कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट
ऑफ टेक्नॉलॉजी के भूकंप विज्ञानी जोंगवेन ज़ान ने नववर्ष एक विचित्र अंदाज़ में मनाया।
उन्होंने नववर्ष के जश्न के दौरान बैंड की तेज़ ध्वनि से उत्पन्न कंपन को ज़मीन के नीचे
दबे प्रकाशीय तंतुओं की मदद से रिकॉर्ड किया।
गौरतलब है कि टीवी,
फोन और इंटरनेट के लिए प्रकाशीय तंतु केबल का उपयोग
होता है। इन महीन तारों का नेटवर्क शहरों में किसी पेड़ की जड़ों की तरह फैला है। इन
तारों के भीतर कांच के कई अत्यंत बारीक तंतुओं में प्रकाश की मदद से डैटा प्रसारित
किया जाता है। एक समय पर सारे तंतुओं का उपयोग नहीं होता। ऐसे ‘निष्क्रिय तंतुओं’
का उपयोग सस्ते भूकंप संवेदी के रूप में किया जा
सकता है।
ज़ान की टीम ने स्थानीय
अधिकारियों से 37 किलोमीटर लंबे केबल
के दो स्ट्रैंड उपयोग करने की अनुमति ली हुई थी। उन्होंने दोनों स्ट्रैंड के एक-एक
छोर पर लेज़र लगा दिया जो अवरक्त प्रकाश छोड़ता था। इनमें से अधिकांश प्रकाश तो फाइबर
के रास्ते आगे बढ़ा लेकिन कुछ हिस्सा फाइबर में नुक्स के कारण परावर्तित हो गया। शोधकर्ताओं
ने इस परावर्तित प्रकाश के वापिस पहुंचने के समय को भी अपने उपकरणों में दर्ज किया।
ज़ान के अनुसार फाइबर में खराबी के कारण प्रतिध्वनि सुनाई देती है।
कई बार मापन करके
शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि के पहुंचने के समय में अंतर को देखा। इसके आधार पर वे बता
पा रहे थे कि कंपन कब प्रकाशीय तंतु के उस खंड को खींचकर थोड़ा लंबा कर देते हैं। उपकरणों
की मदद से फाइबर में एक मीटर खंड की लंबाई में एक अरबवें हिस्से के फैलाव का पता लगाया
सकता है। तो आपके पास हज़ारों संवेदी उपकरण मौजूद हैं।
इस तकनीक को डिस्ट्रिब्यूटेड
एकूस्टिक सेंसिंग कहते हैं और पूर्व में इसका उपयोग सेना द्वारा पनडुब्बियों को ताड़ने
में किया जाता था। अब इनका उपयोग हर उस काम में किया जा सकता जहां कंपन शामिल हैं,
जैसे भूकंप की निगरानी में।
अलबत्ता, ज़ान और अन्य शोधकर्ता भविष्य में इसके व्यापक उपयोग को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इसका उपयोग न केवल भूकंपों की निगरानी के लिए किया जा सकता है बल्कि ट्रैफिक पैटर्न को रिकॉर्ड करने, ज़मीन के नीचे दबी पाइप लाइन में रिसाव का पता लगाने और अनधिकृत प्रवेश का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। ज़ान का मानना है कि इस प्रणाली को लॉस एंजिलिस जैसे बड़े शहरों में निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है जहां पहले से हज़ारों किलोमीटर का फाइबर नेटवर्क मौजूद है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/horns_1280p.jpg?itok=1OZ0bjDn
पुराने
समय में जब घर में कोई बीमार पड़ता था तो उसका इलाज करने के लिए पारिवारिक चिकित्सक
को घर बुलाया जाता था। चिकित्सक सबसे पहले मरीज़ के चेहरे, कनपटी और छाती की
त्वचा छूकर देखते थे। यह उन्हें जल्दी बीमारी पता लगाने में मदद करता था। त्वचा
छूने पर यदि सामान्य से अधिक गर्म लगती है तो मरीज़ को बुखार है; यदि त्वचा का रंग
सामान्य से अधिक फीका है,
तो मरीज़ को डिहाइड्रशेन (पानी
की कमी) है और उसे अधिक पानी पीने की आवश्यकता है; अगर त्वचा नीली पड़
गई है तो मरीज़ को अधिक ऑक्सीजन की ज़रूरत है; और अगर त्वचा गीली लगती है तो मरीज़ को
व्यायाम या शारीरिक श्रम कम करने की ज़रूरत है। फिर वे मरीज़ को उपयुक्त औषधि के रूप
में गोलियां, घुटी
या इंजेक्शन देते थे।
इसके
विपरीत, अब
हम मरीज़ को दिखाने के लिए डॉक्टर के क्लीनिक जाते हैं, जहां रोग का पता
लगाने के लिए वे मरीज़ को नैदानिक केंद्र (पैथॉलॉजी) भेजते हैं और उसकी रिपोर्ट के आधार पर दवा देते हैं। त्वचा
देख-छूकर रोग का पता करना अब बीते ज़माने की बात
हो गई है।
वैसे
इस समय त्वचा विशेषज्ञ एक दिलचस्प तरीके का उपयोग कर रहे हैं। इस तरीके में वे एक
महीन बहुलक-आधारित पट्टी में वांछित औषधि डालते हैं
जिसे मरीज़ की बांह या छाती की त्वचा पर चिपका दिया जाता है। फिर इस पट्टी में बहुत
हल्का विद्युत प्रवाह किया जाता है, और पसीने के माध्यम से दवा सीधे शरीर में
चली जाती है। इस प्रकार यह पहनी जा सकने वाली व्यक्तिगत चिकित्सा तकनीक है जिसमें
गोलियां या औषधि नहीं खानी पड़ती। माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक और जैव-संगत
पोलीमर के आने से आज हमारे पास “इलेक्ट्रॉनिक त्वचा” (ई-त्वचा) है,
नैनोवायर की मदद से इसे त्वचा पर जोड़ा जा सकता है और
माइक्रो बैटरी की मदद से इसमें विद्युत प्रवाहित की जा सकती है।
पसीने
की भूमिका
गौर
करेंगे तो देखेंगे कि इसमें हमारे शरीर के सक्रिय तरल यानी पसीने को नज़रअंदाज कर
दिया गया है या इसे महज एक अक्रिय वाहक के रूप में देखा जा रहा है जिसकी कोई अन्य
भूमिका नहीं है। यह हाल ही में हुआ है कि हमारे शरीर में पसीने की भूमिका और इसमें
मौजूद रसायनों के बारे में हमारी समझ और इसका इस्तेमाल बढ़ा है। पसीना हमारी पूरी
त्वचा में वितरित तीन प्रकार की ग्रंथियों से निकलता है। ये ग्रंथियां पानी और कई
अन्य पदार्थों को स्रावित करके हमारे शरीर के तापमान को 37 डिग्री
सेल्सियस (या 98.4 डिग्री
फैरनहाइट) बनाए रखने में मदद करती हैं। हमारे
मस्तिष्क में तापमान-संवेदी तंत्रिकाएं (न्यूरॉन्स) होती हैं, जो शरीर के तापमान
और चयापचय गतिविधि का आकलन करके पसीना स्रावित करने वाली ग्रंथियों को नियंत्रित
करती हैं। इस तरह पसीना हमारे शरीर के तापमान को नियंत्रित रखता है।
पसीने
में क्या होता है?
