नाभिकीय संलयन आधारित बिजली संयंत्र

नाभिकीय संलयन ऊर्जा के क्षेत्र में जानी-मानी कंपनी जनरल फ्यूज़न ने हाल ही में घोषणा की है कि वह अगले साल अपने संलयन आधारित पायलट बिजली संयंत्र का निर्माण शुरू करेगी। इस संयंत्र का आकार वाणिज्यिक बिजली संयंत्र का 70 प्रतिशत होगा। यूके सरकार द्वारा वित्तीय समर्थन प्राप्त इस संयंत्र को स्थापित करने का उद्देश्य ऊर्जा उत्पन्न करना नहीं बल्कि यह दर्शाना है कि कंपनी द्वारा विकसित संलयन का नया तरीका कितना व्यावहारिक है।

दशकों से कार्बन मुक्त ऊर्जा के विकल्प के तौर पर नाभिकीय संलयन शोधकर्ताओं और निवेशकों को लुभाता आया है। नाभिकीय संलयन में होता यह है कि दो या दो से अधिक हल्के नाभिक (प्राय: हाइड्रोजन) आपस में जुड़कर एक भारी नाभिक (हीलियम) बनाते हैं; इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है। यही वह प्रक्रिया है जो सूरज को उसकी ऊर्जा प्रदान करती है। समस्या यह है कि नाभिकों के संलयन के लिए अत्यधिक ताप और दाब की आवश्यकता होती है। अब तक कोई भी संलयन रिएक्टर खर्च की गई ऊर्जा से अधिक उर्जा का उत्पादन नहीं कर पाया है।

वैसे लगता है कि फ्रांस की विशाल अंतर्राष्ट्रीय परियोजना ITER यह लक्ष्य पहले हासिल कर लेगी। इस रिएक्टर में विशाल अतिचालक चुंबकों द्वारा एक पात्र में आयनित गैस (प्लाज़्मा) बनाए रखी जाती है और इसे माइक्रोवेव या पार्टिकल किरणों द्वारा गर्म किया जाता है। फिलहाल यह परियोजना कछुआ चाल से आगे बढ़ रही है और ऊर्जा लाभ 2035 के बाद ही मिलने की उम्मीद है। इसलिए नई परियोजनाओं के लिए मौका है।

जनरल फ्यूज़न कंपनी ने मैग्नेटाइज़्ड टारगेट फ्यूज़न तकनीक का उपयोग किया है। इसमें एक इंजेक्टर सिगरेट के धुएं के छल्ले जैसा प्लाज़्मा का छल्ला बनाता है, छल्ला अपने घूर्णन से एक चुंबकीय क्षेत्र बनाता है। यह चुंबकीय क्षेत्र कणों के बादल को जोड़े रखता है। इस बादल का जीवनकाल चंद मिलीसेकंड ही होता है। इन चंद मिलीसेकंड की अवधि में इसको संपीड़न द्वारा इतना ताप और दाब दिया जाता है कि संलयन होने लगे। अब कंपनी इस छल्ले को थोड़ी लंबी अवधि तक बनाए रखने में सफल हुई है।

प्लाज़्मा के छल्ले जिस कक्ष में भेजे जाते हैं वहां तरल लीथियम की परत तेज़ी गति से घूमती रहती है। यह परत नाभिकीय संलयन में मुक्त हुए उच्च ऊर्जा वाले कणों को अवशोषित कर लेती है, जिससे रिएक्टर सुरक्षित रहता है। जब प्लाज़्मा कक्ष के मध्य में पहुंचता है तो सैकड़ों पिस्टन नियमित अंतराल से रिएक्टर की दीवार पर बाहर से प्रहार करते हैं, यह लीथियम को अंदर की ओर धकेलता है और प्लाज़्मा को संपीड़ित कर देता है ताकि संलयन क्रिया शुरू हो जाए। व्यावसायिक रिएक्टर से ऊर्जा लाभ लेने के लिए प्रत्येक कुछ सेकंड के अंतराल पर नए प्लाज़्मा छल्ले संपीड़ित करने होंगे।

फिलहाल इस प्रायोगिक संयंत्र का लक्ष्य संलयन के लिए ज़रूरी 10 करोड़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान हासिल करना और पूरी प्रक्रिया को किफायती दर्शाना है। बड़े व्यावसायिक रिएक्टर में उपयोग किए जाने वाले ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण के बजाय इसमें अपेक्षाकृत कम क्रियाशील शुद्ध ड्यूटेरियम का उपयोग किया जाएगा। इससे ट्रिशियम की दुर्लभता, अतिरिक्त ऊष्मा और रेडियोधर्मिता जैसी समस्याओं का सामना नहीं करना पड़ेगा। यदि पायलट संयंत्र काम कर पाता है तो ड्यूटेरियम-ट्रिशियम मिश्रण संलयन भी काम करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Fusion%20Island-1280×720.jpg?itok=ZTGNCiFC

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