मीठा खाने का मस्तिष्क पर प्रभाव

मीठा खाना हम सबको पसंद है, लेकिन अधिक चीनी के सेवन से वज़न बढ़ने, मोटापे, टाइप-2 मधुमेह और दंत रोग जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मीठा खाने से खुद को रोक पाना इतना कठिन होता है कि मानो मस्तिष्क को मीठा खाने के लिए प्रोग्राम किया गया हो। वैज्ञानिक इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि मोटापा बढ़ाने वाला भोजन मस्तिष्क और व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है और इससे निपटने के लिए क्या किया जा सकता है।       

ग्लूकोज़ मस्तिष्क कोशिकाओं सहित अन्य कोशिकाओं के लिए र्इंधन का काम करता है। हमारे आदिम पूर्वजों के लिए मीठे खाद्य पदार्थ ऊर्जा के बेहतरीन स्रोत थे जिसके चलते मनुष्य विशेष रूप से मीठे खाद्य पदार्थों को पसंद करने लगे। कड़वा, खट्टा स्वाद कच्चे फलों का या ज़हरीला हो सकता है।

मीठे का सेवन करने पर हमारे मस्तिष्क की डोपामाइन प्रणाली सक्रिय हो जाती है जो एक तरह के पारितोषिक का काम करती है। इस रसायन को मस्तिष्क एक सकारात्मक संकेत के रूप में दर्ज करता है। यह रसायन उसी कार्य को फिर से करने के लिए प्रेरित करता है और हमारा आकर्षण मिठास के प्रति बढ़ जाता है। लेकिन क्या चीनी का अत्यधिक सेवन मस्तिष्क पर कोई नकारात्मक प्रभाव डालता है?  

न्यूरोप्लास्टिसिटी नामक प्रक्रिया के माध्यम से मस्तिष्क खुद का पुनर्लेखन करता है। दवा या अधिक चीनी युक्त पदार्थों का बार-बार सेवन करने से यह प्रणाली मस्तिष्क को इस उद्दीपन के प्रति उदासीन कर देती है और एक तरह की सहनशीलता उत्पन्न होती है। इसके चलते वही असर प्राप्त करने के लिए आपको उस चीज़ का ज़्यादा मात्रा में सेवन करना होता है। इसे लत लगना कहते हैं। यह विवाद का विषय रहा है कि क्या भोजन की लत लग सकती है।        

ऊर्जा के स्रोत के अलावा कई लोगों में खाने की लालसा तनाव, भूख या भोजन के आकर्षक चित्र देखकर पैदा होती है। इस लालसा को रोकने के लिए हमें अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है। इसमें निषेध न्यूरॉन्स की प्रमुख भूमिका होती है। ये न्यूरॉन्स निर्णय लेने के साथ-साथ नियंत्रण तथा संतुष्टि को टालने का काम करते हैं। ये न्यूरॉन्स मस्तिष्क में ब्रेक की तरह काम करते हैं। चूहों में अध्ययन से पता चला है कि उच्च चीनी युक्त आहार लेने से निषेध न्यूरॉन्स में बदलाव आ सकता है। ऐसे चूहे अपने व्यवहार को नियंत्रित करने में और निर्णय लेने में कम सक्षम पाए गए। इससे लगता है हम जो भी खाते हैं वो इन प्रलोभनों का विरोध करने की हमारी क्षमता को प्रभावित कर सकता है और आहार में बदलाव करना मुश्किल हो सकता है।

हाल के अध्ययन से मालूम चला है कि जो लोग नियमित रूप से उच्च वसा, उच्च चीनी वाले आहार खाते हैं वे भूख न लगने पर भी खाने की लालसा महसूस करते हैं। यानी नियमित रूप से उच्च चीनी युक्त खाद्य पदार्थ खाने से लालसा बढ़ती जाती है।

अध्ययन से पता चला है कि उच्च मात्रा में चीनी आहार लेने वाले चूहों में याददाश्त की समस्या उत्पन्न हुई। चीनी के कारण हिप्पोकैम्पस में नए न्यूरॉन्स की कमी पाई गई जो याददाश्त बढ़ाने और उत्तेजना से जुड़े रसायनों में वृद्धि करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

अब सवाल यह है कि अपने मस्तिष्क को चीनी से कैसे बचाएं? विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हमें अपने दैनिक कैलोरी सेवन की मात्रा में शक्कर का सेवन केवल 5 प्रतिशत तक सीमित करना चाहिए जो लगभग 25 ग्राम (छह चम्मच) के बराबर है। इसके मद्देनज़र आहार में काफी परिवर्तन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शकरकंद खुद को शाकाहारियों से सुरक्षित रखता है

करकंद के पौधे के पास अपनी रक्षा के लिए न तो कांटें होते हैं और न कोई ज़हर। लेकिन भूखे शाकाहारी जीवों से खुद की रक्षा करने के लिए उन्होंने एक शानदार तरीका विकसित किया है। जब कोई जीव इस पौधे के एक पत्ते को कुतरता है, वह तुरंत एक ऐसा रसायन उत्पन्न करता है जो पौधे के बाकी हिस्से और आसपास के पौधों को भी सचेत कर देता है जिससे वे खुद को अभक्ष्य बना लेते हैं। शकरकंद संवर्धक इस पौधे में फेरबदल करके सर्वथा प्राकृतिक कीटनाशक रसायन बना सकते हैं।  

