मुफ्त बिजली की बड़ी कीमत – श्रीकुमार नालूर और एन्न जोसे

हालिया चुनावों में मुफ्त बिजली का मुद्दा काफी चर्चा में रहा। विभिन्न राजनीतिक दलों ने मुफ्त बिजली की एक से बढ़कर एक योजनाओं का वादा किया। घरेलू उपयोग के लिए 300 युनिट प्रति माह मुफ्त बिजली से लेकर कृषि क्षेत्र के लिए मुफ्त बिजली और लंबित बिलों को माफ करने के वादे किए गए। यहां हम विभिन्न दलों द्वारा किए गए वादों की तुलना करने के बजाय इनसे होने वाले लाभ और हानि पर चर्चा कर रहे हैं।

कृषि क्षेत्र के लिए मुफ्त बिजली: पहले ही एक समस्या है

घरेलू उपभोक्ताओं को एक निर्धारित खपत सीमा के भीतर मुफ्त बिजली प्रदाय के मुद्दे पर जाने से पहले हम कृषि क्षेत्र में बिजली सब्सिडी पर चर्चा करेंगे। सब्सिडी के दम पर अधिकांश राज्यों में कृषि उपयोग के लिए बिजली शुल्क 1 रुपए/युनिट से भी कम है जबकि पंजाब, तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तेलंगाना जैसे राज्यों में यह बिलकुल मुफ्त है। हालांकि यह खाद्य सुरक्षा और ग्रामीण आजीविका के नज़रिए से महत्वपूर्ण है लेकिन मुफ्त बिजली के कई प्रतिकूल प्रभाव भी हैं। इसके कारण बिजली और पानी का अकुशल उपयोग और वितरण कंपनियों की लापरवाही के कारण बार-बार बिजली गुल और मोटर जलने की समस्या तो होती ही है, राज्य सरकारों पर लगातार अत्यधिक सब्सिडी का बोझ भी बढ़ता रहता है। देश के लगभग तीन चौथाई कृषि कनेक्शन बिना मीटर के हैं जिसके चलते वितरण कंपनियां खपत के अनुमानों को अक्सर बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करती हैं ताकि सब्सिडी की मांग बढ़ा सकें और वितरण घाटे को कम करके बता सकें। गौरतलब है कि मीटरिंग करने के प्रयासों को हमेशा विरोध का सामना करना पड़ता है क्योंकि ऐसा मान लिया जाता है कि यह शुल्क वसूलने की दिशा में पहला कदम है। पिछले 15 वर्षों का अनुभव बताता है कि एक बार मुफ्त बिजली देने के बाद इसे देने के निर्णय को रद्द करने के लिए राजनैतिक इच्छाशक्ति की आवश्यकता होती है, और सामान्यत: अधिक से अधिक उपभोक्ताओं को शामिल करने के लिए इस सुविधा को जारी ही रखा जाता है। स्वेच्छा से सब्सिडी छोड़ने (ऑप्ट-आउट विकल्प) की योजनाओं द्वारा सब्सिडी खत्म करने के काफी प्रयास किए गए हैं लेकिन कोई ठोस परिणाम देखने को नहीं मिले हैं। मुफ्त बिजली के प्रावधान और मीटरिंग के मुद्दे मिलकर प्रत्यक्ष लाभ अंतरण के कार्यान्वयन को मुश्किल बना देते हैं। इन सभी चुनौतियों के मद्देनज़र कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति एक जटिल समस्या बन गई है। इसमें शामिल सभी लोग, वे चाहे किसान हों या वितरण कंपनियां या फिर सरकारें, सभी काफी निराश हैं और उनका एक-दूसरे पर से भरोसा उठ गया है।

घरेलू उपयोग के लिए मुफ्त बिजली की समस्या

बिजली आपूर्ति की बढ़ती लागत को देखते हुए छोटे उपभोक्ताओं को रियायती दरों पर बिजली प्रदान करना आवश्यक है। वर्तमान लागत लगभग 7-8 रुपए प्रति युनिट है (सालाना 6 प्रतिशत बढ़ रही है), जो कम आय वाले परिवारों के लिए वहन कर पाना संभव नहीं है। आर्थिक मंदी और महामारी ने तो स्थिति को बदतर बना दिया है। लेकिन देखा जाए तो कम आय वाले घरों में प्रकाश उपकरण, पंखे, मोबाइल चार्जिंग और टीवी जैसी बुनियादी ज़रूरतों के लिए 50 युनिट प्रति माह की आवश्यकता होती है जो रेफ्रिजरेटर होने पर बढ़कर 100 युनिट प्रति माह तक हो जाती है। ऐसे उपभोक्ताओं के लिए कम शुल्क योजना (जैसे आपूर्ति की लागत का आधा) को उचित ठहराया जा सकता है। यदि एयर-कंडीशनर जैसे उच्च खपत वाले उपकरण हों तो मासिक खपत 200 से 300 युनिट होती है। दिल्ली और पंजाब में तो प्रति माह 200 युनिट बिजली मुफ्त में प्रदान की ही जा रही है।

गौरतलब है कि दिल्ली में मुफ्त बिजली प्रदान करने के कारण राज्य की कुल सब्सिडी बढ़कर लगभग 2820 करोड़ रुपए प्रति वर्ष हो गई है। यह राज्य सरकार के कुल खर्च का 11 प्रतिशत है। इसी तरह, पंजाब में कुछ परिवारों को मुफ्त बिजली दी जाती है व यहां कुल सब्सिडी का 18 प्रतिशत हिस्सा मुफ्त बिजली के लिए निर्धारित किया गया है। तमिलनाडु की कुल सब्सिडी में से लगभग आधी आवासीय बिजली आपूर्ति के लिए निर्धारित की गई है जबकि उत्तर प्रदेश में यह लगभग 90 प्रतिशत है।

यदि मुफ्त बिजली प्राप्त करने वाले आवासीय उपभोक्ताओं की संख्या और खपत सीमा में वृद्धि होती है तो यकीनन राज्य सरकारों पर सब्सिडी का बोझ बढ़ेगा। घरों में मीटरिंग और बिलिंग के मुद्दे तो पहले से ही हैं। मुफ्त बिजली के साथ ये समस्याएं और बढ़ सकती हैं क्योंकि संभावना है कि वितरण कंपनियां कम राजस्व वाले उपभोक्ताओं की समस्याओं पर कम ध्यान देंगी। छतों पर सौर ऊर्जा संयंत्र लगाना और ऊर्जा दक्षता बढ़ाना अच्छे पर्यावरण अनुकूल विकल्प हो सकते हैं लेकिन उच्च आय वाले परिवारों को मुफ्त बिजली मिली तो वे इन विकल्पों का उपयोग शायद न करें। लगता है कि कृषि क्षेत्र में बिजली आपूर्ति की जानी-पहचानी त्रासदी अब यहां भी देखने को मिलेगी जिसमें अंतत: सबसे अधिक नुकसान गरीब उपभोक्ताओं और आम लोगों का ही होगा।

मुफ्त बिजली: एक अल्पकालिक राहत

जीवन स्तर में सुधार और उत्पादक गतिविधियों को प्रोत्साहित करने के लिए अच्छी बिजली आपूर्ति और सेवा आवश्यक है। इसके लिए ज़रूरी है कि वितरण कंपनियां वित्तीय रूप से सुदृढ़ हों तथा सभी उपभोक्ताओं (विशेष रूप से छोटे और ग्रामीण) के लिए गुणवत्तापूर्ण सेवा सम्बंधी जवाबदेही के उपाय मौजूद हों। मुफ्त या कम शुल्क वाली बिजली अधिक से अधिक एक अल्पकालिक राहत है जो उन लोगों को प्रदान की जानी चाहिए जिनको इसकी सख्त ज़रूरत है। जिस सरकार को लोगों के दीर्घकालिक हितों की चिंता है उसे मुफ्त बिजली लाभार्थियों की संख्या को सीमित करने के प्रयास करने चाहिए। कुछ विचार इसमें सहायक हो सकते हैं।

आवासीय उपभोक्ताओं को बिल में प्रति माह 200 रुपए की फिक्स्ड छूट प्रदान की जानी चाहिए। बड़े उपभोक्ताओं की तुलना में छोटे उपभोक्ताओं पर इसका प्रभाव काफी महत्वपूर्ण होगा। चूंकि छूट को खपत से अलग कर दिया जाएगा, इसलिए वितरण कंपनियों को खपत को बढ़ा-चढ़ाकर बताने का कोई लालच नहीं रहेगा। इस तरह की छूट घरेलू उद्योगों को भी दी जा सकती है जो अधिकांश राज्यों में बड़े व्यावसायिक उपभोक्ताओं के बराबर उच्च शुल्क चुका रहे हैं। इसके साथ ही ऊर्जा कुशल पंखे या रेफ्रिजरेटर अपनाने के लिए अतिरिक्त छूट दी जा सकती है और इनकी लागत को कम करने के लिए राज्य स्तरीय थोक खरीद कार्यक्रम चलाए जा सकते हैं।

छोटे उपभोक्ताओं और वितरण कंपनियों के बीच आपसी अविश्वास के माहौल को बदलना होगा। इसके लिए मामलों का तुरंत समाधान और एकमुश्त निपटान होना चाहिए। यदि कोई बिल पिछले बिलों की तुलना में तीन गुना से अधिक है तो वितरण कंपनियों को शिकायत की प्रतीक्षा किए बिना समाधान करना चाहिए।

दुर्भाग्य से घरों में मुफ्त बिजली जैसे वादे चुनावों पर हावी हो जाते हैं। लेकिन क्या यह सचमुच गरीबों के हित में है क्योंकि इन वादों को पूरा करने से बिजली आपूर्ति की गुणवत्ता बिगड़ती है और बिजली क्षेत्र की वित्तीय हालत और डांवाडोल हो जाती है। इसकी कीमत अंतत: हितग्राहियों को ही चुकानी पड़ेगी। हम उम्मीद करते हैं कि आम जनता ऐसे वादों पर सवाल उठाएगी जिनको निभाना संभव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ऊर्जा दक्षता के लिए नीतिगत परिवर्तन की आवश्यकता – आदित्य चुनेकर, श्वेता कुलकर्णी

भारत के ऊर्जा संरक्षण अधिनियम को 20 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस अधिनियम का उद्देश्य भारत में ऊर्जा के कुशल उपयोग और संरक्षण को संभव बनाना था। इसके तहत ऊर्जा दक्षता ब्यूरो (बीईई) को केंद्रीय एजेंसी के रूप में स्थापित किया गया था। तब से कुछ कार्यक्रम और नियम लागू किए गए हैं। इनमें से कई कार्यक्रम सफल रहे हैं लेकिन ऊर्जा दक्षता की सम्पूर्ण क्षमता का उपयोग अभी तक नहीं हो पाया है।

इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी (आईईए) का अनुमान है कि भारत में ऊर्जा दक्षता उपायों को अपनाने से वर्ष 2040 तक ऊर्जा की मांग को 30 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। बॉटम-अप एनर्जी मॉडलिंग पर आधारित हमारे अपने विश्लेषण से पता चलता है कि उपकरणों के उपयोग में कुछ मामूली परिवर्तन से 2030 तक आवासीय बिजली की मांग को 25 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है।

इस बचत से भारत में जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने वाले उत्सर्जन को कम करने के साथ-साथ उपभोक्ताओं के बिजली बिल को कम किया जा सकता है और ऊर्जा सुरक्षा सुदृढ़ की जा सकती है। इससे नवीकरणीय ऊर्जा को भी बढ़ावा मिल सकता है।

लेकिन भारत में ऊर्जा परिवर्तन सम्बंधी नीतिगत चर्चाओं में ऊर्जा दक्षता का विषय अभी तक हाशिए पर ही रहा है। यहां तक कि ऊर्जा संरक्षण अधिनियम के कुछ प्रावधानों को तो अभी तक लागू भी नहीं किया गया है। वर्तमान परिस्थितियों के मद्देनज़र इस अधिनियम में आमूल परिवर्तनों की आवश्यकता है लेकिन इसमें अभी तक मामूली कामकाजी संशोधन ही किए गए हैं। धन की भी कमी रही है। वर्ष 2021-22 में विद्युत मंत्रालय, भारत सरकार के लिए निर्धारित 15,000 करोड़ के वार्षिक बजट में से केवल 200 करोड़ रुपए ऊर्जा दक्षता योजनाओं के लिए आवंटित किए गए। तुलना के लिए देखें कि नवीन और नवीकरणीय ऊर्जा मंत्रालय (एमएनआरई) का वार्षिक बजट 5000 करोड़ रुपए है। तो सवाल है कि भारत के ऊर्जा दक्षता के प्रयासों में किस प्रकार की बाधाएं हैं और इनसे कैसे निपटा जा सकता है?

