कुछ लोगों को मच्छर ज़्यादा क्यों काटते हैं?

यह तो जानी-मानी बात है कि कुछ लोगों को मच्छर बहुत ज़्यादा काटते हैं जबकि कुछ लोग खुले में बैठे रहें तो भी मच्छर उन्हें नहीं काटते। वैज्ञानिकों का मत है कि मच्छरों द्वारा व्यक्तियों के बीच यह भेदभाव उन व्यक्तियों के आसपास उपस्थित निजी वायुमंडल के कारण होता है। मच्छर इस वायुमंडल में छोटे-छोटे परिवर्तनों का लाभ उठाते हैं।

सबसे पहले तो मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की मदद से अपने शिकार को ढूंढते हैं। हम जो सांस छोड़ते हैं उसमें कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है। यह कार्बन डाईऑक्साइड तुरंत आसपास की हवा में विलीन नहीं हो जाती बल्कि कुछ समय तक हमारे आसपास ही टिकी रहती है। मच्छर इस कार्बन डाईऑक्साइड के सहारे आपकी ओर बढ़ते हैं।

मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता की ओर रुख करके उड़ते रहते हैं जो उन्हें आपके करीब ले आता है। देखा गया है कि मच्छर कार्बन डाईऑक्साइड की सांद्रता की मदद से 50 मीटर दूर के लक्ष्य को भांप सकते हैं। यह तो हुई सामान्य सी बात – कार्बन डाईऑक्साइड के पैमाने पर तो सारे मनुष्य लगभग बराबर होंगे। इसके बाद आती है बात व्यक्तियों के बीच भेद करने की।

वैज्ञानिकों का मत है कि इस मामले में मच्छर कई चीज़ों का सहारा लेते हैं। इनमें त्वचा का तापमान, व्यक्ति के आसपास मौजूद जलवाष्प और व्यक्ति का रंग महत्वपूर्ण हैं। मगर सबसे महत्वपूर्ण अंतर उन रसायनों से पड़ता है जो व्यक्ति की त्वचा पर उपस्थित सूक्ष्मजीव हवा में छोड़ते रहते हैं। त्वचा पर मौजूद बैक्टीरिया हमारे पसीने के साथ निकलने वाले रसायनों को वाष्पशील रसायनों में तबदील कर देते हैं जो हमारे आसपास की हवा में तैरते रहते हैं। जब मच्छर व्यक्ति से करीब 1 मीटर दूर पहुंच जाता है तो वह इन रसायनों की उपस्थिति को अपने गंध संवेदना तंत्र से ग्रहण करके इनके बीच भेद कर सकता है। सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पन्न इस रासायनिक गुलदस्ते में 300 से ज़्यादा यौगिक पाए गए हैं और यह मिश्रण व्यक्ति की जेनेटिक बनावट और उसकी त्वचा पर मौजूद सूक्ष्मजीवों से तय होता है। तो यह है आपकी युनीक आइडेंटिटी मच्छर के दृष्टिकोण से।

2011 में प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि जिन इंसानों की त्वचा पर सूक्ष्मजीवों की ज़्यादा विविधता पाई जाती है, उन्हें मच्छर कम काटते हैं। कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले लोग मच्छरों को ज़्यादा लुभाते हैं। और तो और, यह भी देखा गया कि कम सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरीर पर निम्नलिखित बैक्टीरिया पाए गए: लेप्टोट्रिचिया, डेल्फ्टिया, एक्टिनोबैक्टीरिया जीपी3, और स्टेफिलोकॉकस। दूसरी ओर, भरपूर सूक्ष्मजीव विविधता वाले मनुष्यों के शरी़र पर पाए जाने वाले बैक्टीरिया में स्यूडोमोनास और वेरिओवोरेक्स ज़्यादा पाए गए।

वॉशिगटन विश्वविद्यालय के जेफ रिफेल का कहना है कि इन रासायनिक गुलदस्तों के संघटन में छोटे-मोटे परिवर्तनों से मच्छरों द्वारा काटे जाने की संभावना में बहुत अंतर पड़ता है। वही व्यक्ति बीमार हो तो यह संघटन बदल भी सकता है। वैसे रिफेल यह भी कहते हैं कि सूक्ष्मजीव विविधता को बदलने के बारे में तो आप खास कुछ कर नहीं सकते मगर अपने शोध कार्य के आधार पर उन्होंने पाया है कि मच्छरों को काला रंग पसंद है। इसलिए उनकी सलाह है कि बाहर पिकनिक मनाने का इरादा हो, तो हल्के रंग के कपड़े पहनकर जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आयुष अनुसंधान पर मंत्रालय का अवैज्ञानिक दृष्टिकोण – लखोटिया, पटवर्धन, रस्तोगी

आयुष मंत्रालय द्वारा हाल ही में जारी एक परामर्श पत्र की पड़ताल जिसमें आयुर्वेद पर किसी भी अध्ययन में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करने का निर्देश दिया गया है।

 

आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय द्वारा दिनांक 2 अप्रैल 2019 को जारी एक परामर्श पत्र (एडवायज़री) में “गैर-आयुष वैज्ञानिकों/शोधकर्ताओं द्वारा आयुष औषधियों और उपचारों को लेकर बेबुनियाद वक्तव्यों तथा निष्कर्षों वाले शोध पत्रों के प्रकाशन तथा वैज्ञानिक अध्ययनों, जो पूरी प्रणाली की वि·ासनीयता और शुचिता को नुकसान पहुंचाते हैं,” पर चिंता व्यक्त की गई है क्योंकि “इन शोध पत्रों व अध्ययनों में योग्यता प्राप्त आयुष विशेषज्ञों को शामिल नहीं किया गया या उनसे परामर्श नहीं किया गया।”

परामर्श पत्र में आगे कहा गया है कि “सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा में आयुष की संभावना और विस्तार को खतरे में नहीं डाला जा सकता है। साथ ही आयुष से सम्बंधित वैज्ञानिक अध्ययन और अनुसंधान में मनमाने बयानों तथा बेबुनियाद निष्कर्षों से जनता को आयुष का उपयोग करने से विमुख नहीं किया जा सकता है।” इसलिए परामर्श पत्र में कहा गया है कि “सभी गैर-आयुष शोधकर्ताओं, वैज्ञानिकों, संस्थानों और चिकित्सा/वैज्ञानिक पत्रिकाओं के संपादकों को सलाह दी जाती है कि वे किसी भी आयुष औषधि या उपचार का आकलन करने हेतु किए गए वैज्ञानिक अध्ययन/नैदानिक परीक्षण/अनुसंधान हस्तक्षेप के संचालन के लिए या ऐसे परीक्षणों के परिणामों के पुनरीक्षण हेतु उपयुक्त आयुष विशेषज्ञ/संस्थान/अनुसंधान परिषद को शामिल करें ताकि आयुष के बारे में गलत, मनमाने और अस्पष्ट बयानों एवं निष्कर्षों से बचा जा सके।” 

हालांकि हम आयुष मंत्रालय की इस चिंता से पूरी तरह सहमत हैं कि कुछ शोध प्रकाशनों में प्रस्तुत निराधार, एकतरफा और दोटूक निष्कर्षों के कारण पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों की छवि को क्षति पहुंचना संभव है, लेकिन हमारा मानना है कि इन्हें रोकने के लिए इस परामर्श पत्र में अनुशंसित व्यवस्था उपयुक्त नहीं है।