जर्मनी स्थित मैक्स प्लांक इंस्टिट्यूट फॉर केमिकल इकॉलॉजी के प्लांट इकोलॉजिस्ट एलेक्स मिथोफर ने इस विषय में काम करना शुरू किया जब उन्होंने ताइवान में उगाए गए शकरकंद की दो किस्मों में कुछ दिलचस्प चीज़ देखी। उन्होंने पाया कि पीले छिलके और पीले गूदे वाली किस्म टैनॉन्ग-57 तो आम तौर पर शाकाहारियों की प्रतिरोधी है जबकि गहरे नारंगी रंग वाली टैनॉन्ग-66 कीटों से ग्रस्त है।  

एलेक्स और उनकी टीम ने टैनॉन्ग-57 और टैनॉन्ग-66 पर अफ्रीकी कॉटन लीफवर्म के भूखे कैटरपिलर छोड़ दिए। कैटरपिलर ने जैसे ही पौधों को खाना शुरू किया, दोनों पौधों ने कम से कम 40 वायुवाहित यौगिक छोड़े। लेकिन शोधकर्ताओं ने साइंटिफिक रिपोर्ट्स में बताया है कि टैनॉन्ग-57 ने काफी अधिक मात्रा में एक विशिष्ट गंध वाला DMNT नामक रसायन छोड़ा। शोधकर्ताओं ने DMNT यौगिक को मकई और गोभी जैसे अन्य पौधों से भी प्राप्त किया है। यह कुछ प्रजातियों में रक्षा प्रतिक्रिया प्रेरित करने के लिए जाना जाता है।

शकरकंद में इस प्रक्रिया को जानने के लिए वैज्ञानिकों ने दो अन्य प्रयोग किए। सबसे पहले उन्होंने टैनॉन्ग-57 के दो पौधों को पास-पास रखकर उनमें से एक को चिमटी से नोचा जिसकी वजह से उसने DMNT छोड़ा। इसके बाद उन्होंने स्वस्थ टैनॉन्ग-57 पर प्रयोगशाला में संश्लेषित DMNT का छिड़काव किया। दोनों ही मामलों में पाया गया कि पत्तियों पर स्पोरामिन नामक प्रोटीन अधिक मात्रा में था। जब कैटरपिलर स्पोरामिन युक्त पत्तियों को खाते हैं तो उनका पाचन ठप हो जाता है और वे तुरंत ही उन पत्तियों को खाना छोड़ देते हैं क्योंकि वे अस्स्थ महसूस करते हैं। गौरतलब है कि टैनॉन्ग-66 में ऐसी प्रतिक्रिया नहीं देखी गई।      

शकरकंद में स्पोरामिन एक मुख्य प्रोटीन है। इसको यदि कच्चा खाया जाए तो यह अपचनीय है, इसलिए हम इसको पकाकर खाते हैं। एलेक्स का मानना है कि सैद्धांतिक रूप से यदि शकरकंद की सभी किस्मों में जेनेटिक इंजीनियरिंग के माध्यम से टैनॉन्ग-57 की तरह और अधिक DMNT उत्पन्न कराया जा सके तो वे कीटों से अपनी रक्षा कर सकेंगे।  

वैसे यह विषय अभी सुर्खियों में आने के लिए तैयार नहीं है। प्लांट इकोलॉजिस्ट मार्टिन हील का मानना है कि DMNT प्रयोगशाला में तो काम कर सकता है लेकिन खुले में DMNT चंद सेकंड में हवा हो जाएगा। फिलहाल तो एलेक्स के पास भी आनुवंशिक रूप से तैयार किए गए ऐसे पौधों को बनाने की कोई योजना नहीं है। एक बात यह भी है कि इसका उपयोग युरोपीय देशों में करना भी संभव नहीं है जहां आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों का उपयोग प्रतिबंधित है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पक्षी के भोजन की चुगली करते हैं पंख

प्रवासी बोबोलिंक पक्षियों के स्वास्थ्य को, उनके प्रजनन स्थल से दूर किसी अन्य स्थल के बाहरी कारक काफी प्रभावित करते हैं। लेकिन मुश्किल यह है कि सर्दियों के मौसम में अपने प्रवास के दौरान जब ये पक्षी दक्षिण अमेरिका में फैल जाते हैं तब इन्हें कौन-कौन से कारक प्रभावित करते हैं, इस पर निगरानी रखना मुश्किल होता है। इस संदर्भ में हाल ही में कॉन्डोर: ऑर्निथोलॉजिकल एप्लीकेशंस में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्रवास के दौरान पक्षियों पर नज़र रखने के एक नए तरीके के बारे में बताया है। शोधकर्ताओं ने बोबोलिंक नामक विलुप्तप्राय प्रवासी पक्षी के प्रवास के दौरान उनके आहार के बारे में पता लगाने के लिए उनके पंखों में कार्बन यौगिकों का विश्लेषण किया। इन यौगिकों का संघटन इस बात से निर्धारित होता है कि पक्षी ने किस तरह की वनस्पति को अपना भोजन बनाया है।

बोबोलिंक पक्षी के शीतकालीन प्रवास स्थल – दक्षिण अमेरिका – में पाई जाने वाली अधिकतर घासों और धान में कार्बन समस्थानिकों का अनुपात अलग-अलग होता है। वरमॉन्ट सेन्टर फॉर इकोस्टडी की रोसलिंड रेन्फ्रू और उनके साथियों ने पौधों की इसी विशेषता का फायदा उठाया। इसके लिए उन्होंने दक्षिणी अमेरिका के चावल उत्पादन स्थल, घास के मैदान और उत्तरी अमेरिका के प्रजनन स्थल से बोबोलिंक पक्षियों के पंख के नमूने एकत्रित किए।