बाज़ार में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों के मार्ग में कई बाधाएं होती हैं: जैसे शुरुआती ऊंची लागत, जागरूकता की कमी, उद्योग स्तर पर उन्नयन के लिए सीमित वित्तीय विकल्प वगैरह। इन बाधाओं को दूर करने के लिए ऊर्जा दक्षता के क्षेत्र में कई नीतिगत हस्तक्षेप किए गए हैं लेकिन इनका प्रभाव सीमित ही रहा है। इसके मुख्यत: चार कारण रहे हैं।

पहला, बहुत कम संसाधन होने के बावजूद बीईई बहुत सारे काम करने के प्रयास करता रहा। इसके कारण प्रमुख कार्यक्रमों के प्रभावी कार्यान्वयन बाधित होते रहे और कई पायलट स्तर कार्यक्रमों को बड़े पैमाने पर नहीं ले जाया जा सका। उदाहरण के लिए, बीईई का एक प्रमुख कार्यक्रम मानक और लेबलिंग (एसएंडएल) कार्यक्रम है जिसके तहत उपकरणों के लिए न्यूनतम ऊर्जा दक्षता मानक और तुलनात्मक ऊर्जा प्रदर्शन निर्धारित किए जाते हैं। इसमें 28 उपकरणों को शामिल किया गया है। इसके साथ ही एक बाज़ार-आधारित व्यवस्था है – प्रदर्शन, उपलब्धि और खरीद-फरोख्त (पीएटी) योजना जिसके तहत उद्योग अपने ऊर्जा बचत प्रमाण पत्रों की खरीद-फरोख्त कर सकते हैं। इसके तहत 13 क्षेत्रों के 1073 उपभोक्ताओं को शामिल किया गया है। इन योजनाओं में मानकों के निर्धारण, उनके नियमित रूप से संशोधन और अनुपालन को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण आंतरिक तकनीकी विशेषज्ञता, बाज़ार की स्थिति की निगरानी और प्रत्येक क्षेत्र/उपकरण की जांच की आवश्यकता होती है। ऐसे में सीमित संसाधनों के कारण इन कार्यक्रमों में कम-महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारण, मानकों के संशोधन में विलंब और परीक्षण प्रक्रियाओं के कमज़ोर क्रियांवयन जैसी कई दिक्कतें आती हैं जिससे उनकी प्रभाविता कम हो जाती है।

दूसरा, अघोषित रूप से यह माना गया कि बाज़ार में ऊर्जा कुशल प्रौद्योगिकियों की ओर परिवर्तन के लिए थोक खरीद एक जादू की छड़ी है जिसमें प्रत्यक्ष वित्तीय प्रलोभन की आवश्यकता भी नहीं होती। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी, एनर्जी एफिशिएंसी सर्विसेज़ लिमिटेड (ईईएसएल) ने इस मॉडल का बहुत अच्छी तरह से उपयोग करते हुए अत्यधिक ऊर्जाक्षम एलईडी लाइटिंग के माध्यम से बाज़ार को तेज़ी से परिवर्तित किया। हालांकि, यह मॉडल अन्य उपकरणों के लिए वैसी ही सफलता हासिल नहीं कर पाया। लेकिन अभी भी ऊर्जा कुशल उपकरणों के लिए कोई वित्तीय प्रोत्साहन कार्यक्रम नहीं है और न ही इनके लिए कर में कोई रियायत दी गई है। इसके साथ ही बीईई के अति कुशल उपकरण कार्यक्रम (एसईईपी) के तहत निर्माण की बढ़ती लागतों की पूर्ति के लिए निर्माताओं को समयबद्ध वित्तीय प्रोत्साहन देने का प्रस्ताव पिछले पांच वर्षों से धूल खा रहा है। जबकि इसी दौरान इलेक्ट्रिक वाहनों और सोलर रूफटॉप पैनलों को केंद्र सरकार के साथ-साथ कुछ राज्य सरकारों से भी सब्सिडी प्राप्त हो रही है। ऊर्जा दक्षता योजनाओं के सम्बंध में राज्य और स्थानीय सरकारों की भागीदारी काफी कम रही है।

तीसरा, ऊर्जा दक्षता परियोजनाओं का संचालन करने वाली ऊर्जा सेवा कंपनियों (ईएससीओ) के लिए बाज़ार अभी भी प्रारंभिक चरण में है। वर्तमान में बीईई द्वारा केवल 150 ईएससीओ को सूचीबद्ध किया गया है और वर्तमान में 1.5 लाख करोड़ बाज़ार के केवल 5 प्रतिशत भाग का ही दोहन हो पाया है। हालांकि, बीईई ने क्षमता निर्माण, आंशिक जोखिम गारंटी योजना जैसे कई कदम उठाए लेकिन ये सभी प्रयास छोटे स्तर पर किए गए जिनका कोई संचयी प्रभाव देखने को नहीं मिला। ईईएसएल को एक सुपर ईएससीओ के रूप में विकसित करने का प्रस्ताव था ताकि एक मज़बूत ऊर्जा सेवा बाज़ार विकसित करने के लिए अनुकूल माहौल बन सके, लेकिन ऐसा संभव नहीं हो सका।

चौथा, ऊर्जा दक्षता को बढ़ावा देने में ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं की भूमिका न्यूनतम रही है। बिजली वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) की आमदनी उनकी बिक्री से जुड़ी है, जिसके चलते, ऊर्जा दक्षता कार्यक्रमों को लागू करने का कोई प्रलोभन नहीं है। इसके अलावा, अक्षय ऊर्जा की अनिवार्य खरीद सम्बंधी कोई नियामक आदेश भी जारी नहीं किया गया है। ऐसे में भले ही सभी राज्यों ने मांग पक्ष प्रबंधन (डीएसएम) नियम अधिसूचित किए हों और कई बिजली वितरण कंपनियों ने भी मांग पक्ष प्रबंधन प्रकोष्ठ स्थापित कर दिए हों, लेकिन कार्यक्रमों पर होने वाला कुल खर्च और इसके नतीजे में होने वाली बचत डिस्कॉम की वार्षिक बिक्री का एक छोटा अंश भर है।

आगे बढ़ते हुए, भारत को तत्काल प्रभाव से ऊर्जा दक्षता को प्राथमिकता देने की आवश्यकता है। शुरुआत के तौर पर, क्षेत्रवार महत्वाकांक्षी ऊर्जा दक्षता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। लक्ष्य उपयोगी होते हैं, जिससे नीतिगत कार्यवाही के साथ-साथ सभी स्तरों पर निवेश को प्रोत्साहन मिल सकता है। सौर ऊर्जा के क्षेत्र में समय-समय पर लक्ष्य में संशोधन इसका एक अच्छा उदाहरण है। लेकिन ऊर्जा दक्षता के लाभ सौर पैनल की तरह नज़र नहीं आते। इसलिए ज़रूरी है कि सभी लक्ष्य स्पष्ट तरीके और पर्याप्त डैटा के आधार पर मापन योग्य हों। ज़ाहिर है, केवल लक्ष्य निर्धारित करने से कुछ हासिल नहीं होगा। एक केंद्रीय एजेंसी के तौर पर बीईई की भूमिका मज़बूत करने की आवश्यकता है। इसके साथ ही बीईई के बजट आवंटन में वृद्धि की भी आवश्यकता है। बीईई इस राशि का उपयोग क्षेत्रीय कार्यालय स्थापित करने के लिए कर सकता है ताकि अपने विभिन्न कार्यक्रमों के लिए राज्य सरकारों और एजेंसियों के साथ बेहतर समन्वय बना सके। इसके अलावा बीईई लंबे समय से लंबित कार्यक्रमों, जैसे एसईईपी का संचालन भी शुरू कर पाएगा और कई अन्य परियोजनाओं को बड़े पैमाने पर ले जा पाएगा।

इसके साथ ही जागरूकता बढ़ाने पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। कई सर्वेक्षणों से पता चला है कि बीईई के प्रयासों के बावजूद स्टार लेबल्स की जागरूकता सीमित ही है; खास तौर से छोटे उपकरणों को लेकर और ग्रामीण क्षेत्रों में। अंत में, अनुपालन सुनिश्चित करने और विश्वसनीयता बढ़ाने के लिए बीईई इस धन का उपयोग अपने परीक्षण तंत्र को मज़बूत करने के लिए भी कर सकता है।

बीईई से आगे जाकर, ऊर्जा आपूर्तिकर्ताओं द्वारा ऊर्जा दक्षता को संभव बनाने में एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए अभिनव व्यवसाय और नियामक मॉडल की आवश्यकता होगी। नीतिगत संकेतों, बजटीय आवंटन में वृद्धि और अनुदान के साथ-साथ सस्ते वित्तपोषण के रूप में वित्तीय सहायता कमज़ोर ईएससीओ उद्योग को बढ़ावा दे सकता है। इसका गुणात्मक प्रभाव ठीक उसी तरह होगा जैसा इलेक्ट्रिक वाहनों और नवीकरणीय ऊर्जा में देखा जा रहा है।

ऊर्जा संरक्षण अधिनियम उपरोक्त सुझावों को शामिल करने का अच्छा स्थान हो सकता है। यदि अधिनियम में तत्काल कोई परिवर्तन नहीं किए गए तो हम ऊर्जा दक्षता का सिर्फ दिखावा करते रहेंगे और भारत में उपलब्ध ऊर्जा के सबसे स्वच्छ और सस्ते स्रोत को बर्बाद करते रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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केले के छिलके से ऊर्जा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

केले के सूखे छिलकों में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है। हाइड्रोजन से बिजली बनाकर इसका उपयोग ऊर्जा प्राप्त करने में किया जा सकता है…       

साल 1985 की एक विज्ञान फंतासी फिल्म बैक टू दी फ्यूचर में, एक अतिउत्साही आविष्कारक अपनी कार को प्लूटोनियम से चलने वाली टाइम मशीन में बदल लेता है, और अतीत और भविष्य की यात्रा करता है। अपनी इस कार में बैठकर वह वर्ष 2015 में पहुंचता है और अपनी गाड़ी के इंजन को इस तरह अपडेट कर लेता है कि किसी भी तरह का पदार्थ भरने पर वह ऊर्जा पैदा कर सके – यहां तक कि ‘टैंक’ में एक-दो गाजर ठूंसने पर भी।

खैर, 2015 बीत गया है और इस तरह की किसी भी ईंधन से चलने वाली (फ्यूज़न) गाड़ियों की संभावना अभी भी साकार होती नज़र नहीं आ रही है। अलबत्ता, हमने नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों (जैसे गाजर या संभवत: केले के छिलकों) से स्वच्छ ऊर्जा पैदा करने के नए और बेहतर तरीकों की उम्मीद नहीं छोड़ी है।

वास्तव में केमिकल साइंस में इस वर्ष प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार लॉज़ेन स्थित स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के एक शोध दल ने केले से ऊर्जा प्राप्त करने में सफलता हासिल कर ली है।

