जारी है मौसम की भविष्यवाणी के प्रयास – नरेन्द्र देवांगन

टली के आल्प्स पर्वतीय क्षेत्र में चार इंजनों वाला एक टर्बाइन चालित विमान उड़ान भर रहा था। विमान ने 1524 मीटर की ऊंचाई से गोता लगाया। इससे पहले कि वह फिर से अपनी सही अवस्था में आए, विमान सिर्फ 90 सेकंड में 213 मीटर की ऊंचाई तक आ चुका था। कुछ ही मिनटों में वह स्विट्ज़रलैंड के सेंट गाटहार्ड दर्रे में ऊपर-नीचे होता हुआ अपने पूर्व निश्चित लक्ष्य की ओर उड़ान भर रहा था। वह चारों ओर से बहुत ही खराब मौसम से घिर चुका था। 7 घंटे से भी अधिक समय तक यह विमान हिचकोले भरता हुआ आल्प्स के इर्द-गिर्द उड़ता रहा और अंत में भूमध्य सागर तथा 4 देशों की सीमाएं पार कर जेनेवा के कोयनट्रिन हवाई अड्डे पर उतरा।

विमान में सवार युरोप और अमरीका के 12 वायुमंडलीय वैज्ञानिकों में से किसी के भी चेहरे पर परेशानी का भाव नहीं था। उनके लिए यह कष्टकारी उड़ान उनके मिशन का एक हिस्सा थी। एल्पाइन एक्सपेरिमेंट (एलपेक्स) के अंतर्गत उड़ान भर रहे इस विमान का उद्देश्य यह अध्ययन करना था कि पर्वतमालाएं एक बड़े क्षेत्र के मौसम को किस तरह प्रभावित करती हैं। इस कार्य के लिए विमान में पूरी प्रयोगशाला थी जिसमें वायु गति मापने से ले कर बादलों में पानी की मात्रा आदि सभी चीज़ें दर्ज करने के लिए कंप्यूटर व अनेक सूक्ष्म यंत्र लगे हुए थे जो उन कारणों का पता लगा रहे थे जिनसे आल्प्स के मौसम से तेज़ हवाएं पैदा होती हैं और दक्षिण फ्रांस से होती हुई इटली के एड्रियाटिक सागर तट पर पहुंच कर तबाही मचाती हैं।

किसी भी वैज्ञानिक चुनौती की अपेक्षा मौसम की भविष्यवाणी करना अधिक रहस्यमय है। खेती-बाड़ी, परिवहन, जहाज़रानी, उड्डयन और यहां तक कि सैर-सपाटे के लिए भी मौसम की पूर्व जानकारी होना महत्वपूर्ण है। अनुमान है कि अकेले पश्चिमी युरोप के लिए ही मौसम की 7 दिन की पूर्ण विश्वसनीय भविष्यवाणी करने से हर साल करोड़ों डॉलर का फर्क पड़ जाता है।

मनुष्य सदियों से मौसम की भविष्यवाणी करने का प्रयास कर रहा है। युरोप के कुछ देशों में तो वर्षा और तापमान के 300 वर्ष पुराने रिकार्ड मिले हैं। परंतु पुराने समय के मौसम वैज्ञानिक बड़े-बड़े यंत्रों और गणना करने की उच्च क्षमता के बिना अपने अनुभवों के आधार पर ही भविष्यवाणियां किया करते थे।

लगभग 60 वर्ष पहले ब्रिटिश वैज्ञानिक एल. एफ. रिचर्डसन ने यह प्रमाणित किया कि भौतिकी के नियमों पर आधारित गणित के समीकरणों की सहायता से मौसम की भविष्यवाणी की जा सकती है। परंतु रिचर्डसन ने एक छोटे से इलाके के मौसम की 6 घंटे पहले भविष्यवाणी करने का जो प्रयास किया, उसकी गणना करने में उन्हें कई सप्ताह तक कड़ी मेहनत करनी पड़ी। अपने इस प्रयास के उपरांत वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि पूरे विश्व के मौसम की निरंतर भविष्यवाणी करने के लिए 64,000 व्यक्तियों को गणना करने वाली साधारण मशीनों पर लगातार काम करते रहना होगा।