पंखों में कार्बन समस्थानिकों के अनुपात का पता लगाने पर पता चला कि दक्षिण अमेरिका के धान और गैर-धान वाले इलाकों में बोबोलिंक के आहार में फर्क स्पष्ट झलकता था। उत्तरी अमेरिका से लिए गए पंखों के नमूनों में दिखा कि सर्दियों के दौरान अधिकतर पक्षियों के भोजन में चावल शामिल नहीं था लेकिन ठंड के मौसम के अंत में, जब धान पककर तैयार होता था और उत्तर की ओर वापसी का समय था, तब उनके भोजन में काफी चावल था।

अनुमान है कि उत्तर की ओर वापसी यात्रा करने के लिए चावल इन पक्षियों को अधिक ऊर्जा देता होगा। लेकिन एक संभावना यह भी है कि इस भोजन से वे फसलों पर छिड़के जाने वाले कीटनाशकों के अधिक संपर्क में आएंगे और उन्हें किसानों से खतरा बढ़ जाएगा, जो उन्हें फसल को नुकसान पहुंचाने वाले पक्षियों की तरह देखते हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक विलुप्तप्राय बोबोलिंक के संरक्षण के लिए ज़रूरी है कि उनको पोषण देने वाले घास के मैदानों का संरक्षण किया जाए, हानिकारक कीटनाशकों का उपयोग कम करने के लिए एकीकृत कीट प्रबंधन को बढ़ावा दिया जाए और इन पक्षियों द्वारा खाई गई फसल के लिए किसानों को मुआवज़ा दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)
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विश्वविद्यालयों को अनुसंधान और नवाचार केंद्र बनाएं – डॉ. एस. बालाकृष्ण

विश्वविद्यालय महज़ डिग्री और डिप्लोमा प्रदान करने वाली संस्था नहीं होती। यह समाज का वह हिस्सा है जहां ज्ञान का सृजन, नए विचारों का विकास, नवाचार और गहन चिंतन का पोषण होता है। उच्च गुणवत्ता वाले विश्वविद्यालय एक ऐसा माहौल प्रदान करते हैं जहां छात्र महान वैज्ञानिकों, इंजीनियरों, सामाजिक विचारकों और प्रशासकों के रूप में तैयार होते हैं। अधिकांश विकसित देशों में विश्वविद्यालयों की प्रयोगशालाएं वे स्थान होती हैं जहां नवाचार के साथ नई प्रक्रियाओं और उत्पादों का विकास होता है जिससे उद्योगों को बढ़त हासिल करने में मदद मिलती है। संक्षेप में, किसी समाज की प्रगति का अनुमान विश्वविद्यालयों की मज़बूती से लगाया जा सकता है जो युवाओं को भविष्य के नेताओं, शोधकर्ताओं और शिक्षकों में बदल सकते हैं।

भारतीय युवाओं की एक बड़ी आबादी, खासकर समाज के गरीब तबकों और ग्रामीण क्षेत्रों की आबादी, को राज्य द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों और कॉलेजों के माध्यम से प्रदान की जाने वाली उच्च शिक्षा से अत्यधिक लाभ होता है। सी.वी. रमन, हर गोबिंद खुराना, वी. रामकृष्ण और अमर्त्य सेन जैसे प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने भी अपनी शिक्षा राज्य द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों से प्राप्त की है। आज भी गरीब वर्ग के छात्र केवल ऐसे ही विश्वविद्यालयों में अध्ययन का खर्च वहन कर सकते हैं। आज़ादी के बाद, इन विश्वविद्यालयों ने ही देश के विकास के लिए ज़रूरी बड़ी संख्या में शिक्षित जनशक्ति की आवश्यकता को पूरा किया। भारतीय विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षा संस्थानों में शिक्षित एवं प्रशिक्षित लोगों के दम पर ही देश कृषि, अंतरिक्ष, परमाणु ऊर्जा और स्वास्थ्य सेवा में उपलब्धियां हासिल कर सका है। अलबत्ता, जब अनुसंधान, नए ज्ञान के सृजन और नवाचार की बात आती है, तो हमारे विश्वविद्यालय पिछड़े मालूम होते हैं। वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए उन्हें काफी सुधार की आवश्यकता है।

प्रतिष्ठित शिक्षाविद, अर्थशास्त्री और टेक्नोक्रैट इस बात से सहमत हैं कि एक शिक्षित समाज, शिक्षित अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण चालक शक्ति है। उच्च शिक्षा के साथ जब अनुसंधान जुड़ जाता है, तो वह ज्ञान का निर्माण करता है और ज्ञान के आधार के सतत विकास को संभव बनाता है। रचनात्मकता के साथ ज्ञान का ठोस आधार नवाचार का पोषण करता है। समाज को उच्च आय वाली अर्थव्यवस्थाओं में बदलने की इस महत्वपूर्ण भूमिका को मान्यता देते हुए तथाकथित ‘उभरती हुई अर्थव्यवस्था’ वाले देशों ने अपने विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की गुणवत्ता में काफी सुधार किया है। विश्व के शीर्ष 200 विश्वविद्यालयों में चीन, दक्षिण कोरिया और ब्राज़ील के कई विश्वविद्यालय हैं। इन देशों के अन्य विश्वविद्यालय शीर्ष रैंकिंग पर पहुंचने के लिए हर आवश्यक प्रयत्न कर रहे हैं। हालांकि भारत में भी हमने महसूस किया है कि विश्वविद्यालय ज्ञान और नवाचार की पौधशालाएं हैं लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि अकादमिक नेतृत्व इसको हासिल करने के तरीकों को लेकर अनभिज्ञ है।       