परामर्श पत्र में आग्रह किया गया है कि इसकी अनुशंसाओं पर “सम्बंधित शोधकर्ता/वैज्ञानिक/जांचकर्ता” ध्यान दें और इनका पालन करें, लेकिन देखा जाए, तो इनका अनुपालन और क्रियांवयन लगभग असंभव है। अलबत्ता, इस परामर्श अधिक गंभीर और चिंताजनक अर्थ यह है कि इस तरह के कदमों से न केवल इन पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में आवश्यक निष्पक्ष शोध पर अंकुश लगेगा, बल्कि सोचने की स्वतंत्रता पर भी काफी असर पड़ेगा। निष्पक्ष शोध और सोचने की स्वतंत्रता, ये दोनों ही किसी भी क्षेत्र में हमारी समझ में सुधार के लिए बुनियादी ज़रूरतें हैं। 

हमारा मानना है कि आयुर्वेद सहित विभिन्न पारंपरिक भारतीय स्वास्थ्य प्रणालियों की प्रतिष्ठा में कमी का वास्तविक कारण निम्न-गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं का तेज़ी से उभरना है। ये पत्रिकाएं खुद आयुष ‘विशेषज्ञों’ द्वारा किए गए घटिया गुणवत्ता के शोध को प्रकाशित करती रहती हैं। यह निम्न गुणवत्ता का शोध कुकुरमुत्तों की तरह तेज़ी से पनपते कॉलेजों और वि·ाविद्यालयों में किए जा रहे स्नातकोत्तर/पीएचडी शोध ग्रंथों में अप्रामाणिक डेटा को शामिल करने का परिणाम है। यह बात भी किसी छुपी नहीं है कि इनमें से कई आयुष कॉलेज ‘छद्म’ रोगियों, शिक्षकों और यहां तक कि फजऱ्ी छात्रों के माध्यम से अपनी मान्यता बनाए रखे हैं। ज़ाहिर  है, ऐसे संस्थानों में किया गया छद्म शोध न केवल आयुष को बदनाम करता है, बल्कि एक ऐसा कार्य-बल तैयार करता है जो इन प्रणालियों को नुकसान पहुंचा सकता है।

अप्रामाणिक व संदिग्ध फार्मेसियों द्वारा खराब गुणवत्ता वाली औषधियों का विपणन भी आयुष को बदनाम कर रहा है। पारंपरिक विचारों से पूरी तरह सहमत न होने वाले अध्ययनों पर प्रतिबंध और ऐसे शोध और आवाज़ों को दबाने की बजाय मंत्रालय की वास्तविक चिंता इन मुद्दों पर होनी चाहिए।

यह भी संभव है कि ऐसे गैर-आयुष शोधकर्ता मौजूद हैं जो घटिया अनुसंधान करके प्रकाशित करते हैं। हालांकि, जैसे अच्छे और गुणवत्ता के प्रति सजग आयुष शोधकर्ता होते हैं, वैसे ही गैर-आयुष शोधकर्ता भी हैं जिन्होंने इन उपचारों की क्रियाविधियों और सिद्धांतों को समझने में सकारात्मक और महत्वपूर्ण योगदान दिया है और दे रहे हैं। उदाहरण के लिए, कार्बनिक रसायन विज्ञानी आसीमा चटर्जी, टी. टी. गोविंदाचारी और अन्य द्वारा आयुर्वेद में प्रयुक्त हर्बल उत्पादों के रसायन शास्त्र के क्षेत्र में अग्रणी और व्यापक योगदान जाना-माना है। इसी तरह, कई प्रकार के हर्बल और आयुर्वेदिक औषधि मिश्रणों की क्रियाविधियों पर किए गए बुनियादी वैज्ञानिक अध्ययनों ने उनकी जैविक क्रियाविधियों को उजागर करके नए एवं प्रभावी चिकित्सीय अनुप्रयोग के रास्ते खोले हैं। ऐसे कई अध्ययनों ने हर्बल और आधुनिक दवाइयों के बीच सकारात्मक और नकारात्मक अंतर्क्रियाओं को समझने में मदद दी है। कुछ जीनोमिक और आणविक जीव विज्ञानियों ने आयुर्वेद की त्रिदोष/प्रकृति जैसी अवधारणाओं को वर्तमान जीव विज्ञान के परिप्रेक्ष्य में समझने में महत्वपूर्ण योगदान दिया है। ये गैर-आयुष शोधकर्ताओं के योगदान के कुछ चंद उदाहरण भर हैं, जो वास्तव में आयुष को समृद्ध बना रहे हैं।

यह कहना ठीक नहीं होगा कि समकालीन संदर्भों में बगैर प्रमाणित किए, प्राचीन ज्ञान और तौर-तरीकों को सिर्फ इसलिए बगैर सोचे-समझे स्वीकार कर लिया जाए कि वे पारंपरिक हैं। आयुष प्रथाओं और नुस्खों को प्रमाणों की बुनियाद मिलना आवश्यक है। शोध चाहे आयुष शोधकर्ताओं द्वारा किया जाए या गैर-आयुष शोधकर्ताओं द्वारा, यदि वह परंपरागत रूप से मान्य वि·ाासों पर सवाल उठाता है और ऐसे व्यवस्थित प्रमाण उपलब्ध कराता है जो उनकी तार्किकता को चुनौती दें, तो इसे प्राचीन ज्ञान का ‘अपमान’ न समझकर गंभीरता से लेना चाहिए। बुद्धि और सामाजिक व्यवस्था केवल उस ज्ञान और समझ के साथ आगे बढ़ती है जो हमारे पूर्वजों के ज्ञान और समझ से भी आगे ले जाए।

यदि इस परामर्श पत्र को गंभीरता से लिया गया, तो यह केवल एक ही विचार को पनपने देगा और उन सभी लोगों को अपने विचार रखने से रोकेगा जो इससे असहमत हैं। एक अच्छा विज्ञान बाहरी सत्यापन के लिए सदैव खुला रहना चाहिए। वास्तव में, सारे दरवाज़े बंद करने की व्यवस्था, जिसमें सिर्फ सहमत लोग हों, अपनाने की बजाय, निष्पक्ष बहु-विषयी अनुसंधान को बढ़ावा देने की आवश्यकता है। बंद दरवाज़ा व्यवस्था आयुष के लिए खतरनाक साबित होगी। कल्पना कीजिए, अगर जीव विज्ञान के शोधकर्ताओं ने बीसवीं सदी में श्रोडिंजर, डेलब्राुक, पौलिंग, क्रिक, रोसलिंड फ्रेंंकलिन, बेन्ज़र जैसे गैर-जीव वैज्ञानिकों को जीव विज्ञान में कार्य न करने देने का फैसला किया होता, तो आज जीव विज्ञान या आधुनिक विज्ञान कहां होता?