1950 में गणितज्ञ जान फॉन नॉइमान और उनके सहयोगियों ने इस समस्या को कंप्यूटर की मदद से हल किया। आज के सशक्त और तेज़ कंप्यूटर तो इस विधि के मुख्य आधार हैं। लेकिन उन्नत तकनीकों ने मौसम के पूर्वानुमान को अत्यधिक खर्चीला बना दिया है। दुनिया की समस्त मौसम विज्ञान सेवाओं को चलाने की सालाना लागत दो अरब डॉलर से अधिक है।

आफनबाक (पश्चिमी जर्मनी) स्थित प्रेक्षणशाला में पूरी कमान कंप्यूटरों के हाथ में है। यहां विश्व के 9000 से अधिक केंद्रों से वायु की दिशा, आद्रता और वायु दाब के बारे में सूचनाएं एकत्र कर कंप्यूटर में डाली जाती हैं। कभी-कभी तो हज़ारों किलोमीटर दूर दर्ज किए गए आंकड़े भी घंटे भर के अंदर कंप्यूटर में भर दिए जाते हैं। जेनेवा स्थित विश्व मौसम विज्ञान संगठन विभिन्न देशों से तथा विमान चालकों, व्यापारिक जहाज़ों और मौसम उपग्रहों से प्राप्त मौसम के सैकड़ों नक्शे जारी करता है। युरोप का मौसम उपग्रह मेटियोसैट-2 भूमध्य रेखा के ऊपर 36,000 कि.मी. की ऊंचाई से हर आधे घंटे बाद वायुमंडल के चित्र भेजता है।

उपग्रहों द्वारा मौसम के बारे में एकत्रित की गई जानकारी हमें अंकों के रूप में प्राप्त होती है। इन अंकों में वायुमंडल की निश्चित समय की परिस्थितियों का पूर्ण विवरण होता है। इस विवरण से कंप्यूटर पूरे वायुमंडल का एक काल्पनिक चित्र तैयार करता है। इस चित्र में विभिन्न स्थान बिंदुओं की सहायता से दर्शाए जाते हैं। इस मानचित्र को गणित समीकरणों की बहुत ही जटिल प्रणाली में फिट किया जाता है। इसी से यह पता चलता है कि प्रत्येक बिंदु पर मौसम में कैसा-कैसा परिवर्तन होगा।

ऐसा माना जाता है कि इंग्लैंड के रीडिंग शहर में स्थित युरोपियन सेंटर फॉर मीडियम रेंज वेदर फोरकास्ट (ईसीएमडब्लूएफ) मौसम की भविष्यवाणी करने वाला सर्वश्रेष्ठ केंद्र है। इस केंद्र में लगा शक्तिशाली कंप्यूटर प्रति दिन लगभग 8 करोड़ सूचनाएं प्राप्त करता है तथा प्रति सेकंड एक साथ 5 करोड़ क्रियाएं कर सकता है।

मध्यम दूरी के मौसम की भविष्यवाणी करना किसी भी अकेले देश के तकनीकी और वित्तीय साधनों के बस के बाहर है, अत: यह केंद्र स्थापित किया गया। केंद्र के निदेशक के अनुसार, बादलों के लिए राष्ट्रों की सीमाओं का कोई महत्व नहीं है। अब 5-6 दिन तक के मौसम की सही भविष्यवाणी की जा सकती है। पहले केवल 2-3 दिन की भविष्यवाणी सही होती थी।

मौसम के बारे में दो-तीन दिन पहले की सूचना भी बहुत महत्वपूर्ण हो सकती है। नवंबर में जब इटली के दक्षिणी भाग में भूकंप आया तो ईसीएमडब्लूएफ ने आने वाले सप्ताह के दौरान ठंडे मौसम और तेज़ तूफान आने की बिलकुल सही भविष्यवाणी की थी। स्थानीय अधिकारी सचेत हो गए कि ढाई लाख बेघर भूकंप पीड़ितों के लिए गरम कपड़ों और शरण स्थलों की आवश्यकता होगी।

