घुड़सवारी के प्रथम प्रमाण

नुष्य ने सबसे पहले घुड़सवारी कब की थी? इस सवाल के जवाब कई तरह से खोजने की कोशिश हुई है क्योंकि घोड़े पर सवारी करना मानव इतिहास का एक अहम पड़ाव माना जाता है।

ऐसा माना जाता है कि आजकल के रूस और यूक्रेन के घास के मैदानों (स्टेपीज़) से निकलकर लोग तेज़ी से युरेशिया में फैल गए थे। यह कोई 5300 वर्ष पहले की बात है। जल्दी ही इन यामानाया लोगों के जेनेटिक चिंह मध्य युरोप से लेकर कैस्पियन सागर के लोगों तक में दिखने लगे थे। आजकल के पुरावेत्ता इन लोगों को ‘पूर्वी चरवाहे’ कहते हैं।

लेकिन इनमें घुड़सवारी के कोई लक्षण नज़र नहीं आते थे। इसके अलावा, यामानाया स्थलों पर मवेशियों की हड्डियां भी मिली हैं और मज़बूत गाड़ियों के अवशेष भी। लेकिन घोड़ों की हड्डियां बहुत कम मिली हैं। इस सबके आधार पर पुरावेत्ताओं ने मान लिया था कि लोगों ने घोड़ों पर सवारी 1000 साल से पहले शुरू नहीं की होगी।

अब अमेरिकन एसोसिएशन फॉर एडवांसमेंट ऑफ साइन्सेज़ (AAAS) के सम्मेलन में प्रस्तुत एक अध्ययन में दावा किया गया है कि घुड़सवारी के प्रमाण प्राचीन घोड़ों की हड्डियों में नहीं, बल्कि यामानाया सवारों की हड्डियों में मिले हैं। हेलसिंकी विश्वविद्यालय के वोल्कर हेड का कहना है कि सब लोग घोड़ों को देख रहे थे और हमने मनुष्यों को देखा।

आनुवंशिक व अन्य प्रमाण बताते हैं कि घोड़ों को 3500 ईसा पूर्व में पालतू बना लिया गया था। लेकिन ऐतिहासिक स्रोतों या चित्रों में घुड़सवारी के प्रमाण इसके लगभग 2000 वर्षों बाद मिलने लगते हैं। तो कई पुरावेत्ता मानने लगे थे कि पूर्वी चरवाहे घोड़ों पर सवारी करने की बजाय अपने पशुधन के साथ पैदल ही चलते रहे होंगे।

अब यामानाया फैलाव को समझने के उद्देश्य से हेलसिंकी के मानव वैज्ञानिक मार्टिन ट्रॉटमैन और उनके साथियों ने रोमानिया, हंगरी और बुल्गारिया की कब्रों से खोदे गए डेढ़ सौ से ज़्यादा मानव कंकालों का विश्लेषण किया है। यह क्षेत्र यामानाया लोगों के फैलाव की पूर्वी सीमा पर है। विश्लेषण से पता चला कि ये लोग सुपोषित, तंदुरुस्त और अच्छे कद वाले थे। उनकी हड्डियों के रासायनिक विश्लेषण से यह भी लगता है कि इनका भोजन प्रोटीन प्रचुर था। लेकिन एक दिक्कत थी – इनके कंकालों में विशिष्ट किस्म की क्षतियां और विकृतियां नज़र आईं।

कई कंकालों में रीढ़ की हड्डियां दबी हुई थीं। ऐसा तब हो सकता है जब बैठी स्थिति में व्यक्ति को दचके लग रहे हों। कंकालों की जांघ की हड्डियों में कुछ मोटे स्थान भी नज़र आए जो टांगें मोड़कर लंबे समय तक बैठक का परिणाम हो सकते हैं। और तो और, टूटी हुई कंधे की हड्डियां, पैरों की हड्डियों में फ्रेक्चर और कशेरुकों में दरारें ऐसी चोटों से मेल खाती थीं जो या तो घोड़े द्वारा मारी गई लातों से हो सकती थीं या वैसी हो सकती थीं जो आजकल घुड़सवारों को घोड़ों पर से गिरने के कारण होती हैं।

इन लक्षणों की तुलना उन्होंने बाद के समय के ऐसे कंकालों से की जिन्हें घुड़सवारी के उपकरणों और घोड़ों के साथ दफनाया गया था जो इस बात का परिस्थितिजन्य प्रमाण है कि ये पक्के तौर पर घुड़सवार रहे होंगे। और इन लक्षणों में समानता देखी गई। लेकिन अन्य पुरावेत्ता अभी अपने विचारों को लगाम दे रहे हैं क्योंकि उनका मानना है कि जब तक घोड़ों की हड्डियां न मिल जाएं, जिन पर सवारी के चिंह हों, तब तक निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता।

एक समस्या यह भी है कि पुरावेत्ताओं को यामानाया स्थलों से गाड़ियां, बैल और जुएं तो मिले हैं लेकिन लगाम और ज़ीन जैसे घुड़सवारी के साधन नहीं मिले हैं। तो मामला अभी खुला है कि मनुष्यों ने घुड़सवारी कब शुरू की थी। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/3F742542-E0B2-4E03-8791E5E563C70373_source.jpg?w=590&h=800&B94CD98F-0B87-439B-98333FA3D45E8DC4

हूबहू जुड़वां के फिंगरप्रिंट अलग-अलग क्यों?

फिंगरप्रिंट, नाम तो सुना ही होगा। मनुष्यों और पेड़ों पर चढ़ने वाले कुछ जंतुओं की उंगलियों के सिरों पर जो धारियां पाई जाती हैं, उन्हीं के विन्यास को फिंगरप्रिंट कहते हैं। ये फिंगरप्रिंट किसी चीज़ पर पकड़ को बेहतर बनाते हैं और चीज़ों के चिकने-खुरदरेपन को भांपने में भी मदद करते हैं।

यह तो आम जानकारी है कि किन्हीं भी दो व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट एक समान नहीं होते। लेकिन यह बात शायद बहुत कम लोग जानते हैं कि हूबहू एक-समान जुड़वां व्यक्तियों के फिंगरप्रिंट भी अलग-अलग होते हैं। तो ऐसा क्यों है? सवाल का जवाब इस सवाल में छिपा है कि फिंगरप्रिंट बनते कैसे हैं।

एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि तीन प्रकार के संकेतक अणु और उंगलियों की आकृतियों में और त्वचा की वृद्धि में बारीक अंतर मिलकर इस विशिष्ट पैटर्न को पैदा करते हैं।

फिंगरप्रिंट का निर्माण भ्रूणावस्था में काफी जल्दी (गर्भ ठहरने के करीब तेरहवें हफ्ते में) शुरू हो जाता है। सबसे पहले उंगली के सिरे पर धसानें बनती हैं। ये धसानें ही आगे चलकर तीन मुख्य पैटर्न का रूप ले लेती हैं – चक्र, शंख, और मेहराब।