यह 99 प्रतिशत पानी होता
है जिसमें सोडियम,
पोटेशियम, कैल्शियम, मैग्नीशियम और
क्लोराइड आयन, अमोनियम
आयन, यूरिया, लैक्टिक एसिड, ग्लूकोज़ जैसे अन्य
पदार्थ होते हैं। किसी मरीज़ के पसीने में मौजूद पदार्थों के विश्लेषण और इसकी
तुलना एक सामान्य व्यक्ति के पसीने करें, तो पसीना एक नैदानिक तरल हो सकता है (ठीक उसी तरह जिस तरह शरीर के अन्य तरल पदार्थ होते हैं)। जैसे, सिस्टिक फाइब्रोसिस बीमारी में मरीज़ के
पसीने में सोडियम और क्लोराइड आयनों का अनुपात और सामान्य व्यक्ति के पसीने में
सोडियम और क्लोराइड आयनों का अनुपात अलग-अलग होता है। इसी
तरह डायबिटीज़ के रोगी के पसीने में ग्लूकोज़ की मात्रा सामान्य व्यक्ति से अधिक
होती है। लेकिन इन नैदानिक तरीकों में समस्या पसीने की मात्रा की है।
ई–त्वचा आधारित निदान
यहां
आधुनिक तकनीक का महत्व सामने आता है। अब माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक और ई-त्वचा पट्टी दोनों उपलब्ध हैं। वैज्ञानिक इनका उपयोग पट्टी
में लगे उपयुक्त संवेदियों की मदद से, पसीना निकलने के वक्त ही उसमें मौजूद में
कुछ चुनिंदा पदार्थों की मात्रा का पता लगाने में कर रहे हैं। लेकिन क्या यह बेहतर
नहीं होगा कि हम ई-त्वचा पट्टी पर एक की बजाए कई पदार्थों की
जांच के लिए सेंसर लगाकर,
एक साथ कई जांच कर पाएं?
इस
बारे में कैलिफोर्निया के जीव विज्ञानी, भौतिक विज्ञानी, कंप्यूटर विशेषज्ञ
और इलेक्ट्रिकल इंजीनियरों द्वारा एक महत्वपूर्ण अध्ययन 2016 में
नेचर पत्रिका प्रकाशित हुआ था। इसमें उन्होंने ई-त्वचा
पट्टी पर एक नहीं बल्कि छह सेंसर जोड़े थे जो सोडियम, पोटेशियम, क्लोराइड आयन, लैक्टेट और ग्लूकोज़
की मात्रा और पसीने का तापमान पता करते हैं। ये सेंसर इस तरह लगाए गए थे कि सेंसर
और त्वचा के बीच हमेशा संपर्क बना रहे। प्रत्येक सेंसर से आने वाले विद्युत
संकेतों को डिजिटल संकेतों में परिवर्तित किया जाता है और माइक्रो-नियंत्रक को भेजा जाता है। इन संकेतों को ब्लूटूथ की मदद से
मोबाइल फोन या अन्य स्क्रीन पर पढ़ा जा सकता है, या एसएमएस, ईमेल के ज़रिए किसी
को भेजा जा सकता है या क्लाउड इंटरफेस पर अपलोड भी किया जा सकता है।
2017 में इन्हीं शोधकर्ताओं ने प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल
एकेडमी ऑफ साइंसेस में एक और पेपर प्रकाशित किया था। चूंकि एक जगह स्थिर रहने
वाले (या गतिहीन) लोगों
में प्राकृतिक रूप से पसीना बहुत कम निकलता है इसलिए शोधकर्ताओं ने आयनटोफोरेसिस
नामक तरीके का उपयोग किया। इसमें वांछित स्थान को पसीना स्रावित करने के लिए
उत्तेजित किया जा सकता है और पर्याप्त मात्रा में पसीना प्राप्त किया जा सकता है।
फिर किसी सामान्य व्यक्ति और सिस्टिक फाइब्रोसिस वाले व्यक्तियों में सम्बंधित
पदार्थों का विश्लेषण किया और पसीने में ग्लूकोज के स्तर को भी देखा। जांच के लिए
प्रयुक्त शीट उनके द्वारा पूर्व में उपयोग की गई एकीकृत शीट जैसी थी। अध्ययन में
उन्होंने पाया कि एक सामान्य व्यक्ति में प्रति लीटर 26.7 मिली
मोल सोडियम आयन और 21.2 मिली मोल क्लोराइड आयन होते हैं (ध्यान दें कि यहां सोडियम आयन का स्तर क्लोराइड आयन के स्तर
से अधिक है),
जबकि सिस्टिक फाइब्रोसिस के रोगी में सोडियम आयन का स्तर 2.3 मिली मोल और क्लोराइड आयन का स्तर 95.7 मिली
मोल था (जो सोडियम आयन की अपेक्षा कहीं अधिक है)। ध्यान रहे कि सिस्टिक फाइब्रोसिस विशेषज्ञों द्वारा किए
जाने वाली सामान्य जांच में भी यही नतीजे मिलते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि
उपवास के दौरान ग्लूकोज़ पीने पर पसीने और रक्त में ग्लूकोज का स्तर बढ़ जाता है।
गौरतलब
है कि इन सब परीक्षणों में,
प्रोब और सेंसरों को संचालित करने के लिए माइक्रोबैटरी की
मदद से विद्युत प्रवाहित करने की आवश्यकता पड़ती है। यदि इन ई-त्वचा
का रोबोटिक्स और अन्य उपकरणों में उपयोग करना है, तो क्या हम इन
बैटरियों से निजात पा सकते हैं, और पसीने में मौजूद पदार्थों का उपयोग
विद्युत उत्पन्न करने वाले जैव र्इंधन के रूप में कर सकते है?
कुछ
दिनों पहले साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित शोध इसी सवाल का जवाब देता है। इस
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने लोगों की ई-त्वचा पट्टी पर
लॉक्स एंज़ाइम जोड़ा। यह लॉक्स एंज़ाइम पसीने में मौजूद लैक्टेट के साथ क्रिया करता
है और इसे एक बायोएनोड (जैविक धनाग्र) पर पायरुवेट में ऑक्सीकृत कर देता है, और एक बायोकेथोड (जैविक ऋणाग्र) पर ऑक्सीजन को पानी
में अवकृत कर देता है। इस प्रकार उत्पन्न विद्युत ऊर्जा, बिना किसी बाहरी स्रोत
के, ई-त्वचा पट्टी को संचालित करने के लिए पर्याप्त होती है – क्या शानदार तरीका है!
