सटीक और भरोसेमंद खबर के लिए इनाम तो बनता है

र्ष 2020 में, सोशल मीडिया के माध्यम से फैलने वाली भ्रामक खबरों, लाइक्स वगैरह में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। परिमाम हैं ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में वृद्धि। यहां तक कि जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कार्रवाइयों और टीकाकरण अभियानों का भी काफी विरोध हुआ है। इस विषय में सोशल मीडिया कंपनियों ने झूठी खबरों को हटाने और भ्रामक खबरों को चिंहित करने के कुछ प्रयास किए हैं। जहां फेसबुक और इंस्टाग्राम अपने उपयोगकर्ताओं को आपत्तिजनक पोस्ट की शिकायत करने का मौका देते हैं, वहीं ट्विटर किसी भी पोस्ट को री-ट्वीट करने से पहले अच्छी तरह पढ़ने की सलाह देता है।

सोशल मीडिया पर झूठी खबरों से निपटने के लिए कंपनियों द्वारा अपने एल्गोरिदम में सुधार लाने को लेकर चर्चाएं चल रही हैं लेकिन यह बात चर्चा से नदारद है कि इस बात पर कैसे असर डाला जाए कि लोग क्या साझा करना चाहते हैं। देखा जाए तो विश्वसनीयता के लिए कोई स्पष्ट और त्वरित प्रोत्साहन नहीं है। जबकि तंत्रिका वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को उसके पोस्ट पर ‘लाइक’ मिलता है तो उसका अहंकार तुष्ट होता है और इससे उसके फॉलोअर्स की संख्या बढ़ती है जिसके आधार पर उसे कुछ अन्य उपलब्धियां भी मिल सकती हैं।

आम तौर पर सोशल मीडिया में यदि किसी पोस्ट की पहुंच अधिक होती है तो लोग वैसे ही पोस्ट करना पसंद करते हैं। पेंच यही है कि झूठी खबरें विश्वसनीय खबरों की तुलना में 6-20 गुना अधिक तेज़ी से फैलती हैं। इसका संभावित कारण उस सामग्री की ओर लोगों का आकर्षण है जो उनकी वर्तमान धारणाओं की पुष्टि करती है। और तो और, यह भी देखा गया है कि लोग उन जानकारियों को भी साझा करने से नहीं हिचकते जिन पर वे खुद भरोसा नहीं करते हैं। एक प्रयोग के दौरान जब लोगों को उनके राजनीतिक जुड़ाव के अनुरूप, लेकिन झूठी, खबर दिखाई गर्इं तो 40 प्रतिशत लोगों ने इसे साझा करने योग्य समझा जबकि उनमें से मात्र 20 प्रतिशत लोगों को लगता था कि खबर सच है।

देखा जाए तो सोशल मीडिया पर आमजन को अधिक आकर्षित करने वाली जानकारियों को वरीयता मिलती है, भले ही वह कम गुणवत्ता वाली ही क्यों न हो। लेकिन कंपनियों के पास अभी तक विश्वसनीय और सटीक जानकारियों को मान्यता देने के लिए कुछ नहीं है। कोई ऐसी प्रणाली अपनाने की ज़रूरत है जिसमें विश्वसनीयता और स्पष्टता को पुरस्कृत किया जाए। यह प्रणाली मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति के साथ सटीक बैठती है जिसमें वे उन कार्यों को महत्ता देते हैं जिससे कोई इनाम या मान्यता मिले। इससे अन्य लोग भी विश्वसनीय सामग्री की ओर बढ़ेंगे।

पारितोषिक प्रणाली कई देशों में अन्य संदर्भों में काफी प्रभावी रही है। स्वीडन में गति सीमा का पालन करने वाले ड्राइवरों को पुरस्कृत किया गया जिससे औसत गति में 22 प्रतिशत की कमी आई। दक्षिण अफ्रीका में एक स्वास्थ्य-बीमा कंपनी ने अपने ग्राहकों को सुपरमार्केट से फल या सब्ज़ियां खरीदने, जिम में कसरत करने या मेडिकल स्क्रीनिंग में भाग लेने पर पॉइंट्स देना शुरू किए। वे इन पॉइंट्स को कुछ सामान खरीदने के लिए उपयोग कर सकते हैं और इस उपलब्धि को वे एक तमगे के तौर पर अपने साथियों और सहयोगियों से साझा भी कर सकते हैं। ऐसा करने से उनके व्यवहार में बदलाव आया और अस्पताल के चक्कर भी कम हुए।

