फेसबुक डैटा शोधकर्ताओं के लिए उपलब्ध

लंबे समय से शोधकर्ता फेसबुक डैटा का अध्ययन कर यह समझना चाहते थे कि हालिया राजनैतिक घटनाओं के दौरान दुनिया भर के लोगों ने कैसे जानकारियां और गलत जानकारियां साझा की थीं। उनका यह इंतज़ार अब खत्म हुआ है। फेसबुक ने 13 फरवरी 2020 को अपना डैटा शोधकर्ताओं को अध्ययन के लिए उपलब्ध करा दिया है। हालांकि डैटा तक पहुंच के साथ शोधकर्ताओं को डैटा ठीक से ना पढ़ पाने सम्बंधी मुश्किलें भी मिली हैं।

दरअसल फेसबुक ने अप्रैल 2018 में यह घोषणा की थी कि वह जल्द ही समाज वैज्ञानिकों को लोगों द्वारा साझा की गई लिंक का डैटा उपलब्ध कराएगा। लेकिन घोषणा के बाद फेसबुक के डैटा विशेषज्ञों ने पाया कि इस तरह डैटा उपलब्ध कराना उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता के साथ समझौता होगा। इस दिक्कत को सुलझाने के लिए फेसबुक ने डैटा उपलब्ध कराने के पूर्व, डैटा पर डिफ्रेंशियल प्रायवेसी विधि प्रयोग कर उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता सुनिश्चित की। यह हाल ही में विकसित एक गणितीय विधि है जो डैटा को अनाम रखती है।

जो डैटा फेसबुक ने उपलब्ध कराया है उसमें जनवरी 2017 से लेकर जुलाई 2019 के बीच फेसबुक उपयोगकर्ताओं द्वारा सार्वजनिक रूप से साझा की गई 3 करोड़ 80 लाख लिंक और उससे सम्बंधित जानकारियां हैं। ये बताती हैं कि क्या फेसबुक उपयोगकर्ता इन लिंक को फर्जी या नकारात्मक मानते थे, या क्या उन्होंने लिंक खोल कर देखी या उन्हें पसंद किया। इसके अलावा फेसबुक ने इन लिंक को साझा करने, पढ़ने और पसंद करने वाले लोगों की उम्र, स्थान, लिंग सम्बंधी जानकारी और उनके राजनैतिक रुझान सम्बंधी जानकारी भी शोधकर्ताओं को दी है।

न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में राजनीति और रूसी अध्ययन के प्रोफेसर जोशुआ टकर इसे एक बड़ा कदम मानते हैं। इस डैटा की मदद से वे अपने अध्ययन, राजनैतिक रूप से प्रेरित खबरें सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किस तरह फैलती हैं, को आगे बढ़ाना चाहते हैं।

लेकिन लोगों की पहचान गोपनीय रखने सम्बंधी फेसबुक के समाधान ने शोधकर्ताओं के लिए थोड़ी मुश्किल भी पैदा कर दी है। दरअसल गोपनीयता बनाए रखने के लिए फेसबुक ने डैटा को थोड़ा तोड़-मरोड़ दिया है, जिससे शोधकर्ताओं को जूझना पड़ेगा।

अब यह शोधकर्ताओं पर है कि वे इस बिगड़े स्वरूप के डैटा को अर्थपूर्ण बनाने के लिए क्या तरीके अपनाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बरमुडा त्रिकोण के मिथक का पुन: भंडाफोड़

गभग 100 वर्ष पहले डूबे एक जहाज़ के मलबे ने बरमुडा त्रिकोण के मिथक को एक बार फिर धराशायी कर दिया है। यह कहा गया था कि 1925 में एसएस कोटोपैक्सी नामक जो मालवाहक जहाज़ डूबा था उसमें बरमुडा त्रिकोण की भूमिका थी। यह मालवाहक अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच सका था।

