॉजी 4579 9955 14534 31.51 68.49
सूक्ष्मजीव विज्ञान 3457 8607 12064 28.66 71.34
लाइफ साइंस 2460 4633 7093 34.68 65.32
आनुवंशिकी 351 487 838 41.89 58.11
जैव-विज्ञान 1650 2950 4600 35.87 64.13

कॉलेज/होस्टल के भेदभाव पूर्ण नियमों और समय की पाबंदी को देखें, जिनका देश की अमूमन हर महिला छात्रा को कॉलेज और विश्वविद्यालय में पालन करना होता है। महिला सुरक्षा के नाम पर बने ये नियम-निर्देश पुस्तकालयों, प्रयोगशालाओं, व्याख्यानों, सार्वजनिक स्थानों और परिवहन तक महिलाओं की बराबर पहुंच के अधिकार को कुचल देते हैं। राजस्थान सरकार द्वारा 2008 में स्थापित ज्योति विद्यापीठ महिला विश्वविद्यालय ने होस्टल में रहने वाली छात्राओं के लिए अपनी वेबसाइट के ‘हॉस्टल लाइफ’ पेज पर कई सख्त पाबंदियां लिखी हैं। जैसे होस्टल कैम्पस के अंदर और बाहर उनकी गतिविधियों पर लगातार कड़ी नज़र रखी जाएगी जिसका ब्यौरा उनके अभिभावकों को दिया जाएगा, और मोबाइल फोन या अन्य ऐसे उपकरण, जिनमें सिम कार्ड हो या उससे इंटरनेट चलाया जा सकता हो, का उपयोग करते पाए जाने पर दंडात्मक कार्रवाई की जाएगी। वनस्थली विद्यापीठ के नियम के मुताबिक विवाहित महिलाएं किसी भी कोर्स में प्रवेश का आवेदन नहीं कर सकतीं, सिवाय कुछ ‘विशेष परिस्थितियों’ में स्नातकोत्तर कार्यक्रमों में इसकी छूट है। 1983 में आंध्र प्रदेश सरकार द्वारा तिरुपति में स्थापित श्री पद्मावती महिला विश्वविद्यालय में छात्राओं को ‘डीन द्वारा स्वीकृत साफ और सभ्य पोशाक’ पहनने की ही अनुमति है। इसके अलावा उन्हें कॉलेज या कॉलेज अधिकारियों की नीतियों और कार्यों की आलोचना सम्बंधी बैठक करने की अनुमति भी नहीं है। बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से सम्बद्ध एक महिला कॉलेज का ऐसा ही एक मामला सर्वोच्च नयायलय तक पहुंचा था। दायर की गई याचिका के अनुसार, छात्रावास नियम वहां रहने वाली महिलाओं/रहवासियों को रात 8 बजे के बाद बाहर जाने, यहां तक कि किसी कार्यक्रम में शामिल होने या विश्वविद्यालय परिसर की लायब्रेरी तक जाने की अनुमति नहीं देते। छात्रावास के नियम लड़कियों को रात 10 बजे के बाद टेलीफोन/मोबाइल फोन कॉल करने या सुनने की भी अनुमति नहीं देते हैं; उनके होस्टल के कमरों में मुफ्त वाई-फाई और इंटरनेट भी उपलब्ध नहीं कराया जाता है। जबकि पुरुष छात्रों पर इनमें से एक भी नियम लागू नहीं होता।

इन परिस्थितियों में जब हमें अखबारों में इस तरह खबरें पढ़ने को मिलती हैं कि पीजी, एमफिल छात्रों में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हैं, तो थोड़ा ठहर कर इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यह स्थिति सिर्फ सामाजिक विज्ञान और मानविकी विषयों में ही नहीं बल्कि बुनियादी विज्ञान विषयों में भी है, जो कि सराहनीय है। मेनपॉवर प्रोफाइल ईयर बुक के साल 2000-01 के आंकड़े बताते हैं कि 2000-01 में विज्ञान में स्नातकोत्तर स्तर पर प्रति 100 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या 80.1 थी जो अखिल भारतीय उच्च शिक्षा सर्वेक्षण (AISHE) के ऑनलाइन सर्वे के अनुसार साल 2011-12 में बढ़कर 113 हो गई थी, और साल 2015-16 में 157 तक पहुंच गई थी। यही नहीं, हर विषय में हमें इसी तरह के आंकड़े मिलते हैं। तालिका 1 में साल 2015-16 में भौतिक विज्ञानों और जीव विज्ञानों में पोस्ट ग्रेजुएशन में दाखिला लेने वालों की संख्या दर्शाई गई है। इसे देखें तो पता चलता है कि कई विषयों में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक हैं। यह स्थिति ना सिर्फ जीव विज्ञान से जुड़े विषयों में है, बल्कि भौतिक विज्ञान के विषयों में भी है। ज़ाहिर है कि तमाम बाधाओं के बावजूद, भौतिक विज्ञान की उच्च शिक्षा को अब महिलाएं अपनी पहुंच से बाहर नहीं मानतीं। लेकिन आंकड़ों पर गौर करें तो पता चलता है कि भौतिक विज्ञानों की तुलना में जीव विज्ञानों में दाखिला लेने वाली महिलाओं की संख्या काफी अधिक है, जो इस आम धारणा को मज़बूत करती है कि महिलाएं गणित आधारित विषयों की तुलना में जीव विज्ञान से सम्बंधित विषय लेना ज़्यादा पसंद करती हैं।

चलिए, इस मुद्दे को अच्छे से समझने के लिए और आंकड़े देखते हैं। तालिका 2 में साल 2015-16 के भौतिक विज्ञान के विषयों और जीव विज्ञान के विषयों में स्नातकोत्तर और उच्चतर शिक्षा में दाखिला लेने वाले और उत्तीर्ण करने वाले लोगों की संख्या एक साथ रखी गई है। तुलना करें तो पता चलता है कि स्नातकोत्तर में महिलाएं पुरुषों की तुलना में काफी अधिक हैं, लेकिन जब शोध संस्थानों या शोध कार्यों में दाखिले की बात आती है तो भौतिक विज्ञान में लिंग-भेद बरकरार है। ध्यान दें कि शोध कार्यक्रमों में दाखिला लेने वालों की संख्या, स्नातकोत्तर उत्तीर्ण करने वालों की संख्या से बहुत कम (बीसवें हिस्से से दसवें हिस्से के बराबर) है। अर्थात, पात्र उम्मीदवारों की संख्या उपलब्ध सीटों की संख्या से 10-20 गुना है। लेकिन 2015-16 के AISHE आंकड़ों के अनुसार भौतिक विज्ञान विषयों के एमफिल और पीएचडी कार्यक्रम में 63 प्रतिशत पुरुष और सिर्फ 37 प्रतिशत महिला छात्र थे।

वर्ष 2011-12 में, हालांकि कुछ खास विषयों में लैंगिक-असमानता अधिक देखी गई थी, लेकिन भौतिक विज्ञान के विषयों में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में से सिर्फ 41 प्रतिशत और पीएचडी में दाखिला लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 33 प्रतिशत ही महिलाएं थीं। तुलना के लिए देखें कि साल 2015-16 में, जीव विज्ञान के विषयों में स्थिति इसके विपरीत थी: जीव विज्ञान में एमफिल में प्रवेश लेने वाले कुल छात्रों में सिर्फ 47 प्रतिशत पुरुष थे जबकि 53 प्रतिशत महिलाएं थीं और पीएचडी में प्रवेश लेने वालों में 54 प्रतिशत महिला और 43 प्रतिशत पुरुष छात्र थे। यही स्थिति 2011-12 में भी थी, जीव विज्ञान में एमफिल या पीएचडी में दाखिला लेने वाले छात्रों में से महिलाएं लगभग 60 प्रतिशत थीं।

पहले की तुलना में अब पीएचडी में अधिक महिलाओं के प्रवेश लेने से पीएचडी पूरी करने की वाली महिलाओं की संख्या बढ़ना चाहिए। AISHE वेबसाइट पर कुछ विशेष सालों के छात्रों का डैटा उपलब्ध नहीं है, साइट पर 2011 के बाद के विभिन्न वर्षों का उत्तीर्ण करने सम्बंधित डैटा उपलब्ध है। लेकिन इन आंकड़ों के अनुसार साल 2011-12 जीव विज्ञान में डॉक्टरेट हासिल करने वालों में से सिर्फ 41 प्रतिशत ही महिलाएं थीं और साल 2015-16 में लगभग 46 प्रतिशत महिलाएं थीं। कोई अचरज नहीं कि भौतिक विज्ञान में यह लैंगिक-अंतर और भी अधिक था। 2011-12 में, भौतिक विज्ञान में पीएचडी करने वालों में पुरुष 67 प्रतिशत और महिलाएं केवल 33 प्रतिशत थीं। और 2015-16 में, भौतिक विज्ञान में पीएचडी करने वालों में पुरुष 70 प्रतिशत और महिलाएं 30 प्रतिशत थीं।

शोध और शिक्षण में कार्यरत महिलाएं

आंकड़ों को देखें तो जीव विज्ञान की उच्च शिक्षा में लैंगिक-अंतर कम नज़र आता है लेकिन यह देखना उपयोगी होगा कि इन क्षेत्रों के रोज़गार में महिलाओं की स्थिति क्या है। इसके लिए हमने देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों और अनुसंधान/शोध संस्थानों के जीव विज्ञान विभागों में नियुक्ति के आंकड़े देखे। तीन केंद्रीय विश्वविद्यालयों को जानबूझकर शामिल किया गया था, क्योंकि ये ‘शोध विश्वविद्यालय’ हैं जहां फैकल्टी के सदस्य बड़ी तादाद में सक्रिय अनुसंधान कार्य में संलग्न रहते हैं। इन विश्वविद्यालयों में बाहर से वित्त पोषित शोध प्रोजेक्ट्स भी चलते हैं। यहां के वैज्ञानिक कमोबेश मात्र स्नातकोत्तर या एमफिल/पीएचडी स्तर के शिक्षण कार्य में लगे होते हैं। दरअसल, पीएचडी कार्यक्रम इन विश्वविद्यालयों का मुख्य फोकस है। कुछ शोध संस्थान या तो एकीकृत स्नातकोत्तर-पीएचडी प्रोग्राम या सिर्फ पीएचडी प्रोग्राम संचालित करते हैं, लेकिन उनमें भी इन कार्यक्रमों के तहत कक्षा-अध्यापन अनिवार्य है। अलबत्ता, जो लोग भारत के वैज्ञानिक अनुसंधान वित्तपोषण के परिदृश्य से परिचित हैं वे जानते हैं कि इन संस्थानों के बीच भी स्पष्ट ऊंच-नीच मौजूद है – अनुसंधान संस्थानों को बेहतर वित्तपोषण मिलता है और उनका बुनियादी ढांचा बेहतर है। इस तरह हमारे पास तुलना के लिए दो भिन्न व्यवस्थाओं के आंकड़े उपलब्ध थे। अध्ययन में शामिल संस्थानों में जीव विज्ञान विभागों में साल 2018 के पूर्व तक रहे लिंगानुपात का पता लगाने के लिए इन संस्थानों की वेबसाइट पर उपलब्ध डैटा का उपयोग किया। अध्ययन में शामिल शोध संस्थान/विश्वविद्यालय हैं :

  • जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय से सम्बद्ध स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज़ (SLS), स्कूल ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (SBT), स्पेशल सेंटर ऑफ मॉलीक्यूलर मेडिसिन (SCMM); हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय से सम्बद्ध, स्कूल ऑफ लाइफ साइंसेज़ का जैव-रसायन विभाग, पादप विज्ञान विभाग, प्राणि जीव विज्ञान, जैव प्रौद्योगिकी और जैव सूचना विज्ञान (बायोटेक) विभाग। दिल्ली विश्वविद्यालय का जैव-रसायन विभाग, जैव-भौतिकी विभाग, सूक्ष्मजीव विज्ञान विभाग, आनुवंशिकी विभाग और पादप आणविक जीव विज्ञान विभाग।
  • पुणे, कोलकाता, त्रिवेंद्रम और मोहाली स्थित भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (IISER) के जीव विज्ञान विभाग। प्रत्येक IISER एक स्वायत्त संस्थान है और भारतीय संसद द्वारा 2010 में पारित एनआईटी अधिनियम के अनुसार डिग्री प्रदान कर सकता है।
  • भारतीय विज्ञान संस्थान (IISc) का जैव रसायन विभाग, आणविक जैव-भौतिकी इकाई, आणविक प्रजनन, परिवर्धन एवं आनुवंशिकी विभाग, सूक्ष्मजीव विज्ञान और कोशिका जीव विज्ञान विभाग। IISc यूजीसी अधिनियम के अनुसार एक डीम्ड युनिवर्सिटी है।
  • वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) देश के अनुसंधान और विकास कार्यों में तेज़ी लाने के उद्देश्य से गठित किया गया था। एक समय में CSIR के संस्थान विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध होकर छात्रों को पीएचडी की उपाधि देते थे। 2010 के बाद से ये संस्थान एकेडमी फॉर साइंटिफिक एंड इनोवेटिव रिसर्च (AcSIR) से सम्बद्ध हैं। इस अध्ययन में CSIR द्वारा वित्त पोषित अनुसंधान संस्थानों में से कोलकाता स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल बायोलॉजी (IICB), चंडीगढ़ स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ माइक्रोबियल टेक्नोलॉजी (IMTech), हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी (CCMB), लखनऊ स्थित राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान (NBRI), और दिल्ली स्थित इंस्टीट्यूट ऑफ जीनोमिक्स एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (IGIB) शामिल हैं।
  • DBT द्वारा वित्त पोषित अनुसंधान संस्थान भी इस अध्ययन में शामिल किए गए हैं: दिल्ली स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ इम्यूनोलॉजी (NII), मानेसर स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च इंस्टीट्यूट (NBRC)।
  • मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) का जीव विज्ञान विभाग और बैंगलुरु स्थित नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ (NCBS)। इस अध्ययन में inSTtem और CCAMP संकाय के शिक्षकों को शामिल नहीं किया गया है।

इन संस्थानों से प्राप्त आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि TIFR और NCBS को छोड़कर बाकी अन्य संस्थानों में महिलाएं 30 प्रतिशत से अधिक नहीं हैं। इन संस्थानों में बतौर वैज्ञानिक/शिक्षक लगभग 27 प्रतिशत महिलाएं और 73 प्रतिशत पुरुष हैं।

यह समझना महत्वपूर्ण था कि क्या इन संस्थानों किन्हीं खास पदों पर भिन्न स्थिति दिखती है। इसके लिए एक विश्लेषण हरेक संस्थान/विभाग के अलग-अलग स्तर के पदों का किया गया। यह देखते हुए कि पिछले कुछ वर्षों में महिलाओं के प्रवेश लेने और उत्तीर्ण करने की संख्या में सुधार हुआ है, यह उम्मीद थी कि भले ही वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद काफी अधिक दिखे लेकिन प्रवेश स्तर की नौकरियों पर तो कम से कम लिंगानुपात की यह खाई कम हुई होगी। यानी CSIR संस्थानों में हमें सीनियर प्रिंसिपल साइंटिस्ट या चीफ साइंटिस्ट के पद की तुलना में सीनियर साइंटिस्ट और साइंटिस्ट के पदों पर लिंगानुपात में अंतर कम दिखना चाहिए। नियमित पदों के अलावा अध्ययन में शामिल, जे. सी. बोस फेलोशिप पाने वाले आम तौर पर सीनियर साइंटिस्ट होते हैं और ये सेवानिवृत्त वैज्ञानिक भी हो सकते हैं। चूंकि यह एक फेलोशिप है, इसलिए यह सभी संस्थानों में नहीं होती। एमेरिटस प्रोफेसर, सेवानिवृत्त वरिष्ठ शिक्षक होते हैं और वे भी हर संस्थान में नहीं होते। डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप (ECF), डीएसटी-इंस्पायर आदि एक निश्चित अवधि की फेलोशिप हैं, जो नियमित पद नहीं दर्शाते। हम इन फेलोशिप पर बाद में लौटेंगे।

प्राप्त आंकड़ों से पता चलता है कि CSIR संस्थानों में सभी पदों पर महिलाओं की उपस्थिति समान रूप से कम है। यहां तक कि साइंटिस्ट या सीनियर साइंटिस्ट जैसे प्रवेश स्तर के पदों पर भी महिलाओं की उपस्थिति 30 प्रतिशत से कम है।

क्या DST/DBT से वित्त पोषित संस्थानों में स्थिति अलग है? इसे जांचने के लिए हमने DST/DBT से वित्त पोषित दो संस्थानों, NII और NBRC, से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया। हमने पाया कि यहां भी वरिष्ठ पदों (VI-VII ग्रेड के वैज्ञानिक) पर महिला वैज्ञानिकों की तुलना में पुरुष वैज्ञानिक अधिक थे। और तो और, साइंटिस्ट पदों (IV-V ग्रेड के वैज्ञानिक) पर भी पुरुषों का पलड़ा भारी था।

जैसा कि पहले भी बताया गया है, DAE द्वारा संचालित TIFR और NCBS में स्थिति अलग है। यहां प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर महिलाओं की संख्या अधिक दिखती है।

क्या वे संस्थान जो मास्टर और पीएचडी कार्यक्रम भी चलाते हैं (और इस वजह से उनमें शिक्षण/अनुसंधान विभाग हैं) उनमें महिलाओं की स्थिति अलग है? यह देखना इसलिए भी दिलचस्प होगा क्योंकि शुरुआत में महिलाओं के लिए पहचाने गए ‘उपयुक्त’ कार्यों में से एक शिक्षण था। इस विश्लेषण में ना सिर्फ IISc और DU, JNU और HCU जैसे पुराने विश्वविद्यालय या संस्थान शामिल हैं बल्कि IISER जैसे नए संस्थान भी शामिल हैं। इन नए संस्थानों में भर्तियां भले ही वरिष्ठ पदों के लिए की गर्इं हों, लेकिन इन भर्तियों से हमें मौजूदा रुझानों का अंदाज़ा मिलेगा। गौरतलब है कि IISc और IISERs स्वयं को अनुसंधान संस्थान मानते हैं, ना कि विश्वविद्यालय। उनकी वेतन संरचना, शिक्षकों की स्वायत्तता और कार्य परिवेश केंद्रीय विश्वविद्यालयों से बहुत अलग है।