सोशल मीडिया पर इस तरह की प्रणाली लागू करने में सबसे बड़ी चुनौती जानकारियों की विश्वसनीयता के आकलन करने की है। इसमें एक तरीका ‘ट्रस्ट’ बटन शामिल करना हो सकता है जिसमें यह दर्शाया जा सके कि किसी पोस्ट को कितने लोगों ने विश्वसनीय माना है। इसमें यह जोखिम तो है कि लोग इसके साथ खिलवाड़ करने लगेंगे लेकिन इससे लोगों को अपनी बात कहने का एक और रास्ता मिल जाएगा और यह सोशल मीडिया कंपनियों के व्यापार मॉडल के अनुरूप भी होगा। इसमें लोग विश्वसनीयता के महत्व पर अधिक ज़ोर देंगे। उपरोक्त अध्ययन में एक यह बात सामने आई कि जब लोगों से किसी एक वक्तव्य की सत्यता विचार करने का आग्रह किया गया तो झूठी खबरों को साझा करने की संभावना भी कम हो गई।

उपयोगकर्ताओं द्वारा मूल्यांकन के काफी सकारात्मक उदाहरण मौजूद हैं। ऑनलाइन खरीददारी वेबसाइट अमेज़न पर ऐसे समीक्षकों को अमेज़न वाइन प्रोग्राम के तरह इनाम दिया जाता है जिनकी समीक्षा से लोगों को किसी उत्पाद की पहचान करने में सहायता मिली हो। इसमें एक अच्छी बात यह भी सामने आई कि अधिक संख्या में लोगों द्वारा की गई समीक्षा पेशेवर लोगों द्वारा की गई समीक्षा से मेल खाती है।

विकिपीडिया भी एक ऐसा उदाहरण है जिसमें लोगों द्वारा किसी जानकारी की विश्वसनीयता का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान में सोशल मीडिया कंपनियों ने फैक्ट-चेकर की टीम तैयार की है जो भ्रामक खबरों पर ‘ट्रस्ट’ बटन को हटा सकते हैं और विश्वसनीय खबरों पर ‘गोल्डस्टार’ दे सकते हैं। इसमें विश्वसनीयता में निरंतर उच्च रैंक प्राप्त करने वालों को ‘विश्वसनीय उपभोक्ता’ के बैज से सम्मानित किया जा सकता है।

वैसे, कुछ लोगों का मानना है कि सटीक जानकारी को बढ़ावा देने के लिए पारितोषिक अधिकतम लाइक्स एल्गोरिदम और भ्रामक जानकारी को बढ़ावा देने की मानवीय प्रवृत्ति के खिलाफ पर्याप्त नहीं है। लेकिन इस प्रणाली को आज़माने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। और सोशल मीडिया पर इस तरह का एक स्वस्थ माहौल बनाने के लिए नेटवर्क वैज्ञानिकों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों और अर्थशास्त्रियों के साथ अन्य लोगों के सहयोग की भी आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पीपीई किट से जन्मी नई समस्या – सुदर्शन सोलंकी

लीडेन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा किए गए अध्ययन से पता चला है कि पीपीई कचरा दुनिया भर में जीव-जंतुओं की जान ले रहा है। यह अध्ययन एनिमल बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। कोविड-19 से बचने के लिए सामाजिक दूरी रखना और बड़े पैमाने पर दस्ताने व मास्क जैसे व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (पीपीई) का उपयोग एक मजबूरी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में कोरोना से बचने के लिए मेडिकल स्टाफ को हर महीने करीब 8 करोड़ दस्ताने, 16 लाख मेडिकल गॉगल्स और 9 करोड़ मेडिकल मास्क की ज़रूरत पड़ रही है। आम लोगों द्वारा उपयोग किए जा रहे मास्क की संख्या तो अरबों में पहुंच चुकी है। एक अन्य शोध से पता चला है कि वैश्विक स्तर पर हर वर्ष औसतन 12,900 करोड़ फेस मास्क और 6500 करोड़ दस्तानों का उपयोग किया जा रहा है। हांगकांग के सोको आइलैंड पर सिर्फ 100 मीटर की दूरी में 70 मास्क पाए गए थे, जबकि यह एक निर्जन स्थान है।

उपयोग पश्चात ठीक निपटान न होने व यहां-वहां फेंकने से सड़कों पर फैला यह मेडिकल कचरा इंसानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी खतरनाक है, और समुद्र में पहुंचकर जलीय जीवों को भी नुकसान पहुंचा रहा है।

सबसे अधिक प्रभावी अधिकांश थ्री-लेयर मास्क पॉलीप्रोपायलीन के और दस्ताने व पीपीई किट रबर व प्लास्टिक से बने होते हैं। प्लास्टिक की तरह ये पॉलीमर्स भी सैकड़ों सालों तक पर्यावरण के लिए खतरा बने रहेंगे।

