डैटा विज्ञान: अतीत व भविष्य – संजीव श्री

हम इंटरनेट युग में जी रहे हैं जहां पूरी दुनिया डैटा से घिरी हुई है। यह डैटा और कुछ नहीं बल्कि हमारी यादें, अनुभव, सूझ-बूझ, दुख-दर्द के क्षण और कभी-कभी सांसारिक गतिविधियों के बारे में है। जैसे, कोई विगत यात्रा या महीने और वर्ष में दिन के किसी विशेष घंटे में क्या खाया या फिर दैनिक जीवन के सामान्य घटनाक्रम का लेखा-जोखा।

क्या ऐसा पहले नहीं था? ऐसे तथ्यात्मक, भावनात्मक, आनुभविक और व्यवहारिक क्षणों को संग्रहित और संरक्षित करना हमेशा से एक मानवीय प्रवृत्ति रही है। अंतर केवल इतना है कि हमारे पूर्वज डैटा को अपनी स्मृतियों में या गुफाओं, पत्थरों या कागजों पर उकेरी गई छवियों के माध्यम से संग्रहित करते थे, जबकि आज हम प्रौद्योगिकी एवं उपकरणों की मदद से ऐसा करते हैं!

अतीत में, बातों को मानव स्मृति में संग्रहित करने के साथ-साथ पत्थर पर नक्काशी करना, पत्तों पर और बाद में कागज़ो पर ग्रंथ लिखना काफी श्रमसाध्य था। यह संग्रहण कुछ समय तक ही रह पाता था। समय के साथ, जलवायु के प्रहार पत्थरों, कागज़ों को नष्ट कर डैटा को भी विलोपित कर देते थे। मानव स्मृति की भी डैटा संग्रहण की एक निर्धारित क्षमता होती है। दूसरे शब्दों में, प्राचीन काल से चली आ रही डैटा संग्रहण की मानवीय प्रवृत्ति, वर्तमान युग की वैज्ञानिक तकनीकों एवं साधनों की आसान उपलब्धता से डैटा विज्ञान का उदय हुआ है।

डैटा विज्ञान: शुरुआती वर्ष

शब्द ‘डैटा विज्ञान’ 1960 के दशक में एक नए पेशे का वर्णन करने के लिए गढ़ा गया था, जो उस समय भारी मात्रा में एकत्रित होने वाले डैटा को समझने और उसका विश्लेषण करने में सहायक सिद्ध हुआ। वैसे संरचनात्मक रूप से इसने 2000 की शुरुआत में ही अपनी उपस्थिति दर्ज कराई।

यह एक ऐसा विषय है जो सार्थक भविष्यवाणियां करने और विभिन्न उद्योगों में सूझ-बूझ प्राप्त करने के लिए कंप्यूटर विज्ञान और सांख्यिकीय पद्धतियों का उपयोग करता है। इसका उपयोग न केवल सामाजिक जीवन, खगोल विज्ञान और चिकित्सा जैसे क्षेत्रों में बल्कि व्यापार में भी बेहतर निर्णय लेने के लिए किया जाता है।

1962 में अमेरिकी गणितज्ञ जॉन डब्ल्यू. टुकी ने सबसे पहले डैटा विज्ञान के सपने को स्पष्ट किया। अपने प्रसिद्ध लेख ‘दी फ्यूचर ऑफ डैटा एनालिसिस’ में उन्होंने पहले पर्सनल कंप्यूटर (पीसी) से लगभग दो दशक पहले इस नए क्षेत्र के उद्गम की भविष्यवाणी की थी।

एक अन्य प्रारंभिक व्यक्ति डेनिश कंप्यूटर इंजीनियर पीटर नॉर थे, जिनकी पुस्तक कॉन्साइस सर्वे ऑफ कंप्यूटर मेथड्स डैटा विज्ञान की सबसे पहली परिभाषाओं में से एक प्रस्तुत करती है।

1990 और 2000 के दशक की शुरुआत में हम स्पष्ट रूप से देख सकते हैं कि डैटा विज्ञान एक मान्यता प्राप्त और विशिष्ट क्षेत्र के रूप में उभरा। कई डैटा विज्ञान अकादमिक पत्रिकाएं प्रकाशित होने लगीं, और जेफ वू और विलियम एस. क्लीवलैंड आदि ने डैटा विज्ञान की आवश्यकता और क्षमता को विकसित करने और समझने में मदद करना जारी रखा।

पिछले 15 वर्षों में, पूरे विषय को व्यापक उपकरणों, प्रौद्योगिकियों और प्रक्रिया के द्वारा परिभाषित और लागू करने के साथ एक भलीभांति स्थापित पहचान मिली है।

डैटा विज्ञान और जीवन

पिछले 100 वर्षों में मानव जीवन शैली में बहुत कुछ बदला है और विज्ञान और प्रौद्योगिकी से 20 वर्षों में तो बदलावों का सैलाब-सा ही आ गया है। अलबत्ता, जो चीज़ समय के साथ नहीं बदली, वह है मूल मानव व्यवहार और अपने क्षणों और अनुभवों को संग्रहित करने की उसकी प्रवृत्ति।

मानवीय अनुभव और क्षण (डैटा!), जो मानव स्मृति, नक्काशी और चित्रों में रहते थे, उन्हें प्रौद्योगिकी के ज़रिए एक नया शक्तिशाली भंडारण मिला है।  अब मानव डैटा छोटे/बड़े बाहरी ड्राइव्स, क्लाउड स्टोरेज जैसे विशाल डैटा भंडारण उपकरणों में संग्रहित किए जा रहे हैं। मज़ेदार बात यह है कि अब डैटा को, पहले के विपरीत, बिना किसी बाधा के, जितना चाहें उतना और जब तक चाहें तब तक संग्रहित रखा जा सकता है।

पिछले 20 वर्षों में, एक और दिलचस्प बदलाव इंटरनेट टेक्नॉलॉजी के आगमन से भी हुआ। इंटरनेट टेक्नॉलॉजी की शुरुआत के साथ, मानव व्यवहार और उसके सामाजिक संपर्क की प्रवृत्ति ने एक बड़ी छलांग लगाई। लोगों ने दिन-प्रतिदिन हज़ारों किलोमीटर दूर विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में अन्य मनुष्यों से जुड़ना शुरू कर दिया और इस तरह विभिन्न तरीकों से बातचीत करने और अभिव्यक्ति की मानवीय क्षमता कई गुना बढ़ गई।

आज छत्तीसगढ़ के घने जंगलों के ग्रामीण इलाके का कोई बच्चा बॉलीवुड की किसी मशहूर हस्ती को सुन सकता है और उससे जुड़ सकता है, वहीं न्यूयॉर्क में रहते हुए एक व्यक्ति उत्तरी अफ्रीका में रह रहे किसी पीड़ित बच्चे की भावनाओं से रूबरू हो सकता है। इंटरनेट क्रांति ने इस पूरी दुनिया को मानो एक बड़े से खेल के मैदान में बदल दिया है जहां हर एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति, विषय या घटना से तत्काल जुड़ सकता है।

इन क्षमताओं के रहते पूरा विश्व नई तरह की संभावनाओं और अभिव्यक्तियों के प्रयोगों से भर गया है। इस तरह की गतिविधियों ने अपनी एक छाप छोड़ी है (जिन्हें हम डैटा कह सकते हैं) और टेक्नॉलॉजी ने इसे असीमित रूप से एकत्रित और संग्रहित करना शुरू कर दिया है।

नई दुनिया के ये परिवर्तन विशाल डैटा (Big Data) के रूप में प्रस्फुटित हुए। अधिकांश लोग (जो इंटरनेट वगैरह तक पहुंच रखते हैं) डैटा (यानी शब्द, आवाज़, चित्र, वीडियो वगैरह के रूप में) के ज़रिए यादों और अनुभवों से सराबोर हैं। ये डैटा न केवल सामाजिक या अंतर-वैयक्तिक स्तर पर, बल्कि आर्थिक मोर्चे पर (जैसे ऑनलाइन भुगतान, ई-बिल, ई-लेनदेन, क्रेडिट कार्ड) और यहां तक कि अस्पतालों के दौरों, नगर पालिका की शिकायतों, यात्रा के अनुभवों, मौसम के परिवर्तन तक में नज़र आते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो संपूर्ण जीवन की गतिविधियां डैटा पैदा कर रही हैं और इसे संग्रहित किया जा रहा है।

आधुनिक जीवनशैली बड़ी मात्रा में डैटा उत्पन्न करती है। डैटा की मात्रा इसलिए भी बढ़ गई है क्योंकि आधुनिक तकनीक ने बड़ी मात्रा में डैटा निर्मित करना और संग्रहित करना आसान बना दिया है। पिछले कुछ वर्षों में, दुनिया में पैदा किया गया 90% से अधिक डैटा संग्रहित कर लिया गया है। उदाहरण के लिए, सोशल मीडिया उपयोगकर्ता हर घंटे 2 करोड़ से अधिक छवियां पोस्ट करते हैं।

डैटा विज्ञान: कार्यपद्धति

मानव मस्तिष्क विभिन्न उपकरणों में संग्रहित विशाल डैटा का समय-समय पर उपयोग करना चाहता है। इस कार्य के लिए एक अलग प्रकार की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी, जो संग्रहित डैटा को निकालने और निर्णय लेने का काम कर सके। यह मस्तिष्क के संचालन की नकल करने जैसा था। ऐसे जटिल दिमागी ऑपरेशनों को दोहराने के लिए एक कदम-दर-कदम चलने वाले एक समग्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है ताकि:

– डैटा इष्टतम तरीके से संग्रहित किया जाए;

– डैटा को कुशलतापूर्वक, शीघ्रता से प्रबंधित, पुनर्प्राप्त, संशोधित, और विलोपित किया जा सके;

– डैटा की व्याख्या आसानी से और शीघ्रता से की जा सके; इससे भविष्य के बारे में निर्णय लेने में मदद मिलती है।

वैसे तो हमारा मस्तिष्क सूक्ष्म और जटिल तरीके से डैटा को आत्मसात करने और निर्णय लेने का काम करता आया है, लेकिन मस्तिष्क की क्षमता सीमित है। डैटा से जुड़ी उक्त प्रक्रियाओं को पूरा करने के लिए, विज्ञान और प्रौद्योगिकी के मानव मस्तिष्क जैसे एक विशाल स्पेक्ट्रम की आवश्यकता हुई। टेक्नॉलॉजी ने इस प्रक्रिया के लिए डैटा भंडारण (विशाल डैटा सर्वर), पुनर्प्राप्ति के विभिन्न साधनों को सांख्यिकीय/गणितीय जानकारी से युक्त करना शुरू कर दिया। जावा, पायथन, पर्ल जैसी कोडिंग भाषा, विभिन्न मॉडलिंग तकनीकों (जैसे क्लस्टरिंग, रिग्रेशन, भविष्यवाणी और डैटा माइनिंग) के साथ-साथ ऐसी मशीनें विकसित हुईं जो डैटा को बार-बार समझ सकती हैं और स्वयं सीखकर खुद को संशोधित कर सकती हैं (मशीन लर्निंग मॉडल)। मूल रूप से कोशिश यह थी कि प्रौद्योगिकी और विज्ञान के सहारे हम अपने मस्तिष्क जैसी निर्णय लेने की क्षमता मशीन में पैदा कर सकें!