ईसीएमडब्लूएफ तथा अन्य सभी राष्ट्रीय केंद्रों द्वारा इस्तेमाल में लाए जाने वाले कंप्यूटर मॉडलों की बराबर सूक्ष्म ट्यूनिंग की जाती है ताकि वे सटीक काम करें। कई मौसम कार्यालयों में और भी सूक्ष्म ग्रिड लगाए गए हैं ताकि छोटे-छोटे क्षेत्रों के बारे में भविष्यवाणी की जा सके। कहते हैं कि 1982 में मध्य फ्रांस में तबाही मचाने वाले बर्फीले तूफान के बारे में पहले से भविष्यवाणी नहीं की जा सकी थी क्योंकि वह इलाका ग्रिड के हिसाब से बहुत ही छोटा था।

इसके बाद फ्रांस में सूक्ष्म ग्रिड इस्तेमाल किया जाने लगा जो बहुत कम दूरी पर स्थित बिंदुओं को भी अलग-अलग दर्शा सकता है। मौसम वैज्ञानिकों का लक्ष्य इन मॉडलों को और अधिक सटीक बनाना तथा पूर्वानुमान लगाने की सीमा को 10 दिन तक बढ़ाना है।

वैज्ञानिक मौसम की भविष्यवाणी के दूसरे पहलुओं पर भी काम करने लगे हैं। जैसे बहुत ही कम अवधि यानी कुछ ही घंटों के मौसम की जानकारी देना। इसे ‘नाऊकास्टिंग’ यानी तत्काल पूर्वानुमान कहते हैं। अलबत्ता, अल्प अवधि की ये भविष्यवाणियां पूरी तरह पक्की नहीं होतीं। जैसे ब्रिाटेन का मौसम कार्यालय आसमान साफ रहने या कहीं-कहीं वर्षा होने की भविष्यवाणी तो कर सकता है परंतु ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि छिटपुट वर्षा कहां होगी तथा कहां ज़्यादा होगी।

इन प्रश्नों के उत्तर नाऊकाÏस्टग द्वारा दिए जा सकते हैं। राडार और उपग्रहों से प्राप्त संकेतों के ज़रिए स्थानीय मौसम के बारे में 6 घंटे पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। आंकिक मॉडल से मौसम सम्बंधी जानकारी जहां हमें केवल वायुमंडल के तापमान, नमी और हवा की दिशा के रूप में मिलती है, वहां राडार की आंखें वर्षा को भी देख सकती हैं तथा कुछ किलोमीटर तक उसकी स्थिति दर्शा सकती है। उपग्रहों से प्राप्त इंफ्रारेड चित्रों और राडार की मदद से मौसम वैज्ञानिक बिजली गिरने अथवा जल प्लावन जैसी छोटी-मोटी घटनाओं के बारे में भविष्यवाणी कर सकते हैं। इसके अलावा कंप्यूटरों द्वारा यह भी मालूम कर सकते हैं कि वर्षा तूफान का रुख किधर होगा तथा उसकी तीव्रता में क्या-क्या परिवर्तन आ सकते हैं।

बहुत ही छोटे क्षेत्रों के मौसम का अध्ययन दक्षिण फ्रांस के तूलूज स्थित न्यू मेटियोरलॉजिकल नेशनल सेंटर में भी किया जाता है। इस केंद्र में अनुसंधानकर्ता जिस स्केल मॉडल की सहायता से परीक्षण करते हैं, वह स्थानीय क्षेत्रों की रूपरेखा का आंकिक मॉडल न हो कर भौतिक मॉडल है। 10 मीटर लंबे और 3 मीटर चौड़े इन मॉडलों को पानी के एक बड़े टैंक में रखा जाता है। इसके बाद पानी में हलचल पैदा की जाती है ताकि मॉडल के ऊपर और आसपास से पानी ठीक उसी तरह गुज़रे जिस तरह वास्तविक पर्वतों और घाटियों में से हवा गुज़रती है। अनुसंधानकर्ता लेसर किरणों की सहायता से पानी के वेग और हलचल को माप कर उसके आधार पर स्थानीय मौसम का एक विस्तृत मानचित्र तैयार कर लेते हैं।