35 वर्ष से कम आयु वाले युवाओं की सबसे बड़ी संख्या के साथ अपनी विशाल जनांकिक क्षमता के दम पर भारत अनुसंधान के माध्यम से गुणवत्तापूर्ण उच्च शिक्षा प्रदान करके अपनी इस क्षमता का उपयोग कर सकता है। इस तरह का योग्य मानव संसाधन, ज्ञान-आधारित और विनिर्माण दोनों तरह के उद्योगों, के विस्तार के लिए अनिवार्य है। यदि हम अपने विश्वविद्यालयों में शिक्षण और अनुसंधान को बरबाद होने की अनुमति देते हैं, तो हमें या तो अपने छात्रों को विदेश भेजना होगा या फिर विदेशी विश्वविद्यालयों को भारत में लाना होगा। ये दोनों ही विकल्प काफी महंगे हैं जिनमें विदेशी धन की निकासी अधिक होगी और लाभ आबादी के छोटे-से हिस्से को मिलेगा। इसलिए, हमारे विश्वविद्यालयों द्वारा दी जाने वाली शिक्षा और अनुसंधान की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा उन्हें विश्वस्तरीय बनने के लिए प्रोत्साहित करने की तत्काल आवश्यकता है। इससे हम विदेशी छात्रों को अपने विश्वविद्यालयों में पढ़ाई के लिए आकर्षित कर पाएंगे जिससे ज्ञान के सृजन को और बढ़ावा मिलेगा। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए (1) उच्च शिक्षा संस्थानों/विश्वविद्यालयों के प्रमुख की नियुक्ति को पारदर्शी तथा योग्यता आधारित होना चाहिए और (2) विश्वविद्यालयों की मुख्य पहचान अनुसंधान और नए ज्ञान के निर्माण में भूमिका के लिए होनी चाहिए और इसके लिए पर्याप्त धन मिलना चाहिए।

देश के कई उच्च शिक्षा संस्थानों का अनुभव है कि किसी भी विश्वविद्यालय को बनाना या बिगाड़ना कुलपति (वीसी) के हाथ में होता है। सभी शैक्षणिक विभागों में फैकल्टी की नियुक्ति वीसी की अध्यक्षता वाली चयन समिति के ज़रिए की जाती है। इस बात से यह तो स्पष्ट है कि वीसी के रूप में एक अयोग्य व्यक्ति फैकल्टी चयन करते समय कबाड़ा कर सकता है। इस तरह विश्वविद्यालय आने वाले दो से तीन दशकों के लिए बरबाद हो जाएगा। वीसी की भूमिका कई अन्य मामलों में भी महत्वपूर्ण होती है: विभिन्न यूजी और पीजी पाठ्यक्रमों में उत्कृष्टता सुनिश्चित करना, उन्हें अद्यतन बनाए रखना, अग्रणी अनुसंधान की सुविधाएं जुटाना, विभिन्न कार्यक्रमों के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर के प्रतिष्ठित विद्वानों को लघु या दीर्घकालिक रूप से आमंत्रित करना आदि।  

विश्वविद्यालयों में इस सुधार की शुरुआत सबसे शीर्ष से, कुलपति की नियुक्ति के साथ, होनी चाहिए। कुलपति नियुक्त करने की वर्तमान प्रथा काफी पुरानी हो चुकी है और वांछनीय परिणाम नहीं दे रही है; इसलिए इसको बदलने की आवश्यकता है। वर्तमान में, प्रत्येक वीसी के चयन के लिए एक ‘सर्च कमिटी’ का गठन किया जाता है जिसके सदस्य कुछ वरिष्ठ शिक्षाविद होते हैं। संभावित उम्मीदवारों को या तो नामांकित किया जाता है या फिर वे सीधे आवेदन करते हैं। इसके बाद ‘सर्च कमिटी’ तीन से पांच नामों की लघु-सूची कुलाधिपति (या केंद्रीय विश्वविद्यालय के मामले में विज़िटर) को भेज देती है, जिनमें से एक का चयन कर लिया जाता है। वर्षों पुरानी यह प्रणाली तब अपनाई जाती थी जब (i) केवल मुट्ठी भर विश्वविद्यालय थे; (ii) राजनीतिक हस्तक्षेप कम से कम था; और (iii) ‘सर्च कमिटी’ सच्चाई और ईमानदारी से चयन प्रक्रिया का संचलन करने में सक्षम थी। देखा जाए तो यह पूरी प्रक्रिया अपारदर्शी है जहां यह पता नहीं होता कि नामांकित, या फिर आवेदन करने वाले उम्मीदवार कौन-कौन हैं और लघु सूची बनाने में किन मापदंडों का पालन किया गया है। ‘सर्च कमिटी’ द्वारा न तो कोई न्यूनतम मानक मानदंड प्रकाशित किए जाते हैं और न ही उनका पालन किया जाता है, जिससे राजनीतिक और मौद्रिक आधारों पर कुलपति के रूप में अयोग्य व्यक्तियों के चुने जाने की गुंजाइश रहती है। हाल ही में विभिन्न अदालतों द्वारा सुनाए गए फैसले उपरोक्त वास्तविकता का प्रमाण हैं। इस तरह के एक मामले में बॉम्बे के माननीय उच्च न्यायालय ने सवाल किया था कि क्या सर्च कमिटी के सदस्य अंधे थे। पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत में विश्वविद्यालयों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है और कुलपतियों को नियुक्त करने की प्रथा ने स्पष्ट रूप से यह वांछनीय परिणाम नहीं दिया है कि वास्तविक अकादमिक नेता हमारे विश्वविद्यालयों के मुखिया बनें। हमें कुलपतियों के चयन और उनकी नियुक्ति के लिए एक नई पद्धति विकसित करने की आवश्यकता है। और इसकी शुरुआत केंद्र सरकार द्वारा वित्त-पोषित विश्वविद्यालयों से की जा सकती है।