वैज्ञानिकों ने कई जीन्स की पहचान की है जो पैटर्न निर्माण को प्रभावित करते हैं। लेकिन यह रहस्य ही रहा है कि ये जीन किसी तरह की जैव-रासायनिक क्रियाओं के ज़रिए इस पैटर्न का निर्धारण करते हैं। और अब इसे समझने की कोशिश में एडिनबरा विश्वविद्यालय के डेनिस हेडन ने मनुष्य की भ्रूणीय उंगली के सिरों की कोशिकाओं के केंद्रकों में उपस्थित आरएनए का अनुक्रमण किया है। वे जानना चाहते थे कि विकास के दौरान वहां कौन-से जीन्स अभिव्यक्त होते हैं। इन जीन्स ने तीन संकेत क्रियापथ उजागर किए। संकेत क्रियापथ उन प्रोटीन्स को कहते हैं जो कोशिकाओं के बीच निर्देशों को लाते-ले जाते हैं। ये तीन क्रियापथ उंगली के छोरों पर त्वचा के विकास का निर्धारण करते हैं।

इनमें से दो संकेत क्रियापथों के लिए ज़िम्मेदार जीन्स – WNT और BMP – विकसित हो रहे उंगली के सिरों पर एकांतर पट्टियों में अभिव्यक्त होते हैं। यही पट्टियां अंतत: धसान और उभार में तबदील हो जाती हैं। तीसरा क्रियापथ – EDAR – विकासमान धसानों में बाकी दो के साथ ही अभिव्यक्त होता है।

उपरोक्त जानकारी तो मानव ऊतकों के अध्ययन से मिली थी। गौरतलब है कि ये ऊतक स्वेच्छा से गर्भपात किए गए भ्रूणों से प्राप्त किए गए थे। लेकिन वैज्ञानिक इस जानकारी की पुष्टि किसी जंतु मॉडल पर करना चाहते थे।

चूहों में भी उंगली के छोरों पर धारियों का सरल पैटर्न पाया जाता है। जब वैज्ञानिकों ने संकेत क्रियापथों का कृत्रिम रूप से दमन किया तो पता चला कि WNT और BMP क्रियापथ परस्पर विपरीत ढंग से काम करते हैं। WNT क्रियापथ कोशिका वृद्धि को बढ़ावा देता है जिसके चलते त्वचा की ऊपरी परत में उभार बनते हैं। दूसरी ओर, BMP कोशिका वृद्धि को रोकता है और इसकी वजह से नालियां बन जाती हैं। तो तीसरा क्रियापथ EDAR क्या करता है? यह क्रियापथ उभारों की साइज़ और उनके बीच की दूरी का निर्धारण करता है।

जब शोधकर्ताओं ने WNT क्रियापथ का दमन कर दिया तो उन चूहों की उंगलियों पर उभार बने ही नहीं जबकि BMP क्रियापथ को दबाने से उभार अधिक चौड़े बने। और जब EDAR को ठप कर दिया गया तो उभार व नालियां तो बनी लेकिन पट्टियों के रूप में नहीं बल्कि थेगलों के रूप में।

तो सवाल वहीं का वहीं है। हूबहू समान जुड़वां में तो जीन्स एक जैसे होते हैं। फिर पैटर्न अलग-अलग क्यों। इस संदर्भ में ट्यूरिंग पैटर्न को समझना ज़रूरी है। उक्त शोध के प्रमुख हेडन का कहना है कि परस्पर व्याप्त (ओवरलैपिंग), अलग-अलग रासायनिक क्रियाएं पेचीदा पैटर्न पैदा करती हैं। इन्हें ट्यूरिग पैटर्न कहते हैं – ऐसे पैटर्न प्रकृति में कई जगह देखने को मिलते हैं। जैसे बाघ के फर पर अलग-अलग रंग की पट्टियां, चीतों के शरीर पर धब्बे वगैरह। फिंगरप्रिंट के पैटर्न भी ट्यूरिंग पैटर्न हैं। गौरतलब है कि इन पैटर्न्स के बनने की क्रियाविधि का प्रस्ताव मशहूर कंप्यूटर वैज्ञानिक एलन ट्यूरिंग द्वारा दिया गया था।

लेकिन फिंगरप्रिंट में एक पेंच और है। हेडन की टीम ने पाया कि धारियों के विशिष्ट पैटर्न उंगलियों के आकारों में बारीक अंतरों पर भी निर्भर करते हैं। मानव भ्रूण के उतकों में उन्होंने देखा कि प्राथमिक उभार तीन स्थलों पर बनना शुरू होते हैं। भ्रूणीय उंगली की उभरी हुई मुलायम गद्दी के केंद्र में, उंगली के नाखून के नीचे वाले सिरे पर और उंगली के जोड़ पर। धारियां इन तीन स्थलों से बाहर की ओर तरंगों के रूप में फैलती हैं। हर धारी अपने से अगली धारी की स्थिति निर्धारित कर देती है।

आगे सब कुछ उंगली की रचना पर निर्भर करता है। यदि गद्दियां चौड़ी और सममित हैं और धारियां वहां पहले बनने लगें तो चक्र प्रकट होता है। लेकिन यदि गद्दियां लंबी और असममित हों, तो शंख बनेगा। तीसरी स्थिति यह हो सकती है कि गद्दी पर धारियां न बनें या देर से बनना शुरू हों तो नाखून वाले सिरे और जोड़ के किनारे से धारियां बढ़ते-बढ़ते गद्दी के मध्य में आकर मिलेंगी और मेहराब का निर्माण हो जाएगा।

फिंगरप्रिंट निर्माण का अध्ययन करते-करते शोधकर्ताओं ने पाया कि यही तीन रासायनिक संकेत – WNT, BMP, EDAR – शरीर के शेष भागों की त्वचा पर विभिन्न रचनाएं बनाने के लिए ज़िम्मेदार हैं, जिनमें बाल वगैरह भी शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://iet-content.s3.ap-southeast-1.amazonaws.com/Daily-Edition/Fact/-/HVad783

पुरातात्विक अपराध विज्ञान

गभग 5000 साल पहले स्पेन के टैरागोना की एक गुफा में किसी ने चुपके से एक वृद्ध व्यक्ति के सिर पर पीछे से एक भोथरे हथियार से वार किया था, संभवतः उसकी मृत्यु वहीं हो गई थी। पुरातात्विक रिकॉर्ड में ऐसे कई हमले दर्ज हैं, फिर भी शोधकर्ताओं को यह पता करने में मशक्कत करनी पड़ती है कि वास्तव में क्या हुआ था। अब एक नए अध्ययन की बदौलत शोधकर्ता यह सब जानने के बहुत करीब पहुंच गए हैं।

नवीन अध्ययन में वैज्ञानिकों ने अनेक नकली खोपड़ियां पर अलग-अलग हथियारों से वार किया और उनका अवलोकन किया। शुरुआत उन्होंने पुराने समय के दो औज़ारों, कुल्हाड़ी और बसूला, से की। बसूला हथौड़ा और कुल्हाड़ी का मिला-जुला सा औज़ार है। दोनों नवपाषाण युग (10,000 से 4500 ईसा पूर्व तक) के लोकप्रिय औज़ार थे, इसी समय मानव संपर्क बढ़ा था और हिंसा भी। शोधकर्ताओं ने पॉलीयुरेथेन और रबर ‘त्वचा’ से कृत्रिम खोपड़ी बनाई और मस्तिष्क के नरम ऊतक के एहसास के लिए उसमें जिलेटिन से भर दिया। फिर, उन पर जानलेवा वार करने के काम को अंजाम दिया!

जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित इस रिपोर्ट के खूनी परिणाम दर्शाते हैं कि दोनों हथियारों ने अलग-अलग तरह के फ्रैक्चर पैटर्न दिए। उदाहरण के लिए, कुल्हाड़ी के वार ने बसूले की तुलना में अधिक सममित, अंडाकार फ्रैक्चर बनाया। फ्रैक्चर ने हमलावर और पीड़ित के बीच डील-डौल के अंतर के भी संकेत दिए; उदाहरण के लिए ‘मस्तिष्क’ तक भेदने वाला वार संकेत देता है कि हमलावर कद में मृतक से ऊंचा था। तो इससे लगता है कि वैज्ञानिकों ने इस प्राचीन स्पेनिश व्यक्ति की मृत्यु के रहस्य को सुलझा लिया है: ऐसा लगता है कि उसे किसी बसूले से मारा गया था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.news18.com/ibnlive/uploads/2023/02/news18-17-10-16768852783×2.png?im=Resize,width=360,aspect=fit,type=normal?im=Resize,width=320,aspect=fit,type=normal

यूएसए में बंदूक हिंसा और बंदूक नियंत्रण नीतियां

यूएसए में बंदूक सम्बंधी हिंसा का स्तर काफी अधिक है। वहां बंदूक नियंत्रण की नीतियों के कई अध्ययन भी हुए हैं। हाल ही में ऐसे 150 अध्ययनों के विश्लेषण का निष्कर्ष है कि बच्चों को बंदूक जैसे आग्नेयास्त्रों से दूर रखना बंदूकी हिंसा की रोकथाम में काफी कारगर है जबकि उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए छिपाकर हथियार रखने की अनुमति देना हिंसा को बढ़ावा देता है।

इस रिपोर्ट में कहा गया है कि यूएस में निजी मिल्कियत में बंदूकों की संख्या 26.5 करोड़ से 39.3 करोड़ के बीच है। और हर साल 45,000 से ज़्यादा अमरीकी लोग बंदूक द्वारा जानबूझकर या गैर-इरादतन हिंसा के कारण जान गंवाते हैं। इनमें से लगभग आधे मामले खुदकुशी के होते हैं। इस हिंसा के पैटर्न को समझने के लिए 18 अलग-अलग क्षेत्रों की बंदूक नियंत्रण नीति पर किए गए 152 अध्ययनों की समीक्षा की गई और विभिन्न नीतियों के परिणामों को देखा गया – जैसे घाव तथा मृत्यु, मास शूटिंग, और बंदूक का सुरक्षा के लिए उपयोग वगैरह।

यूएस के कुछ प्रांतों में नीति है – स्टैण्ड-योर-ग्राउण्ड। इसका मतलब होता है कि यदि किसी को पर्याप्त यकीन है कि उसे कतिपय अपराध के खिलाफ स्वयं की रक्षा करना ज़रूरी है, तो वह जानलेवा शक्ति का उपयोग कर सकता है। अध्ययन में पाया गया कि यह नीति बंदूकी हत्याओं की उच्च दर से मेल खाती है। छिपाकर आग्नेयास्त्र रखने की अनुमति देने वाले कानून भी बंदूक-सम्बंधी हिंसा में वृद्धि से जुड़े पाए गए।

ये निष्कर्ष 2020 की रैण्ड कॉर्पोरेशन की रिपोर्ट से काफी अलग हैं जिसका निष्कर्ष था कि छिपाकर रखे जाने वाले हथियार सम्बंधी कानूनों और मौतों के बीच सम्बंध स्पष्ट नहीं है। रैण्ड के व्यवहार-वैज्ञानिक एण्ड्र्यू मोरेल का मत है कि यह निष्कर्ष कानून व नीति निर्माताओं के लिए चुनौती भी है क्योंकि जिन प्रांतों में प्रतिबंधात्मक कानूनों को अदालतों में असंवैधानिक करार दिया गया था वहां आग्नेयास्त्र से होने वाली हत्याओं और कुल हत्याओं में वृद्धि होने की आशंका है। या ये प्रांत हथियार लेकर घूमने सम्बंधी इन समस्याओं का कोई और उपाय निकालेंगे। जैसे ये प्रांत कुछ बंदूक-मुक्त क्षेत्र घोषित कर सकते हैं।

शोधकर्ताओं को इस बात के प्रमाण मिले हैं कि बच्चों की आग्नेयास्त्रों तक पहुंच रोकने वाले कानून – जिन्हें सेफ स्टोरेज कानून भी कहा जाता है – युवाओं में बंदूकों से होने वाली क्षति को कम करते हैं। इन कानूनों के तहत यह शर्त होती है कि बंदूकों को तालों में बंद करके, या गोलियां निकालकर, और गोलियों से अलग रखा जाए। ऐसे कानूनों से युवा लोगों में खुदकुशी व हत्याएं कम होती हैं।

यह निष्कर्ष खास तौर से युवाओं में खुदकुशी की घटनाएं रोकने के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है क्योंकि खुदकुशी के अधिकांश मामलों में बंदूक का उपयोग देखा गया है। कारण यह बताया जाता है कि खुदकुशी करने का आवेग क्षणिक होता है और उस समय यदि बंदूक आसपास न हो तो बात टल सकती है। अन्यथा व्यक्ति को दूसरा मौका नहीं मिलता।

अलबत्ता, रिपोर्ट इस बारे में कोई निश्चयात्मक दावा नहीं करती कि मास शूटिंग और कानून का कोई सम्बंध है। लेकिन इस अध्ययन से एक बात साफ हुई है कि बंदूक की उपलब्धता और सुगमता का सम्बंध हिंसा से है। रैण्ड कॉर्पोरेशन इस हिंसा के अन्य पहलुओं पर भी अध्ययन करना चाहता है ताकि बंदूक संस्कृति पर लगाम लगाई जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg6097/abs/_20230110_0n_rand_gun_study_gun_safety.jpg