मौसम की भविष्यवाणी के क्षेत्र में प्रगति धीमी अवश्य है, लेकिन नाऊकॉस्टिंग से लेकर मध्यम दूरी की भविष्यवाणी तक का दृष्टिकोण मौसम विज्ञान की प्रगति के लिए अति महत्वपूर्ण है। एलपेक्स के वैज्ञानिक डॉ. योआकिम क्यूटनर का कहना है, ‘जब तक आप यह नहीं समझेंगे कि मौसम की रचना कैसे होती है, तब तक आप उसकी सही-सही भविष्यवाणी नहीं कर सकते।’ (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :https://www.weathertoski.co.uk/s/cc_images/cache_2475560870.jpg?t=1519640271

फुटबॉल के आकार का उल्कापिंड खेत में गिरा

पूर्वी भारत के एक गांव में 22 जुलाई के दिन शायद एक छोटा-सा उल्कापिंड चावल में खेत में गिरा है। समाचार एजेंसी सीएनएन के अनुसार, बिहार के महादेव गांव में चावल के खेत में भरे पानी में लगभग 14 किलोग्राम वज़नी एक फुटबॉल के आकार की अजीब-सी चट्टान गिरी और खेत में इसकी वजह से गड्ढा बन गया।

फिलहाल इस रहस्यमयी चट्टान को बिहार के एक संग्रहालय में रखा गया है, लेकिन जल्द ही इसे बिहार के श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र में स्थानांतरित कर दिया जाएगा, ताकि विशेषज्ञ यह पता लगा सकें कि यह वास्तविक उल्कापिंड है या कोई मामूली पत्थर।

उल्कापिंड अंतरिक्ष की चट्टानें हैं जो हमारे वातावरण में घुसने के बाद पूरी तरह भस्म हो जाने से बचकर पृथ्वी पर गिरती हैं। आम तौर पर इस तरह के पिंडों में चुंबकीय गुण होते हैं क्योंकि वे अक्सर लौह व निकल धातुओं से बने होते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी एक बयान के अनुसार इस संभावित उल्कापिंड में चुंबकीय गुण पाए गए हैं।

यूं तो हमारे ग्रह पर प्रतिदिन लगभग 100 टन से अधिक धूल और रेत के आकार के उल्कापिंडों की बौछार होती है लेकिन बड़े पिंड बहुत कम गिरते हैं। नासा के अनुसार, पिछले वर्ष एक कार के आकार का क्षुद्रग्रह एक बड़े आग के गोले के रूप में वायुमंडल में दाखिल होकर ज़मीन से टकराया था।

हर दो-एक हज़ार साल में, फुटबॉल के मैदान के आकार का उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है और स्थानीय स्तर पर नुकसान पहुंचाता है। हर बीसेक लाख सालों में ही में कोई इतना विशाल उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है जिसमें पूरी मानव सभ्यता को नष्ट करने की क्षमता होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://c.ndtvimg.com/2019-07/1b8fhdm_bihar-madhubani-meteorite-afp_625x300_26_July_19.jpg https://img.purch.com/w/660/aHR0cDovL3d3dy5saXZlc2NpZW5jZS5jb20vaW1hZ2VzL2kvMDAwLzEwNi82MzUvb3JpZ2luYWwvR2V0dHlJbWFnZXMtMTE1NzYyNDU0OS5qcGc=

एक दुर्लभ ‘मस्तिष्क-भक्षी’ अमीबा बना मौत का कारण

हालिया समाचार रिपोर्ट के अनुसार उत्तरी कैरोलिना के स्थानीय वॉटर पार्क के तालाब में तैराकी के बाद एक 59 वर्षीय व्यक्ति की दुर्लभ ‘मस्तिष्क-भक्षी’ अमीबा के संक्रमण से मृत्यु हो गई।

