चंदन के पेड़ उगाने की जुगत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

शायद ही किसी को चंदन के बारे में बताने की ज़रूरत पड़ेगी। इसके सुगंधित तेल, बेशकीमती लकड़ी और कई औषधीय गुणों के कारण इसे सदियों से महत्व मिलता रहा है। लेकिन चंदन का पेड़, जिससे यह सारी चीज़ें हमें मिलती हैं, उससे हम इतना वाकिफ नहीं हैं।

चंदन का पेड़ पतझड़ी जंगलों में उगने वाला पेड़ है। यह आंशिक या अर्ध-परजीवी वृक्ष है, जिसके चारों ओर चार-पांच अन्य तरह के पेड़ों की उपस्थिति ज़रूरी होती है। चंदन की जड़ें ज़मीन के नीचे एक हौस्टोरियम (चूषक-जाल) बनाती हैं। यह चूषक-जाल आसपास के मेज़बान पेड़ों की जड़ों पर ऑक्टोपस जैसी पकड़ बनाती हैं, और उनके ज़रिए पानी और अन्य पोषक तत्व प्राप्त करती हैं।

चंदन के फल से तो शायद हम और भी अधिक अपरिचित हैं। इसका फल लगभग 1.5 से.मी. व्यास का (करीब बेर/जामुन जितना बड़ा), रसीला-गूदेदार और पकने पर चमकदार जामुनी-काले रंग का होता है। इसके अंदर एक बीज होता है। इस बीज की रक्षा करने के लिए सख्त खोल नहीं होती बल्कि वह सूखी गिरी में कैद होता है। इस कारण बीज का एक मौसम से अधिक समय तक जीवित रहना मुश्किल होता है।

चंदन के उपरोक्त दोनों गुण – प्रारंभिक विकास चरण में अन्य पेड़ों की मदद की आवश्यकता, और अल्पकाल तक ही सलामत रहने वाले बीज जो संग्रहित नहीं किए जा सकते – के अलावा अत्यधिक दोहन किए जाने के चलते इन पेड़ों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। इस वजह से दक्षिण भारत के जंगलों में चंदन के पेड़ों की संख्या में भारी गिरावट आई है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने चंदन को एक जोखिमग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखा है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि अब चंदन और चंदन के तेल का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश ऑस्ट्रेलिया है।

पक्षियों द्वारा फैलाव

इसका फल कड़वा होता है, इसका स्वाद मनुष्यों को नहीं भाएगा। लेकिन यह पक्षियों को प्रिय है। एशियाई कोयल और भूरा धनेश जैसी लगभग 10 प्रजातियां इसके फल को साबुत ही निगल जाती हैं, और समय के साथ बीज को उस पेड़ से काफी दूरी पर गिरा देती हैं। ये पक्षी भारत के बड़े फल खाने वाले (फलभक्षी) पक्षियों में से हैं। चंदन के पेड़ का फल कोयल और धनेश के लिए एकदम उपयुक्त है। जानी-मानी बात है कि चंदन के जिन पेड़ों के बीज बड़ी साइज़ के होते हैं, उनके बीज आम तौर पर मूल पेड़ के आसपास ही बिखरते हैं। हालांकि बड़े बीज अंकुरण के लिए बेहतर होते हैं, लेकिन पक्षी बड़े बीजों को निगल नहीं पाते हैं और गूदे पर चोंच मारने के बाद उन्हें वहीं नीचे गिरा देते हैं।

बीजों के अंकुरण के लिए अच्छा होता है कि वे पक्षियों के पाचन तंत्र से होकर गुज़रें। इससे गुज़रने के बाद बीज बहुत तेज़ी से अंकुरित होते हैं और उनके पेड़ बनने की संभावना अधिक होती है। यही कारण है कि हमें बड़े-बड़े परिपक्व चंदन के पेड़ जंगलों में देखने को मिलते हैं न कि वृक्षारोपण स्थलों (प्लांटेशन) में। अफसोस की बात है कि जंगलों के कम होने से पक्षियों की आबादी भी कम हो गई है, और इसलिए उचित बीज फैलाव की संभावना भी कम हो गई है।

इस मामले में, क्या मनुष्य पक्षियों की बराबरी कर सकते हैं? फॉरेस्ट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में त्रिशूर के केरल कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने, युरोप के साथियों के साथ मिलकर चंदन के बीजों को अंकुरण के लिए विभिन्न तरीकों से तैयार करने की कोशिश की है। सर्वोत्तम परिणाम तब मिले जब ताज़े एकत्रित किए हुए बीजों को पॉलीएथिलीन ग्लाइकॉल-6000 के 5% घोल में दो दिनों के लिए भिगोया गया। यह दिलचस्प सिंथेटिक पदार्थ बीज की कोशिकाओं पर परासरण दाब पैदा करता है और अंकुरण प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। इसे ऑस्मोप्रायमिंग कहा जाता है, और सही ढंग से करने पर यह बीजों को केवल पानी में भिगोने से अधिक प्रभावी होता है। ऑस्मोप्रायमिंग की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद बीजों की अंकुरण दर 79 प्रतिशत थी जबकि सीधे बीज बोने में यह दर सिर्फ 45 प्रतिशत थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या फूल पौधों के कान हैं – डॉ. किशोर पंवार

रंग-बिरंगे, रस भरे फूलों पर तितलियां, भंवरे और शकरखोरा (सनबर्ड) जैसे पक्षी सुबह-शाम मंडराते हैं। रात के वक्त इनका स्थान पतंगे और छोटे चमगादड़ ले लेते हैं। तितलियों या पक्षियों का फूलों पर बार-बार आना-जाना बेसबब नहीं होता। यह रिश्ता लेन-देन का है। फूल अपना मीठा रस इन हवाई मेहमानों को देते हैं और बदले में ये जीव इन फूलों के पराग को यहां से वहां ले जाते हैं। इस लेन-देन में तितलियों, पक्षियों, चमगादड़ों को भोजन मिल जाता है और फूलों का परागण हो जाता है जो नए फल और बीज बनने के लिए ज़रूरी है।

कभी दुश्मन, कभी दोस्त

पत्तियों को कुतरने वाली इल्लियां और फुदकने वाले तरह-तरह के टिड्डे, ये सब पत्तियों के दुश्मन हैं। टिड्डों की बात छोड़ दें, परंतु तितलियां और पतंगे तो इन्हीं इल्लियों के उड़ने वाले रूप हैं जो पेड़-पौधों से दोस्तियां निभाते हैं। ये इन जीवों के जीवन चक्र की दो अलग-अलग अवस्थाएं हैं। इनमें से कुछ जीव अपूर्ण कायांतरण दर्शाते हैं (जैसे कि टिड्डे) तो कुछ पूर्ण कायांतरण का मुज़ाहिरा करते हैं (जैसे तितलियां और पतंगे)। जीवन चक्र की इनकी ये अवस्थाएं इतनी अलग-अलग दिखती हैं कि आप पहचान ही नहीं पाएंगे कि ये एक ही जीव के दो रूप हैं।

जीवन चक्र की शुरुआती अवस्था (इल्ली रूप) में ये पत्तियों को कुतरते हैं, उन्हें छेद देते हैं और कभी-कभी तो पूरा पौधा ही चट कर जाते हैं। ऐसी स्थिति में ये पौधों के दुश्मन नज़र आते हैं। दूसरी ओर, वयस्क अवस्था अर्थात उड़ने वाले जीव के रूप में ये रस भरे फूलों का रसपान करते हैं और चलते-चलते (उड़ते-उड़ते) उन फूलों का परागण कर देते हैं।

तथ्य यह है कि 87.5 प्रतिशत पुष्पधारी पौधे परागण के लिए इन तितलियों, मधुमक्खियों और विभिन्न पक्षियों और चमगादड़ों पर निर्भर है। इनमें कई महत्वपूर्ण फसलें, तथा आर्थिक महत्व के पेड़-पौधे शामिल हैं।

क्या पौधे सुनते हैं

फूलों के बारे में यह तो जानी-मानी बात है कि वे अपने रंगों से, सुगंध से परागणकर्ता कीट-पतंगों को आकर्षित करते हैं और अपनी प्रजनन सफलता को बढ़ाते हैं। और अब, हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि पौधे इन जीवों की आवाज़ भी सुनते हैं। और सिर्फ सुनते नहीं, उस पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया भी देते हैं। यह प्रतिक्रिया फूलों को फायदा पहुंचाती है। तो क्या पेड़-पौधों के कान होते हैं? अध्ययन से तो लगता है कि यह बात सही है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि ‘सुनने-सुनाने’ का यह काम फूल करते हैं। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि सुनने से आशय हवाई कंपनों के प्रति प्रतिक्रिया से है। ज़रूरी नहीं कि इन कंपनों से ध्वनि की संवेदना पैदा हो।

शोधकर्ता लिलैक हैडानी व उनके साथियों की परिकल्पना थी कि पौधे ध्वनियों के प्रति कुछ न कुछ प्रतिक्रिया ज़रूर देते होंगे। खास तौर पर उन्हें लगता था कि परागणकर्ताओं के पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति का फूलों पर कुछ असर ज़रूर होता होगा। उनका यह भी विचार था कि परागणकर्ता (तितली वगैरह) के आसपास मंडराने पर फूलों में ऐसे परिवर्तन होते होंगे जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करने में मदद करते हैं या उनको कुछ तोहफा देते हैं। जैसे, हो सकता है कि ऐसी ध्वनियों के असर से वे ज़्यादा या बेहतर मकरंद तैयार करते हों। शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या परागणकर्ता द्वारा उत्पन्न ध्वनि का मकरंद की मात्रा या गुणवत्ता पर कोई असर पड़ता है?

