प्रतिरक्षा व्यवस्था और शरीर की हिफाज़त – 4 – विनीता बाल, सत्यजीत रथ

प्रतिरक्षा तंत्र हर चीज़ को कैसे पहचान लेता है?

प्रतिरक्षा तंत्र यह कैसे सुनिश्चित करता है कि उसके पास दुनिया के हर ताले की चाभी हो?

हम पहले बता चुके हैं कि लक्ष्य की पहचान का क्लोनल विविधरूपी मॉडल या अनुकूली प्रतिरक्षा तंत्र रीढ़धारी प्राणियों में हिफाज़त का प्रमुख आधार है। लेकिन इस तरह की डिज़ाइन में कुछ बड़ी-बड़ी समस्याएं आती हैं। पहली समस्या तो यह है कि विकसित होते प्रतिरक्षा तंत्र को पता नहीं होता कि इस विशाल बुरी दुनिया में उसका सामना किस-किस चीज़ से होने वाला है। पता नहीं, उसकी मुठभेड़ शायद किसी मंगलवासी कीटाणु से हो जाए। चूंकि इस तंत्र को हर संभव लक्ष्य के लिए तैयार रहना है, इसलिए विकास का पूर्व अनुभव यहां काम नहीं आएगा क्योंकि वैकासिक अनुभव तो सिर्फ यह बताता है कि तंत्र अतीत में किन चीज़ों से टकरा चुका है। लेकिन इससे इस बात की कोई गारंटी नहीं मिलती कि भविष्य में कोई नई चीज़ सामने नहीं आ सकती। लिहाज़ा, संभावित लक्ष्यों के मामले में विविधता की कोई सीमा नहीं है।

ऐसा भी कोई तरीका नहीं है जिससे प्रतिरक्षा तंत्र (या जीव) नए दुश्मनों से संपर्क को सीमित कर सके। आखिर बाहरी पर्यावरण तो कमोबेश जीव के नियंत्रण से परे है। हां, मनुष्य काफी हद तक अपने पर्यावरण पर नियंत्रण करता है।

बहरहाल, यदि संभावित लक्ष्यों की तादाद अनगिनत है, तो स्वाभाविक है कि इन लक्ष्यों (एंटीजन्स) को पहचानने की संरचनाएं (ग्राही) भी अनगिनत होना चाहिए। लेकिन किसी भी जीव के जीनोम में असंख्य ‘रेडीमेड’ जीन्स तो नहीं हो सकते। तो सवाल है कि यह विविधतापूर्ण फौज या पहचान का खजाना कैसे पैदा होता है। ग्राहियों की ऐसी अनंत संख्या तैयार करने का एकमात्र तरीका है कि एक बुनियादी ग्राही आकृति के जीन को लिया जाए, और उसमें बेतरतीबी से काट-छांट, फेरबदल करके विभिन्न आकृतियों के जीन्स बनाए जाएं। और यह काम हर जीव में हर बार नए सिरे से किया जाए। यह प्रक्रिया प्रतिरक्षा तंत्र की एक और विशेषता की व्याख्या करती है, जिसकी चर्चा हमने शुरू में की थी – कि प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं विकास के दौरान अपने डीएनए को पुन:संयोजित करती रहती हैं।

ग्राही निर्माण: जीनोम की काट-छांट

ग्राही के पूरे जीन की इस तरह की काट-छांट का परिणाम यह होगा कि ग्राही के उस हिस्से में तो परिवर्तन नहीं होगा जो लक्ष्य अणु (एंटीजन) से जुड़ता है बल्कि अन्य हिस्सों में होगा – जैसे किसी ऐसे हिस्से में जो ग्राही को कोशिका की झिल्ली पर जमने में मदद करता है। लिहाज़ा, बेहतर होगा कि काट-छांट की प्रक्रिया को ग्राही अणु के कुछ हिस्सों तक सीमित रखा जाए। 

