महिला चिकित्सा शोधकर्ताओं को कम मान्यता

हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि महिला शोधकर्ताओं द्वारा शीर्ष चिकित्सा जर्नल्स में प्रकाशित किए गए काम को पुरुष शोधकर्ता द्वारा प्रकाशित किए गए उसी गुणवत्ता के काम की तुलना में काफी कम उल्लेख मिलते हैं।

JAMA नेटवर्क ओपन में प्रकाशित इस अध्ययन के नतीजे शीर्ष चिकित्सा पत्रिकाओं में वर्ष 2015 और 2018 के बीच प्रकाशित 5,500 से अधिक शोधपत्रों के उल्लेख डैटा के विश्लेषण के आधार पर निकाले गए हैं। ‘उल्लेख’ से आशय है कि किसी शोध पत्र का उल्लेख कितने अन्य शोधपत्रों में किया गया।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि अन्य विषयों में पुरुष लेखकों के आलेखों को महिला लेखकों के आलेखों की तुलना में अधिक उल्लेख मिलते हैं। कुछ लोगों का तर्क रहा है कि इसका कारण है कि पुरुष शोधकर्ताओं का काम अधिक गुणवत्तापूर्ण और अधिक प्रभावी होता है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय की पाउला चटर्जी इसे परखना चाहती थीं। उन्होंने देखा था कि प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के बावजूद भी महिलाओं के काम को पुरुषों के समतुल्य काम की तुलना में कम उल्लेख मिले थे। इसलिए चटर्जी और उनके साथियों ने 6 जर्नल्स में प्रकाशित 5554 लेखों का विश्लेषण किया – एनल्स ऑफ इंटरनल मेडिसिन, ब्रिटिश मेडिकल जर्नल, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन, जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन-इंटर्नल मेडिसिन और दी न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन। उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस की मदद से प्रत्येक शोधपत्र के प्रथम और वरिष्ठ लेखकों के लिंग की पहचान की। उन्होंने पाया कि इन शोधपत्रों में सिर्फ 36 प्रतिशत प्रथम लेखक महिला और 26 प्रतिशत वरिष्ठ लेखक महिला थीं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रत्येक शोधपत्र को मिले उल्लेखों की संख्या का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि जिन शोधपत्रों की प्रथम लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को पुरुष प्रथम लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक तिहाई कम उल्लेख मिले थे; जिन शोधपत्रों की वरिष्ठ लेखक महिला थी उन शोधपत्रों को पुरुष वरिष्ठ लेखक वाले शोधपत्रों की तुलना में एक-चौथाई कम उल्लेख मिले थे। और तो और, जिन शोधपत्रों में प्राथमिक और वरिष्ठ दोनों लेखक महिलाए थीं, उन्हें दोनों लेखक पुरुष वाले शोधपत्रों की तुलना में आधे ही उल्लेख मिले थे।

ये निष्कर्ष महिला शोधकर्ताओं की करियर प्रगति पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं। माना जाता है कि किसी शोधपत्र को जितने अधिक उल्लेख मिलते हैं वह उतना ही महत्वपूर्ण है। विश्वविद्यालय और वित्तदाता अक्सर शोध के लिए वित्त या अनुदान देते समय, या नियुक्ति और प्रमोशन के समय भी उल्लेखों को महत्व देते हैं।

चटर्जी को लगता है कि ये पूर्वाग्रह इरादतन हैं। और इस असमानता का सबसे संभावित कारण है कि चिकित्सा क्षेत्र में पुरुष और महिलाएं असमान रूप से नज़र आते हैं। जैसे, वैज्ञानिक और चिकित्सा सम्मेलनों में वक्ता के तौर पर पुरुष शोधकर्ताओं को समकक्ष महिला शोधकर्ताओं की तुलना में अधिक आमंत्रित जाता है। सोशल मीडिया पर पुरुष शोधकर्ता समकक्ष महिला शोधकर्ता की तुलना में खुद के काम को अधिक बढ़ावा देते हैं। इसके अलावा, महिला शोधकर्ताओं का पुरुषों की तुलना में पेशेवर सामाजिक नेटवर्क छोटा होता है। नतीजतन, जब उल्लेख की बारी आती है तो पुरुष लेखकों काम याद रहने या सामने आने की संभावना बढ़ जाती है।

अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि इसमें और भी कई कारक भूमिका निभाते हैं। जैसे, महिलाओं की तुलना में पुरुष शोधकर्ता स्वयं के शोधपत्रों का हवाला अधिक देते हैं। 2019 में हुए एक अध्ययन में पाया गया था कि पुरुष लेखक अपने काम के लिए ‘नवीन’ और ‘आशाजनक’ जैसे विशेषणों का उपयोग ज़्यादा करते हैं, जिससे अन्य शोधकर्ताओं द्वारा उल्लेख संभावना बढ़ जाती है।