आयुष को अन्य शोधकर्ताओं से केवल समर्थक साक्ष्य की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। यदि हम अलग-अलग राय रखते हैं, तो बहस को आगे बढ़ाने और तर्क-वितर्क के लिए अकादमिक मंच और पत्रिकाएं मौजूद हैं। यह समझना चाहिए कि आयुष और गैर-आयुष शोधकर्ताओं के जो शोध-परिणाम आयुर्वेद और अन्य पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों को समर्पित अच्छी पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं, वे अच्छी सहकर्मी-समीक्षा प्रणाली से गुज़रे होंगे और इस प्रकार वे वास्तव में पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणाली के विकास में योगदान दे रहे हैं। संपादकों से यह कहना कि शोध पत्र में एक लेखक के रूप में आयुष विशेषज्ञ को अनिवार्य रूप से शामिल करें, न केवल शोधकर्ताओं की स्वायत्तता के खिलाफ है, बल्कि ऐसे  ‘विज्ञान प्रकाशन’ की प्रतिष्ठा के लिए काफी अपमानजनक भी है जहां प्रकाशन से पूर्व लेखक की औपचारिक शैक्षणिक योग्यता की बजाय सिर्फ यह देखा जाता है कि शोध पत्र में व्यक्त विज्ञान अच्छी गुणवत्ता का है या नहीं। उक्त परामर्श पत्र संभावित रूप से आयुष और गैर-आयुष विशेषज्ञों के बीच गलतफहमी पैदा कर सकता है। क्लीनिकल ट्रायल सम्बंधी अनुसंधान में आयुष विशेषज्ञों को शामिल करना वांछनीय होगा, लेकिन प्रयोगशाला में और/या जंतु अध्ययनों में आयुष प्रभाविता की जांच करने वाले सभी अध्ययनों में यह अनिवार्य नहीं किया जा सकता। जैसे भी हो, आयुष विशेषज्ञ मॉनिटर या वॉचडॉग नहीं बल्कि सहयोगी होंगे। 

आयुष मंत्रालय और आयुर्वेद चिकित्सकों को यह नहीं भूलना चाहिए कि एक दशक से थोड़ा अधिक समय पहले शुरू किए गए ‘आयुर्वेदिक जीव विज्ञान’ मिशन के अंतर्गत विभिन्न शोधकर्ताओं ने आयुर्वेद में उल्लेखनीय योगदान दिया है। आयुर्वेदिक जीव विज्ञान के उत्प्रेरक, मूलत: एक ह्मदय शल्य चिकित्सक और नवाचारकर्ता एम.एस. वालियाथन की टिप्पणी है, “इस समय कोई ऐसा सामान्य धरातल नहीं है जहां भौतिक विज्ञानी, रसायनज्ञ, प्रतिरक्षा विज्ञानी और आणविक जीव विज्ञानी आयुर्वेदिक चिकित्सकों के साथ बातचीत कर सकें। भारत में आयुर्वेद केवल चिकित्सा विज्ञान की ही नहीं, सारे जीव विज्ञानों की जननी है। इसके बावजूद, विज्ञान आयुर्वेद से पूरी तरह अलग हो चुका है।” ज़ाहिर है, पारंपरिक और आधुनिक चिकित्सा प्रणालियों का एकीकरण हासिल करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों के शोधकर्ताओं की स्वतंत्र और निष्पक्ष भागीदारी तथा सचमुच के अंतर-विषयी अध्ययनों की आवश्यकता है। ऐसा एकीकरण ही मानव समाज को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान कर सकेगा।

हमारा मानना है कि आयुष मंत्रालय के लिए सही दृष्टिकोण यह होगा कि वह पारंपरिक स्वास्थ्य प्रणालियों के क्षेत्र में खराब गुणवत्ता वाली शोध पत्रिकाओं पर रोक लगाए बनिस्बत इसके कि विभिन्न विषयों के उन शोधकर्ताओं पर रोक लगाए जो वास्तव में आयुर्वेदिक सिद्धांतों और कामकाज का सत्यापन आधुनिक वैज्ञानिक गहनता के तहत कर सकते हैं जो आय़ुर्वेद के लिए ज़रूरी है। आयुष की प्रामाणिकता को बढ़ावा देने के लिए, एक ऐसी प्रणाली विकसित करनी होगी जो मज़बूत वैज्ञानिक प्रमाणों पर आधारित हो। आयुष मंत्रालय विभिन्न आयुष महाविद्यालयों और उनके शैक्षणिक कार्यक्रमों में शिक्षण और अनुसंधान के उच्च मानक स्थापित करके इसको बढ़ावा दे सकता है। आगे की सोच और आगे बढ़ना आयुष के लिए लाभदायक होगा। (स्रोत फीचर्स)

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पी.एच.डी. में प्रकाशन की अनिवार्यता समाप्त करने का प्रस्ताव

हाल ही में शोधकर्ताओं की एक समिति ने सुझाव दिया है कि शोध छात्रों के लिए डॉक्टरेट की उपाधि मिलने के पहले अकादमिक जर्नल में पेपर प्रकाशित करने की अनिवार्यता को खत्म किया जाना चाहिए।

वर्तमान में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के नियमानुसार भारत में किसी भी शोध छात्र को अपनी थीसिस जमा करने के पहले, किसी पत्रिका में एक पर्चा प्रकाशित करना और किसी सम्मेलन या सेमिनार में दो पर्चे प्रस्तुत करना ज़रूरी है।

पिछले साल यूजीसी ने इस अनिवार्यता को जांचने के लिए विज्ञान और मानविकी शोधकर्ताओं की एक समिति बनाई थी। समिति के अध्यक्ष पी. बलराम ने इस अनिवार्यता पर शंका ज़ाहिर करते हुए कहा कि अनिवार्यता के कारण निम्न गुणवत्ता वाले कई ऐसे जर्नल फल-फूल रहे हैं जो पैसा लेकर बिना किसी समीक्षा या संपादन के जल्दी ही शोध पत्र प्रकाशित कर देते हैं।

समिति का सुझाव है कि यूजीसी को अपनी नीतियों में बदलाव लाना चाहिए, विश्वविद्यालयों को पीएच.डी. के दौरान ही शोध छात्र की परीक्षा लेकर उसका मूल्यांकन करना चाहिए और मौखिक परीक्षा के दौरान शोध छात्र को अपनी थीसिस की पैरवी करना चाहिए। उम्मीद है कि यूजीसी इस सुझाव पर जून 2019 तक प्रतिक्रिया दे देगी।

सुझाव से सहमति जताते हुए नेशनल सेंटर फॉर बॉयोलॉजीकल साइंस, बैंगलोर के अकादमिक गतिविधियों के प्रमुख मुकुंद थत्तई कहते हैं कि उनके संस्थान में हर साल लगभग 25 प्रतिशत शोध छात्रों को पीएच.डी. डिग्री देरी से मिलती है क्योंकि वे प्रकाशन की अनिवार्यता को समय से पूरा नहीं कर पाते। खासकर जीव विज्ञान और गणित जैसे विषयों में पर्चा प्रकाशित करने में एक साल से भी अधिक समय लग जाता है।

वहीं इंस्टीट्यूट ऑफ मैथेमेटिकल साइंस, चेन्नई के गौतम मेनन का कहना है कि इस अनिवार्यता को खत्म कर देने से निम्न गुणवत्ता वाले शोध कार्य या प्रकाशन कम नहीं होंगे, कोई भी पक्षपाती समिति घटिया थीसिस को भी स्वीकार सकती है। प्रकाशन की अनिवार्यता में कम-से-कम किसी बाहरी समीक्षक द्वारा समीक्षा की निश्चितता होती है।

समिति के अध्यक्ष इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलौर के बॉयोकमिस्ट पी. बलराम का कहना है कि शोध पत्रों की गुणवत्ता सुनिश्चित करना संस्थान की ज़िम्मेदारी होनी चाहिए। उनका कहना है कि सभी पर केंद्रीय नियम लागू करने से मुश्किलें होती हैं क्योंकि जैसे ही आप ऐसे नियम लागू करते हैं, लोग उनसे बचने के रास्ते निकाल लेते हैं। सुझाव पर यूजीसी की प्रतिक्रिया का इंतज़ार है।(स्रोत फीचर्स)