माया कैलेंडर शायद 3000 साल से भी पुराना है

कैलेंडर का निर्माण लगभग सभी प्राचीन सभ्यताओं ने किया है। कारण स्पष्ट है कि दिन और वर्ष का ठीक-ठाक हिसाब-किताब रखना कृषि, पशुपालन, यात्राओं वगैरह की दृष्टि से अति-महत्वपूर्ण रहा है। इसी सिलसिले में वैज्ञानिकों को यह पता चला है कि प्राचीन माया सभ्यता में कैलेंडर का निर्माण कम से कम 3000 साल पहले किया गया था।

वैज्ञानिकों को इस बात के प्रमाण मिले हैं कि माया लोगों का एक समूह (माया किचे) लगभग 1100 ईसा पूर्व से समय का हिसाब-किताब रखता आया है। कैलेंडर को वे लोग चोल्किज (यानी दिनों का क्रम) कहते थे और उनका वर्ष 260 दिनों का होता था। यह माया सभ्यता के मेक्सिको व मध्य अमेरिकी इलाके में ही मिला है। प्रमाण बताते हैं कि समय की गणना 13 संख्याओं और 20 प्रतीकों के आधार पर की जाती थी और ये एक निश्चित क्रम में आते थे (जैसे इस कालगणना में 6 जनवरी 2023 ‘6 रैबिट’ होगा)। अब यह ज्ञात हो चुका है कि कैलेंडर के दिन तारों, इमारतों के स्थापत्य और कुदरती लैंडमार्क्स के संरेखन से मेल खाते थे।

ऐसा माना जा रहा है कि इस तरह की कालगणना से खेती-बाड़ी, धार्मिक अनुष्ठानों, राजनीति वगैरह में मार्गदर्शन मिलता होगा। वैसे माया लोग एक अन्य कैलेंडर (हाब) का उपयोग भी करते थे जिसमें वर्ष 365 दिन का था और यह सौर चक्र से जुड़ा था।

पूर्व में इस कैलेंडर का प्रमाण एक भित्ती चित्र (म्यूरल) के रूप में मिला था। यह म्यूरल ग्वाटेमाला में मिला था और इसका समय करीब 300 ईसा पूर्व निर्धारित हुआ था। लेकिन दिक्कत यह है कि ऐसे लिखित रिकॉर्ड मुश्किल से मिलते हैं क्योंकि माया लोग जिन सामग्रियों का उपयोग करते थे वे विघटनशील हुआ करती थीं।

इसी रिकॉर्ड को पूरा करने की दृष्टि से स्लोवेनिया के इंस्टीट्यूट ऑफ एंथ्रोपोलॉजिकल एंड स्पेशियल स्टडीज़ के इवान स्प्राक ने लिडार नामक एक तकनीक का सहारा लिया जिसकी मदद से घने जंगलों में ओझल प्राचीन संरचनाओं को उजागर किया जा सकता है।

इससे 2 वर्ष पहले एरिज़ोना विश्वविद्यालय के ताकेशी इनोमाटा ने मेक्सिको खाड़ी के तट का लिडार सर्वेक्षण किया था जिसमें लगभग 500 प्राचीन खंडहरों का पता चला था। स्प्राक और इनोमाटा ने मिलकर इनमें से 415 संकुलों का अध्ययन यह जानने के लिए किया कि किस तरह से इनकी सीध सूर्य, चंद्रमा, शुक्र व अन्य आकाशीय पिंडों से बैठती है।

पता चला कि अधिकांश संकुल पूर्व-पश्चिम सीध में थे और 90 प्रतिशत संकुलों में ऐसे स्थापत्य सम्बंधी लक्षण थे जो विशिष्ट तारीखों पर सूर्योदय की सीध में होते थे। अधिकांशत: इस तरह के सूर्योदय वर्तमान कैलेंडर के 11 फरवरी और 29 अक्टूबर के थे। और इनके बीच 265 दिनों का अंतर है। इन संकुलों में सबसे प्राचीन करीब 1100 ईसा पूर्व का है। इससे लगता है कि 265 दिन के वर्ष वाला कैलेंडर कम से कम इतना पुराना तो है।

अन्य स्मारकों में ऐसे सूर्योदयों के बीच अंतर 130 दिनों का है जो आधी कैलेंडर अवधि के बराबर है। कुछ स्मारकों में सूर्योदयों के बीच 13 या 20 दिन के गुणज का अंतर है। इससे पता चलता है कि कैलेंडर प्रणाली में 13 संख्याओं और 20 प्रतीकों का उपयोग होता था और ये दो अयनांतों तथा दो विषुव (समपातों) से मेल खाते थे। कुछ संकुलों का मिलान शुक्र और चंद्र के चक्र से भी देखा गया। वैसे, कई संकुलों में ऐसा कोई तालमेल नज़र नहीं आया।

अलबत्ता, ऐसा माना जा रहा है कि इतने बड़े नमूने के आधार पर निकाले गए निष्कर्ष काफी सटीक हैं। एक बात यह भी कही गई है कि इस अध्ययन में कैलेंडर का जो सबसे पुराना प्रमाण मिला है वह उस समय का है जब ये लोग शिकारी-संग्रहकर्ता जीवन शैली से निकलकर खेती की शुरुआत कर रहे थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://tech.icrewplay.com/wp-content/uploads/2023/01/istock-545593812.jpg

निएंडरथल पके खाने के शौकीन थे

गर आप सोचते हैं कि निएंडरथल मानव कच्चा मांस और फल-बेरियां ही खाते थे, तो हालिया अध्ययन आपको फिर से सोचने को मजबूर कर सकता है। उत्तरी इराक की एक गुफा में विश्व के सबसे प्राचीन पके हुए भोजन के जले हुए अवशेष मिले हैं, जिनके विश्लेषण से लगता है कि निएंडरथल मानव खाने के शौकीन थे।

लीवरपूल जॉन मूर्स युनिवर्सिटी के सांस्कृतिक जीवाश्म विज्ञानी क्रिस हंट का कहना है कि ये नतीजे निएंडरथल मानवों में खाना पकाने के जटिल कार्य और खाद्य संस्कृति का पहला ठोस संकेत हैं।

दरअसल शोधकर्ता बगदाद से आठ सौ किलोमीटर उत्तर में निएंडरथल खुदाई स्थल की एक गुफा शनिदार गुफा की खुदाई कर रहे थे। खुदाई में उन्हें गुफा में बने एक चूल्हे में जले हुए भोजन के अवशेष मिले, जो अब तक पाए गए पके भोजन के अवशेष में से सबसे प्राचीन (लगभग 70,000 साल पुराने) थे।

शोधकर्ताओं ने पास की गुफाओं से इकट्ठा किए गए बीजों से इन व्यंजनों में से एक व्यंजन को प्रयोगशाला में बनाने की कोशिश की। यह रोटी जैसी, पिज़्ज़ा के बेस सरीखी चपटी थी जो वास्तव में बहुत स्वादिष्ट थी।

