कोशिकाओं की इच्छा मृत्यु – एपोप्टोसिस – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

वर्षा ऋतु में प्रकृति सजीव हो उठती है। कीट-पतंगे, मकडि़यां और नाना प्रकार के जीव जंतु दिखाई पड़ने लगते हैं। मेंढकों का भी यह प्रजनन काल होता है। नर मेंढक ज़ोर-ज़ोर से टर्रा कर मादा को आमंत्रित करते हैं। और मादा भी उनके प्रणय निवेदन को स्वीकार कर खिंची चली आती है।प्रजनन के दौरान मादा मेंढक पानी में अंडे देती है और नर अपने शुक्राणु उनपर छिड़क देता है। अंडों से टैडपोल बनता है और उसके बाद मेंढक। संरचना और स्वभाव में टैडपोल मेंढक से काफी भिन्न होते हैं। टैडपोल पानी में रहते हैं, गलफड़ों से श्वसन करते हैं, शाकाहारी होते हैं और काई कुतर कर खाते हैं। इनकी आंत बहुत लंबी होती है और तैरने के लिए इनमें पूंछ भी होती है। दूसरी ओर, मेंढक पानी और ज़मीन दोनों जगह रहते हैं। त्वचा और फेफड़ों से श्वसन करते हैं। मांसाहारी होते हैं, छोटे-मोटे जीव जंतुओं का शिकार करते हैं। इनकी आंत भी छोटी होती है, पूंछ नहीं होती लेकिन चलने और तैरने के लिए इनके पास बढि़या अनुकूलित टांगें होती हैं।

जब टैडपोल से वयस्क मेंढक बनता है तो उसकी पूंछ और गलफड़े कहां चले जाते हैं? ये टूट कर गिरते नहीं बल्कि अवशोषित कर लिए जाते हैं।

टैडपोल से मेंढक बनने जैसा ही कुछ-कुछ तितली के जीवन में भी घटता है। इनके अंडों से कैटरपिलर (इल्ली) निकलते हैं। कैटरपिलर खूब फूल-पत्तियां खाते हैं। उसके बाद वे एक प्यूपा (शंखी) में बदल जाते हैं। और फिर एक दिन प्यूपा में से तितली निकलती है। तितली कैटरपिलर से बिल्कुल अलग होती है। जहां लंबे कैटरपिलर में चलने के लिए अनेक टांगों जैसी रचनाएं होती हैं, पत्तियों को कुतर-कुतर कर खाने के लिए मज़बूत जबड़े होते हैं वहीं तितलियों में फूल का रस पीने के लिए लंबी स्ट्रॉ के समान सूंड (प्रोबोसिस) नाम की नली होती है, चलने के लिए 3 जोड़ी टांगें और उड़ने के लिए पंख होते हैं।

टैडपोल और कैटरपिलर दोनों में ही अनेक अंग वयस्क होने पर बदल जाते हैं। पुराने अंग नष्ट होकर अवशोषित हो जाते हैं और नए अंगों का निर्माण होता है। अर्थात प्रत्येक प्राणी में विकास के दौरान अनेक पुरानी और टूटी-फूटी कोशिकाएं बेकार हो जाने पर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नष्ट हो जाती हैं। कोशिका के नष्ट होने की इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस या तयशुदा कोशिका मृत्यु (प्रोग्राम्ड सेल डेथ) कहते हैं।

हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका की निश्चित आयु होती है। जैसे रक्त में पाई जाने वाली लाल रक्त कोशिकाएं मात्र 120 दिन जीवित रहती हैं। इनकी भरपाई के लिए कोशिका विभाजन द्वारा निरंतर नई कोशिकाएं बनती रहती हैं।

प्राय: कोशिकाओं की मृत्यु चोट, संक्रमण, विकिरण या रसायनों आदि के कारण होती हैं। यह आत्मघात नहीं है। इसे नेक्रोसिस कहते हैं। इसमें कोशिकाएं स्वेच्छा से नहीं मरतीं, उनकी हत्या होती है। किन्तु एपोप्टोसिस आंतरिक या बाह्य कारणों से, शरीर के हित में स्वैच्छिक आत्म बलिदान है, मृत्यु का वरण है। शरीर के रोगों से और दर्द से बचाने का तरीका है।

नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस में कोशिकाएं भिन्न प्रकार से नष्ट होती हैं। कोशिका मृत्यु के दोनों प्रकार नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस की विधियों में भिन्नता आसानी से पहचानी जा सकती है।

नेक्रोसिस के प्रारंभ में प्राय: कोशिकाओं में सूजन आ जाती है और सूजन के सभी लक्षण परिलक्षित होते हैं। दर्द महसूस होता है। कोशिकाएं फूल जाती है और उनका ढांचा और उनकी अखंडता नष्ट हो जाती है। कोशिकांग फूल कर फूटने लगते हैं। यह सब अव्यवस्थित ढंग से होता है।

एपोप्टोसिस में कोशिकाएं फूलने के बजाए सूखने और सिकुड़ने लगती हैं, छोटी हो जाती हैं। कोशिका झिल्ली की बाहरी सतह पर बुलबुलों के समान रचनाएं (ब्लेब) बनने लगती हैं। कोशिका द्रव्य और केन्द्रक सिकुड़ने लगते हैं। क्रोमेटिन यानी डीएनए और प्रोटीन नष्ट होने लगते हैं और अन्तत: कोशिका छोटे-छोटे पैकेट्स में टूट जाती हैं जिन्हें भक्षी कोशिकाएं (फेगोसाइट्स) अपने अंदर लेकर नष्ट कर देते हैं।

कोशिकाएं आत्मघात क्यों करती हैं? शरीर की वृद्धि के लिए जिस प्रकार कोशिका विभाजन आवश्यक है उसी प्रकार स्थान बनाने के लिए आत्मघात भी आवश्यक है। कुछ कोशिकाएं विशेष कार्य के लिए बनती हैं। कार्य की समाप्ति पर ये अनावश्यक और शरीर पर अवांछित बोझ हो जाती हैं। जैसे मेंढक की पूंछ, गलफड़े और लंबी आंत।

इसी प्रकार नए अंगों के निर्माण में भी आत्मघात महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए मानव भ्रूण में हाथ-पैर चप्पू जैसे होते हैं। उंगलियों के बीच में जाल होने के कारण उंगलियां पकड़ के लिए स्वतंत्र नहीं होती। अंगूठा भी उंगलियों से जुड़ा होता है और पकड़ने लायक नहीं होता। आत्मघात से ही कार्यशील उंगलियां निर्मित होती हैं। शरीर की वे कोशिकाएं जो संक्रमित हो जाती हैं उन्हें भी आत्मघात के द्वारा संक्रमण को बढ़ने से रोक कर पूरे शरीर को संक्रामक रोग से बचा लिया जाता है।

कैंसर का एपोप्टोसिस से गहरा नाता है। वायरस कैंसर कोशिकाओं को आत्मघात नहीं करने देता अन्यथा वायरसयुक्त कोशिकाएं आत्मघात करके शरीर को कैंसर जैसे घातक रोगों से बचा सकती हैं। अंग प्रत्यारोपण में आत्मघात की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि किसी प्रकार से प्रतिरक्षा कोशिकाएं आत्मघात से नष्ट हो जाएं तो प्रत्यारोपित अंगों को शरीर स्वीकार कर लेता है।

आत्मघात के अध्ययन में सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस नामक कृमि को मॉडल जीव के रूप में प्रयुक्त कर बहुत से रहस्यों पर से पर्दा उठाने में मदद मिली है।

सन 2002 में चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला था। इन्होंने भ्रूणीय विकास के दौरान अंगों के निर्माण तथा कोशिका आत्मघात में आनुवंशिक नियंत्रण की भूमिका को समझाने के लिए मौलिक खोज की थी। छोटी आयु, भरपूर प्रजनन क्षमता, पारदर्शी शरीर एवं आसानी से प्रयोगशाला में कल्चर हो जाने की सुविधाओं के कारण वैज्ञानिकों ने सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस कृमि का चुनाव किया था। उन्होंने पाया कि कृमि के 1090 में से 131 कोशिकाएं नियत समय पर कोशिका आत्मघात से मर जाती है।

उन्होंने यह भी बताया कि भ्रूण से कृमि बनने की प्रक्रिया के दौरान कुछ कोशिकाएं कोशिका आत्मघात से गुजरती हैं क्योंकि उनका कार्य कृमि शरीर में खत्म हो चुका होता है। उन्होंने कोशिका आत्मघात की प्रक्रिया के लिए जि़म्मेदार जीन भी खोज निकाला। आत्मघात के लिए जि़म्मेदार जीन में म्यूटेशन होने से मरने की बजाय कोशिकाएं विभाजन करने लगती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ये जीन मानव में भी पाए जाते हैं।