इसके अलावा, अदृश्य पूर्वाग्रह की भी भूमिका है। जैसे, लोग महिला वक्ता को सुनने के लिए कम जाते हैं, या उनके काम को कमतर महत्व देते हैं। जिसका मतलब है कि वे अपना शोधपत्र तैयार करते समय महिलाओं के काम को याद नहीं करते। इसके अलावा, पत्रिकाएं और संस्थान भी महिला लेखकों के काम को बढ़ावा देने के लिए उतने संसाधन नहीं लगाते। एक शोध में पाया गया था कि चिकित्सा संगठनों के न्यूज़लेटर्स में महिला वैज्ञानिकों के काम का उल्लेख कम किया जाता है या उन्हें कम मान्यता दी जाती है। इसी कारण महिलाएं इन क्षेत्रों में कम दिखती हैं।

अगर महिलाओं के उच्च गुणवत्ता वाले काम का ज़िक्र कम किया जाता है, तो यह लैंगिक असमानता को आगे बढ़ाता है। जिनके काम को बढ़ावा मिलेगा, वे अपने क्षेत्र के अग्रणी बनेंगे यानी उनके काम को अन्य की तुलना में अधिक उद्धृत किया जाएगा और यह दुष्चक्र ऐसे ही चलता रहेगा।

इस स्थिति से उबरने के लिए चिकित्सा संगठनों द्वारा सम्मेलनों में महिला वक्ताओं को आमंत्रित किया जा सकता है। इसके अलावा फंडिंग एजेंसियां यह सुनिश्चित कर सकती हैं कि स्त्री रोग जैसे जिन क्षेत्रों में उल्लेखनीय रूप से महिला शोधकर्ता अधिक हैं उनमें उतना ही वित्त मिले जितना पुरुषों की अधिकता वाले क्षेत्रों में मिलता है।

खुशी की बात है कि चिकित्सा प्रकाशन में लैंगिक अंतर कम हो रहा है। 1994-2014 के दरम्यान चिकित्सा पत्रिकाओं में महिला प्रमुख शोध पत्रों का प्रतिशत 27 से बढ़कर 37 हो गया। सम्मेलनों में भी महिला वक्ता अधिक दिखने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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खाद्य वस्तुओं का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन – सोमेश केलकर

भारतीय खाद्य सुरक्षा एवं मानक प्राधिकरण (FSSAI) ने देश में पैकेज्ड खाद्य तेल, दूध और अनाज के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन की योजना बनाई है। फोर्टिफिकेशन यानी किसी खाद्य पदार्थ में अतिरिक्त पोषक तत्व मिलाना – सामान्यत: ऐसे पोषक तत्व जो उस खाद्य में अनुपस्थित होते हैं। केंद्र सरकार ने फोर्टिफिकेशन को पैकेज्ड खाद्य पदार्थों के लिए किफायती और वहनीय प्रणाली माना है। खाद्य तेल, अनाज और दूध की पहुंच भारत के 99 प्रतिशत घरों तक है। FSSAI का उद्देश्य उपरोक्त खाद्य पदार्थों को अनिवार्य रूप से फोर्टिफाय करना है ताकि अधिक से अधिक लोगों तक आवश्यक पौष्टिक तत्व पहुंच सकें। इन उत्पादों की पहचान आसान बनाने के लिए एक लोगो भी जारी किया जाएगा। कहा जा रहा है कि इस रणनीति से कुपोषण पर अंकुश लगेगा और दैनिक ज़रूरत (आरडीए) भी पूरी होगी।

गौरतलब है कि पिछले निर्णयों में किसी भी कंपनी को अपने उत्पादों को फोर्टिफाय करने के लिए बाध्य नहीं किया गया था। राष्ट्रीय स्तर पर अभी तक लगभग 47 प्रतिशत शोधित (रिफाइंड) पैकेज्ड तेल फोर्टिफाइड हैं। इस रणनीति को लागू करने के लिए विभिन्न हितधारकों के साथ विचार-विमर्श चल रहा है।

पैकेज्ड खाद्य तेल

FSSAI का दावा है कि खाद्य तेल को फोर्टिफाय करने की तकनीक आसानी से उपलब्ध है। इसके अलावा, FSSAI मुख्यालय के पास इस बारे में सहायता प्रदान करने के लिए एक समर्पित टीम भी है। टाटा और ग्लोबल अलायन्स फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (GAIN) जैसे कई संगठनों ने तो पहले से ही खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन के लिए कार्यक्रम विकसित कर लिए हैं।