नार्थ कैरोलिना डिपार्टमेंट ऑफ हेल्थ एंड ह्यूमन सर्विसेज़ (एनसीडीएचएच) द्वारा जारी किए गए एक बयान के अनुसार उस व्यक्ति में एक एककोशिकीय जीव नेगलेरिया फाउलेरी पाया गया। यह जीव कुदरती रूप से झीलों और नदियों के गर्म मीठे पानी में पाया जाता है। इस प्रकार का संक्रमण अक्सर अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में पाया जाता है जहां लंबी गर्मियों में पानी का तापमान बढ़ जाता है।

गौरतलब है कि पानी में उपस्थित नेगलेरिया फाउलेरी को निगलने से तो संक्रमण नहीं होता, लेकिन अगर यह पानी नाक से ऊपर चला जाए तो अमीबा मस्तिष्क में प्रवेश कर सकता है। यह मस्तिष्क में ऊतकों को नष्ट कर देता है, जिसके परिणामस्वरूप मस्तिष्क में सूजन के बाद आम तौर पर मौत हो जाती है।

वैसे तो यह अत्यंत दुर्लभ संक्रमण है; 1962 से लेकर 2018 तक अमेरिका में नेगलेरिया फाउलेरी के सिर्फ 145 मामले सामने आए हैं। लेकिन इस बीमारी की मृत्यु दर काफी उच्च है। अभी तक के 145 मामलों में सिर्फ 4 लोग ही बच पाए हैं।

भारत में भी इसके कुछ मामले सामने आए हैं। अन्य इलाकों के अलावा, मई 2019 में केरल के मालापुरम ज़िले के एक 10 वर्षीय बच्चे की मृत्यु भी इसी परजीवी के कारण हुई। वैसे कई रोगियों को तात्कालिक निदान द्वारा बचा भी लिया गया। नार्थ कैरोलिना में यह समस्या पानी में तैरने के कारण हुई जबकि भारत में अधिकांश संक्रमण वाटर-पार्क में दूषित पानी के इस्तेमाल से हुए हैं।

सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार पानी में नेगलेरिया फाउलेरी की उपस्थिति का पता लगाने का कोई त्वरित परीक्षण नहीं है। इस जीव की पहचान करने में कुछ सप्ताह लग सकते हैं। महामारीविद् डॉ. ज़ैक मूर का सुझाव है कि लोगों को यह जानकारी होना चाहिए कि यह जीव उत्तरी केरोलिना में गर्म मीठे पानी की झीलों, नदियों और गर्म झरनों में मौजूद है, इसलिए ऐसी जगहों पर जाएं तो विशेष ध्यान रखना चाहिए।

एनसीडीएचएच ने लोगों को सुझाव दिया है कि जब भी झील वगैरह के गर्म मीठे पानी में तैरने के लिए जाएं तो सावधानी बरतें कि नाक से पानी अंदर न जाएं। लोग विशेष रूप से पानी के उच्च तापमान और कम स्तर के दौरान गर्म ताज़े पानी में तैरने से बचकर भी इस जोखिम को कम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://img.purch.com/h/1400/aHR0cDovL3d3dy5saXZlc2NpZW5jZS5jb20vaW1hZ2VzL2kvMDAwLzEwNi83MjIvb3JpZ2luYWwvbmFlZ2xlcmlhLWZvd2xlcmkuanBn

वैमानिक शास्त्र और पहली उड़ान का मिथकीकरण – ज़ुबैर सिद्दिकी

पिछली एक शताब्दी से अधिक समय से हर वर्ष भारतीय विज्ञान कांग्रेस का आयोजन किया जा रहा है जिसका मुख्य उद्देश्य भारत में वैज्ञानिक अनुसंधान और वैज्ञानिक सोच को प्रोत्साहन देना है। आम तौर पर ऐसे आयोजनों के बारे में चर्चा कम ही होती है, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वेद-पुराणों से विज्ञान को जोड़कर देखने वाले दावों के कारण यह सुर्खियों में है। ऐसा नहीं है कि अवैज्ञानिक और अतार्किक दावे पहले नहीं किए जाते थे लेकिन पिछले कुछ वर्षों से अधिक देखने को मिल रहे हैं।