विश्वविद्यालय प्रत्येक कुलपति चयन के लिए ‘सर्च कमिटी’ गठन की प्रथा को खत्म कर सकते हैं। एक उच्च शिक्षा नियुक्ति समिति (HEAC) का गठन किया जाना चाहिए जिसमें कम से कम 20 प्रतिष्ठित शिक्षाविद सदस्य हों। HEAC सदस्यों का नामांकन विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, मानविकी एवं भाषा, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमियों द्वारा किया जा सकता है। सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए एक ही समिति होगी और किसी भी विश्वविद्यालय के कुलपति का चयन विज्ञापन के द्वारा अनिवार्य रूप से प्रतिष्ठित विद्वानों और शिक्षाविदों को आवेदन करने के लिए आमंत्रित करके किया जाएगा। एक निश्चित न्यूनतम मानदंड निर्धारित और प्रकाशित किया जाना चाहिए और जो इन मानदंडों को पूरा करते हैं तथा जिनके पास शिक्षण और अनुसंधान में उत्कृष्टता के गुण हैं केवल उन्हीं को HEAC द्वारा शार्टलिस्ट किया जाना चाहिए। इसमें से पांच शार्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों का पूरा बायोडैटा प्रकाशित किया जाना चाहिए और आम लोगों को आपत्तियां दाखिल करने को आमंत्रित किया जाना चाहिए। यदि वैध कारणों और प्रमाणों के साथ किसी उम्मीदवार को लेकर कोई आपत्ति है तो उसे सार्वजनिक रूप से ज़ाहिर किया जाना चाहिए। इसके बाद प्राप्त आपत्तियों का HEAC द्वारा मूल्यांकन करके पैनल से उम्मीदवारों को स्वीकार या अस्वीकार किया जा सकता है। शार्टलिस्ट किए गए उम्मीदवारों की अंतिम सूची उस विश्वविद्यालय को भेजी जाएगी जिसके लिए कुलपति का पद भरा जाना है। अकादमिक परिषद या सीनेट और प्रोफेसरों, एसोसिएट प्रोफेसरों और सहायक प्रोफेसरों के निकाय को कुलपति के रूप में उनमें से एक का चुनाव करना चाहिए। कार्यकारी परिषद या विश्वविद्यालय के सर्वोच्य प्रशासनिक निकाय को वीसी के रूप में निर्वाचित उम्मीदवार को नियुक्त करने का अधिकार होना चाहिए। उपर्युक्त तंत्र के माध्यम से कुलपति की नियुक्ति से पारदर्शिता और लोकतांत्रिक पद्धति को बढ़ावा मिलेगा और नौकरशाही और राजनैतिक हस्तक्षेप से छुटकारा मिलेगा। इससे यह सुनिश्चित हो सकेगा कि हमारे विश्वविद्यालयों का नेतृत्व संजीदा शिक्षाविदों के हाथों में होगा जिसका परिणाम बेहतर शिक्षा और अनुसंधान के रूप में सामने आएगा। मोटे तौर पर ऊपर सुझाया गया तरीका अधिकांश विकसित देशों में विश्वविद्यालयों के कार्यकारी प्रमुखों की नियुक्ति में अपनाया जाता है।  

आज़ादी के तुरंत बाद अनुसंधान संस्थानों और प्रयोगशालाओं की स्थापना तो की गई लेकिन विश्वविद्यालयों में अनुसंधान की बड़े पैमाने पर उपेक्षा की गई। विश्वविद्यालयों को प्रयोगशालाएं स्थापित करने के लिए धन से वंचित किया गया और फैकल्टी तथा छात्रों को अनुसंधान संस्थानों और प्रयोगशालाओं में विकसित सुविधाओं तक काफी कम पहुंच हासिल है। विश्वविद्यालय ऊर्जा से भरपूर युवाओं और जिज्ञासु छात्रों से भरे पड़े हैं जो विशेषज्ञ फैकल्टी के उचित मार्गदर्शन में शोध एवं नवाचार करने में सक्षम हैं। छात्रों द्वारा रचनात्मक अनुसंधान कार्य स्नातक-पूर्व तथा स्नातक कार्यक्रमों के तहत न्यूनतम वित्तीय सहायता के साथ किया जा सकता है। विश्वविद्यालयों और उच्च शिक्षण संस्थानों को पर्याप्त बुनियादी संरचना, प्रयोगशाला और उपकरण उपलब्ध कराने से वे ज्ञान सृजन के केंद्र बन जाएंगे।

भारत में स्नातक शिक्षा ज़्यादातर उन कॉलेजों के हवाले छोड़ दी जाती है जहां शोध करने की सुविधाएं कम या बिलकुल भी नहीं होती हैं। अघिकांश मामलों में स्नातक शिक्षा की गुणवत्ता आवश्यक स्तर से भी नीचे होती है जिसके चलते विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर (पीजी) कार्यक्रमों में भर्ती होने वाले छात्रों को पीजी की पढ़ाई शुरू करने के पहले मूलभूत सिद्धांत पढ़ाए जाते हैं। इसके कारण उनको अपने पीजी कार्यक्रम के तहत शोध करने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिलता है। इसलिए यह ज़रूरी है कि भारतीय विश्वविद्यालयों में स्नातक कार्यक्रम शुरू किए जाएं और उन्हें पीजी कार्यक्रमों के साथ जोड़ा जाए। इस नज़रिए को प्रोफेसर के. कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता में एक समिति द्वारा नई शिक्षा नीति प्रारूप में शामिल किया गया है।       