शोधकर्ताओं का यह भी विचार था कि यदि फूलों के माध्यम से ही ध्वनि के कंपन पर प्रतिक्रिया होती है, तो खुद फूल भी कंपन करते होंगे; खासकर कटोरेनुमा आकार वाले फूल। तो उन्होंने अपने प्रयोग इन दो परिकल्पनाओं की जांच के हिसाब से बनाए। और इन प्रयोगों के लिए उन्होंने वसंती गुलाब को चुना। इस पौधे को अलग-अलग तरह की ध्वनि के संपर्क में लाकर उसकी प्रतिक्रियाओं का नाप-जोख किया और परिणाम चौंकाने वाले रहे। पहले तो यह देखते हैं कि प्रयोग किस तरह किए गए थे।

प्रयोग की योजना

प्रयोग के एक सेट में पौधे प्राकृतिक वातावरण में, खुले में उगाए गए थे जबकि गर्मियों में घर के अंदर उगाए गए थे। और पौधे प्राकृतिक ध्वनियों के संपर्क में थे। दूसरे सेट में (कंट्रोल के तौर पर) कोई ध्वनि नहीं सुनाई गई और तीसरे में ऐसी ध्वनियों की रिकॉर्डिंग उन्हें सुनाई गई जो कीटों के पंख फड़फड़ाने की आवृत्ति के आसपास थी। एक अन्य प्रयोग सेट में उच्च आवृत्ति की ध्वनि की रिकॉर्डिग सुनाई गई। शोधकर्ताओं ने यह भी सावधानी बरती थी कि स्पीकर के विद्युत चुंबकीय क्षेत्र के संभावित प्रभाव को नियंत्रित किया जाए।

जिस फूल पर ये प्रयोग किए गए उसका नाम है बीच इवनिंग प्रिमरोज़ या वसंती गुलाब (Oenothera drummondii)। यह पौधा 400 मीटर से नीचे के तटीय इलाकों में रेतीले क्षेत्र में पाया जाता है। यह मेक्सिको और दक्षिण पूर्वी यूएस का मूल निवासी है। इसके फूल चटख पीले रंग के होते हैं। फूल शाम को खिलते हैं और सूरज की रोशनी आने पर बंद हो जाते हैं। प्रत्येक फूल में चार पंखुड़ियां और चार अंखुड़ियां तथा आठ परागकोश होते हैं। इन कटोरानुमा फूलों का रात और अलसुबह परागण पतंगों द्वारा होता है, और संध्याकाल और सुबह में मधुमक्खी के द्वारा। ये प्रयोग इस्राइल में किए गए थे।

एक प्रयोग में घर के अंदर उगाए गए पौधों को एक अकेली मंडराती मधुमक्खी की रिकॉर्डिंग का प्लेबैक सुनाया गया जबकि एक प्रयोग में पौधे की प्रतिक्रिया का परीक्षण कुछ निम्न और मध्यम आवृत्ति के ध्वनि उद्दीपनों के लिए किया गया था।

उपरोक्त विभिन्न उद्दीपनों पर फूलों की प्रतिक्रिया नापने के लिए पहले उसका मकरंद खाली करके तुरंत उपरोक्त उद्दीपनों में से एक के संपर्क में लाया गया लाया गया और नवनिर्मित मकरंद को 3 मिनट के अंदर निकालकर मापन किया गया। उद्दीपन से पहले और बाद में मकरंद में चीनी की सांद्रता भी पता की गई।

इकॉलॉजी लेटर्स के जुलाई 2019 अंक में प्रकाशित इस मज़ेदार प्रयोग में वैज्ञानिकों ने पाया कि मधुमक्खी के पंखों की फड़फड़ाहट की प्राकृतिक ध्वनि (रिकॉर्डिंग) के संपर्क में आने के बाद वसंती गुलाब के फूलों के मकरंद में शर्करा की सांद्रता में काफी अधिक (1.2 गुना) वृद्धि हो गई थी, जबकि उच्च आवृत्ति की ध्वनियों या बिना किसी ध्वनि के संपर्क में आने वाले फूलों में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं देखा गया। मधुमक्खी जैसी आवृत्ति वाली ध्वनियों का भी शर्करा की सांद्रता पर उल्लेखनीय असर रहा।

प्रयोग 900 पौधों के 650 से अधिक फूलों पर किया गया था। कीट-पतंगे, पक्षी, चमगादड़ वगैरह जीव जब हवा में उड़ते हैं तो उनके पंखों की गति हवा में ध्वनि तरंगें पैदा करती है। जब ये फूलों के आसपास मंडराते हैं तो पंखुड़ियों में कंपन होने लगता है। ऐसा होने पर फूल ज़्यादा मकरंद बनाते हैं। मात्र 3 मिनट की फड़फड़ाहट शर्करा की मात्रा लगभग डेढ़ गुना बढ़ा देती है। दरअसल, परागणकर्ता की ध्वनि का मकरंद की कुल मात्रा पर कोई असर नहीं देखा गया। शोधकर्ताओं का कहना है कि शर्करा की सांद्रता में परिवर्तन पानी की मात्रा में परिवर्तन का परिणाम है।

लरज़ते फूल

प्रयोग में यह भी देखा गया कि इन फूलों की पंखुड़ियां कीटों के पंखों से उत्पन्न ध्वनि पर कंपन भी करती हैं। लेज़र वाइब्रोमेट्री की मदद से पता चला कि कंपन का आयाम 0.01 मिलीमीटर तक रहा। पंखुड़ियों की हिलने-डुलने की आवृत्ति आम तौर पर मधुमक्खी और पतंगे के पंखों की फड़फड़ाहट से उत्पन्न ध्वनि की आवृत्तियों के करीब थी। पंखुड़ियों में कंपन का यह कार्य मैकेनोरिसेप्टर द्वारा किया जाता है जो आम तौर पर पौधों में पाए जाते हैं।

परागण से आगे

पौधों में हवा में उत्पन्न होने वाली इन ध्वनियों को महसूस करने की क्षमता इससे कहीं और आगे भी जा सकती है। संभवत: पौधे शाकाहारियों, शिकारियों और अन्य पौधों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं। इस तरह की प्रतिक्रियाओं के कई दूरगामी निहितार्थ हो सकते हैं। ध्वनि के प्रति पौधों की यह प्रतिक्रिया परागणकर्ताओं और पौधों के बीच दो-तरफा प्रतिक्रिया है जो उनके बीच समन्वय में सुधार कर सकती है, और मकरंद को व्यर्थ जाने से बचा सकती है और शायद बदलते पर्यावरण में परागण की दक्षता में सुधार कर सकती है। अंत में यह कहा जा सकता है कि वायु जनित ध्वनियों को महसूस करने की पौधों की क्षमता परागण से कहीं अधिक महत्व की है। शायद पौधे अन्य ध्वनियों (जैसे मानवजनित ध्वनियों) पर भी प्रतिक्रिया देते हों। इसके बारे में अभी और बहुत कुछ जानना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मानव मूत्र वन संरक्षण में मदद कर सकता है?

स्पेन स्थित ग्रेनाडा विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पुनर्वनीकरण के उद्देश्य से जंगल के पेड़-पौधों के बीज़ों को कृंतकों और अन्य बीजभक्षी जीवों से बचाने के लिए मानव मूत्र का उपयोग किया है। यह असामान्य प्रयोग पारिस्थितिकीविद जॉर्ज कास्त्रो के नेतृत्व में दक्षिण-पूर्वी स्पेन के सिएरा नेवादा पहाड़ों में किया गया है।

इस प्रयोग का प्राथमिक उद्देश्य टाइनी वुड माउस (Apodemus sylvaticus), पक्षियों और अन्य जंगली प्राणियों को सदाबहार बलूत (Quercus ilex) के बीज खाने से रोकना था जिन्हें जंगल को बहाल करने के लिए बोया गया था। कास्त्रो का विचार था कि कोयोट, लिनेक्स और लोमड़ियों जैसे शिकारियों के मूत्र से मिलता-जुलता और अमोनिया जैसी गंध वाला मानव मूत्र इन जीवों को दूर रख सकता है। आम तौर पर कृतंक वगैरह ऐसी गंध से दूर रहना पसंद करते हैं। विचार यह था कि बोने से पूर्व इन बीजों के पेशाब में भिगो दिया जाएगा। अब इन जंगली शिकारियों से मूत्र प्राप्त करना तो काफी मुश्किल होता इसलिए उन्होंने आसानी से उपलब्ध विकल्प के रूप में मानव मूत्र का उपयोग किया।

रिस्टोरेशन इकोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, दुर्भाग्यवश, अध्ययन के परिणाम उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे। अध्ययन क्षेत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग से पता चला कि कृंतक और अन्य जंगली जीव मूत्र से सने बीजों की गंध से काफी हद तक अप्रभावित रहे।

इस प्रयोग के निराशाजनक परिणाम के बावजूद, कास्त्रो असफल अध्ययनों/नकारात्मक परिणामों को प्रकाशित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं ताकि अन्य शोधकर्ता ऐसे बेकार प्रयोग न दोहराएं। इसके अलावा, कास्त्रो का मत है कि भले ही मानव मूत्र कृंतकों को रोकने में प्रभावी नहीं है, लेकिन यह हिरण जैसे अन्य शाकाहारी जीवों के विरुद्ध उपयोगी हो सकता है। ये शाकाहारी जीव पौधों को खाकर वन बहाली के प्रयासों में बाधा डालते हैं।

यह सही है कि इस प्रयोग से पुनर्वनीकरण के कार्य में मानव मूत्र उपयोगी नहीं लगता लेकिन इससे जंगलों और पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए एक नया और अपरंपरागत दृष्टिकोण तो ज़रूर सामने आया है। (स्रोत फीचर्स)

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हवा की बजाय समंदरों से कार्बन कैप्चर की नई पहल

न दिनों लॉस एंजिल्स के व्यस्त बंदरगाह पर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक नई तकनीक आकार ले रही है। यहां कैप्च्यूरा और एक्वेटिक जैसे स्टार्टअप, हवा की बजाय सीधे समुद्र से कार्बन डाईऑक्साइड कैप्चर करने की तकनीक विकसित कर रहे हैं। इस तकनीक को ग्रीनहाउस गैसों को वातावरण से हटाने के लिए ज़्यादा कारगर माना जा रहा है।