जब टैडपोल या कैटरपिलर को क्रमश: मेंढक और तितली (यानी वयस्क) में बदलने का समय आ जाता है तो उनकी अनेक कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। टैडपोल के परिवर्धन में थायरॉइड हार्मोन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। थायरॉइड हार्मोन वहां पर जुड़ जाता है जहां कोशिका के केन्द्रक में थायरॉइड ग्राही हो। थायरॉइड हार्मोन के जुड़ते ही कोशिका आत्मघात करने वाले जीन को अभिव्यवित करने लगती है। इसके साथ ही आत्मघात के आंतरिक एवं बाहरी रास्ते भी खुल जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सत्रहवीं शताब्दी की पहेली भंवरे की मदद से सुलझी

साल 1688 में एक आयरिश दार्शनिक विलियम मोलेनो ने अपने सहयोगी जॉन लॉके से एक सवाल पूछा था: कोई जन्मजात दृष्टिहीन व्यक्ति जिसने मात्र स्पर्श से चीज़ों को पहचानना सीखा है, यदि आगे चलकर उसमें देखने की क्षमता आ जाए, तो क्या वह सिर्फ देखकर चीज़ों को पहचान पाएगा? उनका यह सवाल मोलेनो समस्या के नाम से जाना जाता है। सवाल मूलत: यह है कि क्या मनुष्य में आकृतियां पहचानने की क्षमता जन्मजात होती है या क्या वे देखकर, स्पर्श से और अन्य इंद्रियों के माध्यम से इसे सीखते या अर्जित करते हैं? यदि दूसरा विकल्प सही है, तो इसमें बहुत समय लगना चाहिए।

कुछ वर्ष पूर्व इस गुत्थी को सुलझाने के एक प्रयास में कुछ ऐसे बच्चे शामिल किए गए थे जो जन्म से अंधे थे लेकिन बाद में उनकी दृष्टि बहाल हो गई थी। ये बच्चे तत्काल तो देखकर आकृतियां नहीं पहचान पाए थे लेकिन बहुत समय भी नहीं लगा था। लेकिन कुछ तो सीखना पड़ा था। यानी परिणाम अस्पष्ट थे। हाल ही में लंदन स्थित क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के लार्स चिटका और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश एक बार फिर से की है।

प्रयोग भंवरों पर किया गया। अपने अध्ययन में उन्होंने पहले भंवरों को उजाले में गोले और घन में अंतर सीखने का प्रशिक्षण दिया – उजाले में, दो बंद पेट्री डिश में गोले और घन आकृतियां रखी गर्इं और उनमें से किसी एक को चुनने पर शकर का इनाम दिया गया। गोले और घन बंद पेट्री डिश में रखे थे इसलिए भंवरे उन्हें देख तो सकते थे लेकिन छू नहीं सकते थे। देखा गया कि भंवरे उस आकृति के साथ ज़्यादा समय बिताते हैं, जिसका सम्बंध शकर रूपी इनाम से है; यानी वे उस आकृति को पहचानते हैं।

इसके बाद उन्होंने यही जांच अंधेरे में की। यानी भंवरे वस्तुओं को छू तो सकते थे लेकिन देख नहीं सकते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर का पुरस्कार मिला था, उस आकृति के साथ भंवरों ने अधिक समय बिताया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन उल्टी तरह से किया – पहले उन्हें अंधेरे में प्रशिक्षित किया और उजाले में जांच की। इसमें भी, दोनों ही स्थितियों में जहां उन्हें वस्तु छूकर पहचानना था या देखकर, जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर दी गई थी उस आकृति के पास अधिक वक्त बिताया।

कीटों में दृश्य पैटर्न को पहचानने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं को यह तो पहले से पता था कि कीट फूलों और मनुष्य के चेहरों के पेचीदा रंग-विन्यास को पहचान सकते हैं। लेकिन विन्यास पहचान के लिए ज़रूरी नहीं है कि मस्तिष्क में उस विन्यास का कोई चित्र बने। तो सवाल यह था कि क्या हमारे मस्तिष्क के समान कीटों के मस्तिष्क में भी वस्तु का कोई चित्रण बनता है।

लेकिन शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन में ये कीट एक किस्म की संवेदना से प्राप्त सूचना को किसी अन्य किस्म की संवेदना में तबदील करके वस्तु का चित्रण कर पाए। इसके आधार पर उनका कहना है कि इन भंवरों ने मोलेनो के सवाल का जवाब दे दिया है। अर्थात एक किस्म की संवेदना से निर्मित चित्र दूसरे किस्म की संवेदना द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है।

अलबत्ता, अन्य वैज्ञानिक इस प्रयोग की वास्तविक दुनिया में वैधता के बारे में शंकित हैं। जैसे भंवरे फूलों को पहचानने के लिए दृष्टि और गंध दोनों संकेतों पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययन करना होंगे जो भंवरों की प्राकृतिक स्थिति से मेल खाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तोतों में मनुष्यों के समान अंदाज़ लगाने की क्षमता

नुष्यों में अनुभवों, जानकारियों और आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता होती है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया है कि न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले किआ तोते भी ऐसा कर सकते हैं। वानरों के अलावा किसी अन्य प्रजाति में पहली बार इस तरह का संज्ञान देखा गया है।

जैतूनी भूरे रंग के ये तोते अपनी हरकतों के लिए बदनाम हैं। अतीत में ये चोंच का छुरी की तरह उपयोग कर भेड़ों की चमड़ी को भेदते हुए उनकी रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द जमा वसा तक पहुंच जाते थे। आजकल ये खाने के सामान के लिए लोगों के पिट्ठू बैग को चीर देते हैं, और कार के वाइपर निकाल देते हैं।

यह देखने के लिए कि क्या किआ तोतों की शैतानी के साथ बुद्धिमत्ता जुड़ी है, युनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड की मनोविज्ञानी एमालिया बास्टोस और उनके साथियों ने न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च के पास स्थित अभयारण्य के छह किआ तोतों का अध्ययन किया। पहले तो शोधकर्ताओं ने तोतों को यह सिखाया कि काले रंग का टोकन चुनने पर हमेशा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जबकि नारंगी टोकन से कभी भोजन नहीं मिलता। फिर उनके सामने पारदर्शी मर्तबानों में काले और नारंगी रंग के टोकन रखे गए। जब शोधकर्ताओं ने बंद मुट्ठी में मर्तबान से टोकन निकाले तब किआ तोते ने अधिकतर उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले थे जिनमें नारंगी टोकन की तुलना में काले टोकन अधिक थे। ऐसा उन्होंने तब भी किया जब मर्तबानों में काले और नारंगी टोकन के बीच अंतर बहुत कम था (63 काले और 57 नारंगी)।

अगले परीक्षण में शोधकर्ताओं ने किआ तोतों के सामने दो पारदर्शी मर्तबान में दोनों रंगों के टोकन बराबर संख्या में रखे। लेकिन मर्तबानों को एक शीट की मदद से ऊपरी व निचले दो हिस्सों में बांटा गया था। हालांकि दोनों मर्तबानों में काले व नारंगी टोकन बराबर संख्या में थे लेकिन एक में ऊपर वाले खंड में ज़्यादा काले टोकन थे। शोधकर्ता मात्र ऊपर वाले खंड में हाथ डाल सकता था। इस स्थिति में किआ ने उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले जिसके ऊपरी हिस्से में काले टोकन अधिक थे। इसके बाद किए गए अंतिम परीक्षण में भी किआ तोते ने उस शोधकर्ता के हाथ से टोकन लेना ज़्यादा पसंद किया जिसने काले टोकन अधिक बार निकाले थे।

इन परीक्षणों के आधार पर नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में शोधकर्ताओं का कहना है कि किआ तोतों में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने की क्षमता होती है। इससे लगता है कि मनुष्यों की तरह किआ में भी कई किस्म की सूचनाओं को एकीकृत करने की बौद्धिक क्षमता होती है। गौरतलब है कि पक्षियों और मनुष्यों के साझे पूर्वज लगभग 31 करोड़ वर्ष पूर्व थे, और दोनों की मस्तिष्क की संरचना भी काफी अलग है। एक मत यह रहा है कि इस तरह की बुद्धि के लिए भाषा की ज़रूरत होती है।

अलबत्ता, हार्वड युनिवर्सिटी की तोता संज्ञान विशेषज्ञ आइरीन पेपरबर्ग को लगता है कि किआ ने सहज ज्ञान का प्रदर्शन किया है ना कि सांख्यिकीय समझ का। लेकिन उन्हें यह भी लगता है यदि किआ में सांख्यिकीय अनुमान लगाने की क्षमता होती है तो इस तरह की क्षमता से लैस जानवर भोजन की मात्रा की उपलब्धता और प्रजनन-साथियों की संख्या का अंदाज़ा लगा पाएंगे जो फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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कुत्ते संख्या समझते हैं

हो सकता है कि कुत्ते 10 तक गिनती ना कर पाएं लेकिन बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित अध्ययन के मुताबिक कुत्तों को इसका अंदाज़ा होता है कि उनकी प्लेट में कितनी हड्डियां हैं। इस अध्ययन के मुताबिक हम मनुष्यों की तरह कुत्तों में भी मात्रा (या संख्या) की समझ जन्मजात होती है।

किसी समूह में वस्तुओं की संख्या का मोटा-मोटा अनुमान एक नज़र में लगाने की क्षमता मनुष्यों में होती है। पहले हुए कई अध्ययन यह दर्शा चुके थे कि बंदरों, मछलियों, मधुमक्खियों और कुत्तों में भी ‘लगभग संख्या’ का अनुमान लगाने की क्षमता होती है। लेकिन इनमें से कई अध्ययन प्रशिक्षित जानवरों के साथ किए गए थे जिनका इसी दक्षता के लिए बार-बार परीक्षण हुआ था और परीक्षण के दौरान पारितोषिक मिल चुके थे। तो सवाल यह उठा कि क्या मनुष्यों की तरह कुत्तों में भी यह क्षमता जन्मजात होती है?