IISc में, जीव विज्ञान से सम्बंधित विभागों में महिलाओं की संख्या 20 प्रतिशत से कम है। जैसी कि उम्मीद थी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पदों पर लिंग-अंतर अधिक था। लेकिन प्रवेश-स्तर के पद, असिस्टेंट प्रोफेसर, पर तो यह अंतर और भी अधिक था।

सबसे हाल में स्थापित हुए संस्थान IISER में प्रोफेसरों की संख्या कम है। IISER कोलकाता में सिर्फ एक महिला प्रोफेसर थी और इस पद पर पुरुष नियुक्तियां नहीं थी। अन्य तीन IISER संस्थानों में प्रोफेसर के पद पर सिर्फ पुरुष कार्यरत थे और एक भी महिला इस पद पर नहीं थी। सभी IISER संस्थानों में एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही वर्चस्व था। कोलकाता IISER को छोड़कर बाकी तीनों में असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर भी महिलाओं की संख्या बहुत कम थीं। कोलकाता IISER में प्रवेश स्तर के पद (असिस्टेंट प्रोफेसर) के पद पर लिंगानुपात ठीक था।

JNU में प्रोफेसर के पद पर पुरुषों की ही भरमार थी और असिस्टेंट प्रोफेसर के पदों पर भी झुकाव थोड़ा पुरुषों के प्रति था, हालांकि यह उतना अधिक नहीं था।

दिल्ली युनिवर्सिटी के लाइफ साइंस संकाय में प्रोफेसर व एसोसिएट प्रोफेसर पदों पर पुरुषों की अधिक संख्या दर्शाती है कि वहां भी यही स्थिति है। हालांकि असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर महिलाओं की स्थिति बेहतर दिखती है। यहां का डिपार्टमेंट ऑफ जेनेटिक्स एक अपवाद की तरह दिखता है जहां महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हैं।

HCU में भी प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के पद पर पुरुषों का ही दबदबा दिखता है। बायोटेक्नॉलॉजी और बायोइंफॉरमेटिक्स विभाग को छोड़कर बाकी अन्य विभागों में अपवाद स्वरूप असिस्टेंट प्रोफेसर के पद पर लैंगिक-संतुलन बेहतर दिखता है। इनमें भौतिक विज्ञान विभाग के आंकड़ों को शामिल कर लिया जाए तो यह लैंगिक खाई और भी चौड़ी हो जाती है।

आंकड़े बताते हैं कि विज्ञान अध्ययन शालाओं में भौतिक विज्ञानों में महिलाओं की तुलना में पुरुष काफी अधिक हैं।

विभिन्न संस्थानों के जीव विज्ञान संकाय के शिक्षक सम्बंधी डैटा देखें पता चलता है कि –

  • TIFR और NCBS को छोड़कर शेष सभी शोध संस्थानों के वरिष्ठ पदों पर लिंग-भेद झलकता है।
  • इन शोध संस्थानों के प्रवेश स्तर और मध्य स्तर के पदों पर भी लिंग-भेद झलकता है, यहां भी TIFR और NCBS अपवाद हैं।
  • IISc और IISER दोनों संस्थानों के वरिष्ठ और प्रवेश स्तर, दोनों पदों पर लैंगिक अंतर काफी अधिक है। यह IISc जैसे पुराने संस्थान के जीव विज्ञान विभागों में भी झलकता है, और IISER जैसे नए संस्थानों में भी है। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, इन संस्थानों की पहचान शिक्षण संस्थान के रूप में होने के बावजूद इन संस्थानों की आत्म-छवि, वित्त व्यवस्था और शिक्षकों की स्वायत्तता शोध संस्थानों जैसी है, इसलिए हो सकता है कि इन संस्थानों में नियुक्तियों का पैटर्न भी शोध संस्थानों जैसा हो।
  • केंद्रीय विश्वविद्यालयों में प्रवेश-स्तर के पदों पर तो महिला-पुरुष की संख्या में बहुत कम अंतर दिखता है लेकिन वरिष्ठ पदों पर, उम्मीद के मुताबिक, पुरुष ही अधिक दिखते हैं। जबकि ये संस्थान ऐसे संस्थान हैं जहां स्पष्ट रूप से शोध या अनुसंधान कार्यों के साथ शिक्षण कार्य भी ज़रूरी है। इन संस्थानों में मुख्य ज़ोर शिक्षण कार्य पर  होता है।

नियुक्तियों में झलकने वाला यह लिंग-भेद क्या दर्शाता है? क्या यह वास्तव में समाज में व्याप्त लिंग पूर्वाग्रहों का परिणाम है, खासकर भारतीय परिवारों में, जहां माता-पिता अपनी बेटियों को कैरियर-उन्मुख विज्ञान कार्यक्रमों में दाखिला लेने की अनुमति नहीं देते या प्रोत्साहित नहीं करते? या, क्या यह इसलिए है क्योंकि महिलाएं पर्याप्त प्रतिभा नहीं रखतीं या कम महत्वाकांक्षी हैं? या, क्या महिलाएं ऐसे पदों को चुनती हैं जहां शोध कार्य की बजाय शिक्षण पर अधिक ज़ोर होता है? या, क्या उन्हें उन दरबानों और चयन प्रक्रियाओं का सामना करना पड़ता है जो पूर्वाग्रहों के चलते शोध या अनुसंधान पदों पर तो पुरुषों का चुनाव करते हैं लेकिन शिक्षण पदों पर महिलाओं के साथ कम भेदभाव करते हैं? या क्या यह इन सभी का मिला-जुला परिणाम है?

इस संदर्भ में उपलब्ध डैटा जटिल लग सकता है लेकिन इसे समझना मुश्किल नहीं है। इसे समझने के लिए हमने पिछले सात सालों में दो सबसे अधिक प्रतिस्पर्धी प्रारंभिक कैरियर रिसर्च फैलोशिप, DST-INSPIRE फैकल्टी स्कीम और भारत एलायंस डीबीटी-वेलकम अर्ली कैरियर फैलोशिप, पाने वालों के लैंगिक डैटा को खंगाला। ये फैलोशिप (पोस्ट-डॉक्टरल रिसर्च अवार्ड्स) 5 साल की निश्चित अवधि के लिए दी जाती हैं। आंकड़ों से पता चलता है कि 2013 के बाद से इन्हें पाने वालों में महिलाओं की संख्या बढ़ी है और किन्हीं-किन्हीं सालों में तो यह पुरुषों से अधिक भी है। इसका एक संभावित कारण यह हो सकता है कि ये फैलोशिप एक नियमित पद प्रदान नहीं करतीं इसलिए ये पुरुषों को इतना आकर्षित नहीं करतीं। हालांकि, यह कारण असंभव सा जान पड़ता है क्योंकि इन फैलोशिप को पाना, कैरियर में उन्नति करने में मदद करता है और नियमित पदों पर दावेदारी की संभावना बढ़ाता है। इसकी ज़्यादा संभावित व्याख्या यह हो सकती है कि वर्तमान पीढ़ी में जीव विज्ञान में प्रवेश करने वाली महिलाएं शीर्ष पर पहुंचने के लिहाज़ से वाकई पर्याप्त सक्षम और महत्वाकांक्षी हैं।

सहकर्मी मान्यता और पुरस्कार

अब सवाल यह उठता है कि मान्यता और पुरस्कारों के मामले में महिलाएं कितना आगे बढ़ पाई हैं? यहां विशेषकर यह बताना उचित होगा कि 2000 के बाद से कई भारतीय विज्ञान अकादमियों ने लैंगिक समावेश के लिए कई अध्ययन, उच्च कोटि की कार्यशालाएं और जागरुकता सत्रों का आयोजन करवाया है। तो यही देखें कि विज्ञान अकादमियों में महिलाओं के चयन की क्या स्थिति है? उदाहरण के लिए भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) में विभिन्न विषयों में चयनित महिला सदस्यों (फेलो) के आंकड़ों को ही लें। हम पाते हैं कि अधिकांश विषयों में, लैंगिक-समानता ना केवल एक दूर का सपना है बल्कि सक्रिय दखल दिए बिना इस लैंगिक-खाई को पाटना शायद संभव ना होगा। वैसे, जीव विज्ञान में महिलाओं की स्थिति, अन्य विषयों से थोड़ी बेहतर दिखती है।

ऐसी ही निराशाजनक स्थिति प्रतिष्ठित पुरस्कारों में भी दिखती है। जैसे, वर्ष 1958 में शुरु किए गए शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार (जो विज्ञान के सात विषयों के लिए दिए जाते हैं) और हाल ही में शुरू किए गए इन्फोसिस पुरस्कार (जो साइंस और इंजीनियरिंग के 4 विषयों में दिए जाते हैं) की स्थिति पर गौर कीजिए। 2016 तक इन पुरस्कार को पाने वाले कुल 525 लोगों में सिर्फ 16 महिलाएं (यानी 3.04 प्रतिशत) थीं। 2017 में पुरस्कृत लोगों की कुल संख्या 535 हो चुकी थी लेकिन इनमें महिलाओं की संख्या 16 (यानी 2.99 प्रतिशत) रह गई थी। साल 2017 तक इंजीनियरिंग और कम्प्यूटर साइंस में इन्फोसिस पुरस्कार प्राप्त करने वाले आठ लोगों में से केवल एक महिला थी, लाइफ साइंस में पुरस्कृत नौ में 2 महिलाएं थीं और भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत नौ लोगों में सिर्फ एक महिला थी।

पूरे विश्व में समकक्ष लोगों द्वारा मान्यता के रुझान बताते हैं कि दुर्भाग्यवश, यह समस्या वैश्विक है। साल 2017 में नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक शोध पत्र में केपलर और उनके साथियों ने इस बात का विश्लेषण किया था कि महिलाओं द्वारा लिखित शोध पत्रों और पुरुषों द्वारा लिखित शोध पत्रों को कितनी बार अन्य शोध पत्रों में उद्धरित किया जाता है। इसके लिए उन्होंने 1950 से 2015 के बीच 5 मुख्य एस्ट्रोनॉमी जर्नल्स में प्रकाशित 1,50,000 लेखों का विश्लेषण किया था। उन्होंने पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं द्वारा लिखे गए पर्चों को लगभग 10 प्रतिशत कम उद्धरण प्राप्त हुए।

साल 2018 में प्लॉस बॉयोलॉजी में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में हॉलमैन और उनके साथियों ने इस बात की जांच की कि वैज्ञानिक शोध दलों की अगुवाई करने वालों में कितनी महिलाएं दिखती हैं। इसे जांचने के लिए उन्होंने वैज्ञानिक शोध पत्रों के मुख्य लेखक या पत्राचार करने वाले लेखक के जेंडर का विश्लेषण किया। उन्होंने साल 2002 से अब तक पबमेड में प्रकाशित लगभग 91.5 लाख शोध पत्रों के लगभग 3.5 करोड़ लेखकों और 1991 से अब तक arXiv preprints में प्रकाशित 5 लाख शोध पत्रों का विश्लेषण किया। उनका निष्कर्ष था कि भौतिकी विषय में लैंगिक समता लाने में अभी 258 साल और लगेंगे, और जीव विज्ञान में भी 75 साल से भी अधिक वक्त लगेगा। उन्होंने यह भी पाया कि पुरुषों की तुलना में महिलाओं को शोध पत्र लिखने के लिए कम ‘आमंत्रित’ किया जाता है। जीव विज्ञान प्रबंधक विशेषज्ञ खोजने वाली एक कंपनी लिफ्टस्ट्रीम ने एक अध्ययन किया था और बताया था कि बायोटेक प्रबंधन समितियों में महिलाओं को इसलिए कम आंका जाता है क्योंकि वहां आसीन पुरातन-सोच वाले पुरुष मौजूद हैं जो इन पदों पर महिलाओं को शामिल नहीं करते, और यदि यहि रफ्तार रही तो साल 2056 तक इन स्थानों पर लैंगिक समानता नहीं आ सकेगी।

विज्ञान में लैंगिक ढांचा और पूर्वाग्रह

लिंग (जाति भी) सूक्ष्म और व्यापक दोनों स्तरों पर पारस्परिक सम्बंधों और संस्थागत ढांचों, दोनों को प्रभावित करता है। लैंगिक ताना-बाना सांस्कृतिक पूर्वाग्रह भी बनाता है कि किसी स्थिति में हम कैसी प्रतिक्रिया देंगे, या किसी अन्य व्यक्ति से कैसी प्रतिक्रिया की उम्मीद रखेंगे। इसके बाद संस्थागत सांस्कृतिक कायदे बनाए जाते हैं ताकि जेंडर आचार संहिता के उल्लंघन पर दंड दिया जा सके या उस व्यवहार को हतोत्साहित किया जा सके।

2012 में येल के मॉस-रेकुसिन और उनके साथियों का एक बहुत ही दिलचस्प डबल-ब्लाइंड अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज (पीएनएएस) में प्रकाशित हुआ था। इसमें नियुक्ति के समय वैज्ञानिकों की लैंगिक पहचान के प्रति ‘निष्पक्षता’ को जांचा गया था। 127 विज्ञान शिक्षकों (पुरुष और महिला दोनों) को लैब मैनेजर के पद के लिए लिखे गए दो में से एक आवेदन दिया गया था। दोनों आवेदन एकदम समान थे, एकमात्र अंतर लिंग (जॉन बनाम जेनिफर) का था। वैज्ञानिकों को योग्यता, नियुक्ति की पात्रता, संभावित वेतन और मार्गदर्शन करने की क्षमता के आधार पर आवेदकों को अंक देने के लिए कहा गया था। अध्ययन में उन्होंने पाया कि पुरुष आवेदक को ना केवल योग्यता, नियुक्ति की पात्रता और मार्गदर्शन करने की क्षमता के संदर्भ में उच्च आंका गया बल्कि उसे महिला आवेदक की तुलना में अधिक वेतन का भी प्रस्ताव दिया गया (30,238.10 डॉलर बनाम 26,507.94 डॉलर)। चयनकर्ता के महिला या पुरुष होने का उनके आकलन पर कोई असर नहीं दिखा; पुरुष चयनकर्ता की तरह महिला चयनकर्ता ने भी, पुरुष आवेदक को महिला आवेदक से अधिक आंका।

अब यह बात व्यापक रूप से स्वीकार कर ली गई है कि विज्ञान के क्षेत्र में विभिन्न लिंगों के छात्रों में रूढ़ छवियां (स्टीरियोटाइप) और अनजाने में बने लैंगिक पूर्वाग्रह होते हैं। इस बारे में गंभीर खोजबीन जारी है कि ये काम कैसे करते हैं। साल 2015 में हैंडले द्वारा पीएनएएस में प्रकाशित एक अध्ययन में यह विचार किया गया था कि विज्ञान में लैंगिक पूर्वाग्रह के प्रमाणों का मूल्यांकन महिला और पुरुष कैसे अलग-अलग करते हैं। उन्होंने कुल तीन डबल-ब्लाइंड अध्ययन किए – दो समूह आम लोगों के थे जबकि एक समूह विश्वविद्यालय फैकल्टी का था जिसमें STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग और मेथेमेटिक्स) और non-STEM दोनों विषयों के लोग थे। यहां हम सिर्फ यह देखेंगे कि STEM और non-STEM विषय के 205 लोगों को जब मॉस-रेकुसिन के शोध पत्र का सारांश मूल्यांकन के लिए दिया गया तो उनकी क्या प्रतिक्रिया रही। उन्हें non-STEM विषयों के पुरुष और महिला शिक्षकों की प्रतिक्रियाओं में कोई खास अंतर नहीं दिखा। दूसरी ओर, STEM विषय की महिलाओं की तुलना में STEMसंकाय के पुरुषों ने सारांश को कमतर आंका। non-STEM विषय के सारे लोगों द्वारा किए गए मूल्यांकन और STEM विषय की महिलाओं द्वारा किए गए मूल्याकंन में भी कोई खास अंतर नहीं था। इन नतीजों के आधार पर शोधकर्ताओं का निष्कर्ष था कि यह इस वजह से नहीं है कि STEM विषय की महिलाओं ने अतिशयोक्ति पूर्ण आकलन दिया बल्कि इसलिए है कि STEM विषय के पुरुष अपने कार्यक्षेत्र में लिंग पूर्वाग्रह की संभावना को स्वीकार करने के इच्छुक नहीं होते; यदि वे इसे स्वीकार करेंगे तो हो सकता है कि उन्हें प्राप्त विशेष दर्जे पर सवाल उठ जाएं।

2010 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एडवांस स्टडीज़ के सहयोग से इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की अनीता कुरुप और उनके साथियों द्वारा किए गए प्रशिक्षित वैज्ञानिक महिला कर्मियों के सर्वेक्षण में कुछ चौंकाने वाले निष्कर्ष सामने आए थे। उनके अध्ययन में 794 पीएचडी कर चुके लोग शामिल थे, जिसमें लगभग 40 प्रतिशत पुरुष थे। शोधकर्ताओं ने इन लोगों को चार श्रेणियों में बांटा था: अनुसंधान में संलग्न महिलाएं (WIR), अनुसंधान ना करने वाली महिलाएं (WNR), काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) और अनुसंधान में संलग्न पुरुष (MIR)। पता चला कि पीएचडी करने वाली 87 प्रतिशत महिलाओं ने विज्ञान में काम करना जारी रखा, लेकिन इनमें से लगभग 63 प्रतिशत महिलाएं ही शोध कार्य (WIR) कर रहीं थीं। बाकी महिलाओं का शोध कार्य में ना होने का सबसे प्रमुख कारण था नौकरी ना मिलना। काम ना करने वाली महिलाएं (WNW) नियमित पद ना मिलने या केवल अस्थायी पद मिलने के कारण विज्ञान के क्षेत्र में कैरियर बनाने से पीछे हट गई थीं। यह स्थिति विशेष रूप से उन महिलाओं के साथ थी जिनके पति उसी या उसके प्रतिस्पर्धी वैज्ञानिक क्षेत्रों में पीएचडी थे, या वैज्ञानिक अनुसंधान में संलग्न थे। इन महिलाओं को मिलने वाली नौकरी की अस्थायी प्रकृति ने अक्सर परिवार की ज़रूरतों, जैसे बुज़ुर्र्ग या बच्चों की देखभाल, के लिए इन्हें ही घर पर रहने को मजबूर किया। दिलचस्प बात यह है कि शोधकार्य करने वाली महिलाओं में से 14 प्रतिशत महिलाओं ने शादी नहीं की थी जबकि शोधकार्य करने वाले केवल 2.5 प्रतिशत पुरुषों ने शादी नहीं की थी। यह भी पता चला कि प्रति सप्ताह प्रयोगशाला में 40-60 घंटे बिताने वालों में पुरुषों की तुलना में महिलाओं (WIR) की संख्या अधिक थी। और कई पुरुषों ने उनके बच्चे बड़े होने पर प्रयोगशाला में सप्ताह में 40 घंटे से भी कम समय बिताया। फिर भी महिलाओं के प्रति यह रूढ़िवादी सोच बनी हुई है कि महिलाएं शोध के लिए प्रतिबद्ध नहीं होती या उनमें परिवार और कैरियर की प्राथमिकता को लेकर द्वंद्व चलता रहता है।