लॉस एंजिल्स के बंदरगाह पर पहुंचने वाले विशाल कंटेनर सालाना लगभग 300 अरब डॉलर का सामान ढोते हैं, लेकिन साथ ही ये काफी कार्बन डाईऑक्साइड (CO2) उत्सर्जन करते हैं। इसी बंदरगाह पर कैप्च्यूरा द्वारा तैनात एक नाव भी है जिसमें समुद्री जल से CO2 अवशोषण के लिए एक अनूठी प्रणाली स्थापित की गई है। इस तरह कैद की गई CO2 का उपयोग प्लास्टिक व ईंधन निर्माण में किया जाता है या दफना दिया जाता है। CO2 रहित पानी वापिस समुद्र में डाल दिया जाता है ताकि यह वायुमंडल से अधिक CO2 सोख सके। फिलहाल, प्रति वर्ष 100 टन CO2 कैप्चर करने वाली नाव का परीक्षण सफल होने पर कंपनी नॉर्वे में 1000 टन प्रति वर्ष कैप्चर करने की योजना बना रही है।

इसी तरह एक्वेटिक नामक स्टार्टअप सिंगापुर में महासागरों से प्रति वर्ष 3650 टन कार्बन कैप्चर प्लांट लगाने के लिए तैयार है। कई अन्य कंपनियां भी इसी तरह की प्रौद्योगिकियां विकसित करने की तैयारी में हैं।

हालांकि कार्बन कैप्चर करने के लिए अलग-अलग कंपनियां अलग-अलग रासायनिक प्रक्रियाओं का उपयोग करती हैं, लेकिन सभी नवीकरणीय बिजली का इस्तेमाल करती हैं। चूंकि समुद्र प्राकृतिक रूप से CO2 का सांद्रण करते हैं, इसलिए समुद्री जल के साथ काम ज़्यादा कार्यक्षम है। एक अनुमान के मुताबिक 2032 तक 100 डॉलर प्रति टन की लागत पर कार्बन कैप्चर किया जा सकेगा, जो यूएस ऊर्जा विभाग का लक्ष्य है।

वैसे, CO2 रहित पानी द्वारा अवशोषित CO2 की मात्रा को सटीक रूप से मापना मुश्किल है जबकि यह आकलन कार्बन क्रेडिट के लिहाज़ से महत्वपूर्ण है। एक्वेटिक ने एक योजना बनाई है, जिसमें अवशोषित CO2 को मापा जा सकेगा।

इस तकनीक की कार्यक्षमता के बावजूद इसके लिए सरकारी समर्थन में वृद्धि की आवश्यकता है। वर्तमान में, यू.एस. में प्रत्यक्ष वायु कैप्चर संयंत्रों को प्रति टन CO2  कैप्चर पर 180 डॉलर (लगभग 15000 रुपए) का टैक्स क्रेडिट मिलता है, जबकि महासागरों से CO2 कैप्चर करने पर ऐसा कोई टैक्स प्रोत्साहन नहीं हैं। पानी से कार्बन हटाने के लिए समान प्रोत्साहन की मांग की जा रही है।

हालांकि, इस तकनीक के सामने जलवायु परिवर्तन एक बड़ी चुनौती है। इंटरगवर्नमेंट पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज के अनुसार, 2050 तक वैश्विक तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए सालाना लगभग पांच अरब टन CO2 हटानी होगी जबकि वर्तमान प्रयास केवल कुछ हज़ार टन कार्बन कैप्चर करते हैं। फिर भी समुद्री कार्बन कैप्चर जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कुछ आशा तो जगाता है। (स्रोत फीचर्स)

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नदियों का संरक्षण और जानकारी की साझेदारी

इंटरनेशनल सेंटर फॉर इंटीग्रेटेड माउंटेन डेवलपमेंट और ऑस्ट्रेलियन वॉटर पार्टनरशिप की हालिया रिपोर्टों ने तीन प्रमुख एशियाई नदियों: सिंधु, गंगा और ब्रह्मपुत्र के संरक्षण के लिए देशों के बीच वैज्ञानिक सहयोग और डैटा साझेदारी की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर दिया है। रिपोर्ट में कहा गया है कि हिमालय के हिंदूकुश क्षेत्र से निकलने वाली ये नदियां जलवायु परिवर्तन के कारण संकट में हैं। प्रमुख खतरे तेज़ी से ग्लेशियरों का पिघलना और वर्षा के पैटर्न में बदलाव है। इसके कारण सात देशों यानी अफगानिस्तान, नेपाल, पाकिस्तान, चीन, भारत, बांग्लादेश और भूटान के लगभग एक अरब लोगों के प्रभावित होने की संभावना है। इससे निपटने के लिए सभी देशों की समन्वित कार्रवाई की आवश्यकता है।

रिपोर्ट का दावा है कि बढ़ती आबादी और पानी की बढ़ती मांग के साथ जलवायु परिवर्तन-प्रेरित परिवर्तन किसानों को लंबे समय तक पानी की कमी और आसपास के समुदायों के लिए बाढ़ के जोखिम को बढ़ा सकते हैं। गौरतलब है कि इन नदियों के प्रबंधन के लिए सात देशों के बीच विभिन्न समझौते तो मौजूद हैं लेकिन जल विज्ञान, पर्यावरण और सामाजिक आर्थिक कारकों से सम्बंधित महत्वपूर्ण डैटा साझा करने की कमी एक महत्वपूर्ण बाधा बनी हुई है।

इसका एक उदाहरण ब्रह्मपुत्र नदी पर जारी एक रिपोर्ट है जिसमें इस क्षेत्र में अपर्याप्त जलवायु निगरानी की बात कही गई है। इसके अलावा गंगा पर किए गए अध्ययन में विशेष रूप से भारत सरकार द्वारा जल विज्ञान सम्बंधित डैटा को रोकने की प्रवृत्ति को दर्शाया गया है।

इस बारे में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, गुवाहाटी की अर्थशास्त्री अनामिका बरुआ के अनुसार डैटा साझेदारी में प्रमुख बाधा राष्ट्रीय सुरक्षा सम्बंधी चिंताओं के कारण है। डैटा तक पहुंच को सुनिश्चित करने के लिए कम से कम नदी बेसिन डैटा को सुरक्षा चिंताओं से मुक्त रखा जा सकता है।

भाषा सम्बंधी बाधाएं भी हैं। जैसे ब्रह्मपुत्र पर चीनी रिपोर्ट्स चीनी भाषा में होती हैं।

रिपोर्टों का मत है कि सभी राष्ट्र मौजूदा समझौतों और संस्थाओं का लाभ उठा सकते हैं। मसलन, सिंधु नदी के टिकाऊ उपयोग को बढ़ावा देने वाले अपर सिंधु घाटी नेटवर्क की मदद से चीन, भारत, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के बीच सहयोग बढ़ाया जा सकता है।

सिंधु नदी रिपोर्ट के प्रमुख लेखक और ई-वॉटर ग्रुप के सलाहकार रसेल रोलासन विभिन्न देशों के बीच सहयोग के क्षेत्रों की पहचान करने की संभावना पर ज़ोर देते हैं। रसेल के अनुसार जल सुरक्षा के लिए क्षेत्रीय सहयोग की दिशा में बातचीत के लिए साझा समस्याओं पर ज़ोर दिया जा सकता है।

बहरहाल, इन रिपोर्टों से एक बात तो स्पष्ट है कि बेहतर डैटा साझेदारी और सहयोगात्मक प्रयासों के बिना इन महत्वपूर्ण नदियों पर जलवायु परिवर्तन से उत्पन्न जोखिम बढ़ते रहेंगे। इससे लाखों लोगों की आजीविका और निवास खतरे में पड़ सकते हैं। यह इस बात की ओर भी संकेत देता है कि जलवायु परिवर्तन अलग-अलग देशों की नहीं बल्कि साझा समस्या है। (स्रोत फीचर्स)

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हर्बेरियम का अवसान: वनस्पति शास्त्र अध्ययन पर संकट – डॉ. भोलेश्वर दुबे

पिछले कुछ दिनों से प्रकृति वैज्ञानिकों, खासतौर पर वनस्पति शास्त्रियों को एक खबर ने विचलित कर रखा है। हुआ यूं कि अमेरिका की एक पुरानी और ख्याति प्राप्त संस्था ड्यूक विश्वविद्यालय ने अपने सौ साल पुराने प्रतिष्ठित हर्बेरियम को बंद करने की घोषणा कर डाली। घोषित कार्ययोजना के अनुसार अगले 2-3 वर्षों में विश्वविद्यालय के छात्रों, प्राध्यापकों और शोधार्थियों से यह सुविधा छिन जाएगी। हालांकि इस निर्णय के खिलाफ वैज्ञानिक समुदाय पुरज़ोर तरीके से आवाज उठा रहा है किन्तु विश्वविद्यालय प्रशासन हर्बेरियम के रख-रखाव पर होने वाले भारी भरकम खर्च के बहाने इसे बंद या अन्यत्र स्थानांतरित करने पर अड़ा हुआ है।

ड्यूक विश्वविद्यालय प्रकृति विज्ञान संकाय की अध्यक्ष सुसान अल्बर्ट्स का कहना है कि 8,25,000 संरक्षित नमूनों को फिलहाल गई-गुज़री हालत में रखा हुआ है जिसकी व्यवस्थित साज-संभाल के लिए भरपूर धन की आवश्यकता होगी। यद्यपि वे इस प्रतिष्ठित संग्रह और जीव विज्ञान के क्षेत्र में इसकी महत्ता की भी भरपूर तारीफ करती हैं।

येल विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव वैज्ञानिक माइकल डॉनोग्हू का तो कहना है कि अपने विश्व स्तरीय हर्बेरियम से मुक्त होने का ड्यूक विश्वविद्यालय का निर्णय एक त्रासद भूल है, यह ड्यूक विश्वविद्यालय में पर्यावरण और मानविकी की चुनौतियों का अध्ययन करने वाले छात्रों और शिक्षकों को मिलने वाली अकादमिक सुविधा को हमेशा के लिए खत्म कर देगी। वे पूछते हैं, अगर ऐसा ही चलता रहा तो बंद होने की कतार में क्या अगला नंबर ग्रंथालयों का होगा?