उन्होंने केले के छिलके, संतरे के छिलके, नारियल की नट्टी जैसे जैव-पदार्थों के विघटन के लिए ज़ीनॉन लैंप के प्रकाश का उपयोग किया है।

लेकिन इस नवाचारी तरीके पर बात करने से पहले थोड़ी बात इस पर कर लेते हैं कि ऊर्जा स्रोत के रूप में हाइड्रोजन इतनी आकर्षक क्यों है। अत्यधिक ऊर्जा को बहुत कम जगह में भंडारित करके रखना एक मुख्य आवश्यकता है, और हाइड्रोजन की ऊर्जा भंडारण क्षमता बहुत अच्छी है। ईंधन को उनके ऊर्जा मूल्य (जिसे ताप मूल्य भी कहा जाता है) के हिसाब से श्रेणीबद्ध करने में निर्णायक तत्व कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन होते हैं। हाइड्रोजन का ऊर्जा मूल्य कार्बन से सात गुना अधिक है।

लकड़ी को जलाने पर, ऊष्मा उत्पन्न करने वाली अभिक्रिया में, कार्बन और हाइड्रोजन ऑक्सीकृत हो जाते हैं, और अंतिम उत्पाद कार्बन डाईऑक्साइड और पानी होते हैं। कार्बन डाईऑक्साइड एक ग्रीनहाउस गैस है, जो ग्लोबल वार्मिंग में योगदान देती है।

हाइड्रोजन जलाने पर हमें केवल पानी और ऊष्मा मिलती है। हाइड्रोजन से ऊर्जा प्राप्त करने का एक बेहतर तरीका होगा इससे बिजली बनाना। इसके लिए एक प्रोटॉन एक्सचेंज मेम्ब्रेन ईंधन सेल का उपयोग किया जाता है। इस सेल में किसी धातु उत्प्रेरक की उपस्थिति में हाइड्रोजन के अणुओं को प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन में तोड़ा जाता है, और इलेक्ट्रॉन विद्युत धारा उत्पन्न करते हैं।

वाहनों में

कुछ जगहों पर अब इस तरह के ईंधन सेल कुछ छोटे यात्री वाहनों को चलाने के लिए उपयोग किए जा रहे हैं। इलेक्ट्रिक कारों के विपरीत, हाइड्रोजन चालित कारों में ईंधन भरने में महज पांच मिनट लगते हैं। व्यावसायिक रूप से उपलब्ध हाइड्रोजन चालित कारों के ईंधन टैंक में 5-6 किलोग्राम संपीड़ित हाइड्रोजन भरी जा सकती है। और प्रत्येक किलोग्राम हाइड्रोजन से गाड़ी लगभग 100 किलोमीटर चलती है (और नौ लीटर पानी उत्सर्जित होता है, ज़्यादातर भाप के रूप में)।

ईंधन के रूप में हाइड्रोजन की सीमित लोकप्रियता उसके उत्पादन और वितरण सम्बंधी अड़चनों के कारण है। वैसे, रसोई गैस की तुलना में हाइड्रोजन का प्रबंधन अधिक सुरक्षित है।

औद्योगिक पैमाने पर हाइड्रोजन का उपयोग उर्वरक उत्पादन हेतु अमोनिया बनाने में किया जाता है। विश्व की 90 प्रतिशत से अधिक हाइड्रोजन का उत्पादन तो जीवाश्म ईंधन से होता है। इसी कारण ऊर्जा के ऐसे वैकल्पिक स्रोतों की तलाश जारी है जो पर्यावरण को क्षति न पहुंचाते हों। जैव-पदार्थ (बायोमास) में वनस्पति और पशु अपशिष्ट शामिल हैं। जैव-पदार्थ हाइड्रोजन और कार्बन दोनों का एक समृद्ध स्रोत है – केले के सूखे छिलके में 5 प्रतिशत हाइड्रोजन होती है, और 33 प्रतिशत कार्बन होता है। जलवायु परिवर्तन रोकथाम सम्बंधी सारे प्रोटोकॉल्स का एक प्रमुख लक्ष्य है कि जितना संभव हो सके उतना कार्बन भंडारित कर लिया जाए – इसे गैस न बनने दिया जाए।

स्विस शोध दल ने जैव-पदार्थ (केले) से ऊर्जा प्राप्त करने के लिए ताप-अपघटन (पायरोलिसिस) का उपयोग किया; इसमें निष्क्रिय (ऑक्सीजन-रहित) परिस्थिति में थोड़े-थोड़े समय के लिए तीव्र ताप देकर कार्बनिक पदार्थ का विघटन किया जाता है।

ज़ीनॉन लैंप के विकिरण से अत्यधिक ऊष्मा पैदा होती है – सिर्फ 15 मिलीसेकंड के लिए दिया गया विकिरण पदार्थ को 600 डिग्री सेल्सियस तक गर्म करने के लिए पर्याप्त होता है। इतनी ऊष्मा एक किलोग्राम केले के छिलके के पाउडर को विघटित कर सकती है – और इससे 100 लीटर हाइड्रोजन गैस मुक्त होती है।

इतने कम समय के लिए मुक्त प्रकाश-ऊष्मा ऊर्जा से 330 ग्राम बायोचार (बायो चारकोल) भी पैदा होता है। यह एक ठोस अपशिष्ट है जिसमें कार्बन होता है।

दूसरी ओर यदि जैव-पदार्थ को जलाया जाए तो कार्बन ऑक्सीकृत होकर कार्बन मोनोऑक्साइड और कार्बन डाईऑक्साइड के रूप पर्यावरण में चला जाता है। पायरोलिसिस यह सुनिश्चित करता है कि कार्बन ठोस रूप में बचा रहे।

बायोचार के लाभ

कार्बन को ठोस रूप में सुरक्षित रखने के अलावा बायोचार के कृषि में कई उपयोग हैं। चावल की भूसी जैसे कृषि अपशिष्ट जैव-पदार्थ का एक प्रमुख स्रोत हैं। और इनसे बनने वाले बायोचार में काफी खनिज तत्व होते हैं। इसे मिट्टी में डालने से पौधों को पोषक तत्व मिलते हैं।

2019 में एनल्स ऑफ एग्रीकल्चर साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार बायोचार की छिद्रमय प्रकृति के चलते यह प्रदूषित मिट्टी के विषाक्त पदार्थों को सोखकर विषाक्तता कम करता है।

जैव-पदार्थ, चाहे वह केले के छिलके का हो, पेड़ की छाल का हो या पोल्ट्री खाद का हो, के इस तरह के उपयोग से वायु की गुणवत्ता में सुधार होता है और कृषि उत्पाद बेहतर होते हैं – और वाहनों में इसका उपयोग उन्हें उत्सर्जन मुक्त बनाता है। (स्रोत फीचर्स) 

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कोयला बिजली संयंत्रों की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति – मारिया चिरायिल, अशोक श्रीनिवास

भारतीय बिजली क्षेत्र में ताप बिजली ने एक ऐतिहासिक भूमिका निभाई है। हालांकि, हाल ही के घटनाक्रम ने कोयले की अब तक की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए हैं। प्रतिस्पर्धी नवीकरणीय बिजली उत्पादन की तीव्र वृद्धि, राज्यों के पास बिजली की अतिशेष उत्पादन क्षमता, अनुमानित से कम मांग और कोयला आधारित उत्पादन से जुड़े सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभावों जैसे विभिन्न कारकों के चलते भविष्य में कोयले पर निर्भरता कम होने की संभावना है।  

इस संदर्भ में, लगभग 20-25 वर्ष पुराने कोयला आधारित ताप बिजली संयंत्रों (टीपीपी) को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के समर्थन में चर्चा जारी है। समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के पीछे लागत में बचत और दक्षता में सुधार जैसे लाभ बताए जा रहे हैं, जो नए, सस्ते और अधिक कुशल स्रोतों द्वारा प्राप्त किए जा सकते हैं।        

आयु-आधारित सेवानिवृत्ति का एक कारण यह बताया जा रहा है कि पुराने संयंत्रों की दक्षता काफी कम है और इस कारण वे महंगे भी हैं। लेकिन सभी मामलों में यह बात सही नहीं है। उदाहरण के लिए रिहंद, सिंगरौली और विंध्याचल के टीपीपी 30 वर्ष से अधिक पुराने होने के बाद भी वित्त वर्ष 2020 में 70 प्रतिशत से अधिक लोड फैक्टर पर संचालित हुए हैं। इसके साथ ही इनकी औसत परिवर्तनीय लागत (वीसी) 1.7 रुपए प्रति युनिट है और कुल औसत लागत 2 रुपए प्रति युनिट है जो वित्त वर्ष 2020 में राष्ट्रीय क्रय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट से काफी कम है। इसके अतिरिक्त, बिजली उत्पादन की पुरानी क्षमता वर्तमान में बढ़ते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के साथ सहायक होगी और अधिकतम मांग (पीक डिमांड) को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। हालांकि, उन्हें पर्यावरणीय मानदंडों को पूरा करना होगा।       

यह स्पष्ट है कि कोयला आधारित क्षमता की सेवानिवृत्ति एक जटिल मुद्दा है और बिजली क्षेत्र के सभी हितधारकों पर इसके आर्थिक, पर्यावरणीय और परिचालन सम्बंधी दूरगामी प्रभाव भी होंगे। इसे देखते हुए वर्तमान क्षमता की सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय के लिए ज़्यादा गहन छानबीन ज़रूरी है।

टीपीपी की समय-पूर्व सेवानिवृत्ति को निम्नलिखित कारणों से उचित ठहराया जा रहा है:

  • पुराने संयंत्र कम कुशल हैं और इनको संचालित करना भी काफी महंगा है। इसकी बजाय नई उत्पादन क्षमता का उपयोग करने से वीसी में काफी बचत हो सकती है।
  • नए संयंत्रों के बेहतर प्लांट लोड फैक्टर (पीएलएफ) से उत्पादन लागत में कमी आएगी और परिसंपत्तियों पर दबाव को कम किया जा सकता है।
  • नए संयंत्रों की बेहतर परिचालन क्षमता के कारण कोयले की बचत।
  • पुराने संयंत्रों का जीवन अंत की ओर है, ऐसे में उनके शेष जीवन में पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक प्रदूषण नियंत्रण उपकरण (पीसीई) पर निवेश की प्रतिपूर्ति शायद संभव न हो।

उपरोक्त बातें एक औसत विश्लेषण के आधार पर कही जा रही हैं। अलबत्ता, ऐसे निर्णयों के लिए विस्तृत बिजली क्षेत्र मॉडलिंग पर आधारित सावधानीपूर्वक विश्लेषण करने की आवश्यकता होगी।

इस तरह के विश्लेषण उपलब्ध न होने के कारण इस अध्ययन में हमने राष्ट्र स्तरीय औसत आंकड़ों के आधार पर समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभों का मूल्यांकन किया है। इस अध्ययन में हमने पुरानी क्षमता के आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के संभावित जोखिमों पर भी चर्चा की है। 

अध्ययन में दिसंबर 2000 या उससे पहले स्थापित कोयला आधारित उत्पादन इकाइयों को पुरानी इकाइयां माना गया है क्योंकि आम तौर पर टीपीपी के लिए बिजली खरीद के अनुबंध 25 वर्ष के लिए किए जाते हैं। वैसे, अच्छी तरह से परिचालित संयंत्रों का जीवन काल 40 वर्ष तक होता है। भारत में ऐसे कोयला आधारित पुराने संयंत्रों की कुल क्षमता 55.7 गीगावॉट है। इसमें से 9.1 गीगावॉट क्षमता को पहले ही सेवानिवृत्त किया जा चुका है। यानी वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 46.6 गीगावॉट कोयला आधारित क्षमता ही उपयोग में है।