और अंत में, कोविड-19 संक्रमण के दिनों में यह जानना लाभप्रद है कि पसीने में कोई भी रोगजनक (बैक्टीरिया या वायरस) नहीं होता; इसके उलट इसमें एक कीटाणु-नाशक प्रोटीन होता है जिसे डर्मसीडिन कहते हैं। हो सकता है कि डर्मसीडिन या इसका संशोधित रूप एंटी-वायरस की तरह काम कर जाए।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.allaboutcircuits.com/uploads/thumbnails/Perspiration-powered_electronic_skin.jpg
दुनिया
भर में प्लास्टिक रिसाइक्लिंग एक बड़ी समस्या है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित
शोध के मुताबिक इस समस्या के समाधान में शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसा एंज़ाइम
तैयार किया है जो प्लास्टिक को 90 प्रतिशत तक रिसाइकल कर सकता है।
पॉलीएथिलीन
टेरेथेलेट (PET) दुनिया में सर्वाधिक
इस्तेमाल होने वाला प्लास्टिक है। इसका सालाना उत्पादन लगभग 7 करोड़ टन है। वैसे तो अभी भी PET का पुनर्चक्रण किया जाता है लेकिन इसमें समस्या यह है कि
पुनर्चक्रण के लिए कई रंग के प्लास्टिक जमा होते हैं। जब इनका पुनर्चक्रण किया
जाता है तो अंत में भूरे या काले रंग का प्लास्टिक मिलता है। यह पेकेजिंग के लिए आकर्षक
नहीं होता इसलिए इसे या तो चादर के रूप में या अन्य निम्न-श्रेणी के फाइबर प्लास्टिक में बदल दिया
जाता है। और अंतत: इसे
या तो जला दिया जाता है या लैंडफिल में फेंक दिया जाता है जिसे पुनर्चक्रण तो नहीं
कहा जा सकता।
इसी
समस्या के समाधान में वैज्ञानिक एक ऐसे एंज़ाइम की खोज में थे जो PET और अन्य प्लास्टिक का पुनर्चक्रण कर सके। 2012 में ओसाका विश्वविद्यालय
के शोधकर्ताओं को कम्पोस्ट के ढेर में LLC
नामक एक एंज़ाइम मिला था जो PET के
दो बिल्डिंग ब्लॉक, टेरेथेलेट और एथिलीन
ग्लायकॉल, के बीच के बंध को
तोड़ सकता है। प्रकृति में इस एंज़ाइम का काम है कि यह कई पत्तियों पर मौजूद मोमी
आवरण का विघटन करता है। LLC सिर्फ पीईटी बंधों को तोड़ सकता है और वह
भी धीमी गति से। लेकिन यदि तापमान 65 डिग्री सेल्सियस हो तो कुछ समय काम करने के बाद यह नष्ट हो
जाता है। इसी तापमान पर तो PET नरम होना शुरू होता है और तभी एंज़ाइम
आसानी से प्लास्टिक के बंध तक पहुंचकर उन्हें तोड़ सकेगा।
हालिया
शोध में प्लास्टिक कंपनी कारबायोस के एलैन मार्टी और उनके साथियों ने इस एंज़ाइम
में कुछ फेरबदल किए। उन्होंने उन अमिनो अम्लों का पता किया जिनकी मदद से यह एंज़ाइम
टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लाइकॉल समूहों के रासायनिक बंध से जुड़ता है। उन्होंने इस
एंज़ाइम को उच्च तापमान पर काम करवाने के तरीके भी खोजे।
इसके बाद शोधकर्ताओं ने ऐसे सैकड़ों परिवर्तित एंज़ाइम्स की मदद से PET प्लास्टिक का पुनर्चक्रण करके देखा। कई प्रयास के बाद उन्हें एक ऐसा परिवर्तित एंज़ाइम मिला जो मूल LLC की तुलना में 10,000 गुना अधिक कुशलता से PET बंध तोड़ सकता है। यह एंज़ाइम 72 डिग्री सेल्सियस पर भी काम करता है। प्रायोगिक तौर पर इस एंज़ाइम ने 10 घंटों में 90 प्रतिशत 200 ग्राम PET का पुनर्चक्रण किया। इस प्रक्रिया से प्राप्त टेरेथेलेट और एथिलीन ग्लायकॉल से PET और प्लास्टिक बोतल तैयार किए गए जो नए प्लास्टिक जितने मज़बूत थे। हालांकि अभी स्पष्ट नहीं है कि यह आर्थिक दृष्टि से कितना वहनीय होगा लेकिन इसकी खासियत यह है कि इससे जो प्लास्टिक मिलता है वह नए जैसा टिकाऊ और आकर्षक होता है। (स्रोत फीचर्स)
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इस
समय देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया
कोरोना वायरस नामक एक ऐसे दुष्चक्र में फंसी है जिससे निकलने के लिए असाधारण कदमों
और उपायों की ज़रूरत है। महामारी कोविड-19 फैलाने वाले कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या दुनिया
में साढ़े सात लाख तक पहुंच गई है और 33 हज़ार से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं। हर रोज़ संक्रमित लोगों
और मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है और यह महामारी नए इलाकों में पांव पसारती जा
रही है।
विशेषज्ञों
का मानना है कि हम बिग डैटा, क्लाउड कंप्यूटिंग,
सुपर कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल
इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स,
3-डी
प्रिंटिंग, थर्मल इमेज़िंग और 5-जी जैसी टेक्नॉलॉजी
का इस्तेमाल करते हुए बेहद प्रभावी ढंग से कोरोनावायरस से मुकाबला कर सकते हैं। इस
महामारी से निपटने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार लोगों की निगरानी रखे। आज
टेक्नॉलॉजी की बदौलत सभी लोगों पर एक साथ हर समय निगरानी रखना मुमकिन है।
कोरोना
वायरस के खिलाफ अपनी लड़ाई में कई सरकारों ने टेक्नॉलॉजी को मोर्चे पर लगा दिया है।
टेक्नॉलॉजी का ही इस्तेमाल करते हुए चीन ने इस वायरस पर काफी हद तक काबू पाया है।
लोगों के स्मार्टफोनों, चेहरा पहचानने वाले
हज़ारों-लाखों
कैमरों, और अपने शरीर का तापमान
रिकॉर्ड करने और अपनी मेडिकल जांच की अनुमति देने की सहज इच्छा रखने वाली जनता के
बल पर चीनी अधिकारियों ने न केवल शीघ्रता से यह पता कर लिया कि कौन व्यक्ति कोरोना
वायरस का संभावित वाहक है बल्कि वह उन पर नज़र भी रख रहे थे कि वे किस-किस के संपर्क में
आते हैं। कई सारे ऐसे मोबाइल ऐप्स हैं जो नागरिकों को संक्रमित व्यक्ति के आसपास
मौजूद होने के बारे में चेतावनी देते हैं।
कोरोनावायरस
को रोकने के लिए चीन ने सबसे पहले ‘कलर कोडिंग टेक्नॉलॉजी’ का इस्तेमाल किया है। इस सिस्टम के लिए चीन
की दिग्गज टेक कंपनी अलीबाबा और टेनसेंट ने साझेदारी की है। यह सिस्टम स्मार्टफोन
ऐप के रूप में काम करता है। इसमें यूज़र्स को उनकी यात्रा के दौरान उनकी मेडिकल
हिस्ट्री के मुताबिक ग्रीन, येलो और रेड कलर का
क्यूआर कोड दिया जाता है। ये कलर कोड ही यह निर्धारित करते हैं कि यूज़र को
क्वॉरेंटाइन किया जाना चाहिए या फिर उसे सार्वजनिक स्थान पर जाने की इजाज़त दी जानी
चाहिए। चीनी सरकार ने इस सिस्टम के लिए कई चेक पॉइंट्स बनाए हैं,
जहां लोगों की चेकिंग होती हैं। यहां उन्हें उनकी यात्रा और
मेडिकल हिस्ट्री के मुताबिक क्यूआर कोड दिया जाता है। अगर किसी को ग्रीन कलर का
कोड मिलता है, तो वह इसका उपयोग कर
किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जा सकता है। तो दूसरी तरफ अगर किसी को लाल कोड मिलता
है, तो उसे क्वारेंटाइन कर दिया जाता है। इस
सिस्टम का इस्तेमाल 200 से
ज़्यादा चीनी शहरों में हुआ है। भारत में भी ऐप आधारित कलर कोडिंग टेक्नॉलॉजी