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विलुप्त जीवों के क्लोन बनाने की संभावना

पिछले साल पूर्वी साइबेरिया के बाटागाइका क्रेटर में 42 हज़ार साल पुराना घोड़े के बच्चे का शव बर्फ में दबा मिला है। यह लेना प्रजाति (Equus caballus lenensis) का घोड़ा है। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी मृत्यु कीचड़ में डूबने के कारण हुई थी। और जब इसकी मृत्यु हुई तब इसकी उम्र लगभग 2 महीने रही होगी। बर्फ में इसके अंग काफी सुरक्षित अवस्था में मिले हैं और खास बात यह है कि इसके शरीर में रक्त तरल अवस्था में मिला है। आम तौर पर रक्त का तरल भाग हज़ारों साल के लंबे समय में वाष्प बनकर उड़ जाता है। इसलिए शवों में रक्त या तो थक्के के रूप में मिलता है या पावडर के रूप में। वैसे इसके पहले बर्फ में दबे 32 हज़ार साल पुराने मैमथ के शरीर में भी तरल अवस्था में खून मिला था।

दरअसल नॉर्थ इस्टर्न फेडरल युनिवर्सिटी स्थित मैमथ म्यूज़ियम के सिम्योन ग्रीगोरिएव और उनके साथी प्लायस्टोसीन युग (आज से लगभग 25 लाख साल पहले से लेकर 11,000 साल पहले तक का समय, जिसे हिमयुग भी कहते हैं) के विलुप्त जानवरों के क्लोन बनाने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे जानवरों में अच्छी हालत के डीएनए ढूंढ रहे हैं ताकि उसे सम्बंधित जानवर के भ्रूण में प्रत्यारोपित कर उस जीव के क्लोन तैयार कर सकें। इसके लिए पहले उन्हें उस भ्रूण का डीएनए हटाना होगा।

लेकिन तरल रक्त से उन्हें क्लोन बनाने में मदद नहीं मिल सकती क्योंकि लाल रक्त कोशिकाओं में केंद्रक नहीं होता। इसलिए उनमें डीएनए भी नदारद रहता है। शोधकर्ता मैमथ, लेना हॉर्स के अन्य अंगों में डीएनए की खोज रहे हैं। लेकिन डीएनए के साथ मुश्किल यह है कि जीव की मृत्यु के साथ डीएनए खत्म होना शुरू हो जाता है। शोधकर्ताओं ने लाइव साइंस पत्रिका में बताया है कि उन्हें अब तक सफलता नहीं मिली है लेकिन वे इस दिशा में प्रयासरत हैं।

इसके अलावा उन्होंने शव के आसपास पाए गए मिट्टी के नमूनों और पौधों का भी अध्ययन किया है जिससे उस समय के साइबेरिया के बारे में काफी जानकारी मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

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शांत और सचेत रहने के लिए गहरी सांस – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वाद-विवाद प्रतियोगिता में जीतने के लिए प्रतियोगी को प्रतिद्वंद्वी की बात का जवाब सटीकता से और प्रभावशाली शब्दों में देना होता है और वह भी थोड़े-से समय में। ऐसी ही एक अन्य प्रतियोगिता होती थी: ‘तात्कालिक भाषण’। इस प्रतियोगिता में रेफरी आपसे उसकी पसंद के किसी विषय पर बोलने को कहेगा। आपको दिए गए विषय पर एक मिनट तक बोलना होगा: बीच-बीच में खांसना-खखारना, हां-हूं करना, फालतू शब्द बोलना, लंबी-लंबी सांसें लेना नहीं चलेगा। और एक मिनट में सबसे सार्थक वक्तव्य देने वाला विजेता होता है।

प्रतियोगिताओं में प्रतियोगी बेहतर प्रदर्शन कर सकें इसलिए उनके शिक्षक या कोच उन्हें प्रतियोगिता शुरू होने से पहले गहरी सांस लेने की सलाह देते हैं। इस्राइल स्थित वाइज़मैन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के प्रोफेसर नोम सोबेल और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में इस बात की पुष्टि की है कि प्रशिक्षकों की सलाह सही है। उनका यह अध्ययन नेचर ह्रूमन बिहेवियर नामक पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। 

अध्ययन में प्रतिभागियों को संज्ञानात्मक क्षमता से जुड़े कुछ कार्य करने को दिए गए। इनमें गणित की पहेलियां, स्थान-चित्रण से जुड़े सवाल (जैसे दिखाया गया त्रि-आयामी चित्र वास्तव में संभव है या नहीं) और कुछ शाब्दिक सवाल (स्क्रीन पर दिखाए शब्द वास्तविक हैं या नहीं) शामिल थे। शोधकर्ताओं ने इन कार्यों के दौरान प्रतिभागियों के प्रदर्शन की तुलना की और उनके सांस लेने व छोड़ने की क्रिया पर ध्यान दिया। अध्ययन के दौरान प्रतिभागी इस बात से अनजान थे कि प्रदर्शन के दौरान उनकी सांस पर नज़र रखी जा रही है। इसके अलावा प्रदर्शन के समय ई.ई.जी. की मदद से प्रतिभागियों के मस्तिष्क की विद्युतीय गतिविधियों पर भी नज़र रखी गई।

‘सूंघता’ मस्तिष्क

इस अध्ययन में तीन प्रमुख बातें उभर कर आर्इं। पहली, शोधकर्ताओं ने पाया कि प्रतिभागियों का प्रदर्शन तब बेहतर था जब उन्होंने सवाल करते समय सांस अंदर ली, बनिस्बत उस स्थिति के जब उन्होंने सवाल हल करते हुए सांस छोड़ी। दूसरी, इस बात से प्रदर्शन पर कोई फर्क नहीं पड़ता कि सांस मुंह से अंदर खींची जा रही है या नाक से। वैसे आदर्श स्थिति तो वही होगी जब नाक से सांस ली और छोड़ी जाए। तीसरी बात, ई.ई.जी. के नतीजों से पता चलता है कि श्वसन चक्र के दौरान मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों के बीच संपर्क अलग-अलग तरह से हुआ था।

गौरतलब बात है कि जब हम सांस लेते हैं तो हम हवा में से ऑक्सीजन अवशोषित करते हैं। तो क्या बेहतर प्रदर्शन में इस अवशोषित ऑक्सीजन की कोई भूमिका है? यह सवाल जब प्रो. सोबेल से पूछा गया तो उन्होंने इसके जबाव में कहा कि “नहीं, समय के अंतराल को देखते हुए यह संभव नहीं लगता। जबाव देने में लगने वाला समय, फेफड़ों से मस्तिष्क तक ऑक्सीजन पहुंचने में लगने वाले समय की तुलना में बहुत कम है। … सांस लेने और छोड़ने की प्रक्रिया के प्रति सिर्फ गंध संवेदना तंत्र (सूंघने की प्रणाली) संवेदनशील नहीं होता बल्कि पूरा मस्तिष्क इसके प्रति संवेदनशील होता है। हमें तो लगता है कि हम सामान्यीकरण करके कह सकते हैं कि मस्तिष्क अंत:श्वसन (सांस खींचने) के दौरान बेहतर कार्य करता है। हम इसी बात को यों भी कह सकते हैं कि ‘मस्तिष्क सूंघता’ है।”