विज्ञान अकादमियों और वित्त पोषण एजेंसियों की पहल

जैसा कि पहले उल्लेख किया गया था, सदी की शुरुआत में भारत की कई विज्ञान अकादमियों ने विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की अनुपस्थिति, उनको मान्यता में कमी जैसे मुद्दों को पहचाना, और यथास्थिति को बदलने के लिए आवश्यक कदम उठाने की शुरुआत कर दी थी। लेकिन ये कदम कितने प्रभावी रहे? 2004 में भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA) की रिपोर्ट के बाद नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (NAS) और इंडियन एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (IAS) ने कार्यशालाएं आयोजित की और विज्ञान में महिलाओं को शामिल करने के लिए कई पहल की। साल 2005 में DST ने विज्ञान में महिलाओं के लिए एक राष्ट्रीय टास्क फोर्स की स्थापना की। ये ठोस कदम विज्ञान में महिला मुद्दों को सामने लाए और इनसे इन क्षेत्रों में महिलाओं के दाखिले और नियुक्ति के बीच की खाई (यानी तथाकथित रिसाव की समस्या) को पहचानने में मदद मिली। अकादमियों ने नियुक्ति प्रक्रियाओं की दिक्कतों, पारंपरिक घरेलू व्यवस्था में महिलाओं के ऊपर पड़ने वाले दोहरे बोझ और वरिष्ठ पदों या निर्णायक पदों पर महिलाओं की अनुपस्थिति पहचानी। महिलाएं विज्ञान क्षेत्र को बतौर पेशा चुनें, इसे प्रोत्साहित करने के लिए DST ने, इस क्षेत्र में काम करने की परिस्थितियों में सुधार की सिफारिशें की हैं। जैसे, उनके लिए लचीली समय व्यवस्था, बच्चों के लिए झूलाघर, सुरक्षित परिवहन, कैंपस आवास, फेलोशिप, और जागरूकता कार्यक्रम आदि।

लागू करने के लिए इनमें से सबसे आसान सुझाव था फेलोशिप योजनाएं, जो किसी भी तरह से यथास्थिति को चुनौती नहीं देतीं। उदाहरण के लिए DST की महिला वैज्ञानिक योजना को ही लें। यह कार्यक्रम उन पीएचडी धारी महिलाओं को अनुसंधान कार्यों में वापस जोड़ने के लिए चलाया गया था जिनके कैरियर में किन्हीं कारणों से अंतराल आ गया था। लेकिन उनके लिए नियमित रोज़गार के अवसर प्रदान करने की योजना के बिना, ऐसी अधिकांश योजनाएं सिर्फ एक, अनिश्चित वादे के साथ, पोस्ट-डॉक्टरल फेलोशिप भर बनकर रह गर्इं। कई साल पहले 1984 में, UGC ने तकनीकी रूप से प्रशिक्षित लोगों को आकर्षित करने और इस क्षेत्र में बनाए रखने के लिए रिसर्च साइंटिस्ट स्कीम शुरू की थी। विदेश में अच्छे पदों पर कार्यरत कई लोग इस स्कीम का लाभ पाने के लिए देश लौट आए थे। 1999 आते-आते UGC इस योजना को जारी रखने का इच्छुक नहीं था, और इस योजना से सम्बंधित मेज़बान संस्थान इन शोध वैज्ञानिकों को अपने यहां लेने के लिए तैयार नहीं थे। कई UGC-शोध वैज्ञानिक कानूनी कार्रवाइयों की मदद से सेवानिवृत्ति तक अपने पद पर बने रह सके जबकि कई लोगों ने इन संस्थानों में वैमनस्य का सामना किया। यही हश्र 2008 में शुरू हुए DST-INSPIRE फैकल्टी प्रोग्राम या 2013 में शुरू हुए यूजीसी फैकल्टी रिचार्ज प्रोग्राम का भी होता दिख रहा है, यदि मेज़बान संस्थान इन कार्यक्रमों के तहत नियुक्त किए गए शिक्षकों को फंडिंग खत्म होने के बाद भी अपने संस्थानों में रखने का कोई तरीका नहीं निकाल लेते।

दुर्भाग्य से, अक्सर फंडिंग योजनाओं की घोषणा शीर्ष स्तर से की जाती है। पुरानी योजनाओं के सटीक आकलन करने वालों और संस्थानों के बीच इस पर चर्चा की कमी रहती है। यहां, विभिन्न फंडिंग एजेंसियों द्वारा शुरु किए गए पीएचडी अनुसंधान योजनाओं के हितधारकों के साथ बमुश्किल ही कोई उचित चर्चा होती है, और नौकरशाह अक्सर इन कार्यक्रमों को अपने नियंत्रण में रखते हैं और हितधारकों के हाथ में कुछ नहीं होता।  

इससे भी अधिक मुश्किल है ऐसे कार्यक्रमों या समाधानों को लागू करना जो स्थापित एकछत्र सत्ता को चुनौती देते हैं। इस देश में कई वर्ष एक छात्र के रूप में और अलग-अलग संस्थानों में एक शिक्षक के रूप में बिताने के बाद, आज भी मैं ऐसे किसी लैंगिक संवेदीकरण कार्यक्रम के बारे में नहीं जानती जो विज्ञान-कर्मियों, छात्रों या शिक्षकों के लिए स्वैच्छिक या अनिवार्य रूप से चलाया जाता हो। मैंने ऐसे कई कार्यक्रमों में भाग लिया है, जिनका उद्देश्य विज्ञान में कैरियर के लिए अधिक महिलाओं को आकर्षित करना है, लेकिन इनमें से एक भी कार्यक्रम ऐसा नहीं रहा जो गंभीरता से विज्ञान के विभागों या संस्थानों को ज़्यादा समावेशी, ज़्यादा विषमांगी बनाने पर मंथन करता है। मैंने शायद ही कभी किसी संस्थान को इन कार्यशाला की सिफारिशों को अपनाते देखा है, और आकलन करते देखा है कि ये कदम कितने सफल रहे? अधिकांश संस्थानों/विभागों में, यहां तक कि जीव विज्ञान विभाग में (जहां पीएचडी प्रवेश में लैंगिक-अनुपात अब उलट चुका है) आज भी औसतन केवल 25 प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। कुछ संस्थान महिलाओं को शिक्षकों के तौर पर नियमित करने वाली नीतियों की वकालत करते हैं, या लचीले समय की सुविधा या आवास सुविधा देने का वायदा करते हैं। लेकिन इस सबके बावजूद, अनीता कुरुप और उनके साथियों का अध्ययन बताता है कि ये सब महिलाओं में उनके कैरियर के प्रति प्रतिबद्धता में कमी नहीं लाती हैं। इनमें से अधिकांश महिलाएं विवाहित थीं और अपने परिवार के साथ रहती थीं जहां बच्चों या बुज़ुर्गों की देखभाल उनकी ही ज़िम्मेदारी रहती है। इनके लिए कुछेक संस्थान ही अच्छे झूलाघर या सुरक्षित परिवहन जैसी सहायता मुहैया करा सके। इनमें से अधिकांश संस्थानों में आज भी यही स्थिति है। लचीले समय की सुविधा देने की बजाय कई संस्थाओं ने अधिक बाज़ारोन्मुख, और मुनाफा केंद्रित तरीके अपनाएं हैं जिसके चलते कार्यस्थल पर उपस्थिति के अधिक कठोर नियम बने हैं। जैसे आधार-लिंक्ड बायोमेट्रिक्स प्रणाली, जिससे महिला वैज्ञानिकों को और भी मुश्किल हालात का सामना करना पड़ता है।

यह हमारे सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है कि क्या इस बात से कोई फर्क पड़ता है कि ये नीतियां कौन बनाता है? क्या इससे फर्क पड़ता है कि हितधारक कौन है? या क्या ‘स्थान’ (location) पूरी तरह अप्रासंगिक है? इसे समझने के लिए हम UGC की महिलाओं को विज्ञान अनुसंधान कार्यों की ओर आकर्षित करने के लिए बनाई हालिया नीति को देखते हैं। यूजीसी नियमन 2016 के अनुच्छेद 4.4 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि “महिलाओं और 40 प्रतिशत से अधिक विकलांगता वाले उम्मीदवारों को एमफिल पूरी करने के लिए अधिकतम एक साल और पीएचडी पूरी करने के लिए अधिकतम दो साल की अवधि की छूट दी जा सकती है। इसके अलावा, महिला उम्मीदवारों को एमफिल/पीएचडी के दौरान एक बार 240 दिनों का मातृत्व अवकाश या बाल देखभाल अवकाश दिया जा सकता है।” पहली नज़र में, यह पहल महिलाओं को उनकी पीएचडी पूरी करने में मदद करने की नज़र से बहुत ही उदार लगती है, इससे हमारे पास नियुक्त करने के लिए प्रशिक्षित लोगों का एक बड़ा पूल तैयार होगा। सभी महिलाएं, चाहे वे विवाहित हों या ना हों, अपनी पीएचडी पूरी करने के लिए दो अतिरिक्त वर्षों की हकदार हैं। यदि महिलाओं को 40 प्रतिशत विकलांग लोगों के समकक्ष देखना अपमानजनक ना भी लगे तो जिन लोगों ने इस नीति को बनाया है उन्होंने इससे एक कदम आगे जाकर बच्चों की देखभाल का सारा बोझ महिलाओं के कंधों पर डाल दिया है। और तो और, शादी और उससे जुड़े समझौतों का सारा बोझ भी महिलाओं पर डाल दिया है। यूजीसी रेग्यूलेशन 2016 का अनुच्छेद 6.6 कहता है कि “विवाह या अन्य किसी कारण से यदि महिला को एमफिल/पीएचडी स्थानांतरण करना पड़े तो, रेग्यूलेशन में उल्लेखित सभी सुविधाओं/शर्तों के साथ अनुसंधान डैटा उस युनिवर्सिटी को हस्तांतरित करने की अनुमति होगी जिसमें वे जाने का इरादा रखती हैं, और यह अनुसंधान मूल संस्थान या मार्गदर्शक का नहीं कहलाएगा। हालांकि, पीएचडी करने वाले को मूल मार्गदर्शक और शोध संस्था को उचित श्रेय देना होगा।” इन नियमों को देखते हुए, क्या यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि विज्ञान में शोध पर्यवेक्षक (चाहे पुरुष हो या महिला) अपनी प्रयोगशाला में पुरुष की बजाय किसी महिला शोधार्थी को पीएचडी के लिए वरीयता देंगे?

जैसा कि पहले ही बताया गया था कि विज्ञान क्षेत्र में महिलाओं की कमी, प्रशिक्षित महिलाओं की कमी के कारण नहीं है। इस क्षेत्र में बाधाएं अक्सर इसके बाद आती हैं – रोज़गार के अवसरों की कमी, बुनियादी सुविधाओं की कमी और संस्थानों द्वारा सहयोग में कमी, ये सब मिलकर महिलाओं को इस क्षेत्र से बाहर रखते हैं। ऐसी नीतियां जो उन्हीं लोगों को शामिल नहीं करतीं जिनके लिए वे बनाई जा रही हैं, तो अंतत: अक्सर उन लोगों के जीवन और अनुभवों में कोई खास परिवर्तन नहीं आता है जिन्हें ध्यान में रखकर वे बनाई गई थीं। लेकिन बात तो तब बिगड़ जाएगी जब अंत में कोई नीति उनके लिए ही विनाशकारी या अहितकारी साबित हो जिनके हित में यह बनाई गई है।

इसके अलावा, इसमें शामिल संस्थाओं के ढांचे में बदलाव किए बिना इन नीतियों को लागू करना, विपरीत परिणाम दे सकता है और परिणामस्वरूप व्याप्त रूढ़ियों और पूर्वाग्रहों को मज़बूत कर सकता है। यह स्पष्ट है कि क्यों कई महिलाएं लिंग आधारित आरक्षण को लेकर शंका व्यक्त करती हैं, या कई महिलाएं लचीली समय सुविधा लेने में या प्रतिस्पर्धात्मक माहौल में जहां पुरुषों की अधिकता है वहां घर से काम करने की सुविधा लेने में हिचकती हैं। अंतर्निहित लैंगिक सोच संस्था के ढांचे में झलकता है। इस प्रकार, इन संस्थाओं के ढांचे में सक्रिय बदलाए किए बिना, हम उन्हीं को दोहराने की संभावना बनाते हैं। जैसा कि IISERs जैसे संस्थान को देख कर समझ आता है कि क्यों इन नए संस्थानों में भी पुराने संस्थानों जैसा ही लैंगिक असंतुलन दिखाई देता है।

निष्कर्ष के तौर पर

पिछले सत्तर सालों में भारत के विज्ञान परिदृश्य में बहुत कुछ बदला है। आज़ादी के बाद, भारत ने विज्ञान शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए काफी संसाधन लगाए हैं। साठ के दशक के मध्य से विज्ञान में लिंग समानता बढ़ाना भी इसके उद्देश्यों में से एक है। वैश्विक और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर ही विज्ञान के विभिन्न कामों और वैज्ञानिक संस्थानों की आंतरिक प्रक्रियाओं में भी काफी बदलाव आए हैं। शायद इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण सकारात्मक उपलब्धि है कि विज्ञान में अध्ययन और शोध में प्रवेश लेने वाली महिलाओं की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है। और यह केवल विज्ञान के कुछ विषयों या देश के कुछ हिस्सों तक ही सीमित नहीं है। पुरुषों की तुलना मे उच्च शिक्षा के हर क्षेत्र में लगातार महिलाओं के दाखिला लेने और उत्तीर्ण होने की संख्या बढ़ रही है। साठ के दशक में विज्ञान के अधिकांश विषयों में महिलाओं की पूर्ण अनुपस्थिति को देखें तो वर्तमान स्थिति तक आना सराहनीय बात है। जैसा कि कई लोगों ने कहा है, बीसवीं शताब्दी के सामाजिक सुधार और उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष, दोनों ने एक ऐसा इतिहास रचा जहां महिलाओं की शिक्षा की एक सकारात्मक छवि बनी। हालांकि, उनका यह कदम लिंग भेद पर टिका था – उद्देश्य महिलाओं को इसलिए शिक्षित करना नहीं था कि वे एक कुशल पेशेवर की तरह सार्वजनिक जीवन का हिस्सा बनें बल्कि इसलिए था कि वे भावी पीढ़ी के लिए सक्षम माताएं बन सकें। हालांकि इन प्रयासों ने महिलाओं के लिए उन आधुनिक औपचारिक शिक्षा स्थानों को खोल दिया जिनके दरवाज़े उनके लिए बंद थे। यह खास तौर से उन वर्गों के लिए खुले, जो खुद को सक्रिय रूप से नए राष्ट्र निर्माता के रूप में देख रहे थे, यानी नवोदित मध्यम वर्ग। खुद को नए राष्ट्र के संरक्षक के रूप में देखते हुए उन्होंने माना कि यह नया राष्ट्र एक गरिमामयी इतिहास और उत्कृष्ट आध्यात्मिक सभ्यता का वाहक है जिसमें आधुनिकमूल्यों का समावेश करना है। इनमें से पहली और दूसरी पीढ़ी के कई शिक्षित अभिजात्य वर्ग ने भी शिक्षा को आध्यात्मिकता और तपस्या के बराबर माना था। इस प्रकार, भारतीय संस्कृति के संदर्भ में समय के साथ शिक्षा ने अधिक वैधता हासिल की।

बहरहाल, वैज्ञानिक कार्यस्थलों में खासकर वैज्ञानिक संस्थानों और उच्च पदों पर पर्याप्त संख्या में महिलाओं की मौजूदगी होने में अभी भी काफी लंबा वक्त लगेगा। विज्ञान अकादमियों और पुरस्कार पाने वालों में भी महिलाएं कम संख्या में है। वर्तमान व्यवस्था जिस तरह बनी है, यह एक ऐसी बिसात की तरह है जिसे महिलाएं कभी नहीं जीत सकतीं। कॉर्पोरेट अर्थ व्यवस्था की तरह वैज्ञानिक संस्थानों में भी लैंगिक ढांचे के तहत ‘जान-पहचान’ के आधार पर काम होता है। यह तो सर्वविदित है कि भारत में ऐसे नेटवर्क या जान-पहचान द्वारा ही नियुक्तियां,चुनाव, नामांकन, पुरस्कार के पात्र चुने जाते हैं, जिन तक महिलाओं की आसान पहुंच नहीं होती है।

इससे भी महत्वपूर्ण है कि यह सिर्फ गतिशीलता या काबिल महिला वैज्ञानिकों को मान्यता की बात नहीं है। विज्ञान की दुनिया में प्रवेश करने वाले युवा शोधकर्ताओं को अनुकरणीय उदाहरणों के रूप में पर्याप्त महिलाएं नहीं दिखतीं, जो इस रूढ़ि को बल देता है कि वैज्ञानिक तो पुरुष ही होते हैं और इस तरह एक नकारात्मक छवि का चक्र चलता रहता है और विज्ञान में महिलाओं के लिए आत्म-पराजय की स्थिति बनाता है। सार्वजनिक दायरे में महिलाओं की बढ़ती उपस्थिति इन स्थानों को अन्य महिलाओं के लिए अधिक सुलभ और सुरक्षित बनाएगी। यह वैज्ञानिक प्रतिष्ठान में सभी पदों पर महिलाओं की मौजूदगी को भी बढ़ाएगा, इसके अलावा उच्च पदों पर महिलाओं की मौजूदगी प्रयोगशाला और कक्षाओं में युवा महिला शोधार्थी को सहज करेगी, और उनके उत्साह और वैज्ञानिक क्षमता दोनों को बढ़ाएंगी। हालांकि, सांकेतिकता इसका जवाब नहीं होना चाहिए। सांकेतिक अल्पसंख्यक, चाहे जाति के मामले में हो या लिंग के, अक्सर बहुसंख्यकों की राय को मज़बूत करता है और समितियों में इस बात का दिखावा भर करता है कि ये समितियां सामाजिक पूर्वाग्रहों से मुक्त है। जैसा कि कोठारी समिति का आव्हान था, लगातार विविधता को प्रोत्साहित करना मात्र सामाजिक न्याय का तकाज़ा नहीं है, बल्कि यह विज्ञान के लिए अनिवार्य है और उसकी प्रगति के अग्रदूत वाली आत्म-छवि का भी सवाल है। जिन देशों और संस्थानों ने विविधता को सक्रिय रूप से प्रोत्साहित किया है, उन्हें इसके साथ आने वाले ज्ञान, अनुभवों और विचारों की विविधता का लाभ मिला है।