पुराने संयंत्रों की जगह नए बिजली संयंत्र लगाने के संभावित लाभ

समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के लाभ के लिए लागत में बचत को महत्वपूर्ण बताया जा रहा है। यह बचत मुख्य रूप से परिवर्तनीय लागत (वीसी) में होती है जबकि स्थिर लागत (एफसी) तो डूबी लागत है। इसलिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति आर्थिक रूप से व्यवहार्य होनी चाहिए और इससे वीसी में बचत होनी चाहिए। इसके लिए संभावित उम्मीदवार हैं नए कोयला-आधारित संयंत्र या नवीकरणीय ऊर्जा संयंत्र।

वर्ष 2015 के बाद कोयला-आधारित ऊर्जा संयंत्रों को स्थापित करने की कुल लागत 2.5 रुपए प्रति युनिट है। नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन के लिए भी वीसी लगभग इतनी ही है। अत: इस विश्लेषण में इसे ही बेंचमार्क माना गया है। इससे कम वीसी के पुराने संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना अलाभकारी होगा।

46.6 गीगावॉट पुरानी क्षमता में से 5.3 गिगावॉट के लिए आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। 21.6 गीगावॉट को प्रतिस्थापित करना अलाभप्रद होगा क्योंकि इनकी परिवर्तनीय लागत मानक से कम है। इनकी दक्षता (59 प्रतिशत) भी औसत (56 प्रतिशत) से बेहतर है।    

शेष 19.8 गीगावॉट क्षमता की वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट से अधिक है। इन संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने पर विचार किया जा सकता है। आगे इसी 19.8 गीगावॉट क्षमता को लेकर संभावित लागत, पीएलएफ में सुधार, और कोयला बचत के आधार पर विचार किया गया है।             

लागत में बचत, पीएलएफ में सुधार और कोयले की बचत

वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता वाले संयंत्रों ने वित्त वर्ष 2020 में 81 अरब युनिट का उत्पादन किया। 2000-पूर्व क्षमता की तुलना 2015-पश्चात स्थापित 64 गीगावॉट की कोयला-आधारित क्षमता से की गई है। 2015 के बाद स्थापित किए गए संयंत्र वित्त वर्ष 2020 में 41 प्रतिशत के औसत पीएलएफ पर संचालित किए गए।

  परिवर्तनीय लागत प्रति युनिट
  2.5 रुपए से कम 2.5 रुपए से अधिक
क्षमता (मेगावॉट) 21,500 27,760
पीएलएफ 50 प्रतिशत 28 प्रतिशत
औसत परिवर्तनीय लागत 2.06 3.04
तालिका 1: 2015 के बाद स्थापित क्षमता का विवरण

 वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता को सेवानिवृत्त करने पर 2015 के बाद स्थापित क्षमता को इस कमी को पूरा करना होता। अर्थात वित्त वर्ष 2020 में वर्ष 2015 के बाद स्थापित क्षमता को अतिरिक्त 81 अरब युनिट की पूर्ति करनी होती। इससे 2015 के बाद स्थापित क्षमता का पीएलएफ वर्तमान 41 प्रतिशत से बढ़कर 56 प्रतिशत हो जाता जो दबाव को कुछ कम करने में सहायक हो सकता था।

2000 से पूर्व स्थापित 19.8 गीगावॉट क्षमता की औसत वीसी 3.1 रुपए प्रति युनिट है जबकि 2015 के बाद के संयंत्रों के लिए यह 2.5 प्रति युनिट है। अत: इस प्रक्रिया से 81 अरब युनिट का प्रतिस्थापन प्रति वर्ष 5043 करोड़ रुपए की बचत कर सकता है। यह बचत वर्ष 2020 के सभी कोयला आधारित बिजली उत्पादन का मात्र 2 प्रतिशत है। दरअसल, बचत और भी कम होने की संभावना है।

तालिका 1 के अनुसार, वित्त वर्ष 2020 में, 2015 के बाद स्थापित कम वीसी वाले संयंत्र अधिक वीसी वाले संयंत्रों की तुलना में अधिक पीएलएफ पर संचालित हुए थे। चूंकि 2015 के बाद स्थापित किफायती संयंत्र तो पहले से ही अधिक पीएलएफ पर संचालित हैं, इसलिए 2000 से पूर्व की क्षमताओं की क्षतिपूर्ति की ज़िम्मेदारी 2015 के बाद स्थापित महंगे संयंत्रों पर ही आएगी। लिहाज़ा, बचत भी कम होगी।

इसके अतिरिक्त, वित्त वर्ष 2020 में 2000 से पूर्व स्थापित क्षमता द्वारा उत्पादित 81 अरब युनिट की औसत कोयला खपत 0.696 कि.ग्रा. प्रति युनिट रही और इसने 5.7 करोड़ टन कोयले का उपयोग किया। इन परिस्थितियों में 2015 के बाद की क्षमता पर स्थानांतरित होने से कोयले की खपत कम होगी। गौरतलब है कि वित्त वर्ष 2020 में भारत की प्रति युनिट कोयला खपत का औसत 0.612 कि.ग्रा. है जो 2000 से पहले स्थापित क्षमता से 12 प्रतिशत बेहतर है। यदि नई क्षमता से 81 अरब युनिट का उत्पादन राष्ट्रीय औसत 0.612 कि.ग्रा. प्रति युनिट की दर से किया जाए तो 5.0 करोड़ टन कोयले की आवश्यकता होगी यानी मात्र 70 लाख टन कोयले की बचत। यहां तक कि यदि औसत कोयला खपत कि.ग्रा. युनिट में 20 प्रतिशत सुधार मान लिया जाए, (यानी 0.557 कि.ग्रा. प्रति युनिट जो भारतीय उर्जा क्षेत्र में कम ही देखा गया है) तब भी 81 अरब युनिट उत्पादन में कोयले की बचत मात्र 1.2 करोड़ टन होगी। मतलब कोयले में कुल बचत मात्र 1-2 प्रतिशत ही होगी।

डैटा की अनुपलब्धता के चलते समस्त क्षमता को 2.5 रुपए प्रति युनिट ही मान लिया जाए तो भी निष्कर्ष कमोबेश ऐसे ही रहेंगे – वार्षिक वीसी में बचत लगभग 2.5 प्रतिशत और कोयले की बचत प्रति वर्ष 1.3-2.2 प्रतिशत के बीच ही रहेगी।

इस प्रकार, पुराने संयंत्रों के सेवानिवृत्त होने से बचत तो होगी लेकिन यह बचत इस क्षेत्र के पैमाने को देखते हुए बहुत अधिक नहीं है।

बचत के अलावा, मिश्रित बिजली उत्पादन के हिमायतियों का एक तर्क समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से दक्षता में सुधार भी है। हालांकि यह वांछनीय है लेकिन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए समय-पूर्व सेवानिवृत्ति एक बोथरा साधन है। अक्षमता को दंडित करने जैसे उपायों को अपनाकर अक्षम उत्पादन में कटौती की जा सकती है।  

परिवर्तनीय लागत में बचत से सेवानिवृत्ति में सुगमता

वर्ष 2000 से पहले स्थापित क्षमता की पूंजीगत लागत नई परियोजना की तुलना में कम होने की संभावना है क्योंकि इतने वर्षों में उनकी अधिकांश पूंजीगत लागत का भुगतान हो चुका होगा। इसका परिणाम कम अग्रिम (अपफ्रंट) भुगतान और पुराने टीपीपी को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने की कम लागत के रूप में होगा। भले ही 2000 से पूर्व की क्षमता को सेवानिवृत्त करने से वीसी में प्रति वर्ष मात्र 5000 करोड़ की बचत होगी, फिर भी यह फायदेमंद होगा यदि इससे पुराने संयंत्रों की एफसी का भुगतान हो जाए।

देखा जाए, तो 2000 से पूर्व की अधिकांश (60 प्रतिशत) सेवा-निवृत्ति के लिए विचाराधीन क्षमता की स्थिर लागत कम है – 40 लाख रुपए प्रति मेगावाट प्रति वर्ष से भी कम। वित्त वर्ष 2020 में इस 11.8 गिगावॉट क्षमता ने 44.6 अरब युनिट का उत्पादन किया है। इस उत्पादन की कुल लागत औसतन 3.7 रुपए प्रति युनिट है जिसमें 3.1 रुपए वीसी और 0.6 रुपए एफसी है। यह ऊर्जा खरीद लागत के राष्ट्रीय औसत 3.6 रुपए प्रति युनिट के बराबर ही है।  

वर्तमान परिदृश्य में, यदि इस 11.8 गिगावॉट उत्पादन को 2015 के बाद के उत्पादन से प्रतिस्थापित कर दिया जाता है (जिसकी औसत वीसी 2.5 रुपए प्रति युनिट है) तो इससे वीसी में 2447 करोड़ रुपए की सालाना बचत होगी। वहीं दूसरी ओर, वित्त वर्ष 2020 में इस क्षमता के लिए भुगतान की गई एफसी 3083 करोड़ रुपए थी। लिहाज़ा अकेले समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से वीसी में बचत द्वारा एफसी की भरपाई की संभावना बहुत कम है।

वैसे वीसी में बचत की ही तरह वीसी और एफसी भुगतान की तुलना भी सीधा-सा मामला नहीं है। इसके लिए गहन विश्लेषण की आवश्यकता है। समय से पहले सेवानिवृत्ति के लिए भुगतान की जाने वाली वास्तविक एफसी विभिन्न कारकों पर निर्भर करेगी।

अक्षय उर्जा से प्रतिस्थापन पर विचार

अब तक की गई चर्चा में सिर्फ ऐसे परिदृश्य पर विचार किया है जिसमें सभी कोयला आधारित उत्पादन को उसी के समान आधुनिक विकल्पों से बदला जाएगा। वास्तव में हटाए गए कोयला उत्पादन को कोयला और नवीकरणीय ऊर्जा के मिश्रित उपयोग से बदलने की संभावना है। इसलिए, सभी पुराने कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने के निहितार्थ को समझना काफी दिलचस्प होगा।

इस बात पर ज़ोर दिया जाना चाहिए कि नवीकरणीय ऊर्जा का उत्पादन परिवर्तनशील और अनिरंतर है। उदाहरण के लिए, सौर ऊर्जा केवल दिन के समय और हवा कुछ विशेष मौसमों में उपलब्ध होती है। इसके अलावा, नवीकरणीय ऊर्जा का उपयोग गुणांक ताप-बिजली की तुलना में काफी कम है। इसलिए, नवीकरणीय ऊर्जा से उसी समय पर बिजली सप्लाई नहीं की जा सकती जिस समय कोयला आधारित उत्पादन से की जाती थी। इस कारण, नवीकरणीय ऊर्जा और कोयला आधारित उत्पादन के बीच तुलना उपयुक्त नहीं है। लेकिन यहां हम सभी पुराने कोयला आधारित उत्पादन को नवीकरणीय ऊर्जा से बदलने की व्यापक समझ के लिए ऐसा कर रहे हैं।                             

यदि प्रतिस्थापन नवीकरणीय ऊर्जा से करना है तो नए टीपीपी के कम पीएलएफ में सुधार और ऐसी तनावग्रस्त परिसंपत्तियों को संबोधित करने से लाभ नहीं मिलेगा। वहीं दूसरी ओर, नवीकरणीय ऊर्जा की ओर प्रतिस्थापन से कोयले की बचत अधिक होगी। लेकिन नवीकरणीय उर्जा की उत्पादन लागत लगभग 2.5 रुपए प्रति युनिट के मानक के बराबर है, ऐसे में अनुमानित वीसी में बचत पहले जितनी ही होने की संभावना है। यह देखते हुए कि पुराने कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को पूरी तरह से नवीकरणीय ऊर्जा से बदलना और इनका मिश्रित उपयोग करना संभव नहीं है, मामले की गहरी छानबीन ज़रूरी है।