आइए पहले यह जानने की कोशिश करें कि आखिर ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम की ऐसी क्या खासियत है।

ड्यूक हर्बेरियम, जिसे संक्षेप में DUKE कहते हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका के बड़े हर्बेरियमों में से एक है। देश में यह 12वें क्रम पर आता है और प्रायवेट विश्वविद्यालयों में हारवर्ड के बाद दूसरे क्रम पर। यह हर्बेरियम स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए एक विशिष्ट और मूल्यवान संसाधन साबित हुआ है।

हर्बेरियम में लाखों संवहनी पौधों (vascular plants) के अलावा ब्रायोफाइट्स, शैवाल (एल्गी), लाइकेन और फफूंदों (कवकों) के नमूने संरक्षित हैं। यह एक विशेष बात है क्योंकि संवहनी पौधों के संग्रह तो कई जगह मिल जाते हैं किन्तु इतनी बड़ी संख्या में मॉसेस, शैवाल और कवकों का दुर्लभ संयोग ड्यूक को वैश्विक सम्मान का हकदार बनाता है।

इनमें 2000 वे नमूने भी शामिल हैं जिनके आधार पर पौधों का प्रारंभिक नामकरण किया गया है। इसी के साथ इस हर्बेरियम में विशेषज्ञों द्वारा पहचान किए गए कई महत्वपूर्ण पौधों के प्रतिनिधि नमूने भी संरक्षित हैं, जिन्हें ‘वाउचर स्पेसिमेन’ कहते हैं। आणविक जीवविज्ञान, जैव रसायन और आनुवंशिकी शोध में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इस पादप संग्रहालय में लगभग चार लाख संवहनी पौधों का संग्रह है। यह संस्था कैरोलिनास और पूरी दुनिया के इलाकों (खासतौर से मीसोअमेरिकन क्षेत्र) में इन पौधों की पारिस्थितिकी, विविधता और वितरण की सूचनाएं भी देती है। ड्यूक हर्बेरियम के 60 प्रतिशत नमूने दक्षिण-पूर्व यूएस से हैं जो कि अमेरिका का जैव-विविधता का हॉट-स्पॉट है। यही कारण है कि जैव-विविधता, पारिस्थितिक विज्ञानियों और संरक्षण जीव वैज्ञानिकों के लिये यह स्थान किसी तीर्थ से कम नहीं है। यह हर्बेरियम संग्रहित पौधों के नमूनों के चित्र और उनसे सम्बंधित जानकारियों को ऑनलाइन डैटाबेस के रूप में शोधार्थियों को उपलब्ध करवाने में भी अग्रणी है।

क्या होता है हर्बेरियम

असल में हर्बेरियम पौधों के नमूनों का संग्रह है जिन्हें लंबे समय तक संरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती है। प्रकृति विज्ञान, विशेष रूप से वनस्पति शास्त्र में रुचि रखने वाले व्यक्ति अपने क्षेत्र में पाए जाने वाले विभिन्न पौधों की जानकारी हासिल करने का प्रयास करते हैं। पुरानी वनस्पतिशास्त्र की पुस्तकों में प्राय: ऐसे चित्र देखने को मिलते हैं कि कुछ व्यक्ति हाफ पैंट और घुटनों तक के बूट पहने, सिर पर हैट लगाए, कंधे पर पेटी नुमा चीज़ लिए कुछ वनस्पतियां इकट्ठी कर रहे हैं। असल में आज भी यही कुछ किया जाता है किंतु तरीका बदल गया है। हर्बेरियम बनाने के लिए छोटे-छोटे पूरे पौधे, बड़ी झाड़ियों या वृक्षों की पत्तियों, फूलों सहित टहनियां, और संभव हो तो फल और बीज इकट्ठे कर लिए जाते हैं। पौधों की इस सामग्री को पहले टिन की पेटी (जिसे वेस्कुलम कहते हैं) में रखकर लाया जाता था जिसमें गत्ते या अखबार का अस्तर बिछा होता था ताकि यह सामग्री सूखे नहीं। अब यह काम पॉलीथीन की थैलियों में किया जाता है। इस सामग्री को प्लांट प्रेस में दबाया जाता है। हम जैसे महाविद्यालयीन छात्र इन्हें पत्रिकाओं के बीच व्यवस्थित रख कर किताबों के वजन से दबा दिया करते थे और 1-2 दिन में उलटते-पलटते रहते थे। दबाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पौधे का हर भाग और उसकी विशेषताएं स्पष्ट रूप से दिखाई दें। प्लांट प्रेस से या अन्य विधि से दबाए गए नमूनों को या तो धूप में या फिर गर्म हवा वाली ड्राइंग प्रेस या बिजली के बल्ब वाले ओवन में सुखाया जाता है। शैवाल, कवक, जलीय पौधों और मांसल पौधों को संरक्षित करने के लिए अलग विधि अपनाई जाती है। जलीय पौधों को प्रेसिंग पेपर के छोटे टुकड़े पर धीरे से फैला कर उठा लिया जाता है और इसे सीधे प्रेसिंग शीट पर रख देने से वे चिपक जाते हैं। सामान्य पौधों के नमूने सूख जाने पर इन्हें 29X41 सेंटीमीटर की मोटी शीट पर सरेस, गोंद या पारदर्शी गोंद युक्त कपड़े की पट्टियों या सैलोटेप से चिपका दिया जाता है। कहीं-कहीं नमूनों को शीट पर इथाइल सेल्यूलोज़ और रेज़िन के मिश्रण से भी चिपकाते हैं। इस प्रकार एकत्रित किए गए नमूने की एक शीट तैयार होती है, जिस पर उस पौधे से सम्बंधित जानकारियां (जैसे संग्रह का स्थान, कुल का नाम, संग्रह करने की तारीख, प्राकृतवास, संग्राहक का नाम, पहचान हो गई हो तो पौधे के वंश और प्रजाति का नाम) अंकित की जाती हैं।

हर्बेरियम शीट्स को हर्बेरियम केबिनेट में मानक वर्गीकरण के आधार पर नियत खण्ड (पिजन होल) में रखा जाता है। कवक और कीटों से सुरक्षा के लिए उन्हें समय-समय पर उल्टा-पल्टा जाता है तथा कीटनाशक रसायनों का फ्यूमिगेशन किया जाता है और केबिनेट में नेफ्थालिन की गोलियां भी रखी जाती हैं। इस तरह से सुखाकर शीट पर चिपकाए गए पौधों के भाग हर्बेरियम नमूने कहलाते हैं। इसके अलावा हर्बेरियम में बीज, सूखे फल, शैवाल, कवक, काष्ठ की काट, पराग कण, सूक्ष्मदर्शी स्लाइड द्रव में संरक्षित फल और फूल, सिलिका में दबाकर संग्रहित चीज़ें, यहां तक कि डीएनए निष्कर्षण भी उपलब्ध होते हैं। आधुनिक विकसित हर्बेरियम में डैटा संग्रह, वानस्पतिक चित्र, नक्शे और उस क्षेत्र से सम्बंधित पौधों के बारे में साहित्य भी उपलब्ध होता है।

हर्बेरियम बनाने की शुरुआत सोलहवीं शताब्दी में पिसा विश्वविद्यालय में औषधि और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक ल्यूका घिनि ने की थी। उन्होंने एक ही शीट पर कई पौधों को सुन्दर तरीके से चिपकाया और ऐसी कई शीट की जिल्दबंद किताबें बना दी थीं, जिनका उपयोग ग्रंथालय में संदर्भ के लिए किया जाने लगा। इस विधि में नमूनों को एक बार जिस क्रम में चिपका दिया उसे बदलने की कोई संभावना नहीं थी। अतः वर्गीकरण के मान से सुधार की गुंजाइश खतम हो गई। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए प्रसिद्ध प्रकृतिविद, वनस्पतिशास्त्र के विद्वान केरोलस लीनियस ने 1751 में अपनी कृति फिलॉसॉफिया बॉटेनिका में सुझाव दिया था कि एक शीट पर एक ही नमूना चिपकाया जाए और इसकी जिल्द न बनाई जाए। लीनियस ने इन शीट को रखने के लिये विशेष प्रकार की केबिनेट भी बनाई थी। ऐसा करने से शीट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने व वर्गीकरण के मान से होने वाले नवाचार के अनुसार उनका स्थान बदलने की गुंजाइश हमेशा बनी रही। तब से लेकर आज तक विश्व के सभी प्रमुख हर्बेरियम में यही विधि अपनाई जा रही है।

वनस्पतिशास्त्र, मुख्यतः वर्गीकरण विज्ञान तथा जैव विविधता, के अध्ययन में हर्बेरियम का बहुत महत्व है। हर्बेरियम में संरक्षित मूल नमूनों (जिन्हें टाइप स्पेसिमेन कहा जाता है) से मिलान करके किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाले पौधों की पहचान सुनिश्चित की जाती है। प्रामाणिक हर्बेरियम में उपलब्ध पौधे से यदि पौधा मेल नहीं खाता तो उसे नई प्रजाति माना जाता है। पौधों की नई प्रजातियों की जानकारी को वनस्पतिशास्त्र में शामिल करने का काम यहीं से शुरू होता है।

ज़ाहिर है, सभी प्राचीन विश्वविद्यालयों, वानस्पतिक शोध संस्थानों और बड़े महाविद्यालयों के अपने व्यवस्थित हर्बेरियम होते हैं जो उस क्षेत्र की वनस्पतियों के नमूनों का संग्रह वनस्पतिशास्त्र के विद्यार्थियों को उपलब्ध करवाते हैं। आज भी दुनिया भर में कई हर्बेरियम को उनके वर्षों पुराने पौधों के संग्रह और दी जाने वाली सेवाओं के लिये विशेष सम्मान दिया जाता है। इनमें लंदन स्थित रॉयल बॉटेनिकल गार्डन, फ्रांस में पेरिस का नेचुरल हिस्ट्री नेशनल म्यूज़ियम, न्यूयॉर्क का न्यूयॉर्क बॉटेनिकल गार्डन का हर्बेरियम प्रमुख हैं।