इसी सवाल का जवाब खोजने के लिए एमरी युनिवर्सिटी के तंत्रिका विज्ञानी ग्रेगरी बन्र्स और उनके साथियों ने अलग-अलग नस्ल के 11 अप्रशिक्षित कुत्तों के साथ यह अध्ययन किया, जैसे बॉर्डर कॉलीस, पिटबुल और लेब्रोडॉर गोल्डन रिट्रीवर। अपने अध्ययन में वे देखना चाहते थे कि क्या मस्तिष्क में संख्या के एहसास से जुड़ी कोई सक्रियता नज़र आती है।

यह जांचने के लिए उन्होंने फंक्शनल मैग्नेटिक रेसोनेंस इमेजिंग (ढग्ङक्ष्) की मदद से कुत्तों के मस्तिष्क को स्कैन किया। उन्होंने कुत्तों को ढग्ङक्ष् स्कैनर में उनकी मर्जी से प्रवेश कराया और उनका सिर एक ब्लॉक पर स्थिर किया। फिर कुत्तों को एक काले पर्दे पर हल्के भूरे रंग के छोटे और बड़े बिंदुओं के कुछ समूह दिखाए। तस्वीरें 300 मिलीसेंकड प्रति तस्वीर की रफ्तार से बदल रही थी। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि मनुष्य या अन्य प्राइमेट की तरह यदि कुत्तों के मस्तिष्क में भी संख्याओं के लिए एक निश्चित हिस्सा है तो समान संख्या में बिंदु (4 छोटे बिंदु के बाद 4 बड़े बिंदु) की तुलना में असमान संख्या (जैसे 3 छोटे बिंदु के बाद 10 बड़े बिंदु) आने पर मस्तिष्क के इस हिस्से में कुछ गतिविधि दिखनी चाहिए। 

अध्ययन में 11 में से 8 कुत्तों के मस्तिष्क में अपेक्षित गतिविधि दिखी। आश्चर्य की बात यह रही कि हर कुत्ते के मस्तिष्क के थोड़े अलग हिस्से में गतिविधि दिखी। यह शायद अलग-अलग नस्ल के कुत्तों के बीच का फर्क हो।

वेस्टर्न युनिवर्सिटी की क्रिस्टा मेकफर्सन का कहना है कि ये नतीजे ‘लगभग संख्या प्रणाली’ की हमारी समझ का समर्थन करते हैं। पूर्व में हुए अध्ययन में इन बातों को कुत्तों के व्यवहार के आधार पर दर्शाया गया था। इसलिए यह अध्ययन कुत्तों में संज्ञान को समझने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है। वे आगे कहती हैं, चूंकि अध्ययन दर्शाता है कि कुत्ते वस्तु की संख्याओं की ओर अधिक ध्यान देते हैं इसलिए यह कुत्तों का प्रशिक्षण करने वालों के लिए दिलचस्प साबित हो सकता है। वे कुत्तों को पुरस्कार स्वरूप एक बड़ी चीज़ देने की बजाय अधिक संख्या में चीज़ें दे सकते हैं।

बन्र्स का कहना है कि कुत्तों और मनुष्यों के बीच जैव विकास के विशाल अंतर को देखते हुए ये नतीजे इस बात का पुख्ता साक्ष्य प्रस्तुत करते हैं कि अधिकतर स्तनधारियों में गिनने की क्षमता जन्मजात होती है। (स्रोत फीचर्स)

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पंख के जीवाश्म से डायनासौर की उड़ान पता चला

वैज्ञानिक काफी लंबे समय से यह तो जानते हैं कि कई शुरुआती डायनासौर, जो आज के पक्षियों के पूर्वज हैं, पंखों से ढंके हुए थे। पंखों का यह आवरण गर्मी प्रदान करने के अलावा प्रजनन साथियों को आकर्षित करने में भी उपयोगी था। लेकिन अभी तक यह नहीं पता था कि कब और कैसे इन पंखों का इस्तेमाल उड़ने के लिए किया जाने लगा।

अब पंख वाले डायनासौर के पंख के जीवाश्म के आणविक विश्लेषण से पता चला है कि पंख में प्रयुक्त प्रमुख प्रोटीन किस तरह समय के साथ हल्के और अधिक लचीले हुए जिसके चलते डायनासौर उड़ने में सक्षम हुए और अंतत: पक्षियों में विकसित हुए।

ज़मीन पर चलने वाले सभी रीढ़धारी जीवों में किरेटिन नाम का एक प्रोटीन होता है जो नाखूनों से लेकर चोंच, पंख, शल्क वगैरह बनाता है। मनुष्यों और अन्य स्तनधारियों में, अल्फा किरेटिन 10 नैनोमीटर चौड़ा तंतु बनाता है जिससे बाल, त्वचा और नाखून बनते हैं। मगरमच्छों, कछुओं, छिपकलियों और पक्षियों में बीटा किरेटिन और भी पतला व अधिक कठोर तंतु बनाता है जिससे पंजे, चोंच और पंख बनते हैं।

वैज्ञानिकों ने पिछले एक दशक में दर्जनों जीवित पक्षियों, मगरमच्छों, कछुओं और अन्य रेंगने वाले जीवों के जीनोम की मदद से समय के साथ उनके  बीटा किरेटिन में बदलाव के आधार पर एक वंशवृक्ष तैयार किया है। उनके अनुसार आधुनिक पक्षियों ने अधिकांश अल्फा किरेटिन तो गंवा दिया, लेकिन उनके पंखों में बीटा किरेटिन अधिक लचीला हो गया। इनमें ग्लाइसिन और टायरोसिन अमीनो एसिड्स की एक लड़ी का अभाव होता है जो पंजे और चोंच को कठोर बनाती है। इससे पता चला कि उड़ान के लिए ये दोनों परिवर्तन आवश्यक हैं।

इन दोनों परिवर्तनों को एक साथ देखने के लिए शोधकर्ताओं ने चीन और मंगोलिया के असाधारण जीवाश्मों में अल्फा और बीटा किरेटिन का विश्लेषण किया। पुराजीव वैज्ञानिक पान यानहोंग और मैरी श्वाइट्ज़र ने 16 से 7.5 करोड़ वर्ष पूर्व की पांच प्रजातियों किरेटिन का विश्लेषण किया।

उन्होंने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में बताया है कि 16 करोड़ साल पहले के एक कौए के आकार के एनचीओर्निस डायनासौर के पंखों में कुछ मात्रा में आधुनिक पक्षियों के समान अभावग्रस्त बीटा किरेटिन पाया गया। लेकिन सबसे प्राचीन ज्ञात पक्षी आर्कियोप्टेरिक्स से 10 करोड़ वर्ष पूर्व के डायनासौर में अधिक अल्फा किरेटिन पाया गया, जो आज के पक्षियों के पंखों में कमोबेश अनुपस्थित है।

इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि एनचीओर्निस के पंख उड़ान भरने के लिए सक्षम तो नहीं थे लेकिन उड़ान की ओर विकास में एक मध्यवर्ती चरण को दर्शाते हैं।

इसी प्रकार 13 करोड़ वर्ष पुराने एक छोटे उड़ानहीन डायनासौर शुवुइया से प्राप्त पंखों से पता चलता है कि आधुनिक पक्षियों की तरह, इसमें अल्फा किरेटिन की कमी तो थी लेकिन एनचीओर्निस के विपरीत, इसके पंख अधिक कठोर बीटा किरेटिन से बने थे।

आधुनिक आनुवंशिक सबूतों के आधार पर यह कह पाना संभव है कि विकास के दौरान, कुछ डायनासौर के जीनोम में अल्फा किरेटिन जीन की कई प्रतिलिपियां बन गई। फिर इन ढेर सारी प्रतियों में काट-छांट के चलते ये बीटा किरेटिन के ग्लायसीन व टायरोसीन रहित लचीले किरेटिन का निर्माण करने लगे। इस दोहरे परिवर्तन ने डायनासौर को उड़ने में सक्षम बनाया और इसी के फलस्वरूप पक्षी विकसित हुए। (स्रोत फीचर्स)

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पांच सौ साल चलेगा यह प्रयोग!