वैज्ञानिक संस्थानों के लिए इन सहज तथ्यों को पहचानना इतना कठिन क्यों है? विज्ञान और तार्किकता का मज़बूत रिश्ता होते हुए भी वैज्ञानिक प्रतिष्ठानों को अपने कामकाज के तरीकों या कार्यप्रणाली में ‘लिंग-आधारित समस्याएं’ पहचानने में मुश्किल आती है। तार्किकता के मुद्दे पर वैज्ञानिकों को कैसे चुनौती दी जा सकती है? वैज्ञानिकों को तो तार्किक रूप से सोचने और कार्य करने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है, तो वे इसके विपरीत कैसे हो सकते हैं? चूंकि वे ज़्यादातर जिन विषयों पर शोध करते हैं उन विषयों का सम्बंध जेंडर से कम होता है, उनके पाठ्यक्रम/प्रशिक्षण में एक विषय के रूप में ‘जेंडर’ को शामिल करना अक्सर एक बड़ी चुनौती होती है। थोड़ा उकसाने वाले अंदाज़ में कहें, तो वैज्ञानिकों में लैंगिक-अंधत्व स्वाभाविक रूप से होता है। फिर भी जैसे-जैसे इसके ‘वैज्ञानिक साक्ष्य’ सामने आते जाते हैं तो यह ज़रूरी होता जाता है कि वैज्ञानिक अपने अंदर के घोषित-अघोषित दोनों पूर्वाग्रहों की जांच करें, उन नीतियों पर चर्चा करें जो वास्तव में अधिक महिला समावेशी हैं, वरिष्ठ और निर्णायक पदों के साथ शिक्षकों के तौर पर महिलाओं को शामिल करने के बेहतर और अधिक पारदर्शी तरीके खोजें। महिलाओं की मौजूदगी बढ़ाना, निष्पक्षता बढ़ाने और विज्ञान में उत्पादकता और उत्कृष्टता बढ़ाने जैसा है। यह दोनों हाथों में लड्डू का खेल है!(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हर बच्चा वैज्ञानिक है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में एम.एस. स्वामीनाथन रिसर्च फाउंडेशन द्वारा ‘लचीले खाद्य, पोषण और आजीविका के लिए विज्ञान: समकालीन चुनौतियां’ विषय पर एक वर्चुअल कसंल्टेशन आयोजित किया गया था। इसमें कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के ब्रूस एल्बर्ट्स ने विज्ञान शिक्षा पर बहुत ही प्रासंगिक व्याख्यान दिया। व्याख्यान का विषय था विज्ञान संप्रेषण। यह विषय हमारे यहां निकट भविष्य में लागू की जाने वाली नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति के संदर्भ में विशेष रूप से प्रासंगिक है।

प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान संप्रेषण में भागीदारी के लिए पूरी दुनिया में जाने जाते हैं। वे साइंस पत्रिका के मुख्य संपादक रह चुके हैं। उनकी किताब मॉलीक्यूलर बॉयोलॉजी ऑफ सेल (कोशिका का आणविक जीव विज्ञान) जीव विज्ञान के किसी भी स्नातक छात्र के लिए ‘बाइबल’ है। मैं यहां उनके उपरोक्त व्याख्यान की कुछ मुख्य बातों का ज़िक्र करूंगा।

विज्ञान शिक्षा पर बात करने से पहले प्रो. एल्बर्ट्स भौतिक विज्ञानी पियरे होहेनबर्ग के कथन की याद दिलाते हैं, “किसी भी वैज्ञानिक का काम छोटे एस (‘s’) से शुरू होने वाला साइंस (विज्ञान) होता है, स्वतंत्र वैज्ञानिकों द्वारा कई बार परीक्षण किए जाने के बाद यह छोटा एस (‘s’) सामूहिक सार्वजनिक ज्ञान के रूप में बड़े एस (‘S’) में बदलता है जो विरोधाभास से मुक्त और सार्वभौमिक होता है।” (किसी वैज्ञानिक द्वारा किया गया दावा जब तक अन्य वैज्ञानिकों द्वारा उसी प्रक्रिया से पुन:प्राप्त नहीं किया जाता, तब तक वह सिर्फ दावा रहता है सत्य नहीं)। उदाहरण के लिए, नॉर्मन बोरलॉग ने खोज की थी कि मेक्सिकन बौने किस्म के गेहूं के पौधे उच्च पैदावार देते हैं; इसका एम.एस. स्वामीनाथन द्वारा स्वतंत्र रूप से परीक्षण किया गया और सत्य साबित किया गया। इस खोज ने आगे चलकर भारत में हरित क्रांति का मार्ग प्रशस्त किया; या यूं कहें कि इस प्रक्रिया में नॉर्मन बोरलॉग की खोज साइंस के ‘s’ से ‘S’ में बदल गई, और सामाजिक रूप से मूल्यवान के रूप में पहचानी और स्वीकार की गई। इसे एक ट्रांसलेशनल रिसर्च के रूप में भी जाना जाता है (बेशक, ‘s’ का तात्पर्य यहां STEM के सभी क्षेत्रों, यथा चिकित्सा, कृषि और सामाजिक विज्ञान से भी है)।

प्रो. एल्बर्ट्स विज्ञान शिक्षा पर अपनी बात की शुरुआत इस कथन से करते हैं कि हरेक बच्चा एक वैज्ञानिक है। कितनी सही बात है! चाहे शिशु हो या स्कूली छात्र हों, वे अपने आसपास के परिवेश, आसपास के लोगों, जानवरों, पेड़-पौधों, मिट्टी और धूल से वाकिफ होते हैं। बच्चे उत्सुक प्रेक्षक होते हैं। जानकारी इकट्ठी करना उनके स्वभाव में होता है। उनकी इस क्षमता को बढ़ावा देने और फलने-फूलने का मौका देने के लिए अमेरिका के कई स्कूलों में ‘व्हाइट सॉक्स’ नामक प्रयोग किया गया था।

व्हाइट सॉक्स प्रयोग

इस प्रयोग में 5 साल की उम्र के स्कूली बच्चे शामिल थे। प्रयोग में शामिल हरेक बच्चे से अपने जूते उतारने के लिए कहा गया और सिर्फ सफेद मौज़े (जो उनकी युनिफॉर्म का हिस्सा थे) पहनकर पूरे परिसर में घूमने को कहा गया। इसके बाद उन्हें उनके मौज़ों पर चिपके हुए कणों को इकट्ठा करने और उन्हें वर्गीकृत करने को कहा गया: इनमें से कौन-से बीज हैं, और कौन-से महज़ धूल-मिट्टी? इसके बाद शिक्षक ने हरेक छात्र से स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी द्वारा विकसित कम लागत वाले माइक्रोस्कोप का उपयोग कर इन कणों का विश्लेषण कर इस बात की पुष्टि करने के लिए कहा कि बीज और धूल के लिए जो उनके निष्कर्ष थे क्या वे सही हैं। (माइक्रोस्कोप के लिए देखें https://www.foldscope.com/)। कई छात्रों ने माइक्रोस्कोप विश्लेषण कर अपने अनुमान की पुष्टि की कि नियमित आकार वाले कण वाकई बीज हैं। वे माइक्रोस्कोप में अपने दोस्तों के नमूनों को देखकर इस बात की जांच भी कर सकते थे कि उनके दोस्तों के निष्कर्ष सही हैं या नहीं। ‘व्हाइट सॉक्स’ अध्ययन ऐसे ही सरल प्रयोगों का एक समूह था जिसमें तकनीक का उपयोग, अनुमान की जांच और आपस में समीक्षा शामिल थी।

भारत का डिपार्टमेंट ऑफ बायोटेक्नॉलॉजी (डीबीटी) प्रो. मनु प्रकाश की प्रकाश लैब से कम लागत वाले फोÏल्डग माइक्रोस्कोप खरीदकर कई छात्रों को देने की तैयारी कर रहा है। (देखें <ted.com/talk by Manu Prakash>)

भारत में अमल

यह अच्छी बात है कि पूरे भारत में कई भाषाओं में काम करने वाले कई एनजीओ हैं जो विज्ञान को आसान/लोकप्रिय बनाने का प्रयास कर रहे हैं, और राज्य और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमियां और सरकारी एजेंसियां इन प्रयासों का समर्थन भी कर रही हैं। ये संस्थाएं व्हाइट सॉक्स प्रयोग में स्थानीय परिस्थितियों के हिसाब से परिवर्तन कर इसे आसानी से अपना सकती हैं। मीडिया भी छात्रों और नवाचारियों के स्थानीय प्रयासों को उजागर करने में अपनी भूमिका निभा सकता है। नई शिक्षा नीति के तहत, अब इस तरह के नवाचारी प्रयोग 5+3+3+4 के स्तर (आंगनबाड़ी से लेकर कक्षा 12 तक) से लेकर विश्वविद्यालयों के माध्यम से स्नातक और उच्च शिक्षा तक किए जाने चाहिए। और, जैसा कि 4 अगस्त के दी हिंदू के अंक में प्रकाशित लेख स्कूल्स विदाउट फ्रीडम में कृष्ण कुमार कहते हैं, इन योजनाओं को बनाने व क्रियांवयन का काम स्थानीय परिवेश से परिचित शिक्षकों द्वारा किया जाना चाहिए ना कि किसी सरकारी फतवे के द्वारा।

उपयोगी संसाधन

विश्वविद्यालयों के लिए नैन्सी कोबर की किताब Reaching students: what research says about effective instruction in undergraduate science and engineering (यानी छात्रों तक पहुंचना: स्नातक स्तर पर कारगर विज्ञान व इंजीनियरिंग शिक्षण को लेकर शोध क्या कहता है) काफी उपयोगी संसाधन है। इस किताब का पीडीएफ संस्करण www.nap.edu पर मुफ्त उपलब्ध है। और वर्ल्ड साइंस एकेडमीस द्वारा शुरू किया गया एक नया प्रोजेक्ट ‘स्थानीय प्रयासों से संचालित विज्ञान’ स्मिथसोनियन साइंस एजुकेशन सेंटर के माध्यम से उपलब्ध है। इसके लिए डॉ. कैरोल ओ’डॉनेल से संपर्क कर सकते हैं: O’Donnell@si.edu।

युवा अकादमियों की भूमिका

प्रो. एल्बर्ट्स युवा वैज्ञानिकों के लिए अकादमियों की आवश्यकता पर भी ज़ोर देते हैं, जो इस प्रयास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं। अब तक 40 देशों में इस तरह की विज्ञान युवा अकादमियां स्थापित की गई हैं, जिनमें से भारत की भारतीय राष्ट्रीय युवा विज्ञान अकादमी (INYAS) एक है। आम तौर पर युवा वैज्ञानिक ‘दकियानूसी बुज़ुर्गों’ के मुकाबले अधिक सुलभ और स्वीकार्य होते हैं। तो, INYAS यह है आपकी भूमिका!(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/d6x9ui/article32363645.ece/ALTERNATES/FREE_960/16TH-SCICHILD-SCIENCE

विज्ञान शिक्षा का मकसद और पद्धति – आर. एन. के. बमज़ाई

ज़ादी के बाद के दशकों में हमारे देश ने काफी विकास किया है, फिर भी उच्च शिक्षा और विज्ञान व टेक्नॉलॉजी सम्बंधी नीतियों के निर्माण और संशोधन के बाद अभी भी काफी कुछ करना बाकी है। यह आलेख उच्च शिक्षा की पिछली नीतियों और सीखने के परिणाम आधारित उच्च शिक्षा से सम्बंधित है। यहां एक विशिष्ट उदाहरण की मदद से परिणाम आधारित यूजी और पीजी शिक्षा के बारे में कुछ सुझाव दिए गए हैं।

“विज्ञान और वैज्ञानिकों से समाज एवं सरकार को तथा सरकार व समाज से वैज्ञानिकों को क्या उम्मीदें हैं,” यह सवाल जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में शिक्षण की गुणवत्ता का सवाल भी है। देश के युवाओं को उच्च शिक्षा का उद्देश्य अस्पष्ट है। क्योंकि उच्च शिक्षा या तो बेहतरीन कैरियर हेतु प्रमाण पत्र हासिल करने की एक प्रक्रिया बनकर रह गई है या फिर इसने ऐसा मानव संसाधन पैदा किया है जो एक अनुपयोगी संपदा बनकर रह गया है। जनता की राय भी इस दृष्टिकोण का समर्थन करती है।

व्यवहार में उच्च शिक्षा को विज्ञान और प्रौद्योगिकी (एसएंडटी) नीतियों से अलग करना, खास तौर से विज्ञान शिक्षा और उसके अपेक्षित परिणामों के सम्बंध में, काफी निराशाजनक रहा है। इसके अलावा राजनीतिक, शैक्षिक, वैज्ञानिक, सामाजिक और यहां तक कि नौकरशाही संस्थानों जैसे कई स्तरों पर स्पष्टता और निष्पक्षता की काफी कमी रही है। नाभिकीय उर्जा व अंतरिक्ष और कुछ हद तक डेयरी एवं कृषि के क्षेत्र को छोड़ दें तो हमारे पास, खासकर जीव विज्ञान में, ज़्यादा नया ज्ञान उत्पन्न नहीं हुआ है। आम तौर पर जिस ज्ञान का दावा किया जा रहा है वह दरअसल पुराने ज्ञान का पुनर्निर्माण भर है।

जीव विज्ञान की इस स्थिति का कारण कुछ ही क्षेत्रों तक सीमित वैज्ञानिक-राजनीतिज्ञ सम्बंधों के इतिहास में दफन है जिसके चलते चुनिंदा क्षेत्रों में वैश्विक दृश्यता हासिल हुई है। इसके अलावा, 1980 व 1990 के दशक में संस्था निर्माता खुद को प्रभावी ढंग से स्थापित करने और अपने पूर्ववर्तियों की तरह सफलता अर्जित करने में विफल रहे हैं। कुछ अन्य कारण रहे हैं – जैसे टुकड़ा-टुकड़ा योगदान जो विश्व स्तर पर जीव विज्ञान में स्थायी प्रभाव छोड़ने के लिए पर्याप्त नहीं है और देश में मात्र गिने-चुने लोगों द्वारा कुछ ही क्षेत्रों में किए जा रहे छिटपुट प्रयास।

दुर्भाग्यवश, उचित दिशा और मार्ग के अभाव के अलावा, एक कारण यह भी रहा है कि इन संस्थानों में राष्ट्रीय की बजाय निजी उद्देश्यों पर ज़ोर देने के चलते बहुत सारी प्रतिभाएं बेकार पड़ी रह गई हैं। 40 वर्षों के कार्य अनुभव के आधार पर मेरी निजी राय है कि इसके परिणामस्वरूप, कुछ व्यक्तियों को छोड़कर, लगभग एक पीढ़ी का योगदान बिलकुल नहीं मिल सका है। इसका दोष सरकारों और प्रशासन से जुड़े उन लोगों पर जाता है जो जीव विज्ञान के विषय में एक ‘विशाल-विज्ञान’ के लिए गुंजाइश विकसित नहीं कर पाए, जैसा कि नाभिकीय ऊर्जा और अंतरिक्ष विज्ञान में संभव हो सका था।

इस बहु-आयामी समस्या का एक दिलचस्प परिणाम यह है कि राष्ट्रीय स्तर पर स्पष्टता की कमी है और व्यक्तिगत कारक प्रमुख भूमिका निभाते हैं। इसलिए, जीव विज्ञान के लिए ‘विशाल-विज्ञान’ का स्थान बनाने के लिए एक ऐसा परिप्रेक्ष्य विकसित करने की आवश्यकता है जिसके तहत मौजूदा प्रतिभा का उपयोग किया जा सके। साथ ही विज्ञान में उच्च शिक्षा को आकार देने की चुनौतियों का सामना करने के लिए एसएंडटी नीति को विकसित करने की भी आवश्यकता है।

इस बात से तो कोई इन्कार नहीं कर सकता कि एक अच्छा विज्ञान कर्म उपलब्ध मानव संसाधन की गुणवत्ता पर और निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए इसे तैयार करने के तरीकों पर निर्भर है। इन लक्ष्यों का निर्धारण व्यापक भागीदारी और गंभीर मंथन के आधार पर किया जाना चाहिए। हमें अपनी मौजूदा शक्तियों का उपयोग वर्तमान परिस्थितियों के अनुसार करना होगा और बार-बार पहिए का आविष्कार करने की कवायद से बचना होगा।

कोई भी देख सकता है कि जीव विज्ञान के क्षेत्र में, अपनी नीतियों को धरातल पर उतारने और उनके द्वारा निर्धारित आत्म निर्भरता, टिकाऊपन और न्यायसंगत विकास के लक्ष्य को हासिल करने में हम कितने सफल रहे हैं। अतीत में प्रधान मंत्रियों और विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रियों के तमाम बयानों में ‘टिकाऊपन’ तथा ‘आत्म-निर्भरता’ जैसे नारे कई बार मुखरित हुए हैं लेकिन ज़मीनी हकीकत निराशाजनक बनी हुई है।

स्वास्थ्य के संदर्भ में समाज की बुनियादी न्यूनतम आवश्यकताओं, जैसे जल जमाव रोकना, जल निकासी का प्रबंधन, ठोस एवं इलेक्ट्रॉनिक कचरे के कुशल और कम लागत वाले प्रभावी निपटान के अलावा प्रदूषण नियंत्रण, पर पिछले कई दशकों से प्रभावी रूप से कोई ध्यान नहीं दिया गया है। आज जब स्वच्छ भारत से लेकर स्किल्ड और डिजिटल इंडिया जैसे कई अभियान चल रहे हैं, यह देखना बाकी है कि क्या इनसे ज़मीनी हकीकत में बदलाव आएगा और क्या वैज्ञानिक और शिक्षित वर्ग इनमें अपेक्षित भागीदारी करेगा।

अब हमें प्रशिक्षित मानव संसाधन के बारे में ‘रटंत विद्या और उसके आधार पर सफल कैरियर’ से आगे बढ़कर भविष्य में ऐसे पाठ्यक्रम के बारे में सोचना चाहिए जिसमें सीखने के परिणामों को मापा जा सके। इस प्रकार प्राप्त किए गए ज्ञान का उपयोग उपरोक्त मुद्दों का हल निकालने के साथ-साथ नए ज्ञान के सृजन के लिए करना चाहिए।