आज दुनिया भर के 183 देशों के करीब 3500 हर्बेरियम पंजीकृत हैं जिनमें कुल मिलाकर 40 करोड़ नमूने संग्रहित हैं। भारत में भी बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के विभिन्न क्षेत्रीय संस्थानों में 30 लाख नमूने संरक्षित हैं। इसी के साथ 1795 में हावड़ा में स्थापित सेन्ट्रल नेशनल हर्बेरियम में बीस लाख, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (देहरादून) में साढ़े तीन लाख और नेशनल बॉटेनिकल गार्डन (लखनऊ) में ढाई लाख से ज़्यादा नमूने संरक्षित हैं।

हर्बेरियम नमूनों की मदद से पौधों की पहचान करने में मदद मिलती है। इनके माध्यम से पौधों के आवास की भौगोलिक सीमा, फूलने-फलने के समय की जानकारी भी मिलती है। पौधों के वर्गीकरण और नामकरण में तो हर्बेरियम की प्रमुख भूमिका है ही। इसके साथ पौधों के उद्विकास (जाति वृत्त), आनुवंशिकी, पारिस्थितिकी, वानिकी, औषधि विज्ञान, प्रदूषण, चिकित्सा विज्ञान तथा विज्ञान की अन्य कई शाखाओं में भी इनका अच्छा खासा योगदान है।

विज्ञान जगत का दुर्भाग्य ही है कि पिछले 30 वर्षों में कई छोटे-बड़े हर्बेरियम बंद हो गए हैं। इनमें सबसे ज़्यादा सदमा पहुंचाने वाली घटना 2015 में मिसौरी विश्वविद्यालय द्वारा 119 वर्ष पुराने डन पामर हर्बेरियम को बंद करने का निर्णय था जहां एक लाख सत्तर हज़ार से अधिक पौधों के नमूने संरक्षित थे। इन नमूनों को 200 कि.मी. दूर स्थानांतरित कर दिया गया था जिससे विश्वविद्यालय के छात्र और प्राध्यापक उस का लाभ लेने से वंचित हो गए। यही कहानी आज ड्यूक विश्वविद्यालय में भी दोहराई जा रही है।

1921 में ट्रिनिटी कॉलेज से शुरू हुए ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने के लिए ह्यूगो एल. ब्लोमक्विस्ट ने नॉर्थ केरोलिना के पी.ओ. शैलर्ट का 16,000 नमूनों का संग्रह खरीदा था। इसके बाद ख्याति प्राप्त पारिस्थितिक वैज्ञानिक हेनरी ऊस्टिंग और अन्य वैज्ञानिकों के प्रयासों से 1963 में यह संस्था उष्णकटिबंधीय अध्ययन संगठन (OTS) का हिस्सा बनी और नवउष्णकटिबंधीय वनस्पतियों के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र बन गई।

एक शताब्दी से अधिक समय से किए गए अथक परिश्रम से इस हर्बेरियम ने जो ऊंचाइयां हासिल की उसे आर्थिक संकट के चलते बंद या स्थानांतरित करने का निर्णय गंभीर वनस्पतिशास्त्रियों को झकझोर देने वाला समाचार है। हर्बेरियम के शुभचिंतकों ने न केवल विरोध के स्वर मुखर किए हैं बल्कि उन्होंने इसे बचाने के लिए वित्तीय मदद हेतु दानदाताओं से अपील भी की है। एक दानी ने दस लाख डॉलर देने की पेशकश भी की है। मगर विश्वविद्यालय प्रशासन ढाई करोड़ डॉलर की आवश्यकता बता रहा है।

कुल मिलाकर विज्ञान विषयों की आधारभूत सुविधाओं जैसे प्रयोगशालाओं, ग्रंथालयों, वानस्पतिक उद्यानों, परिभ्रमणों, हर्बेरियम, म्यूज़ियम आदि को समाप्त कर कहीं हम प्रयोग और प्रयोगशाला विहीन विज्ञान को बढ़ावा देने की ओर कदम तो नहीं बढ़ा रहे हैं। एक कहावत है –“बुढ़िया मर गई इसका अफसोस नहीं है मगर मौत ने घर देख लिया यह चिंता की बात है।’’ स्थिति यही है आज ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम का अस्तित्व मिट रहा है; ऐसा न हो, सभी विश्वविद्यालय उसी राह पर चल पड़ें। अतः वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय को गंभीरता पूर्वक विचार कर इस प्रवृत्ति को रोकना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सर्पदंश: वक्त पर प्रभावी उपचार के प्रयास – प्रतिका गुप्ता

र्पदंश या सांप के काटने के कारण दुनिया भर में सालाना 81,000 से 1,38,000 लोगों की जान चली जाती है और करीब तीन-साढ़े तीन लाख लोग अक्षम हो जाते हें। फिर भी अफ्रीका, भारत जैसे देशों के स्वास्थ्य तंत्रों में सर्पदंश एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। ऊपर से, सर्पदंश के लिए उपलब्ध उपचार और स्वास्थ्य प्रणालियों के साथ भी कई समस्याएं और जटिलताएं हैं।

वैज्ञानिक सर्पदंश के उपचार को बेहतर से बेहतर और समय पर उपलब्ध कराने की दिशा में प्रयास कर रहे हैं। दो ताज़ातरीन अध्ययनों की प्रगति से बेहतर उपचार की उम्मीद जागी है।

साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित एक अध्ययन ने एक युनिवर्सल एंटीवेनम विकसित करने की दिशा में पहली सफलता हासिल की है। इससे एक ही एंटीवेनम से सांप की चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर किया जा सकेगा।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में एक ऐसे टेस्ट के बारे में बताया गया है जो वक्त रहते बता सकता है कि आपको किस सांप ने काटा है, और फिर तय किया जा सकता है कि आपको किस ज़हर के लिए उपचार (एंटीवेनम) देना है।

दरअसल सांप का ज़हर कोई एक यौगिक नहीं बल्कि दर्जनों – यहां तक कि सैकड़ों – यौगिकों का मिश्रण होता है। और खास बात यह है कि यह ज़हरीला मिश्रण हर प्रजाति के सांप में बहुत अलग होता है। यदि सांप काटे तो उपचार के लिए एंटीवेनम दिया जाता है, जो इस बात पर निर्भर करता है कि किस सांप ने काटा है।

सर्पदंश के इलाज में मुश्किलात यहीं से शुरू होती हैं। चूंकि हर प्रजाति के सांप का ज़हर अलग होता है – यहां तक कि विभिन्न इलाकों में पाए जाने वाले एक ही प्रजाति के सांप का ज़हर भी अलग होता है – इसलिए उपचार के लिए यह जानना आवश्यक होता है कि व्यक्ति को किस सांप ने काटा है। लेकिन उसे हमेशा पता नहीं होता कि उसे किस सांप ने डसा है, क्योंकि जब पता चलता है कि सांप ने डसा है तो पहले तो डर के मारे होश उड़ जाते हैं और बदहवासी में सांप पर गौर कर उसे पहचनाने का ध्यान नहीं रहता। फिर, कोई और देखकर पहचान ले इसकी संभावना भी अक्सर कम रहती है क्योंकि सर्पदंश के अधिकतर मामले खेतों या जंगल में काम करते हुए होते हैं, जहां लोग दूरियों पर या अकेले ही काम करते हैं। और किस्मत से कोई आपके साथ हो तो भी, जब तक समझ आता है तब तक सांप डस कर सरपट भाग चुका होता है। ऐसे में किस ज़हर के लिए एंटिवेनम दें?

यह तय करने के लिए चिकित्सकों को पीड़ित में लक्षणों के उभरने का इंतज़ार करना पड़ता है – ताकि सही एंटीवेनम दिया जा सके – हालांकि वे जानते हैं कि उपचार जितना जल्दी मिलेगा, उतना कारगर होगा। उपचार में देरी विकलांगता और जान गंवाने के जोखिम को बढ़ाती जाती है। हालांकि थोड़ा-बहुत अनुमान चिकित्सक इस जानकारी के आधार पर लगाने की कोशिश करते हैं कि किस क्षेत्र में सांप ने डंसा था, और उस इलाके में कौन-से सांप पाए जाते हैं। फिर भी एक इलाके में एक से अधिक तरह के सांप होने की संभावना होती है, और यदि अन्य ज़हर के लिए एंटीवेनम दे दिया गया तो या तो वह बेअसर रह सकता है, या मामला और बिगाड़ सकता है और रोगी की जान का जोखिम बढ़ जाता है।

फिर मानव शरीर द्वारा इन एंटीवेनम को अस्वीकार कर देने की भी संभावना रहती है। दरअसल घोड़ों या भेड़ों को वर्षों तक मामूली मात्रा में सांप का ज़हर देकर उनमें निर्मित एंटीबॉडी से एंटीवेनम तैयार किया जाता है। चूंकि ये एंटीवेनम पशु प्रोटीन से बने होते हैं, इसलिए प्रतिरक्षा प्रणाली इनके विरुद्ध प्रतिकूल प्रतिक्रिया भी कर सकती है जो जानलेवा भी हो सकती है।