टीम ने दक्षिणी यूनान में फ्रैंचथी गुफा, जिनमें लगभग 12,000 साल पहले आधुनिक मनुष्य रहते थे, से मिले प्राचीन जले हुए भोजन के अवशेषों का भी स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से विश्लेषण किया।

दोनों जानकारियों को साथ में देखने से पता चलता है कि पाषाणयुगीन आहार में विविधता थी और प्रागैतिहासिक पाक कला काफी जटिल थी, जिसमें खाना पकाने के लिए कई चरण की तैयारियां शामिल होती थीं।

शोधकर्ताओं को पहली बार दोनों स्थलों पर निएंडरथल और शुरुआती आधुनिक मनुष्यों (होमो सेपिएन्स) द्वारा दाल भिगोने और दलहन दलने के साक्ष्य मिले हैं।

शोधकर्ताओं को भोजन में अलग-अलग तरह के बीजों को मिलाकर बनाने के प्रमाण भी मिले हैं। उनका कहना है कि ये लोग कुछ खास पौधों के ज़ायके को प्राथमिकता देते थे।

एंटीक्विटी में प्रकाशित यह शोध बताता है कि शुरुआती आधुनिक मनुष्य और निएंडरथल दोनों ही मांस के अलावा वनस्पतियां भी खाते थे। जंगली फलों और घास को अक्सर मसूर की दाल और जंगली सरसों के साथ पकाया जाता था। और चूंकि निएंडरथल लोगों के पास बर्तन नहीं थे इसलिए अनुमान है कि वे बीजों को किसी जानवर की खाल में बांधकर भिगोते होंगे।

हालांकि, ऐसा लगता है कि आधुनिक रसोइयों के विपरीत निएंडरथल बीजों का बाहरी आवरण नहीं हटाते थे। छिलका हटाने से कड़वापन खत्म हो जाता है। लगता है कि वे कड़वेपन को कम तो करना चाहते थे लेकिन दालों के प्राकृतिक स्वाद को खत्म भी नहीं करना चाहते थे।

अनुमान है कि वे स्थानीय पत्थरों की मदद से बीजों को कूटते या दलते होंगे इसलिए दालों में थोड़ी किरकिरी आ जाती होगी। और शायद इसलिए निएंडरथल मनुयों के दांत इतनी खराब स्थिति में थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/c7365779a611cb09d95a304a9065badc35ba8819/0_263_3500_2100/master/3500.jpg?width=700&quality=85&auto=format&fit=max&s=1eaa6000a475260333f842ede85267ad

प्राचीन मनुष्यों से मिला प्रतिरक्षा का उपहार

.

ब आधुनिक मनुष्य पहली बार अफ्रीका से निकलकर दक्षिण-पश्चिमी प्रशांत के उष्णकटिबंधीय द्वीपों में गए तो उनका सामना नए लोगों और नए रोगजनकों से हुआ। लेकिन जब उन्होंने स्थानीय लोगों, डेनिसोवन्स, के साथ संतानोत्पत्ति की तो उनकी संतानों में कुछ प्रतिरक्षा जीन स्थानांतरित हुए जिन्होंने उन्हें स्थानीय बीमारियों से बचने में मदद की। अब एक नया अध्ययन बताता है कि इनमें से कुछ जीन्स आज भी पपुआ न्यू गिनी के निवासियों के जीनोम में मौजूद हैं।

वैज्ञानिक यह तो भली-भांति जानते थे कि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया में रहने वाले लोगों को 5 प्रतिशत तक डीएनए डेनिसोवन लोगों से विरासत में मिले हैं। डेनीसोवन लोग लगभग दो लाख साल पहले एशिया में आए थे और ये निएंडरथल मनुष्य के सम्बंधी थे। वैज्ञानिकों को लगता है कि इन जीन्स ने अतीत में आधुनिक मनुष्यों को स्थानीय बीमारियों से लड़ने में मदद करके फायदा पहुंचाया होगा। लेकिन सवाल था कि ये डीएनए अब भी कैसे मनुष्यों के डील-डौल, कार्यिकी वगैरह में बदलाव लाते हैं। और चूंकि पपुआ न्यू गिनी और मेलानेशिया के वर्तमान लोगों के डीएनए का विश्लेषण बहुत कम हुआ है इसलिए इस सवाल का जवाब मुश्किल था।

इस अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मेलबर्न की आइरीन गेलेगो रोमेरो और उनके साथियों ने एक अन्य अध्ययन का डैटा उपयोग करके इस मुश्किल को दूर किया है। उस अध्ययन में पपुआ न्यू गिनी के 56 लोगों के आनुवंशिक डैटा का विश्लेषण किया गया था। इन लोगों के जीनोम की तुलना डेनिसोवन और निएंडरथल डीएनए के साथ करने पर देखा गया कि डेनिसोवन लोगों से पपुआ लोगों को 82,000 ऐसे जीन संस्करण मिले थे जो जेनेटिक कोड में सिर्फ एक क्षार में बदलाव से पैदा होते हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने आगे का अध्ययन प्रतिरक्षा से सम्बंधित जीन संस्करणों पर केंद्रित किया जो अपने निकट उपस्थित जीन के प्रोटीन का उत्पादन बढ़ा सकते थे, या इसका कार्य ठप या धीमा कर सकते थे। यह नियंत्रण विशिष्ट रोगजनकों के प्रति प्रतिरक्षा प्रणाली को अनुकूलित होने या ढलने में मदद कर सकता है।

शोधकर्ताओं को पपुआ न्यू गिनी के लोगों में कई ऐसे डेनिसोवन जीन संस्करण मिले जो उन जीन्स के पास स्थित थे जो फ्लू और चिकनगुनिया जैसे रोगजनकों के प्रति मानव प्रतिरक्षा को प्रभावित करते हैं। इसके बाद उन्होंने विशेष रूप से दो जीन्स, OAS2 और OAS3, द्वारा उत्पादित प्रोटीन की अभिव्यक्ति से जुड़े आठ डेनिसोवन जीन संस्करण के कार्य का परीक्षण किया।

देखा गया कि इनमें से दो डेनिसोवन जीन संस्करण ने प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा साइटोकाइन्स का उत्पादन कम कर दिया था जिससे शोथ (सूजन) कम हो गई थी। इस तरह शोथ प्रतिक्रिया को शांत करने से पपुआ लोगों को इस क्षेत्र के नए संक्रमणों से निपटने में मदद मिली होगी।

प्लॉस जेनेटिक्स पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि इन प्रयोगों से पता चलता है कि डेनिसोवन जीन संस्करण प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया में छोटे-मोटे बदलाव कर इसे पर्यावरण के प्रति अनुकूलित बना सकते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि उष्णकटिबंधीय इलाकों में, जहां संक्रमण का अधिक खतरा होता है, वहां प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया को पूरी तरह हटाना तो उचित नहीं होगा लेकिन उसकी उग्रता को कम करना कारगर हो सकता है।