बरमुडा त्रिकोण उत्तरी अटलांटिक सागर में एक अपरिभाषित-से क्षेत्र को कहते हैं। इसे शैतान का तिकोन भी कहा जाता है। यह बरमुडा से फ्लोरिडा और प्यूएर्टो रिको के बीच स्थित है। इसके बारे में कहा जाता रहा है कि यहां कई जहाज़, हवाई जहाज़ वगैरह डूबे हैं और इसका कारण पारलौकिक शक्तियों या अन्य ग्रहों के निवासियों को बताया जाता है। तथ्य यह है कि यहां कई जहाज़ नियमित रूप से पार होते हैं और कई हवाई जहाज़ इस क्षेत्र के ऊपर से होकर उड़ते हैं।

हाल ही में एक समुद्री जीव वैज्ञानिक और गोताखोर माइकेल बार्नेट ने उस जहाज़ कोटोपैक्सी का मलबा ढूंढ निकाला है। बार्नेट पिछले कई वर्षों से डूबे हुए जहाज़ों के मलबे खोजने का काम करते रहे हैं। इसी दौरान उन्हें पता चला कि उत्तरी फ्लोरिडा के सेन्ट ऑगस्टीन के तट से करीब 65 कि.मी. की दूरी पर एक बड़ा जहाज़ डूबा था जिसे स्थानीय लोग बेयर रेक के नाम से जानते हैं। यह वास्तव में बहुत बड़ा था।

तो बार्नेट ने गोताखोरी करके उस जहाज़ के मलबे का नाप जोख किया, अखबारों में उस समय छपे लेखों का जायज़ा लिया और साथ ही बीमा के रिकॉर्ड भी देखे और जहाज़ के मलबे से मिली वस्तुओं का मुआयना किया। उनकी तहकीकात से लगता था कि वह जहाज़ शायद कोटोपैक्सी ही था। तो उन्होंने खबर फैलाई कि एसएस कोटोपैक्सी शायद अटलांटिक महासागर के पेंदे में पड़ा है।

कोटोपैक्सी दक्षिण कैरोलिना के चार्ल्सटन बंदरगाह से कोयला भरकर हवाना के लिए रवाना हुआ था। रास्ते में एक तूफान ने इसे डुबो दिया और इस पर सवार 32 कर्मचारियों का कोई अता-पता नहीं मिला था। बाद में पता चला कि कोटोपैक्सी में कई खामियां थीं और इसकी मरम्मत का काम होने वाला था। जांच-पड़ताल में यह भी सामने आया कि कोटोपैक्सी ने डूबने से पहले एसओएस संदेश भी प्रसारित किए थे और फ्लोरिडा स्थित जैकसनविले स्टेशन ने ये संदेश पकड़े भी थे।

मज़ेदार बात है कि जहाज़ का मलबा सेन्ट ऑगस्टीन के तट से कुछ दूरी पर मिला है जो बरमुडा त्रिकोण के आसपास भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी का एक नया युग: चिबानियन

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने पृथ्वी पर एक नए युग का अनुमोदन किया है। दक्षिणी जापान के चिबा प्रांत में पाई गई तलछट की एक परत के आधार पर इस नए युग की घोषणा की गई है। यह युग लगभग 7 लाख 70 हज़ार वर्ष पूर्व से लेकर 1 लाख 26 हज़ार वर्ष के बीच रहा था।

इस अवधि की विशेष बात यह है कि इस दौरान पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र ने पलटी मारी थी। पृथ्वी के इतिहास में कई बार ऐसा हुआ है कि उत्तरी व दक्षिणी चुंबकीय ध्रुवों की अदला-बदली हुई है। जब ऐसा होता है तो इसके निशान पृथ्वी की उन चट्टानों पर रह जाते हैं जो उस दौरान ठोस बन रही थीं। ऐसा माना जा रहा है कि इस स्थल पर पाई गई तलछट चुंबकीय उथल-पुथल का बहुत अच्छा रिकॉर्ड उपलब्ध कराएगी।

चुंबकीय ध्रुवीय पलट को ब्रुनहेस-मातुयामा पलटी कहते हैं और यह आज भी विवाद का विषय है। 2014 में जियोफिज़िकल जर्नल इंटरनेशनल में प्रकाशित एक शोध पत्र में इटली में पाई गई तलछट की एक परत से प्राप्त जानकारी के आधार पर कहा गया था कि चुंबकीय पलटी में मात्र कुछ दशकों का समय लगता है। दूसरी ओर, 2019 में हवाई में प्राचीन लावा के प्रवाह से प्राप्त आंकड़ों के आधार पर कहा गया था कि इसमें लगभग 22,000 साल लग जाते हैं। इस पलटी के बढ़िया रिकॉर्ड के साथ चिबा की तलछट शायद बहस को विराम देने का काम करेगी।