FSSAI का यह भी दावा है कि भारत में आहार के माध्यम से विटामिन डी प्राप्त करने के स्रोत सीमित हैं और भारतीय नागरिक अपने दैनिक आहार में विविधता लाकर भी विटामिन डी की आवश्यकता को पूरा करने में असमर्थ हैं। इसके अलावा, भारत में विटामिन ए की कमी भी काफी व्यापक है। इसलिए तेल का फोर्टिफिकेशन आवश्यक है। भारत के दो राज्यों, राजस्थान और हरियाणा, ने पहले ही तेल का फोर्टिफिकेशन अनिवार्य कर दिया है।

GAIN की रिपोर्ट बताती है कि भारत की

– 80 प्रतिशत जनसंख्या दैनिक ज़रूरत का 50 प्रतिशत से कम का उपभोग करती है।

– 50-90 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन डी की कमी से पीड़ित है।

– 61.8 प्रतिशत जनसंख्या विटामिन ए की गैर-लाक्षणिक कमी झेलती है।

खाद्य तेलों के फोर्टिफिकेशन का प्रस्ताव कई अन्य देशों में अपनाया जा चुका है। मोरक्को, तंज़ानिया, मोज़ांबिक, बोलीविया और नाइजीरिया सहित 27 देशों में फोर्टिफाइड पैकेज्ड खाद्य तेल अनिवार्य है।

दूध व दुग्ध उत्पाद

दूसरे चरण में FSSAI अनिवार्य दुग्ध फोर्टिफिकेशन की योजना बना रहा है। इस योजना के तहत विभिन्न दुग्ध सहकारी समितियों (राष्ट्रीय डेयरी विकास बोर्ड, अमूल, मदर डेयरी आदि) को फोर्टिफाइड दूध बेचना होगा। फिलहाल अमेरिका, ब्राज़ील, कनाडा, चीन, फिनलैंड, स्वीडन, थाईलैंड, कोस्टा रिका और मलेशिया सहित 14 देशों में फोर्टिफाइड दूध अनिवार्य किया गया है।

विटामिन ए और डी

विटामिन ए और विटामिन डी दोनों ही मानव शरीर के लिए अनिवार्य हैं। इसलिए खाद्य तेल और दूध का फोर्टिफिकेशन पूरी जनसंख्या के लिए फायदेमंद होगा। पूर्व में, FSSAI ने इसके लिए मानक और दिशानिर्देश जारी किए थे और फोर्टिफाइड उत्पादों की आसानी से पहचान के लिए लोगो भी जारी किया था।

कई नामी-गिरामी कंपनियां खाद्य (दूध, तेल और अनाज) फोर्टिफिकेशन तकनीकों को अपनाने और लागू करने के लिए उत्सुक हैं। केंद्र सरकार भी मध्यान्ह भोजन योजना के माध्यम से फोर्टिफिकेशन के लिए सहायता प्रदान करती है। FSSAI चावल, गेहूं और नमक जैसे प्रमुख खाद्यों के फोर्टिफिकेशन पर भी विचार कर रहा है।

FSSAI का तर्क

FSSAI की निदेशक इनोशी शर्मा के अनुसार, नए FSSAI नियमों के बाद खाद्य पदार्थों में अधिक मात्रा में पोषक मिलाए जा सकेंगे जिससे दैनिक अनुशंसित मात्रा के 20-50 प्रतिशत के बीच पूर्ति हो सकेगी। यह अनिवार्यता खाद्य तेल, दूध, चावल और अन्य अनाजों के क्षेत्र में काम करने वाली सभी खाद्य एवं पेय कंपनियों पर लागू होगी।

फूड नेविगेटर एशिया ने इनोशी शर्मा से संपर्क करके इस फोर्टिफिकेशन नीति के बारे में उनके विचार तथा संभावित विरोध को लेकर चर्चा की थी। इनोशी शर्मा का कहना था कि कई बड़े निर्माता तो पहले से ही फोर्टिफाइड खाद्य पदार्थों का उत्पादन कर रहे हैं; रह जाती हैं छोटी कंपनियां। तो ज़्यादा विरोध की संभावना नहीं है।

उन्होंने यह भी बताया कि वैसे भी FSSAI के पास साझेदारों का एक विस्तृत नेटवर्क और पर्याप्त संसाधन भी उपलब्ध हैं जिससे इन परिवर्तनों को अपनाने वाली कंपनियों की सहायता की जा सके। इस निर्णय में उपभोक्ताओं का समर्थन हासिल करने और सप्लाय चेन पर इसके प्रभाव के बारे में शर्मा का कहना है कि सप्लाय चेन को आसान बनाना महत्वपूर्ण होगा। निर्माता, वितरक और खुदरा विक्रेता फोर्टिफाइड उत्पादों को बाज़ार में उतारेंगे तो उपभोक्ताओं को तैयार करना करना आसान होगा। उपभोक्ता को जागरूक करना एक मुख्य कार्य होगा।