न 2014 में एडिनबरा विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक चार्ल्स कॉकेल और उनके कुछ साथियों ने मिलकर एक प्रयोग इस उम्मीद के साथ शुरू किया था कि वह 2514 तक (यानी 500 साल तक) चलेगा। वैसे तो लंबे-लंबे वैज्ञानिक प्रयोगों का लंबा इतिहास रहा है मगर कॉकेल और साथियों का यह प्रयोग अत्यंत महत्वाकांक्षी है।

प्रयोग वैसे तो काफी आसान है। सादे कांच के 800 कैप्सूल्स हैं और प्रत्येक में या तो क्रूकॉक्सीडोप्सिस या बैसिलस सब्टिलिस नामक बैक्टीरिया के नमूने रखे गए हैं। कांच के इन कैप्सूल्स को अच्छी तरह सील कर दिया गया है। इनमें से आधे कैप्सूल्स पर सीसे का आवरण है ताकि ये डीएनए को क्षति पहुंचाने वाले विकिरण से सुरक्षित रहें। कैप्सूल्स का एक पूरा सेट लंदन प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय में बैक-अप के तौर पर रखा गया है।

प्रयोग का मकसद यह देखना है कि बैक्टीरिया शुष्क परिस्थिति में कितने समय तक जीवनक्षम बने रहते हैं। प्रयोग की शुरुआत एक आकस्मिक अवलोकन के आधार पर हुई थी। कॉकेल ने एक तश्तरी में बैक्टीरिया क्रूकॉक्सीडॉप्सिस रखा था और फिर वे उसे भूल गए थे। 10 वर्षों बाद जब उन्होंने उस तश्तरी पर ध्यान दिया तो पता चला कि बैक्टीरिया जीवनक्षम थे। इससे पहले भी कुछ वैज्ञानिकों ने मांस के 118 वर्ष पुराने डिब्बों में से सही सलामत बैक्टीरिया प्राप्त किए थे और एक शोध का परिणाम था कि एंबर और लवण के क्रिस्टल में कुछ बैक्टीरिया लाखों वर्षों बाद भी जीवनक्षम पाए गए थे, हालांकि इसे लेकर विवाद है।

उक्त अवलोकन ने कॉकेल के मन में यह जिज्ञासा पैदा कर दी कि आखिर बैक्टीरिया कितने वर्षों तक जीवनक्षम बने रहते हैं। इसी जिज्ञासा से प्रेरित होकर उन्होंने इस आधी सहस्त्राब्दी के प्रयोग की कल्पना की। ज़ाहिर है, यह प्रयोग पूरा होने से बहुत पहले मूल शोधकर्ता तो सिधार चुके होंगे। इसलिए उन्होंने हर पच्चीस वर्षों में इसके अवलोकन की व्यवस्था की है। व्यवस्था यह है कि पहले 24 वर्षों तक हर दूसरे साल और उसके बाद 475 वर्षों तक हर पच्चीस साल में एक बार कुछ वैज्ञानिक विश्वविद्यालय आएंगे और दोनों तरह के एक-एक कैप्सूल को खोलेंगे और उसमें रखे गए बैक्टीरिया को पनपाने की कोशिश करेंगे। उन्होंने इसके लिए निर्देश लिखकर एक यूएसबी स्टिक में डालकर रख दिए हैं। मगर टेक्नॉलॉजी की प्रगति को देखते हुए उन्हें लगा कि शायद यूएसबी स्टिक जल्दी ही पुरानी पड़ जाएगी। इसलिए कागज़ पर भी निर्देश रख छोड़े हैं, और एक निर्देश यह दिया है कि जो भी वैज्ञानिक यह काम करे वह इन निर्देशों की एक नवीन प्रतिलिपि बनाकर रख दे, क्योंकि 500 सालों में कागज़ की हालत पता नहीं क्या हो जाएगी।

शोधकर्ताओं ने यह भी विचार किया है कि शायद उस समय तक विश्वविद्यालय जैसी संस्था रहे ना रहे, वैज्ञानिक कार्य के लिए फंडिंग उपलब्ध रहे ना रहे। तो उन्होंने इस प्रयोग को जारी रखने के लिए एक ट्रस्ट बना दिया है। हम-आप तो इस प्रयोग के परिणाम जानने को यहां नहीं रहेंगे मगर उम्मीद की जानी चाहिए कि यह प्रयोग नियमित रूप से पूरा होगा और कुछ रोचक निष्कर्ष (लगभग) 20 पीढ़ी बाद के वैज्ञानिकों को मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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प्रयोगशाला में अनेक सिर वाला जीव बनाया गया

नेक सिरों वाला एक जीव प्रयोगशाला में बनाया गया है। इसे दशानन की तर्ज़ पर अनेकानन कह सकते हैं। दरअसल हायड्रा एक जलीय जीव है जिसमें पुनर्जनन का अनोखा गुण होता है। इसके शरीर का छोटा से टुकड़ा भी बच जाए तो यह पूरा शरीर बनाने की क्षमता रखता है। वैसे हायड्रा का शरीर काफी सरल होता है एक बेलनाकार धड़ और उस पर स्पर्शकों से घिरा सिर।

शोधकर्ता इसकी जेनेटिक संरचना में एक फेरबदल करके ऐसा हायड्रा बना सकते हैं जिसके पूरे शरीर पर सिर ही सिर होंगे। यूनानी दंतकथा में ऐसे अनेकानन हायड्रा का ज़िक्र भी आता है। मगर अब समझ में आया है कि प्राकृतिक रूप से ऐसा क्यों नहीं होता। क्या चीज़ है जो ऐसे अनेक सिर वाले हायड्रा को बनने से रोकती है। यह समझ कैंसर अनुसंधान में काफी उपयोगी साबित हो सकती है।

हायड्रा सरल जीव अवश्य है किंतु शरीर को फिर से विकसित कर लेना कोई हंसीखेल नहीं है। हर बार पुनर्जनन के दौरान हायड्रा को पूरी प्रक्रिया को नियंत्रित करना पड़ता है ताकि हर बार एक ही सिर बने। शोधकर्ता यह तो पहले से जानते थे कि एक जीन (Wnt3) होता है जो सिर के विकास का संदेश देता है। उन्हें यह भी पता था कि इस जीन के लिए कोई आणविक अंकुश भी होना चाहिए अन्यथा हायड्रा के पूरे शरीर पर सिर उगेंगे। शोधकर्ताओं को यह भी पता था कि बीटाकैटिनीन/टीसीएफ नामक एक ग्राही और जीन एक्टिवेटर होता है जो सिर के विकास की प्रक्रिया को शुरू करवाता है।

मगर उन्हें यह पता नहीं था कि इस प्रक्रिया को बंद करने वाला स्विच कौनसा है। जेनेवा विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स व जैव विकास की प्रोफेसर ब्रिगिटे गैलियॉट और उनके साथी इसी स्विच की खोज में थे। पहले उन्होंने हायड्रा के निकट सम्बंधी प्लेनेरियन्स (चपटा कृमि) पर ध्यान दिया। ये कृमि भी पुनर्जनन करते हैं। उन्होंने पाया कि 440 जीन्स ऐसे हैं जो बीटाकैटिनीन/टीसीएफ से संकेत मिलने पर अवरुद्ध हो जाते हैं। इसके आधार पर उन्होंने हायड्रा में छानबीन की। देखा गया कि इनमें से 124 जीन्स हायड्रा में भी पाए जाते हैं।

इन 124 में से भी उन्हें पांच जीन्स ऐसे मिले जो हायड्रा के बेलनाकार शरीर के ऊपरी हिस्से में सक्रिय होते हैं और निचले हिस्से में सबसे कम सक्रिय होते हैं। इसका मतलब है कि ये सिर के विकास से सम्बंधित हैं। अब गैलियॉट और उनके साथियों ने यह देखने की कोशिश की कि कौनसे जीन्स पुनर्जनन की प्रक्रिया के दौरान अधिक सक्रिय होते हैं। इस तरह से तीन जीन्स बचे: Wnt3, Wnt5और Sp5

इनमें से पहले दो जीन्स (Wnt3, Wnt5) के बारे में तो पता था कि ये सिर के विकास की प्रक्रिया को शुरू करवाते हैं। इसलिए उन्होंने तीसरे जीन (Sp5) पर ध्यान केंद्रित किया। रोचक बात यह पता चली कि बीटाकैटिनीन/टीसीएफ से प्राप्त संकेत से Sp5 की सक्रियता बढ़ती है किंतु वह Wnt3 की क्रिया को दबाकर बीटाकैटिनीन/टीसीएफ संकेत को बंद कर देता है। यानी यही (Sp5) वह अंकुश है जो सिर के विकास की प्रक्रिया को रोकता है। इसकी जांच के लिए उन्होंने ऐसे हायड्रा तैयार किए जिनमें Sp5 अभिव्यक्त नहीं होता। और इन हायड्रा ने पुनर्जनन में कई सिरों का विकास किया। कुल मिलाकर पूरी प्रक्रिया अभिव्यक्ति और उसके दमन के नाज़ुक संतुलन पर टिकी है। गौरतलब बात है कि Wnt3 मात्र हायड्रा या चपटे कृमियों तक सीमित नहीं है। यह इंसानों में भी पाया जाता है और यहां भी यह विकास में भूमिका निभाता है। इसके अलावा यही जीन कैंसर के विकास में भी भूमिका निभाता (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंडों का आकार कैसे तय होता है?