यूजी कार्यक्रम के छात्रों को अपनी शिक्षा में शोध कार्य करने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। अनुसंधान को पाठ्यक्रम में उसी तरह जोड़ा जा सकता है जैसे थ्योरी समझने के लिए प्रैक्टिकल या प्रयोगशाला कार्य किया जाता है। इसके अलावा, अनुसंधान पर एक अलग कोर्स होना चाहिए (जैसे प्रोजेक्ट) जिसको चार से छह क्रेडिट दिए जा सकते हैं। इस प्रकार युवा स्नातक छात्रों को अवधारणाओं और अनुसंधान की कार्यप्रणाली से परिचित कराया जा सकता है जिससे उनको अनुभवात्मक शिक्षा मिल सकती है। विश्वविद्यालय के विभागों, आईआईटी, एनआईटी और सीएसआईआर प्रयोगशालाओं में यूजी छात्रों के लिए ग्रीष्मकालीन इंटर्नशिप की सुविधा होनी चाहिए। जब ऐसे छात्र पीजी कार्यक्रमों में दाखिला लेंगे तो वे उन्नत शोध करने के लिए तैयार होंगे। इस प्रकार विश्वविद्यालयों और चयनित कॉलेजों में उपलब्ध सक्षम और योग्य फैकल्टी सदस्यों के मार्गदर्शन में काफी बड़ी मात्रा में अनुसंधान किया जा सकता है। शोध की ऐसी व्यापक बुनियाद नवाचार के लिए आवश्यक ज्ञान का सृजन करेगी। (स्रोत फीचर्स)

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बाल के एक टुकड़े से व्यक्ति की शिनाख्त

पराध विज्ञान में शिनाख्त की एक नई विधि जुड़ने वाली है जो बाल के विश्लेषण पर टिकी है। पहले भी बालों की मदद से व्यक्ति की पहचान की जाती रही है लेकिन वह विधि डीएनए के विश्लेषण पर आधारित रही है। उसके लिए ज़रूरी होता है कि बाल का वह हिस्सा आपके हाथ में आए जिसमें त्वचा का टुकड़ा जुड़ा हो। तथ्य यह है कि बाल का बाहर निकला हिस्सा तो मृत ऊतक होता है जिसमें डीएनए नहीं होता। नई तकनीक बालों में उपस्थित प्रोटीन के विश्लेषण पर आधारित है।

यह तो पहले से पता रहा है कि बालों में उपस्थित प्रोटीन की संरचना व्यक्ति-व्यक्ति में थोड़ी अलग-अलग होती है। प्रोटीन और कुछ नहीं, अमीनो अम्ल से जुड़कर बने पोलीमर होते हैं। अमीनो अम्ल एक खास क्रम में जुड़े होते हैं और इनका क्रम जेनेटिक कोड में विविधता के कारण अलग-अलग हो सकता है। यानी प्रोटीन में अमीनो अम्ल के क्रम से व्यक्ति की पहचान संभव है। लेकिन इसमें एक दिक्कत रही है।

बाल में से प्रोटीन प्राप्त करने की जो विधियां उपलब्ध हैं उनमें बाल को पीसने और तपाने के कई चरण होते हैं। इस दौरान अधिकांश प्रोटीन नष्ट हो जाता है। बचे-खुचे प्रोटीन से हमेशा इतनी विविधता को नहीं पकड़ा जा सकता कि शिनाख्त एकदम विश्वसनीय हो। लेकिन अब नज़ारा बदलने को है।

ज़ेंग ज़ांग के नेतृत्व में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ स्टैण्डर्ड्स एंड टेक्नॉलॉजी के वैज्ञानिकों ने एक नई तकनीक विकसित कर ली है। जर्नल ऑफ फॉरेंसिक साइन्सेज़ में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि नई तकनीक में पिसाई की ज़रूरत नहीं है, मात्र डिटर्जेंट के घोल में बाल को उबालकर पर्याप्त प्रोटीन मिल जाता है। इसके बाद मास स्पेक्ट्रोमेट्री नामक तकनीक से प्रोटीन का विश्लेषण करके ज़ांग की टीम ने कई सारे पेप्टाइड्स (प्रोटीन के छोटे-छोटे खंड) प्राप्त करके उनमें विविधता को रिकॉर्ड किया है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि निकट भविष्य में यह तकनीक अदालतों में पहुंच जाएगी। लेकिन उससे पहले देखना होगा कि दो व्यक्तियों में एक-से प्रोटीन मिलने की संभावना कितने प्रतिशत है। इसके अलावा इस बात की भी जांच करनी होगी कि बालों को डाई करने का प्रोटीन पर क्या असर पड़ता है और उम्र के साथ प्रोटीन की संरचना कैसे बदलती है। कुल मिलाकर, ‘निकट भविष्य’ उतना निकट भी नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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मलेरिया उन्मूलन की नई राह – नवनीत कुमार गुप्ता

दिसंबर 2019 में जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट में मलेरिया उन्मूलन के लिए उठाए गए कदमों के चलते भारत सुर्खियों में है। रिपोर्ट के अनुसार वैसे तो मलेरिया उन्मूलन के वैश्विक प्रयासों में स्थिरता आई है लेकिन पिछले वर्ष 22 करोड़ 80 लाख लोग मलेरिया की चपेट में आए थे जिनमें से लगभग 4 लाख लोगों की मौत हुई थी। अधिकतर मौतें अफ्रीका क्षेत्र में हुई थी।

भारत में मलेरिया का प्रकोप सदियों से हो रहा है। आज़ादी से पहले तक देश की लगभग एक चौथाई आबादी मलेरिया से प्रभावित होती थी। 1947 में भारत की 33 करोड़ आबादी में से 7.5 करोड़ लोग मलेरिया से पीड़ित हुए थे और 8 लाख लोग मारे गए थे।