ये नतीजे वर्तमान युरोपीय लोगों में निएंडरथल जीन संस्करण की भूमिका पर हुए एक अन्य अध्ययन के नतीजों से मेल खाते हैं। दोनों ही अध्ययन दर्शाते हैं कि कैसे किसी क्षेत्र में नए आने वाले मनुष्यों का प्राचीन मनुष्यों के साथ मेल-मिलाप उनमें लाभकारी जीन प्राप्त होने का एक त्वरित तरीका प्रदान करता है। अध्ययन बताता है कि इस तरह जीन का लेन-देन मनुष्यों को प्रतिरक्षा चुनौतियों के प्रति अनुकूलित होने का एक महत्वपूर्ण ज़रिया था।

उम्मीद है कि आगे के अध्ययनों में यह पता चल सकेगा कि क्या डेनिसोवन जीन संस्करण पपुआ लोगों को किसी विशिष्ट रोग से बचने या उबरने में बेहतर मदद करते हैं?

सार रूप में, हज़ारों सालों पहले दो अलग तरह के मनुष्यों का मेल-मिलाप अब भी वर्तमान मनुष्यों के जीवन को प्रभावित कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg2133/abs/_20221208_on_papuans.jpg

पहला निएंडरथल कुनबा खोजा गया

हाल ही में शोधकर्ताओं को दक्षिण साइबेरिया की चारजिस्काया गुफा में निएंडरथल परिवार के साक्ष्य मिले हैं। इस परिवार में एक पिता, उसकी किशोर बेटी और दो अन्य दूर के सम्बंधियों की पहचान की गई है। इसके साथ ही गुफा से 7 अन्य व्यक्तियों की भी पहचान की गई है जो एक अन्य कबीले के बताए गए हैं। इनमें से भी दो शायद कज़िन्स हैं। गौरतलब है कि निएंडरथल (होमो निएडरथलेंसिस) पुरामानव थे जो लगभग 40 हज़ार वर्ष पूर्व तक धरती पर विद्यमान थे। गुफा के नज़दीक के एक अन्य स्थल से दो और परिवारों की पहचान के साथ यह निएंडरथल प्रजाति का अब तक का सबसे बड़ा जीनोम भंडार है।

अल्ताई पहाड़ों की तलहट और चार्याश नदी के तट पर स्थित चारजिस्काया गुफा मशहूर डेनिसोवा गुफा से 100 किलोमीटर पश्चिम में है। वास्तव में डेनिसोवा गुफा एक पुरातात्विक खज़ाना है जिसमें मनुष्य, निएंडरथल और डेनिसोवा और कम से कम एक निएंडरथल-डेनिसोवा संकर के लोग 3 लाख वर्षों के अंतराल में अलग-अलग समय में साथ रहे हैं। अलबत्ता, चारजिस्काया में अब तक मात्र निएंडरथल अवशेष ही मिले हैं।

गौरतलब है कि 2020 में चारजिस्काया की एक निएंडरथल स्त्री के जीनोम अनुक्रम से पता चला था कि वह डेनिसोवा गुफा में रहने वाली आबादी से काफी अलग थी। गुफा में रहने वाले लोगों का अधिक गहराई से अध्ययन करने के लिए मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिक लौरिट्स स्कोव और बेंजामिन पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने चारजिस्काया और इसके नज़दीक ओक्लाडनिकोव गुफा से 17 अन्य पुरा-मानव अवशेषों से डीएनए प्राप्त किए।

इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का मत है कि चारजिस्काया के निवासी उनसे हज़ारों साल पहले डेनिसोवा गुफा में रहने वालों की अपेक्षा युरोप में रहने वाले निएंडरथल से ज़्यादा निकटता से सम्बंधित थे।

चारजिस्काया अवशेषों से प्राप्त जीनोम की तुलना करने पर स्कोव को काफी आश्चर्य हुआ। उन्होंने पाया कि एक वयस्क पुरुष और एक किशोरी का डीएनए 50 प्रतिशत एक-सा है। यह स्थिति तभी संभव है जब उनका सम्बंध भाई-बहन का हो या फिर पिता-पुत्री का। इस सम्बंध को समझने के लिए शोधकर्ताओं ने माइटोकॉण्ड्रिया के डीएनए की जांच की। माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए व्यक्ति को अपनी मां से मिलता है। इसका मतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया का डीएनए भाई-भाई, भाई-बहन, मां-बेटी में तो एक समान होगा लेकिन पिता और उसकी संतान में नहीं। इस तुलना से समझ में आया कि ये दोनों पिता-पुत्री थे।

इसके बाद और अधिक आनुवंशिक सामग्री की जांच करने पर शोधकर्ताओं को परिवार के अधिक सदस्यों का पता चला। उनको पिता में दो प्रकार के माइटोकॉण्ड्रिया डीएनए प्राप्त हुए। इस विशेषता को हेटरोप्लाज़्मी कहा जाता है। यह विशेषता गुफा के दो अन्य व्यस्क पुरुषों में भी देखने को मिली जो संकेत देता है कि ये सब एक ही मातृ वंश से थे। गौरतलब है कि हेटरोप्लाज़्मी कुछ पीढ़ियों बाद गायब हो जाती है इसलिए यह कहना उचित होगा कि ये तीनों एक ही समय में उपस्थित रहे होंगे। टीम ने निएंडरथल परिवार के अन्य सदस्यों में एक पुरुष और एक महिला की भी पहचान की और लगता है कि ये संभवत: कज़िन्स थे।       

इतनी अधिक मात्रा में निएंडरथल जीनोम से शोधकर्ताओं को निएंडरथल जीवन के कई पहलुओं को देखने का मौका मिला। चारजिस्काया से प्राप्त निएंडरथल के जीनोम में डीएनए की मातृ और पितृ प्रतियों में विविधता काफी कम थी। इससे संकेत मिलता है कि प्रजनन में संलग्न वयस्कों की आबादी काफी छोटी थी। शोधकर्ताओं ने इसी तरह का पैटर्न पहाड़ी गोरिल्ला और अन्य संकटग्रस्त प्रजातियों में भी देखा है जो आम तौर पर छोटे समूहों में रहते हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि Y-गुणसूत्र (जो नर से मिलता है) की तुलना में माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए (जो मादा से मिलता है) में विविधता बहुत अधिक थी। इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है कि विभिन्न निएंडरथल समुदायों से महिलाओं का निरंतर आना-जाना रहा था। टीम के मॉडल से पता चलता है कि आनुवंशिक विविधता का पैटर्न दर्शाता है कि समुदाय की आधे से ज़्यादा महिलाओं का जन्म कहीं और हुआ होगा।