प्राचीनतम संवेदना

यह अध्ययन इस बात की ओर भी इशारा करता है कि बिना किसी गंध के, सिर्फ सांस लेना भी तंत्रिका सम्बंधी गतिविधियों के बीच तालमेल बनाता है। यानी यह सुगंध या दुर्गंध का मामला नहीं है। शोधकर्ताओं की परिकल्पना है कि नासिका अंत:श्वसन (नाक से सांस लेने की क्रिया) ना सिर्फ गंध सम्बंधी सूचनाओं का प्रोसेसिंग करती है बल्कि गंध-संवेदी तंत्र के अलावा अन्य तंत्रों द्वारा बाह्र सूचनाओं को प्रोसेस करने में मदद करती है।

इस बात को जैव विकास के इतिहास में भी देखा जा सकता है कि अंतःश्वसन मस्तिष्क की गतिविधियों का संचालन करता है। एक-कोशिकीय जीव और पौधे हवा से वाष्पशील या गैसीय पदार्थ लेते हैं (इसे अंतःश्वसन की शुरुआत के रूप में देखा जा सकता है)। हम यह जानते हैं कि चूहे फुर्ती से भागते समय और आवाज़ करते समय लंबी-लंबी सांस लेते हैं। और चमगादड़ प्रतिध्वनि (इको) द्वारा स्थान निर्धारण के समय लंबी सांस लेते हैं। डॉ. ओफेर पर्ल का कहना है कि गंध प्राचीन संवेदना है, इसी के आधार पर अन्य इंद्रियों और मस्तिष्क का विकास हुआ होगा। उक्त अध्ययन के शोधकर्ता ध्यान दिलाते हैं कि ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी में ‘इंस्पाइरेशन’(अंतःश्वसन) शब्द का मतलब सिर्फ सांस खींचना नहीं बल्कि दिमागी रूप से प्रेरित/उत्साहित होने की प्रक्रिया भी है।

योग और ध्यान

वैसे इस अध्ययन के शोधकर्ताओं ने ऐसा नहीं कहा है किंतु कई वैज्ञानिक यह कहते हैं कि योग (नियंत्रित तरीके से सांस लेने) से शांति और चैन मिलता है। स्टेनफोर्ड युनिवर्सिटी में किए गए प्रयोगों से पता चला है कि चूहों के मस्तिष्क में 175 तंत्रिकाओं का एक समूह सांस की गति के नियंत्रक (पेसमेकर) की तरह कार्य करता है, और नियंत्रित तरीके से सांस लेना जानवरों में दिमागी शांति को बढ़ावा देता है। मनुष्यों की बात करें, तो ऑस्ट्रेलिया स्थित मोनाश युनिवर्सिटी के डॉ. बैली और उनके साथियों ने 62 लोगों के साथ एक अध्ययन किया, जिनमें से 34 लोग ध्यान करते थे और जबकि 28 लोग नहीं। दोनों समूह उम्र और लिंग के हिसाब से समान थे। तुलना करने पर उन्होंने पाया कि जो लोग ध्यान करते थे उनमें कार्य करने के लिए मस्तिष्क सम्बंधी गतिविधियां अधिक थीं। उनमें उच्चतर स्तर की मानसिक प्रक्रियाएं और संवेदी प्रत्याशा थी। बीजिंग के शोधकर्ताओं के समूह ने इसी तरह का एक अन्य अध्ययन किया। अध्ययन में 20-20 लोगों के दो समूह लिए। पहले समूह के लोगों को लंबी सांस लेने (योग की तर्ज पर 4 सांस प्रति मिनट) के लिए प्रशिक्षित किया। दूसरा समूह कंट्रोल समूह था जिन्हें सांस सम्बंधी कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। तुलना करने पर पाया कि प्रशिक्षित किए गए समूह में कार्टिसोल का स्तर कम था और उनकी एकाग्रता लंबे समय तक बरकरार रही। अंत में, ज़कारो और उनके साथियों ने एक समीक्षा में बताया है कि धीरे-धीरे सांस लेने की तकनीक सह-अनुकंपी (पैरासिम्पेथैटिक) तंत्रिका सम्बंधी गतिविधी को बढ़ाती है, भावनाओं को नियंत्रित करती है और मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ रखती है। (स्रोत फीचर्स)

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कोशिका भित्ती बंद, बैक्टीरिया संक्रमण से सुरक्षा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर बैक्टीरिया लगभग 3.8 से 4 अरब वर्ष पूर्व अस्तित्व में आए थे। पर्यावरण ने जीवित रहने और प्रजनन करने के लिए जो कुछ भी उपलब्ध कराया, वे उसी से काम चलाते रहे हैं। उनकी तुलना में मनुष्य पृथ्वी पर बहुत बाद में अस्तित्व में आए, कुछ लाख साल पहले। वर्तमान में पृथ्वी पर मनुष्य की कुल आबादी लगभग 7 अरब है। जबकि पृथ्वी पर बैक्टीरिया की कुल आबादी लगभग 50 लाख खरब खरब है। ब्राहृांड में जितने तारे हैं उससे भी कहीं ज़्यादा बैक्टीरिया पृथ्वी पर हैं।

कई बैक्टीरिया मनुष्यों से अपना पोषण प्राप्त करते हैं। इनमें से कई बैक्टीरिया मनुष्यों के लिए निरापद ही नहीं बल्कि फायदेमंद भी हैं। मनुष्य की आंत में लगभग 100 खरब बैक्टीरिया पाए जाते हैं जो हमारी वृद्धि और विकास में मदद करते हैं। लेकिन कुछ बैक्टीरिया हमें बीमार कर देते हैं और यहां तक कि जान भी ले लेते हैं। प्राचीन काल से ही मनुष्य ने जड़ी-बूटियों और औषधियों की मदद से इनके संक्रमण से निपटने के तमाम तरीके अपनाए हैं। इसी संदर्भ में डॉ. रुस्तम एमिनोव ने फ्रंटियर्स इन माइक्रोबॉयोलॉजी में प्रकाशित अपने शोघ पत्र “A brief history of the antibiotic era: Lessons learned and challenges for the future” (एंटीबायोटिक युग का संक्षिप्त इतिहास: सबक और भविष्य की चुनौतियां) में बताया है कि प्राचीन काल में मिरुा के लोग संक्रमण से निपटने के लिए फफूंद लगी ब्रोड की पुल्टिस लगाते थे। सूडान में पाए गए कंकालों में एंटीबायोटिक ट्रेट्रासायक्लीन के अवशेष मिले हैं, जो इस बात की ओर इशारा करते हैं कि वे लोग सूक्ष्मजीव से हुए संक्रमण के इलाज में किसी बूटी का उपयोग करते थे।

एक हालिया रास्ता

आधुनिक चिकित्सा आधारित उपचार कुछ ही वर्ष पुराना है। सन 1909 में डॉ. हारा ने सिफलिस संक्रमण से लड़ने के लिए आर्सफेनामाइन यौगिक खोजा था। फिर सन 1910 में डॉ. बर्थाइम ने इसका संश्लेषण किया और सेलवार्सन नाम दिया। इसके बाद 1928 में एलेक्ज़ेंडर फ्लेमिंग ने पेनिसिलीन की खोज की थी। पेनिसिलीन कई सारे संक्रामक बैक्टीरिया को मार सकती थी।