प्रौद्योगिकी द्वारा मानव मस्तिष्क की क्षमताओं के प्रतिरूपण की इस पूरी प्रक्रिया को डैटा विज्ञान का नाम दिया गया है। डैटा विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है जो डैटा से अपेक्षित परिणाम प्राप्त करने के लिए सांख्यिकी, वैज्ञानिक तकनीक, कृत्रिम बुद्धि (एआई) और डैटा विश्लेषण सहित कई विषयों को जोड़ता है। डैटा वैज्ञानिक वे हैं जो वेब, स्मार्टफोन, ग्राहकों और सेंसर सहित विभिन्न स्रोतों से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करने के लिए विभिन्न प्रकार की क्षमताओं को एकीकृत करते हैं।

डैटा साइंस का भविष्य

क्या यह डैटा विज्ञान, भारत जैसे देश में अंतिम व्यक्ति के जीवन को छू सकता है या यह केवल थ्रिलर फिल्म या सस्ते दाम में कॉन्टिनेंटल खाने के लिए सर्वश्रेष्ठ रेस्तरां की खोज करने जैसे कुछ मनोरंजक/आनंद/विलास की गतिविधियों तक ही सीमित है? क्या यह हमारे समाज को बेहतर बनाने और वंचितों को कुछ बुनियादी सुविधाएं देने में मदद कर सकता है?

यकीनन। किसी भी अन्य गहन ज्ञान की तरह विज्ञान भी राष्ट्र, पंथ, जाति, रंग या एक वर्ग तक सीमित नहीं है। इरादा हो तो यह सभी के लिए है। संक्षेप में इसका उपयोग भारत में समाज को कई तरीकों से बेहतर बनाने के लिए किया जा सकता है। कुछ उदाहरण देखिए।

चिकित्सा/स्वास्थ्य

यह एक प्राथमिक क्षेत्र हो सकता है जहां डैटा विज्ञान का लाभ उठाया जा सकता है। डैटा के संदर्भ में, वर्तमान अस्पताल प्रणाली अभी भी रोगियों के प्रवेश, निदान और उपचार जैसे सामान्य संदर्भो में ही काम करती है। इस क्षेत्र में जनसांख्यिकी, स्वास्थ्य मापदंडों से लेकर रोगियों के विभिन्न चरणों में किए गए निदान/उपचार जेसे डैटा को संग्रहित करने की आवश्यकता है, जिसे नैदानिक परिणामों और उपचार विकल्पों को एकत्रित, संग्रहित, और व्याख्या के द्वारा व्यापक रूप से चिकित्सा समुदाय में साझा किया जा सके। यह डैटा विज्ञान को भारतीय स्थिति में रोगियों को समझने और सर्वोत्तम संभव उपचार विकल्पों के साथ-साथ रोकथाम के उपायों को समझने में सक्षम करेगा। यह रोगियों/डॉक्टरों का बहुत सारा धन और समय बचा सकता है, त्रुटियों को कम कर सकता है और मानव जीवन को अधिक सुरक्षित और स्वस्थ बना सकता है। आवश्यकता यह है कि सरकारी और निजी अस्पताल डैटा रिकॉर्ड करना और संग्रहित करना शुरू करें ताकि इसका उपयोग अनुसंधान और विकास के लिए किया जा सके। यूएस जैसे विकसित देशों में ऐसी प्रक्रिया से समाज को काफी लाभ मिलता है। डैटा विज्ञान वास्तव में भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र को कई लाभकारी तरीकों से सम्पन्न कर सकता है।

कृषि उत्पादकता

भारत जैसे कृषि प्रधान देश में डैटा विज्ञान तरह-तरह की जानकारी के ज़रिए किसानों को लाभ पहुंचा सकता है:

– मिट्टी किस प्रकार की फसल के लिए अच्छी है;

– मौसम और जलवायु की परिस्थिति में किन पोषक तत्वों की आवश्यकता होती है;

– फसल के प्रकार के लिए आवश्यक मिट्टी की पानी और नमी की आवश्यकता;

– अप्रत्याशित मौसम की भविष्यवाणी और फसलों की सुरक्षा;

– ऐतिहासिक आंकड़ों के साथ-साथ मौसम के मिज़ाज के आधार पर निश्चित समय में किसी निश्चित क्षेत्र में इष्टतम फसल की पैदावार की भविष्यवाणी करना।

इस तरह के डैटा का सरकार द्वारा समय-समय पर निरीक्षण करना और भौगोलिक सेंसर व अन्य उपकरणों की मदद से डैटा तैयार करने की आवश्यकता है। डैटा विज्ञान फसलों की बहुत बर्बादी को बचा सकता है और हमारी उपज में भारी वृद्धि कर सकता है।

शिक्षा एवं कौशल विकास

अशिक्षा का मुकाबला करने के लिए शैक्षणिक सुविधाओं के अधिक प्रसार की और शिक्षकों की दक्षता, अनुकूलित शिक्षण विधियों के विकास की भी आवश्यकता है। इसके अलावा विभिन्न छात्रों की विविध और व्यक्तिगत सीखने की शैलियों/क्षमताओं के संदर्भ में गहरी समझ की भी आवश्यकता है। डैटा विज्ञान इस संदर्भ में समाधान प्रदान कर सकता है:

– देश भर में छात्रों के साथ-साथ शिक्षकों के विस्तृत प्रोफाइल तैयार करना;

– छात्रों के सीखने और प्रदर्शन के आंकड़े जुटाना;

– प्रतिभाओं के कुशल प्रबंधन के लिए व्यक्तिगत शिक्षण विधियों/शैलियों का विकास

– देश भर में कनेक्टेड डैटा के साथ अकादमिक अनुसंधान को बढ़ाना।

पर्यावरण संरक्षण

– भूमि, जल, वायु/अंतरिक्ष और जीवन के सम्बंध में डैटा एकत्र करना और पृथ्वी ग्रह के स्वास्थ्य को बढ़ाना;

– वनों की कटाई के विभिन्न कारणों जैसे मौसम पैटर्न, मिट्टी या नदियों की स्थलाकृति के बीच सम्बंध का पता लगाना;

– ग्रह-स्तरीय डिजिटल मॉडल निरंतर, वास्तविक समय में डैटा कैप्चर करेगा और चरम मौसम की घटनाओं और प्राकृतिक आपदाओं (जैसे, आग, तूफान, सूखा और बाढ़), जलवायु परिवर्तन और पृथ्वी के संसाधनों से सम्बंधित अत्यधिक सटीक पूर्वानुमान प्रदान कर सकता है;

– विलुप्ति की प्रक्रिया का कारण जानने और इसे उलटने के तरीके के लिए वर्षों से एकत्र किए गए आंकड़ों का विश्लेषण;

– विलुप्ति के खतरे से घिरे जीवों को बचाने के लिए कारणों का विश्लेषण। 

ग्रामीण एवं शहरी नियोजन

भारत में नगर पालिकाओं, ग्राम पंचायतों, भू-राजस्व सम्बंधी डैटा अभी भी विशाल कागज़ी फाइलों में संग्रहित किया जाता है, जिससे कुशल निर्णय लेने में देरी होती है। डैटा विज्ञान डैटा को एकीकृत करने में मदद कर सकता है और डैटा साइंस राज्य के प्रबंधन के लिए प्रभावी नीति निर्माण और निर्णय प्रक्रिया में गति ला सकता है।

कुल मिलाकर डैटा विज्ञान के उपयोग के कई लाभ हैं। देश की विशाल प्रतिभा और अपेक्षाकृत कम श्रम लागत की बदौलत भारत तेज़ी से डैटा साइंस का केंद्र बनता जा रहा है। नैसकॉम विश्लेषण का अनुमान है कि भारतीय डैटा एनालिटिक्स बाज़ार 2017 के 2 अरब डॉलर से बढ़कर 2025 में 16 अरब डॉलर का हो जाएगा। यह तीव्र वृद्धि कई कारकों से प्रेरित है, जिसमें डैटा की बढ़ती उपलब्धता, डैटा-संचालित निर्णय-प्रक्रिया, कृत्रिम बुद्धि (एआई) की वृद्धि शामिल हैं। भारत में कई विश्वविद्यालयों में डैटा साइंस के कोर्सेस भी चलाए जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मतदान में प्रयुक्त अमिट स्याही का विज्ञान – चक्रेश जैन

र्ज़ी मतदान रोकने में ‘अमिट स्याही’ की अहम भूमिका रही है। अमिट स्याही की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसे मिटाया अथवा धोया नहीं जा सकता। बैंगनी रंग की यह स्याही आम चुनाव का प्रतीक बन गई है। अभी तक कोई भी विकल्प अमिट स्याही की जगह नहीं ले पाया है।

मतदान में प्रयुक्त अमिट स्याही को बनाने में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की नई दिल्ली स्थित राष्ट्रीय भौतिकी प्रयोगशाला (एनपीएल) के वैज्ञानिकों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे अमिट स्याही की जन्म स्थली कहा जाता है। प्रयोगशाला की स्थापना के तुरन्त बाद रसायन विज्ञान प्रभाग के अंतर्गत स्याही विकास इकाई का गठन किया गया था। एनपीएल ने 1950-51 में अमिट स्याही तैयार कर ली थी, जिसका उपयोग प्रथम आम चुनाव में किया गया था। दूसरे आम चुनाव (1957) में एनपीएल ने ही अमिट स्याही की 3,16,707 शीशियां उपलब्ध कराई थीं।

बहरहाल, अनुसंधान के अन्य क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करने के कारण अमिट स्याही उत्पादन के काम को आगे जारी नहीं रखा जा सका था। ऐसी स्थिति में सरकारी-निजी प्रतिष्ठान को इसके उत्पादन का लायसेंस देने की ज़रूरत दिखाई दी। काफी विचार-विमर्श के बाद कर्नाटक की सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी मैसूर पेंट्स का चुनाव किया गया। इस कंपनी की स्थापना 1937 में मैसूर के महाराजा कृष्णराजा वाडियार ने की थी। वर्ष 1947 में इस कंपनी का अधिग्रहण पूर्व मैसूर राज्य ने कर लिया था और आगे चलकर इसका नाम बदल कर मैसूर लैक एंड पेंट वर्क्स लिमिटेड कर दिया गया। फिर 1989 में नाम बदलकर मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड  कर दिया गया। वर्तमान में इसी को निर्वाचन आयोग से अमिट स्याही खरीदी के आदेश प्राप्त हो रहे हैं। और तो और, यह कंपनी दो दर्ज़न अन्य देशों को भी अमिट स्याही का निर्यात कर रही है।

निर्णय लिया गया है कि 1962 के बाद के सभी चुनावों में मैसूर पेंट्स एंड वार्निश लिमिटेड ही अमिट स्याही का उत्पादन और निर्यात करेगी। नेशनल रिसर्च एंड डेवलपमेंट कार्पोरेशन ने अमिट स्याही के नुस्खे का पेटेंट करा लिया है, ताकि अन्य कंपनियां इसका उत्पादन न कर सकें।