यदि आप इस बात का अध्ययन करें कि क्या उच्च शिक्षा नीतियों, खासकर विज्ञान की उच्च शिक्षा नीतियों को एसएंडटी नीतियों के अनुरूप ढालने की कोशिश हुई है, तो आपको पता चलेगा कि ऐसा कोई विचार ही नहीं है। इसके अलावा, हमारी नीतियों के कारण उच्च शिक्षा में महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के बीच अधोसंरचना की संस्थागत असमानता पैदा हुई है और ये अलग-अलग रोडमैप के साथ काम करते हैं। नतीजा यह है, अलग-अलग पाठ्यक्रम हैं, अलग-अलग शिक्षण विधियां हैं, प्रायोगिक प्रशिक्षण में अंतर हैं और सीखने के परिणाम भी अलग-अलग हैं। जब भी और जहां भी एकरूपता लाने की कोशिश की गई, हर बार असफलता ही हाथ लगी है।

इसके साथ ही, उभरते हुए ज्ञान के साथ कदम मिलाकर चलने में असफलता, अन्य विषयों से सम्बद्धता और एकीकरण का अधमना प्रयास, और छात्रों की बदलती ज़रूरतों के हिसाब से आवश्यक कौशल प्रदान करने में असफलता ने पाठ्यक्रम में क्रमिक संशोधनों की बजाय यकायक परिवर्तन को आवश्यक बना दिया है। विषय विशेष की पाठ्यक्रम संरचना को बदलने और मापन योग्य परिणाम हासिल करने के लिए यह दृष्टिकोण और रवैया आवश्यक है। हालांकि इसका मतलब यह नहीं है कि नए कलेवर में वही पुरानी चीज़ भर दी जाए, जिसमें पाठ्यक्रमों में टुकड़ा-टुकड़ा संशोधन करके उन्हें सीखने के परिणामों पर आधारित शिक्षा का नाम दे दिया जाता है।

शिक्षा नीतियों के माध्यम से समय-समय पर शिक्षा सम्बंधी बहसें होती रही हैं: विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग (1948); माध्यमिक शिक्षा आयोग (1952); राष्ट्रीय शिक्षा आयोग (डी. एस. कोठारी, 1964-66), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1968); राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा (1979), राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1986) और राष्ट्रीय शिक्षा नीति (1992)। हालांकि, ये नीतियां कागज़ पर प्रशंसनीय दिखती थीं तथा अपने समय के लिए प्रासंगिक दिशा प्रदान करती थीं, लेकिन खराब क्रियान्वयन और निगरानी के कारण उत्कृष्टता लाने में विफल रहीं।

हाल ही में, उच्च शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर प्रबंधन के लिए नियामक एजेंसियों में सुधार की घोषणा की गई है। इसके लिए 2018 में उच्च शिक्षा आयोग का गठन किया गया है ताकि महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों की निगरानी और धन आवंटन के नियामक ढांचे में सुधार किया जा सके। इसने यूजीसी, अखिल भारतीय अध्यापक शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) जैसी स्थापित संस्थाओं के स्वतंत्र कामकाज से सम्बंधित मुद्दों को उजागर किया है जो अपेक्षित कार्य नहीं कर रही हैं। एक विचार यह भी रहा है कि इन संस्थाओं को हटाकर नई संस्थाएं बनाने की बजाय इनसे सही तरह से काम करवाया जाए और इन्हें जवाबदेह बनाया जाए। डर इस बात का है कि मौजूदा संस्थाओं की तरह, कहीं यह विशालकाय उच्च शिक्षा आयोग भी उन्हीं बुराइयों का शिकार न हो जाए। लिहाज़ा इसका समाधान यह है कि मौजूदा संस्थाओं के कामकाज को सुधारा जाए और उन्हें चुस्त बनाया जाए, ताकि हम फिर से वही बातें सीखने में समय न बर्बाद करें।

एक देश के रूप में प्रतिभा को खोजने, उसे पोषित करने तथा सहायता करने में हमने बहुत कम काम किया है। हां, इक्का-दुक्का अपवाद हैं लेकिन उनकी संख्या काफी कम है। अर्थात जिस पैमाने पर यह काम किया जाना है वह नहीं हुआ है और विभिन्न ज़रूरतों के लिए ज़रूरी क्षमता का निर्धारण करना भी बाकी है। सत्ता के गलियारों में अधिकतर लोग एक उबड़-खाबड़ रास्ते पर हैं। सभी के लिए समान रूप से आवश्यक डिज़ाइन और क्रियान्वयन के लिए उन्हें गहरे चिंतन और मनन की ज़रूरत है।

मानव संसाधन विकास मंत्रालय के माध्यम से देश के सामने अवसर है कि यूजीसी को एक अंग के रूप में शामिल करके स्वयम के माध्यम से मुफ्त ऑॅनलाइन शिक्षा आसानी से उपलब्ध कराई जा सकती है। अभी सबसे बड़ा कार्य, विभिन्न विषयों में यूजी और पीजी के लिए बड़े पैमाने पर ऑॅनलाइन कोर्सेज़ और लर्निंग आउटकम आधारित पाठ्यक्रम फ्रेमवर्क के तहत ऑॅनलाइन मॉड्यूल विकसित करना है। यह प्रक्रिया काफी समय से कई देशों में लागू है। इसकी रूपरेखा विकसित करने के लिए कोर समिति और विषय विशेषज्ञों की बैठक हुई थी जिसका उद्देश्य रूपरेखा तैयार करके उसे चर्चा, संशोधन और आखिर में अपनाने के लिए प्रसारित करना था। मुझे लगता है कि यह (स्वयम) विज्ञान के विभिन्न विषयों में पाठ्यक्रम संरचनाओं में गुणात्मक बदलाव लाने का उपयुक्त मौका है, जिसमें सीखने के परिणामों को सटीक रूप से परिभाषित किया जाए और मूल्यांकन किया जाए ताकि इन्हें देश की एसएंडटी नीति में व्यक्त आकांक्षाओं के अनुरूप बनाया जा सके। पाठ्यक्रम संरचनाओं को एकीकृत, बहु-विषयी और अंतर-विषयी तरीके से तैयार करने की आवश्यकता है ताकि वैज्ञानिक विषयों के एक बड़े परास को साथ लाया जा सके और जटिल समस्याओं को हल करने के लिए नई विधियों, अवधारणाओं और दृष्टिकोणों का विकास हो सके। एसएंडटी और उच्च शिक्षा नीतियों में संतुलन बनाने के लिए यदि और जब इस दृष्टिकोण को अपनाया जाता है तो इस बदलाव का विरोध करने वाले शिक्षकों और छात्रों के बीच अभिमत उत्पन्न हो सकते हैं। दूसरी ओर, इसे सामाजिक आवश्यकताओं के लिए प्रासंगिक एवं नई खोजों और नवाचारों के लिए मानव संसाधन तैयार करके उच्च शिक्षा को आकार देने के एक अवसर के रूप में भी देखा जा सकता है।

उदाहरण के तौर पर मैं यहां एक विषय क्षेत्र की झलक प्रदान करता हूं कि किस तरह एसएंडटी में नवाचार के घोषित लक्ष्य को पाठ्यक्रम में सीखने के सुपरिभाषित व सार्थक परिणामों के अनुरूप फेरबदल करके प्राप्त किया जा सकता है। एक अध्ययन के तौर पर मैं जंतु विज्ञान को चुन रहा हूं जो हमारे पारंपरिक महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है। यूजी और पीजी पाठ्यक्रम में कुछ बदलाव लाने के लिए हमें जंतु विज्ञान को आधुनिक जैविक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा जिसमें जीवों को परमाणु स्तर पर देखा जाता है। जीवों की प्रणालियों के तुलनात्मक अध्ययन हेतु रासायनिक, भौतिक, गणितीय और आणविक पहलुओं का कारगर तरीके से एकीकृत अध्ययन करने की आवश्यकता है ताकि विभिन्न जीवों के आंतरिक कामकाज को आकारिकी, कोशिकीय, आणविक, परस्पर क्रियात्मक एवं जैव विकास जैसे विभिन्न स्तरों पर समझा जा सके।

पाठ्यक्रम को संस्था में उपलब्ध संसाधनों और भौगोलिक स्थिति के आधार पर अलग-अलग आकार दिया जा सकता है। लेकिन, इसे सीखने के कमोबेश एकरूप परिणामों के अनुरूप होना चाहिए। उदाहरण के तौर पर, विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में, विभिन्न कौशलों के साथ शिक्षण और प्रायोगिक प्रदर्शन में जैव विकास के विभिन्न सोपानों की क्षेत्रीय प्रजातियों का उपयोग किया जा सकता है और फिर भी तुलनात्मक जीव विज्ञान की समझ एक जैसी हो सकती है। आखिरकार, इसका उद्देश्य अकशेरुकी और कशेरुकी जीवों यानी एकल कोशिकीय प्रोटोज़ोआ से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्यों तक में विभिन्न प्रणालियों की तुलना करते हुए जीव जगत के आंतरिक कामकाज को समझने में मदद देने का होना चाहिए। इसमें सूचना व संचार टेक्नॉलॉजी (आईसीटी) के औज़ारों की मदद ली जा सकती है तथा प्रायोगिक कार्य और मैदानी अध्ययन को भी जोड़ा जा सकता है। दूसरे शब्दों में, यदि विभिन्न फायलम को समझने के लिए एक ही सैद्धांतिक ढांचे का इस्तेमाल किया जाए और आकारिकी और आणविक औज़ारों के आधार पर वर्गीकरण को जैव विकास के आधार पर समझने की कोशिश हो और साथ में उपयुक्त मैदानी व प्रयोगशाला कार्य को जोड़ा जाए तो छात्र रटंत प्रणाली से मुक्त रहेंगे।

यदि कोई छात्र जंतु विज्ञान में उद्यम स्थापित करने में रुचि रखता है तो उसे जीवन के विभिन्न रूपों में विविधता को एक सामाजिक-आर्थिक संपदा के रूप में देखने की आवश्यकता होगी। इसमें प्राणि विज्ञान के प्रयुक्त पहलुओं को ध्यान में रखना होगा। शोध को अपना कैरियर बनाने में रुचि रखने वाले छात्र के लिए ज़रूरी होगा कि वह रासायनिक और भौतिक सिद्धांतों को अणुओं से लेकर स्व-संगठित एवं संगठित जीवों पर इन्हें लागू करना समझे। जीन, जीनोम, कोशिका, ऊतक, अंग और तंत्रों के स्तर पर संरचना व कार्य के परस्पर सम्बंधों का व्यापक व समग्र ज्ञान सीखने के परिणामों में और अधिक योगदान देगा। इसके अलावा ज्ञान का यह आधार औद्योगिक अनुप्रयोग एवं विशुद्ध शोध कार्य, दोनों के लिए जीन एवं जीनोम संपादन के संदर्भ में भी काफी उपयोगी होगा। छात्रों को प्रायोगिक अनुभव प्रदान करने तथा भविष्य में उपयोग के लिए कौशल प्रदान करने के लिए इन समस्याओं से जुड़े लघु शोध प्रबंध हाथ में लिए जा सकते हैं। अर्जित ज्ञान का संश्लेषण और उससे हासिल परिणाम भविष्य में यूजी एवं पीजी के छात्रों के सीखने के परिणामों को परिभाषित करेंगे।

इस तरह जो मानव संसाधन तैयार होगा वह भविष्य की ज़रूरतों, बुनियादी तथा अनुप्रयुक्त दोनों, को पूरा करने के लिए भली-भांति तैयार होगा। वैसे भी अब बुनियादी तथा अनुप्रयुक्त शोध को अलग-अलग करके देखना मुनासिब नहीं है। प्रसंगवश बता दें कि यदि इस दृष्टिकोण को अपनाया जाता है तो शिक्षकों का अध्यापन बोझ अनुकूलित और कम किया जा सकता है, हालांकि शुरू में पाठ्यक्रम की सामग्री को आकार देने के लिए थोड़ी मेहनत करना होगी। शिक्षकों को इसके लिए तथा एकरूप तरीका अपनाने के लिए प्रशिक्षित करने की आवश्यकता होगी।

हालांकि उपरोक्त विशेषताओं की उम्मीद जंतु विज्ञान के यूजी/पीजी के ऐसे समस्त छात्रों से की जा सकती है, जो एक एकीकृत और अंतर-विषयी तरीके से पारिस्थितिक तंत्र के भीतर के अंतर्सम्बंधों के आधार पर विषय का अध्ययन करेंगे लेकिन संस्थान-संस्थान में इसका पैमाना, प्रकृति और गहनता को लेकर भिन्नता हो सकती है। अन्य विषयों के लिए भी ऐसा ही होने की संभावना है।

विषय कोई भी हो, अध्ययन के विषय और उससे जुड़े ‘सामाजिक कौशल’ से सम्बंधित सीखने के परिणामों में एकरूपता लाना अनिवार्य है। विषय से जुड़े कौशलों की एक व्यापक श्रेणी के के भीतर ज़रूरत इस बात की है कि आलोचनात्मक चिंतन, विश्लेषणात्मक और वैज्ञानिक तर्क, तार्किक सोच, सूचना एवं डिजिटल साक्षरता, और समस्याएं सुलझाने की क्षमताएं प्रदान की जाएं एवं उनका आकलन किया जाए। ये वे गुण हैं जो यूजीसी की कोर समिति द्वारा यूजी/पीजी के प्रत्येक छात्र के लिए निर्धारित किए गए हैं।

यदि विज्ञान के विभिन्न विषयों के विभिन्न टॉपिक्स को पढ़ाने के इन तरीकों को अपनाया जाता है, जिसमें विषयों को अनुप्रयोगों के एक दायरे से जोड़ा जाएगा, तो उससे लोगों और भावी पीढ़ियों में विश्वास पैदा होगा क्योंकि इससे उनकी सामाजिक ज़रूरतों की पूर्ति होगी। जो लोग खोजी अनुसंधान की क्षमता दर्शाते हैं उन्हें किसी अप्रासंगिक खोज को दोहराते रहने की बजाय अपनी जिज्ञासा से उभरे अनूठे सवालों के जवाब खोजने का मौका दिया जा सकता है। आखिरकार, प्राप्त शिक्षा और इसके सीखने के परिणाम या तो नए ज्ञान के रूप में होना चाहिए या फिर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से सामाजिक लाभों के रूप में या शायद दोनों रूपों में होने चाहिए। यह नहीं भूलना चाहिए कि आज का तथाकथित ‘बुनियादी’ ज्ञान कल एक अनुप्रयोगी मूल्य प्राप्त कर सकता है। विषय क्षेत्रों की बुनियादी और एकीकृत वैचारिक समझ में स्पष्टता आविष्कारों, खोजों और नवाचार का आधार है। यह समय एसएंडटी मिशन और राष्ट्र निर्माण को पूरा करने के लिए उच्च शिक्षा प्रणाली में पाठ्यक्रम और सीखने के परिणामों को आकार देने का है।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विश्वविद्यालयों को अनुसंधान और नवाचार केंद्र बनाएं – डॉ. एस. बालाकृष्ण

विश्वविद्यालय महज़ डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करने वाली संस्था नहीं होती। यह समाज का वह हिस्सा है जहां ज्ञान का सृजन, नए विचारों का विकास, नवाचार और गहन चिंतन का पोषण होता है। उच्च गुणवत्ता वाले विश्वविद्यालय एक ऐसा माहौल प्रदान करते हैं जहां छात्र महान वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, सामाजिक विचारकों और प्रशासकों के रूप में तैयार होते हैं। अधिकांश विकसित देशों में विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाएं वे स्थान होती हैं जहां नवाचार के साथ नई प्रक्रियाओं और उत्पादों का विकास होता है जिससे उद्योगों को बढ़त हासिल करने में मदद मिलती है। संक्षेप में, किसी समाज की प्रगति का अनुमान विश्वविद्यालयों की मज़बूती से लगाया जा सकता है जो युवाओं को भविष्य के नेताओं, शोधकर्ताओं और शिक्षकों में बदल सकते हैं।

भारतीय युवाओं की एक बड़ी आबादी, खासकर समाज के गरीब तबकों और ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी, को राज्य द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के माध्यम से प्रदान की जाने वाली उच्च शिक्षा से अत्यधिक लाभ होता है। सी.वी. रमन, हर गोबिंद खुराना, वी. रामकृष्ण और अमर्त्य सेन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी अपनी शिक्षा राज्य द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों से प्राप्त की है। आज भी गरीब वर्ग के छात्र केवल ऐसे ही विश्वविद्यालयों में अध्ययन का खर्च वहन कर सकते हैं। आज़ादी के बाद, इन विश्वविद्यालयों ने ही देश के विकास के लिए ज़रूरी बड़ी संख्या में शिक्षित जनशक्ति की आवश्यकता को पूरा किया। भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षित एवं प्रशिक्षित लोगों के दम पर ही देश कृषि, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और स्वास्थ्य सेवा में उपलब्धियां हासिल कर सका है। अलबत्ता, जब अनुसंधान, नए ज्ञान के सृजन और नवाचार की बात आती है, तो हमारे विश्वविद्यालय पिछड़े मालूम होते हैं। वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्हें काफी सुधार की आवश्यकता है।

प्रतिष्ठित शिक्षाविद, अर्थशास्त्री और टेक्नोक्रैट इस बात से सहमत हैं कि एक शिक्षित समाज, शिक्षित अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण चालक शक्ति है। उच्च शिक्षा के साथ जब अनुसंधान जुड़ जाता है, तो वह ज्ञान का निर्माण करता है और ज्ञान के आधार के सतत विकास को संभव बनाता है। रचनात्मकता के साथ ज्ञान का ठोस आधार नवाचार का पोषण करता है। समाज को उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में बदलने की इस महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देते हुए तथाकथित ‘उभरती हुई अर्थव्यवस्था’ वाले देशों ने अपने विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता में काफी सुधार किया है। विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में चीन, दक्षिण कोरिया और ब्राज़ील के कई विश्वविद्यालय हैं। इन देशों के अन्य विश्वविद्यालय शीर्ष रैंकिंग पर पहुंचने के लिए हर आवश्यक प्रयत्न कर रहे हैं। हालांकि भारत में भी हमने महसूस किया है कि विश्वविद्यालय ज्ञान और नवाचार की पौधशालाएं हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अकादमिक नेतृत्व इसको हासिल करने के तरीकों को लेकर अनभिज्ञ है।       