फोर्टिफिकेशन के लिए +F

इनोशी शर्मा का यह भी कहना है कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से प्रदान किए जाने वाले चावल, गेहूं और नमक पर पहले से ही फोर्टिफिकेशन अनिवार्य किया हुआ है। खुले बाज़ार के लिए इसे लागू नहीं किया गया है। जब उनसे अनाजों के फोर्टिफिकेशन से किसानों पर पड़ने वाले प्रभाव और भविष्य में कृषि क्षेत्र में FSSAI की योजना के बारे में पूछा गया तो उन्होंने बताया कि वर्ष 2018 से इन नियमों को सार्वजनिक प्रणालियों में अनिवार्य कर दिया गया है। आने वाले समय में भी सरकार किसानों तथा उत्पादकों से चावल और गेहूं की खरीद करेगी और पिसाई एवं प्रसंस्करण के दौरान इनको फोर्टिफाय किया जाएगा।

हालांकि इस आदेश को खुले बाज़ार में अनिवार्य नहीं किया गया है लेकिन कुछ फोर्टिफाइड उत्पाद पहले से ही बाज़ार में उपलब्ध हैं। शर्मा के अनुसार इस विषय में बड़े निर्माताओं को तैयार करने के प्रयास किए जा रहे हैं। कुछ बड़े चावल मिल-मालिकों से संपर्क किया गया है और गेहूं मिल के मालिकों से भी चर्चा की जाएगी।

FSSAI के द्वारा एक ‘+F’ नामक ब्रांड लेबल भी शुरू करने की योजना है जिससे उपभोक्ताओं को फोर्टिफाइड उत्पादों की जानकारी मिल सकेगी और वे ऐसे खाद्य पदार्थों को अपने आहार में शामिल कर सकेंगे। FSSAI अपनी वेबसाइट पर ऐसे उत्पादों के नाम प्रकाशित कर उनकी सहायता करेगा।

देश में फोर्टिफिकेशन की आवश्यकता और आहार विविधिकरण के माध्यम से पोषण को सुदृढ़ बनाने के सवाल पर इनोशी शर्मा का मानना है कि देश की वर्तमान परिस्थितियों में खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन काफी महत्वपूर्ण है। पूर्व में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि भारत की एक बड़ी आबादी, विशेष रूप से महिलाओं और पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चों, में खून की कमी है। यानी वे लौह न्यूनता से तो पीड़ित हैं ही, साथ ही विटामिन की कमी भी निरंतर बढ़ती जा रही है।

उनका कहना है कि पश्चिमी देशों के कई खाद्य पदार्थ फोर्टिफाइड होते हैं इसलिए वहां ऐसी समस्याएं कम होती हैं। भारत में ऐसे खाद्य पदार्थों की उपलब्धता और उन तक पहुंच के साथ-साथ उपभोक्ता की पसंद का मुद्दा भी काफी महत्वपूर्ण है। इसलिए चावल, गेहूं जैसे खाद्यान्नों को फोर्टिफाय करने पर ध्यान दिया जा रहा है क्योंकि इनके माध्यम से आवश्यक पोषक तत्व आसानी से लोगों तक पहुंचाए जा सकते हैं।

सवाल भी हैं

अब तक की चर्चा से प्रतीत होता है कि भारत में कुपोषण की समस्या से लड़ने के लिए खाद्य पदार्थों का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन ही एकमात्र उपाय है। लेकिन मामला उतना भी आसान नहीं है जितना इसको बताया जा रहा है। खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन से सम्बंधित कई मूलभूत समस्याएं हैं जिनको FSSAI अनदेखा कर रहा है। इसके साथ ही खाद्य पदार्थों का फोर्टिफिकेशन कई कंपनियों के लिए भारी मुनाफा कमाने का भी ज़रिया है। ऐसा पहले भी देखा गया है – नमक में आयोडीन मिलाने को अनिवार्य करने पर नमक की कीमतों में भारी वृद्धि हुई थी। फोर्टिफिकेशन तकनीकों को प्राप्त और लागू करने में सक्षम बड़ी कंपनियों के पक्ष में लिया गया यह निर्णय शंका पैदा करता है कि जन कल्याण की आड़ में एक बड़ा खेल खेला जा रहा है। 