अमिट स्याही के विकास का इतिहास लगभग सात दशकों का है। सात दशकों की इस छोटी-सी अवधि में कई महत्वपूर्ण अध्याय जुड़े हैं। 1940 के दशक में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद के तत्कालीन महानिदेशक डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर ने रसायन विज्ञानी डॉ. सलीमुज्जमान सिद्दीकी से अमिट स्याही तैयार करने के लिए कहा था। उन्होंने सिद्दीकी को सिल्वर क्लोराइड युक्त एक नमूना भेजा, जिसे लगाने के बहुत देर बाद त्वचा पर निशान पड़ता था। रसायनविद डॉ. सिद्दीकी ने इसमें सिल्वर ब्रोमाइड मिलाया, जिससे तत्काल निशान पड़ गया। डॉ. सिद्दीकी शुरुआत से ही एनपीएल में स्याही विकास इकाई से जुड़े थे। आगे चलकर डॉ. एम. एल. गोयल के नेतृत्व में अमिट स्याही का नुस्खा तैयार किया गया। उनके सहयोगी प्रतिष्ठित और समर्पित युवा रसायन विज्ञानी डॉ. जी. बी. माथुर, डॉ. वी. डी. पुरी आदि थे।

‘अमिट स्याही’ का मुख्य घटक सिल्वर नाइट्रेट है। यही रसायन स्याही के निशान को उभारता है। इसकी सांद्रता दस से लेकर पच्चीस प्रतिशत के बीच होती है। सिल्वर नाइट्रेट और त्वचा के प्रोटीन की अभिक्रिया से त्वचा पर गहरा निशान बन जाता है, जो कुछ दिनों तक नहीं छूटता। सिल्वर नाइट्रेट से त्वचा को जरा भी हानि नहीं होती। यह निशान तभी हटता है, जब नई कोशिकाएं पुरानी कोशिकाओं की जगह ले लेती हैं। स्याही चालीस सेकंड से कम समय में सूख जाती है। अमिट स्याही में कुछ रंजक भी होते हैं। यह स्याही रोशनी के प्रति संवेदनशील होती है, अत: इसे रंगीन शीशियों में रखा जाता है।

निर्वाचन आयोग को सौंपने के पहले अमिट स्याही का कई बार परीक्षण किया जाता है। निर्वाचन आयोग चुनाव प्रक्रिया के दौरान ‘रेंडम सेम्पल’ लेकर परीक्षण के लिए एनपीएल के पास भेजता है जो प्रत्येक परीक्षण के बाद निर्वाचन आयोग को नियमित रिपोर्ट भेजती है।

बैंगनी रंग की अमिट स्याही को मतदाता के बाएं हाथ की तर्जनी पर लगाया जाता है। मतदान की अवधि में स्याही सूखने का पर्याप्त समय मिल जाता है। इसे साबुन, तेल, डिटरजेंट अथवा रसायनों से मिटाया नहीं जा सकता। कुछ दिनों बाद यह अपने आप मिट जाती है।

एक बात और। एनपीएल को आज भी अमिट स्याही की रॉयल्टी मिलती है।

वर्ष 1962 में विकसित अमिट स्याही का मूल नुस्खा छह दशकों बाद भी नहीं बदला है। साल 2001 में एनपीएल के निदेशक प्रोफेसर कृष्ण लाल ने अमिट स्याही के नुस्खे को बेहतर बनाने का प्रस्ताव रखा था। इसका उद्देश्य मूल स्याही से पानी को हटाना था, ताकि यह जल्दी सूख सके। सूखने की प्रक्रिया को बेहतर करने के लिए अनुसंधानकर्ताओं की एक टीम ने बिना पानी का एक ऐसा मिश्रण तैयार किया, जो पहले मिश्रण की तुलना में जल्दी सूख तो जाता था, लेकिन रंग बहुत समय तक बना रहता था।

पिछले वर्षों में अमिट स्याही के उपयोग का विस्तार हुआ है। 2016 में इसका उपयोग नोटबंदी के संदर्भ में हुआ था।

तर्जनी उंगली पर अमिट स्याही का निशान लगाना संवैधानिक ज़रूरत है। सवाल यह है कि निशान कहां पर लगाया जाए? इस बारे में परिवर्तन हुए हैं। शुरुआत में अमिट स्याही का निशान तर्जनी के मूल में बिंदु के रूप में लगाया जाता था। वर्ष 1962 में यह निशान नाखून की जड़ के ऊपर लगाया जाता था। साल 2006 से इस निशान को बड़ा करके नाखून के ऊपर के सिरे से तर्जनी अंगुली के जोड़ के नीचे तक लगाया जाता है। इसने अब एक छोटी-सी लकीर का रूप ले लिया है।

स्वतंत्रता के पहले अमिट स्याही के मामले में देश निर्यात पर निर्भर था। लेकिन आज हम इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर हो चुके हैं। यही नहीं भारत 25 देशों को अमिट स्याही का निर्यात भी कर रहा है। अमिट स्याही का उपयोग लोकसभा, विधानसभा चुनावों से लेकर स्थानीय निकायों के चुनावों में हो रहा है। सारांश में कहा जा सकता है कि अमिट स्याही का नुस्खा अपने ही देश में बनाना और उत्पादन करना लोकतंत्र को मज़बूत बनाने के साथ ही हमारे देश के वैज्ञानिकों की ऐतिहासिक भूमिका और प्रतिभा को आम मतदाताओं के सामने प्रदर्शित करता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ईवीएम: बटन दबाइए, वोट दीजिए – चक्रेश जैन

लेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में मतदाता बटन दबाकर उम्मीदवार का चुनाव करते हैं। इस पोर्टेबल इलेक्ट्रॉनिक उपकरण ने कागज़ी मतपत्रों की जगह ले ली है। ईवीएम ने आम चुनाव को पारदर्शी बनाने में अहम भूमिका निभाई है।

पहली बार 1982 में केरल के पारूर में ईवीएम का उपयोग किया गया था। बाद में विभिन्न राज्यों के उपचुनावों में भी ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था। आरंभ में मशीनी मतदान की विशेषताओं से परिचित न होने के कारण राजनीतिक दलों ने कई शंकाएं जताते हुए इसका विरोध किया था, लेकिन विशेषज्ञों द्वारा समाधान के बाद इन पर विराम लग गया। मतदाताओं ने भी जानकारी के अभाव में ईवीएम को लेकर कल्पानाएं गढ़ ली थीं। आगे चलकर निर्वाचन आयोग ने स्थिति स्पष्ट की। काफी समय से ईवीएम का उपयोग लोकसभा और विधानसभा से लेकर स्थानीय निकाय के चुनावों में हो रहा है।

भारत में ईवीएम का उपयोग करने से पहले दस वर्षों तक रिसर्च हुई और उसके बाद निर्वाचन आयोग के अनुरोध पर भारत इलेक्ट्रॉनिक्स लिमिटेड (बीईएल) और इलेक्ट्रॉनिक्स कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड (ईसीआईएल) ने इन मशीनों का निर्माण किया है। ईवीएम की शेल्फ लाइफ 15 वर्ष होती है। इनमें चुनाव परिणामों को कई वर्षों तक सुरक्षित रखा जा सकता है। अनुसंधान के दौरान ईवीएम की कार्यक्षमता पर मौसम, तापमान, धूल, धुएं, पानी आदि का कोई असर नहीं पड़ा है।

ईवीए दो भागों  में बंटी होती है: बैलट युनिट और कंट्रोल युनिट। कंट्रोल युनिट पॉवर सप्लाई, रिकार्डिंग, संग्रहण आदि का काम करती है। बैलट युनिट में वोटिंग पैनल होता है, जिसका उपयोग मतदान करने के लिए किया जाता है। एक कंट्रोल युनिट से अधिकतम चार बैलट युनिट को जोड़ा जा सकता है। एक बैलट युनिट में अधिकतम 16 उम्मीदवारों के वोट दर्ज किए जा सकते हैं। इस प्रकार एक कंट्रोल युनिट 64 उम्मीदवारों के वोट दर्ज करने की क्षमता रखती है।

एक बैलट युनिट में अधिकतम 3840 वोट दर्ज किए जा सकते हैं। आम तौर पर एक मतदान केंद्र पर एक कंट्रोल युनिट और एक या एक से अधिक बैलट युनिट हो सकती हैं। कंट्रोल युनिट में 6 वोल्ट की रिचार्जेबल बैटरियों का इस्तेमाल किया जाता है जिनका जीवनकाल दस वर्ष का होता है। कंट्रोल युनिट में चार बटन होते हैं। पहला बटन दबाने पर मशीन बैलट युनिट को वोट रिकॉर्ड करने का आदेश देती है। दूसरा बटन दबाने से मशीन में संग्रहित पूरी जानकारी खत्म हो जाती है। तीसरा बटन दबाने से मशीन बंद हो जाती है और उसके बाद वह वोट दर्ज नहीं करती। चौथा बटन दबाने पर परिणाम बताती है।

बैलट युनिट के ऊपरी फलक पर उम्मीदवारों के नाम और चुनाव चिन्ह चिपका दिए जाते हैं। प्रत्येक नाम के सामने एक बटन और लाल बत्ती होती है। जिस उम्मीदवार के नाम के आगे बटन दबाया जाता है, उसके खाते में वोट दर्ज हो जाता है। गोपनीयता की दृष्टि से बैलट युनिट को एक अलग स्थान पर रखा जाता है जहां मतदाता के अलावा कोई नहीं रहता है। कंट्रोल युनिट मतदान केंद्र के पीठासीन अधिकारी के पास होती है, जहां पर विभिन्न राजनैतिक दलों के प्रतिनिधि भी मौजूद रहते हैं।

ईवीएम से वोट डालने का तरीका अलग है। वोट डालने के लिए जाने वाले मतदाता की अंगुली पर अमिट स्याही का निशान लगाकर और उसके हस्ताक्षर लेकर उसे मतदान कक्ष में भेज दिया जाता है। मतदाता के मतदान कक्ष में प्रवेश करते ही मतदान अधिकारी मशीन का स्टार्ट बटन दबा देते हैं और वोटिंग मशीन वोट दर्ज करने के लिए तैयार हो जाती है।

ईवीएम काम कैसे करती है? कंट्रोल युनिट में सबसे पहले क्लीयर का बटन दबाया जाता है। इससे मशीन की मेमोरी में मौजूद हर चीज मिट जाती है। इसके बाद पीठासीन अधिकारी द्वारा स्टार्ट बटन दबाया जाता है। बटन के दबते ही कंट्रोल युनिट में लाल बत्ती और बैलट युनिट में हरी बत्ती जल उठती है। यानी बैलट युनिट बैलट लेने को और कंट्रोल युनिट मत को दर्ज करने के लिए तैयार है। जैसे ही मतदाता द्वारा अपने पसंदीदा उम्मीदवार के सामने वाला बटन दबाया जाएगा, उम्मीदवार के सामने वाली बत्ती जल उठेगी। और कंट्रोल युनिट में ‘बीप’ की आवाज़ भी होगी। इससे मतदाता को पता चल जाएगा कि उसने वोट दे दिया है। इसके बाद बटन दबाने बटन का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि दो बटन एक साथ दबा दिए जाएं तो वोट दर्ज नहीं होगा। मतदान समाप्ति पर क्लोज़ का बटन दबाया जाता है।

मतदाताओं का भरोसा बढ़ाने के लिए ईवीएम के साथ अब ‘वीवीपैट’ (वोटर वेरीफाएबल पेपर ऑडिट ट्रेल) जोड़ दिया गया है। यह एक स्वतंत्र प्रिंटर प्रणाली है। इससे मतदाताओं को अपना मतदान बिलकुल सही होने की पुष्टि करने में सहायता मिलती है। ‘वीवीपैट’ का निर्माण भी सार्वजनिक क्षेत्र के उपरोक्त दो प्रतिष्ठानों ने ही किया है। वर्ष 2017-18 के दौरान गोवा, हिमाचल प्रदेश, गुजरात, नागालैंड, मेघालय, त्रिपुरा और कर्नाटक के विधानसभा चुनावों में ‘वीवीपैट’ का उपयोग किया गया था।