प्रदूषण नियंत्रण उपकरणों (पीसीई) में सुधार से संभावित लाभ

दिसंबर 2015 में संशोधित पर्यावरण मानकों के अनुपालन के लिए टीपीपी को पीसीई स्थापित करने या अन्य समाधान लागू करने के लिए अतिरिक्त खर्च करना होगा। ताप बिजली उत्पादन से होने वाले प्रदूषण को देखते हुए इन मानदंडों का पालन महत्वपूर्ण है। लेकिन यह अतिरिक्त पूंजीगत व्यय खासकर पुराने टीपीपी के लिए चिंता का विषय है। यह देखते हुए कि पुराने टीपीपी अपने अंत की ओर हैं, उनके शेष जीवन में ऐसे निवेश की भरपाई करना मुश्किल हो सकता है। इसलिए यह दलील दी गई है कि पीसीई पर अतिरिक्त पूंजीगत खर्च करने की बजाय पुराने कोयला संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना बेहतर है।

पीसीई लागत चिंता का विषय है। हालांकि, यह मुद्दा सिर्फ परियोजना की अवधि से सम्बंधित नहीं है। डैटा से पता चलता है कि 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 14.9 गिगावॉट की कुल लागत (यानी एफसीअवीसी) 3 रुपए प्रति युनिट से भी कम है। शुल्क पर पीसीई का प्रभाव 0.25-0.75 रुपए प्रति युनिट के आसपास होगा। यदि इसे 1 रुपए प्रति युनिट भी मान लिया जाए तो वर्ष 2000 से पूर्व पीसीई के साथ स्थापित 14.9 गिगावॉट उत्पादन का कुल शुल्क 4 रुपए प्रति युनिट से कम ही रहेगा। अर्थात यह राष्ट्रीय औसत बिजली खरीद लागत (3.6 रुपए प्रति युनिट) से बहुत अधिक नहीं होगा।

इसके अलावा, वर्ष 2000 से पूर्व शुरू की गई 46.6 गिगावॉट क्षमता में से 23.6 गिगावॉट में पीसीई स्थापित करने हेतु निविदाएं जारी हो चुकी हैं। कुछ निवेश किए जा चुके हैं। इसमें से 14.2 गिगावॉट के लिए तो बोलियां मंज़ूर की जा चुकी हैं और इनमें से भी 1995 के पूर्व स्थापित 80 मेगावॉट क्षमता में पहले से ही पीसीई लगाए जा चुके हैं। स्पष्ट है कि कुछ पुराने संयंत्र पहले ही पीसीई सम्बंधी व्यय कर चुके हैं और अन्य भी ऐसे खर्च के बावजूद व्यवहार्य हो सकते हैं। ऐसा विचार भी किया जा रहा है कि यदि पीसीई पर और अधिक निवेश करने से जन-स्वास्थ्य में लाभ होता है तो इस खर्च को उचित माना जा सकता है।

और तो और, 1 अप्रैल 2021 को मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना के अनुसार, सेवानिवृत्ति के करीब पहुंच चुके पुराने संयंत्र भी थोड़ी पेनल्टी का भुगतान करके पीसीई स्थापित किए बिना उत्पादन जारी रख सकते हैं। ऐसे में उन्हें कानूनी तौर पर पीसीई स्थापित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। कुल मिलाकर, पेनल्टी के कारण पुराने संयंत्रों से उत्पादन लागत में वृद्धि हो जाएगी जिसके परिणास्वरूप उन संयंत्रों से उत्पादन कम हो जाएगा।

इसलिए, पीसीई स्थापना की वित्तीय व्यवहार्यता के सम्बंध में सिर्फ आयु के आधार पर सेवानिवृत्ति करना एक प्रभावी उपाय नहीं है। इसकी बजाय अधिक उपयुक्त तो यह होता कि सेवानिवृत्ति के सम्बंध में निर्णय इकाई के आधार पर किए जाते जिसमें शेष जीवन, पीएलएफ, उत्पादन की वर्तमान लागत, पर्यावरण मानदंडों को पूरा करने के लिए आवश्यक उपायों की लागत, आदि बातों को ध्यान में रखा जाता।

समय-पूर्व सेवानिवृत्ति के उपेक्षित पहलू

कोयला आधारित बिजली संयंत्रों को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने के लाभों पर चर्चा के दौरान अक्सर इन संयंत्रों के संचालन के लाभों और सेवानिवृत्ति के नतीजों पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

उदाहरण के लिए, यह ध्यान देना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से बचत के सभी दावे पुराने ऊर्जा संयंत्रों की क्षमता के महत्व को हिसाब में नहीं लेते हैं। बढ़ती अक्षय ऊर्जा उत्पादन वाली बिजली प्रणाली में, वर्ष 2000 से पूर्व स्थापित क्षमताएं मौसमी और पीक डिमांड को पूरा करने में सहायक हो सकती हैं। यदि ऐसे लाभों पर विचार किया जाए तो समय-पूर्व सेवानिवृत्ति से होने वाली संभावित बचत काफी कम हो नज़र आएगी।   

इसके अतिरिक्त, कोयला आधारित क्षमताओं की समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति के विचित्र परिणाम हो सकते हैं। आक्रामक समय-पूर्व सेवानिवृत्ति की वजह से बिजली के अभाव की मानसिकता उत्पन्न हो सकती है, खास तौर से राज्यों में। चूंकि कथित अभाव राज्य की ऊर्जा राजनीति के लिए अभिशाप हैं, इससे हड़बड़ी में कोयला आधारित क्षमता में निवेश की नई लहर उठ सकती है जो सरकारी संस्थानों में केंद्रित होगी।   

उदाहरण के लिए हालिया अतीत में महाराष्ट्र और तेलंगाना जैसे राज्यों में खराब नियोजन और अभाव की धारणा के कारण उत्पादन क्षमता में अत्यधिक वृद्धि की गई है। इसका एक और ताज़ा उदाहरण मुंबई में देखा गया जब शहर में एक दिन के लिए बिजली गुल होने पर नई उत्पादन क्षमता के लिए प्रयास किए जाने लगे थे। 

इसलिए, हो सकता है कि समय-पूर्व अनियोजित सेवानिवृत्ति से अनावश्यक क्षमता वृद्धि हो जिसके अपने आर्थिक व पर्यावरणीय निहितार्थ होंगे।

अनावश्यक ज़ोर

जैसा कि हमने देखा, आयु के आधार पर टीपीपी को समय-पूर्व सेवानिवृत्त करने से किसी उल्लेखनीय बचत की संभावना नहीं है। परिवर्तनीय लागत में वार्षिक बचत लगभग 2 प्रतिशत और वार्षिक कोयला बचत 1-2 प्रतिशत ही होगी।     

प्रणाली की दक्षता में सुधार एक वांछित लक्ष्य है लेकिन समय-पूर्व सेवानिवृत्ति की बजाय अन्य विकल्प इस दृष्टि से अधिक प्रभावी होंगे।

यह तर्क भी ठीक नहीं है कि पर्यावरणीय उपाय स्थापित करने पर पुराने संयंत्र अव्यावहारिक हो जाएंगे। दरअसल, इनमें से कई संयंत्र उसके बाद भी आर्थिक रूप से लाभदायक रहेंगे। और तो और, मंत्रालय ने यह दिशानिर्देश भी जारी कर दिया है कि पुराने संयंत्र सेवानवृत्ति की तारीख तक बगैर ऐसे उपकरण स्थापित किए भी चल सकते हैं।

कहने का मतलब यह नहीं है कि पुराने संयंत्रों में किसी को भी समय-पूर्व सेवानिवृत्त नहीं किया जाना चाहिए। दरअसल, संयंत्रों और इकाइयों पर अलग-अलग अधिक विस्तृत विश्लेषण किया जाना चाहिए। ऐसा करके यह पता लगाया जा सकता है कि कौन-सी विशिष्ट इकाइयों/संयंत्रों को सेवानिवृत्त करना लाभदायक हो सकता है।

किसी भी निर्णय के लिए गहन विश्लेषण की ज़रूरत होगी जिसमें कई मापदंडों का ध्यान रखना होगा – जैसे संयंत्र/इकाई स्तर का विवरण, संविदात्मक प्रतिबद्धताएं, भार की प्रकृति, उत्पादन की प्रकृति, क्षमता का महत्व, आदि। पर्याप्त विश्लेषण के बिना समय-पूर्व सेवानिवृत्ति अनुपयुक्त उपाय प्रतीत होता है और बेहतर होगा कि अतिरिक्त कोयला आधारित क्षमता वृद्धि को रोका जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गरीबी कम करने से ऊर्जा की मांग में कमी

म समझ है कि गरीबी कम होने से ऊर्जा उपयोग में वृद्धि होगी। लेकिन हाल ही में नेपाल, वियतनाम और ज़ाम्बिया में किए गए अध्ययन से विपरीत परिणाम सामने आए हैं, जिसमें गरीबी में कमी का सम्बंध ऊर्जा के कम उपयोग से देखा गया है।

अत्यधिक गरीबी को खत्म करने की वर्तमान रणनीतियां इस सोच पर टिकी हैं कि इसके लिए आर्थिक विकास ज़रूरी है। तभी तो परिवारों और सरकार की खर्च करने की क्षमता बढ़ेगी और हम अधिक वस्तुओं और सेवाओं का उत्पादन कर पाएंगे। इस तरह गरीबी की ‘पहचान’ आय के आधार पर करने से ‘समाधान’ आर्थिक विकास के रूप में उभरता है।

हालांकि, बढ़ती असमानताओं और विश्व के अधिकांश भागों में स्वच्छता संकट के चलते आर्थिक विकास के फायदे शायद न मिल पाएं। ज़ाहिर है कि गरीबी का सम्बंध सिर्फ आय से नहीं बल्कि विभिन्न अधिकारों और सेवाओं से वंचना से है। यानी लोग इसलिए गरीब नहीं है क्योंकि उनके पास प्रतिदिन गरीबी सीमा से अधिक खर्च करने के लिए पैसे नहीं हैं बल्कि उनके पास स्वच्छता, शिक्षा या स्वास्थ्य प्रदान करने वाली वस्तुओं या सेवाओं तक पहुंच नहीं है। वास्तव में आय में वृद्धि के बाद भी इन सेवाओं तक पहुंच बना पाना काफी मुश्किल होता है। वर्तमान में सवा अरब लोगों को स्वच्छता और साफ पानी मयस्सर नहीं है जबकि तीन अरब लोगों के पास स्वच्छ र्इंधन भी नहीं है। यह सही है कि गरीबी अभावों का निर्धारण करती है लेकिन सिर्फ आय एकमात्र कारक नहीं है।