विकसित करने के प्रयास ज़ोर-शोर से किए जा रहे हैं।
भारत
में भी रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों और अन्य
सार्वजनिक क्षेत्रों के अधिकारी दूर से तापमान रिकॉर्ड करने के लिए स्मार्ट थर्मल
स्कैनर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह संभावित कोरोना वायरस वाहक की पहचान करने
में आसानी हो रही है। भारत में बाज़ार-केंद्रित हेल्थ टेक स्टार्टअप कंपनियां भी रोग के निदान के
लिए नवाचार की ओर कमर कस रही हैं, इससे हेल्थ केयर
सिस्टम पर दबाव कम हो रहा है। कन्वर्जेंस कैटालिस्ट के संस्थापक जयंत कोल्ला
बैंगलुरु स्थित स्टार्टअप, वनब्रोथ का उदाहरण
देते हैं। इसने सस्ते और टिकाऊ वेंटिलेटर विकसित किए हैं। ये भारत की ग्रामीण
आबादी को ध्यान में रखकर किया गया है, जहां
अस्पतालों और डॉक्टरों तक पर्याप्त पहुंच का अभाव है। एक अन्य बैंगलुरु-आधारित स्टार्टअप डे-टु-डे ने घर पर
क्वारेंटाइन रोगियों को विभिन्न सुविधाओं और अस्पतालों में रखने के लिए एक केयर
मैनेजमेंट सॉल्यूशन विकसित किया है और इसके ज़रिए बाद में निदान गतिविधियों जैसे कि
स्वास्थ्य जांच, आहार,
अनुवर्ती परीक्षण आदि को भी पूरा किया जाता है।
चीन
सहित विभिन्न देशों ने कोरोना वायरस को मात देने के लिए रोबोट का इस्तेमाल किया
है। ये रोबोट होटल से लेकर ऑफिस तक में साफ-सफाई का काम करते हैं और साथ ही आस-पास की जगह पर
सैनिटाइज़र का छिड़काव भी करते हैं। वहीं, दूसरी
तरफ चीन की कई टेक कंपनियां भी इन रोबोट का उपयोग मेडिकल सैंपल भेजने के लिए करती
थीं। कोरोना वायरस को रोकने के लिए चीन ने ड्रोन का इस्तेमाल किया है। साथ ही इन
ड्रोन्स के ज़रिए चीनी सरकार ने लोगों तक फेस मास्क और दवाइयां पहुंचाई हैं। इसके
अलावा इन डिवाइसेस के ज़रिए कोरोना वायरस से संक्रमित क्षेत्रों में सैनिटाइजर का
छिड़काव भी किया गया है।
कोरोना
वायरस को ट्रैक करने के लिए फेस रिकॉग्निशन सिस्टम का इस्तेमाल बेहद कारगर साबित
हो रहा है। इस सिस्टम में इंफ्रारेड डिटेक्शन तकनीक मौजूद है,
जो लोगों के शरीर के तापमान जांचने में मदद करती है। इसके
अलावा फेस रिकॉग्निशन सिस्टम यह भी बताता है कि किसने मास्क पहना है और किसने
नहीं।
वैज्ञानिक
कोरोना के टीके और दवाई विकसित करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) का इस्तेमाल कर रहें
हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि एंटीबायोटिक दवाओं के बैक्टीरिया पर घटते असर
को ध्यान में रखते हुए पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक एआई की मदद से ऐसे
प्लेटफॉर्म तैयार करने की कोशिश रहे हैं जिससे नए किस्म की दवाओं की खोज की जा सके
और एंटीबायोटिक दवाओं को बेअसर करने वाले बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सके। हाल
ही में वैज्ञानिक समुदाय को इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। अमेरिका के
एमआईटी के वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशिल इंटेलीजेंस (एआई) के मशीन-लर्निंग एल्गोरिदम की मदद से पहली बार एक
नया और बेहद शक्तिशाली एंटीबायोटिक तैयार किया है। शोधकर्ताओं का दावा है कि इस
एंटीबायोटिक से तमाम घातक बीमारियों को पैदा करने वाले बैक्टीरिया को भी मारा जा
सकता है। इसको लेकर दावे इस हद तक किए जा रहे हैं कि इस एंटीबायोटिक से उन सभी
बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सकता है जो सभी ज्ञात एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ
प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुके हैं। इस नए एंटीबायोटिक की खोज ने आर्टिफिशियल
इंटेलीजेंस की मदद से कोरोना के खिलाफ एक कारगर एंटी वायरल दवा विकसित करने की
वैज्ञानिकों की उम्मीदों को बढ़ा दिया है।
कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि आज टेक्नॉलॉजी ने किसी महामारी से लड़ने के लिए हमारी क्षमताओं को काफी हद तक बढ़ा दिया है। जिसकी बदौलत हम परंपरागत रक्षात्मक उपायों को करते हुए महामारी के विरुद्ध कारगर ढंग से लड़ने में सक्षम हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/45907C19-26EE-4F33-A692839E8348B3F5_source.jpg?w=590&h=800&384A6689-9106-44AC-95961FAAE8D57C31
दुनिया
की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलवक्त कोविड-19 से बुरी तरह से जूझ रहा है। डॉक्टर,
नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी कोरोना संक्रमित मरीज़ों के
इलाज और देखभाल में जी-जान
से लगे हुए हैं। समूची मानवजाति के ऊपर आई इस संकट की घड़ी में अब रोबोट भी इंसान
के मददगार बन रहे हैं। उन्हें इस खतरनाक बीमारी से उबरने में मदद कर रहे हैं।
राजस्थान
में जयपुर स्थित एसएमएस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की सेवा के लिए तीन
रोबोट की ड्यूटी लगाई गई है। ये रोबोट कोरोना संक्रमित व्यक्तियों तक दवा,
पानी व दीगर ज़रूरी सामान ले जाने का काम करेंगे। रोबोट की
ड्यूटी यहां लगाए जाने से कोरोना पीड़ितों के आसपास मेडिकल स्टाफ का मूवमेंट कम हो
जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हॉस्पिटल में
इंसानों की वजह से कोविड-19 वायरस
के प्रसार की जो संभावना रहती है, वह काफी कम हो
जाएगी। मरीज़ के संपर्क में न आ पाने से बाकी लोगों में संक्रमण नहीं फैलेगा,
वे सुरक्षित रहेंगे। ज़ाहिर है,
जब डॉक्टर, नर्स और तमाम
स्वास्थ्य कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे, तो
वे अपना काम और भी बेहतर तरीके से कर सकेंगे। देखा जाए तो यह एक छोटी-सी शुरुआत ही है।
देश भर के बाकी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपने स्वास्थ्य और जान की
ज़रा-सी
भी परवाह किए बिना मुस्तैदी से अपने फर्ज़ को अंजाम देने में लगे हुए हैं।
‘रोबोट सोना 2.5’ नामक ये रोबोट पूरी
तरह भारतीय तकनीक और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत जयपुर में ही बनाए गए हैं।
युवा रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने इन्हें तैयार किया है। सबसे बड़ी खासियत यह है कि ‘सोना 2.5’ रोबोट लाइन फॉलोअर
नहीं हैं बल्कि ऑटो नेविगेशन रोबोट हैं। यानी इन्हें मूव कराने के लिए किसी भी तरह
की लाइन बनाने की ज़रूरत नहीं होती है। इंसानों की तरह ये रोबोट सेंसर की मदद से
खुद नेविगेट करते हुए अपना रास्ता बनाते हैं और लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। इन्हें
आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, आईओटी और एसएलएएम