खाद्य तेलों और चावल के अनिवार्य फोर्टिफिकेशन पर विभिन्न खाद्य सुरक्षा कार्यकर्ताओं ने FSSAI को पत्र लिखा था जिसमें आम लोगों के स्वास्थ्य और आजीविका के बारे में कई चिंताएं प्रस्तुत की गई थी। पत्र में निम्नलिखित चिंताओं पर चर्चा की गई थी:

– भारत में संतुलित आहार के अभाव में एक या दो कृत्रिम खनिज पदार्थों का फोर्टिफिकेशन करना खाद्य पदार्थों को विषाक्त बना सकता है जिससे कुपोषित आबादी पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकते हैं। उदाहरण के तौर पर, आयरन फोर्टिफिकेशन से कुपोषित बच्चों की आंत में सूजन हो सकती है।

– FSSAI द्वारा कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए पिछले पत्र में बताया गया था कि प्रमुख खाद्यान्नों में जोड़े गए सूक्ष्म पोषक तत्वों को 30-50 प्रतिशत दैनिक अनुशंसित ज़रूरत (आरडीए) प्रदान करने के हिसाब से समायोजित किया गया है। इसके जवाब में कार्यकर्ताओं का कहना है कि अल्पपोषित आबादी पर लागू करने के लिए आरडीए प्रणाली की कुछ सीमाएं हैं। आरडीए की गणना तभी की जाती है जब अन्य सभी पोषक तत्वों की आवश्यकता पूरी हो रही हो। ऐसे में, प्रोटीन व कैलोरी की कमी से पीड़ित आबादी के लिए आरडीए लागू नहीं किया जा सकता है।

– कुपोषित जनसंख्या में सिर्फ एक विशेष पोषक तत्व की कमी नहीं होती बल्कि कई पोषक तत्वों की मिली-जुली कमी होती है। इसलिए सूक्ष्म पोषक तत्वों को शामिल करने के लिए आरडीए का हवाला देते हुए अनिवार्य फोर्टिफिकेशन का तब तक कोई मतलब नहीं है जब तक स्थूल पोषक तत्वों की कमी को ध्यान में नहीं रखा गया हो। उदाहरण के लिए – हीमोग्लोबिन संश्लेषण के लिए न केवल आयरन बल्कि अच्छी गुणवत्ता वाले प्रोटीन्स और अन्य सूक्ष्म पोषक तत्व (जैसे विटामिन ए, सी, ई, बी2, बी6, बी12, फोलेट, मैग्नीशियम, सेलेनियम, ज़िंक आदि) की आवश्यकता होती है।

– इन कार्यकर्ताओं द्वारा फोर्टिफिकेशन की प्रभाविता से सम्बंधित एक और तर्क दिया गया है। उन्होंने आईसीएमआर, एम्स और स्वास्थ्य मंत्रालय के विशेषज्ञों द्वारा वर्ष 2021 में जर्नल ऑफ न्यूट्रीशन में प्रकाशित एक अध्ययन का हवाला दिया है। इसमें चावल खाने वाले देशों में किए गए व्यापक विश्लेषण से पता चला है फोर्टिफिकेशन से जनसंख्या में उस विशिष्ट न्यूनता में कोई विशेष अंतर देखने को नहीं मिला है।

– पत्र में कार्यकर्ताओं ने भारत में उच्च स्तर की कार्बोहायड्रेट खपत की ओर ध्यान आकर्षित किया है जो मधुमेह, उच्च रक्तचाप, हृदय रोग जैसी बीमारियों से सम्बंधित है। ऐसे में अनाजों का अनिवार्य फोर्टिफिकेशन एक गलत निर्णय सिद्ध हो सकता है क्योंकि यह पोषक तत्वों से भरपूर अनाजों पर अधिक निर्भरता पैदा करेगा।

कुपोषण से सम्बंधित रिपोर्ट देखें तो अक्सर विरोधाभासी निष्कर्ष मिलते हैं। इसलिए विटामिन और खनिज तत्वों की अल्पता के बारे में एक आम सहमति का अभाव है। यह तो स्पष्ट है कि भारत के विभिन्न राज्यों में विटामिन और खनिज पदार्थों की कमी की स्थिति अलग-अलग है, इसलिए इससे निपटने के लिए देश भर में एकरूप प्रणाली की बजाय अधिक विविधतापूर्ण और स्थानीय समाधानों की ज़रूरत है। FSSAI के निरूपण से पता चलता है कि वह अवसरवादी ढंग से विरोधाभासी साक्ष्यों का उपयोग कर रहा है ताकि कुपोषण के मुद्दे को समग्रता से सम्बोधित करने की बजाय कृषि-कारोबार से निकले टुकड़ा-टुकड़ा समाधानों की आड़ ले सके।        