इस घातक रोग पर काबू पाने के लिए भारत सरकार ने 1953 में ‘राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम’ लागू किया। यह कार्यक्रम काफी सफल रहा और इससे मलेरिया के रोगियों की संख्या में काफी कमी आई। इस कार्यक्रम की सफलता से उत्साहित होकर सरकार ने 1958 में ‘राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन’ कार्यक्रम आरंभ किया। डी.डी.टी. वगैरह के छिड़काव में ढील के कारण 1960 और 1970 के दशक में मलेरिया के मरीज़ों की संख्या तेज़ी से बढ़ गई, और 1976 में देश भर में 60 लाख 45 हज़ार केस दर्ज किए गए।  

मलेरिया की रोकथाम के तमाम प्रयासों के कारण रोगियों की संख्या काफी घट गई लेकिन 1990 के दशक में यह रोग नई ताकत के साथ वापस लौट आया। इसकी वापसी के कारणों में कीटनाशकों के खिलाफ मच्छरों की प्रतिरोधकता, खुले स्थानों में मच्छरों की बढ़ती तादाद एवं जल परियोजनाओं, शहरीकरण, औद्योगीकरण, मलेरिया परजीवी के रूप बदलने और क्लोरोक्विन तथा मलेरिया की अन्य दवाइयों के खिलाफ प्लाज़्मोडियम फाल्सिपेरम की प्रतिरोध क्षमता मुख्य थे। 

मलेरिया उन्मूलन की दिशा में ओडिशा एक प्रेरणा रुाोत के रूप में उभरकर सामने आया है। हाल के वर्षों में इसने अपने ‘दुर्गम अंचलारे मलेरिया निराकरण’ नामक पहल के माध्यम से मलेरिया के प्रसार पर अंकुश लगाने तथा उसके निदान और उपचार के व्यापक प्रयास किए हैं। इन प्रयासों के चलते बहुत ही कम समय में प्रभावशाली परिणाम प्राप्त हुए हैं। भारत में मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में प्रमुख मोड़ 2015 में पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के दौरान आया जब देश ने 2030 तक इस बीमारी को खत्म करने का संकल्प लिया था।

2017 में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने लगभग एक करोड़ मच्छरदानियां वितरित करने में मदद की। यह कदम सबसे जोखिमग्रस्त क्षेत्रों में सभी निवासियों को मलेरिया जैसे रोगों से सुरक्षा प्रदान करने के लिये आवश्यक था। इनमें आवासीय विद्यालयों के छात्रावास भी शामिल थे।

अपने निरंतर प्रयासों के परिणामस्वरूप ओडिशा ने साल 2017 में मलेरिया के मामलों और उसके कारण होने वाली मौतों में 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की। इस योजना का उद्देश्य राज्य के दुर्गम और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों के लोगों तक सेवाओं का विस्तार करना है।

स्पष्ट है कि मलेरिया उन्मूलन के वैश्विक प्रयासों को आगे बढ़ाने में भारत एक अग्रणी देश के रूप में सामने आया है। मलेरिया उन्मूलन के मामले में भारत की सफलता मलेरिया से सर्वाधिक प्रभावित अन्य देशों को इससे निपटने के लिये एक उम्मीद प्रदान करती है।

इसके अलावा सरकार ने विभिन्न माध्यमों से मलेरिया उन्मूलन सम्बंधी जागरूकता अभियान चलाया। मलेरिया उन्मूलन पर फिल्में एवं रेडियो कार्यक्रम बनाए गए। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया। इसके अलावा विज्ञान प्रसार द्वारा एडूसेट के माध्यम से मलेरिया सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों को देश भर में कार्यरत 52 केंद्रों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया गया। सीएसआईआर ने मलेरिया पर एक राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता का आयोजन विज्ञान प्रसार के साथ किया। इस प्रकार विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से मलेरिया सम्बंधी जागरूकता के ज़रिए लोगों का ध्यान बीमारी की गंभीरता और रोकथाम की ओर आकर्षित किया गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जेनेटिक परिवर्तित धान उगाएगा बांग्लादेश

धान की एक किस्म विकसित की गई है जिसमें ऐसे गुण जोड़ दिए गए हैं कि वह बचपन के अंधत्व की रोकथाम में मदद करता है। इसे गोल्डन राइस नाम दिया गया है। गोल्डन राइस का विकास लगभग 20 वर्ष पहले हुआ था और तब से ही यह जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों की बहस का केंद्र रहा है। समर्थकों का दावा है कि अंधत्व निवारण में मदद करके यह मानवता के लिए लाभदायक साबित होगा, वहीं विरोधियों का मत है कि इसे उगाने में कई खतरे हैं और विकाससील देशों में स्वास्थ्य सुधार की दृष्टि से यह अनावश्यक है क्योंकि स्वास्थ्य सुधार के लिए अन्य उपाय अपनाए जा सकते हैं।

अब लग रहा है कि शायद बांग्लादेश गोल्डन धान को उगाने की अनुमति देने वाले पहला देश बन जाएगा। इंग्लैंड के रॉथमस्टेड रिसर्च स्टेशन के पादप बायोटेक्नॉलॉजी विशेषज्ञ जोनाथन नेपियर का कहना है कि बांग्लादेश इसे अनुमति देता है, तो स्पष्ट हो जाएगा कि सार्वजनिक पैसे से खेती में बायोटेक्नॉलॉजी का विकास संभव है। पर्यावरणविद अभी इस तरह की फसलों का विरोध कर रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसी फसलों को उगाना पर्यावरण के साथ छेड़छाड़ करने जैसा है।