तकनीक का शानदार इस्तेमाल करके तैयार किया गया है।
सर्वर
के कमांड मिलने पर ये रोबोट सबसे पहले अपने लिए एक छोटे रास्ते का मैप क्रिएट करते
हैं। अच्छी बात यह है कि ये किसी भी फर्श या फ्लोर पर आसानी से मूव कर सकते हैं।
इन्हें वाई-फाई
सर्वर के ज़रिए लैपटॉप या स्मार्ट फोन से भी ऑपरेट किया जा सकता है। ऑटो नेविगेशन
होने से इन्हें अंधेरे में भी मूव कराया जा सकता है।
एक
खूबी और है कि इनमें ऑटो डॉकिंग प्रोग्रामिंग की गई है,
जिससे बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही ये खुद चार्जिंग
पॉइंट पर जाकर ऑटो चार्ज हो जाएंगे। एक बार चार्ज होने पर ये सात घंटे तक काम कर
सकते हैं और इन्हें चार्ज होने में तीन घंटे का समय लगता है। यानी इन रोबोट में वे
सारी खूबियां हैं, जिनके दम पर ये अपना
काम बिना रुके, बदस्तूर करते
रहेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिकों का मानवजाति के लिए यह वाकई एक चमत्कारिक उपहार है
जिसे नमस्कार किया जाना चाहिए।
अकेले
राजस्थान में ही नहीं, केरल में भी यह
अभिनव प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कोच्चि की ऐसी ही स्टार्टअप कंपनी ने अस्पतालों
के लिए एक खास रोबोट तैयार किया है जो मेडिकल स्टाफ की मदद करेगा। तीन चक्कों वाला
यह रोबोट खाना और दवाइयां पहुंचाने के काम आएगा। यह पूरे अस्पताल में आसानी से घूम
सकता है। इसे सात लोगों ने मिलकर महज 15 दिनों के अंदर तैयार किया है। इसी तरह की पहल नोएडा के
फेलिक्स अस्पताल ने भी की है।
डॉक्टरों
एवं मेडिकल स्टाफ को कोविड-19 जैसे घातक वायरस से बचाने के लिए रोबोट का इस्तेमाल होगा।
कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के अस्पताल काम के बोझ से दबे हुए
हैं। मरीज़ों का इलाज और देखभाल करते हुए डॉक्टरों को ज़रा-सी भी फुर्सत नहीं मिल रही है। मरीज़ों की
तादाद रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है।
इसी
तरह की परेशानियों के मद्देनजर आयरलैंड के एक अस्पताल में भी रोबोट्स को काम पर
लगाने का फैसला किया गया है। डबलिन के मेटर मिजरिकॉरडी यूनिवर्सिटी अस्पताल में
रोबोट्स प्रशासनिक और कंप्यूटर का काम कर रहे हैं, जो
आम तौर पर नर्सों के ज़िम्मे होता है। ये रोबोट कोविड-19 से जुड़े नतीजों का विश्लेषण भी कर रहे हैं।
इन रोबोट को बनाने वाले एक्सपर्ट्स अपने काम से अभी संतुष्ट नहीं हैं। वे कोशिश कर
रहे हैं कि ये रोबोट डिसइन्फेक्शन करने, टेंपरेचर
नापने और सैंपल कलेक्ट करने का काम भी कुशलता से कर सकें।
मानव
जैसी स्पाइन टेक्नॉलॉजी वाले दुनिया के पहले रोबोट का सबसे पहले इस्तेमाल,
उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित रेल कोच फैक्टरी में पिछले
साल 18 नवंबर
को किया गया था। ‘सोना
1.5’ नामक
इस स्वदेशी ह्यूमनॉयड रोबोट का निर्माण भी रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने
किया है। इस रोबोट का इस्तेमाल दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरी जगह ला-ले जाने,
विज़िटर्स का स्वागत करने, टेक्निकल
डिस्कशन और ट्रेनिंग में हो रहा है।
दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं। इस तरह के कामों में वे पूरी तरह से कारगर साबित होते हैं। निकट भविष्य में इसरो अपने महत्त्वाकांक्षी मिशन ‘गगनयान’ के लिए भी एक रोबोट ‘व्योम मित्र’ भेजेगा। देखना है कि रोबोट कैसे हमसफर साबित होते हैं(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://clubfirst.org/wp-content/uploads/2020/03/IMG_20200328_165309-1024×768.jpg
भारत
का पहला मानव-सहित
अंतरिक्ष मिशन गगनयान 2021-22
के दौरान उड़ान भरेगा। अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने से
पहले भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) सभी प्रासंगिक प्रौद्योगिकियों में महारत हासिल करने के लिए
दो मानव-रहित
मिशन भेजेगा।
इसरो ने 22-24 जनवरी, 2020 को बैंगलुरु में एक
तीन दिवसीय संगोष्ठी के दौरान एक महिला रोबोट अंतरिक्ष यात्री ‘व्योम मित्र’ का अनावरण किया। ‘मानव अंतरिक्ष उड़ान
और अन्वेषण – वर्तमान
चुनौतियां और भविष्य के रुझान’ नामक इस संगोष्ठी के उद्घाटन दिवस पर व्योम मित्र आकर्षण का
केंद्र था।
इसरो
के मानव-सहित
अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम के तहत गगनयान पहला यान होगा,
जिसे शक्तिशाली जीएसएलवी एमके III रॉकेट द्वारा प्रक्षेपित किया जाएगा।
गगनयान
कक्षीय कैप्सूल में एक सेवा मॉड्यूल और एक चालक दल मॉड्यूल है। वर्तमान गगनयान योजना
के अंतर्गत दो मानव-रहित
और एक मानव-सहित
उड़ान शामिल हैं। पहली मानव-रहित उड़ान दिसंबर 2020 में और दूसरी जुलाई 2021 में प्रस्तावित है। दो सफल मानव-रहित उड़ानों के बाद,
पहला मानव-सहित मिशन दिसंबर 2021 में निर्धारित किया गया है।
समानव
अंतरिक्ष यान को या तो चालक दल द्वारा या दूर से भू-स्टेशनों द्वारा संचालित किया जा सकता है,
और यह स्वायत्त भी हो सकता है। समानव अंतरिक्ष यान 5-7 दिनों के लिए पृथ्वी
की निम्न कक्षा में परिक्रमा करेगा और फिर उसका चालक दल मॉड्यूल सुरक्षित रूप से
धरती पर वापस लौटेगा।
गगनयान
मिशन का मुख्य उद्देश्य प्रौद्योगिकी प्रदर्शन है। मिशन का दूसरा उद्देश्य देश में
विज्ञान और प्रौद्योगिकी के स्तर में वृद्धि करना है। गगनयान एक अंतरिक्ष स्टेशन
स्थापित करने का अग्रदूत होगा।
मानव-रोबोट व्योम मित्र
मूल रूप से एक मानव की सूरत वाला रोबोट है। उसके पास सिर्फ सिर,
दो हाथ और धड़ है, निचले
अंग नहीं हैं।
किसी
भी रोबोट की तरह, एक मानव-रोबोट के कार्य उससे
जुड़े कंप्यूटर सिस्टम द्वारा संचालित किए जाते हैं। कृत्रिम बुद्धि (आर्टिफिशियल
इंटेलिजेंस) और
रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा
रहा है जिनमें बार-बार
एक-सी
क्रियाएं करनी होती हैं, जैसे कि रेस्तरां
में बैरा।
इसरो
की योजना 2022 तक
किसी इंसान को अंतरिक्ष में भेजने की है। वह एक क्रू मॉड्यूल और रॉकेट सिस्टम
विकसित करने में जुटा है जो अंतरिक्ष यात्री की सुरक्षित यात्रा और वापसी
सुनिश्चित कर सके। भारतीय अंतरिक्ष यात्रियों को व्योमनॉट्स के नाम से संबोधित
किया जाएगा। जिन अन्य देशों ने अंतरिक्ष में मनुष्यों को सफलतापूर्वक भेजा है,
उन्होंने अपने रॉकेट और नाविक पुन:प्राप्ति तंत्र (क्रू रिकवरी सिस्टम) के परीक्षणों के लिए जानवरों का इस्तेमाल
किया था, जबकि इसरो अंतरिक्ष
में मानव को ले जाने और वापसी के लिए अपने जीएसएलवी एमके III रॉकेट की प्रभावकारिता का परीक्षण रोबोट