फिर, एंटीवेनम का रख-रखाव भी बहुत मुश्किल होता है। अक्सर ग्रामीण स्वास्थ्य केंद्रों पर इन्हें संभालकर रखने के लिए मूलभूत सुविधा नहीं रहती, दूर-दराज के ग्रामीण क्षेत्रों में तो यह और भी मुश्किल है, जबकि सर्पदंश के मामले वहीं अधिक होते हैं।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइन्स के इवॉल्यूशनरी वेनोमिक्स विशेषज्ञ कार्तिक सुनगर सर्पदंश के उपचार में आने वाली इन्हीं अड़चनों को दूर करना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने कई तरह के सांपों के ज़हर के एक प्रमुख घटक थ्री-फिंगर अल्फा-न्यूरोटॉक्सिन (3FTx-L) का सिंथेटिक संस्करण तैयार किया। (गौरतलब है कि 3FTx-L एक विषाक्त पदार्थ है जो तंत्रिका कोशिकाओं के एक प्रमुख न्यूरोट्रांसमीटर की प्रतिक्रिया करने की क्षमता को कुंद कर देता है, और लकवे का कारण बनता है।) फिर उन्होंने एक बहुत बड़ी एंटीबॉडी लाइब्रेरी में सहेजी गईं लगभग 100 अरब कृत्रिम मानव एंटीबॉडी को इस ज़हर के प्रति जांचा और देखा कि कौन-सी एंटीबॉडी इस ज़हर को सबसे अच्छे से बेअसर करती है। उनकी यह खोज 95Mat5 नामक एंटीबॉडी पर आकर खत्म हुई, जो इस ज़हर पर बहुत ही कारगर पाई गई। इसकी बेहतरीन कारगरता का कारण है कि यह अल्फा-बंगारोटॉक्सिन पर ठीक उसी स्थान पर जाकर चिपकता है जहां से यह विष मानव तंत्रिकाओं और मांसपेशियों की कोशिकाओं के साथ बंधता है। अल्फा-बंगारोटॉक्सिन मल्टी-बैंडेड करैत (Bungarus multicinctus) के ज़हर का मुख्य 3FTx-L है।

फिलहाल तो यह 95Mat5 एंटीबॉडी चूहों में कारगर पाई गई है। यहां तक कि 95Mat5 ने चूहों को करैत सांप के ज़हर से भी बचा लिया। इस सांप के बारे में माना जाता है कि इसमें कम से कम चार दर्जन विभिन्न ज़हर होते हैं। इसकी कारगरता सर्पदंश के 20 मिनट विलंब से उपचार दिए जाने पर भी दिखी। और तो और, यह मोनोसेलेट कोबरा (Naja kaouthia) और ब्लैक मंबा (Dendroaspis polylepis) के ज़हर पर भी काम कर गया। लेकिन कुछ ज़हर, जैसे किंग कोबरा (Ophiophagus hannah) के ज़हर को बेअसर नहीं कर पाया, हालांकि इसने चूहों की मृत्यु को थोड़ा टाल ज़रूर दिया था। इस तरह इस एंटीबॉडी से निर्मित एक एंटीवेनम चार प्रजातियों के ज़हर को बेअसर करने के लिए किया जा सकता है।

साथ ही जो एंटीवेनम 3FTx-L के खिलाफ बहुत प्रभावी नहीं रहते हैं उनके स्थान पर 95Mat5 आधारित एंटीवेनम दिया जा सकता है। इसके अलावा यह पशु एंटीबॉडी पर आधारित न होकर मनुष्यों की कृत्रिम एंटीबॉडी है, तो इसमें उपचार के अवांछित दुष्प्रभाव और जोखिम की संभावना भी कम है।

दूसरी ओर, विभिन्न शोध टीमें एक ऐसा परीक्षण तैयार करने की दिशा में काम कर रही हैं जिसके ज़रिए पता किया जा सके कि पीड़ित को किस सांप ने काटा है। और इस तरह लक्षण उभरने तक इंतज़ार करने के समय को कम करके एंटीवेनम को अधिक कारगर बनाया जा सके और विकलांगता और जान गंवाने के प्रतिक्षण बढ़ते जोखिम को कम किया जा सके।

लेकिन ऐसे परीक्षणों में मुख्य बात यह होनी चाहिए कि परीक्षण बहुत आसान हो, दूर-दराज़ के सुविधा रहित इलाकों में पहुंच सके और उपयोग किया जा सके, और परीक्षण के नतीजे फौरन प्राप्त हो जाएं। जैसे कि प्रेग्नेंसी टेस्ट देने वाली स्ट्रिप से मिलते हैं – पेशाब पड़ने के मिनट भर बाद वह रंग बदलकर (या न बदलकर) बता देती है कि गर्भ ठहरा है या नहीं।

दरअसल गर्भ ठहरने का निर्धारण करने वाली स्ट्रिप में ऐसे एंटीबॉडी होते हैं जो गर्भ ठहरने के कारण स्रावित होने वाले हारमोन ह्यूमन कोरियॉनिक गोनेडोट्रॉपिन से जुड़ते हैं। यदि गर्भ ठहरता है तो पेशाब में यह हारमोन बढ़ जाता है और स्ट्रिप में उपस्थित एंटीबॉडीज़ जब इस हारमोन से जुड़ती हैं तो रंग परिवर्तन की हुई दो धारियां मिलती हैं।

लेकिन सर्पदंश के मामले में इस तरह से सार्वभौमिक परीक्षण विकसित करने में समस्या यह है कि प्रेग्नेंसी में स्रावित हारमोन के विपरीत हर सांप का ज़हर एक समान नहीं होता और कई यौगिकों का मिश्रण होता है। फिर भी क्षेत्र विशेष के लिए क्षेत्रीय परीक्षण विकसित किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए, भारत में सर्पदंश के अधिकांश मामले सिर्फ चार प्रजातियों के कारण होते हैं। तो शोधकर्ता क्षेत्रीय परीक्षण स्ट्रिप के लिए एक ऐसी एंटीबॉडी तैयार कर रहे हैं जो इन चारों विष को पहचान सके और बता सके कि कौन-सा ज़हर है। इस दिशा में उन्हें कुछ सफलता मिली है। कुछ परीक्षणों और अनुमोदन के बाद यह परीक्षण इस साल के अंत या अगले साल की शुरुआत तक उपलब्ध हो सकेगा।

लेकिन उपरोक्त एंटीवेनम और परीक्षणों का उत्पादन करने के लिए काफी धन लगेगा। ज़ाहिर है दवा कंपनियां यदि इन्हें बनाएंगी तो ये महंगे होंगे, और उन लोगों की पहुंच से बाहर होंगे जो सर्पदंश के शिकार होते हैं – सर्पदंश की समस्या से मुख्यत: निम्न और मध्यम आय वाले देशों के गरीब और खेतों-जंगलों में काम करने वाले लोग प्रभावित होते हैं। इन देशों में यह पहले ही एक उपेक्षित स्वास्थ्य समस्या है। इसलिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति के साथ इससे सम्बंधी अर्थव्यवस्था, रणनीतिक निर्णयों और स्वास्थ्य देखभाल प्रणालियों के स्तर पर भी काम करने की ज़रूरत है, तभी वास्तव में वक्त पर बेहतर उपचार मुहैया हो सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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एआई निर्मित कैथेटर से संक्रमण की रोकथाम

विश्व भर में हर वर्ष 10 करोड़ से अधिक मूत्र कैथेटर लगाए जाते हैं जिनके रास्ते होने वाले मूत्र मार्ग संक्रमणों (यूटीआई) को रोकना चिकित्सकों के लिए एक महत्वपूर्ण समस्या होती है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन में कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से एक नवीन मूत्र कैथेटर डिज़ाइन प्रस्तुत हुई है। यह कैथेटर एंटीबायोटिक दवाओं का उपयोग किए बिना कैथेटर के रास्ते होने वाले मूत्रमार्ग संक्रमण (यूटीआई) के जोखिम को कम कर सकता है।

गौरतलब है कि पारंपरिक कैथेटर अंदर से चिकने होते हैं जिसके कारण बैक्टीरिया के लिए ऊपर की ओर बढ़ना और आंतरिक सतह पर टिकना सहज हो जाता है। यही बैक्टीरिया यूटीआई का कारण बनते हैं।

नवीन कैथेटर में एक अनोखा इंटीरियर तैयार किया गया है। इसकी अंदरुनी संरचना से एक ऐसा बाधापूर्ण मार्ग तैयार होता है जो बैक्टीरिया को पकड़ प्राप्त करने और मूत्राशय तक पहुंचने से रोकता है।

पूर्व में चिकित्सक बैक्टीरिया को मारने के लिए कैथेटर की आंतरिक सतह पर एंटीबायोटिक दवाओं या चांदी जैसे धातु एजेंटों का लेप करते थे। ये तरीके महंगे होते हैं और बैक्टीरिया में एंटीबायोटिक-प्रतिरोधी क्षमता विकसित होने की आशंका रहती है। नया उपकरण किसी विशेष अस्तर की बजाय सरल ज्यामिति पर काम करता है। 

इस अध्ययन की सह-लेखक और कंप्यूटर वैज्ञानिक अनिमाश्री आनंदकुमार बताती हैं कि यह डिज़ाइन सरल ज्यामिति से प्रेरित है जिसमें नुकीले त्रिकोण के आकार की लकीरों की एक शृंखला है। इस प्रकार के कैथेटर में जब बैक्टीरिया ऊपर की ओर तैरने का प्रयास करते हैं तो इन कंटकों के कारण उनकी ऊपर की ओर बढ़ने की गति बाधित होती है। इसको डिज़ाइन करते हुए शोधकर्ताओं ने सबसे प्रभावी बैक्टीरिया-विकर्षक रचना की पहचान करने के लिए एआई की मदद से हज़ारों डिज़ाइनों की डिजिटल अनुकृतियां तैयार कीं। सर्वोत्तम डिज़ाइन चुनने के बाद, उन्होंने कैथेटर का 3-डी प्रोटोटाइप तैयार किया और ई. कोली बैक्टीरिया पर इसका और सामान्य कैथेटर का परीक्षण किया। उन्होंने पाया कि 24 घंटों की अवधि में पारंपरिक कैथेटर की तुलना में नवनिर्मित प्रायोगिक कैथेटर में सौवें हिस्से से भी कम बैक्टीरिया जमा हुए थे।