पीपीई किट से महामारी से सुरक्षा तो हो रही है लेकिन इनके बढ़ते कचरे ने एक नई समस्या को जन्म दिया है। शोध से पता चला है कि यह कचरा ज़मीन पर रहने वाले जीवों के साथ ही जल में रहने वाले जीवों को भी प्रभावित कर रहा है। जीव इनमें फंस रहे हैं और उनके द्वारा कई बार इन्हें निगलने के मामले भी सामने आए हैं।

शोधकर्ताओं ने पहली बार लीडेन की नहर में एक मछली को लेटेक्स से बने दस्ताने में उलझा पाया था। आगे खोजबीन में यूके में लोमड़ी, कनाडा में पक्षी, हेजहॉग, सीगल, केंकड़े और चमगादड़ वगैरह इन मास्क में उलझे पाए गए। मछलियां पानी में तैरते मास्क और प्लास्टिक कचरे को अपना भोजन समझ रही हैं। विशेषकर डॉल्फिन पर तो बड़ा संकट है क्योंकि वे तटों के करीब आ जाती हैं।

संस्थान क्लीन-सीज़ की प्रमुख लौरा फॉस्टर का कहना है कि आपको नदियों में बहते मास्क दिख जाएंगे। कई बार ये मास्क आपस में उलझकर जाल-सा जैसे बना लेते हैं और जीव-जंतु इसमें फंस जाते हैं। कई बार ये आग लगने का कारण भी बनते हैं। ये सड़ते नहीं लेकिन टुकड़ों-टुकड़ों में बिखर सकते हैं। ऐसे में समुद्र में माइक्रोप्लास्टिक और बढ़ जाता है।

कई बार पक्षियों को इस कचरे को घोंसले के लिए भी इस्तेमाल करते हुए पाया गया है। नीदरलैंड्स में कूट्स पक्षियों को अपने घोंसले के लिए मास्क और ग्लव्स का उपयोग करते पाया गया था। यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि कई जानवरों में भी कोविड-19 के लक्षण सामने आए हैं।

पर्यावरणविदों ने चेतावनी दी है कि अगर यह मेडिकल कचरा जंगलों तक पहुंच गया तो परिणाम भीषण और दूरगामी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202008/ppe-kits-garbage-pti.jpeg?w6mWtXmeyZATl4ZCieVlUG_Mm73ZaWIe&size=1200:675

ग्वारपाठा के जीनोम का खुलासा

हाल ही में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च (IISER), भोपाल द्वारा किए गए एक आनुवंशिक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने ग्वारपाठा (एलो वेरा) में सूखा प्रतिरोधी जीन्स की पहचान की है। ये जीन्स ग्वारपाठा को अत्यंत गर्म और शुष्क जलवायु में पनपने में मदद करते हैं।

संस्थान के विनीत के. शर्मा और उनके साथियों ने ग्वारपाठा के पूरे जीनोम का अनुक्रमण किया है, जिसमें उन्होंने 86,000 से अधिक प्रोटीन-कोडिंग जीन्स की पहचान की। यह अध्ययन iScience नामक शोध पत्रिका में फरवरी 2021 में प्रकाशित हुआ है।

पहचाने गए कुल जीन्स में से टीम ने सिर्फ उन 199 जीन्स का बारीकी से अध्ययन किया, जिनकी भूमिका पौधे के विकास और अनुकूलन में महत्वपूर्ण देखी गई। इनमें से कुछ जीन्स पौधे को सूखे की स्थिति में पुष्पन में मदद करते हैं और इस तरह उनके प्रजनन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने अनुक्रम-विशिष्ट डीएनए से जुड़ने वाले जीन्स भी पहचाने हैं जो बाहरी उद्दीपनों पर संकेत देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। उन्होंने ग्वारपाठा में ऐसे जीन्स भी देखे जो कार्बोहाइड्रेट को तोड़कर ऊर्जा बनाने में मदद करने के अलावा कम या उच्च तापमान, पानी की कमी, उच्च लवणीयता और पराबैंगनी विकिरण जैसी तनावपूर्ण स्थितियों में प्रतिक्रिया को नियंत्रित करते हैं।

सूखे की स्थिति से निपटने में इस पौधे के कम से कम 90 जीन्स भूमिका निभाते हैं। ये जीन भौतिक रूप से भी एक-दूसरे के साथ संपर्क में आते हैं, जिससे लगता है कि ग्वारापाठा में सूखा से निपटने वाले तंत्र का अनुकूली विकास हुआ होगा।

उम्मीद है कि यह अध्ययन भविष्य में इस पौधे के विकास के साथ-साथ इसके औषधीय गुणों को भी समझने में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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