का उपयोग करके सुनिश्चित करेगा। यह रोबोट विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केंद्र,
तिरुवनंतपुरम की रोबोटिक्स प्रयोगशाला में विकासाधीन है।
इसरो
का जीएसएलवी एमके क्ष्क्ष्क्ष् रॉकेट इस समय सुधार के दौर से गुज़र रहा है ताकि यह
सुनिश्चित किया जा सके कि यह मनुष्य को अंतरिक्ष में ले जाने के लिए सुरक्षित है।
इसकी पहली मानव-रहित
उड़ान की योजना दिसंबर 2020
में निर्धारित है। क्रू मॉड्यूल प्रणाली भी विकासाधीन है,
और अगले कुछ महीनों में इसके लिए इसरो कई नए परीक्षण करने
का प्रयास करेगा ।
इसरो
को अपनी अंतरिक्ष परियोजनाओं के लिए रोबोटिक सिस्टम बनाने का खासा अनुभव है।
आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस पहले से ही कई अंतरिक्ष मिशनों के मूल में है। उदाहरण के
लिए, अंतरिक्ष यानों और प्रक्षेपण यानों में
उन्मुखीकरण, गति,
उपांगों की तैनाती, दूरी
आदि का स्वत: मूल्यांकन,
प्रसंस्करण संग्रहित निर्देशों के माध्यम से किया जाता है।
इसरो का मानव रोबोट 2022
में अंतरिक्ष यात्रियों के अस्तित्व और सुरक्षित यात्रा के
लिए बने क्रू मॉड्यूल का परीक्षण करने में सक्षम होगा।
व्योम
मित्र रोबोट का उपयोग एक प्रयोग के रूप में किया जा रहा है। यह मानव-रहित अंतरिक्ष उड़ान
में मानव शरीर के अधिकांश कार्य करेगा। व्योम मित्र बातचीत करने,
जवाब देने और वापस रिपोर्ट करने के लिये मनुष्य जैसा व्यवहार
करेगा। यह अंतरिक्ष यात्रियों को भी पहचान सकता है, उनसे
बातचीत कर सकता है और उनके प्रश्नों का उत्तर दे सकता है।
व्योम
मित्र, जिनका मानव अंतरिक्ष
उड़ान के लिए पहले जमीन पर परीक्षण किया जाएगा, मूलभूत
कृत्रिम बुद्धि और रोबोटिक्स प्रणाली पर आधारित होगा। एक बार पूरी तरह से विकसित
होने के बाद, व्योम मित्र मानव-रहित उड़ान के लिए
ग्राउंड स्टेशनों से भेजे गए सभी निर्देशों को अंजाम देने में सक्षम होंगे। इनमें
सुरक्षा तंत्र और स्विच पैनल का संचालन करने की प्रक्रियाएं शामिल होंगी।
प्रक्षेपण और कक्षीय मुद्राओं को प्राप्त करना, मापदंडों
के माध्यम से मॉड्यूल की निगरानी, पर्यावरण पर
प्रतिक्रिया देना, जीवन सहायता प्रणाली
का संचालन, चेतावनी निर्देश
जारी करना, कार्बन डाईऑक्साइड
कनस्तरों को बदलना, स्विच चलाना,
क्रू मॉड्यूल की निगरानी, वॉयस
कमांड प्राप्त करना, आवाज़ के माध्यम से
प्रतिक्रिया देना आदि कार्य मानव रोबोट के लिए सूचीबद्ध किए गए हैं। व्योम मित्र
आवाज़ के अनुसार होंठ हिलाने में सक्षम होगा। वे प्रक्षेपण,
लैंडिंग और मानव मिशन के कक्षीय चरणों के दौरान अंतरिक्ष
यान की सेहत जैसे पहलुओं से सम्बंधित ऑडियो जानकारी प्रदान करने में अंतरिक्ष
यात्री के कृत्रिम दोस्त की भूमिका निभाएंगे।
व्योम
मित्र अंतरिक्ष उड़ान के दौरान क्रू मॉड्यूल में होने वाले बदलावों को पृथ्वी पर
वापस रिपोर्ट भी करेंगे, जैसे ऊष्मा विकिरण
का स्तर, जिससे इसरो को क्रू
मॉड्यूल में आवश्यक सुरक्षा स्तरों को समझने में मदद मिलेगी और अंतत: समानव उड़ान कर
सकेंगे।
डमी
अंतरिक्ष यात्रियों वाले कई अंतरिक्ष मिशन रहे हैं। कुछ मिशनों में व्योम मित्र
जैसे रोबोट का उपयोग भी किया जा चुका है। हाल ही में रिप्ले नामक एक अंतरिक्ष
यात्री पुतले को ड्रैगन क्रू कैप्सूल पर स्पेस एक्स फाल्कन रॉकेट द्वारा मार्च 2019 में अंतर्राष्ट्रीय
अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था। रिप्ले को नासा के लिए 2020 में अंतरिक्ष में मानव भेजने के लिए स्पेस
एक्स की तैयारी के एक हिस्से के रूप में बनाया गया था।
एयरबस
द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर सिमोन (CIMONक्रू
इंटरएक्टिव मोबाइल कंपेनियन) नामक आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस रोबोट बॉल को तैनात किया गया
था। अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक फ्लोटिंग कैमरा रोबोट-इंट-बॉल को जापान
एयरोस्पेस एक्सप्लोरेशन एजेंसी (जैक्सा) द्वारा तैनात किया गया था ।
जापान में निर्मित एक मानव-रोबोट किरोबो को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन के पहले जापानी कमांडर कोइची वाकाता के साथ सहायक के रूप में अंतरिक्ष स्टेशन पर प्रयोगों के संचालन के लिए भेजा गया था। किरोबो आवाज़ पहचान, चेहरे की पहचान, भाषा प्रसंस्करण और दूरसंचार क्षमताओं जैसी प्रौद्योगिकियों से लैस था। यांत्रिक कार्यों को अंजाम देने के लिए एक रूसी मानव-रोबोट, फेडोर को 2019 में अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर भेजा गया था।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.cnbctv18.com/optimize/z9ESx0u-XVFdBSaQ5hCeF_5db00=/0x0/images.cnbctv18.com/wp-content/uploads/2020/01/ISRO-Vyomamitra-PTI.jpg
एक
ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि कुछ बैक्टीरिया ऐसे नैनो (अति-सूक्ष्म) तार बनाते हैं जिनमें से होकर बिजली बहती
है, हालांकि अभी शोधकर्ता यह नहीं जानते कि इस
बिजली का स्रोत क्या है। वैसे एक बात पक्की है कि ये बैक्टीरिया और उनके द्वारा
बनाए गए नैनो तार बिजली का उत्पादन तब तक ही करते हैं,
जब तक कि हवा में नमी हो। दरअसल ये नैनो तार और कुछ नहीं,
प्रोटीन के तंतु हैं जो इलेक्ट्रॉन्स को बैक्टीरिया से दूर
ले जाते हैं। इलेक्ट्रॉन का प्रवाह ही तो बिजली है।
यह
देखा गया है कि जब पानी की सूक्ष्म बूंदें ग्रेफीन या कुछ अन्य पदार्थों के साथ
अंतर्क्रिया करती हैं तो विद्युत आवेश पैदा होता है और इन पदार्थों में से
इलेक्ट्रॉन का प्रवाह होने लगता है। लगभग 15 वर्ष पूर्व मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के
सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेरेक लवली ने खोज की थी कि जियोबैक्टर नामक
बैक्टीरिया इलेक्ट्रॉन्स को कार्बनिक पदार्थों से धात्विक यौगिकों (जैसे लौह ऑक्साइड) की ओर ले जाता है।
उसके बाद यह पता चला कि कई अन्य बैक्टीरिया हैं जो ऐसे प्रोटीन नैनो तार बनाते हैं
जिनके ज़रिए वे इलेक्ट्रॉन्स को अन्य बैक्टीरिया या अपने परिवेश में उपस्थित तलछट
तक पहुंचाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बिजली पैदा होती है।
फिर
लगभग 2 वर्ष
पहले एक शोधकर्ता ने पाया कि इन नैनो तारों को बैक्टीरिया से अलग कर दिया जाए,
तो भी इनमें विद्युत धारा पैदा होती रहती है। देखा गया कि
जब नैनो तारों से बनी एक झिल्ली को सोने की दो चकतियों के बीच सैंडविच कर दिया
जाता है, तो इस व्यवस्था में
से 20 घंटे