वैज्ञानिक अध्ययनों और विश्लेषणों में पता चला है कि चुनाव में ईवीएम के इस्तेमाल से लाभ की तुलना में हानि नहीं के बराबर है। ईवीएम के इस्तेमाल से होने वाले लाभ की एक सूची बनाई जा सकती है। यह सूची लगातार लंबी होती जा रही है। ईवीएम के इस्तेमाल से बूथ पर कब्ज़ा करने की घटनाएं खत्म हो गई हैं। वोटिंग में बहुत कम समय लगता है। वोटों की गिनती तीन से छह घंटों में पूरी हो जाती है, जबकि पहले दो दिन तक लगते थे। इन मशीनों में सीलबंद सुरक्षा चिप होती है। ईवीएम के प्रोग्राम में परिवर्तन नहीं किया जा सकता। इससे वोटों की हेरा-फेरी को रोका जा सकता है।

एक मिनट में एक ईवीएम से पांच लोग वोट डाल सकते हैं। ईवीएम बैटरी से चलती है। इसमें डैटा एक दशक तक सुरक्षित रहता है। एक ईवीएम में 64 उम्मीदवार फीड हो सकते हैं। मतपत्रों के ज़माने में बड़ी संख्या में मत अवैध हो जाते थे। कई चुनावों में अवैध मतों की संख्या जीत के अंतर से ज़्यादा हुआ करती थी। अब ईवीएम के उपयोग से कोई वोट अवैध नहीं होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम बुदि्ध और चेतना – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

उसे कौन देख सकता कि यगाना है वो यकता;
जो दुई की बू भी होती तो कहीं दो-चार होता।

(उसे देख पाना कदापि सम्भव नहीं है। वह अद्वितीय तो अकेला ही है। यदि उसमे द्वैतता का लेश मात्र भी अंश होता तो, कहीं न कहीं उस से सामना हो ही जाता। वह एक से अधिक हो ही नहीं सकता।)

ग़ालिब का यह शेर है तो ईश्वर के लिए, पर इसे इंसान या किसी भी चेतन प्राणी के लिए भी कहा जा सकता है। दुई या द्वैत – यानी हम दिखते तो एक ही हैं, पर हमारा चेतन मन और हमारा जिस्म या शरीर, क्या ये दोनों एक हैं? हज़ारों सालों से यह सवाल इंसान को परेशान करता रहा है। आज जब हर क्षेत्र में विज्ञान और टेक्नॉलॉजी का बोलबाला है, यह खयाल फलसफे के दायरे से निकलकर वैज्ञानिक शोध का एक अहम सवाल बन गया है। खास तौर पर आर्टीफिशियल इंटेलिजेंस (ए.आई.) यानी कृत्रिम बुद्धि पर हर कहीं बातचीत हो रही है, और इस चर्चा में कॉन्शसनेस या चेतना पर जोर-शोर से बहस चल रही है।

आखिर एक इंसान और मशीन में फर्क क्या है? हम अपने परिवेश के बारे में सचेत रहते हैं, चेतन होने की एक पहचान यह है। ऐसी रोबोट मशीनें अब बन रही हैं जो परिवेश की पूरी जानकारी रखती हैं। हमारी तरह ये मशीनें सड़क पर चलते हुए सामने पड़े पत्थर से बचकर निकल सकती हैं। कुछ हद तक ये मशीनें हमसे ज़्यादा ताकतवर हैं; जैसे हम पत्थर के ऊपर से छलांग लगाकर निकल सकते हैं तो मशीन ऊंचाई तक उड़ सकती है। कहीं आग लगी है तो हम वहां से दूर खड़े होकर आग बुझाएंगे, कहीं पानी पड़ा हुआ है तो हम कहीं से ईंटें उठाकर कीचड़ पार करने का तरीका ढूंढेंगे; ऐसे काम मशीनें भी कर सकती हैं।

किसी भी सवाल पर जानकारी पाने के लिए हम जिस तरह किताबों-पोथियों में माथा खपाते हैं, कंप्यूटर पर चल रहे चैट-जीपीटी जैसे विशाल भाषाई मॉडल (लार्ज-लैंग्वेज़ मॉडल) हमसे कहीं ज़्यादा तेज़ी से वह हासिल कर रहे हैं। मशीनें जटिल सवालों का हल बता रही हैं। दो साल पहले गूगल कंपनी में काम कर रहे इंजीनियर ब्लेक लीमोइन ने दावा किया कि LaMDA नामक जिस चैटबॉट का वे परीक्षण कर रहे थे, वह संवेदनशील था। इसकी वजह से आखिरकार उनको नौकरी छोड़नी पड़ी। पर इस घटना ने आम लोगों को मशीन में चेतना के सवाल पर विज्ञान कथाओं से परे शोध की दुनिया में ला पहुंचाने का काम किया।

एआई सिस्टम, विशेष रूप से तथाकथित विशाल भाषा मॉडल (जैसे LaMDA और चैटजीपीटी) वाकई सचेत लग सकते हैं। लेकिन उन्हें मानवीय प्रतिक्रियाओं की नकल करने के लिए बड़ी तादाद में जानकारियों से प्रशिक्षित किया जाता है। तो हम वास्तव में कैसे जान सकते हैं कि क्या मशीनें हमारी तरह चेतन हैं? दरअसल पहली नज़र में जिस्मानी तौर पर इंसान और मशीन में फर्क वाकई अब कम होता दिख रहा है। जहां फर्क हैं, उनमें अक्सर मशीन ज़्यादा काबिल और ताकतवर नज़र आती हैं। फिर भी हम मशीन को चेतन नहीं मानते। इसकी मुख्य वजह ‘दुई’ से जुड़ी है।

ज़ेहन के बारे में जो वैज्ञानिक समझ हमारे पास है, उससे यह तो पता चलता है कि जिस्म के बिना चेतना का वजूद नहीं होता, पर अब तक यह बहस जारी है कि क्या चेतना शरीर से अलग कुछ है? जैसे अलग-अलग कंपनियों के कंप्यूटरों में एक ही तरह का सॉफ्टवेयर काम करता है, क्या चेतना भी उसी तरह हमारे शरीर में मौजूद है, यानी अलग-अलग प्राणियों के शरीरों में वह एक जैसा काम कर रही है, जिससे हर प्राणी को सुख-दु:ख का एक जैसा एहसास होता है। या कि वाकई उसका कोई अलग वजूद नहीं है और हर प्राणी के शरीर में ज़ेहन में चल रही प्रक्रियाओं से ही चेतना बनती है?

चेतना और संवेदना में फर्क किया जाता है; ऐंद्रिक अनुभूतियां संवेदना पैदा करती हैं, किंतु चेतना इससे अलग कुछ है जो अपने एहसासों से परे दूर तक पहुंच सकती है।

पिछले कुछ दशकों में मस्तिष्क सम्बंधी वैज्ञानिक शोध में काफी तरक्की हुई है। आम लोग इसे बीमारियों के इलाज के संदर्भ में जानते हैं, जैसे मैग्नेटिक रेज़ोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) या पॉज़िट्रॉन इमेज टोमोग्राफी (पीईटी) आदि तकनीकों से ज़ेहन में चल रही प्रक्रियाओं के बारे में अच्छी समझ बनी है और कई मुश्किल बीमारियों का इलाज इनकी मदद से होता है। चेतना के विज्ञान में भी इन तकनीकों के इस्तेमाल से सैद्धांतिक समझ बढ़ी है। कई नए सिद्धांत सामने आए हैं, जो हमारी ऐंद्रिक अनुभूतियों को ज़ेहन के अलग-अलग हिस्सों के साथ जोड़ते हैं और इसके आधार पर चेतना की एक भौतिक ज़मीन बन रही है।

सवाल यह नहीं रहा कि चेतना जिस्म से अलग कुछ है या नहीं, बल्कि यह हो गया है कि चेतना ज़ेहन में चल रही किन प्रक्रियाओं के जरिए वजूद में आती है। तंत्रिकाओं में आपसी तालमेल का कैसा पैमाना हो, इसके पीछे कैसे बल या अणुओं की कैसी आपसी क्रिया-प्रतिक्रियाएं काम कर रही हैं? कोई कंप्यूटरों को चलाने वाले लॉजिक-तंत्र में इस सवाल के जवाब ढूंढ रहा है तो कोई क्वांटम गतिकी में गोते लगा रहा है। इन तकरीबन एक दर्जन सिद्धांतों में से किसकी कसौटी पर मशीन में पनप रही समझ को हम चेतना कह सकते हैं? एआई या रोबोट मशीनों पर काम कर रहे वैज्ञानिकों के लिए यह अहम सवाल है।

हाल में वैज्ञानिक शोध की सार्वजनिक वेब-साइट arxiv.org में छपे एक पर्चे में (arxiv.org/abs/2308.08708) उन्नीस कंप्यूटर वैज्ञानिकों, तंत्रिका-विज्ञानियों और दार्शनिकों का एक समूह नया नज़रिया लेकर आया है। उन्होंने चेतना की खासियत की एक लंबी जांच सूची बनाई है, और उनका मत है कि मात्र कुछेक बातों से ही मशीन को चेतन न कहा जाए बल्कि इन सभी खासियतों की कसौटी पर खरा उतरने पर ही मशीन को चेतन कहा जाए। ज़ाहिर है किसी रोबोट या एआई मशीन में सभी विशेषताएं शायद न मिलें। इस स्थिति में देखा जाएगा कि सूची में मौजूद कितनी विशेषताओं को हम किसी मशीन में देख पाते हैं। इससे हम यह कह पाएंगे कि किसी मशीन में किस हद तक चेतन होने की संभावना है, यानी चेतन हो पाने का एक पैमाना सा बन गया है।

इस तरह की जांच से अंदाज़ा लग सकता है कि मशीनी शोध में चेतना तक पहुंचने में किस हद तक कामयाबी मिली है, हालांकि यह कह पाना अब भी नामुमकिन है कि कोई मशीन वाकई चेतन है या नहीं। इस सूची में शोधकर्ताओं ने मानव चेतना के सिद्धांतों पर 14 मानदंड रखे हैं, और फिर वे उन्हें मौजूदा एआई आर्किटेक्चर पर लागू करते हैं, जिसमें चैटजीपीटी को चलाने वाले मॉडल भी शामिल हैं।

अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को शहर के एआई सुरक्षा केंद्र के सह-लेखक रॉबर्ट लॉंग के मुताबिक यह सूची तेज़ी से बढ़ रहे इंसान जैसी काबिलियत वाले एआई के मूल्यांकन का एक तरीका पेश करती है। अब तक यह बेतरतीबी से हो रहा था, पर अब एक पैमाना बन रहा है।