ध्रुवों के पलटने के अध्ययन से हम यह समझ पाएंगे कि इस वक्त क्या हो रहा है। हाल के वर्षों में पृथ्वी के चुंबकीय ध्रुवों में थोड़ा स्थान परिवर्तन हो रहा है। वैज्ञानिक यह नहीं समझ पाए हैं कि ध्रुव क्यों भटक रहे हैं। शायद चिबा की चट्टानें कुछ मदद करें। (स्रोत फीचर्स)

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अम्लीय होते समुद्र के प्रभाव

डेढ़ सौ साल पुराने प्लैंकटन (सूक्ष्म जलीय वनस्पति) के अध्ययन के आधार पर किंग्सटन युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने जलवायु परिवर्तन के बारे में काफी महत्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं।

सन 1872-76 तक चले एचएमएस चैलेंजर अभियान के दौरान एकत्रित किए गए एक-कोशिकीय, कवच बनाने वाले जीव फोरामिनीफेरा लंदन स्थित म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री में रखे हुए थे। सूक्ष्मजीवाश्म विज्ञानी लिंडसे फॉक्स ने इन फोरामिनीफेरा नमूनों का अध्ययन किया और पाया कि वर्तमान फोरामिनीफेरा की तुलना में प्राचीन फोरामिनीफेरा के कवच कहीं अधिक मोटे थे। उनका निष्कर्ष है कि कवच की मोटाई में यह परिवर्तन समुद्री पानी के तेज़ी से अम्लीय होने की वजह से हुआ है।

वैसे तो वैज्ञानिक इस बात को पहले से जानते थे कि वातावरण में मौजूद अतिरिक्त कार्बन डाईआऑक्साइड के समुद्र में घुलने के परिणामस्वरूप महासागर अम्लीय होते जा रहे हैं जिसके कारण समुद्री जीवन बुरी तरह प्रभावित हो रहा है। अम्लीय पानी कैल्शियम कार्बोनेट और जीवों के बाह्र कंकाल को झीना कर देता है और उनके लिए इस तरह की संरचना बना पाना ही मुश्किल हो जाता है। लेकिन अधिकांश नतीजे प्रयोगशाला में किए गए प्रयोगों से मिले थे जो बहुत लंबी अवधि के नहीं होते। वैज्ञानिक खुले समुद्र में अम्लीय होते महासागरों के दीर्घकालिक प्रभाव जांचने में सक्षम नहीं थे।

तुलना के लिए शोधकर्ताओं ने दो प्रजातियों Neogloboquadrina dutertrei और Globigerinoides ruber को चुना। एचएमएस चैलेंजर द्वारा एकत्रित नमूनों के सटीक स्थान और समय के बारे में जानकारी प्राप्त की और इनकी तुलना उन्होंने साल 2011 में प्रशांत महासागर में चले तारा अभियान से प्राप्त उन्हीं प्रजातियों के नमूनों से की। 

उन्होंने सी.टी. स्कैन की मदद से इनके कवच का 3-डी मॉडल बनाया। उन्होंने पाया कि प्राचीन नमूनों की तुलना में औसतन सभी आधुनिक कवच झीने थे। N. dutertrei का आवरण तो 76 प्रतिशत झीना था। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि कुछ वर्तमान कवच तो इतने पतले थे कि उनका 3-डी मॉडल तक बनाना मुश्किल था।

शोधकर्ताओं का कहना है कि ऐसी संभावना है कि कवच समुद्रों की बढ़ती अम्लीयता के कारण झीने हुए हों। हालांकि वे यह भी कहते हैं कि इसमें महासागरों के बढ़ते तापमान और ऑक्सीजन की कमी की भी भूमिका हो सकती है।

फॉक्स ऐसी ही तुलना संग्रहालयों में रखे हज़ारों प्लैंकटन जीवाश्मों के साथ करना चाहती हैं। वे उम्मीद करती हैं कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को भी संग्रहालयों की पड़ताल करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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