अंडे विविध आकारों के होते हैं एकदम गोल से लेकर शंकु तथा अंडाकार तक। यह सवाल वैज्ञानिक काफी समय से पूछते आ रहे हैं कि अंडों के आकार में इतनी विविधता क्यों है और किसी प्रजाति के पक्षियों के अंडे के आकार पर किन बातों का असर पड़ता है।

पिछले वर्ष प्रिंसटन विश्वविद्यालय की जीव वैज्ञानिक मैरी स्टोडार्ड ने 1400 प्रजातियों के करीब 50 हज़ार अंडों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया था कि अंडों के आकार का सम्बंध उड़ने की ज़रूरत से निर्धारित होता है। अध्ययन तो काफी विशाल था किंतु कई वैज्ञानिक स्टोडार्ड के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं थे। इससे पहले कई अन्य वैज्ञानिक इस मामले में अपने विचार रख चुके हैं। कुछ का कहना है कि अंडों के आकार से तय होता है कि घोंसले में कितने अंडे रखे जा सकेंगे, अन्य मानते हैं कि अंदर विकसित होते भ्रूण को ऑक्सीजन की सप्लाई आकार का मुख्य निर्धारक है जबकि कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि घोंसलों में से अंडों को लुढ़ककर गिरने से बचाने में आकार की भूमिका है।

अब शेफील्ड विश्वविद्यालय के टिम बर्कहेड ने कुछ प्रयोगों के आधार एक नई व्याख्या पेश की है। इससे पहले वे गणितज्ञों के साथ काम करके अंडों के विभिन्न आकारों को गणितीय रूप में परिभाषित करने का प्रयास करते रहे हैं। अंडों के आकार में विविधता के कारणों को समझने के लिए उन्हें सामान्य मुर्रे (Uria aalge) और उसके निकट सम्बंधी पक्षियों के अंडों का अध्ययन किया। ये सभी पक्षी चट्टानों की कगारों पर अंडे देते हैं।

मुर्रे के अंडे नाशपाती के आकार के होते हैं। ये एक बार में एक नीले रंग का चितकबरा अंडा देते हैं और एक छोटीसी जगह में बहुत सारे पक्षी अंडे देते हैं। इस जगह पर अंडे का टिक पाना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि थोड़ासा असंतुलन पैदा होने पर अंडा लुढ़ककर टपक सकता है। बर्कहेड और उनके साथियों ने मुर्रे के अंडा देने के ऐसे एक स्थल की अनुकृति अपनी प्रयोगशाला में बनाई। इस पर रेगमाल चिपका दिया गया था ताकि चट्टान का खुरदरापन बना रहे। अब इसकी कगार पर एक अंडा मुर्रे का रखा और दूसरा अंडा उसके एक निकट सम्बंधी का रखा जो थोड़ा लंबा दीर्घवृत्ताकार था।

देखा गया कि मुर्रे का अंडा इस परिवेश में कहीं ज़्यादा स्थिर रहा। जब चट्टान की ढलान बढ़ाई गई तो भी वह टिका रहा। बर्कहेड का कहना है कि मुर्रे का अंडा एक तरफ से थोड़ा नुकीला होता है। इस वजह से जब वह लुढ़कने लगता है तो सीधी रेखा में न लुढ़ककर गोलाई में लुढ़कता है जिसकी वजह से वह गिरता नहीं बल्कि गोलगोल घूमता रहता है।

यही प्रयोग 30 अन्य प्रजातियों के अंडों पर भी दोहराए। इस आधार पर उन्होंने दी ऑक व आइबिस नामक शोध पत्रिकाओं में निष्कर्ष दिया है कि अंडा देने की जगह अंडों के आकार में दोतिहाई विविधता की व्याख्या करती है।

एक अन्य समूह ने कृत्रिम रूप से निर्मित अंडों पर प्रयोग करके यही निष्कर्ष निकाला है। न्यूयॉर्क सिटी युनिवर्सिटी और हंटर कॉलेज के शोधकर्ताओं ने 11 प्रजातियों के पक्षियों के अंडों के 3-डी प्रिंटर से बनाए गए मॉडल्स का अध्ययन किया। जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी में प्रकाशित उनके शोध पत्र का भी यही निष्कर्ष है कि अंडों के टिके रहने का उनके आकार के निर्धारण में मुख्य महत्व है। वैसे अभी मामला पूरी तरह सुलझा नहीं है और आगे शोध तथा नए निष्कर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीव विज्ञान में अमूर्त का महत्व – डॉ. अश्विन साई नारायण शेषशायी

अमूर्तिकरणएक बहुअर्थी शब्द है। एक मायने में इसका मतलब होता है कि वास्तविक घटनाओं और वस्तुओं की बजाय उनका प्रतिनिधित्व करने वाले विचारों का प्रस्तुतीकरण। ऑक्सफोर्ड अंग्रेज़ी शब्दकोश अमूर्तिकरण की परिभाषा कुछ इस तरह देता है: किसी चीज़ पर उसके अंतर्सम्बंधों या गुणधर्मों से स्वतंत्र विचार करना। एक दूसरे अर्थ में, इसका आशय चंद उदाहरणों के आधार पर किसी अवधारणा का सामान्यीकरण भी होता है। इसका एक अर्थ यह भी होता है कि कतिपय रचनाओं का आसान सारतत्व निकालना।

प्रचलित संस्कृति में अमूर्तिकरण का सम्बंध प्राय: आधुनिक कला के साथ जोड़ा जाता है। यह कला रंगों और रेखाओं की एक दृश्य भाषा में व्यक्त होती है, जो वास्तविक दुनिया को छूती भी है और नहीं भी छूती है। शुद्ध या अमूर्त गणित अवधारणाओं के साथ खेलता है जो प्राय: अजीबोगरीब लगती हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि उनका हमारे आसपास की दुनिया से कुछ लेनादेना नहीं है। यह अलहदा बात है कि ये अवधारणाएं कभीकभी उच्च टेक्नॉलॉजी का सूत्रपात करती हैं। अर्थ शास्त्र में इंसानों के लोभ और कमज़ोरियों तथा समय व स्थान के साथ इनमें होने वाले परिवर्तनों की वजह से उत्पन्न उथलपुथल को अक्सर अमूर्त गणितीय समीकरणों का रूप दिया जाता है। ये समीकरण बाज़ारों को चलाते हैं, गिराते और उठाते हैं।

जीव विज्ञान का सम्बंध वास्तविकता से है और यह जीवन के अचरजों के साथ सख्त वैज्ञानिक ढंग से काम करता है। क्या अमूर्तिकरण का जीव विज्ञान से कुछ भी लेनादेना हो सकता है? मैं नहीं जानता कि लोग जानकारी के लिए कितनी बार कोरा (Quora) जैसे ढुलमुल स्रोतों का सहारा लेते हैं। बहरहाल जीव विज्ञान में अमूर्तिकरण को गूगल सर्च करें तो वह आपको एक कोरा पेज पर पहुंचा देता है, जहां यह कहा गया है कि जीव विज्ञान में कोई अमूर्तिकरण नहीं होता क्योंकि सब कुछ ठोस वास्तविकता है। अब यदि जीव विज्ञान से आशय जीवन के अध्ययन से है, और अमूर्तिकरण में यह भी शामिल है कि किसी पेचीदा समष्टि के हिस्सों को अलगअलग करना और उन्हें आसान तरीके से निरूपित करना जो जीवन की बहुस्तरीय वास्तविकता का प्रतिनिधित्व कर सकें और नहीं भी कर सकें, तो अमूर्तिकरण जीव विज्ञान का मुख्य हिस्सा हो जाता है।