मोनाश युनिवर्सिटी के कम्प्यूटेशनल न्यूरोसाइंटिस्ट और कैनेडियन इंस्टीट्यूट फॉर एडवांस्ड रिसर्च (CIFAR) के फेलो अदील रज़ी ने इसे एक अहम कदम माना है। हालांकि वे भी मानते हैं कि सवालों के पर्याप्त जवाब नहीं मिल रहे हैं, पर एक ज़रूरी चर्चा की शुरुआत हुई है। आज दुनिया भर में इन सवालों पर लगातार कार्यशालाएं और वैज्ञानिक-सम्मेलन हो रहे हैं और शोधकर्ता अपने काम पर पर्चे पढ़ रहे हैं। रॉबर्ट लॉंग और ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के फ्यूचर ऑफ ह्यूमैनिटी इंस्टीट्यूट के दार्शनिक पैट्रिक बटलिन ने हाल में ही दो ऐसी कार्यशालाओं का आयोजन किया था, जहां इस विषय पर चर्चाएं हुईं कि एआई में संवेदनशीलता का परीक्षण कैसे किया जा सकता है।

अमेरिका के अर्वाइन शहर में कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में काम कर रही एक कम्प्यूटेशनल न्यूरोसाइंटिस्ट मेगन पीटर्स जैसे शोधकर्ताओं के लिए इस मुद्दे का एक नैतिक आयाम है। अगर मशीन में चेतना की संभावना है तो क्या उसे भी इंसानों जैसी जिस्मानी बीमारियां होंगी; अगर हां, तो इनका इलाज कैसे होगा। अब तक मानव-चेतना पर समझ हमेशा शारीरिक क्रियाओं के साथ जुड़ी रही हैं, जो बाहरी उद्दीपन से दृष्टि, स्पर्श या दर्द आदि ऐंद्रिक अनुभूतियां पैदा करती हैं; इसे फिनॉमिनल कॉन्शसनेस कहते हैं। इंसान की बीमारियों के इलाज के लिए एमआरआई या ईईजी जैसी तकनीकें काम आती हैं, पर कंप्यूटर द्वारा चलने वाली मशीनों की बीमारियां एल्गोरिदम में या प्रोग्राम में गड़बड़ी से होंगी, तो उनकी जांच कैसे की जाएगी? एमआरआई या ईईजी तो काम नहीं आएंगे। तेल-अवीव विश्वविद्यालय के संज्ञान-तंत्रिका वैज्ञानिक लिआद मुद्रिक बताते हैं कि वे पहले सचेत होने की बुनियादी खासियत की पहचान के लिए मानव चेतना के मौजूदा सिद्धांतों की खोज करेंगे, और फिर इन्हें एआई के अंतर्निहित खाके में ढूंढेंगे। इस तरह से कामकाजी सिद्धांतों की सूची बनाई जाएगी।

सूची में ऐसे ही सिद्धांत शामिल किए गए हैं, जो तंत्रिका-विज्ञान पर आधारित हैं और चेतना में हेरफेर करने वाली जांच के दौरान मस्तिष्क के स्कैन से मिले आंकड़े जैसी प्रत्यक्ष जानकारी से जिनका प्रमाण मिलता है। साथ ही सिद्धांत में यह खुलापन होना ज़रूरी है कि चेतना जैविक न्यूरॉन्स की तरह ही कंप्यूटर के सिलिकॉन चिप्स से भी पैदा हो सकती है, भले ही वह गणना द्वारा होती हो।

छह सिद्धांत इन पैमानों पर खरे उतरे हैं। इनमें एक रेकरिंग (आवर्ती) प्रोसेसिंग सिद्धांत है, जिसमें  फीडबैक लूप के माध्यम से जानकारी पारित करना चेतना की कुंजी माना गया है। एक और सिद्धांत ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस सिद्धांत का तर्क है कि चेतना तब पैदा होती है जब सूचना की खुली धाराएं रुकावटें पार कर कंप्यूटर क्लिप-बोर्ड (आम कक्षाओं के ब्लैक-बोर्ड) जैसे पटल पर जुड़ती हैं, जहां वे आपस में जानकारियों का लेन-देन कर सकती हैं।

एचओटी (हायर ऑर्डर थियरी) कहलाने वाले सिद्धांतों में चेतना में इंद्रियों से प्राप्त बुनियादी इनपुट को पेश करने और व्याख्या करने की प्रक्रिया शामिल है। दीगर सिद्धांत ध्यान को नियंत्रित करने के लिए तंत्र के महत्व और बाहरी दुनिया से सही-गलत की जानकारी पाने वाले ढांचे पर ज़ोर देते हैं। छह शामिल सिद्धांतों में से टीम ने सचेत अवस्था के अपने 14 संकेत निकाले हैं। कोई एआई संरचना इनमें से जितने अधिक संकेतक प्रकट करती है, उसमें चेतना होने की संभावना उतनी ही अधिक होती है। मशीन लर्निंग विशेषज्ञ एरिक एल्मोज़निनो ने चेक-लिस्ट को कई ए.आई. नमूनों पर लागू किया। जैसे इनमें तस्वीरें बनाने के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले डाल-ई 2 नामक एआई शामिल हैं। कई ए.आई. संरचनाएं ऐसी थीं जो रेकरिंग प्रोसेसिंग सिद्धांत के संकेतकों पर खरी उतरीं। चैटजीपीटी जैसा एक विशाल भाषा मॉडल ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस सिद्धांत की खासियत के करीब दिखा।

गूगल का PaLM-E, जो विभिन्न रोबोटिक सेंसरों से इनपुट लेता है, “एजेंसी और एम्बॉडीमेंट”  (ढांचे में स्वायत्तता की मौजूदगी)की कसौटी पर खरा उतरा। और एल्मोज़निनो के मुताबिक ज़रा सी छूट दें तो इसमें कुछ हद तक ग्लोबल न्यूरोनल वर्कस्पेस भी दिखता है।

डीपमाइंड कंपनी का ट्रांसफॉर्मर-आधारित एडाप्टिव एजेंट (एडीए), जिसे आभासी 3-डी स्पेस में एक नमूना नियंत्रित करने के लिए प्रशिक्षित किया गया था, वह भी “एजेंसी और एम्बॉडीमेंट” के लिए सही निकला, भले ही इसमें PaLM-E जैसे भौतिक सेंसर का अभाव है। एडीए में मानकों के अनुरूप होने की सबसे अधिक संभावना थी, क्योंकि इसमें परिवेश के भौतिक फैलाव की अच्छी समझ दिखी।

यह देखते हुए कि कोई भी ए.आई. मुट्ठी भर कसौटियों से अधिक पर खरा नहीं उतरता है, इनमें से कोई भी चेतना के लिए तगड़ा उम्मीदवार नहीं है, हालांकि एल्मोज़निनो के मुताबिक इन खासियत को ए-आई के डिज़ाइन में डालना मामूली बात होगी। अभी तक ऐसा नहीं किए जाने की वजह यह है कि इनकी मौजूदगी से मिलने वाले फायदों पर साफ समझ नहीं है।

अभी चेक-लिस्ट पर काम चल रहा है। और यह इस तरह की अकेली कोशिश नहीं है। रज़ी के साथ समूह के कुछ सदस्य, चेतना सम्बंधी एक बड़ी शोध परियोजना में शामिल हैं, जिसमें ऑर्गेनॉएड्स, जानवरों और नवजात शिशुओं पर काम किया जा सकता है।

ऐसी सभी परियोजनाओं के लिए समस्या यह है कि अभी जो सिद्धांत हमारे पास हैं, वे मानव चेतना की हमारी अपनी समझ पर आधारित हैं। पर चेतना दीगर रूपों में आ सकती है, यहां तक कि हमारे साथी स्तनधारी प्राणियों में भी वह मौजूद हो सकती है। अमेरिकन दार्शनिक थॉमस नेगल ने साठ साल पहले कभी यह सवाल रखा था कि अगर हम चमगादड़ होते तो कैसे होते यानी एक तरह की चेतना चमगादड़ों में भी है, हम कैसे जानें कि वह हमारी जैसी है या नहीं। जाहिर है कि ये सवाल जटिल हैं और आगे इस दिशा में तेज़ी से तरक्की की उम्मीदें बरकरार हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जापान बना रहा अपना घरेलू चैटजीपीटी

न दिनों जापानी शोधकर्ता ओपनएआई द्वारा निर्मित प्रसिद्ध चैटजीपीटी के समान अपने स्वयं के एआई चैटबॉट विकसित करने के प्रयास कर रहे हैं। इस महत्वाकांक्षी परियोजना का उद्देश्य एआई सिस्टम को जापानी भाषा और संस्कृति की बारीकियों के अनुरूप विकसित करना है ताकि जापानी उपयोगकर्ताओं इसका अधिक सहजता से उपयोग कर सकें। इसके लिए जापान सरकार और कई तकनीकी कंपनियां निवेश कर रही हैं।

गौरतलब है कि वर्तमान विशाल भाषा मॉडल (एलएलएम) अंग्रेज़ी में काम करने के लिए विकसित किए गए हैं। ये मॉडल अन्य भाषाओं में अनुवाद तो करते हैं लेकिन अंग्रेज़ी और जापानी भाषा की वाक्य संरचनाएं बहुत अलग-अलग होती हैं, और अंग्रेज़ी-जापानी मशीनी अनुवाद गलत-सलत होता है। जब चैटजीपीटी से जापानी (या किसी अन्य भाषा) में प्रश्न किए जाते हैं तो यह उनका अंग्रेज़ी अनुवाद करके जवाब तैयार करता है और फिर इनका जापानी में अनुवाद करके जवाब पेश करता है। इस एआई-जनित इबारत में विचित्र अक्षर और अजीब वाक्यांश वाला पाठ प्राप्त होता है जिससे उपयोगकर्ता को अपेक्षित परिणाम नहीं मिलता।

जापान द्वारा तैयार किए गए वर्तमान एलएलएम की सांस्कृतिक उपयुक्तता और सुलभता का मूल्यांकन करने के लिए शोधकर्ताओं ने राकुडा नामक रैंकिंग प्रणाली विकसित की है जो जापानी सवालों पर एलएलएम की प्रतिक्रियाओं का आकलन करती है। इस आधार पर शोधकर्ताओं को जापानी एलएलएम में निरंतर सुधार देखने को तो मिला है लेकिन प्रदर्शन के मामले में यह अभी भी जीपीटी-4 के पीछे है। फिर भी विशेषज्ञों को उम्मीद है कि जापानी एलएलएम भविष्य में जीपीटी-4 की क्षमता की बराबरी कर पाएगा।

इस घरेलू एलएलएम को प्रशिक्षित करने के लिए जापान ने तेज़ कंप्यूटर फुगाकू सुपरकंप्यूटर का उपयोग किया। इस ओपन-सोर्स जापानी एलएलएम का लक्ष्य कम से कम 30 अरब गुणधर्म शामिल करना है। इसके अलावा जापान का शिक्षा, संस्कृति, खेल, विज्ञान और प्रौद्योगिकी मंत्रालय भी एक जापानी एआई कार्यक्रम को वित्त पोषित कर रहा है। विशेषज्ञों को उम्मीद है कि 100 अरब मापदंडों से सुसज्जित यह एआई मॉडल वैज्ञानिक अनुसंधान में एक बड़ा परिवर्तन ला सकता है। परिकल्पनाओं के निर्माण और अनुसंधान लक्ष्यों की पहचान करके यह अनुसंधान कार्यों में काफी तेज़ी ला सकता है।

कई जापानी कंपनियां व्यावसायीकरण में कदम बढ़ा रही हैं। सुपरकंप्यूटर निर्माता एनईसी ने जापानी भाषा आधारित जनरेटिव एआई का उपयोग करना शुरू किया है। इससे आंतरिक रिपोर्ट और सॉफ्टवेयर स्रोत कोड बनाने में समय की काफी बचत हुई है। दूरसंचार कंपनी सॉफ्टबैंक स्वयं का एलएलएम लॉन्च करने वाली है जो मुख्य रूप से विश्वविद्यालयों, अनुसंधान संस्थानों और संगठनों के लिए तैयार किया गया है।