तक बिजली मिलती रहती है। इस व्यवस्था में जुगाड़ यह करना पड़ता है कि ऊपर वाली
तश्तरी थोड़ी छोटी हो ताकि नैनो तार की झिल्ली नम हवा के संपर्क में रहे।
शोधकर्ताओं
को इतना तो समझ में आ गया कि इलेक्ट्रॉन का स्रोत सोने की चकती नहीं है क्योंकि
कार्बन चकतियों ने भी यही असर पैदा किया, जबकि
कार्बन आसानी इलेक्ट्रॉन से नहीं छोड़ता। दूसरी संभावना यह हो सकती थी कि नैनो तार
विघटित हो रहे हैं लेकिन पता चला कि वह भी नहीं हो रहा है। तीसरा विचार था कि हो न
हो, यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के कारण काम कर
रहा है लेकिन यह विचार भी निरस्त करना पड़ा क्योंकि बिजली तो अंधेरे में भी बहती
रही। अंतत: लगता
है कि शायद नमी ही बिजली का स्रोत है। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में
शोधकर्ताओं ने कयास लगाया है कि संभवत: पानी के विघटन के कारण बिजली बन रही है।
अब शोधकर्ताओं ने जियोबैक्टर के स्थान पर आसानी से मिलने व वृद्धि करने वाले बैक्टीरिया ई. कोली की मदद से यह जुगाड़ जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह इतनी बिजली देता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का काम चल सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Nanowires_power_plant_1280x720.jpg?itok=OqgKSCRd
लंबे समय से शोधकर्ता फेसबुक डैटा का अध्ययन कर यह समझना
चाहते थे कि हालिया राजनैतिक घटनाओं के दौरान दुनिया भर के लोगों ने कैसे
जानकारियां और गलत जानकारियां साझा की थीं। उनका यह इंतज़ार अब खत्म हुआ है। फेसबुक
ने 13 फरवरी 2020 को अपना डैटा शोधकर्ताओं को अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दिया है।
हालांकि डैटा तक पहुंच के साथ शोधकर्ताओं को डैटा ठीक से ना पढ़ पाने सम्बंधी
मुश्किलें भी मिली हैं।
दरअसल फेसबुक ने अप्रैल 2018 में यह घोषणा की थी कि वह जल्द ही समाज
वैज्ञानिकों को लोगों द्वारा साझा की गई लिंक का डैटा उपलब्ध कराएगा। लेकिन घोषणा
के बाद फेसबुक के डैटा विशेषज्ञों ने पाया कि इस तरह डैटा उपलब्ध कराना
उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता के साथ समझौता होगा। इस दिक्कत को सुलझाने के लिए फेसबुक
ने डैटा उपलब्ध कराने के पूर्व, डैटा पर डिफ्रेंशियल प्रायवेसी
विधि प्रयोग कर उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता सुनिश्चित की। यह हाल ही में विकसित एक
गणितीय विधि है जो डैटा को अनाम रखती है।
जो डैटा फेसबुक ने उपलब्ध कराया है उसमें जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2019 के
बीच फेसबुक उपयोगकर्ताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से साझा की गई 3 करोड़ 80 लाख लिंक
और उससे सम्बंधित जानकारियां हैं। ये बताती हैं कि क्या फेसबुक उपयोगकर्ता इन लिंक
को फर्जी या नकारात्मक मानते थे, या क्या उन्होंने लिंक खोल कर
देखी या उन्हें पसंद किया। इसके अलावा फेसबुक ने इन लिंक को साझा करने, पढ़ने और पसंद करने वाले लोगों की उम्र, स्थान, लिंग सम्बंधी जानकारी और उनके राजनैतिक रुझान सम्बंधी जानकारी भी शोधकर्ताओं
को दी है।
न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में राजनीति और रूसी अध्ययन के प्रोफेसर जोशुआ टकर
इसे एक बड़ा कदम मानते हैं। इस डैटा की मदद से वे अपने अध्ययन, राजनैतिक रूप से प्रेरित खबरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किस तरह फैलती हैं, को आगे बढ़ाना चाहते हैं।
लेकिन लोगों की पहचान गोपनीय रखने सम्बंधी फेसबुक के समाधान ने शोधकर्ताओं के
लिए थोड़ी मुश्किल भी पैदा कर दी है। दरअसल गोपनीयता बनाए रखने के लिए फेसबुक ने
डैटा को थोड़ा तोड़-मरोड़ दिया है, जिससे शोधकर्ताओं को जूझना पड़ेगा।
अब यह शोधकर्ताओं पर है कि वे इस बिगड़े स्वरूप के डैटा को अर्थपूर्ण बनाने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.washingtonpost.com/wp-apps/imrs.php?src=https://arc-anglerfish-washpost-prod-washpost.s3.amazonaws.com/public/NVJ3VZJKQFGKFPBK4QPPOUA3VU.jpg&w=767
बरसों से दुनिया जिन ऊर्जा स्रोतों को र्इंधन के रूप में
उपयोग करती आ रही है, वे सीमित हैं। जहां एक ओर उनको बनने में
लाखों साल लग जाते हैं, वहीं उनके अत्यधिक दोहन से समय के साथ-साथ
वे चुक जाएंगे। ऐसे में आशा की एक नई किरण वैकल्पिक र्इंधन के रूप में सामने आई
है। वैकल्पिक र्इंधन देश के कच्चे तेल के आयात बिल को कम करने में मदद कर सकते
हैं। वर्तमान में भारत की अर्थव्यवस्था के मुख्य चालक डीज़ल और पेट्रोल हैं अर्थात
भारत की अधिकतम ऊर्जा ज़रूरतें डीज़ल और पेट्रोल से पूरी होती हैं। अब स्थिति को
बदलने की दिशा में काम हो रहा है।
वैश्विक स्तर पर वैकल्पिक र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का उत्पादन और उपयोग बढ़
रहा है। इसके मुख्य कारण हैं कोयले और प्राकृतिक गैस जैसे सस्ते माल की कमी, तेल की कीमतों में वृद्धि, तेल आयात बिल में कमी करने की
ख्वाहिश और प्रदूषण तथा जलवायु परिवर्तन जैसे पर्यावरणीय मुद्दे।
र्इंधन के रूप में और रासायनिक उद्योग में मध्यवर्ती पदार्थ रूप में मेथेनॉल
का उपयोग ऑटोमोबाइल और उपभोक्ता क्षेत्रों में तेज़ी से बढ़ रहा है। मेथेनॉल अपने
उच्च ऑक्टेन नंबर के कारण एक कुशल र्इंधन माना जाता है और यह गैसोलीन की तुलना में
सल्फर ऑक्साइड्स (एसओएक्स), नाइट्रोजन ऑक्साइड्स (एनओक्स)
और कणीय पदार्थ व गैसीय प्रदूषक तत्व कम उत्सर्जित करता है।
‘मेथेनॉल अर्थव्यवस्था’ का शाब्दिक अर्थ ऐसी अर्थव्यवस्था से है जो डीज़ल और
पेट्रोल की बजाय मेथेनॉल के बढ़ते प्रयोग पर आधारित हो। मेथेनॉल अर्थव्यवस्था की
अवधारणा को सक्रिय रूप से चीन, इटली, स्वीडन, इस्राइल,
अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, जापान और कई अन्य युरोपीय देशों द्वारा लागू किया गया है। वर्तमान में चीन में
लगभग 9 प्रतिशत परिवहन र्इंधन के रूप में मेथेनॉल का इस्तेमाल किया जा रहा है।
इसके अलावा इस्राइल, इटली ने पेट्रोल के साथ मेथेनॉल के 15
प्रतिशत मिश्रण की योजना बनाई है।
भारतीय र्इंधन में मेथेनॉल की शुरुआत अप्रत्यक्ष रूप से हुई थी, जब बॉयोडीज़ल,
मेथेनॉल और गैर खाद्य पौधों से बने तेल जैसे रतनजोत तेल को
2009 में जैव र्इंधन हेतु राष्ट्रीय नीति में शामिल किया गया था। मेथेनॉल
अर्थव्यवस्था बनाने के पीछे मुख्य उद्देश्य देश की अर्थव्यवस्था के विकास को टिकाऊ
बनाना है ताकि वर्तमान पीढ़ी की आवश्यकताओं की पूर्ति करते हुए भावी पीढ़ियों की
ज़रूरतों के साथ कोई समझौता न हो।