बैक्टीरिया से लड़ने के लिए हम जितनी नई दवाएं और रसायन खोजते हैं, उत्परिवर्तन (म्यूटेशन) के ज़रिए उतनी ही तेज़ी से बैक्टीरिया की जेनेटिक संरचना बदल जाती है और बैक्टीरिया उस दवा के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं। इस तरह वैज्ञानिक और बैक्टीरिया के बीच यह रस्साकशी चलती ही रहती है। अब हम यह समझ गए हैं कि जब तक हम बैक्टीरिया संक्रमण फैलने में शामिल बुनियादी जीव वैज्ञानिक चरणों को नहीं समझ नहीं लेते तब तक हम बैक्टीरिया पर विजय नहीं पा सकेंगे।

बैक्टीरिया के जीव विज्ञान को समझने की दिशा में सूक्ष्मजीव विज्ञानी एशरीशिया कोली (ई. कोली) नामक बैक्टीरिया पर अध्ययन कर रहे हैं। अब हम जानते हैं कि बैक्टीरिया की कोशिका एक रक्षात्मक कोशिका भित्ती से घिरी होती है। यह कोशिका भित्ती एक बड़ी थैली-नुमा संरचना से बनी होती है जिसे पेप्टीडोग्लायकेन या PG कहते हैं। जिस PG का उपयोग बैक्टीरिया करते हैं, वह सिर्फ बैक्टीरिया में पाया जाता है, अन्यत्र कहीं नहीं।

PG थैलीनुमा संरचना होती है जो दो शर्करा अणुओं (NAG और NAM) की शृंखलाओं से निर्मित कई परतों से मिलकर बनी होती हैं। ये परतें आपस में एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं और बैक्टीरिया की कोशिका के इर्द-गिर्द एक निरंतर परत का निर्माण करती हैं। अर्थात जब बैक्टीरिया का आकार बढ़ता है तो ज़रूरी होता है कि यह PG थैली भी फैलती जाए। PG थैली फैलने के लिए पहले परतों के बीच की कड़िया खुलेंगी, फिर नए पदार्थ जुड़ेंगे और एक बार फिर ये परतें आपस में कड़ियों के माध्यम से जुड़ जाएंगी। तभी तो बैक्टीरिया की वृद्धि हो पाएगी।

 

निर्णायक चरण

बैक्टीरिया पर काबू पाने की दिशा में हैदराबाद स्थित कोशिकीय व आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB) की डॉ. मंजुला रेड्डी और उनके साथियों ने महत्वपूर्ण कदम उठाया है। उन्होंने इस बात का बारीकी से अध्ययन किया है कि बैक्टीरिया कैसे कोशिका भित्ती बनाता है और वृद्धि को संभव बनाने के लिए कैसे PG थैली खोलता है, और इस थैली को खोलने में कौन से रसायन मदद करते हैं। अध्ययन में उन्होंने PG थैली खुलने के लिए एंज़ाइम्स के खास समूह को ज़िम्मेदार पाया है (उनके शोध पत्र इस लिंक पर पढ़े जा सकते हैं https://doi.org/10.1073/pnas.1816893116)। उनके अनुसार, यदि जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से बैक्टीरिया में से इनमें से किसी एक या सभी एंज़ाइम को हटा दिया जाए तो PG थैली नहीं खुलेगी, और बैक्टीरिया भूखा मर जाएगा।

इसका क्या मतलब है? इसका मतलब है कि यदि हम ऐसे कोई अणु या तरीके ढूंढ लेते हैं जिनकी मदद से हम इन एंज़ाइम्स को रोकने में सफल हो जाते हैं तो हम जीवाणुओं को उनके सुरक्षा कवच यानी कोशिका भित्ती को बनाने से रोक पाएंगे। इस तरह से संक्रमण पर काबू पा सकेंगे और सुरक्षित हो सकेंगे।

अन्य तरीके

प्रसंगवश, एंटीबायोटिक पेनिसिलीन भी उन्हीं एंज़ाइम्स को रोकती है जो कोशिका भित्ती खुलने के बाद उसे बंद करने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। भित्ती बंद ना हो पाने के कारण जीवाणु कमज़ोर हो जाता है और उसकी मृत्यु हो जाती है। तो यह तरीका हुआ “भित्ती बंद ना होने देना”। CCMB के शोधकर्ताओं द्वारा सुझाया तरीका है “कोशिका भित्ती हमेशा बंद रहे, कभी ना खुले”। वर्तमान में लोकप्रिय एंटीबायोटिक औषधियां जिन्हें फ्लोरोक्विनोलॉन्स कहते हैं (जैसे सिप्रॉफ्लॉक्सेसिन) कोशिका भित्ती पर सीधे असर नहीं करती लेकिन उन एंज़ाइम्स को रोकती हैं जो बैक्टीरिया के डीएनए को खुलने और प्रतियां बनाने में मदद करता है। इस तरह की औषधियां संक्रमण फैलाने वाले बैक्टीरिया को अपनी प्रतियां बनाकर संख्यावृद्धि करने और अपने जीन्स की मरम्मत करने से रोकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गर्म खून के जंतुओं में ह्रदय मरम्मत की क्षमता समाप्त हुई

कुछ वैज्ञानिकों का कहना है कि जो जंतु गर्म खून वाले होते हैं उनमें ह्दय की मरम्मत की क्षमता कम होती है। गर्म खून वाले जंतु से आशय उन जंतुओं से है जिनके खून का तापमान स्थिर रहता है, चाहे आसपास के पर्यावरण में कमी-बेशी होती रहे। शोधकर्ताओं का यह भी कहना है कि गर्म खून का विकास और ह्दय की मरम्मत की क्षमता का ह्यास परस्पर सम्बंधित हैं।

सैन फ्रांसिस्को स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी गुओ हुआंग और उनके साथियों ने विभिन्न जंतुओं के ह्दय का अध्ययन करके उक्त निष्कर्ष साइन्स शोध पत्रिका में प्रस्तुत किया है।

हुआंग की टीम दरअसल यह देखना चाहती थी कि विभिन्न जंतुओं के ह्दय की कोशिकाओं में कितने गुणसूत्र होते हैं। यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि जंतुओं के शेष शरीर की कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम की दो प्रतियां पाई जाती हैं किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाओं में गुणसूत्रों की 4-4, 6-6 प्रतियां होती हैं।

जंतु कोशिकाओं में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति मां से और दूसरी पिता से आती है। इन कोशिकाओं को द्विगुणित कहते हैं। किंतु ह्रदय  की अधिकांश कोशिकाएं बहुगुणित होती हैं। इनमें दो या दो से अधिक प्रतियां पिता से और दो या दो से अधिक प्रतियां माता से आती हैं।

हुआंग की टीम को पता यह चला कि जब आप मछली से शुरू करके छिपकलियों, उभयचर जीवों और प्लेटीपस जैसी मध्यवर्ती प्रजातियों से लेकर स्तनधारियों की ओर बढ़ते हैं वैसे-वैसे ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात बढ़ता है। यह तथ्य तब महत्वपूर्ण हो जाता है जब आप यह देखें कि ज़्यादा द्विगुणित कोशिकाओं वाले ह्रदय  – जैसे ज़ेब्रा मछली का ह्रदय  – में पुनर्जनन हो सकता है और मरम्मत हो सकती है। जैसे-जैसे बहुगुणित कोशिकाओं की संख्या बढ़ती है (जैसे चूहों और मनुष्यों में) तो मरम्मत की क्षमता कम होने लगती है।