इस विषय में युनिवर्सिटी ऑफ लीड्स में स्कूल ऑफ अर्थ एंड एनवायरनमेंट की शोधकर्ता मार्टा बाल्ट्रुज़ेविक्ज़ और उनके सहयोगियों ने बहुआयामी गरीबी के अन्य कारणों को समझने और कम संसाधनों से इसका समाधान करने पर अध्ययन किया। इसमें मुख्य रूप से दो सवालों पर अध्ययन किया: अच्छे जीवन के लिए क्या चाहिए, और इसमें कितनी ऊर्जा खर्च होती है? शोधकर्ताओं ने यह पता लगाने का भी प्रयास किया है कि इन संसाधनों का किस प्रकार उपयोग किया जाता है, किसके द्वारा किया जाता है, किस उद्देश्य से किया जाता है और इससे गरीबी पर किस प्रकार के प्रभाव पड़ते हैं। इसके साथ ही साफ पानी, भोजन, बुनियादी शिक्षा और आधुनिक ईंधन तक पहुंच से सम्बंधित अभावों का भी अध्ययन किया गया है। अध्ययन में खर्च और जीवन स्तर के आंकड़े राष्ट्रीय पारिवारिक सर्वेक्षणों से और ऊर्जा खपत की जानकारी इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी द्वारा जारी किए गए आकड़ों से ली गई। इनकी मदद से वे यह देख पाए कि कोई परिवार बिजली, ईंधन, यातायात के लिए पेट्रोल तथा सेवाओं और सामान वगैरह के रूप में कितनी ऊर्जा का उपयोग करता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन घरों में स्वच्छ ईंधन, सुरक्षित पानी, बुनियादी शिक्षा और पर्याप्त मात्रा में भोजन उपलब्ध है, यानी जो लोग अत्यधिक गरीब की श्रेणी में नहीं आते हैं, वे देश के राष्ट्रीय औसत से सिर्फ आधी ऊर्जा का उपयोग करते हैं। यह निष्कर्ष इस तर्क के एकदम विपरीत है कि अत्यधिक गरीबी से बचने के लिए अधिक संसाधनों और ऊर्जा की ज़रूरत है। ऊर्जा खपत में कमी का सबसे बड़ा कारण खाना बनाने के लिए लकड़ी, कोयला या चारकोल जैसे पारंपरिक ईंधन से हटकर अधिक कुशल और कम प्रदूषण करने वाले र्इंधनों (बिजली या गैस) का उपयोग करना है।

देखा जाए तो ज़ाम्बिया, नेपाल और वियतनाम में आमदनी और सामान्य खर्च और मनोरंजन पर किए जाने वाले खर्चों की अपेक्षा आधुनिक ऊर्जा संसाधनों का वितरण बहुत असमान है। इसके परिणामस्वरूप, अमीर परिवारों की तुलना में गरीब परिवारों को अधिक मलिन ऊर्जा का उपयोग करना पड़ता है जिसके स्वास्थ्य तथा जेंडर सम्बंधी कुप्रभाव होते हैं। अकुशल ईंधन के उपयोग से खाना पकाने में बहुत अधिक ऊर्जा की खपत भी होती है।

ऐसे में एक सवाल उठता है कि क्या उच्च आय और अधिक ऊर्जा उपकरणों के उपयोग करने वाले परिवारों के पास गरीबी से बचने की बेहतर संभावना होती है? कुछ परिवारों के लिए यह सही हो सकता है लेकिन उच्च आय या फिर मोबाइल फोन होना न तो बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने की शर्त हैं और न ही इसकी गारंटी। बिजली और स्वच्छता तक पहुंच के अभाव में कई अपेक्षाकृत सम्पन्न परिवार भी बच्चों के कुपोषण या कोयले के उपयोग से जुड़ी स्वास्थ्य समस्याओं से बच नहीं पाते। यह विडंबना है कि अधिकांश परिवारों के लिए स्वच्छ र्इंधन की तुलना में मोबाइल फोन प्राप्त करना ज़्यादा आसान है। ऐसे में घरेलू आय के माध्यम से विकास को मापने से गरीबी और उसके अभावों की अधूरी समझ ही प्राप्त हो सकती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि वे यह नहीं कह रहे हैं कि गरीब देशों में विकास के लिए अधिक ऊर्जा का उपयोग न किया जाए। उनका कहना है कि कुल ऊर्जा खपत की बजाय गरीबी से निजात पाने के लिए सामूहिक सेवाओं पर अधिक निवेश किया जाए।

इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि गरीब देशों के पास इन सेवाओं में निवेश करने की इतनी कम क्षमता क्यों है। वास्तव में गरीबी होती नहीं, बल्कि निर्मित की जाती है – संरचनात्मक समायोजन या राष्ट्रीय ऋण पर ऊंचे ब्याज जैसी धन निष्कर्षण की सम्बंधित प्रणालियों के माध्यम से।

वैश्विक जलवायु परिवर्तन के लिए मुख्य रूप से अमीर अल्पसंख्यक वर्ग ज़िम्मेदार है जो अधिक ऊर्जा का उपयोग करता है, लेकिन दुर्भाग्य से इसके परिणाम गरीब बहुसंख्यक वर्ग के लोगों को वहन करना पड़ते हैं। इस नज़रिए से देखें तो मानव विकास न सिर्फ आर्थिक न्याय का बल्कि जलवायु न्याय का भी मुद्दा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डैटा मुहाफिज़ के रूप में विद्युत वितरण कंपनियां – नरेंद्र पई, आदित्य चुनेकर

र्जा मंत्रालय के स्मार्ट मीटर नेशनल प्रोग्राम (राष्ट्रीय स्मार्ट मीटर कार्यक्रम) के तहत वर्ष 2022 तक 25 करोड़ घरों में पारंपरिक बिजली मीटर के स्थान पर स्मार्ट मीटर लगाने की योजना है। उम्मीद है कि स्मार्ट मीटर स्वत: रीडिंग लेकर, बिल बनाकर, और समय से भुगतान न करने वाले उपभोक्ताओं का दूर से ही कनेक्शन काटकर या कनेक्शन कटने का भय पैदा कर समय पर बिल भुगतान सुनिश्चित करेंगे और इस तरह विद्युत वितरण कंपनियों (डिस्कॉम) का राजस्व बढ़ाने में मदद करेंगे। स्मार्ट मीटर, विद्युत वितरण और भुगतान के क्षेत्र में लंबे समय से चली आ रही कुछ समस्याओं के समाधान के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा किए गए कुछ प्रयासों में से एक है।

देश भर में लगभग 21 लाख स्मार्ट मीटर लगाए चुके हैं और वे काम भी करने लगे हैं। और लगभग 91 लाख स्मार्ट मीटर लगाए जाने की तैयारी है। ऐसे में ज़रूरत है कि अविलंब इतनी बड़ी संख्या में स्मार्ट मीटर लगाए जाने के अनुभव को पारदर्शिता के साथ दर्ज और अच्छी तरह विश्लेषित किया जाए। यह लेख इसके ऐसे ही एक पहलू – डैटा गोपनीयता के मुद्दे – पर प्रकाश डालता है। स्वचालित बिलिंग और दूर से कनेक्शन काटने के अलावा स्मार्ट मीटर हर आधे घंटे या उससे भी कम समय अंतराल में उपभोक्ताओं की छोटी से छोटी बिजली खपत के आंकड़े भी एकत्रित कर सकते हैं। यदि इस डैटा का प्रभावी ढंग से उपयोग किया जाता है तो यह विद्युत वितरण कंपनियों को बुनियादी विद्युत वितरण ढांचा बनाने, बिजली की खरीद और उपभोक्ताओं को मूल्य-वर्धित-सेवा देने में मदद कर सकता है। इससे वितरण कंपनियों की वित्तीय स्थिति और भी बेहतर हो सकती है।

लेकिन, कम समय अंतराल पर बिजली खपत का डैटा एकत्रित करने के अलावा स्मार्ट मीटर बिजली उपभोक्ता की निजी जानकारियां भी पता कर सकते हैं। जैसे परिवारजनों के घर में बिताने वाले समय का पैटर्न, उपकरणों के स्वामित्व और उनके उपयोग का पैटर्न, और यहां तक कि विश्लेषण और अनुमान के आधार पर उपभोक्ता की मनोरंजन आदतें और प्राथमिकताएं।

सर्वोच्च न्यायालय निजता के अधिकार को मौलिक अधिकार मानता है। इसलिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों और उपयुक्त सहमति के बिना इस तरह व्यक्तिगत उपभोग के डैटा का उपयोग करना और उसे साझा करना निजता के अधिकार का उल्लंघन माना जाएगा। इसके अलावा, डैटा प्रबंधन और डैटा साझा करने की कम सुरक्षित प्रणाली गैर-कानूनी गतिविधियों को भी न्यौता दे सकती है। जैसे, धोखाधड़ी, सेंध लगाना या तांक-झांक करना। दुनिया के कई देशों में इस तरह की गोपनीयता और सुरक्षा सम्बंधी चिंताओं को स्मार्ट मीटर-विशिष्ट डैटा सुरक्षा तंत्र के माध्यम से दूर किया जा रहा है, जो सामान्य डैटा सुरक्षा तंत्र के पूरक की तरह कार्य करता है।

यह भारतीय संदर्भ में दो सवाल उठाता है: मौजूदा मीटर में डैटा सुरक्षा और गोपनीयता सुनिश्चित करने वाला तंत्र कितना प्रभावी है; और आगामी निजी डैटा संरक्षण अधिनियम (पर्सनल डैटा प्रोटेक्शन एक्ट) के नियम-निर्देशों का पालन करने के लिए वितरण कंपनियां कितनी तैयार हैं? इन सवालों के जवाब काफी हद तक निराशजनक ही हैं।

सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (आईटी एक्ट) और 2011 के ‘उचित सुरक्षा उपाय और प्रक्रिया एवं संवेदनशील निजी डैटा अथवा सूचना’ के नियम, स्मार्ट मीटर और साधारण मीटर बिलिंग, दोनों से हासिल डैटा पर लागू होते हैं। लेकिन वितरण कंपनियों द्वारा आईटी एक्ट के पालन के बारे में सार्वजनिक तौर पर कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। जैसे, एक नियमानुसार इलेक्ट्रॉनिक तरीके से संग्रहित सभी तरह के डैटा को संभालने के संदर्भ में अपनाई गई गोपनीयता नीति प्रकाशित करना अनिवार्य है। लेकिन अधिकांश विद्युत वितरण कंपनियां यह मानती हैं कि ये नियम सिर्फ उनकी वेबसाइटों के माध्यम से एकत्रित डैटा पर लागू होते हैं।

विद्युत सम्बंधी तकनीकी और नीतिगत मसलों पर सरकार को सलाह देने वाले वैधानिक निकाय, केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए), ने उन्नत मीटरिंग की मूलभूल व्यवस्था (एएमआई) के सम्बंध में विस्तृत कार्यात्मक शर्तें/अनिवार्यताएं जारी की हैं। स्मार्ट मीटर लगाए जाने के कुछ अनुबंधों में वितरण कंपनियों द्वारा इन दिशानिर्देशों को शब्दश: अपनाया गया है, लेकिन अफसोस कि इन दिशानिर्देशों में उपभोक्ता की गोपनीयता सम्बंधी कोई निर्देश नहीं हैं।

अच्छी बात यह है कि उन्नत मीटरिंग (एएमआई) सेवा प्रदाताओं को नियुक्त करने के लिए ऊर्जा मंत्रालय द्वारा जारी किए गए मानक निविदा पत्र में गोपनीयता सम्बंधी नियम शामिल हैं। हालांकि, वितरण कंपनियों द्वारा इन्हें अपनाए जाने के बारे में अभी भी कोई जानकारी नहीं हैं। यदि मौजूदा स्मार्ट मीटर डैटा सुरक्षा तंत्र शिथिल है भी, तो निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 के लागू होने के बाद स्थिति काफी बदल सकती है।

निजी डैटा का आर्थिक उपयोग करने और किसी व्यक्ति की निजता के अधिकार को बनाए रखने के बीच संतुलन बनाने के लिए सरकार ने निजी डैटा सुरक्षा विधेयक 2019 का प्रस्ताव रखा था। यह महत्वपूर्ण बिल वर्तमान में संयुक्त संसदीय समिति के समक्ष है और कानून बनने से बस कुछ ही कदम दूर है। वास्तव में, निजी डैटा सुरक्षा विधेयक में उल्लेखित नियमों से मिलते-जुलते नीति-नियमों को पहले ही सम्बंधित क्षेत्रों में लागू किया जाने लगा है। मसलन, राष्ट्रीय स्वास्थ्य डैटा प्रबंधन नीति के ज़रिए सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में।