आणविक नृत्य का समंवय

जैविक तंत्र निहित रूप से पेचीदा होते हैं। प्रत्येक कोशिका हज़ारों किस्म के रसायनों की खिचड़ी होती है जो परस्पर टकराते हैं और क्रिया करते हैं। और यह सब एक सघन आणविक दीवार के अंदर भरे अत्यंत गाढ़े घोल में चलता है। जीव विज्ञान इस सवाल का जवाब देने का प्रयास करता है कि अणुओं के इस सुसंयोजित थैले में कैसे जीवन पैदा होता है और कैसे उसके कुछ रूपों में चेतना का संचार होता है। यदि हम इसमें यह और जोड़ दें कि आणविक विलयनों की एक विशाल विविधता है जिसे कुछ सामान्य सूत्र आपस में जोड़े रखते हैं, जिसका उपयोग हमारे आसपास मौजूद विविध जीव जीवन की रचना के लिए करते हैं, तो सवाल की विशालता स्वत: स्पष्ट हो जाती है। इस जटिलता को देखते हुए, यदि किसी को लगता है कि जीवन की व्याख्या उसकी समस्त बारीकियों के साथ करने के लिए एक वैज्ञानिक रूप से मान्य एकीकारक सिद्धांत प्रतिपादित किया जा सकता है, तो वह थोड़ी ज़्यादा ही मांग कर रहा है। एकमात्र सिद्धांत जो इसके नज़दीक आता है वह है जैव विकास का ढांचा किंतु यह कैसे काम करता है, इसकी बारीकियों का खुलासा अभी होना है और हम समाधान के निकट भी नहीं पहुंचे हैं।

यह स्पष्ट है कि जीवन के अध्ययन का एकमात्र तरीका अमूर्तिकरण का है। जीव विज्ञान के विभिन्न उपविषय जीवन को विभिन्न बिंबों में प्रस्तुत करते हैं। जेनेटिक विज्ञानी के लिए, जीवन के अध्ययन का मुख्य औज़ार यह समझ है कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक सूचनाओं का संचार कैसे होता है और इस सूचना की विषयवस्तु में उत्परिवर्तनों का व्यवहारगत परिणाम क्या होता है। स्वयं जेनेटिक सामग्री को कई हज़ार अक्षरों के खंडों में अमूर्त रूप दिया जा सकता है जिनमें से प्रत्येक खंड एक जीन का प्रतिनिधित्व करता है। या इस सामग्री को और भी छोटे खंडों के रूप में देखा जा सकता है जो कुछेक अक्षरों से मिलकर बने हों।

दूसरी ओर, ज़रूरी नहीं कि सूचनाओं के संचार में रुचि रखने वाली किसी जैवरसायनविद की रुचि सजीव के व्यवहार और जीन्स से उसके सम्बंधों में हो। हो सकता है कि उसे लगे कि वर्णमाला के अक्षरों के रूप में जेनेटिक पदार्थ का निरूपण बहुत सरलीकरण है। इसकी बजाय वह शायद यह अध्ययन करने का आग्रह करे कि डीएनए को बनाने वाले अलगअलग परमाणु कोशिका के अन्य रसायनों के साथ कैसे अंतर्क्रिया करते हैं।

जीव विज्ञान में रुचि रखने वाले वैज्ञानिकों का एक समूह सिद्धांतविद है। उनके हिसाब से कोशिका के अंतर चल रहे आणविक नृत्य को या शायद शिकारियों और उनके शिकार के बीच चल रही इकॉलॉजिकल अंतर्क्रियाओं को भी चंद गणितीय समीकरणों में बांधा जा सकता है। इन समीकरणों का उपयोग नईनई जीव वैज्ञानिक परिकल्पनाएं विकसित करने में किया जा सकता है और फिर उन परिकल्पनाओं की प्रायोगिक जांच की जा सकती है।

मॉडल जीव का चुनाव

पिछले एकाध दशक में जीव वैज्ञानिकों का एक नया वर्ग उभरा है जिन्हें सिस्टम्स बायोलॉजिस्ट या तंत्रगत जीव वैज्ञानिक कहते हैं। इन जीव वैज्ञाविकों में भी एक उपसमूह ऐसा है जो कोशिका में आणविक नेटवक्र्स को सामाजिक नेटवर्क्स के समान देखता है। दो अणु ठीक उसी तरह अंतर्क्रिया करते हैं जैसे (उदाहरण के लिए) फेसबुक पर दो मित्र करते हैं। प्रत्येक अणु नेटवर्क में एक नोड बन जाता है और दो नोड्स के बीच अंतर्क्रिया एक किनोर बन जाती है। इन नेटवर्क्स में अंतर्क्रियाओं में काफी विविधता हो सकती है। जैसे यह हो सकता है कि हज़ारों कोशिकीय रसायनों के बड़े पैमाने के नेटवर्क में सारी अंतर्क्रियाएं बराबरी की हों या यह भी हो सकता है कि कुछ बड़े पैमाने की अंतर्क्रियाओं के अलगअलग महत्व हों। यह भी संभव है कि किसी नेटवर्क में दसबीस अणु ही शामिल हों। इन नेटवर्क का विश्लेषण सांख्यिकीय विधियों से किया जा सकता है और इनकी व्याख्या जीव वैज्ञानिक नज़रिए से की जा सकती है।

इनमें से कोई भी रास्ता संपूर्ण नहीं है। एक मायने में यह उस परिस्थिति के समान है जहां चार अंधे व्यक्ति एक हाथी के बारे में अलगअलग राय बनाते हैं। चतुर जीव वैज्ञानिक वह है जो इन विभिन्न रास्तों का एकीकरण कर सके और यह समझाने के लिए परिकल्पना विकसित कर सके कि जीवन का कोई छोटा हिस्सा कैसे काम करता है। इसी वजह से अंतर्विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया जा रहा है। इसके लिए एक ही सवाल के विभिन्न नज़रियों को समझने की क्षमता ज़रूरी है बल्कि यह भी ज़रूरी है कि आप विविध रवैयों के प्रति खुला दिमाग रखें।

जीवन की विस्तृत विविधता जीव वैज्ञानिक के लिए एक चुनौती है। हम नहीं जानते कि इनमें से अधिकांश जीवों का अध्ययन प्रयोगशाला में कैसे करें। किसी भी जीव के जीव विज्ञान की वैज्ञानिक खोजबीन के लिए प्राय: उसके साथ जेनेटिक छेड़छाड़ करनी पड़ती है। अक्सर हमें पता नहीं होता कि यह कैसे करें। ज़ाहिर है, हम मनुष्यों के जीव विज्ञान का अध्ययन तो करना चाहते हैं किंतु किसी मनुष्य में जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयोग करना संभव नहीं है। तकनीकी कारण तो हैं ही, साथ में नैतिकता से जुड़े कारण भी हैं।

इसलिए ढेर सारे जीव वैज्ञानिक अनुसंधान में हमने बड़ी संख्या में जीवरूपों का अमूर्तिकरण करके कुछ काम करने योग्य मॉडल जीवों का निर्माण किया है। इसके पीछे मान्यता यह है कि जीवन के अधिकांश रूपों में कुछ साझा सूत्र हैं और एक तरह के जीवों के अध्ययन से अन्य जीवों की आणविक प्रक्रियाओं को समझा जा सकता है; एकदम बारीकियों में नहीं, तो भी मोटे तौर पर तो समझा ही जा सकता है।

मॉडल जीवों का चयन उनके साथ काम करने तथा उनमें फेरबदल करने की सरलता पर निर्भर है। आणविक जीव विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे सर्वप्रथम मॉडल जीव एक किस्म के वायरस थे जिन्हें बैक्टीरियाभक्षी वायरस (बैक्टीरियोफेज) कहते हैं। ये झुंड में और काफी रफ्तार से संख्यावृद्धि करते हैं। इसलिए इनके साथ काम करना सुविधाजनक है। अंतत: बैक्टीरियाभक्षी वायरस भी प्रजनन करते हैं और मनुष्य भी। यह सही है कि प्रजनन की प्रक्रिया की बारीकियों में अंतर होते हैं किंतु जीवन के सबसे निचले से लेकर सबसे ऊपरी स्तर तक सिद्धांत वही रहता है। बैक्टीरियाभक्षियों ने हमें यह खोज करने में मदद दी कि आनुवंशिक पदार्थ प्रोटीन नहीं बल्कि डीएनए है।

अलबत्ता, वायरस स्वतंत्र जीव नहीं होते और उन्हें अपना कामकाज चलाने के लिए किसी अधिक विकसित जीव के सहारे की ज़रूरत होती है। इसलिए मशहूर एशरीशिया कोली (. कोली) नामक बैक्टीरिया जीवन का बेहतर मॉडल बन गया। इस बैक्टीरिया ने न सिर्फ प्रजनन के मूल रूप को समझने में मदद की बल्कि यह समझने में भी मदद की कि आम तौर पर शरीर की बुनियादी क्रियाएं यानी चयापचय कैसे चलती हैं और कोशिका नामक कारखाना कैसे जीवनदायी रसायनों के उपभोग व उत्पादन का नियमन करता है।