स्थानीय अर्थव्यवस्था और आजीविका

खाद्य पदार्थों के फोर्टिफिकेशन से कृषि व्यवसाय के अंतर्गत अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाले छोटे किसानों और कम आय वाले उपभोक्ताओं पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ सकता है।

आम तौर पर किसानों के पास अपनी उपज को फोर्टिफाय करने के लिए आवश्यक साधन और तकनीकें नहीं होती है। ऐसे में किसान और भारतीय खाद्य निर्माता तो आवश्यक वस्तुओं के लिए कच्चा माल प्रदान करेंगे जबकि सूक्ष्म-पोषक तत्व और प्रौद्योगिकी तथा फोर्टिफिकेशन के साधन अंतर्राष्ट्रीय बिज़नेस द्वारा प्रदान किए जाएंगे। हालांकि, इस पूरी प्रक्रिया में सूक्ष्म पोषक तत्वों या अंतिम उत्पाद के मूल्यों को नियंत्रित करने के लिए न तो मूल्य-नियंत्रण तंत्र की कोई चर्चा की गई है और न ही छोटे भारतीय उत्पादकों द्वारा मंडियों के बाहर अपना माल बेचने के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया गया है।

एक और समस्या है जिस पर FSSAI ने विचार नहीं किया है। इस आदेश से सूक्ष्म पोषक तत्वों के आपूर्तिकर्ताओं को सामूहिक रूप से कीमतों में वृद्धि करने के लिए अनौपचारिक उत्पादक संघ (कार्टल) बनाने का प्रोत्साहन मिलेगा जिससे उपभोक्ताओं को परेशानी का सामना करना पड़ेगा। ऐसे कार्टल बने तो फोर्टिफिकेशन का उद्देश्य विफल हो जाएगा। जिन देशों में इस तरह के नियम लाए गए हैं, वहां इस तरह के व्यवहार देखे जा चुके हैं और कुछ देशों में तो अनुचित बाज़ार प्रथाओं के लिए कंपनियों पर भारी जुर्माना भी लगाया गया है। FSSAI को कोई भी आदेश जारी करने से पूर्व वस्तुओं के मूल्य विनियमन के सवाल पर गंभीरता से विचार करना होगा। फोर्टिफिकेशन से बाज़ार में औपचारिक खिलाड़ियों की हिस्सेदारी में वृद्धि हो सकती है और अनौपचारिक लोगों की हिस्सेदारी में कमी आ सकती है।

कार्यकर्ताओं ने अपने पत्र में यह भी बताया है कि पंजाब और हरियाणा के राइस मिलर्स एसोसिएशन्स मार्च 2021 से ही चावल के फोर्टिफिकेशन के नए मानदंडों का विरोध कर रहे हैं और एफसीआई को इन मानदंडों में ढील देने के लिए मजबूर करने में कामयाब भी रहे हैं।

अध्ययनों की दिक्कतें

FSSAI ने फोर्टिफिकेशन को एक अच्छा विचार बताने के लिए जिस अध्ययन का हवाला दिया है, वह नेस्ले न्यूट्रीशन इंस्टिट्यूट द्वारा वित्तपोषित है और ग्लोबल अलायन्स फॉर इम्प्रूव्ड न्यूट्रीशन (गैन) के सदस्यों द्वारा लिखा गया है। यह काफी चिंताजनक है। इन दोनों संस्थाओं के निहित स्वार्थ किसी से छिपे नहीं हैं।

इस विषय में अधिक स्वतंत्र अध्ययनों की तत्काल आवश्यकता है। 

फोर्टिफिकेशन ज़रूरी है?

ऐसा प्रतीत होता है कि FSSAI अनिवार्य फोर्टिफिकेशन को किफायती और कुपोषण से लड़ने के उपाय के रूप में धकेल रहा है लेकिन यह काफी दिलचस्प है कि FSSAI उतना ही प्रयास आहार विविधिकरण के लिए नहीं कर रहा है। इसका कारण यह है कि आहार विविधिकरण से बड़ी कंपनियों को लाभ मिलने की बहुत कम संभावना है।

वास्तव में आहार विविधिकरण फोर्टिफिकेशन की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण है क्योंकि फोर्टिफिकेशन अतिरिक्त पोषक तत्व प्रदान करने का एक कृत्रिम तरीका है जबकि आहार विविधिकरण से शरीर को प्राकृतिक तरीकों से पोषण प्राप्त करने की अनुमति मिलती है। लेकिन, FSSAI का ‘ईट राइट इंडिया’ अभियान आहार विविधिकरण की बजाय फोर्टिफिकेशन पर अधिक ज़ोर देता लग रहा है।