स्पेन स्थित नेचुरल साइंस म्यूज़ियम के निर्देशक चार्ल्स लालुएज़ा फॉक्स का विचार है कि यह सामाजिक संरचना विभिन्न निएंडरथल आबादियों में आम रही होगी। एक दशक पूर्व उनकी टीम ने स्पेन की एक गुफा में 12 निएंडरथल के विश्लेषण में पाया था कि महिलाओं के माइटोकॉण्ड्रियल डीएनए में पुरुषों की अपेक्षा अधिक विविधता थी जो दर्शाता है कि महिलाएं अक्सर अपने समुदायों को छोड़ दिया करती थीं।

चारजिस्काया गुफा में निएंडरथल अवशेषों के अलावा बाइसन और घोड़े के अवशेष भी मिले हैं। स्कोव के अनुसार यह स्थल इन जानवरों के मौसमी प्रवास के दौरान शिकार कैंप के रूप में काम करती थी। इस दौरान समुदायों को मेल-मिलाप के अवसर मिला करते होंगे।

अचरज की बात यह है कि जीवाश्म अवशेषों में मिले डीएनए के विश्लेषण से इतने गहरे निष्कर्ष निकाले जा सकते हैं। और अभी इस गुफा का केवल एक-चौथाई से भी कम हिस्सा टटोला गया है। उम्मीद है कि भविष्य के अध्ययन हमारी समझ में और इजाफा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcTHOJQ5DSQOne-AyxVdmTZX25TSwPGJsmMQHg&usqp=CAU

नींद के महत्व की उपेक्षा

नींद हमारे जीवन का अहम हिस्सा है। नींद ठीक से न हो तो दिन भर सुस्ती रहती है। लेकिन नींद और इससे जुड़े विकार चिकित्सा अध्ययनों में सबसे उपेक्षित रहे हैं। स्नातक स्तर की पढ़ाई में इस विषय पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, नींद अनुसंधान के क्षेत्र में वित्त या अनुदान की भी कमी है। इस उपेक्षा का कारण नींद सम्बंधी विकारों की विविधता  है – जैसे स्लीप एप्निया (जो कान, नाक व गला विशेषज्ञ या हृदय रोग विशेषज्ञ के दायरे में आते हैं), या रेस्टलेस लेग सिंड्रोम (न्यूरोलॉजिस्ट या प्राथमिक चिकित्सक)। इसके कारणों की समझ में कमी और उपचार का अभाव भी इस समस्या को उपेक्षित बनाए रखते हैं।

हालांकि, अब परिस्थितियां बदलने लगी हैं। और इस बदलाव में कुछ योगदान दैनिक शारीरिक लय के आनुवंशिक आधार पर काम करने वाले नोबेल पुरस्कार विजेताओं माइकल रॉसबैश, जेफरी हॉल और माइकल यंग का रहा है। उनके काम की बदौलत आज हम यह जानते हैं कि मनुष्यों में एक आंतरिक आणविक घड़ी होती है – यह समय का हिसाब रखने वाले जीन और सम्बंधित प्रोटीन के एक नेटवर्क के रूप में होती है। ये जीन बाइपोलर डिसऑर्डर, अवसाद (डिप्रेशन) और अन्य मूड डिसऑर्डर से भी सम्बंधित हैं। कुछ निद्रा विकार पार्किंसंस रोग, लेवी बॉडी डिमेंशिया और मल्टीपल सिस्टम एट्रोफी के संकेतक के रूप में पाए गए हैं। इसके अलावा, पोर्टेबल निगरानी उपकरणों के विकास ने चिकित्सकों को सहज माहौल में, यहां तक कि घर में भी, नींद का निरीक्षण करने में सक्षम बनाया है। और, नार्कोलेप्सी की कार्यिकीय व्याख्या ने अनिद्रा की समस्या के लिए नई दवाओं का विकास संभव किया है। नार्कोलेप्सी उन न्यूरॉन्स की क्षति के कारण होती है जो जागृत अवस्था को उकसाने वाले ऑरेक्सिन नामक न्यूरोपैप्टाइड का स्राव करते हैं।

इसी कड़ी में, दी लैंसेट और दी लैंसेट न्यूरोलॉजी में चार शोध समीक्षाएं प्रकाशित हुई हैं जो विभिन्न निद्रा विकारों और नींद के मानवविज्ञान की व्यवस्थित तरीके से पड़ताल करती हैं। ये चार समीक्षाएं नींद के बारे में चार मुख्य बातें बताती हैं।

पहली, कि नींद सम्बंधी विकार एक आम स्वास्थ्य समस्या होने के बावजूद इन्हें बहुत कम तरजीह मिली है। नींद सम्बंधी विकार पीड़ित और उसके साथ सोने वालों के लिए बड़ी परेशानी का सबब बनते हैं, और जन-स्वास्थ्य और आर्थिक खुशहाली पर दूरगामी प्रभाव डालते हैं। उदाहरण के लिए, एक तिहाई वयस्क अनिद्रा की समस्या के शिकार होते हैं। दिन के अधिकतर समय उनींदापन उत्पादकता और कार्यस्थल पर सुरक्षा में कमी ला सकता है। इसके चलते बच्चों की पढ़ाई प्रभावित होती है और एक तिहाई तक सड़क हादसे नींद की कमी के कारण होते हैं।

दूसरी, कि प्रभावी उपचारों की कमी है। अनिद्रा के लिए तो आसानी से दवाएं लिख दी जाती हैं जैसे बेंजोडायज़ेपाइन्स और तथाकथित ज़ेड-औषधियां यानी ज़ोपिक्लोन, एस्ज़ोपिक्लोन और ज़ेलेप्लॉन। हालांकि अनिद्रा के उपचार के लिए गैर-औषधीय तरीकों, जैसे संज्ञानात्मक व्यवहार थेरेपी प्रथम उपचार माने जाते हैं, लेकिन ये उपचार हर जगह उपलब्ध नहीं होते हैं। और, बातचीत आधारित उपचार से दवा पर आश्रित होने का खतरा भी नहीं होता – लंबे समय तक नींद की दवाएं लेने से इनकी लत लगना आम बात है। स्लीप हाइजीन (यानी समयानुसार सोना-जागना, शांत-अंधेरी जगह पर सोना, सोते समय मोबाइल वगैरह दूर रखना आदि) इस संदर्भ में महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकती है।

तीसरी, अस्पताल और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में चिकित्सकों को उच्च रक्तचाप, मधुमेह और हृदय रोग जैसी चिकित्सा में नींद की जीर्ण समस्या के प्रभाव पता होना चाहिए। अपर्याप्त और अत्यधिक नींद दोनों ही स्वास्थ्य पर हानिकारक प्रभाव डालती हैं, ये अस्वस्थता और मृत्यु दर को बढ़ाती हैं। इसलिए किसी भी बीमारी का उपचार करते समय चिकित्सक को व्यक्ति की नींद की गुणवत्ता के बारे में भी पूछ लेना चाहिए।