इसके अलावा, इस काट-छांट के अंतर्गत डीएनए के सम्बंधित अनुक्रम में बेतरतीबी से जोड़ना, हटाना या फेरबदल करना शामिल होगा। डीएनए में ऐसा बेतरतीब परिवर्तन किसी कोशिका के लिए काफी जोखिम भरा काम हो सकता है। तो बेहतर होगा कि कोशिका ऐसे परिवर्तनों का कम से कम उपयोग करे। इसलिए यह बेहतर और सुरक्षित होगा कि ग्राहियों का विशाल भंडार तैयार करने के लिए उत्परिवर्तनों का सहारा कम से कम लिया जाए।

इस सबके लिए सबसे पहले तो हमें ग्राही को उसकी बुनियादी कामकाजी इकाइयों में तोड़ना होगा ताकि पुन:संयोजन की मशीनरी को पूरे ग्राही की बजाय ग्राही के बहुत छोटे हिस्से के साथ छेड़छाड़ करनी पड़े। हमें ज़रूरत इस बात की है कि प्रत्येक बी-कोशिका और प्रत्येक टी-कोशिका पर ऐसे ग्राही हों जो किसी अलग एंटीजन को पहचानते हों। लेकिन एक बार अपने अनोखे लक्ष्य को पहचानने के बाद ग्राही को अपनी कोशिका (बी या टी) को इस बात का संदेश प्रेषित करना चाहिए। यह संदेश हरेक ग्राही के मामले में एक जैसा होगा जो कोशिका को अपने काम के लिए तैयार कर दे। कुल मिलाकर, चाहे प्रत्येक ग्राही का लक्ष्य अनोखा होगा लेकिन कोशिका से जुड़ने और संदेश प्रेषण का काम सारी बी-कोशिकाओं के मामले में एक जैसा और सारी टी कोशिकाओं के संदर्भ में एक जैसा होगा। तो सारी बी-कोशिकाओं के ग्राहियों की रचना एक जैसी और सारी टी-कोशिकाओं के ग्राहियों की रचना एक जैसी होगी।

संदेश प्रेषण ग्राहियों का वह बुनियादी तत्व है जो कई ग्राहियों में एक जैसा होगा। अर्थात यह ‘स्थिर’ क्षेत्र है जबकि लक्ष्य को पहचानने वाला तत्व ‘परिवर्ती’ क्षेत्र है। तो अब हमारे पास जीन के दो हिस्से हो सकते हैं – ग्राही जीन का एक्सॉन जो स्थिर क्षेत्र का कोड होगा जिसे विविधता उत्पन्न करने की प्रक्रिया में अछूता छोड़ दिया जाएगा। जीन का दूसरा भाग परिवर्ती क्षेत्र का कोड होगा।

उत्परिवर्तन के बगैर विविधता

अब सवाल यह उठता है कि क्या जीन अनुक्रम में स्थायी परिवर्तनों का सहारा लिए बगैर विविधता उत्पन्न की जा सकती है। यानी क्या जीन में उत्परिवर्तन न करके मात्र पुन:संयोजन करके यह काम संभव है?

एक तरीका यह है कि परिवर्ती क्षेत्र के लिए कुछ निर्माण इकाइयों को लिया जाए और उन्हें अलग-अलग क्रम में जोड़ दिया जाए। ऐसे पुन:संयोजन से अधिकतम विविधता प्राप्त करने के लिए अच्छा होगा कि परिवर्ती क्षेत्र में कई घटक हों।

सबसे पहले तो यह देखिए कि बी-कोशिका किसी भी लक्ष्य की आकृति को पहचानेगी जबकि टी-कोशिका लक्ष्य को तभी पहचानेगी जब वह एमएचसी अणु से जुड़ा कोई पेप्टाइड हो। इसके अलावा इन दो कोशिकाओं में एक अंतर यह है कि ये ग्राही द्वारा मिलने वाले अलग-अलग किस्म के संदेश पर प्रतिक्रिया देती हैं।