एक सत्य तो यह भी है कि फोर्टिफिकेशन से अपरिवर्तनीय और हानिकारक परिणाम हो सकते हैं फिर भी हम अधिक लागतक्षम विकल्प की तलाश नहीं कर पा रहे हैं। FSSAI का दावा है कि फोर्टिफिकेशन एक लागतक्षम उपाय है लेकिन वास्तव में इसके दीर्घकालिक स्थायी प्रभाव होंगे जिनमें कॉर्पोरेट शक्ति में वृद्धि भी शामिल है।

फोर्टिफिकेशन का एक और चिंताजनक दीर्घकालिक प्रभाव यह भी है इसकी वजह से पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर निर्भरता बढ़ेगी और स्थानीय खाद्य पदार्थों, उनकी उत्पादन प्रणाली और खानपान की प्रथाओं से ध्यान हटेगा। पैकेज्ड खाद्य पदार्थों पर बड़े और विविध समुदायों की निर्भरता का मतलब कॉर्पोरेट खिलाड़ियों के लिए आय का एक बड़ा स्रोत है जिनकी कीमतों में वृद्धि करने में वे संकोच नहीं करेंगे। यह पूछने की ज़रूरत है कि क्या सरकार अल्पता की समस्या के समाधान के बाद फोर्टिफिकेशन और उसके परिणामों को उलटने में सक्षम होगी। क्या सरकार अनाजों पर इस कृत्रिम निर्भरता को पलट पाएगी?

निष्कर्ष और समाधान

यह तो स्पष्ट है कि फोर्टिफिकेशन वास्तव में बड़ी कंपनियों को लाभान्वित करने की एक योजना है जो वर्तमान पारंपरिक कृषि व्यवसाय की कम कीमतों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में असमर्थ हैं। फोर्टिफिकेशन के आदेश का मुख्य उद्देश्य वास्तव में बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियों को मौके प्रदान करना है।

भारत में कुपोषण से लड़ने के बहुत सारे समाधान हैं जिनमें आहार का स्थानीयकरण पोषण प्रदान करने के हिसाब से पहला सबसे महत्वपूर्ण कदम होना चाहिए। देश भर में एकरूप अनाज को बढ़ावा देने की बजाय, विभिन्न क्षेत्रों में भोजन की ऐसी उपयुक्त किस्मों को बढ़ावा दिया जाए तो अधिक प्रभावी होगा जो प्राकृतिक रूप से विटामिन और खाद्य खनिजों से भरपूर होते हैं। उदाहरण के तौर पर हमारे पास आयरन से भरपूर (20-300 पीपीएम) चावल की 68 देसी किस्में हैं, ऐसे में पॉलिश किए गए चावलों को फोर्टिफाय करने की बजाय देसी किस्मों को बढ़ावा देना बेहतर होगा।

इससे भी अधिक महत्वपूर्ण पोषक तत्वों से भरपूर पशु खाद्य पदार्थ जैसे अंडे, मांस, डेयरी, मछली और यहां तक कि कीड़े हैं जिनको भारत के कई भागों में भोजन के तौर पर खाया जाता है। इन्हें बढ़ावा देने की बजाय सरकार फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा दे रही है जो स्पष्ट रूप से कॉर्पोरेट-हितैषी है।

एक अन्य उपाय के तहत पॉलिशिंग, प्रसंस्करण और परिष्करण को कम करके, विशेष रूप से चावल और तेल में, पोषण तत्वों में वृद्धि की जा सकती है। सरकार को फोर्टिफिकेशन को बढ़ावा देने की बजाय इन उपायों के प्रति भेदभाव रहित दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।

सरकार को ऐसा रास्ता अपनाना चाहिए जिससे स्थानीय खाद्य प्रणालियों जैसे पशु खाद्य स्रोत, दालों, बाजरा, सब्ज़ियों, फलियों आदि में निवेश को बढ़ावा मिले और स्थानीय खाद्य उत्पादन के साथ-साथ स्थानीय आजीविका में भी सुधार हो सके। इसकी बजाय प्रस्तावित नीति विरोधाभासी साक्ष्यों और हितों के टकराव में विश्वास रखती है। ऐसी नीतियां पोषण की समस्या को सिर्फ कुछ कृत्रिम तत्व जोड़कर विराम दे देती हैं जबकि ज़रूरत समग्रता से पोषण पर विचार करने की है और फोर्टिफिकेशन इसका उपाय नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक अंशकालिक मांसाहारी पौधा