जापानी एआई चैटबॉट के विकास की अपार संभावनाएं हैं। यह शोध कार्यों को तेज़ी से आगे बढ़ाने और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देने की क्षमता रखता है। विशेषज्ञ इसे जापान और इसकी समृद्ध संस्कृति को समझने के इच्छुक लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखते हैं। जापान द्वारा स्वयं का चैटजीपीटी एक वैश्विक रुझान का उदाहरण है जो विशिष्ट भाषाई और सांस्कृतिक संदर्भों के लिए एआई को अनुकूलित करता है। यह एक ऐसे भविष्य का संकेत है जहां एआई अधिक समावेशी, प्रभावी और दुनिया भर की विविध संस्कृतियों में सामंजस्यपूर्ण रूप से एकीकृत होगा। (स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष में बड़ी उपलब्धि, पृथ्वी का बुरा हाल – चक्रेश जैन

गस्त का महीना विज्ञान जगत में अनेक अहम घटनाओं का गवाह रहा। चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर सफलतापूर्वक पहुंचने की व्यापक चर्चा मीडिया में छाई रही। इस सफलता ने हमारे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ाया। इस अहम उपलब्धि पर यह सुझाव सामने आया कि इस उत्साह का उपयोग वैज्ञानिक सोच बढ़ाने में होना चाहिए।

इसरो के अनुसार चंदा मामा की गोद में खेल रहे रोवर ‘प्रज्ञान’ ने दस दिनों तक चहलकदमी की और मिशन के लिए निर्धारित  सभी काम सम्पन्न कर लिए।

सरकार ने चंद्रयान-3 मिशन की सफलता पर हर साल 23 अगस्त ‘राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस’ मनाने की घोषणा की। वैसे हमेशा की तरह सवाल यह है कि एक दिन अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाने से क्या हासिल होगा? दूसरा सवाल यह है कि हमारे यहां पहले से हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और 11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस मनाया जाता है, तो अलग से एक और दिवस मनाने की क्या ज़रूरत है?

चंद्रयान-2 की विफलता पर आलोचकों और टिप्पणीकारों ने कहा था कि भारत को अंतरिक्ष विज्ञान पर पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए, और गरीबी, अशिक्षा और भुखमरी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस बार भी टिप्पणीकारों ने कहा कि हमारे वैज्ञानिक चंद्रमा के अगम्य छोर तक पहुंच सकते हैं तो हमारे यहां के पहाड़ी शहरों को तो यकीनन बचा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-3 की कामयाबी के ठीक दूसरे दिन ही हिमाचल के कुल्लु जि़ले में भूस्खलन से कई इमारतें ध्वस्त हो गई थीं।

राजनीति के गलियारों में विज्ञान की इस बड़ी कामयाबी के श्रेय को लेकर नया विवाद शुरू हो गया। सवाल उठा कि आखिर यह श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? विभिन्न राजनैतिक दलों ने पूर्व में रही सरकारों और उनके नेतृत्व को श्रेय देते हुए यह साबित करने का भरपूर प्रयास किया कि चंद्रमा पर पहुंचने का श्रेय और सराहना उन्हें मिलना चाहिए। सच तो यह है कि आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ रही सभी सरकारों ने अंतरिक्ष विज्ञान को उच्च प्राथमिकता दी है और यह कामयाबी सम्मिलित प्रयासों का नतीजा है।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर जिस जगह पर उतरा है, उसका नाम ‘शिवशक्ति पॉइंट’ रखा जाएगा। इस घोषणा को लेकर भी राजनैतिक घमासान छिड़ गया।

रूस ने सोवियत संघ से अलग होने के बाद पहली बार 11 अगस्त को चंद्रयान लूना-25 सफलतापूर्वक भेजा जो चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने के पहले ही हादसे का शिकार हो गया। दरअसल उसने दस दिनों के भीतर चंद्रमा पर पहुंचने का सपना देखा था।

विज्ञान को अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखना समय की मांग है। दुनिया के कुछ देश पहले ही अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो चुके हैं। चंद्रयान-3 की कामयाबी से शेयर बाज़ार में उत्साह का नज़ारा दिखा। अंतरिक्ष, वैमानिकी और रक्षा क्षेत्र से सम्बंधित कंपनियों के शेयरों में निवेशकों का अत्यधिक उत्साह दिखाई दिया।

ड्रीम 2047 बंद

इसी महीने लोकप्रिय विज्ञान की मासिक पत्रिका ‘ड्रीम 2047’ का प्रकाशन बंद हो गया। आज़ादी के अमृतकाल के आरंभिक दौर में ही एक पत्रिका के अवसान ने नए सवालों को उठाया है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में शुरू हुआ था। इस साल यह पत्रिका 25 वर्षों का सफर पूरा करते हुए अपनी रजत जयंती मनाने की दहलीज़ पर थी। यह सरकारी पत्रिका थी, जिसकी प्रसार संख्या चालीस हज़ार का आंकड़ा पार कर गई थी। यह पत्रिका लगातार और नियमित रूप से दो भाषाओं में प्रकाशित की जाती थी। इसमें नवीनतम विषयों और वैचारिक मुद्दों पर विशेषज्ञों के आलेख प्रकाशित हो रहे थे।

राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान

संसद ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। इस विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी,  पर्यावरण सहित भू-विज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान (एनआरएफ) की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत आगामी पांच वर्षों में शोधकार्यों के लिए पचास हज़ार करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। अंग्रेज़ी में प्रकाशित लोकप्रिय विज्ञान की एक राष्ट्रीय पत्रिका ने अपने सम्पादकीय में कहा है कि इससे देश में वैज्ञानिक उत्कृष्टता का सशक्तिकरण हो सकेगा। वैज्ञानिकों के बीच इस विधेयक को लेकर अलग-अलग विचार हैं।

जैव विविधता विधेयक

संसद ने जैव विविधता (संशोधन) विधेयक भी पारित कर दिया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं और पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति का समर्थन करते हैं।

परिंदों के हाल

हाल ही में ‘स्टेट ऑॅफ इंडियाज़ बर्ड्स’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि मांसाहारी पक्षियों की संख्या शाकाहारी पक्षियों की तुलना में तेज़ रफ्तार से कम हो रही है। इसी प्रकार प्रवासी पक्षियों का जीवन गैर-प्रवासी पक्षियों की तुलना में ज़्यादा खतरे में हैं। यह रिपोर्ट बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और ज़ुऑलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया सहित 13 संस्थानों के एक समूह ने प्रकाशित की है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में तीन दशकों के दौरान जिन 338 पक्षी प्रजातियों की संख्या में परिवर्तन पर अध्ययन किया गया, उनमें साठ प्रतिशत की कमी देखी गई। दरअसल इस रिपोर्ट में पर्यावरण को गहराई से समझने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।

विविध घटनाक्रम

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और उपलब्धियों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि पत्र-पत्रिकाओं में पहले से जारी अनुसंधान के नवीनतम परिणाम प्रकाशित हुए हैं। नेचर पत्रिका में छपी ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि अध्ययनकर्ताओं ने तथाकथित अतिचालक एलके-99 की पहेली सुलझा ली है और यह साबित कर दिया है कि यह अतिचालक नहीं है, बल्कि यह कॉपर, लेड, फॉस्फोरस तथा ऑक्सीजन का यौगिक है, जो एक विशिष्ट तापमान पर अतिचालकता का गुण प्रदर्शित करता है।

इसी पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भौतिक शास्त्रियों ने एक अनूठे समस्थानिक ऑक्सीजन-28 का पता लगाया है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि यह ऑक्सीजन का एक समस्थानिक है, जिसमें 20 न्यूट्रॉन और आठ प्रोटोन हैं। इस रिसर्च ने परमाणु नाभिक की संरचना के सिद्धांतों पर मंथन की ज़रूरत पैदा कर दी है, क्योंकि सैद्धांतिक दृष्टि से तो वैज्ञानिकों का मत था कि ऑक्सीजन का यह समस्थानिक टिकाऊ होना चाहिए लेकिन वास्तव में यह क्षणभंगुर निकला।

विज्ञान जगत की ही एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने नवीनतम अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में भ्रूण को नए सिरे से परिभाषित करने का विचार पेश किया है।

युरोप की महत्वाकांक्षी मानव मस्तिष्क परियोजना (एचबीपी) के दस साल पूरे हो रहे हैं। आरंभ में इस परियोजना की जमकर आलोचना हुई थी। इस परियोजना का कंप्यूटर में मानव मस्तिष्क सृजित करने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान है।

नेचर पत्रिका में छपी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार एक प्रयोग में बूढ़े चूहों को पीएफ-4 प्रोटीन का डोज़ देने से उनका मस्तिष्क 30-40 साल के युवाओं के समान सोचने-समझने की क्षमता प्रदर्शित करने लगा। दरअसल, पीएफ-4 प्रोटीन कोशिकाएं प्लेटलेट्स से बनती हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि आगे चलकर यह अध्ययन बूढ़े व्यक्तियों के दिमाग की कोशिकाओं को सक्रिय बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सनसनीखेज़ एलके-99 अतिचालक है ही नहीं!

पिछले कुछ सप्ताह से तांबा, सीसा, फॉस्फोरस और ऑक्सीजन से निर्मित अतिचालक (सुपरकंडक्टर) एलके-99 से जुड़े रहस्य का अब खुलासा हो चुका है। इस दावे को खारिज करने वाले साक्ष्य प्रस्तुत होने के बाद सामान्य तापमान पर अतिचालकता का दावा भी धराशायी हो गया है।

सामान्य दाब और 127 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर अतिचालकता के दावे ने सोशल मीडिया पर काफी हंगामा मचाया था। चूंकि पूर्व में अतिचालकता सिर्फ अत्यंत अधिक दाब और अत्यंत कम तापमान पर ही देखी गई थी, इसलिए इस नए आविष्कार में वैज्ञानिकों और आमजन की गहरी रुचि पैदा हुई।

दक्षिण कोरियाई टीम का दावा एलके-99 के दो दिलचस्प गुणों पर टिका था: चुंबकीय क्षेत्र में ऊपर उठकर तैरना (लेविटेशन) और प्रतिरोध में गिरावट। दोनों ही अतिचालकता के लक्षण माने जाते हैं।

पेकिंग विश्वविद्यालय और चीनी विज्ञान अकादमी की टीमों ने इन अवलोकनों के लिए अधिक व्यावहारिक स्पष्टीकरण भी पेश किए थे। इसके अलावा,  प्रायोगिक व सैद्धांतिक विश्लेषण के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप के शोधकर्ताओं ने एलके-99 की संरचना को देखते हुए अतिचालकता की संभावना से ही इंकार किया। इस सामग्री की प्रकृति के बारे में संदेह को दूर करने के लिए कुछ शोधकर्ताओं ने एलके-99 के शुद्ध नमूने संश्लेषित किए और दर्शाया कि यह दरअसल एक इन्सुलेटर (कुचालक) है।