गोल्डन धान का विकास 1990 के दशक में जर्मन वैज्ञानिकों इंगो पॉट्राइकस और पीटर बेयर ने किया था। उन्होंने इसमें एक ऐसा जीन जोड़ा था जो धान के पौधे में विटामिन ए की मात्रा बढ़ाएगा। यह जीन उन्होंने मक्का से निकाला था। इस तरह विकसित पौधा उन्होंने सार्वजनिक कृषि संस्थानों को सौंप दिया था। विटामिन ए की कमी बचपन में होने वाले अंधत्व का एक प्रमुख कारण है। इसके अलावा, विटामिन ए की कमी से बच्चे ज़्यादा बीमार पड़ते हैं। बांग्लादेश जैसे जिन इलाकों में चावल मुख्य भोजन है, वहां विटामिन ए की कमी एक प्रमुख समस्या है। बांग्लादेश में लगभग 21 प्रतिशत बच्चे इससे पीड़ित हैं।

पिछले दो वर्षों में यू.एस., कनाडा, न्यूज़ीलैंड तथा ऑस्ट्रेलिया गोल्डन चावल के उपभोग की अनुमति दे चुके हैं किंतु इन देशों में इसे उगाने की कोई योजना फिलहाल नहीं है।

बांग्लादेश में जिस गोल्डन धान को उगाने की बात चल रही है वह वहीं की एक स्थानीय किस्म धान-29 में नया जीन जोड़कर तैयार की गई है। बांग्लादेश के कृषि वैज्ञानिकों का मत है कि इसे उगाने में कोई समस्या नहीं आएगी और गुणवत्ता में भी कोई फर्क नहीं है। बांग्लादेश राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (बी.आर.आर.आई.) ने अपनी रिपोर्ट मंत्रालय को सौंप दी है और जैव सुरक्षा समिति ने भी इसकी जांच लगभग पूरी कर ली है। लगता है जल्दी ही इसे मंज़ूरी मिल जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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पौधों ने ज़मीन पर घर कैसे बसाया

क गीले पत्थर पर जमे एक चिपचिपे लोंदे के अध्ययन से पता चला है कि पौधों को ज़मीन पर डेरा जमाने में शायद बैक्टीरिया की मदद मिली थी। दरअसल, 2006 में शैवाल वैज्ञानिक माइकल मेल्कोनियन पौधे एकत्रित करने में लगे हुए थे। जर्मनी के कोलोन विश्वविद्यालय के समीप एक स्थान पर उन्हें एक असाधारण शैवाल मिली। मेल्कोनियन और उनके साथियों ने अब इस शैवाल (स्पायरोग्लिया मस्किकोला – एस.एम.) और उसके निकट सम्बंधी (मीसोटेनियम एंडलिचेरिएनम – एम.ई.) के जीनोम का विश्लेषण कर लिया है और यह देखने की कोशिश की है कि इसमें वे जीन्स कौन-से हैं जिन्होंने ज़मीन पर जीवन को संभव बनाया है। ऐसे कम से कम दो जीन मिट्टी में पाए जाने वाले बैक्टीरिया से आए हैं।

जीव वैज्ञानिक कई वर्षों से यह समझने की कोशिश करते रहे हैं कि पौधों ने ज़मीन पर कैसे घर बनाया क्योंकि पानी से ज़मीन पर आना कई समस्याओं को जन्म देता है। इसे समझने का एक तरीका यह रहा है कि निकट सम्बंधी पौधों के जीनोम की तुलना की जाए। लेकिन अब शैवालों को भी इस तुलना में शामिल कर लिया गया है। उपरोक्त दो शैवाल (एस.एम. और एम.ई.) के जीनोम काफी छोटे हैं जबकि अन्य पौधों के जीनोम विशाल होते हैं। दूसरी बात यह है कि ये दोनों शैवाल नम सतहों पर पाई जाती हैं जो कुछ हद तक ज़मीन ही है।

मेल्कोनियन की टीम ने उक्त दो शैवालों के जीनोम की तुलना नौ ज़मीनी पौधों और अन्य शैवालों से की। देखा गया कि उक्त अर्ध-ज़मीनी शैवालों और नौ ज़मीनी पौधों में 22 जीन-कुलों के 902 जीन एक जैसे थे जबकि ये जीन अन्य जलीय शैवालों में नहीं थे। ये वे जीन हैं जो करीब 58 करोड़ वर्ष पूर्व उस समय विकसित हुए थे जब ये दो समूह एक-दूसरे अलग होकर अलग-अलग दिशा में विकसित होने लगे थे।

इनमें से दो साझा जीन-कुल वे हैं जो पौधों को सूखे व अन्य तनावों से निपटने में मदद करते हैं। कुछ अन्य शोध-समूह यह भी रिपोर्ट कर चुके हैं कि ज़मीन पर बसने वाले पौधों में कोशिका भित्ती बनाने वाले जीन्स और तेज़ प्रकाश को सहने की सामर्थ्य देने वाले जीन भी शामिल हैं।

शोधकर्ताओं को हैरानी इस बात पर हुई कि ये जीन मिट्टी के बैक्टीरिया में भी पाए जाते हैं तथा किसी अन्य जीव में नहीं पाए जाते। सेल नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि ये जीन बैक्टीरिया में से फुदककर उन जीवों में पहुंचे हैं जो उक्त शैवालों तथा ज़मीनी पौधों दोनों के पूर्वज थे। इस संदर्भ में यह गौरतलब है कि बैक्टीरिया जीन्स का आदान-प्रदान आपस में करते रहते हैं। इसके अलावा, यह भी दावा किया गया है कि बैक्टीरिया और ज़्यादा जटिल जीवों के बीच जीन्स का आदान-प्रदान होता है। कई शोधकर्ता इस दावे को सही नहीं मानते लेकिन इस अनुसंधान से पता चलता है कि शायद यह संभव है और इसने जैव विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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