35 वर्ष से कम आयु वाले युवाओं की सबसे बड़ी संख्या के साथ अपनी विशाल जनांकिक क्षमता के दम पर भारत अनुसंधान के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्रदान करके अपनी इस क्षमता का उपयोग कर सकता है। इस तरह का योग्य मानव संसाधन, ज्ञान-आधारित और विनिर्माण दोनों तरह के उद्योगों, के विस्तार के लिए अनिवार्य है। यदि हम अपने विश्वविद्यालयों में शिक्षण और अनुसंधान को बरबाद होने की अनुमति देते हैं, तो हमें या तो अपने छात्रों को विदेश भेजना होगा या फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाना होगा। ये दोनों ही विकल्प काफी महंगे हैं जिनमें विदेशी धन की निकासी अधिक होगी और लाभ आबादी के छोटे-से हिस्से को मिलेगा। इसलिए, हमारे विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा और अनुसंधान की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा उन्हें विश्वस्तरीय बनने के लिए प्रोत्साहित करने की तत्काल आवश्यकता है। इससे हम विदेशी छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के लिए आकर्षित कर पाएंगे जिससे ज्ञान के सृजन को और बढ़ावा मिलेगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए (1) उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों के प्रमुख की नियुक्ति को पारदर्शी तथा योग्यता आधारित होना चाहिए और (2) विश्वविद्यालयों की मुख्य पहचान अनुसंधान और नए ज्ञान के निर्माण में भूमिका के लिए होनी चाहिए और इसके लिए पर्याप्त धन मिलना चाहिए।

देश के कई उच्च शिक्षा संस्थानों का अनुभव है कि किसी भी विश्वविद्यालय को बनाना या बिगाड़ना कुलपति (वीसी) के हाथ में होता है। सभी शैक्षणिक विभागों में फैकल्टी की नियुक्ति वीसी की अध्यक्षता वाली चयन समिति के ज़रिए की जाती है। इस बात से यह तो स्पष्ट है कि वीसी के रूप में एक अयोग्य व्यक्ति फैकल्टी चयन करते समय कबाड़ा कर सकता है। इस तरह विश्वविद्यालय आने वाले दो से तीन दशकों के लिए बरबाद हो जाएगा। वीसी की भूमिका कई अन्य मामलों में भी महत्वपूर्ण होती है: विभिन्न यूजी और पीजी पाठ्यक्रमों में उत्कृष्टता सुनिश्चित करना, उन्हें अद्यतन बनाए रखना, अग्रणी अनुसंधान की सुविधाएं जुटाना, विभिन्न कार्यक्रमों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित विद्वानों को लघु या दीर्घकालिक रूप से आमंत्रित करना आदि।  

विश्वविद्यालयों में इस सुधार की शुरुआत सबसे शीर्ष से, कुलपति की नियुक्ति के साथ, होनी चाहिए। कुलपति नियुक्त करने की वर्तमान प्रथा काफी पुरानी हो चुकी है और वांछनीय परिणाम नहीं दे रही है; इसलिए इसको बदलने की आवश्यकता है। वर्तमान में, प्रत्येक वीसी के चयन के लिए एक ‘सर्च कमिटी’ का गठन किया जाता है जिसके सदस्य कुछ वरिष्ठ शिक्षाविद होते हैं। संभावित उम्मीदवारों को या तो नामांकित किया जाता है या फिर वे सीधे आवेदन करते हैं। इसके बाद ‘सर्च कमिटी’ तीन से पांच नामों की लघु-सूची कुलाधिपति (या केंद्रीय विश्वविद्यालय के मामले में विज़िटर) को भेज देती है, जिनमें से एक का चयन कर लिया जाता है। वर्षों पुरानी यह प्रणाली तब अपनाई जाती थी जब (i) केवल मुट्ठी भर विश्वविद्यालय थे; (ii) राजनीतिक हस्तक्षेप कम से कम था; और (iii) ‘सर्च कमिटी’ सच्चाई और ईमानदारी से चयन प्रक्रिया का संचलन करने में सक्षम थी। देखा जाए तो यह पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी है जहां यह पता नहीं होता कि नामांकित, या फिर आवेदन करने वाले उम्मीदवार कौन-कौन हैं और लघु सूची बनाने में किन मापदंडों का पालन किया गया है। ‘सर्च कमिटी’ द्वारा न तो कोई न्यूनतम मानक मानदंड प्रकाशित किए जाते हैं और न ही उनका पालन किया जाता है, जिससे राजनीतिक और मौद्रिक आधारों पर कुलपति के रूप में अयोग्य व्यक्तियों के चुने जाने की गुंजाइश रहती है। हाल ही में विभिन्न अदालतों द्वारा सुनाए गए फैसले उपरोक्त वास्तविकता का प्रमाण हैं। इस तरह के एक मामले में बॉम्बे के माननीय उच्च न्यायालय ने सवाल किया था कि क्या सर्च कमिटी के सदस्य अंधे थे। पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और कुलपतियों को नियुक्त करने की प्रथा ने स्पष्ट रूप से यह वांछनीय परिणाम नहीं दिया है कि वास्तविक अकादमिक नेता हमारे विश्वविद्यालयों के मुखिया बनें। हमें कुलपतियों के चयन और उनकी नियुक्ति के लिए एक नई पद्धति विकसित करने की आवश्यकता है। और इसकी शुरुआत केंद्र सरकार द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों से की जा सकती है।

विश्वविद्यालय प्रत्येक कुलपति चयन के लिए ‘सर्च कमिटी’ गठन की प्रथा को खत्म कर सकते हैं। एक उच्च शिक्षा नियुक्ति समिति (HEAC) का गठन किया जाना चाहिए जिसमें कम से कम 20 प्रतिष्ठित शिक्षाविद सदस्य हों। HEAC सदस्यों का नामांकन विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, मानविकी एवं भाषा, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमियों द्वारा किया जा सकता है। सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक ही समिति होगी और किसी भी विश्वविद्यालय के कुलपति का चयन विज्ञापन के द्वारा अनिवार्य रूप से प्रतिष्ठित विद्वानों और शिक्षाविदों को आवेदन करने के लिए आमंत्रित करके किया जाएगा। एक निश्चित न्यूनतम मानदंड निर्धारित और प्रकाशित किया जाना चाहिए और जो इन मानदंडों को पूरा करते हैं तथा जिनके पास शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृष्टता के गुण हैं केवल उन्हीं को HEAC द्वारा शार्टलिस्ट किया जाना चाहिए। इसमें से पांच शार्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों का पूरा बायोडैटा प्रकाशित किया जाना चाहिए और आम लोगों को आपत्तियां दाखिल करने को आमंत्रित किया जाना चाहिए। यदि वैध कारणों और प्रमाणों के साथ किसी उम्मीदवार को लेकर कोई आपत्ति है तो उसे सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर किया जाना चाहिए। इसके बाद प्राप्त आपत्तियों का HEAC द्वारा मूल्यांकन करके पैनल से उम्मीदवारों को स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है। शार्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों की अंतिम सूची उस विश्वविद्यालय को भेजी जाएगी जिसके लिए कुलपति का पद भरा जाना है। अकादमिक परिषद या सीनेट और प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों के निकाय को कुलपति के रूप में उनमें से एक का चुनाव करना चाहिए। कार्यकारी परिषद या विश्वविद्यालय के सर्वोच्य प्रशासनिक निकाय को वीसी के रूप में निर्वाचित उम्मीदवार को नियुक्त करने का अधिकार होना चाहिए। उपर्युक्त तंत्र के माध्यम से कुलपति की नियुक्ति से पारदर्शिता और लोकतांत्रिक पद्धति को बढ़ावा मिलेगा और नौकरशाही और राजनैतिक हस्तक्षेप से छुटकारा मिलेगा। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि हमारे विश्वविद्यालयों का नेतृत्व संजीदा शिक्षाविदों के हाथों में होगा जिसका परिणाम बेहतर शिक्षा और अनुसंधान के रूप में सामने आएगा। मोटे तौर पर ऊपर सुझाया गया तरीका अधिकांश विकसित देशों में विश्वविद्यालयों के कार्यकारी प्रमुखों की नियुक्ति में अपनाया जाता है।  

आज़ादी के तुरंत बाद अनुसंधान संस्थानों और प्रयोगशालाओं की स्थापना तो की गई लेकिन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की बड़े पैमाने पर उपेक्षा की गई। विश्वविद्यालयों को प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए धन से वंचित किया गया और फैकल्टी तथा छात्रों को अनुसंधान संस्थानों और प्रयोगशालाओं में विकसित सुविधाओं तक काफी कम पहुंच हासिल है। विश्वविद्यालय ऊर्जा से भरपूर युवाओं और जिज्ञासु छात्रों से भरे पड़े हैं जो विशेषज्ञ फैकल्टी के उचित मार्गदर्शन में शोध एवं नवाचार करने में सक्षम हैं। छात्रों द्वारा रचनात्मक अनुसंधान कार्य स्नातक-पूर्व तथा स्नातक कार्यक्रमों के तहत न्यूनतम वित्तीय सहायता के साथ किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को पर्याप्त बुनियादी संरचना, प्रयोगशाला और उपकरण उपलब्ध कराने से वे ज्ञान सृजन के केंद्र बन जाएंगे।

भारत में स्नातक शिक्षा ज़्यादातर उन कॉलेजों के हवाले छोड़ दी जाती है जहां शोध करने की सुविधाएं कम या बिलकुल भी नहीं होती हैं। अघिकांश मामलों में स्नातक शिक्षा की गुणवत्ता आवश्यक स्तर से भी नीचे होती है जिसके चलते विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर (पीजी) कार्यक्रमों में भर्ती होने वाले छात्रों को पीजी की पढ़ाई शुरू करने के पहले मूलभूत सिद्धांत पढ़ाए जाते हैं। इसके कारण उनको अपने पीजी कार्यक्रम के तहत शोध करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रम शुरू किए जाएं और उन्हें पीजी कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाए। इस नज़रिए को प्रोफेसर के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक समिति द्वारा नई शिक्षा नीति प्रारूप में शामिल किया गया है।       

यूजी कार्यक्रम के छात्रों को अपनी शिक्षा में शोध कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अनुसंधान को पाठ्यक्रम में उसी तरह जोड़ा जा सकता है जैसे थ्योरी समझने के लिए प्रैक्टिकल या प्रयोगशाला कार्य किया जाता है। इसके अलावा, अनुसंधान पर एक अलग कोर्स होना चाहिए (जैसे प्रोजेक्ट) जिसको चार से छह क्रेडिट दिए जा सकते हैं। इस प्रकार युवा स्नातक छात्रों को अवधारणाओं और अनुसंधान की कार्यप्रणाली से परिचित कराया जा सकता है जिससे उनको अनुभवात्मक शिक्षा मिल सकती है। विश्वविद्यालय के विभागों, आईआईटी, एनआईटी और सीएसआईआर प्रयोगशालाओं में यूजी छात्रों के लिए ग्रीष्मकालीन इंटर्नशिप की सुविधा होनी चाहिए। जब ऐसे छात्र पीजी कार्यक्रमों में दाखिला लेंगे तो वे उन्नत शोध करने के लिए तैयार होंगे। इस प्रकार विश्वविद्यालयों और चयनित कॉलेजों में उपलब्ध सक्षम और योग्य फैकल्टी सदस्यों के मार्गदर्शन में काफी बड़ी मात्रा में अनुसंधान किया जा सकता है। शोध की ऐसी व्यापक बुनियाद नवाचार के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन करेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व की ओर बढ़ता देश – अभय एस.डी. राजपूत

भारत सरकार, कॉर्पोरेट सामाजिक दायित्व (CSR) की तर्ज़ पर, विज्ञान के क्षेत्र में वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (Scientific Social Responsibility) के लिए एक नई नीति लागू करने जा रही है। इस नई नीति का प्रारूप तैयार कर लिया गया है जिसे विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की वेबसाइट (www.dst.gov.in) पर टिप्पणियों के लिए उपलब्ध कराया गया है।

अगर यह नीति लागू हो जाती है तो विज्ञान के क्षेत्र में सामाजिक दायित्व के लिए ऐसी नीति बनाने वाला भारत दुनिया का संभवत: पहला देश होगा।

यह नीति भारत में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में कार्यरत संस्थानों और वैज्ञानिकों को विज्ञान संचार और प्रसार के कार्यों में बढ़-चढ़ कर भागीदारी के लिए प्रोत्साहित करेगी। ऐसा होने से वैज्ञानिकों और समाज के बीच संवाद बढ़ेगा जिससे दोनों के बीच ज्ञान आधारित खाई को भरा जा सकेगा। इस नीति का मुख्य उद्देश्य भारतीय वैज्ञानिक समुदाय में सुप्त पड़ी क्षमता का भरपूर उपयोग कर विज्ञान और समाज के बीच सम्बंधों को मज़बूत करना और देश में विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करना है जिससे इस क्षेत्र को नई ऊर्जा मिल सके।

यह नीति वैज्ञानिक ज्ञान और संसाधनों तक जनमानस की पहुंच को सुनिश्चित करने और आसान बनाने के लिए एक तंत्र विकसित करने, वर्तमान और भावी सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु विज्ञान के लाभों का उपयोग करने, तथा विचारों और संसाधनों को साझा करने के लिए एक सक्षम वातावरण बनाने, और सामाजिक समस्याओं को पहचानने एवं इनके हल खोजने के लिए सहयोग को बढ़ावा देने की दिशा में भी मार्गदर्शन करेगी। इस ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी  से सम्बंधित सभी संस्थानों और व्यक्तिगत रूप से सभी वैज्ञानिकों को उनके वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के बारे में जागरूक और प्रेरित करना होगा।

भारत सरकार ने पहले भी विज्ञान से सम्बंधित कुछ नीतियां बनाई हैं। वैज्ञानिक नीति संकल्प 1958, प्रौद्योगिकी नीति वक्तव्य 1983, विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी नीति 2003 और विज्ञान, प्रौद्योगिकी एवं नवाचार नीति 2013 इनमें प्रमुख हैं। वर्तमान वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व नीति का प्रारूप भी इन नीतियों को आगे बढ़ाता है। हालांकि इस नई नीति में कुछ व्यावहारिक और प्रासंगिक प्रावधान हैं जिससे विज्ञान व प्रौद्योगिक संस्थानों और वैज्ञानिकों (यानी ज्ञानकर्मियों) को समाज के प्रति अधिक उत्तरदायी और ज़िम्मेदार बनाया जा सकता है।

ड्राफ्ट नीति के अनुसार प्रत्येक वैज्ञानिक को व्यक्तिगत रूप से अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व को पूरा करने के लिए कम से कम 10 दिन प्रति वर्ष अवश्य देने होंगे। इसके अंतर्गत विज्ञान और समाज के बीच वैज्ञानिक ज्ञान के आदान-प्रदान में योगदान देना होगा। इस दिशा में संस्थागत स्तर पर और व्यक्तिगत स्तर पर सही प्रयास हो सकें और ऐसे प्रयासों को बढ़ावा देने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहनों के साथ-साथ आवश्यक आर्थिक सहायता प्रदान करने का भी प्रावधान होगा। वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व के क्षेत्र में जो वैज्ञानिक व्यक्तिगत प्रयास करेंगे उन्हें उनके वार्षिक प्रदर्शन मूल्यांकन में उचित श्रेय देने का भी प्रस्ताव किया गया है।

इस नीति का एक महत्वपूर्ण पहलू यह भी है कि किसी भी संस्थान को अपने वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व से सम्बंधित गतिविधियों और परियोजनाओं को आउटसोर्स या किसी अन्य को अनुबंधित करने की अनुमति नहीं होगी। अर्थात सभी संस्थानों को अपनी SSR गतिविधियों और परियोजनाओं को लागू करने के लिए अंदरूनी क्षमताएं विकसित करना होगा।

जब भारत में लगभग सभी विज्ञान व प्रौद्योगिक शोध करदाताओं के पैसे से चल रहा है, तो ऐसे में वैज्ञानिक संस्थानों का यह एक नैतिक दायित्व है कि वे समाज और अन्य हितधारकों को कुछ वापस भी दें। यहां पर हमें यह समझना होगा कि SSR न केवल समाज पर वैज्ञानिक प्रभाव के बारे में है, बल्कि यह विज्ञान पर सामाजिक प्रभाव के बारे में भी है। इसलिए SSR विज्ञान के क्षेत्र में ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र को मजबूत करेगा और समाज के लाभ के लिए विज्ञान का उपयोग करने में दक्षता लाएगा।

इस नीति दस्तावेज़ में समझाया गया है कि विज्ञान और प्रौद्योगिकी के सभी क्षेत्रों में कार्यरत सभी ज्ञानकर्मियों का समाज में सभी हितधारकों के साथ ज्ञान और संसाधनों को स्वेच्छा से और सेवा भाव एवं जागरूक पारस्परिकता की भावना से साझा करने के प्रति नैतिक दायित्व ही वैज्ञानिक सामाजिक दायित्व (SSR) है। यहां, ज्ञानकर्मियों से अभिप्राय हर उस व्यक्ति से है जो ज्ञान अर्थव्यवस्था में मानव, सामाजिक, प्राकृतिक, भौतिक, जैविक, चिकित्सा, गणितीय और कंप्यूटर/डैटा विज्ञान और इनसे सम्बंधित प्रौद्योगिकी के क्षेत्रों में भाग लेता है।

ड्राफ्ट नीति के अनुसार देश में SSR गतिविधियों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए DST में एक केंद्रीय और नोडल एजेंसी की स्थापना की जाएगी। इस नीति के एक बार औपचारिक हो जाने के बाद, केंद्र सरकार के सभी मंत्रालयों, राज्य सरकारों और S&T संस्थानों को अपने कार्यक्षेत्र के अनुसार SSR को लागू करने के लिए अपनी योजना बनाने की आवश्यकता होगी। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी से सम्बंधित सभी संस्थानों को अपने ज्ञानकर्मियों को समाज के प्रति उनकी नैतिक सामाजिक जिम्मेदारी के बारे में संवेदनशील बनाने, SSR से सम्बंधित संस्थागत परियोजनाओं और व्यक्तिगत गतिविधियों का आकलन करने के लिए एक SSR निगरानी प्रणाली बनानी होगी और SSR गतिविधियों  पर आधारित एक वार्षिक रिपोर्ट भी प्रकाशित करनी होगी। संस्थागत और व्यक्तिगत दोनों स्तरों पर SSR गतिविधियों की निगरानी एवं मूल्यांकन के लिए उपयुक्त संकेतक विकसित किए जाएंगे जो इन गतिविधियों के प्रभाव को लघु-अवधि, मध्यम-अवधि और दीर्घ-अवधि के स्तर पर मापेंगे।