निजी डैटा सुरक्षा विधेयक लागू होने के बाद यह आईटी अधिनियम के नियमों को बदल देगा। और मासिक बिलिंग और स्मार्ट मीटर डैटा सहित सभी वितरण कंपनियों और सभी उपभोक्ताओं के डैटा को इस अधिनियम के दायरे में ले आएगा। चाहे स्मार्ट मीटर द्वारा डैटा लिया हो या पारंपरिक मीटर द्वारा, सभी वितरण कंपनियों को यह सुनिश्चित करना होगा कि उनके द्वारा की जा रही डैटा हैंडलिंग और इसमें शामिल तीसरे पक्ष द्वारा व्यक्तिगत गोपनीयता का उल्लंघन नहीं किया जाएगा। इसके अलावा नए कानून के तहत, डैटा सुरक्षा प्राधिकरण को डैटा नियामक के रूप में नियुक्त किया जाएगा और वितरण कंपनियां इसके नियमों से बंधी होंगी। इस कानून के तहत कंपनियों द्वारा नियमों का पालन न किए जाने की स्थिति में तय दंड काफी अधिक है। यह राशि उनके वार्षिक वैश्विक व्यापार का चार प्रतिशत तक हो सकती है। प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण सेक्टर नियामकों से परामर्श करके सेक्टर विशेष नियम भी बना सकता है।

विद्युत क्षेत्र सम्बंधी विशेष नियम व्यापक डैटा सुरक्षा फ्रेमवर्क पर आधारित होने चाहिए जो खासकर स्मार्ट मीटर डैटा को ध्यान में रखकर बनाए गए हों। उसमें स्पष्ट निर्देश होना चाहिए कि विद्युत अधिनियम 2003 के तहत स्मार्ट मीटर किस तरह का डैटा एकत्र कर सकते हैं, डैटा संग्रहण की अवधि कितनी होगी और डैटा का किस तरह का उपयोग किया जा सकता है। डैटा संग्रह और उसके उपयोग के मुताबिक उपभोक्ता सहमति का प्रारूप बनाया जाना चाहिए। प्रारूप में डैटा और उसके सार तक उपभोक्ता की पूर्ण पहुंच की, उपभोक्ता द्वारा अपनी सहमति की शर्तों को बदलने की व्यवस्था होनी चाहिए, और स्पष्ट व सरल शब्दों में गोपनीयता नीति उपलब्ध होनी चाहिए। इसके अलावा, डैटा शेयरिंग के नियम और उत्तरदायी तंत्र (ऑडिट अपेक्षाएं और सार्वजनिक रिपोर्ट) इस प्रणाली का हिस्सा होना चाहिए।

स्मार्ट मीटर लगाए जाने की प्रक्रिया की तेज़ रफ्तार देखते हुए, ऊर्जा मंत्रालय को केंद्रीय विद्युत प्रधिकरण, केंद्रीय और राज्य नियामकों, वितरण कंपनियों, स्मार्ट मीटर निर्माताओं, सिविल सोसाइटी संगठनों और अन्य हितधारकों के साथ परामर्श करके इस तरह का फ्रेमवर्क तत्काल बनाना चाहिए और इसे श्वेत पत्र के रूप में प्रकाशित करना चाहिए। ऊर्जा मंत्रालय को इस पर सार्वजनिक टिप्पणियां भी मांगना चाहिए। यह फ्रेमवर्क, विशिष्ट नियमों को विकसित करने हेतु बिजली नियामकों के साथ विचार-विमर्श करने के लिए प्रस्तावित डैटा सुरक्षा प्राधिकरण की दिशा में एक अच्छी शुरुआत हो सकती है। तब तक, वितरण कंपनियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि डैटा मुहाफिज़ों के रूप में वे अपनी भूमिका समझें और उपभोक्ता और कंपनी, दोनों के हित में उपभोक्ता की गोपनीयता को सुरक्षा देने की तैयारी शुरू कर दें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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उपकरणों से बिखरती ऊष्मा का उपयोग

रेफ्रिजरेटर, बॉयलर और यहां तक कि बल्ब अपने आसपास के वातावरण में निरंतर ऊष्मा बिखेरते हैं। सैद्धांतिक रूप से इस व्यर्थ ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित किया जा सकता है। गाड़ियों के इंजिन और अन्य उच्च-ताप वाले स्रोतों के साथ तो ऐसा किया जाता है लेकिन इस तकनीक का उपयोग घरेलू उपकरणों के लिए थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि ये काफी कम ऊष्मा छोड़ते हैं।

लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा उपकरण तैयार किया है जो तरल पदार्थों का उपयोग करके निम्न-स्तर की ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित कर सकता है। गौरतलब है कि वैज्ञानिक काफी समय से ऐसे पदार्थों के बारे में जानते हैं जो ऊष्मा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं। यह कार्य विशेष अर्धचालकों द्वारा किया जाता है जिन्हें ताप-विद्युत पदार्थ कहते हैं। जब इनसे बनी चिप्स का एक सिरा गर्म और दूसरा ठंडा होता है तब इलेक्ट्रान गर्म से ठंडे सिरे की ओर बहने लगते हैं। कई चिप्स को एक साथ जोड़ने पर एक स्थिर विद्युत प्रवाह उत्पन्न होता है।

लेकिन जो पदार्थ अभी ज्ञात हैं वे महंगे हैं और तापमान में सैकड़ों डिग्री सेल्सियस के अंतर पर काम करते हैं। ऐसे में यह तकनीक रेफ्रिजरेटर जैसे निम्न-स्तर के ताप स्रोतों के लिए बेकार है। इस समस्या को दूर करने के लिए हुआज़हौंग युनिवर्सिटी ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के भौतिक विज्ञानी जून ज़ाऊ और उनके सहयोगियों ने थर्मोसेल्स की ओर रुख किया। इन उपकरणों में गर्म से ठंडे की ओर विद्युत आवेश को प्रवाहित करने के लिए ठोस की बजाय तरल पदार्थों का उपयोग किया जाता है। इनमें इलेक्ट्रॉन्स का नहीं बल्कि आयनों का स्थानांतरण होता है।

थर्मोसेल्स कम तापमान अंतर को बिजली में परिवर्तित करने में सक्षम होते हैं लेकिन विद्युत धारा बहुत कम होती है। कारण यह है कि इलेक्ट्रॉन्स की तुलना में आयन सुस्त होते हैं। इसके अलावा इलेक्ट्रॉन के विपरीत आयन अपने साथ ऊष्मा का भी प्रवाह करते हैं जिससे दोनों सिरों के बीच तापमान का अंतर कम हो जाता है।  

ज़ाऊ की टीम ने एक छोटी थर्मोसेल से शुरुआत की जिसके निचले व ऊपरी सिरों पर इलेक्ट्रोड थे। निचले और ऊपरी इलेक्ट्रोड के बीच 50 डिग्री सेल्सियस का अंतर बनाए रखा गया। उन्होंने इस चैम्बर में फैरीसाइनाइड नामक आयनिक पदार्थ भर दिया।

गर्म इलेक्ट्रोड के नज़दीक हों तो फैरीसाइनाइड आयन एक इलेक्ट्रान छोड़ते हैं और चार ऋणावेश युक्त Fe(CN)6-4 से तीन ऋणावेश युक्त Fe(CN)6-3 में बदल जाते हैं। मुक्त इलेक्ट्रॉन्स एक बाहरी सर्किट के माध्यम से गर्म से ठंडे इलेक्ट्रोड की ओर बहते हुए सर्किट में लगे छोटे उपकरणों को उर्जा प्रदान करते हैं। ये इलेक्ट्रान जब ठंडे इलेक्ट्रोड तक पहुंचते हैं तब ये Fe(CN)6-3 के साथ जुड़ जाते हैं। इससे पुन: Fe(CN)6-4 आयन उत्पन्न होते हैं जो फिर से गर्म इलेक्ट्रोड की ओर चले जाते हैं और यह चक्र निरंतर चलता रहता है।   

इन गतिमान आयनों द्वारा वाहित गर्मी को कम करने के लिए ज़ाऊ की टीम ने फैरीसाइनाइड में एक धनावेशित कार्बन यौगिक गुआनिडिनियम जोड़ दिया। ठंडे इलेक्ट्रोड पर गुआनिडिनियम ठंडे Fe(CN)6-4 आयनों को क्रिस्टल्स में परिवर्तित कर देता है। क्योंकि तरल पदार्थों की तुलना में ठोस पदार्थों की ऊष्मा चालकता कम होती है, वे गर्म से ठंडे इलेक्ट्रोड की ओर जाने वाली गर्मी को सोख लेते हैं। गुरुत्वाकर्षण के कारण ये क्रिस्टल्स गर्म इलेक्ट्रोड की ओर चले जाते हैं जहां गर्मी के कारण ये वापिस तरल बन जाते हैं।   

साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार थर्मोसेल के पिछले संस्करणों की तुलना में इलेक्ट्रोड के उतने ही क्षेत्रफल के लिए यह थर्मोसेल पांच गुना अधिक बिजली उत्पन्न करती है। यह एक सामान्य व्यावसायिक उपकरण से दो गुना अधिक दक्षता प्रदान करता है। टीम के अनुसार एक 20 थर्मोसेल वाले पुस्तक के आकार के मॉड्यूल से एक एलईडी लाइट और एक पंखे को ऊर्जा प्रदान की जा सकती है। साथ ही एक मोबाइल फोन भी चार्ज किया जा सकता है। टीम के लिए अगला कदम इस उपकरण को और सस्ता बनाना और ऐसी सामग्री का उपयोग करना है जो अधिक से अधिक ऊष्मा को अवशोषित कर सके। इसकी सहायता से हम अपने आसपास के वातावरण में उपलब्ध गर्मी से छोटे गैजेट्स को उर्जा देने में सक्षम हो सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सौर ऊर्जा की मदद से र्इंधन निर्माण

ढ़ता वैश्विक तापमान और जलवायु परिवर्तन आज काफी गंभीर समस्या है। इसे कम करने के प्रयास में लंबे समय से वैज्ञानिक जीवाश्म र्इंधनों के विकल्प के रूप में, सौर ऊर्जा का दोहन कर, मीथेन बनाने के प्रयास कर रहे हैं। मिशिगन युनिवर्सिटी के ज़ेटियन माई और उनके साथियों का हालिया शोध इसी दिशा में एक और कदम है। उन्होंने तांबा और लोहा आधारित ऐसा उत्प्रेरक विकसित किया है जो सौर ऊर्जा का उपयोग कर कार्बन डाईऑक्साइड को मीथेन में परिवर्तित करता है, जिसे र्इंधन के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

हाल ही में अमेरिका में बिजली पैदा करने के प्राथमिक स्रोत के रूप में मीथेन ने कोयले को मात दी है। मीथेन से बिजली पैदा करने की प्रक्रिया में होता यह है कि मीथेन जलने पर कार्बन डाईऑक्साइड और पानी में बदल जाती है और इस प्रक्रिया में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस ऊष्मा का उपयोग बिजली बनाने में किया जाता है।

सौर ऊर्जा की मदद से मीथेन बनाने की प्रक्रिया इसके विपरीत है। इसमें विद्युत की मदद से कार्बन डाईऑक्साइड और पानी को मीथेन में बदला जाता है। हालांकि इस तरह मीथेन बनाना इतना आसान नहीं है। कार्बन डाईऑक्साइड के एक अणु में आठ इलेक्ट्रॉन और चार प्रोटॉन जुड़ने पर मीथेन का एक अणु बनता है। हर इलेक्ट्रॉन और हर प्रोटॉन को अणु में जोड़ने के लिए ऊर्जा की ज़रूरत होती है।

वैज्ञानिक यह तो पहले ही पता लगा चुके थे कि जब तांबे के कण प्रकाश-अवशोषक पदार्थों के साथ जुड़ते हैं तब वे कार्बन डाईऑक्साइड को अधिक ऊर्जा वाले यौगिकों में परिवर्तित कर देते हैं। लेकिन इसमें समस्या यह थी कि इनकी दक्षता और अभिक्रिया दर कम थी। इसलिए वे तांबे और अन्य धातुओं की जोड़ियों को प्रकाश-अवशोषकों के साथ जोड़ने का प्रयास कर रहे थे।