वीनस फ्लाई ट्रैप जैसे अधिकांश मांसाहारी पौधे वर्ष भर शिकार करते हैं। अब शोधकर्ताओं ने एक ऐसा मांसाहारी पौधा ढूंढा है जो सिर्फ पुष्पन के दौरान ही मांसाहार करता है।

मांसाहारी पौधों की लगभग 800 प्रजातियां हैं। कुछ मांसाहारी प्रजातियों के पौधों में शिकार के लिए विशेष संरचनाएं होती हैं, कुछ प्रजातियों के पौधों में चिपचिपी सतह होती है जिस पर कीट चिपक जाते हैं और फिसलकर पाचक रस से भरे कलश में गिर जाते हैं। ब्राज़ील में एक ऐसा मांसाहारी पौधा मिला था, जो भूमिगत पत्तियों की मदद से छोटे कृमि पकड़ता है।

हालिया अध्ययन में मिली प्रजाति ट्राइएंथा ऑक्सिडेंटलिस (एक तरह का एस्फोडेल) है। इस पौधे में जहां फूल लगते हैं उस डंठल का ऊपरी भाग छोटे-छोटे लाल रंग के रोएं से ढंका होता है, जिनसे चमकदार और चिपचिपा पदार्थ रिसता रहता है। रोएं से रिसती इन बूंदों में अक्सर मक्खियां और छोटे भृंग फंस जाते हैं।

ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी की ग्रेगरी रॉस ने जीनोमिक अध्ययन के दौरान देखा कि टी. ऑक्सिडेंटलिस में प्रकाश संश्लेषण को नियंत्रित करने वाले वही जीन नदारद हैं जो अन्य मांसाहारी पौधों में भी नदारद रहते हैं। इससे लगता था कि यह मांसाहारी पौधा है।

ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी के ही कियान्शी लिन जांचना चाहते थे कि क्या वाकई ट्राइएंथा मांसाहारी है। पहले उन्होंने कुछ फल मक्खियों को नाइट्रोजन का एक दुर्लभ समस्थानिक खिलाया। फिर वैंकूवर के पास के दलदल में लगे 10 अलग-अलग ट्राइएंथा पौधों में इन फल मक्खियों को चिपकाया। साथ ही उसी तरह के शाकाहारी पौधों में भी ऐसी फल मक्खियों को चिपकाया गया।

एक-दो सप्ताह बाद जांच पड़ताल के दौरान ट्राइएंथा के तनों, पत्तियों व फलों में नाइट्रोजन का वह समस्थानिक मिला, लेकिन शाकाहारी पौधों में नहीं। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि ट्राइएंथा ने आधे से अधिक नाइट्रोजन अपने शिकार से प्राप्त की थी। यानी ट्राइएंथा मांसाहारी पौधा है। इसके अलावा यह भी देखा गया कि ट्राइएंथा के रोएं वही एंजाइम, फॉस्फेटेज़, बनाते हैं जिसकी मदद से अन्य मांसाहारी पौधे शिकार से पोषण लेते हैं।

कई मांसाहारी पौधे मक्खियों और छोटे भृंगों को फंसाने के लिए चिपचिपे रोएं का उपयोग करते हैं लेकिन ये रोएं फूलों से दूर होते हैं, ताकि परागण करने वाले कीट न फंसे। ट्राइएंथा में चिपचिपे रोएं उस मुख्य तने पर ही होते हैं जिस पर फूल लगते हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि ट्राइएंथा के रोएं छोटे कीटों को आकर्षित करते हैं, मधुमक्खियां या अन्य परागणकर्ता नहीं चिपक पाते।

लेकिन कुछ शोधकर्ता इस बात से सहमत नहीं हैं कि ट्राइएंथा वाकई मांसाहारी है। हो सकता है कि ट्राइएंथा के रोएं महज उन कीड़ों को मारने के लिए हों जो बिना परागण किए उनसे पराग या मकरंद चुराने आते हैं। यह एक निष्क्रिय शिकारी लगता है, क्योंकि इसमें शिकार को फंसाने के लिए कोई विशेष बदलाव नहीं हुए हैं।

यह खोज दर्शाती है कि प्रकृति में इस तरह के और भी मांसाहारी पौधे हो सकते हैं, जो अब तक अनदेखे रहे हैं; शोधकर्ताओं को संग्रहालय में रखे कुछ फूलों के डंठल से चिपके छोटे कीट मिले हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि संभवत: ट्राइएंथा एक अंशकालिक मांसाहारी पौधा है। ट्राइएंथा की एक खासियत है कि यह एकबीजपत्री है और एकबीजपत्री मांसाहारी पौधे बहुत दुर्लभ हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/_20210809_on_carnivorousplant_1280x720.jpg?itok=C0Vq3sqw