गैसोलीन में 15 प्रतिशत तक सम्मिश्रण के लिए मेथेनॉल अपेक्षाकृत एक आसान
विकल्प है। यह वाहनों, स्वचालित यंत्रों या कृषि उपकरणों में कोई
बदलाव किए बिना वायु गुणवत्ता सम्बंधी तत्काल लाभ प्रदान करता है। हालांकि दो अन्य
अनिवार्यताओं,
ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में कमी और र्इंधन आयात से विदेशी
मुद्रा के बहिर्वाह में कमी के संदर्भ में भारत में अधिक मेथेनॉल क्षमता स्थापित
करना आवश्यक होगा।
मोटे तौर पर देखा जाए तो मेथेनॉल र्इंधन हो या आजकल का मूल स्रोत हाइड्रोकार्बन
हो इनमें वनस्पति जगत का मुख्य योगदान है। स्पष्ट है कि तमाम कार्बनिक पदार्थों के
विश्लेषण से मेथेनॉल प्राप्त करना संभव है। जैव पदार्थ का बेहतरीन उपयोग कर 75
प्रतिशत तक मेथेनॉल प्राप्त किया जा सकता है। धरती की हरियाली से प्राप्त मेथेनॉल
की उपयोगिता को भारतीय वैज्ञानिकों ने समझा और उसका उपयोग वाहनों को गति देने के
लिए कर दिखाया। परीक्षणों में पाया गया है कि मेथेनॉल को 12 प्रतिशत की दर से मूल
र्इंधन में मिलाकर वाहन चलाना संभव है।
वर्ष 1989 में नई दिल्ली स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी में वैज्ञानिकों
ने पेट्रोल में मेथेनॉल मिलाकर एक स्कूटर पहले आईआईटी कैम्पस में बतौर परीक्षण और
फिर दिल्ली की सड़कों पर चलाया। इस सफलता से प्रेरित होकर भारतीय पेट्रोलियम
संस्थान के वैज्ञानिकों ने मेथेनॉल-पेट्रोल के मिश्रण से पहली खेप में 15 स्कूटर
और बाद में कई स्कूटर चलाए। इससे प्रभावित होकर कई निजी कंपनियां सामने आर्इं।
वड़ोदरा में तो इनकी प्रायोगिक तौर पर बिक्री भी की गई।
पेट्रोल के अलावा मेथेनॉल को डीज़ल में मिलाकर भी कुछ सफलता प्राप्त हुई है।
डीज़ल-मेथेनॉल के इस रूप को ‘डीज़ोहॉल’ नाम दिया गया है। भारतीय पेट्रोलियम संस्थान द्वारा डीज़ल में 15 से 20 प्रतिशत
तक मेथेनॉल मिलाकर बसें भी चलाई जा चुकी हैं। भारत सहित कई अन्य देशों में डीज़ोहॉल
को लेकर व्यावसायिक परीक्षण भी किए जा रहे हैं। महत्वपूर्ण बात यह है कि डीज़ोहॉल
अधिक ऊर्जा क्षमता वाला र्इंधन होने के अलावा प्रदूषण भी कम पैदा करता है। कहना न
होगा कि यह आर्थिक रूप से बेहतर और पर्यावरण हितैषी भी है।
वर्तमान में भारत को प्रति वर्ष 2900
करोड़ लीटर पेट्रोल और 9000 करोड़ लीटर डीज़ल की ज़रूरत होती है। भारत दुनिया
में छठवां सबसे ज़्यादा तेल उपभोक्ता देश है। 2030 तक यह खपत दुगनी हो जाएगी और
भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता देश बन जाएगा।
इसके अलावा भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जक देश है।
दिल्ली जैसे शहरों में लगभग 30 प्रतिशत प्रदूषण वाहनों से होता है और सड़क पर कारों
और अन्य वाहनों की बढ़ती संख्या प्रदूषण की इस स्थिति को आने वाले दिनों में और भी
विकट बनाएगी। इसलिए बढ़ते आयात बिल और प्रदूषण की समस्या के समाधान के लिए भारत का
नीति आयोग देश की अर्थव्यवस्था को मेथेनॉल अर्थव्यवस्था में बदलने पर विचार कर रहा
है।
हमारे देश में मेथेनॉल अर्थव्यवस्था एक व्यावहारिक, आवश्यक
और किफायती रूप लिए उभर रही है। गर्व की बात है कि हमने प्रति वर्ष दो मीट्रिक टन
मेथेनॉल पैदा करने की क्षमता हासिल कर ली है। उम्मीद की जा रही है कि वर्ष 2030 तक
भारत के र्इंधन बिल में 30 प्रतिशत तक की कटौती हो जाएगी, जो
मेथेनॉल के दम पर ही संभव होगी। भारत द्वारा मूल र्इंधन में 15 प्रतिशत मेथेनॉल
मिलाए जाने का कार्यक्रम बनाया जा रहा है। इसके लिए इस्राइल जैसे देशों से मदद
लेने की भी संभावना है। नीति आयोग द्वारा मेथेनॉल अर्थव्यवस्था फंड भी निर्धारित
करने की योजना है जिसमें मेथेनॉल आधारित परियोजनाओं के लिए चार-पांच हज़ार करोड़
रुपए का प्रावधान है।
देश में बढ़ते प्रदूषण और कच्चे तेल के बढ़ते आयात बिल को देखते हुए भारत के लिए मेथेनॉल का उपयोग न सिर्फ ज़रूरी है बल्कि पर्यावरण की मांग भी है। यदि मेथेनॉल का उपयोग भारत में व्यापक पैमाने पर शुरू कर दिया जाता है तो भारत में होने वाला विकास टिकाऊ विकास हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://microgridnews.com/wp-content/uploads/2019/03/KamuthiSolarPark_800.jpg
हाल ही में रूस के नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय के पशु चिकित्सकों
ने अपने चारों पैर गंवा चुकी एक बिल्ली में 3-डी प्रिंटिंग की मदद से बनाए गए
कृत्रिम पैर सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित कर दिए हैं। इनकी मदद से वह चल-फिर सकती है, दौड़ सकती है और यहां तक कि सीढ़ियां भी चढ़ सकती है।
भूरे बालों वाली डाइमका नामक यह बिल्ली दिसंबर 2018 में साइबेरिया के
नोवाकुज़नेत्स्क नाम की जगह पर एक मुसाफिर को बर्फ में दबी हुई मिली थी। उसने उसे
वहां से निकालकर नोवोसिबर्स्क चिकित्सालय पहुंचा दिया था। डाइमका तुषाराघात की
शिकार हुई थी और अपने चारों पैर, कान और पूंछ गंवा चुकी थी।
तुषाराघात यानी फ्रॉस्ट बाइट तब होता है जब अत्यंत कम तापमान त्वचा व अंदर के
ऊतकों को जमा देता है। खासकर नाक, उंगलियां और पंजे ज़्यादा
प्रभावित होते हैं। पैरों की हालात देखकर पशु चिकित्सक सर्जेई गोर्शकोव ने उसे
कृत्रिम पैर लगाना तय किया। उन्होंने टोम्स पॉलिटेक्निक युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं
के साथ मिलकर डाइमका के लिए कृत्रिम पैर तैयार किए।
इसके लिए उन्होंने कंप्यूटेड टोमोग्राफी (सीटी) एक्स-रे स्कैन की मदद से
डाइमका के पैरों की माप लेकर टाइटेनियम रॉड की त्रि-आयामी प्रिंटिंग करके कृत्रिम
पैर बनाए। प्रत्यारोपण के बाद डाइमका में संक्रमण और रिजेक्शन की संभावना कम करने
के लिए टाइटेनियम से बने पैरों पर कैल्शियम फॉस्फेट की परत चढ़ाई गई। जुलाई 2019
में डाइमका को सामने के दो और उसके बाद पीछे के दो कृत्रिम पैर प्रत्यारोपित किए
गए। प्रत्यारोपण के सात महीने बाद जारी किए गए वीडियो में डाइमका अंगड़ाई लेती, चलती और कंबल के कोने से खेलती दिखाई दी।
गोर्शकोव ने दी मास्को टाइम्स को बताया कि साइबेरिया के हाड़-मांस गला
देने वाले ठंड के मौसम के दौरान उनके चिकित्सालय में हर साल ऐसी पांच से सात
बिल्लियों का उपचार किया जाता है जो तुषाराघात के कारण अपने पैर, नाक,
कान और पूंछ गंवा देती हैं।
डाइमका अब दुनिया की दूसरी बिल्ली है जिसे धातु से बने चारों पैर सफलतापूर्वक लगाए जा चुके हैं। इसके पहले साल 2016 में भी इसी प्रक्रिया से एक नर बिल्ली को चारों पैर लगाए गए थे। (स्रोत फीचर्स)
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