गैरमनुष्य केंद्रित दृष्टि

मानव कोशिकाएं संरचना के लिहाज़ से ई. कोली व अन्य बैक्टीरिया से बहुत भिन्न होती हैं, इसलिए खमीर कोशिकाओं जैसी ज़्यादा पेचीदा कोशिकाएं मनुष्य की कोशिकीय प्रक्रियाओं को समझने का बेहतर मॉडल बनकर उभरीं। खमीर यानी यीस्ट एककोशिकीय जीव होते हैं जबकि मनुष्य बहुकोशिकीय हैं। लिहाज़ा, बहुकोशिकीय मगर काम करने में आसान फ्रूट फ्लाई (फलमक्खी) और अन्य कृमि मनुष्य के जीव विज्ञान के अध्ययन के बेहतर मॉडल बन गए। इनके साथ फेरबदल करना और अध्ययन करना अपेक्षाकृत आसान है।

इसके बाद आती है बीमारियों को समझने और उनका उपचार करने की ज़रूरत। इसके लिए हमें चूहों, खरगोशों और बंदरों का उपयोग करना होता है। कई बार हमें इनके जेनेटिक रूप से परिवर्तित रूपों का भी उपयोग करना पड़ता है। इन अध्ययनों के चलते न सिर्फ कई महत्वपूर्ण खोजें हुर्इं बल्कि इन्होंने जंतु अधिकार सम्बंधी कई विवादों को भी जन्म दिया।

ऐसे भी मौके आते हैं जब हमें मनुष्य की कोशिकाओं की ज़रूरत पड़ती है, और किसी चीज़ से काम नहीं चलता। विज्ञान के अनुसंधान और नैतिकता के क्षेत्र यह समझने के प्रयास में जुटे हैं कि यह काम प्रभावी ढंग से कैसे किया जा सकता है। अलबत्ता, यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि मॉडल जंतु मात्र ऐसे औज़ार हैं जिनका उपयोग यह समझने में किया जाता है कि मनुष्य के शरीर कैसे काम करते हैं। तथ्य तो यह है कि मनुष्य इस धरती पर जीवन का एक अत्यंत छोटासा अंश हैं और मॉडल तंत्रों का अध्ययन प्राय: उन जंतुओं को समझने के लिए ही किया जाता है ताकि जीवन को पूरे विस्तार में समझा जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता? – कालू राम शर्मा

हाल ही में एक स्कूली बच्ची ने सवाल पूछा था कि क्या यह सही है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बनता? बातचीत के दौरान यह बात भी उठी कि ऊंटनी का दूध काफी मीठा होता है इसलिए उसमें कीड़े पड़ जाते हैं। सवाल पश्चिम निमाड़ के एक स्कूल की बच्ची ने पूछा था जहां राजस्थान से लाए गए ऊंट सिर्फ ठंड की शुरुआत में दिखाई देते हैं।

ऊंट शुष्क व अर्द्धशुष्क क्षेत्रों में पाया जाने वाला स्तनधारी पालतू पशु है। इसका इस्तेमाल प्राचीन काल से खेती और बोझा ढोने में किया जाता रहा है। वैसे इन इलाकों में ऊंट के मांस, बाल और खाल के अलावा ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल भी आम है जहां ये बहुतायत से मिलते हैं। कई देशों, खासकर अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों के समुदायों के जीवन में ऊंट अहम भूमिका अदा करते हैं। शुष्क क्षेत्र की प्रतिकूल जलवायु के प्रति अनुकूलन के चलते ऊंटों का इस्तेमाल परिवहन में तो किया ही जाता है साथ ही जब ऊंटनी बच्चे जनती है उस दौरान इनका दूध भी मिल जाता है। ऊंटों का मांस बड़ी मात्रा में खाया जाता है। बहरहाल ऊंटनी के दूध की बात करते हैं।

यह तो हम जानते हैं कि दूध एक कोलायडल विलयन है जिसमें वसा, लेक्टोस शर्करा, कैसीन (एक प्रकार का प्रोटीन), पानी, खनिज तत्व (कैल्शियम, फास्फोरस) प्रमुख हैं।

ऊंटनी का दूध

ऊंटनी का दूध सफेद, अल्पपारदर्शक, सामान्य गंध लिए स्वाद में थोड़ा नमकीन और हल्का-सा तीखापन लिए होता है। बताया जाता है कि रेगिस्तानी इलाकों में इसके दूध का इस्तेमाल ऊंट-पालक चाय, खीर, घेवर बनाने में करते हैं। गड़रियों से यह पूछने पर कि क्या ऊंटनी का दूध जल्दी खराब हो जाता है और इसमें कीड़े पड़ जाते हैं, उन्होंने बताया कि यह सही नहीं है। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र बीकानेर ने भी इस बात का उल्लेख किया है कि ऊंटनी का दूध 9 से 10 घंटे तक बिना उबाले रखने पर खराब नहीं होता। अगर बराबर मात्रा में पानी मिला दिया जाए तो यह 12-13 घंटे तक खराब नहीं होता।

दुनिया भर में सालाना 53 लाख टन और भारत में लगभग 21 हज़ार टन ऊंट के दूध का उत्पादन होता है। एक ऊंटनी प्रतिदिन लगभग ढाई से दस लीटर तक दूध देती है। बेहतर पोषण और प्रबंधन के चलते इसे 20 लीटर तब बढ़ाया जा सकता है।

पदार्थ गाय बकरी भेड़ उंटनी भैंस मनुष्य
पानी(ग्राम) 87.8 88.9 83.0 88.8 83.3 88.2
ऊर्जा (किलोजूल) 76 253 396 264 385 289
प्रोटीन (ग्राम) 3.2 3.1 5.4 2.0 4.1 1.3
वसा (ग्राम) 3.9 3.5 6.4 4.1 5.9 4.1
लैक्टोस (ग्राम) 4.6 4.4 5.1 4.7 5.9 7.2
कैल्सियम (मि. ग्रा.) 115 100 170 94 175 34

यह सही है कि ऊंटनी के दूध का दही आम तौर पर उन इलाकों में भी नहीं बनाया जाता जहां ऊंट का दूध आसानी से उपलब्ध होता है। बाड़मेर में स्कूली शिक्षा में कार्यरत शोभन सिंह नेगी के अनुसार ऊंटनी के दूध का इस्तेमाल दही बनाने में नहीं होता। उन्होंने बताया कि रेगिस्तानी इलाके में गाय-भैंस के दूध, दही, छांछ और घी का इस्तेमाल आम बात है। मगर ऊंटनी के दूध से दही बनाने का रिवाज़ नहीं है। कारण कि गाय-भैंस के दूध के माफिक ऊंटनी के दूध का दही नहीं जमता।

वैसे, राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में ऊंटनी के दूध से दही तो 2002 में ही बना लिया गया था लेकिन ऊंटनी के दूध से दही पतला बनता है। इसीलिए इसे ड्रिंकिंग कर्ड कहा गया है। केंद्र के वैज्ञानिक डॉ. राघवेंद्र सिंह के अनुसार दही बनाने में दूध में मौजूद कुल ठोस पदार्थ, खनिज एवं कैसीन की माइसेलर संरचना की अहम भूमिका होती है जिसके कारण दही ठोस रूप धारण करता है।

तो पहले माइसेलर सरंचना को समझा जाए। दूध में एक प्रमुख प्रोटीन कैसीन होता है। कैसीन एक बड़ा अणु होता है और इसकी एक विशेषता होती है। इसके कुछ हिस्से पानी के संपर्क में रहने को तत्पर रहते हैं जबकि अन्य हिस्से पानी से दूर भागने की कोशिश करते हैं। इन्हें क्रमश: जलस्नेही और जलद्वैषी हिस्से कहते हैं। तो पानी में डालने पर कैसीन के अणु गेंद की तरह व्यवस्थित हो जाते हैं। इन गेंदों में जलस्नेही हिस्से बाहर की ओर (गेंद की सतह पर) और जलद्वैषी हिस्से गेंद के अंदर की ओर जमे होते हैं। दूध में कैसीन इसी रूप में पाया जाता है। इस तरह बनी सूक्ष्म गेंदों को माइसेल कहते हैं। दूध में कैसीन के ये माइसेल पानी में तैरते रहते हैं। वैज्ञानिक भाषा में कहें तो निलंबित रहते हैं। इसी के चलते अन्यथा अघुलनशील कैसीन पानी में घुला रहता है।

कैसीन माइसेल की एक और विशेषता है। इनकी सतह पर थोड़ा ऋणावेश होता है। समान आवेश एक-दूसरे को विकर्षित करते हैं। इसलिए ये माइसेल एक-दूसरे से दूर-दूर रहते हैं, आपस में चिपकते नहीं।