फिलहाल वर्तमान डिज़ाइन यूटीआई से जुड़े एक सामान्य बैक्टीरिया ई. कोली के हिसाब से बनाई गई है लेकिन शोधकर्ता अन्य जीवाणु प्रजातियों को ध्यान में रखते हुए इस डिज़ाइन को और अधिक परिष्कृत करने का प्रयास कर रहे हैं ताकि इसे रोगाणुओं की एक विस्तृत शृंखला की रोकथाम के लिए तैयार किया जा सके। देखा जाए तो उपकरण डिज़ाइन में एआई की क्षमता कैथेटर से कहीं आगे तक है। फिलहाल आनंदकुमार एआई का उपयोग दवाएं विकसित करने, ऊर्जा-कुशल हवाई जहाज़ प्रोपेलर डिज़ाइन करने और कई अन्य चीज़ों के लिए कर रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

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परंपरागत जल संरक्षण की बढ़ती उपयोगिता

स वर्ष फरवरी के महीने से ही कर्नाटक के एक बड़े क्षेत्र से गंभीर जल संकट के समाचार मिलने आरंभ हो गए थे। दूसरी ओर, पिछले वर्ष बरसात के मौसम में हिमाचल प्रदेश जैसे कई राज्यों में बाढ़ से भयंकर तबाही हुई थी। जलवायु बदलाव के इस दौर में विभिन्न स्तरों पर बाढ़ और सूखे दोनों के संकट अधिक गंभीर हो सकते हैं।

देखने में तो बाढ़ और सूखे की बाहरी पहचान उतनी ही अलग है जितनी पर्वत और खाई की – एक ओर वेग से बहते पानी की अपार लहरें तो दूसरी ओर बूंद-बूंद पानी को तरसती सूखी प्यासी धरती। इसके बावजूद प्राय: देखा गया है कि बाढ़ और सूखे दोनों के मूल में एक ही कारण है और वह है उचित जल प्रबंधन का अभाव।

जल संरक्षण की उचित व्यवस्था न होने के कारण जो स्थिति उत्पन्न होती है उसमें हमें आज बाढ़ झेलनी पड़ती है तो कल सूखे का सामना करना पड़ सकता है। दूसरी ओर, यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें तो न केवल बाढ़ पर नियंत्रण पा सकेंगे अपितु सूखे की स्थिति से भी बहुत हद तक राहत मिल सकेगी।

भारत में वर्षा और जल संरक्षण का विशेष अध्ययन करने वाले मौसम विज्ञानी पी. आर. पिशारोटी ने बताया है कि युरोप और भारत में वर्षा के लक्षणों में कई महत्वपूर्ण अंतर हैं। युरोप में वर्षा पूरे साल धीरे-धीरे होती रहती है। इसके विपरीत, भारत के अधिकतर भागों में वर्ष के 8760 घंटों में से मात्र लगभग 100 घंटे ही वर्षा होती है। इसमें से कुछ समय मूसलाधार वर्षा होती है। इस कारण आधी वर्षा मात्र 20 घंटों में ही हो जाती है। अत: स्पष्ट है कि जल संग्रहण और संरक्षण युरोप के देशों की अपेक्षा भारत जैसे देशों में कहीं अधिक आवश्यक है। इसके अलावा, भारत की वर्षा की तुलना में युरोप में वर्षा की औसत बूंद काफी छोटी होती है। इस कारण उसकी मिट्टी काटने की क्षमता भी कम होती है। युरोप में बहुत सी वर्षा बर्फ के रूप में गिरती है जो धीरे-धीरे धरती में समाती रहती है। भारत में बहुत सी वर्षा मूसलाधार वर्षा के रूप में गिरती है जिसमें मिट्टी को काटने और बहाने की बहुत क्षमता होती है।

दूसरे शब्दों में, हमारे यहां की वर्षा की यह स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि यदि उसके पानी के संग्रहण और संरक्षण की उचित व्यवस्था नहीं की गई तो यह जल बहुत सारी मिट्टी बहाकर निकट की नदी की ओर वेग से दौड़ेगा और नदी में बाढ़ आ जाएगी। चूंकि अधिकतर जल न एकत्र होगा न धरती में रिसेगा, अत: कुछ समय बाद जल संकट उत्पन्न होना भी स्वाभाविक ही है। इन दोनों विपदाओं को कम करने के लिए या दूर करने के लिए जीवनदायी जल का अधिकतम संरक्षण और संग्रहण आवश्यक है।

इसके लिए पहली आवश्यकता है वन, वृक्ष व हर तरह की हरियाली जो वर्षा के पहले वेग को अपने ऊपर झेलकर उसे धरती पर धीरे से उतारे ताकि यह वर्षा मिट्टी को काटे नहीं अपितु काफी हद तक स्वयं मिट्टी में ही समा जाए या रिस जाए और पृथ्वी के नीचे जल के भंडार को बढ़ाने का अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य संपन्न करे।

दूसरा महत्वपूर्ण कदम यह है कि वर्षा का जो शेष पानी नदी की ओर बह रहा है उसके अधिकतम संभव हिस्से को तालाबों या पोखरों में एकत्र कर लिया जाए। वैसे इस पानी को मोड़कर सीधे खेतों में भी लाया जा सकता है। खेतों में पड़ने वाली वर्षा का अधिकतर जल खेतों में ही रहे, इसकी व्यवस्था भू-संरक्षण के विभिन्न उपायों जैसे खेत-तालाब, मेड़बंदी, पहाड़ों में सीढ़ीदार खेत आदि से की जा सकती है। तालाबों में जो पानी एकत्र किया गया है वह उसमें अधिक समय तक बना रहे इसके लिए तालाबों के आसपास वृक्षारोपण हो सकता है व वाष्पीकरण कम करने वाला तालाब का विशेष डिज़ाइन बनाया जा सकता है। तालाब से होने वाले सीपेज का भी उपयोग हो सके, इसकी व्यवस्था हो सकती है। एक तालाब का अतिरिक्त पानी स्वयं दूसरे में पहुंच सके और इस तरह तालाबों की एक शृंखला बन जाए, यह भी कुशलतापूर्वक करना संभव है।

वास्तव में जल संरक्षण के ये सब उपाय हमारे देश की ज़रूरतों के अनुसार बहुत समय से किसी न किसी रूप में अपनाए जाते रहे हैं। चाहे राजस्थान व बुंदेलखंड के तालाब हों या बिहार की अहर पईन व्यवस्था, नर्मदा घाटी की हवेली हो या हिमालय की गूलें, महाराष्ट्र की बंधारा विधि हो या तमिलनाडु की एरी व्यवस्था, इन सब माध्यमों से अपने-अपने क्षेत्र की विशेषताओं के अनुसार स्थानीय लोगों ने वर्षा के जल के अधिकतम और बढ़िया उपयोग की तकनीकें विकसित कीं। औपनिवेशिक शासन के दिनों में विभिन्न कारणों से हमारी तमाम परंपरागत व्यवस्थाओं का ढांचा चरमराने लगा। जल प्रबंधन पर भी नए शासकों और उनकी नीतियों की मार पड़ी। किसानों और ग्रामीणों की आत्मनिर्भरता तो अंग्रेज़ सरकार चाहती ही नहीं थी, उपाय क्या करती। फिर भी तरह-तरह के शोषण का बोझ सहते हुए लोग जहां-तहां अपनी व्यवस्था को जितना सहेज सकते थे, उन्होंने इसका प्रयास किया।

दुख की बात यह है कि स्वतंत्रता के बाद भी जल प्रबंधन के इन आत्म-निर्भर, सस्ते और स्थानीय भौगोलिक विशेषताओं का पूरा ध्यान रखने वाले परंपरागत तौर-तरीकों पर ध्यान नहीं दिया गया। औपनिवेशिक शासकों ने जल प्रबंधन की जो नीतियां अपनाई थीं, उसमें उनके अपने स्वार्थों के साथ-साथ युरोप में वर्षा के पैटर्न पर आधारित सोच हावी थी। इस सोच के आधार पर स्थानीय स्तर के जल संरक्षण को अधिक महत्व नहीं दिया गया। बाद में धीरे-धीरे इस क्षेत्र के साथ बड़ी निर्माण कंपनियों, ठेकेदारों व उनसे लाभ उठाने वाले अधिकारियों व नेताओं के स्वार्थ भी जुड़ गए। निहित स्वार्थ जब नीति पर हावी हो गए तो गांवों के सस्ते और आत्म-निर्भर तौर तरीकों की बात भला कौन सुनता, समझता?

गांव की बढ़ती आबादी के साथ मनुष्य व पशुओं के पीने के लिए, सिंचाई व निस्तार के लिए पानी की आवश्यकता बढ़ती जा रही थी, अत: परंपरागत तौर-तरीकों को और दुरूस्त करने की, उन्हें बेहतर बनाने की आवश्यकता थी। यह नहीं हुआ और इसके स्थान पर अपेक्षाकृत बड़ी नदियों पर बड़े व मझोले बांध बनाने पर ज़ोर दिया गया। पानी के गिरने की जगह पर ही उसके संरक्षण के सस्ते तौर तरीकों के स्थान पर यह तय किया गया कि उसे बड़ी नदियों तक पहुंचने दो, फिर उन पर बांध बनाकर कृत्रिम जलाशय में एकत्र कर नहरों का जाल बिछाकर इस पानी के कुछ हिस्से को वापिस गांवों में पहुंचाया जाएगा। निश्चय ही यह दूसरा तरीका अधिक मंहगा था और गांववासियों की बाहरी निर्भरता भी बढ़ाता था।

इस तरीके पर अधिक निर्भर होने से हम अपनी वर्षा के इस प्रमुख गुण को भी भूल गए कि विशेषकर वनस्पति आवरण कम होने पर उसमें अत्यधिक मिट्टी बहा ले जाने की क्षमता होगी। यह मिट्टी कृत्रिम जलाशयों की क्षमता और आयु को बहुत कम कर सकती है। मूसलाधार वर्षा के वेग को संभालने की इन कृत्रिम जलाशयों की क्षमता इस कारण और भी सिमट गई है। आज हालत यह है कि वर्षा के दिनों में प्रलयंकारी बाढ़ के अनेक समाचार ऐसे मिलते हैं जिनके साथ यह लिखा रहता है – अमुक बांध से पानी अचानक छोड़े जाने पर यह विनाशकारी बाढ़ आई। इस तरह अरबों रुपए के निर्माण कार्य जो बाढ़ से सुरक्षा के नाम पर किए गए थे, वे ही विनाशकारी बाढ़ का स्रोत बने हुए हैं। दूसरी ओर, नहरों की सूखी धरती और प्यासे गांव तक पानी पहुंचाने की वास्तविक क्षमता उन सुहावने सपनों से बहुत कम है, जो इन परियोजनाओं को तैयार करने के समय दिखाए गए थे। इन बड़ी और महत्वाकांक्षी परियोजनाओं के अनेकानेक प्रतिकूल पर्यावरणीय और सामाजिक परिणाम भी स्पष्ट रूप से सामने आ चुके हैं।