और चौथी, अपर्याप्त नींद और नींद सम्बंधी विकारों की संख्या बढ़ने की अत्यधिक संभावना है। उदाहरण के लिए, मानवशास्त्रीय अध्ययनों से पता चला है कि अनिद्रा पूरी तरह से आधुनिक जीवन से जुड़ी हुई समस्या है (औद्योगिक समाज में 10-30 प्रतिशत लोग अनिद्रा का शिकार होते हैं, जबकि नामीबिया और बोलीविया में रहने वाले शिकारी-संग्रहकर्ता समुदाय की महज़ दो प्रतिशत आबादी अनिद्रा की शिकार है)। मनोसामाजिक तनाव, मदिरापान, धूम्रपान और व्यायाम में कमी नींद में बाधा डालते हैं। इसके अलावा, सोने के समय शयनकक्ष में तकनीकी उपकरणों का उपयोग या उनकी मौजूदगी, खास कर युवा वर्ग में स्मार्ट फोन का बढ़ता उपयोग नीली रोशनी से संपर्क बढ़ाता है जो, सोने और जागने की लय सम्बंधी विकारों के संभावित कारणों में से एक माना जाता है।

नींद हमारे जीवन का एक तिहाई हिस्सा है लेकिन चिकित्सकों, स्वास्थ्य देखभाल पेशेवरों और नीति निर्माताओं द्वारा इस पर बहुत कम ध्यान दिया गया है। उक्त शृंखला अच्छी नींद के महत्व को भलीभांति उजागर करती हैं। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.flourishaustralia.org.au/sites/default/files/styles/body/public/2020-09/sleep.jpg?itok=KlxmA0Iv

मनुष्य को सूंघने में मच्छर की महारत – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

ई भोज्य पदार्थों को हम बंद आंखों से सूंघ कर भी पहचान जाते हैं। हमारे शरीर से भी लगातार नाना प्रकार की गंध निकलती हैं। जब मादा मच्छर किसी मनुष्य की तलाश में होती है तो वह मनुष्य के शरीर से निकलने वाली गंध के एक अनोखे मिश्रण को सूंघती हैं। गंध मच्छरों के स्पर्शक (एंटीना) में उपस्थित ग्राहियों को उत्तेजित करती है और मच्छर हमें अंधेरे में भी खोज लेते हैं। यदि मच्छरों में गंध के ग्राही ही न रहें तो क्या मच्छर इंसानों की गंध को नहीं सूंघ पाएंगे? तब क्या हमें मच्छरों और उनसे होने वाले रोगों से निजात मिल पाएगी?

हाल ही में वैज्ञानिकों ने मच्छरों पर ऐसे ही कुछ प्रयोग किए। उन्होंने मच्छरों के जीनोम (डीएनए) में से गंध संवेदी ग्राहियों के लिए ज़िम्मेदार पूरे जीन समूह को ही निकाल दिया। किंतु अनुमान के विपरीत पाया गया कि गंध संवेदी ग्राहियों के अभाव के बावजूद मच्छर हमें ढूंढकर काटने का तरीका ढूंढ लेते हैं। मानव शरीर की गर्मी भी उन्हें आकर्षित करती है।

अधिकांश जंतुओं के घ्राण (गंध संवेदना) तंत्र की एक तंत्रिका कोशिका केवल एक प्रकार की गंध का पता लगा सकती हैं। लेकिन एडीज एजिप्टी मच्छरों की केवल एक तंत्रिका कोशिका भी अनेक गंधों का पता लगा सकती है। इसका मतलब है कि यदि मच्छर की कोई तंत्रिका कोशिका मनुष्य-गंध का पता लगाने की क्षमता खो देती है, तब भी मच्छर मानव की अन्य गंधों को पहचानने की क्षमता से उन्हें खोज सकते हैं। हाल ही में शोधकर्ताओं के एक दल ने 18 अगस्त को सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि यदि मच्छर में मानव गंध का पता लगाने वाले कुछ जीन काम करना बंद भी कर दें तो भी मच्छर हमें सूंघ सकते हैं। अतः ज़रूरत हमें किसी ऐसी गंध की है जिसे मच्छर सूंघना पसंद नहीं करते हैं।

प्रभावी विकर्षक (रेपलेंट) मच्छरों को डेंगू और ज़ीका जैसे रोग पैदा करने वाले विषाणुओं को प्रसारित करने से रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण उपाय है। किसी भी अन्य जंतु की तुलना में मच्छर इंसानी मौतों के लिए सर्वाधिक ज़िम्मेदार हैं। जितना बेहतर हम मच्छरों को समझेंगे  उतना ही बेहतर उनसे बचने के उपाय खोज सकेंगे।

मच्छर जैसे कीट अपने स्पर्शक और मुखांगों से सूंघते हैं। वे अपनी घ्राण तंत्रिका की कोशिकाओं में स्थित तीन प्रकार के सेंसर का उपयोग करके सांस से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड तथा अन्य रसायनों से मनुष्य का पता लगा लेते हैं।

पूर्व के शोधकर्ताओं ने सोचा था कि मच्छर के गंध ग्राही को अवरुद्ध करने से उनके मस्तिष्क को भेजे जाने वाले गंध संदेश बाधित हो जाएंगे और मच्छर मानव को गंध से नहीं खोज पाएंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि ग्राही से वंचित मच्छर फिर भी लोगों को सूंघ सकते हैं और काटते हैं।

यह जानने के लिए रॉकफेलर विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने एडीज़ इजिप्टी नामक मच्छर की तंत्रिका कोशिकाओं में फ्लोरोसेंट लेबल जोड़े ताकि गंध को पहचानने की क्रियाविधि को समझा जा सके। हैरान करने वाली बात यह थी कि एक-एक घ्राण तंत्रिका कोशिका में कई प्रकार के सेंसर होते हैं और वे संवेदी केंद्रों के समान कार्य कर रहे थे।

वैज्ञानिकों ने मनुष्यों में पाए जाने वाले तथा मच्छरों को आकर्षित करने वाले विभिन्न रसायनों (ऑक्टेनॉल, ट्राइथाइल अमीन) के उपयोग से तंत्रिका कोशिका में विद्युत संकेत उत्पन्न किए जो एक-दूसरे से भिन्न थे।

यह स्पष्ट नहीं है कि लोगों की गंध का पता लगाने के लिए क्यों मच्छर अतिरिक्त तरीकों का उपयोग करते हैं। कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि प्रत्येक व्यक्ति की गंध दूसरे से अलग होती है। शायद इसलिए मानव की गंध को भांपने के लिए मच्छरों में यह तरीका विकसित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://bigthink.com/wp-content/uploads/2022/07/AdobeStock_442401550.jpeg?resize=1200,630