अपने दावों की पुष्टि के लिए दक्षिण कोरियाई टीम ने एक वीडियो भी जारी किया था जिसमें एक चुंबक के ऊपर एक रुपहले सिक्के के आकार का नमूना तैरते हुए दिखाया गया था। कोरियाई शोधकर्ताओं ने इसे मीस्नर प्रभाव कहा था जो अतिचालकता का लक्षण है। सोशल मीडिया पर इस तरह के कई असत्यापित वीडियो आने पर कई शोधकर्ताओं ने इसे दोहराने का प्रयास किया लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। इससे उन्हें एलके-99 की अतिचालक प्रकृति पर संदेह हुआ।

एलके-99 में रुचि रखने वाले हारवर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व शोधकर्ता डेरिक वानगेनप ने भी इस वीडियो का अध्ययन किया। उन्हें इस नमूने का एक किनारा चुंबक से चिपका हुआ प्रतीत हुआ जिसे बहुत ही बारीकी से संतुलित किया गया था। जबकि चुंबक के ऊपर तैरते सुपरकंडक्टर्स को आसानी से घुमाया जा सकता है और पलटा भी जा सकता है। इस आधार पर वैनगेनप को एलके-99 के गुण लौह-चुंबकत्व से अधिक मिलते हुए प्रतीत हुए। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने गैर-अतिचालक लेकिन लौह-चुम्बकीय डिस्क तैयार की जिसने ठीक एलके-99 के समान व्यवहार किया। इसके अलावा पेकिंग युनिवर्सिटी की एक शोध टीम ने भी एलके-99 के तैरने के लिए सुपरकंडक्टर के बजाय लौह-चुम्बकीय होने की पुष्टि की है। टीम ने इस नमूने की प्रतिरोधकता को मापा लेकिन उन्हें अतिचालकता का कोई संकेत नहीं मिला।

दक्षिण कोरियाई शोधकर्ताओं ने यह भी दावा किया था कि एलके-99 की प्रतिरोधकता ठीक 104.8 डिग्री सेल्सियस पर दस गुना कम (0.02 ओम-सेंटीमीटर से घटकर 0.002 ओम-सेमी) हो जाती है। यह काफी दिलचस्प है कि एकदम सटीक तापमान के इस दावे ने इलिनॉय विश्वविद्यालय के प्रशांत जैन का ध्यान आकर्षित किया। जैन काफी समय से कॉपर सल्फाइड पर अध्ययन कर रहे थे और उन्हें लगा कि यह तापमान (104.8 डिग्री सेल्सियस) जाना-पहचाना है।

एलके-99 के संश्लेषण में असंतुलित मिश्रण बनता है जिसमें कई अशुद्धियां होती हैं। इनमें कॉपर सल्फाइड भी शामिल था। कॉपर सल्फाइड विशेषज्ञ के रूप में जैन को याद आया कि 104 डिग्री वह तापमान है जिस पर कॉपर सल्फाइड का अवस्था परिवर्तन होता है। 104 डिग्री सेल्सियस से नीचे हवा के संपर्क में रखे गए कॉपर सल्फाइड की प्रतिरोधकता अचानक कम होती है और एलके-99 में ऐसा ही दिखा है।

चीनी विज्ञान एकेडमी की टीम ने एलके-99 पर कॉपर सल्फाइड के प्रभाव का पता लगाया। उन्होंने दो नमूनों का परीक्षण किया – एक को निर्वात में गर्म किया गया (जिसमें कॉपर सल्फाइड की मात्रा 5 प्रतिशत रही) और दूसरे को हवा में तपाया गया (जिसमें कॉपर सल्फाइड 70 प्रतिशत रहा)। पहले नमूने की प्रतिरोधकता उम्मीद के मुताबिक व्यवहार कर रही थी (यानी तापमान घटने के साथ बढ़ती गई) जबकि दूसरे नमूने की प्रतिरोधकता 112 डिग्री सेल्सियस के आसपास अचानक कम हो गई, जो दक्षिण कोरियाई टीम के निष्कर्षों के लगभग समान थी। नमूनों में अप्रत्याशित विविधता के कारण एलके-99 के गुणों को निर्धारित करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन वैज्ञानिकों का तर्क है कि यह अध्ययन पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है कि एलके-99 के अतिचालक गुणों का दावा करना शेखी बघारने के अलावा और कुछ नहीं है।

यानी ज़ाहिर है कि एलके-99 की प्रतिरोधकता में गिरावट और चुंबकीय क्षेत्र में उसका तैरना अतिचालकता के कारण नहीं है लेकिन एलके-99 की वास्तविक प्रकृति के बारे में सवाल बने रहे।

डेंसिटी फंक्शनल थ्योरी (डीएफटी) के आधार पर एलके-99 की संरचना को समझने के प्रारंभिक सैद्धांतिक प्रयासों ने फ्लैट बैंड नामक इलेक्ट्रॉनिक संरचना की उपस्थिति के संकेत दिए। फ्लैट बैंड वे स्थान होते हैं जहां इलेक्ट्रॉन धीमी गति से चलते हैं और आपस में जोड़ियां बना सकते हैं। लेकिन ये गणनाएं एलके-99 संरचना की असत्यापित मान्यताओं पर आधारित थीं।

इसकी स्पष्टता के लिए एक अमेरिकी-युरोपीय टीम ने सटीक एक्स-रे इमेजिंग का उपयोग किया। टीम के अनुसार एलके-99 के फ्लैट बैंड अतिचालकता के लिए अनुपयुक्त हैं। दरअसल एलके-99 के प्लैट बैंड अत्यंत स्थानबद्ध इलेक्ट्रॉनों से बने होते हैं जो छलांग लगाकर अतिचालकता पैदा नहीं कर सकते।

इसी तरह मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर सॉलिड स्टेट रिसर्च की एक टीम ने एलके-99 के शुद्ध एकल क्रिस्टल बनाए जो कॉपर सल्फाइड जैसी अशुद्धियों से मुक्त थे। ये क्रिस्टल बहुत अधिक प्रतिरोध वाले इन्सुलेटर साबित हुए जिसने अतिचालकता के सभी दावों को पूरी तरह ध्वस्त कर किया।

बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम से कई कीमती सबक मिले हैं। कई विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक गणनाओं में जल्दबाज़ी की दिक्कतों पर ज़ोर दिया है। कुछ शोधकर्ताओं ने शोध कार्य के दौरान ऐतिहासिक डैटा को नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति की ओर भी इशारा किया है। जहां कुछ लोग एलके-99 मामले को विज्ञान में प्रयोगों को दोहराने के एक मॉडल के रूप में देखते हैं वहीं अन्य मानते हैं कि यह एक हाई-प्रोफाइल पहेली के असाधारण और त्वरित समाधान का उदाहरण है। आम तौर पर ऐसे मुद्दे समाधान के बिना घिसटते रहते हैं। अलबत्ता कई लोगों ने ध्यान दिलाया है कि विज्ञान की कई गुत्थियां हैं जिन पर आज तक कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कारखानों में मांस बनाने की कोशिशें

प्रयोगशाला में विकसित मांस एक बार फिर चर्चा में है। इस क्षेत्र में पहली सफलता 2013 में मिली थी, जब मास्ट्रिक्ट युनिवर्सिटी के बायोमेडिकल इंजीनियर मार्क पोस्ट ने पहला कल्चर्ड बीफ बर्गर तैयार किया था, जिसकी कीमत 3,25,000 अमेरिकी डॉलर (लगभग 2.5 करोड़ रुपए!) थी। वर्तमान में विश्व भर की लगभग 150 से अधिक कंपनियां कल्चर्ड मांस (बीफ, चिकन, पोर्क और मछली), दूध और चमड़े सहित कई अन्य उत्पादों के मैदान में उतर चुकी हैं।

अमेरिकी नियामक एजेंसियों ने फिलहाल सिर्फ बर्कले स्थित अपसाइड फूड्स और कैलिफोर्निया स्थित गुड मीट कंपनियों को प्रयोगशाला विकसित मुर्गे का मांस (चिकन) बाज़ार में बेचने की अनुमति दी है। उम्मीद है कि इस साल अमेरिकी रेस्टॉरेंट्स में कल्चर्ड मांस परोसा जाने लगेगा। एक ओर उत्पादन संयंत्रों का निर्माण और अरबों का निवेश किया जा रहा है, वहीं कोशिका संवर्धन तकनीकें भी काफी तेज़ी से विकसित हो रही हैं।

जलवायु परिवर्तन के लिहाज़ से कल्चर्ड मांस को एक विकल्प के तौर पर देखा जा रहा है। गौरतलब है कि पशुपालन में बहुत भूमि लगती है, और यह वैश्विक ग्रीनहाउस उत्सर्जन में लगभग 15 प्रतिशत योगदान देता है। इसके अलावा लाल मांस के सेवन से हृदय रोग, मधुमेह और कैंसर वगैरह का जोखिम रहता है। मुर्गी फार्म से एवियन इन्फ्लुएंज़ा का और एंटीबाोटिक प्रतिरोध बढ़ने का खतरा भी रहता है।

संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है कि बढ़ती वैश्विक आबादी के कारण 2031 तक मांस की वैश्विक मांग 15 प्रतिशत तक बढ़ने की संभावना है। ज़ाहिर है इससे वैश्विक जलवायु भी प्रभावित होगी। इससे निपटने के लिए विभिन्न स्तर पर वैकल्पिक प्रोटीन स्रोतों को विकसित करने के प्रयास किए जा रहे हैं जिसमें मांस को प्राथमिकता दी गई है।

अलबत्ता, कल्चर्ड मांस उत्पादन की अपनी चुनौतियां हैं। कल्चर्ड मांस के उत्पादन की सबसे बड़ी चुनौती ऊर्जा उपयोग, टेक्नॉलॉजी के विकास और पारंपरिक मांस की तुलना में इसका सैकड़ों गुना महंगा होना है। एक अनुमान के अनुसार 30 करोड़ टन की वार्षिक मांग के 10 प्रतिशत को भी कल्चर्ड मांस से पूरा करने के लिए हज़ारों संयंत्र लगाने होंगे। कुछ विशेषज्ञों के मुताबिक कल्चर्ड मांस स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा और पर्यावरण के लिए हानिकारक होगा।

कल्चर्ड मांस बनाने के लिए जानवर के ऊतकों को लिया जाता है। इसके बाद कोशिकाओं को पोषक माध्यम में रखा जाता है जिससे कोशिकाएं में संख्या-वृद्धि करती हैं। फिर इनमें से मांसपेशीय कोशिकाओं को अलग किया जाता है और इन्हें तंतुओं का रूप दिया जाता है। कुछ उत्पादों में प्राणि कोशिकाओं के साथ पादप कोशिकाओं का भी उपयोग किया जाता है जबकि कुछ कंपनियां मांस की जटिल संरचनाएं बनाने का प्रयास कर रही हैं। इन पेचीदगियों से यह तो ज़ाहिर है अंतिम उत्पाद काफी महंगा होगा।

अनुमान है कि आदर्श परिस्थितियों में उत्पादन लागत लगभग 6 डॉलर (480 रुपए) प्रति किलोग्राम हो सकती है। पारंपरिक मांस के लिए लागत 2 डॉलर (160 रुपए) प्रति किलोग्राम होती है। पूर्व में हुए अध्ययन कल्चर्ड मांस की लागत 37 डॉलर (लगभग 3000 रुपए) प्रति किलोग्राम आंकते हैं।   