जो लोग विकास कार्यों में केवल विशालता और चमक-दमक से प्रभावित हो जाते हैं उन्हें यह स्वीकार करने में वास्तव में कठिनाई हो सकती है कि सैकड़ों वर्षों से हमारे गांवों में स्थानीय ज्ञान और स्थानीय ज़रूरतों के आधार पर जो छोटे स्तर की आत्म-निर्भर व्यवस्थाएं जनसाधारण की सेवा करती रही हैं, वे आज भी बाढ़ और सूखे का संकट हल करने में अरबों रुपयों की लागत से बनी, अति आधुनिक इंजीनियरिंग का नमूना बनी नदी-घाटी परियोजनाओं से अधिक सक्षम हैं। वास्तव में इस हकीकत को पहचानने के लिए सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर अपनी विरासत को पहचानने और पूर्वजों के संचित ज्ञान के विनम्र मूल्यांकन की आवश्यकता है।

यह सच है कि इस परंपरा में अनेक कमियां भी मिलेंगी। हमारे पुराने समाज में भी अनेक विषमताएं थीं और ये विषमताएं कई बार तकनीक में भी खोट पैदा करती थीं। जिस समाज में कुछ गरीब लोगों की अवहेलना होती हो, वहां पर अन्याय भी ज़रूर रहा होगा कि उनको पानी के हकों से भी वंचित किया जाए या उनसे भेदभाव हो। एक ओर हमें इन पारंपरिक विकृतियों से लड़ना है और उन्हें दूर करना है। लेकिन दूसरी ओर यह नहीं भूलना चाहिए कि विशेषकर जल प्रबंधन की हमारी विरासत में गरीब लोगों का बहुत बड़ा हाथ है क्योंकि इस बुनियादी ज़रूरत को पूरा करने में सबसे ज़्यादा पसीना तो इन मेहनतकशों ने ही बहाया था। आज भी जल प्रबंधन का परंपरागत ज्ञान जिन जातियों या समुदायों के पास सबसे अधिक है उनमें से अधिकांश गरीब ही हैं। जैसे केवट, मल्लाह, कहार, ढीमर, मछुआरे आदि। ज़रूरत इस बात की है कि स्थानीय जल प्रबंधन का जो ज्ञान और जानकारी गांव में पहले से मौजूद है उसका भरपूर उपयोग आत्म-निर्भर और सस्ते जल संग्रहण और संरक्षण के लिए किया जाए और इसका लाभ सब गांववासियों को समान रूप से दिया जाए।

महाराष्ट्र में पुणे ज़िले में पानी पंचायतों के सहयोग से ग्राम गौरव प्रतिष्ठान ने दर्शाया है कि कैसे भूमिहीनों को भी पानी का हिस्सा मिलना चाहिए और पानी का उपयोग बराबर होना चाहिए। परंपरागत तरीकों को इस तरह सुधारने के प्रयास निरंतर होने चाहिए, पर परंपराओं की सही समझ बनाने के बाद। यदि सरकार बजट का एक बड़ा हिस्सा जल संग्रहण और संरक्षण के इन उपायों के लिए दे और निष्ठा तथा सावधानी से कार्य हो तो बाढ़ व सूखे का स्थायी समाधान प्राप्त करने में बहुत सहायता मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://gca.org/how-ancient-water-conservation-methods-are-reviving-in-india/

भारत में महिलाओं का प्रदर्शन कैसा रहा है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

त 8 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया। संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (UNDP) अपने ‘लैंगिक सामाजिक मानदंड सूचकांक’ में महिलाओं के प्रति व्याप्त पूर्वाग्रहों को नापता है और चार आयामों – राजनैतिक, शैक्षिक, आर्थिक और शारीरिक स्वायत्तता – में महिलाओं की भूमिका के बारे में लोगों का नज़रिया पता करता है। आखिरी दो आयाम पुरुष महिलाओं के लिए छोड़ते हैं। विश्व की आठ अरब आबादी में से 45 प्रतिशत महिलाएं हैं। पुरुषों का कहना है कि महिलाओं का काम घरों की देखभाल करना, खाना बनाना, बच्चों की देखभाल करना है जबकि घर चलाने के लिए पैसे कमाना पुरुषों का काम है। दुनिया के कई ‘विकासशील देशों’ में महिलाएं स्कूल नहीं जाती हैं, लेकिन खेतों में और बाइयों के तौर पर काम करती हैं। इस तरह शैक्षिक आयाम उनके हाथ से फिसल जाता है।

हालांकि, पश्चिमी मीडिया द्वारा करार दिया गया ‘विकासशील देश’ भारत अपनी समावेशी नीतियों के चलते इससे आगे बढ़ा है। पिछले दो दशकों से भारत अपने सभी 28 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में सभी बच्चों – गरीब या अमीर, शहरी या ग्रामीण – को हाई स्कूल तक मुफ्त शिक्षा की पेशकश कर रहा है। और इनमें से लगभग 12 करोड़ लड़कियां हैं। उच्च शिक्षा की बात करें तो स्नातक/स्नातकोत्तर और पी.एचडी. स्तर पर अधिकांश लड़कियां कला और विज्ञान या नर्सिंग और चिकित्सा चुनती हैं, जबकि लड़के इस स्तर पर कंप्यूटर साइंस, जैव प्रौद्योगिकी और डिजिटल प्रौद्योगिकी चुनते हैं। लेकिन देश भर के अधिकांश STEM (साइंस, टेक्नॉलॉजी, इंजीनियरिंग और मेथेमेटिक्स) संस्थानों में केवल 20 प्रतिशत महिलाएं हैं। इसके अलावा, IIT, CSIR प्रयोगशालाओं, AIIMs, IISER और IIM में केवल 20 प्रतिशत शिक्षक/प्रोफेसर महिलाएं हैं। ज़ाहिर है, हमें इस लैंगिक खाई को पाटने की ज़रूरत है।

खुशी की बात यह है कि आज पूरे भारत में ऐसी सैकड़ों महिलाएं हैं जो उद्यमी बन गई हैं। हालांकि इनमें से कई महिलाएं मनोरंजन जगत, विज्ञापनों, फिल्म उद्योग और सौंदर्य प्रसाधन जैसे व्यवसायों में रत हैं, लेकिन साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की डिग्रीधारी कुछ महिलाओं ने अपनी जैव-प्रौद्योगिकी और दवा कंपनियां स्थापित की हैं जो उपयोगी और मुनाफादायक उत्पाद बनाती हैं। इसके अलावा, एम.डी. (डॉक्टर ऑफ मेडिसिन) की डिग्रीधारी कई महिलाएं नेत्र विज्ञान, न्यूरोलॉजी, स्त्री स्वास्थ्य से सम्बंधित मुद्दों और अन्य चिकित्सा विषयों में विशेषज्ञ हैं।

इस तरह संपूर्ण भारत में सरकार के, निजी क्षेत्रों के और लोक-हितैषी महिला उद्यमियों के प्रयासों के चलते भारत शीघ्र ही ‘विकासशील देश’ से आगे जाकर  विकसित देश बन रहा है!

यह बात सरकारी और राजनीतिक स्तर पर भी दिखती है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के लगभग आधे लोगों का मानना है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष बेहतर राजनीतिक नेता और व्यवसायी बनते हैं। यह लैंगिक पूर्वाग्रह निम्न और उच्च मानव विकास सूचकांक (एचडीआई), दोनों तरह के देशों में काफी हावी है। ये पूर्वाग्रह क्षेत्रों, आय, विकास के स्तर और संस्कृतियों से स्वतंत्र नज़र आते हैं, और इस मायने में ये वैश्विक मुद्दा हैं।

इस संदर्भ में, भारत ने उल्लेखनीय रूप से बेहतर प्रदर्शन किया है। इसकी एक मिसाल ही काफी होगी। अमेरिका के पहले राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन ने 1789 में राष्ट्रपति पद की शपथ ली थी। तब से अब तक अमेरिका में 46 राष्ट्रपति हो चुके हैं। लेकिन उनमें से कोई भी महिला नहीं थी! इस मामले में भारत ने बाज़ी मार ली है। भारत के अब तक 15 राष्ट्रपतियों में से दो राष्ट्रपति महिलाएं रही हैं: प्रतिभा पाटिल (2007-2012) और द्रौपदी मुर्मू (वर्तमान राष्ट्रपति)। और तो और, हमारे पड़ोसी देशों में भी कई पदों पर महिलाओं ने नेतृत्व किया है। बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की प्रधानमंत्री रहीं, शेख हसीना बांग्लादेश की वर्तमान प्रधानमंत्री हैं, बिद्या देवी भंडारी नेपाल की दूसरी राष्ट्रपति रहीं, और डोलमा ग्यारी 1991-2011 के बीच तिब्बत की प्रधानमंत्री रही हैं। यहां तक कि लैटिन अमेरिका के कई ‘विकासशील देशों’ में महिला राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री रही हैं। (वैसे इसमें भारत की प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी और विश्व की प्रथम महिला प्रधान मंत्री श्रीलंका की श्रीमाओ भंडारनायके और राष्ट्रपति चंद्रिका कुमारतुंगा के नाम भी जोड़े जा सकते हैं।)

तो आइए, हम महिला दिवस और महिला वर्ष को महिलाओं के लिए मंगलमय बनाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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