नीति को प्रभावी ढंग से लागू करने के लिए, एक राष्ट्रीय डिजिटल पोर्टल की स्थापना की जाएगी जिस पर ऐसी सामाजिक समस्याओं का विवरण होगा जिन्हें वैज्ञानिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है। यह पोर्टल कार्यान्वयनकर्ताओं के लिए और SSR गतिविधियों की रिपोर्टिंग के लिए एक मंच के रूप में भी काम करेगा।

नई नीति के अनुसार सभी फंडिंग एजेंसियों को SSR का समर्थन करने के लिए:

क) व्यक्तिगत SSR परियोजनाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करनी होगी,

ख) हर प्रोजेक्ट में SSR के लिए वित्तीय सहायता के लिए एक निश्चित प्रतिशत तय करना होगा,

ग) वित्तीय समर्थन के लिए प्रस्तुत किसी भी परियोजना के लिए उपयुक्त SSR की आवश्यकता की सिफारिश करनी होगी।

यदि इसे ठीक से और कुशलतापूर्वक लागू किया जाता है, तो यह नीति विज्ञान संचार के मौजूदा प्रयासों को मज़बूत करते हुए, सामाजिक समस्याओं के लिए वैज्ञानिक और अभिनव समाधान लाने में एक परिवर्तनकारी भूमिका निभाएगी। इस के साथ-साथ, क्षमता निर्माण, कौशल विकास के माध्यम से सभी के जीवन स्तर को ऊपर उठाने, ग्रामीण नवाचारों को प्रोत्साहित करने, महिलाओं और कमज़ोर वर्गों को सशक्त बनाने, उद्योगों और स्टार्ट-अप की मदद करने आदि में यह नीति योगदान दे सकती है। सतत विकास लक्ष्यों, पर्यावरण लक्ष्यों और प्रौद्योगिकी विज़न 2035 की प्राप्ति में भी यह नीति योगदान दे सकती है।  (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या शिक्षा प्रणाली भारत को महाशक्ति बना पाएगी? – डॉ. गायत्री सबरवाल

ई लोगों का मानना है कि भारत अपने उच्च सकल घरेलू उत्पाद के साथ एक महाशक्ति बनने की उम्मीद कर सकता है। चाहे कोई महाशक्ति बनने की इस लालसा में साझेदार न हो, लेकिन इतना लगभग निश्चित है कि देश को निश्चित रूप से एक ज्ञान-संपन्न अर्थव्यवस्था होना चाहिए, भले ही वह ज्ञान-संचालित न हो। और ज्ञान उत्पन्न करने और इस ज्ञान का सृजन करने व उपयोग करने वाली प्रतिभा का पोषण करने का नज़दीकी सम्बंध शिक्षा प्रणाली से है। इसलिए चलिए हम अपनी शिक्षा प्रणाली पर विचार करें और अन्यत्र विचारकों द्वारा सामान्य रूप से शिक्षा पर की गई टिप्पणियों पर नज़र डालें।

जाने माने जीव विज्ञानी ग्रेगरी पेट्सको ने कुछ वर्ष पहले स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क (एसयूएनवाय) के अध्यक्ष को एक व्यंग्यात्मक खुला पत्र लिखा। इस पत्र में उन्होंने एसयूएनवाय में क्लासिक्स, फ्रेंच, इतालवी, रूसी और थिएटर के विभागों को बंद करने के फैसले पर अपने विचार रखे थे। (क्लासिक्स से आशय प्राचीन ग्रीक व लैटिन साहित्य, दर्शन और इतिहास के अध्ययन से है।) पेट्सको ने बताया कि जीव विज्ञान में आने से पहले किस प्रकार उन्होंने क्लासिक्स में शिक्षा प्राप्त की थी और फिर अपना ध्यान जीव विज्ञान की ओर मोड़ा था और आगे चलकर वे जैव रसायन और रसायन विज्ञान के प्रोफेसर बने थे। उन्होंने कहा कि क्लासिक्स में प्रशिक्षण उनकी शिक्षा के सबसे महत्वपूर्ण घटकों में से एक था। उस प्रशिक्षण ने उन्हें सोचने, विश्लेषण करने और लिखने की समझ प्रदान की जो उन्हें विज्ञान शिक्षा से प्राप्त नहीं हुई थी। इन्हीं की मदद से वे एक बेहतर वैज्ञानिक बन सके। जीनोम बायोलॉजी में पेट्सको के वैचारिक आलेख काफी जाने-माने हैं, और क्लासिक्स में उनके प्रशिक्षण और रुचि के चलते उन्हें विज्ञान और समाज के बारे में लिखने में मदद मिलती रही है। कई सारे वैज्ञानिक यह नहीं कर पाते हैं। यूएस नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के सदस्य होने के अलावा उन्हें दी अमेरिकन फिलॉसॉफिकल सोसाइटी का सदस्य भी चुना गया जो किसी वैज्ञानिक के लिए एक दुर्लभ सम्मान है।

कुछ मुख्य बिंदु जो पेट्सको ने अपने पत्र में उठाए थे, वे इस प्रकार हैं: (क) विश्वविद्यालय के किसी विभाग को केवल इसलिए बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह प्रासंगिक नहीं दिखता। यही सोचकर अमेरिका में कई वायरोलॉजी (वायरस विज्ञान) विभाग बंद कर दिए गए थे, और जब एचआईवी/एड्स संकट आया तो इस बीमारी से निपटने के लिए अमेरिका को देश में बचे-खुचे वायरोलॉजिस्ट खोजने में काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। (ख) किसी विभाग को केवल इसलिए भी बंद नहीं कर देना चाहिए क्योंकि वह आर्थिक रूप से स्वावलंबी नहीं हो सकता। किसी विश्वविद्यालय का उद्देश्य केवल ज्ञान उत्पन्न करना नहीं होता है बल्कि ज्ञान संरक्षण भी होता है। अमेरिका के अधिकांश शैक्षणिक संस्थानों में अरबी और फारसी भाषा के पाठ्यक्रम या सामान्यत: मध्य-पूर्व में कोई रुचि नहीं ली जाती थी, लेकिन 11 सितम्बर 2011 के बाद अचानक सबको लगा कि काश उनके पास इस मामले में ज़्यादा जानकारी होती तो वे समझ पाते कि हो क्या रहा है। (ग) यदि एसयूएनवाय केवल व्यावहारिक उपयोगिता के पाठ्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करे, तो उसे खुद को एक हुनर शाला या व्यावसायिक स्कूल कहना चाहिए, विश्वविद्यालय तो कदापि नहीं।

अब मैं एक बेहतरीन दार्शनिक और तर्कशास्त्री बरट्रैंड रसेल की बात करना चाहूंगी। अपने शोध कार्यों से हटकर, उनकी रुचि सामाजिक मुद्दों पर भी रही और उन्होंने काफी विवादास्पद दृष्टिकोण भी प्रस्तुत किए। प्रथम विश्व युद्ध का विरोध करने के कारण उनको एक गद्दार के रूप में देखा गया और उन्हें कुछ समय के लिए जेल भी जाना पड़ा। लेकिन कुछ ही वर्षों बाद, उनकी गिनती 20वीं शताब्दी के सबसे महत्वपूर्ण विचारकों में हुई और 1950 में उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह पुरस्कार उनके अपने विषयगत शोध कार्य के लिए नहीं बल्कि विचारों की स्वतंत्रता की हिमायत के लिए मिला था। 1950 में रसेल ने निबंधों का एक संग्रह (रसेल, बी., अनपॉपुलर एसेस, रूटलेज क्लासिक्स, भारतीय पुनर्मुद्रण, 2010) प्रकाशित किया था, जिसमें एक लेख का शीर्षक ‘दी फंक्शन्स ऑफ ए टीचर’ था। उसके कुछ बिंदु इस प्रकार हैं: आधुनिक समय का शिक्षक एक लोक सेवक बन गया है जो सरकार का प्रचारक है। उन्होंने कहा कि हालांकि शिक्षण के दौरान बच्चों को आवर्त सारणी जैसी निर्विवाद जानकारी पढ़ाना ज़रूरी है लेकिन इससे केवल तकनीकी रूप से कुशल छात्र ही तैयार होंगे। और इस तरह का शिक्षण तो शिक्षा का वह बुनियादी पहलू है जिसे शिक्षकों को पूरा करना चाहिए। सरकारें यह जानती हैं कि शिक्षक कितने शक्तिशाली होते हैं, आखिर वे युवाओं को सिखाते हैं कि कैसे सोचें। अब इसमें या तो विवादास्पद विषयों पर खुली सोच प्रदान की जा सकती है, जैसा कि अपेक्षाकृत खुली सोच वाले समाजों में होता है, या फिर एक विशेष दृष्टिकोण की घुट्टी पिलाई जा सकती है जैसा नाज़ी जर्मनी में हुआ करता था। शिक्षक को खोजबीन की भावना को बढ़ावा देना चाहिए, और यदि ऐसा करते हुए एक ऐसी समझ उभरती है जो राज्य से भिन्न है तो इसके लिए कोई दंड नहीं होना चाहिए।

हमारे अपने विश्वविद्यालयों में क्या स्थिति है? प्रसिद्ध शिक्षाविद और टिप्पणीकार, दिल्ली विश्वविद्यालय के कृष्ण कुमार ने दी हिन्दू (2 अगस्त, 2012) में प्रकाशित एक लेख ‘युनिवर्सिटीज़, अवर्स एंड देयर्स’ में पश्चिमी और भारतीय विश्वविद्यालयों के परिदृश्य की तुलना की थी। उन्होंने दोनों को अलग करने वाले कई अंतरों की पहचान करते हुए हर एक पर टिप्पणी की थी। उन्होंने सबसे पहले उत्कृष्टता पर ज़ोर की बात को लिया। पश्चिमी प्रणाली में यह सुनिश्चित करने की विस्तृत प्रक्रियाएं हैं जिससे विश्वविद्यालय में फैकल्टी के तौर पर सबसे बढ़िया उपलब्ध प्रतिभा को भर्ती किया जाए। यह भर्ती प्रक्रिया बाहरी दबाव से परे है जो इसको कमज़ोर कर सकता है। यह प्रक्रिया उम्मीदवार में बहु-विषयी या विषय-पार रुचि पर ज़ोर देती है। भारतीय विश्वविद्यालयों में नियुक्तियों को नियम-कानूनों और बाहरी प्रभावों में इतना उलझा दिया जाता है कि इसका असर चयन की उत्कृष्टता पर पड़ता है। उदाहरण के लिए, यदि कोई बहु-विषयी योग्यता वाला उम्मीदवार एक आयु सीमा पार कर चुका होता है तो चयन प्रक्रिया उसके लिए बाधक बन जाती है। दूसरा अंतर यह है कि भारत में इस बात पर काफी ज़ोर दिया जाता है कि कोई शिक्षक कक्षा में प्रति सप्ताह कितने घंटे बिताता है। इसी तरह छात्रों की उपस्थिति पर काफी ज़ोर दिया जाता है। ऐसे नियम दोनों के ही लिए हैं और हर कोई इन नियमों का पालन करता है, यह जाने बिना कि वास्तव में कक्षा के अंदर होता क्या है। कृष्ण कुमार ब्रिटेन में एक शिक्षण संस्थान द्वारा संचालित पाठ्यक्रम की मूल्यांकन समिति के सदस्य रहे थे। अपने उस अनुभव के आधार पर उन्होंने अपने यहां की उक्त प्रणाली पर टिप्पणी की है। समिति ने पाठ्यक्रम से संबंधित दस्तावेज़ों – उस वर्ष प्रत्येक कक्षा सत्र का विवरण और छात्रों की लिखित प्रतिक्रिया – के अध्ययन के अलावा पाठ्यक्रम के विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग छात्रों और प्राध्यापकों से व्यापक चर्चा की। उन्होंने पाया कि कक्षा को उत्साहवर्धक और संभवत: मनोरंजक होना चाहिए। यह तो संभव ही नहीं है कि यदि कोई शिक्षक अपने अध्यापन में पर्याप्त ज्ञान,उत्साह और नवीनता न लाए, तो उसे छात्रों से अच्छी प्रतिक्रिया मिलेगी। तीसरा अंतर पश्चिमी देशों के लगभग सभी महाविद्यालयों में अनुसंधान पर ज़ोर देने से सम्बंधित है। कृष्ण कुमार ने देखा कि विश्वविद्यालय द्वारा निर्धारित एक निश्चित पाठ्यक्रम का सवाल ही नहीं उठता जो कई दशकों तक जस का तस चलता रहे, जैसा कि अक्सर भारत में देखने को मिलता है। इसके अलावा, हमारे यहां प्रचलित रटंत आधारित परीक्षाएं ब्रिटेन में नहीं हैं। नितिन पाई ने बिज़नेस स्टैण्डर्ड में 13 जुलाई 2018 के एक आलेख में एक दिलचस्प बात बताई है कि चीन में महाविद्यालय में प्रवेश का आवेदन देने से पहले छात्रों को एक विचार आधारित परीक्षा, गाओकाओ, देनी होती है। प्राध्यापक जिस क्षेत्र में अनुसंधान करते हैं वे उसी क्षेत्र से जुड़े विषय पढ़ाते हैं ताकि छात्रों को ऐसे सवाल पूछने को प्रेरित कर सकें जिनके जवाब अनुसंधान से दिए जा सकें। यह केवल पूर्व ज्ञान अर्जित करने की शिक्षा नहीं है बल्कि उस ज्ञान को बनाने में मदद करने या उस ज्ञान को उत्पन्न करने की प्रक्रिया में भाग लेने की बात है जो शिक्षा के लिए महत्वपूर्ण है।

एक अन्य लेख (दी ब्लेक न्यू एकेडमिक सिनारियो, दी हिन्दू, 26 मई 2017) में कृष्ण कुमार ने उदारीकरण की प्रक्रिया के बाद से भारत में उच्च शिक्षा की स्थिति पर ध्यान केंद्रित किया है। हालांकि, तब तक केंद्र और राज्य दोनों सरकारों ने शिक्षा के क्षेत्र में काफी बड़ी भूमिका निभाई थी, लेकिन जब 1991 में भारत को कर्ज़ देने वालों को लगा कि भारत की अर्थव्यवस्था में ढांचागत समायोजन की ज़रूरत है, तब जल्दी ही यह स्पष्ट हो गया कि उच्च शिक्षा को बड़े पैमाने पर खुद को संभालना होगा। इस शर्त ने स्वाभाविक रूप से उन पाठ्यक्रमों की पेशकश करने को प्रेरित किया जो बिक्री योग्य कौशल प्रदान करते हैं। जैसे-जैसे विश्वविद्यालयों ने वित्तीय संकट महसूस किया, उन्होंने अपनी आय बढ़ाने के लिए ऐसे पाठ्यक्रमों की ओर रुख किया। इसके अलावा, ‘स्थायी’ प्राध्यापकों की सिकुड़ती संख्या की वजह से शिक्षकों की जो कमी हुई उसे भरने के लिए तदर्थ शिक्षकों को जोड़ा गया। (यह स्थिति फिनलैंड से कितनी अलग है, जहां शिक्षक होना सबसे प्रतिष्ठित काम है। और हो भी क्यों न, आखिर वे अगली पीढ़ी को शिक्षित कर रहे हैं जो देश कि संपदा का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है)। कोई विश्वविद्यालय जिस हद तक अपने छात्रों में सोचने, विश्लेषण करने, और अपने मतों के लिए जानकारी एकत्र करने की कुशलता को तराशने के लिए विचार-विमर्श और असहमति को बढ़ावा देता है, उसी हद तक वह स्वतंत्र आवाज़ों वाले युवा तैयार करता है। ये आवाज़ें अक्सर उनके आसपास की दुनिया के लिए महत्वपूर्ण होती हैं। ये आवाज़ एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकती हैं लेकिन भारत के राजनेता आम तौर पर ऐसे विश्वविद्यालयों को लेकर बिदकते रहे हैं जो दुनिया के व्यापक परिप्रेक्ष्य के साथ इस तरह की उदार शिक्षा प्रदान करना चाहते हैं। यह बात तो स्पष्ट है कि उच्च शिक्षा जितनी अधिक स्व-वित्तपोषण के भरोसे होती जाएगी उतने ही कम युवा इस तरह से प्रशिक्षित हो पाएंगे क्योंकि ऐसे में शिक्षा केवल उपयोगितावादी होकर रह जाएगी। अलबत्ता, पिछले कुछ दशकों से विश्वविद्यालयों को ऐसी बिगड़ती स्थिति से बचाने के लिए किसी भी सरकार या राजनैतिक दल द्वारा कोई प्रयास नहीं किया गया है।

अपनी बात खत्म करने से पहले मैं एक मानव विज्ञानी के एक लेख के बारे में बताना चाहूंगी जो किसी सर्वथा भिन्न विषय पर लिखा गया था। “… काला आदमी समझ गया कि… गोरों के बीच उसे अपने ऊपर आरोपित स्थान के अनुरूप ही व्यवहार करना पड़ेगा और उसे बार-बार ‘उसकी हैसियत याद दिलाई जाती थी’। उसने सीखा कि गोरे लोगों के बीच आक्रोश, निराशा, असंतोष, गर्व, महत्वाकांक्षा या हसरतों की भावनाएं दिखाना अस्वीकार्य है और उन वास्तविक भावनाओं को मासूमियत, अज्ञानता, बचकानेपन, आज्ञाकारिता, विनम्रता और सम्मान के मुखौटे के पीछे छिपाना पड़ेगा।” ( थॉमस कोचमैन, ‘रैपिंग इन दी ब्लैक घेटो’, दी प्लेज़र्स ऑफ एन्थ्रोपोलॉजी, 1983 में)। हमारी कक्षाओं और प्रयोगशालाओं में यह घटना कितनी आम है और ज्ञान उत्पन्न करने के संदर्भ में इसकी क्या कीमत है?