इससे निपटने के लिए मांस निर्माण प्रक्रिया में काफी बदलाव किए जा रहे हैं। इसमें मुख्यत: विभिन्न प्रकार की प्रारंभिक कोशिकाओं का उपयोग किया जा रहा है जो अलग-अलग गति या घनत्व से बढ़ सकती हैं और विभिन्न बनावट या पोषण प्रोफाइल का उत्पादन करने में सक्षम हैं। उदाहरण के लिए नीदरलैंड की एक कंपनी गाय से लिए गए ऊतकों का उपयोग कर रही है जिसकी कोशिकाएं मात्र 30 से 50 बार विभाजित हो सकती हैं। सिद्धांतत: तो एक बायोप्सी से सैकड़ों-हज़ारों किलोग्राम मांस का निर्माण किया जा सकता है लेकिन निरंतर नई कोशिकाओं की आपूर्ति ज़रूरी होगी। यह भी देखा जा रहा है कि किस तरह छोटे अणुओं का मिश्रण मांसपेशी स्टेम कोशिकाओं को बढ़ने और साथ ही साथ विभिन्न परिपक्व मांसपेशी बनने में मदद कर सकता है।

एक अन्य विकल्प ‘अमर’ कोशिका वंश का उपयोग है जिसमें सैद्धांतिक रूप से एक ही बायोप्सी से सभी के लिए भोजन बनाया जा सकता है। इन्हें या तो आनुवंशिक संशोधन के माध्यम से तैयार किया जा सकता है या संयोगवश हुए उत्परिवर्तन के कारण बनी ‘अमर’ कोशिका हाथ लग जाए। एक अध्ययन के अनुसार ऐसी मांसपेशीय कोशिकाएं तेज़ी से और काफी आसानी से बढ़ती हैं और इन्हें वसा जैसी कोशिकाओं में परिवर्तित भी किया जा सकता है। उत्पादन लागत भी कम हो सकती है।

हालांकि, ऐसी उत्परिवर्तित ‘अमर’ कोशिकाओं में ट्यूमर की संभावना ज़्यादा होती है जिसके चलते इनकी सुरक्षा पर सवाल उठे हैं। अलबत्ता, खाद्य और कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार ऐसी कोशिकाओं के पैकेजिंग, पकाने और पाचन प्रक्रिया में जीवित रहने और नुकसान पहुंचाने की संभावना नगण्य है।

इन सबमें सबसे महंगी प्रक्रिया कोशिकाओं के लिए आवश्यक ‘भोजन’ तैयार करना है। यह अमीनो एसिड, प्रोटीन, शर्करा, लवण और विटामिन का एक शोरबा होता है। प्रयोगशाला में कोशिका वंशों के लिए सबसे बेहतरीन भोजन मवेशियों का फीटल बोवाइन सीरम है लेकिन पशु-कल्याण और अन्य मुद्दों के कारण इसका उपयोग संभव नहीं है। इसको कृत्रिम रूप से तैयार करने की लागत लाखों-करोड़ों रुपए है। शोधकर्ता इसके सस्ते वनस्पति-आधारित विकल्प तलाशने के प्रयास कर रहे हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि लाल मांस से होने वाली कई हानिकारक स्वास्थ्य समस्याएं कल्चर्ड मांस में भी बनी रहेंगी। एफएओ को अन्य खाद्य पदार्थों के समान कल्चर्ड मांस के लिए भी हानिकारक बैक्टीरिया, एलर्जी, एंटीबायोटिक अवशेष, वृद्धि हार्मोन और अन्य कारकों की सीमा निर्धारित करना होगी।

पर्यावरण की दृष्टि से, प्रयोगशाला में मांस तैयार करने में पानी और भूमि का उपयोग कम होगा। लेकिन ऊर्जा की खपत एक गंभीर मुद्दा है। 2030 तक कल्चर्ड मांस के निर्माण में प्रति किलोग्राम लगभग 60 प्रतिशत अधिक ऊर्जा की ज़रूरत होगी। यदि यह ऊर्जा नवीकरणीय स्रोतों से आती है तो कल्चर्ड मांस का कार्बन पदचिन्ह पारंपरिक मांस की तुलना में कम हो सकता है।

एक सवाल कल्चर्ड मांस की स्वीकृति का है। सर्वेक्षणों में कल्चर्ड मांस खाने की इच्छा में भिन्नता नज़र आती है। चीन में मांस की बढ़ती मांग के चलते इसे अपनाए जाने की संभावना ज़्यादा है। दूसरी ओर, पश्चिमी देशों में कल्चर्ड मांस की अधिक मांग शाकाहारियों के बीच होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

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अनंत तक गैर-दोहराव देने वाली टाइल खोजी गई

गैर-दोहराव वाली पच्चीकारी

टाइलिंग या पच्चीकारी उसे कहते हैं जब एक आकृति या आकृतियों के एक समूह को किसी समतल सतह पर इस तरीके से दोहराया या बिछाया जा सके कि कहीं खाली जगह न बचे और न ही आकृतियां एक के ऊपर चढ़ें, और इस बिसात को उस समतल सतह की चारों दिशाओं में अनंत तक आगे बढ़ाया जा सके। आम तौर पर इस तरह की पच्चीकारी में किसी पैटर्न का दोहराव होता है। जैसे कि आपको फुटपाथ पर बिछाई गई फर्शियों, इमारतों की नक्काशियों/जालियों, कपड़ों, मधुमक्खी के छत्ते वगैरह में दिखता है।

लेकिन वर्षों से वैज्ञानिक ऐसी आकृति की तलाश में थे जिससे अनंत तक टाइलिंग की जा सके और उसमें कोई दोहराव वाला पैटर्न न मिले। अब गणितज्ञों को एक ऐसी ही एक वास्तविक आकृति मिल गई है जो बिना दोहराव वाला पैटर्न (एपीरियोडिक टाइलिंग) दे सकती है।

1960 के दशक में पहली बार 20,426 तरह की टाइल इस्तेमाल करके एपीरियोडिक टाइलिंग की गई थी। तब से लगातार इस दिशा में काम होता रहा और एपीरियोडिक टाइलिंग देने वाली एकल आकृति खोजने की कोशिश जारी रही।

एपीरियोडिक आकृति

इसी प्रयास में नोबेल विजेता गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ ने दो ऐसी अलग-अलग आकृतियां तलाश ली थीं जो मिलकर एपीरियोडिक टाइलिंग कर सकती थीं।

हाल में, ब्रिडलिंगटन (यू.के) के एक शौकिया गणितज्ञ डेविड स्मिथ ने ऐसी ही आकृति की खोज की है। तीन पेशेवर गणितज्ञों के साथ मिलकर उन्होंने दिखाया कि यह आकृति और इसका दर्पण प्रतिबिम्ब अनंत तक एपीरियोडिक टाइलिंग दे सकती है (अभी प्रमाण की समकक्ष समीक्षा बाकी है।)

अब, गणितज्ञों के इसी समूह ने अपनी मूल टाइल में कुछ संशोधन करके एक ऐसी आकृति हासिल कर ली है जो अकेली ही अनंत तक एपीरियोडिक टाइलिंग कर सकती है। इसके प्रमाण आर्काईव प्रीप्रिंट सर्वर पर उपलब्ध हैं और फिलहाल समकक्ष समीक्षा के मुंतज़िर हैं। (स्रोत फीचर्स)

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चीन का दोबारा उपयोगी अंतरिक्ष यान पृथ्वी पर उतरा

हाल ही में चीन का एक अंतरिक्ष यान पृथ्वी की कक्षा में नौ महीने बिताने के बाद धरती पर लौट आया है। इसके साथ ही चीन उन चुनिंदा राष्ट्रों की श्रेणी में भी शामिल हो गया है जिसने अंतरिक्ष यान का पुन: उपयोग करने में सफलता हासिल की है। हालांकि चीन ने अंतरिक्ष यान के डिज़ाइन और संचालन के बारे में ज़्यादा जानकारी तो नहीं दी है लेकिन उपलब्ध जानकारी के आधार पर अनुमान है कि इसका उपयोग अनुसंधान और सैन्य कार्यों के लिए किया जा रहा था।

इस मिशन से यह स्पष्ट है कि चीन ने अंतरिक्ष यान को पुन: उपयोग करने के लिए हीट शील्ड और लैंडिंग उपकरण जैसी तकनीकें विकसित कर ली हैं। इससे पहले अमेरिकी कंपनी बोइंग, स्पेसएक्स और नासा ने अंतरिक्ष यानों को धरती पर उतार लिया था। गौरतलब है कि अंतरिक्ष यान का एक बार उपयोग करने की अपेक्षा बार-बार उपयोग करने से पूंजीगत लागत काफी कम हो जाती है। इससे पहले, सितंबर 2020 में चीन का इसी तरह का एक प्रायोगिक अंतरिक्ष यान कक्षा में दो दिन बिताने के बाद पृथ्वी पर लौट आया था।

कई वैज्ञानिकों का विचार है कि चीनी यान संभवत: अमेरिकी अंतरिक्ष यान बोइंग एक्स-37बी के समान है। वैसे एक्स-37बी को बनाने का उद्देश्य तो अज्ञात है लेकिन 2010 में इसका खुलासा होने के बाद से ही चीनी सरकार इस यान की सैन्य क्षमताओं को लेकर चिंतित थी। ऐसी संभावना है कि इस यान को एक्स-37बी के जवाब में तैयार किया गया है।

इस यान की उड़ान और लॉप नूर सैन्य अड्डे पर उतरने के पैटर्न को देखते हुए यह स्पष्ट हो जाता है कि यह एक विमान है। जबकि स्पेसएक्स ड्रैगन कैप्सूल जैसे अन्य पुन: उपयोग किए जाने वाले अंतरिक्ष यान लॉन्च रॉकेट से जुड़े मॉड्यूल हैं जो ज़मीन पर उतरने के लिए पैराशूट का उपयोग करते हैं।

एक्स-37बी की तरह चीनी यान भी आकार में काफी छोटा है। लॉन्च वाहन की 8.4 टन की पेलोड क्षमता से स्पष्ट है कि इसका वज़न 5 से 8 टन के बीच रहा होगा। यह नासा के सेवानिवृत्त अंतरिक्ष शटल कोलंबिया और चैलेंजर से बहुत छोटा है जिनको चालक दल सहित कई मिशनों के लिए उपयोग किया गया था। वर्तमान चीनी यान चालक दल को ले जाने के लिए बहुत छोटा है लेकिन अमेरिकी वैज्ञानिकों के अनुसार भविष्य में इसे चालक दल ले जाने वाला बड़ा अंतरिक्ष यान भी बनाया जा सकता है।

निकट भविष्य में चीन अन्य तकनीकों का परीक्षण कर सकता है। कक्षीय पथ में परिवर्तन या सौर पैनल का खुलना ऐसी दो तकनीकें हैं जो भविष्य में काफी उपयोगी होंगी। इसके अलावा कक्षा में रहते हुए उपग्रहों को छोड़ने और उठाने का भी परीक्षण किया गया होगा। एक रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष अक्टूबर में अंतरिक्ष यान द्वारा एक वस्तु को कक्षा में छोड़ने का पता चला था। यह वस्तु जनवरी में कक्षा से गायब हो गई थी और मार्च में फिर से प्रकट हुई थी। संभवत: अंतरिक्ष यान ने वस्तु को पकड़ा और दोबारा कक्षा में छोड़ दिया। यानी अंतरिक्ष यान का उपयोग उपकरणों और उपग्रहों को ले जाने के लिए भी किया गया होगा। (स्रोत फीचर्स)

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