दही बनने की प्रक्रिया में इन केसीन माइसेल की अहम भूमिका है। केसीन के ये गेंदाकार माइसेल तापमान, अम्लीयता और दबाव के प्रति संवेदनशील होते हैं। आम तौर पर दूध से दही जमाने के लिए हम जामन का इस्तेमाल करते हैं। जामन में मौजूद बैक्टीरिया, लैक्टोस शर्करा को लैक्टिक अम्ल में बदलते हैं। जामन मिले दूध में ये बैक्टीरिया बढ़ते जाते हैं और दूध की अम्लीयता बढ़ने लगती है। अम्लीयता बढ़ने के कारण दूध खट्टा होने लगता है। इसके अलावा, अम्लीयता में यह परिवर्तन कैसीन माइसेल को प्रभावित करता है। अम्लीयता बढ़ने पर कैसीन माइसेल की बाहरी सतह का ऋणावेश कम होने लगता है। अम्लीयता का एक ऐसा स्तर आता है जब माइसेल की बाहरी सतह पर मौजूद ऋणावेश पूरी तरह समाप्त हो जाता है और माइसेल्स को एक-दूसरे से दूर रखने वाला बल समाप्त हो जाता है और ये आपस में चिपकने लगते हैं। कैसीन माइसेल्स का आपस में चिपककर ठोस रूप धारण करने को ही दही जमना कहते हैं। वैसे दूध में केसीन के माइसेल्स को इस तरह परस्पर चिपकाने के लिए पशुओं, वनस्पतियों व सूक्ष्मजीवीस्रोतों से प्राप्त विभिन्न एंज़ाइम भी कारगर होते हैं।

अब देखते हैं कि क्या कारण है कि ऊंटनी के दूध से दही नहीं बन सकता? ऊंटनी के दूध के एंज़ाइम संघटन को लेकर बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि ऊंटनी के दूध से दही तब तक नहीं बनाया जा सकता जब तक कि इसमें बकरी, भेड़ या भैंस का दूध नहीं मिलाया जाता। ज़ाहिर है कि गाय, भैंस या बकरी के दूध में ऐसा कुछ है जो दही जमने के लिए ज़िम्मेदार है। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि  दि इसमें बछड़े से प्राप्त रेनेट अधिक मात्रा में मिलाया जाए तो ऊंटनी के दूध से भी दही जमाया जा सकता है। (रेनेट बछड़े के पेट में मौजूद थक्केदार दूध को कहते हैं। इसका उपयोग चीज़ बनाने में किया जाता है। इसमें रेनिन नामक एंज़ाइम काफी मात्रा में पाया जाता है।) ऊंटनी के दूध से दही जमाने के सारे अध्ययन ऐसे ही एंज़ाइमों की मदद से किए गए हैं।

एक प्रयोग में उत्तरी केन्या से ऊंटनी के दूध के 10 नमूने लेकर उनमें बाज़ार में मिलने वाले बछड़े का रेनेट पावडर मिलाया गया। देखा गया कि गाय के दूध की बनिस्बत ऊंटनी के दूध का दही जमने में दो से तीन गुना अधिक समय लगता है। ऊंटनी और गाय के दूध से दही बनने की प्रक्रिया का अध्ययन इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप द्वारा भी किया गया। पता चला कि गाय और ऊंटनी दोनों के कैसीन माइसेल गोलाकार ही होते हैं। किंतु गाय के कैसीन माइसेल पूरे क्षेत्र में फैले हुए थे जबकि ऊंटनी के दूध के माइसेल अपेक्षाकृत एक ही जगह पर समूहित रूप में दिखाई देते हैं।ऊंटनी के कैसीन कण तुलनात्मक रूप से साइज़ में बड़े भी थे। दही जमते दूध के इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप में अवलोकन से पता चला कि गाय के दूध में कैसीन माइसेल्स का एकत्रीकरण लगभग 60 से 80 फीसदी तक हुआ।ऊंटनी के दूध में उतने ही समय में बहुत कम माइसेल का एकत्रीकरण दिखाई दिया। एक मत है कि माइसेल के शीघ्र एकत्रीकरण की वजह से ही गाय/भैंस के दूध से दही जम पाता है।

कुछ अन्य वैज्ञानिकों ने दूध की अम्लीयता के स्तर और कैल्शियम आयनों के प्रभाव का अध्ययन भी किया। देखा गया कि ऊंटनी के दूध के अम्लीयता-स्तर और तापमान बढ़ाकर उसमें कैल्शियम आयन मिलाने पर जमने के समय में कमी तो आती है मगर अंतर फिर भी बना रहता है। कैल्शियम आयन के असर को देखते हुए यह सिफारिश की गई है कि दही जमाने के लिए ऊंटनी के दूध में कैल्शियम की अतिरिक्त मात्रा मिलाई जा सकती है। लेकिन यहां यह जोड़ना आवश्यक है कि कैल्शियम लवण मिलाने के साथ-साथ रेनेट का उपयोग तो करना ही होगा और कैल्शियम लवण भी काफी अधिक मात्रा में मिलाने पर ही वांछित परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

वैसे एक मत यह भी बना है कि गाय-भैंस के दूध और ऊंटनी के दूध में उपस्थित कैसीन की माइसेलर संरचना में कुछ अंतर हैं जिनकी वजह से अम्लीयता बढ़ने पर भी ऊंटनी का दूध ठोस रूप में जम नहीं पाता।

संक्षेप में, दुनिया भर की कई प्रयोगशालाओं में किए गए कई प्रयोगों के परिणामों से स्पष्ट है कि ऊंटनी के दूध से दही जमाना असंभव नहीं तो मुश्किल ज़रूर है। वैज्ञानिक यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि क्यों ऊंटनी के दूध से दही नहीं जमता। कोई एक स्पष्ट जवाब तो नहीं मिला है किंतु प्रयोगों के आधार पर कुछ परिकल्पनाएं ज़रूर प्रस्तुत की गई हैं।

जैसे एक परिकल्पना ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स की संरचना पर आधारित है। जैसा कि ऊपर बताया गया था, गाय/भैंस के दूध की तुलना में ऊंटनी के दूध में कैसीन के माइसेल्स बड़े होते हैं। एक मत यह है कि जब बड़े मायसेल्स के समूहीकरण की बारी आती है तो वे आपस में उतनी निकटता से नहीं जुड़ पाते और इसलिए दही ठोस नहीं बन पाता। कुछ प्रयोगों से माइसेल की साइज़ और जमने के समय में सम्बंध देखा गया है।

एक अवलोकन यह है कि दूध में कैसीन की मात्रा का भी दही जमने की क्रिया पर असर होता है। ऊंटनी के दूध में कैसीन की मात्रा 1.9-2.3 प्रतिशत के बीच होती है जबकि गाय के दूध में 2.4-2.8 प्रतिशत। एक संभावना यह है कि कैसीन की कम मात्रा के कारण ऊंटनी के दूध से दही नहीं जम पाता।

कुछ रोचक प्रयोग इस बात को लेकर भी किए गए हैं कि दही जमने की प्रक्रिया पर इस बात का भी असर पड़ता है कि दही जमाने के लिए एंज़ाइम किस प्रजाति के प्राणि से लिए गए हैं। जैसे भेड़ से प्राप्त एंज़ाइम ऊंटनी के दूध को जमाने में ज़्यादा कारगर पाया गया, बनिस्बत गाय से प्राप्त एंज़ाइम के। इन प्रयोगों से दो निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। पहला तो यह है कि अलग-अलग प्रजातियों में इन एंज़ाइम की संरचना व क्रिया में अंतर होता है। लेकिन यह भी हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन ही अलग प्रकार का होता हो या उसकी माइसेलर संरचना भिन्न होती हो।

दही जमने की क्रिया के पहले चरण में कैसीन माइसेल की सतह पर उपस्थित कैसीन के अणुओं का जल-अपघटन होता है। यह देखा गया है कि 80 प्रतिशत अणुओं का जल-अपघटन होने के बाद ही माइसेल्स के एकत्रीकरण और दही जमने की क्रिया शुरू होती है। ऊंटनी के दूध में यह स्थिति आ ही नहीं पाती। इसका कारण यह हो सकता है कि ऊंटनी के दूध में कैसीन की संरचना कुछ ऐसी है कि उनका जल-अपघटन मुश्किल से होता है।

ऊंटनी के दूध से दही जमने में समस्याएं हैं, मगर हम अभी यह नहीं जानते कि इसका ठीक-ठीक कारण क्या है। तब तक ऊंटनी के दूध के अन्य व्यंजनों का लुत्फ उठाने में क्या बुराई है? आजकल ऊंटनी के दूध से बने उत्पादों का पुष्कर और रेगिस्तानी इलाके में जोधपुर, बीकानेर में काफी चलन है। ऊंटनी के दूध से पनीर बनाया जाने लगा है। इसके दूध की चाय और आइस्क्रीम भी आकर्षण के केंद्र हैं। राष्ट्रीय उष्ट्र अनुसंधान केंद्र में इस दूध से आइस्क्रीम, रबड़ी और दही भी बनाए जा रहे हैं। ऊंटनी के दूध में मुल्तानी मिट्टी और नारियल का तेल मिलाकर साबुन भी राजस्थान में मिलते हैं। विदेशी पर्यटक इनका खूब इस्तेमाल करते हैं। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि ऊंटनी का दूध डायबिटीज़ के रोगियों के लिए काफी काम का है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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