क्यूबा ने दिखाई पर्यावरण रक्षक खेती की राह – भारत डोगरा

क्यूबा वैसे तो एक छोटा-सा देश है किंतु कृषि व स्वास्थ्य जैसे कुछ क्षेत्रों में उसकी उपलब्धियां विश्व स्तर पर चर्चा का विषय बनती रही हैं। विशेषकर कृषि विकास की बहस में हाल के समय में क्यूबा का नाम बार-बार आता है। कारण कि आज विश्व का ध्यान पर्यावरण की रक्षा आधारित खेती पर बहुत केंद्रित है व क्यूबा ने इस संदर्भ में उल्लेखनीय सफलताएं प्राप्त की हैं।

विश्व स्तर पर रासायनिक खाद व कीटनाशक/जंतुनाशक दवाओं के अधिक उपयोग से प्रदूषण बढ़ा है, मिट्टी के प्राकृतिक उपजाऊपन पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ा है, किसान के मित्र अनेक जीवों व सूक्ष्म जीवों की बहुत क्षति हुई है व जलवायु बदलाव का खतरा भी बढ़ा है। इन पर निर्भरता कम करने की व्यापक स्तर पर इच्छा है। पर प्राय: नीति स्तर पर यह चाह आगे नहीं बढ़ पाती है क्योंकि इस वजह से कृषि उत्पादन कम होने की आशंका व्यक्त की जाती है।

इस संदर्भ में क्यूबा की उपलब्धि निश्चय ही उल्लेखनीय है। यहां खाद्य उत्पादन में उल्लेखनीय वृद्धि ऐसे तौर-तरीकों से प्राप्त की गई है जिनसे रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं के उपयोग को काफी हद तक कम किया गया। दूसरे शब्दों में, पिछले लगभग 25 वर्षों में यहां रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाइयों का उपयोग पहले से कहीं कम करते हुए खाद्य व कृषि उत्पादन में वृद्धि प्राप्त की गई।

वर्ष 1990 तक क्यूबा में रासायनिक खाद व कीटनाशक दवाओं का अधिक उपयोग होता था। इन्हें मुख्य रूप से सोवियत संघ से आयात किया जाता था। 1991 में सोवियत संघ के विघटन के चलते यह आयात व खाद्य आयात दोनों रुक गए। इस तरह यहां खाद्य व कृषि संकट उत्पन्न हुआ। वैज्ञानिकों,किसानों व सरकार के आपसी विमर्श से यह राह निकाली गई कि एग्रोइकॉलॉजी या पर्यावरण की रक्षा पर आधारित खेती की राह अपनाई जाए।

इसके लिए परंपरागत व आधुनिक विज्ञान, इन दोनों उपायों से सीखा गया। अनेक किसानों ने अपने पुरखों के तरीकों, जिन्हें वे छोड़ चुके थे, उन्हें नए सिरे से अपनाया व वैज्ञानिकों ने इन्हें सुधारने में मदद की। मिश्रित खेती व उचित फसल चक्र को अपनाया गया। पशुपालन व कृषि में बेहतर समन्वय किया गया। एक उत्पादन प्रणाली से दूसरी उत्पादन प्रणाली के लिए पोषण प्राप्त किया गया। जैसे मुर्गीपालन व पशुपालन से कृषि के लिए गोबर की खाद व वृक्षों से पत्तियों की खाद प्राप्त की गई। हानिकारक कीड़ों को दूर रखने की कई परंपरागत व नई तकनीकें अपनाई गर्इं जबकि खतरनाक रासायनिक कीटनाशकों पर निर्भरता निरंतर कम की गई।

पर्यावरण आधारित कृषि को राष्ट्रीय नीति के स्तर पर अपनाया गया व साथ में किसान संगठनों को इसके लिए निरंतर प्रोत्साहित भी किया गया। वैज्ञानिकों ने किसानों के साथ मिलकर, उनकी ज़रूरतों को समझते हुए, नई वैज्ञानिक जानकारियों का योगदान दिया। परंपरा व आधुनिक विज्ञान से, किसानों व वैज्ञानिकों ने एक-दूसरे से सीखा, सहयोग किया।

इस तरह के कृषि विकास के उत्साहवर्धक परिणाम मात्र छ:-सात वर्षों में मिलने लगे। 10 प्रमुख खाद्य उत्पादों के लिए वर्ष 1996-97 में रिकार्ड उत्पादन प्राप्त हुआ। वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में सब्ज़ियों का उत्पादन 145 प्रतिशत रहा जबकि कृषि-रसायनों में 72 प्रतिशत की कमी आई। वर्ष 1988 की तुलना में वर्ष 2007 में बीन्स (फलियों) का उत्पादन 351 प्रतिशत रहा जबकि कृषि रसायनों में 55 प्रतिशत कमी आई।

पर्यावरण रक्षा आधारित खेती अधिक श्रम-सघन होती है व इसमें रचनात्मक जुड़ाव की संभावना अधिक होती है। अत: रोज़गार उपलब्धि की दृष्टि से भी यह क्यूबा के लिए बेहतर रही है।

विश्व के अधिकांश देश व वहां के किसान यही चाहते हैं कि उनके खर्च कम हों और उनकी भूमि का प्राकृतिक उपजाऊपन बना रहे। क्यूबा के अनुभव ने बताया है कि उत्पादन बढ़ाने के साथ-साथ ये उद्देश्य भी प्राप्त किए जा सकते है। पर्यावरण की रक्षा के साथ किसानों का खर्च कम करने की दृष्टि से भी क्यूबा का हाल का, विशेषकर पिछले 25 वर्षों का, अनुभव उत्साहवर्धक रहा।

यदि भारत के दृष्टिकोण से देखें तो हाल के दशकों में किसानों का बढ़ता खर्च व कर्ज़ बड़ी समस्या बनते जा रहे हैं। इसके कारण किसानों में असंतोष भी फैला है। समय-समय पर कर्ज़ में राहत देने से भी इस समस्या का समाधान नहीं हुआ है। उधर मिट्टी का प्राकृतिक उजाऊपन भी तेज़ी से कम होता जा रहा है। अन्य संदर्भों में भी कृषि से जुड़ा पर्यावरण का सकंट बढ़ता जा रहा है। अत: क्यूबा के इन अनुभवों से भारत भी सही कृषि नीतियां अपनाने के लिए बहुत कुछ सीख सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://news.virginia.edu/sites/default/files/article_image/cuba_leaders_field_3-2.jpg

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