इसी प्रयास में माई और उनके साथियों ने सिलिकॉन पापड़ (सिलिकॉन अर्धचालक की पतली चादर) के ऊपर प्रकाश-अवशोषक गैलियम नाइट्राइड से बने नैनोवायर विकसित किए। नैनोवायर पर उन्होंने विद्युत-लेपन करके तांबा और लोहे के 5-10 नैनोमीटर बड़े कण जोड़े। इस तरह तैयार सेटअप ने सूक्ष्म सौर-सेलों की तरह काम किया, यानी सूर्य के प्रकाश को अवशोषित कर उसे विद्युत ऊर्जा में बदल दिया। इसका उपयोग कार्बन डाइऑक्साइड को मीथेन में परिवर्तित करने के लिए किया गया।

तैयार सेटअप ने प्रकाश और कार्बन डाईऑक्साइड व पानी की मौजूदगी में प्रकाश में मौजूद 51 प्रतिशत ऊर्जा को मीथेन में परिवर्तित किया। प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक तांबा-लोहा आधारित यह नया उत्प्रेरक अब तक की सबसे तीव्र दर से और सबसे अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने वाला है।

माई का कहना है कि इस सेटअप का एक और फायदा है – इसमें इस्तेमाल किए गए प्रकाश-अवशोषक और उत्प्रेरक सस्ते और आसानी से उपलब्ध हैं, और उद्योगों में उपयोग किए जा रहे हैं। लेकिन मीथेन उत्पादन को व्यावहारिक रूप में लाने के लिए अभी उत्पादन दक्षता और दर, दोनों ही बढ़ाने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नाभिकीय उर्जा को ज़िन्दा रखने के प्रयास – एस. अनंतनारायण

1970 के दशक में, तेल संकट की शुरुआत से ही दुनिया भर में नाभिकीय उर्जा संयंत्रों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई। साथ ही पवन और सौर उर्जा को भी जीवाश्म र्इंधन के विकल्प के रूप में देखा गया। इन सभी रुाोतों ने बिजली पैदा करने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन का आश्वासन भी दिया।

वाशिंगटन के जेफ जॉनसन ने अमेरिकन केमिकल सोसाइटी की पत्रिका केमिकल एंड इंजीनियरिंग न्यूज़ में प्रकाशित अपने लेख में इन गैर-जीवाश्म र्इंधन आधारित संसाधनों की धीमी वृद्धि और कोयले एवं तेल पर हमारी निर्भरता को तेज़ी से कम करने के लिए विशेष उपाय करने की ज़रूरत की ओर ध्यान आकर्षित किया है। जेफ जॉनसन, पेरिस स्थित एक स्वायत्त अंतर-सरकारी संगठन, इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के एक अध्ययन का हवाला देते हुए कहते हैं कि यदि सरकारें हस्तक्षेप नहीं करती हैं तो 1990 के दशक में नाभिकीय उर्जा का जो योगदान 18 प्रतिशत था वह 2040 तक घटकर मात्र 5 प्रतिशत तक रह जाएगा।

डैटा से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों पर ध्यान देने और उनकी बढ़ती उपस्थिति की रिपोर्ट्स के बावजूद विभिन्न प्रकार के ऊर्जा उत्पादन में जीवाश्म र्इंधन की हिस्सेदारी लगभग आधी सदी से अपरिवर्तित रही है। दिए गए रेखाचित्र से पता चलता है कि नवीकरणीय संसाधनों में काफी धीमी वृद्धि हुई है, इसी तरह नाभिकीय उर्जा की हिस्सेदारी भी कम हुई है, कोयले का उपयोग अपरिवर्तित रहा है और तेल की जगह प्राकृतिक गैस का उपयोग होने लगा है।

स्थिति तब और अधिक भयावह नज़र जाती है जब हम देखते हैं कि गैर-जीवाश्म बिजली में कोई बदलाव न होने के पीछे बिजली की मांग में स्थिरता का कारण नहीं है। आंकड़ों से पता चलता है कि बिजली खपत की दर में तेज़ी से वृद्धि हुई है जो आने वाले दशकों में और अधिक होने वाली है।

यह तो स्पष्ट है कि यदि कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस के उपयोग में कमी करनी है तो उसकी भरपाई नवीकरणीय संसाधनों और नाभिकीय उर्जा में तेज़ वृद्धि से होनी चाहिए। नवीकरणीय ऊर्जा में पनबिजली, पवन ऊर्जा और सौर उर्जा शामिल हैं। पनबिजली संयंत्र नदियों पर उपयुक्त स्थल पर निर्भर करते हैं और नए संयंत्र लगाने का मतलब आबादियों और पारिस्थितिक तंत्र को अस्त-व्यस्त करना है। पवन ऊर्जा की काफी गुंजाइश है लेकिन इसका प्रसार इसकी सीमा तय करता है। साथ ही इसे स्थापित करने के लिए निवेश की काफी आवश्यकता होती है और समय भी लगता है। सौर पैनल अब पहले की तुलना में और अधिक कुशल हैं, लेकिन बड़े पैमाने पर इन्हें स्थापित करने के लिए काफी ज़मीन की ज़रूरत होगी और ज़मीन पर वैसे ही काफी दबाव है।

इसलिए विकल्प के रूप में हमें नाभिकीय उर्जा को बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा नहीं है कि इसके कोई दुष्परिणाम नहीं हैं। इसके साथ रेडियोधर्मी अपशिष्ट का उत्पन्न होना, दुर्घटना का जोखिम और भारी लागत जैसी समस्याएं भी हैं। हालांकि, नवीकरणीय संसाधनों की भौतिक सीमाओं को देखते हुए और जीवाश्म र्इंधन को आवश्यक रूप से कम करने के लिए, अपशिष्ट के निपटान और सुरक्षा के मानकों के सबसे बेहतरीन उपायों के साथ, नाभिकीय उर्जा ही एकमात्र रास्ता है।

इसी संदर्भ में हमें देखना होगा कि वर्ष 2018 में कुल विश्व उर्जा में नाभिकीय घटक की भागीदारी केवल 10 प्रतिशत रह जाएगी। इसके लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। एक महत्वपूर्ण कारक की ओर अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा संगठन (आईईए) ने ध्यान दिलाया है। आईईए के अनुसार उत्पादन क्षमता का निर्माण तो हुआ है लेकिन उसका एक बड़ा हिस्सा काफी पुराना हो गया है जिसे प्रतिस्थापित करने की आवश्यकता है। विकसित देशों में कुल बिजली उत्पादन में नाभिकीय उर्जा की भागीदारी 18 प्रतिशत है। 500 गीगावॉट के कुल उत्पादन में से अमेरिका अपने 98 नाभिकीय संयंत्रों से 105 गीगावॉट का उत्पादन करता है। फ्रांस अपने 58 नाभिकीय संयंत्रों से 66 गीगावॉट का उत्पादन करता है जो कुल बिजली उत्पादन का 70 प्रतिशत है। इसकी तुलना में, भारत में 7 स्थानों पर स्थित 22 नाभिकीय संयंत्रों से 6.8 गीगावॉट का उत्पादन होता है जबकि यहां बिजली का कुल उत्पादन 385 गीगावॉट है।     

आईईए की रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका, युरोपीय संघ और रूस के अधिकांश संयंत्र 35 वर्षों से अधिक पुराने हैं। ये संयंत्र या तो अपना 40 वर्षीय जीवन पूरा कर चुके हैं या फिर उसके करीब हैं। विकसित देशों में पुराने संयंत्रों के स्थान पर नए संयंत्र स्थापित करना कोई विकल्प नहीं है। समय लगने के अलावा, नए संयंत्रों से बिजली उत्पादन की लागत मौजूदा संयंत्रों की तुलना में काफी अधिक होगी। इसके साथ ही नए संयंत्र प्रतिस्पर्धा में असमर्थ होंगे जिसके परिणामस्वरूप जीवाश्म आधारित बिजली का उपयोग बढ़ जाएगा। एक ओर जहां परमाणु संयंत्रों को अपशिष्ट निपटान और सुरक्षा के विशेष उपायों की लागत वहन करना होती है, वहीं जीवाश्म र्इंधन आधारित उद्योग को पर्यावरण क्षति के लिए कोई लागत नहीं चुकानी पड़ती है। 

इसलिए विकसित देशों में केवल 11 नए संयंत्र स्थापित किए जा रहे हैं जिनमें से 4 दक्षिण कोरिया में और एक-एक 7 अन्य देशों में हैं। हालांकि, आईईए के अनुसार विकासशील देशों में से, चीन में 11 (46 गीगावॉट की क्षमता वाले 46 मौजूदा संयंत्रों के अलावा), भारत में 7, रूस में 6, यूएई में 4 और कुछ अन्य देशों में स्थापित किए जा रहे हैं। सारे के सारे संयंत्र शासकीय स्वामित्व में हैं। 

चूंकि कम लागत वाले नए संयंत्रों के किफायती निर्माण के लिए अभी तक कोई मॉडल मौजूद नहीं है, विकसित देश मौजूदा संयंत्रों को पुनर्निर्मित और विस्तारित करने के लिए कार्य कर रहे हैं। आईईए के आकलन के अनुसार, एक मौजूदा संयंत्र के जीवनकाल को 20 वर्ष तक बढ़ाने की लागत आधे से एक अरब डॉलर बैठेगी। यह लागत, नए संयंत्र को स्थापित करने की लागत या पवन या सौर उर्जा संयंत्र स्थापित करने की लागत से कम ही होगी और इसको तैयार करने के लिए ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। अमेरिका में 98 सक्रिय संयंत्रों के लाइसेंस को 40 साल से बढ़ाकर 60 साल कर दिया गया है।     

जॉनसन के उक्त लेख में एमआईटी के समूह युनियन ऑफ कंसन्र्ड साइंटिस्ट के पेपर दी न्यूक्लियर पॉवर डिलेमा का भी ज़िक्र किया गया है। यह पेपर, नाभिकीय उर्जा के प्रतिकूल अर्थशास्त्र और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को थामने में इसके निहितार्थ को लेकर आइईए की चिंता को ही प्रतिध्वनित करता है। एमआईटी का थिंक टैंक कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए राज्य के हस्तक्षेप से कार्बन क्रेडिट की प्रणाली को लागू करने और कार्बन स्तर को कम करने वाले मानकों के लिए प्रलोभन देने की सिफारिश करता है। इसके साथ ही कम कार्बन उत्सर्जन वाली टेक्नॉलॉजी के लिए सब्सिडी की सिफारिश भी करता है ताकि वे प्रतिस्पर्धा कर सकें।    

कितनी बिजली चाहिए?

एक ओर तो इंजीनियर और अर्थशास्त्री बढ़ती मांगों को पूरा करने के लिए हरित ऊर्जा के उत्पादन के तरीकों पर चर्चा कर रहे हैं, वहीं हमें अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली उर्जा कम करने के तरीके भी खोजना होगा। यह निश्चित रूप से एक कठिन काम है क्योंकि ऊर्जा हमारी व्यापार प्रणालियों का आधार है, और ऐसे परिवर्तन जिनका थोड़ा भी भौतिक प्रभाव है वे राजनैतिक रूप से असंभव होंगे। नाभिकीय उर्जा का कोई विकल्प नहीं है और उसमें भी कई बाधाएं हैं, यह विश्वास शायद आईईए और एमआईटी जैसी शक्तिशाली लॉबियों को मजबूर करे कि वे उत्पादन समस्या का समाधान खोजने की रट लगाना छोड़कर उपभोग कम करने का संदेश फैलाने का काम करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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