यदि भारत गंभीरता से महाशक्ति बनने की इच्छा रखता है, तो इसकी संभावना केवल एक शीर्ष ज्ञान उत्पादक देश बनकर ही हो सकती है। ऐसा देश बनने के लिए उसे अपने लोगों में बचपन से ही स्वतंत्र खोजबीन की आदतें विकसित करनी होंगी, इस बात की परवाह किए बगैर कि यह खोजबीन उन्हें कहां ले जाएगी। अगर ऐसी खोजबीन के बाद छात्र इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भारत को निकट भविष्य में महाशक्ति बनने का लक्ष्य नहीं रखना चाहिए और उससे पहले हासिल करने को कई सारे महत्वपूर्ण लक्ष्य हैं, तो यह बड़ी विडंबना होगी, हालांकि मेरे लिए कोई अचंभे की बात नहीं होगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान शिक्षण में भेदभाव

मैक्वारी युनिवर्सिटी, ऑस्ट्रेलिया की शोधकर्ता डॉ. कैरोल नेवाल के अनुसार शिक्षकों में विज्ञान शिक्षण को लेकर भेदभाव का रवैया देखा गया है। अवचेतन रूप से वे भौतिकी में लड़कों की तुलना में लड़कियों को शैक्षणिक रूप से कम सक्षम मानते हैं।

डॉ. नेवाल का यह अध्ययन उस सामाजिक रवैये को रेखांकित करता है जो लड़कियों को विज्ञान अध्ययन से दूर करता है। यह इस बात से साबित होता है कि भौतिकी के नोबेल पुरस्कार के 117 वर्ष के इतिहास में अभी तक केवल 3 महिलाओं को ही यह पुरस्कार मिला है।

कंटेम्पररी एजुकेशनल साइकोलॉजी में प्रकाशित डॉ. नेवाल के शोध में बताया गया है कि एक प्रयोग के दौरान किस प्रकार से एक काल्पनिक आठ वर्षीय बच्चे के जेंडर के साथ हेरफेर की गई और इसने किस तरह बच्चे की क्षमता और विज्ञान के प्रति लगाव को लेकर वयस्कों के एहसास को प्रभावित किया।

डॉ. नेवाल ने अध्ययन में पाया कि व्यस्क दरअसल बच्चों में आठ साल की उम्र से ही भेदभाव करने लगते हैं और लड़कियों में भौतिकी विषय को लेकर उन्हें उम्मीद कम रहती है। एक प्रयोग में डॉ. नेवाल और उनके सहयोगियों ने 80 प्रशिक्षु शिक्षकों और मनोविज्ञान में स्नातकों से आठ साल के बच्चों के एक काल्पनिक प्रोफाइल के आधार पर उनकी शैक्षणिक क्षमता का मूल्यांकन करने को कहा। इसमें उन्होंने कई प्रोफाइल शामिल किए थे – ऐसी लड़कियां जो गुड़ियों से खेलती हैं, ऐसे लड़के जो क्रिकेट खेलते हैं और कुछ ऐसे बच्चे जिनका जेंडर प्रोफाइल में स्पष्ट नहीं होता था और तैराकी पसंद करते थे।

प्रतिभागियों द्वारा इन काल्पनिक बच्चों को स्काइप पर विज्ञान सिखाने के लिए भी कहा गया। जब उन्हें पता होता कि वे किसी लड़की को पढ़ा रहे हैं, तब वे कम वैज्ञानिक शब्दावली का उपयोग करते थे। लड़कियों को पढ़ाने के मामले में अधिकांश प्रतिभागियों का ऐसा मानना था कि भौतिकी में उनका प्रदर्शन अच्छा रहने या उन्हें भौतिकी में रुचि होने की संभावना कम है। यदि वह कोई रूढ़िगत लड़की होती, तो वे मान लेते थे उसकी किसी भी विज्ञान में रुचि रखने की संभावना है। यह मुमकिन है कि वे अपने पूर्वाग्रह से अनजान थे, लेकिन उन्हें यह जानकर आश्चर्य होता कि उन्होंने लड़कियों और लड़कों को अलग-अलग तरीके से पढ़ाया।

वर्तमान परिस्थिति भी इस अध्ययन की पुष्टि करती है। ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ फिज़िक्स (एआईपी) के आंकड़ों के अनुसार, हाई स्कूल के अंतिम वर्ष में सात प्रतिशत लड़कियां और 23.5 प्रतिशत लड़के भौतिकी पढ़ते हैं। विश्वविद्यालय में भी वर्ष 2002 में भौतिकी स्नातक कक्षाओं में लड़कियों की संख्या 27.6 प्रतिशत थी जो घटकर 21 प्रतिशत रह गई है। अमेरिकी और ब्रिटिश विश्वविद्यालयों में भी यही स्थिति है। स्कूलों और विश्वविद्यालयों में भौतिकी शिक्षकों और सार्वजनिक एवं निजी प्रयोगशालाओं में शोधकर्ताओं के रूप में भी महिलाओं की संख्या कम होती है। एआईपी के अनुसार आम तौर पर महिला भौतिकविदों की वरिष्ठता भी कम होती है और आय भी।

डॉ. नेवाल का कहना है कि लड़कियों की भागीदारी को प्रोत्साहित करने के लिए विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिग व गणित छात्रवृत्ति वगैरह में निवेश के साथ-साथ सांस्कृतिक बदलाव भी ज़रूरी होगा। साथ ही अभिभावकों को भी अपना रवैया बदलना होगा ताकि विज्ञान व गणित के प्रति एक सकारात्मक रुझान के अनुकरणीय उदाहरण सामने आएं। (स्रोत फीचर्स)
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पी.एच.डी. में प्रकाशन की अनिवार्यता समाप्त करने का प्रस्ताव

हाल ही में शोधकर्ताओं की एक समिति ने सुझाव दिया है कि शोध छात्रों के लिए डॉक्टरेट की उपाधि मिलने के पहले अकादमिक जर्नल में पेपर प्रकाशित करने की अनिवार्यता को खत्म किया जाना चाहिए।

वर्तमान में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमानुसार भारत में किसी भी शोध छात्र को अपनी थीसिस जमा करने के पहले, किसी पत्रिका में एक पर्चा प्रकाशित करना और किसी सम्मेलन या सेमिनार में दो पर्चे प्रस्तुत करना ज़रूरी है।

पिछले साल यूजीसी ने इस अनिवार्यता को जांचने के लिए विज्ञान और मानविकी शोधकर्ताओं की एक समिति बनाई थी। समिति के अध्यक्ष पी. बलराम ने इस अनिवार्यता पर शंका ज़ाहिर करते हुए कहा कि अनिवार्यता के कारण निम्न गुणवत्ता वाले कई ऐसे जर्नल फल-फूल रहे हैं जो पैसा लेकर बिना किसी समीक्षा या संपादन के जल्दी ही शोध पत्र प्रकाशित कर देते हैं।

समिति का सुझाव है कि यूजीसी को अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहिए, विश्वविद्यालयों को पीएच.डी. के दौरान ही शोध छात्र की परीक्षा लेकर उसका मूल्यांकन करना चाहिए और मौखिक परीक्षा के दौरान शोध छात्र को अपनी थीसिस की पैरवी करना चाहिए। उम्मीद है कि यूजीसी इस सुझाव पर जून 2019 तक प्रतिक्रिया दे देगी।

सुझाव से सहमति जताते हुए नेशनल सेंटर फॉर बॉयोलॉजीकल साइंस, बैंगलोर के अकादमिक गतिविधियों के प्रमुख मुकुंद थत्तई कहते हैं कि उनके संस्थान में हर साल लगभग 25 प्रतिशत शोध छात्रों को पीएच.डी. डिग्री देरी से मिलती है क्योंकि वे प्रकाशन की अनिवार्यता को समय से पूरा नहीं कर पाते। खासकर जीव विज्ञान और गणित जैसे विषयों में पर्चा प्रकाशित करने में एक साल से भी अधिक समय लग जाता है।

वहीं इंस्टीट्यूट ऑफ मैथेमेटिकल साइंस, चेन्नई के गौतम मेनन का कहना है कि इस अनिवार्यता को खत्म कर देने से निम्न गुणवत्ता वाले शोध कार्य या प्रकाशन कम नहीं होंगे, कोई भी पक्षपाती समिति घटिया थीसिस को भी स्वीकार सकती है। प्रकाशन की अनिवार्यता में कम-से-कम किसी बाहरी समीक्षक द्वारा समीक्षा की निश्चितता होती है।

समिति के अध्यक्ष इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलौर के बॉयोकमिस्ट पी. बलराम का कहना है कि शोध पत्रों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना संस्थान की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। उनका कहना है कि सभी पर केंद्रीय नियम लागू करने से मुश्किलें होती हैं क्योंकि जैसे ही आप ऐसे नियम लागू करते हैं, लोग उनसे बचने के रास्ते निकाल लेते हैं। सुझाव पर यूजीसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।(स्रोत फीचर्स)

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पाई (π) के कुछ रोचक प्रसंग – संकलन: ज़ुबैर

प्राथमिक कक्षाओं से ही वृत्त के क्षेत्रफल और परिधि मापन के लिए हमने पाई (π) का इस्तेमाल किया है। वास्तव में π किसी भी वृत्त की परिधि और व्यास का अनुपात है। यह एक अपरिमेय संख्या है, इसलिए इसे निश्चित भिन्न के रूप में नहीं लिखा जा सकता। इसकी बजाय, यह एक अंतहीन भिन्न है और इसके दशमलव के बाद के अंकों में दोहराव नहीं होता।

लेकिन इस अपरिमेय संख्या की खोज कैसे की गई? अध्ययन के हज़ारों वर्षों के बाद भी क्या इस संख्या में अभी भी कोई रहस्य छिपा है? आइए इस संख्या के उद्गम पर चर्चा करते हैं और देखते हैं कि क्या आज भी यह अपने गर्भ में कुछ रहस्य छिपाए है।

  1. π और पाइलिश भाषा

p को सबसे अधिक संख्या तक याद रखने का रिकॉर्ड भारत में वेल्लोर के राजीव मीणा के नाम दर्ज है। गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड के अनुसार उन्होंने 21 मार्च 2015 को π के दशमलव के बाद 70,000 अंक सुनाने का रिकॉर्ड बनाया है। इससे पहले यह रिकॉर्ड चीन के चाऊ लु के नाम दर्ज था जिन्होंने वर्ष 2005 में दशमलव के बाद 67,890 अंक मुंहज़बानी सुनाए थे।

निम्नलिखित पंक्तियों में प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: पाई के मान के अंकों की द्योतक है। प्रथम उदाहरण में पहले 10 अंकों का समावेश है जबकि दूसरे उदाहरण में पहले 31 अंक नज़र आते हैं।

1.        How I need a drink, alcoholic in nature, after the heavy lectures involving quantum mechanics!

2.         But a time I spent wandering in bloomy night;

Yon tower, tinkling chimewise, loftily opportune.

Out, up, and together came sudden to Sunday rite,

The one solemnly off to correct plenilune.

किसी ने तो इस शैली में 10,000 शब्दों का एक उपन्यास भी लिख डाला है।

एक अनधिकृत रिकॉर्ड अकीरा हरगुची के नाम पर भी दर्ज है जिन्होंने 2005 में π के मान को 1,00,000 दशमलव स्थानों तक और फिर हाल ही में एक वीडियो के माध्यम से 1,17,000 से भी अधिक दशमलव स्थानों तक प्रस्तुत कर दिखाया।

संख्या के प्रति कुछ उत्साही लोगों ने तो π के कई अंकों को याद करने के लिए मेमोरी एड्स का उपयोग किया है तो कई लोगों ने पाईफिलोलॉजी नेमोनिक तकनीक का इस्तेमाल कर इस संख्या को याद किया है। अक्सर, वे पद्यों का उपयोग करते हैं (जिसमें प्रत्येक शब्द में अक्षरों की संख्या क्रमश: π के अंकों से मेल खाती है)। इसे पाइलिश शैली भी कहा जाता है। ऐसे पद्यों के कुछ उदाहरण बॉक्स में देखिए।

2. अंकों में दिन दूनी रात चौगुनी वृद्धि

π एक अनंत संख्या है, हम कभी भी इसके सारे अंकों का निर्धारण नहीं कर सकते। फिर भी, खोज के बाद से दशमलव स्थानों की संख्या तेज़ी से बढ़ी है। 2000 ई.पू. में बेबीलोन के लोगों ने इसे ‘तीन सही एक बटा आठ’ के रूप में उपयोग किया, जबकि प्राचीन चीनी लोगों और ओल्ड टेस्टामेंट के रचयिता 3 के पूर्णांक का उपयोग करके खुश थे। 1665 में, आइज़ैक न्यूटन ने 16 दशमलव स्थानों तक π की गणना की। 1719 तक, फ्रांसीसी गणितज्ञ थॉमस फेंटेट डी लैगी ने 127 दशमलव स्थानों तक π की गणना की थी।

कंप्यूटरों के आने के बाद से π के ज्ञान में काफी सुधार हुआ। 1949 और 1967 के बीच, π के ज्ञात दशमलव स्थानों की संख्या 5,00,000 हो गई। पिछले वर्ष, स्विस कंपनी डेक्ट्रिस लिमिटेड के वैज्ञानिक पीटर ट्रूएब ने π के 2,24, 59,15,77,18, 361 अंकों की गणना के लिए एक विशेष कंप्यूटर प्रोग्राम का उपयोग किया।

3. हाथों से π की गणना करना

जो लोग पुरानी तकनीक से  की गणना करना चाहते हैं, वे एक स्केल, एक गोलाकार चूड़ी, धागे के एक टुकड़े की मदद से यह काम कर सकते हैं या चांदे और पेंसिल का इस्तेमाल कर सकते हैं। चूड़ी विधि की सफलता के लिए आवश्यक होगा कि चूड़ी एकदम गोलाकार हो, और सटीकता इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी परिधि पर धागे को कितनी सही तरह से लपेटा गया है। चांदे की मदद से वृत्त बनाकर उसका व्यास नापने में काफी निपुणता और सटीकता की आवश्यकता होती है।

ज़्यादा सटीक गणना ज्यामिति की मदद से की जा सकती है। इसमें एक वृत्त को पिज़्ज़ा की फांक की तरह कई खंडों में विभाजित किया जाता है। फिर, एक सीधी रेखा की लंबाई की गणना की जाती है जो हर एक खंड को समद्विबाहु त्रिभुज में बदल दे। सभी खंडों को जोड़ने पर π का अनुमान लगाया जाता है। जितनी अधिक फांक बनाएंगे, π का मान उतना ही सटीक होगा।

4. π की खोज

प्राचीन बेबीलोन के लोगों को आज से लगभग 4000 साल पहले p जैसे एक अनुपात के अस्तित्व का पता था। 1900 ई.पू. से 1680 ई.पू. के बीच की एक बेबीलोनी तख्ती पर π की गणना 3.125 देखी गई है। 1650 ईसा पूर्व के प्रसिद्ध गणितीय दस्तावेज़, रिंद गणितीय पैपायरस, में p को 3.1605 दर्ज किया गया है। किंग जेम्स बाइबल में π की संख्या को क्यूबिट्स में दर्शाया गया है। क्यूबिट उस समय दूरी नापने की इकाई थी जो लगभग एक हाथ के बराबर होती थी। आर्किमिडीज़ (287-212 ई.पू.) ने पायथागोरस प्रमेय का उपयोग करके π की गणना की थी।

5. π का चिन्ह और नामकरण

वृत्त के एक स्थिरांक के रूप में स्थापित होने से पहले, गणितज्ञों को π की बात करते हुए काफी कुछ समझाना पड़ता था। पुरानी गणित की किताबों में π को निम्न वाक्य में व्यक्त किया जाता था: ‘quantitas in quam cum multiflicetur diameter, proveniet circumferencia’, अर्थात ‘वह संख्या, जिसमें वृत्त के व्यास का गुणा करने पर, परिधि प्राप्त होती है।’

यह संख्या तब काफी प्रचलित हुई जब स्विस बहुविद् लियोनहार्ड यूलर ने 1737 में त्रिकोणमिति में इसका उपयोग किया। हालंकि इसका ग्रीक संकेत यूलर ने नहीं दिया था। π का पहला उल्लेख गणितज्ञ विलियम जोन्स ने 1706 में अपनी पुस्तक में किया था। जोन्स ने संभवत: π चिन्ह का इस्तेमाल वृत्त की परिधि को दर्शाने के लिए किया था।

देखा जाए तो π काफी अजीब संख्या है। गणितज्ञों ने समय-समय पर इस संख्या के कई रहस्यों पर से पर्दा उठाया है लेकिन अभी भी कई सवालों के जवाब मिलना बाकी है। जैसे, गणितज्ञ अभी भी नहीं जानते कि क्या π तथाकथित सामान्य संख्याओं के समूह में है यानी क्या π में विभिन्न अंकों की आवृत्ति बराबर है या क्या विभिन्न अंक इसमें बराबर बार प्रकट होते हैं। 2016 में आरकाइव्स में प्रकाशित शोध पत्र में पीटर ट्रूएब के अनुसार पहले 2.24 खरब अंकों में 0 से 9 अंकों की आवृत्ति देखें तो लगता है कि π एक सामान्य संख्या है। किंतु इस बात को गणितीय ढंग से प्रमाणित करके ही पक्का कहा जा सकता है।

6. बहुगुणी है π

अट्ठारवीं सदी के एक गणितज्ञ जोहान हाइरिश लैम्बर्ट ने π की अपरिमेयता का प्रमाण दिया था। आगे चलकर यह भी साबित किया गया कि यह न सिर्फ अपरिमेय है बल्कि ट्रांसेन्डेंटल भी है। गणित में ट्रांसेन्डेंटल संख्या का मतलब होता है कि वह किसी ऐसी समीकरण का उत्तर नहीं हो सकता जिसमें परिमेय संख्याएं हों।

7. π का विरोध

जहां एक ओर π को लेकर कई गणितज्ञ आसक्त हैं, वहीं दूसरी ओर इसको लेकर प्रतिरोध भी है। कुछ लोगों का तर्क है कि पाई एक व्युत्पन्न संख्या है, और टाऊ (t, दो π के बराबर) एक अधिक सहज अपरिमेय संख्या है।

τ मैनिफेस्टो के लेखक माइकल हार्टल के अनुसार τ सीधे तौर पर परिधि को त्रिज्या से जोड़ता है, जिसका अधिक गणितीय मूल्य है। τ त्रिकोणमितीय गणनाओं में भी बेहतर काम करता है, उदाहरण के तौर पार टाऊ/4 रेडियन वह कोण है जो वृत्त के एक चौथाई हिस्से को घेरता है।

8. π दिवस

1988 में, भौतिक विज्ञानी लैरी शॉ ने सैन फ्रांसिस्को स्थित विज्ञान संग्रहालय में π-दिवस की शुरुआत की। हर साल, 14 मार्च (3/14) π-दिवस मनाया जाता है। उद्देश्य गणित और विज्ञान में रुचि बढ़ाना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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