लिहाज़ा, इन दो के संदर्भ में स्थिर क्षेत्र अलग-अलग किस्म के होने चाहिए। अर्थात बेहतर होगा कि बी-कोशिका और टी-कोशिका के ग्राहियों के निर्माण हेतु अलग-अलग जीन्स हों।

दूसरा, यह भी फायदेमंद होगा कि ग्राही दो प्रोटीन शृंखलाओं से बना हो – शृंखला-1A और शृंखला-2B एक किस्म के ग्राही बनाएंगी जबकि शृंखला-1A और शृंखला-2B मिलकर अलग गुणों वाला ग्राही बनाएंगी। कई जैविक तंत्रों में दोहरी शृंखला ग्राहियों का उपयोग किया जाता है। तो यह कोई बड़ी दिक्कत नहीं है। लिहाज़ा बी और टी दोनों कोशिकाओं के ग्राहियों में 2-2 शृंखलाएं होती हैं – छोटी वाली शृंखला को अल्फा (या हल्की) शृंखला तथा बड़ी शृंखला को बीटा (या भारी) शृंखला कहते हैं।

तीसरा, प्रत्येक शृंखला के लिए परिवर्ती क्षेत्र के छोटे से भंडार (जिसमें से प्रत्येक बी व टी कोशिका के ग्राही को बनाने के लिए लॉटरी निकाली जाएगी) का उपयोग करने की बजाय बेहतर यह होगा कि परिवर्ती क्षेत्र को छोटे-छोटे खंडों में विभक्त कर दिया जाए। अब ऐसे प्रत्येक छोटे खंड के लिए बेतरतीबी से लॉटरी निकाली जाए। वास्तव में बड़ी वाली शृंखला के लिए जीन्स के ऐसे तीन मिनी जीन संग्रह होते हैं – वी समूह, डी समूह और जे समूह। छोटी वाली शृंखला के लिए ऐसे दो समूह होते हैं – वी समूह और जे समूह।

अर्थात इनमें से प्रत्येक मिनी-जीन एक-एक र्इंट जोड़ता है जिसके परिणामस्वरूप ग्राही के परिवर्ती क्षेत्र की एक प्रोटीन शृंखला की विविधतापूर्ण रचना बन जाती है। प्रत्येक मिन-जीन समूह में कई वैकल्पिक र्इंटें उपलब्ध होती हैं और प्रत्येक कोशिका में प्रत्येक समूह में से इन्हें बेतरतीबी से चुना जाता है। यह दूसरे समूह के अपने समकक्ष प्रोटीन से जुड़कर पूरा परिवर्ती क्षेत्र बना देता है। इनमें से प्रत्येक र्इंट के अंतिम छोर पर एक निशान होता है। इसके चलते इनके आपस में जुड़ने का क्रम कुछ हद निश्चित होता है – जैसे भारी शृंखला के वी समूह का प्रोटीन भारी शृंखला के जे समूह के घटक से सीधे नहीं जुड़ सकता, बीच में डी समूह का घटक होना ज़रूरी होता है। पुनर्मिश्रण की यह प्रक्रिया काफी क्रमबद्ध ढंग से विविधतापूर्ण खजाना पैदा कर देती है।

लेकिन अभी भी यह खजाना अनंत तो कदापि नहीं है क्योंकि सारी सूचना तो जीनोम से ही आ रही है और जीनोम तो सीमित ही है ना! तो सवाल है खजाना निर्माण की इस प्रक्रिया में वास्तविक खुलापन कैसे हासिल किया जाता है। और खजाने में सचमुच की बेतरतीबी के जिन्न को सक्रिय करने की समस्याएं क्या हैं? अगली बार हम इसी सवाल पर विचार करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://2rdnmg1qbg403gumla1v9i2h-wpengine.netdna-ssl.com/wp-content/uploads/sites/3/2016/11/immuneSystem-1190000241-770×553-1-650×428.jpg

प्रातिक्रिया दे