अब सवाल यह है कि किसी ह्रदय  में बहुगुणित कोशिकाओं का अनुपात कौन तय करता है। यह सवाल वैसे तो अनुत्तरित है किंतु हुआंग की टीम को एक जवाब मिला है। उन्होंने पाया है कि इस मामले में थायरॉइड हारमोन की कुछ भूमिका हो सकती है। थायरॉइड हारमोन शरीर क्रियाओं (मेटाबोलिज़्म) को नियंत्रित करता है और हमें गर्म खून वाला बनाता है। टीम ने देखा कि जब उन्होंने ज़ेब्रा मछली के टैंक में अतिरिक्त थायरॉइड हारमोन डाल दिया तो उनके ह्रदय  में पुनर्जनन नहीं हो पाया। दूसरी ओर, उन्होंने ऐसे चूहे विकसित किए जिनके ह्रदय  थायरॉइड के प्रति असंवेदी थे तो चोट लगने के बाद उनके ह्रदय  दुरुस्त हो गए। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि अभी कोई निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी क्योंकि इस संदर्भ में थायरॉइड शायद अकेला ज़िम्मेदार नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गणित की एक पुरानी पहेली सुलझाई गई

णितज्ञों को जो बातें परेशान करती हैं, वे कई बार बहुत विचित्र होती हैं। जैसे 64 साल पुरानी एक पहेली को ही लें। गणितज्ञों का सवाल था कि क्या हरेक संख्या को तीन संख्याओं के घन के जोड़ के रूप में लिखा जा सकता है। अर्थात, क्या हरेक संख्या k के लिए निम्न समीकरण लिखी जा सकती है:

x3 + y3 + z3 = k

यह सवाल वैसे तो एलेक्ज़ेण्ड्रिया के गणितज्ञ डायोफेंटस ने किया था और उक्त समीकरण को डायोफेंटाइन समीकरण कहते हैं। चुनौती यह है कि 1 से अनंत तक किसी भी संख्या (k) के लिए ऐसी तीन संख्याएं खोजें जो उक्त समीकरण को पूरा करें। जैसे यदि संख्या (k) 8 हो तो उसके लिए एक समीकरण निम्नानुसार होगी:

23 + 13 + (-1)3 = 8

आप देख ही सकते हैं कि x, y और z कोई भी संख्या (धनात्मक या ऋणात्मक) हो सकती है। विभिन्न संख्याओं के लिए खोज करते-करते गणितज्ञों को धीरे-धीरे पता चल गया कि सभी संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें लिखना संभव नहीं है। एक नियम यह पता चला कि यदि किसी संख्या में 9 का भाग देने पर शेष 4 या 5 रहे तो उसके लिए ऐसी समीकरण नहीं बन सकती। इस नियम के आधार पर 100 से कम की 22 संख्याएं बाहर हो जाती हैं। शेष 76 संख्याओं के लिए ऐसी समीकरणें बना ली गई हैं किंतु 2 संख्याओं ने गणितज्ञों को खूब छकाया है – 33 और 42।

अब ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के एंड्रयू बुकर ने 33 के लिए समीकरण बना ली है। उन्होंने एक कंप्यूटर सूत्रविधि विकसित की जो इस समीकरण को x, y और z  के मान 1016 तक लेकर समीकरण का हल निकाल सकती है। उन्हें उम्मीद नहीं थी कि इसकी मदद से कंप्यूटर उन्हें 33 के लिए ऐसी डायोफेंटाइन समीकरण उपलब्ध करा देगी। कुछ सप्ताह की मेहनत के बाद जो समीकरण उन्हें मिली वह थी:

(8,866,128,975,287,528)3 + (-8,778,405,442,862,239)3 + (-2,736,111,468,807,040)3 = 33

बुकर की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। मज़ेदार बात यह रही कि उनकी पत्नी को समझ में नहीं आया कि वे इतने खुश क्यों हैं। शायद हममें से भी कई को यह खुशी समझ में नहीं आएगी। मगर 100 से कम की एक संख्या अभी बची है (42) और उम्मीद की जा सकती है कि जल्दी ही कोई और गणितज्ञ खुशी से उछलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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एक कृमि को मॉडल बनाने वाले ब्रेनर नहीं रहे

हाल ही में प्रमुख आणविक जीव विज्ञानी सिडनी ब्रेनर का निधन 92 वर्ष की आयु में हुआ। ब्रेनर युरोपियन मॉलीक्यूलर बायोलॉजी ऑर्गेनाइज़ेशन के संस्थापक सदस्य थे।

ब्रेनर की प्रमुख उपलब्धि यह रही कि उन्होंने एक कृमि सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस को मानव रोगों पर अनुसंधान का प्रमुख मॉडल जीव बनाया। इस कार्य के लिए उन्हें वर्ष 2002 का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। ब्रेनर ने सी. एलेगेंस को एक मॉडल जीव के रूप में इसलिए चुना था क्योंकि यह बैक्टीरिया जैसे अन्य जीवों के मुकाबले अधिक जटिल है और इसका अध्ययन करना आसान है। उनके इसी कार्य का परिणाम है कि आज भी यह कृमि जीव विज्ञान में एक प्रमुख मॉडल जीव है और पिछले एक दशक में तकरीबन 15,000 शोध पत्रों में इसका ज़िक्र हुआ है।

ब्रेनर मेसेंजर (यानी संदेशवाहक) आरएनए की खोज में भी शरीक रहे। गौरतलब है कि कोशिकाओं में प्रोटीन निर्माण के निर्देश डीएनए नामक अणु के रूप में संचित होते हैं। इन निर्देशों के आधार पर प्रोटीन बनाने का काम संदेशवाहक आरएनए अणु करवाते हैं। संदेशवाहक मेसेंजर दरअसल डीएनए में उपस्थित सूचना को उस प्रणाली तक पहुंचाते हैं जो वास्तव में प्रोटीन बनाने का काम करती है।

ब्रेनर आणविक जेनेटिक विज्ञान की इस महत्वपूर्ण खोज में भी प्रमुखता से शामिल थे कि डीएनए का अणु तीन-तीन न्यूक्लियोटाइड की तिकड़ियों से बना होता है। ऐसी प्रत्येक इकाई को कोडॉन कहते हैं और प्रत्येक कोडॉन एक अमीनो अम्ल का संकेत होता है। इस तरह कोडॉन के क्रमानुसार अमीनो अम्ल व्यवस्थित हो जाते हैं और फिर जुड़कर प्रोटीन बनते हैं।

ब्रेनर विभिन्न विश्वविद्यालयों और संस्थानों से जुड़े रहे। वे प्रमुख रूप से सिंगापुर में वैज्ञानिक अनुसंधान से जुड़े रहे और सिंगापुर की शोध क्षमता के निर्माण में प्रमुख योगदान दिया। गौरतलब है कि वे सिंगापुर के मानद नागरिक भी थे। (स्रोत फीचर्स)

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जीवों में अंगों का फिर से निर्माण – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

छिपकली को जब भी किसी खतरे का अंदेशा होता है तो वह अपने बचाव में अपने शरीर से पूंछ अलग कर गिरा देती है और वहां से भाग जाती है। अगले 60 दिनों के भीतर छिपकली के शरीर पर नई पूंछ आ जाती है। लेकिन नई पूंछ कैसे और क्यों आती है? एरिज़ोना स्टेट युनिवर्सिटी के डॉ. केनरो कुसुमी और उनके साथियों ने अपने शोध में इसी सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की। उन्होंने पाया कि दोबारा पूंछ विकसित करने के लिए छिपकली अपने शरीर के किसी खास हिस्से के जीनोम में लगभग 326 जीन्स को सक्रिय कर देती है। इसके अलावा वे ‘सैटेलाइट कोशिकाओं’ को भी सक्रिय कर देती हैं, जो विकसित होकर कंकाल की पेशियों और अन्य ऊतकों में तबदील हो सकती हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि चूंकि मनुष्यों में भी सैटेलाइट कोशिकाएं होती हैं इसलिए संभावना है कि इन्हें सक्रिय करके मनुष्यों में भी पेशियों और उपास्थियों को पुन: विकसित किया जा सके।

छिपकली जैव विकास के क्रम में काफी देर से अस्तित्व में आई थीं। छिपकली लगभग 31-32 करोड़ साल पहले अस्तित्व में आई जबकि उनसे पहले केंचुए लगभग 51 करोड़ वर्ष पूर्व और चपटे कृमि लगभग 84 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तिस्व में आ चुके थे। अरस्तू ने इन्हें ‘पृथ्वी की आंत’ और डार्विन ने ‘प्रारंभिक जुताई करने वाले’ की उपमा दी थी। प्रोसिडिंग्स ऑफ रॉयल सोसायटी में प्रकाशित एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने यह पता किया है कि कृमियों की 35 विभिन्न प्रजातियां शरीर का कोई हिस्सा कटकर अलग हो जाने पर उसे पुन: विकसित (या अंग पुनर्जनन) कैसे करती हैं। जैसे कम-से-कम चार तरह के कृमि अपने सिर को दोबारा विकसित कर लेते हैं। तो छिपकली की तरह इन जीवों की जीव वैज्ञानिक कार्यप्रणाली का अध्ययन अंग पुनर्जनन की बेहतर समझ बनाने में मददगार होगा।

सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि विकास क्रम में पहले अस्तित्व में आए कृमि, अपना सिर तक पुन: विकसित कर पाते हैं जबकि उनके बाद अस्तित्व में आर्इं छिपकलियां सिर्फ पूंछ दोबारा बना पाती हैं। और उनके भी बाद आए ‘ऊंचे दर्जे के जानवर’ तो कोई भी अंग फिर से नहीं बना पाते। इस मामले में दो तरह के तर्क दिए जाते हैं। युनिवर्सिटी ऑफ मेरीलैंड की प्रोफेसर एलेक्सेन्ड्रा बेली ने अपनी समीक्षा इवॉल्यूशनरी लॉस ऑफ एनिमल रीजनरेशन: पैटर्न एंड प्रोसेस (विकास के दौरान जीवों में अंग-पुनर्जनन क्षमता की हानि: पैटर्न और प्रकिया) में बताया है कि पुनर्जनन में नई कोशिकाएं, ऊतक और आंतरिक अंग तो बन सकते हैं लेकिन भुजाओं जैसी रचनाओं के पुनर्जनन पर उम्र, लिंग, पोषण और अन्य कारकों का नियंत्रण होता है। या क्या यह भी हो सकता है कि पुनर्जनन इसलिए समाप्त हो गया क्योंकि जीवों ने मरम्मत में ऊर्जा खर्च करने की बजाय उसे वृद्धि में लगाया। अंग-पुनर्जनन में लगने वाली ऊर्जा और उससे मिलने वाले लाभ के आधार पर इस प्रक्रिया को फिर से समझने की ज़रूरत है।

युनिवर्सिटी ऑफ बाथ के डॉ. जोनाथन स्लैक द्वारा इएमबीओ रिपोर्ट में एक अध्ययन एनिमल रीजनरेशन: एंसेस्ट्रल केरेक्टर ऑर इवॉल्यूशनरी नॉवेल्टी? (जंतु पुनर्जनन: पूर्वजों की विरासत या वैकासिक नवीनता?) प्रकाशित किया गया था। इस अध्ययन में उन्होंने जेनेटिक विश्लेषण के आधार पर बताया था कि सभी जीवों (छिपकली से लेकर मानवों तक) में आनुवंशिक गुण दो मुख्य जीन, Wnt और BMP, के व्यवहार के कारण दिखते हैं। Wnt जीन कोशिकाओं की तेज़ी से वृद्धि और स्व-नवीनीकरण संकेत देने में मददगार होता है। BMP जीन सभी जीवों में शरीर और अंगों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। ये जीन सभी जीवों की सभी कोशिकाओं में मौजूद होते हैं, इसलिए सैद्धांतिक रूप से ऐसा लगता है कि अंग-पुनर्जनन सभी जीवों में संभव है।

इसके बावजूद, कुत्ते या बिल्ली की पूंछ कटने के बाद दोबारा नहीं आती। वे अपनी कटी पूंछ के साथ ही रहना सीख जाते हैं। डॉ. बेली के अनुसार इन जीवों में, पूंछ को दोबारा विकसित में लगने वाली ऊर्जा के बदले पूंछ के बिना जीना ज़्यादा फायदेमंद या सार्थक लगता है। (जबकि छिपकली के मामले में उसकी पूंछ जीवित बचने और विकास में अहम अंग है।)

छिपकली पर लौटते हैं। छिपकली में दोबारा जो पूंछ विकसित होती है वह दरअसल मूल पूंछ जैसी नहीं होती बल्कि उसकी अधूरी नकल होती है। इस नकली पूंछ में कोई हड्डी नहीं होती बल्कि इसमें उपास्थि होती है और यह मूल पूंछ की तुलना में अधिक नरम और लचीली होती है। कलकत्ता के डॉ. शुक्ल घोष के शब्दों में यह वास्तविक अंग-पुनर्जनन नहीं बल्कि क्षतिपूर्ति वृद्धि है।

स्टेम सेल तकनीक

हालांकि एरिज़ोना के कुसुमी और उनके साथियों को छिपकली की पुन: विकसित पूंछ के ऊतकों में कोई प्रोजीनेटर कोशिका या स्टेम कोशिका नहीं मिली, लेकिन उभरती हुई स्टेम कोशिका तकनीक से इस क्षेत्र में काफी उत्साह बढ़ा है। इस तकनीक में स्टेम कोशिका की मदद से किसी अन्य अंग की कोशिका या ऊतक प्रयोगशाला में विकसित किए जा सकते हैं। इस तकनीक की मदद से मूत्राशय विकसित किया गया है और एक युवा को लगाया गया, जिसका मूत्राशय क्षतिग्रस्त हो गया था। वर्तमान में किसी भी कोशिका को, चार चुने हुए जीन की मदद से, स्टेम कोशिका बनने के लिए प्रेरित किया जा सकता है। इस तरह प्रेरित बहुसक्षम स्टेम कोशिकाएं, प्रयोगशाला में मनचाहे ऊतक और ऑर्गेनाइड (मूल अंग की तुलना में छोटे अंग) बनाने के लिए उपयोग किए जा रही हैं। हालांकि अभी यह इस तकनीक का आगाज़ है लेकिन भविष्य में इसकी मदद से अंग बनाए जा सकेंगे और इनका उपयोग अंग-पुनर्जनन के लिए किया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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