वर्ष 2015 में इसी आयोजन में आनंद बोड़स और उनके साथी अमेय जाधव ने वैदिक युग में विमानन पर एक ‘शोध पत्र’ प्रस्तुत किया था। उनका दावा था कि केवल एक दिशा में उड़ने वाले आज के आधुनिक विमानों की तुलना में प्राचीन भारत के विमान अधिक उन्नत थे और हर दिशा में उड़ने में सक्षम थे। ये विमान काफी विशाल थे और अन्य ग्रहों पर भी उड़ान भर सकते थे। यह दावा करने वाले बोड़स स्वयं पायलट प्रशिक्षण स्कूल, कोलकाता के प्रधानाचार्य रहे हैं और फिलहाल एक स्कूल में शिक्षक हैं। उन्होंने अपने शोध पत्र में  प्रमाण के रूप में वैमानिकी प्रकरण (वैमानिक शास्त्र) नामक ग्रंथ का हवाला दिया था।

जब भी हवाई जहाज़ के अविष्कार की बात होती है तो इसका श्रेय राइट बंधुओं को दिया जाता है। लेकिन भारतीय विज्ञान कांग्रेस के इस पर्चे और फिर कुछ न्यूज़ चैनलों और एक फिल्म (हवाईज़ादा) में बताया गया कि यह आविष्कार एक भारतीय ने किया था। टी.वी. न्यूज़ चैनलों में बताया गया कि राइट बंधुओं ने हवाई जहाज़ का आविष्कार 17 दिसंबर 1903 को किया था जबकि उससे लगभग आठ साल पहले शिवकर बापूजी तलपदे नाम के एक मराठा ने 1895 में हवाई जहाज़ तैयार कर लिया था। बताया गया कि यह हवाई जहाज़ 1500 फीट ऊपर उड़ा और फिर वापस नीचे गिर गया। इसका परीक्षण मुंबई के एक समुद्र तट पर किया गया था।

तो सच्चाई क्या है? यहां दो सवाल हैं – पहला कि क्या तलपदे ने ऐसा कोई आविष्कार किया था और दूसरा कि क्या उन्हें ऐसा करने की प्रेरणा या जानकारी किसी प्राचीन (वैदिक) ग्रंथ से मिली थी। इसी से जुड़ा तीसरा सवाल यह भी है कि क्या ऐसा कोई वैदिक ग्रंथ अस्तित्व में भी है।

उड़ान के विवरण

शिवकर बापूजी तलपदे के जीवन और उनके आविष्कार का विवरण काफी उलझा हुआ है। कुछ विवरणों के अनुसार, उन्होंने वैदिक ग्रंथ वैमानिकी प्रकरण में उल्लेखित विमानन के विचारों को अपनाकर एक विमान बनाया था और बड़ौदा के तत्कालीन महाराज और कई अन्य लोगों की उपस्थिति में 1895 में उड़ाया था। कुछ विवरण बताते हैं कि यह प्रयोग उन्होंने मुंबई के नज़दीक मड टापू पर किया था जबकि अन्य विवरण गिरगांव चौपाटी को मौका-ए-वारदात बताते हैं। कुछ ने दावा किया है कि तलपदे ने र्इंधन के रूप में पारे का इस्तेमाल किया था, जबकि अन्य का कहना है कि इसमें किसी प्रकार के मूत्र का उपयोग किया गया था।

तलपदे के जीवन पर सबसे विस्तृत विवेचन वास्तुविद इतिहासकार प्रताप वेलकर ने लगभग 20 साल पहले लिखी अपनी किताब महाराष्ट्रचा उज्जवल इतिहास में किया है। वेलकर ने बड़ौदा के महाराज के उपस्थित होने की बातों को खारिज करते हुए कहा है कि यह एक खेल आयोजन की तरह था जिसमें तलपदे के कुछ साथी मौजूद थे।

वेलकर के अनुसार, तलपदे का विमान ‘मारुतसखा’ (कहीं-कहीं इसे ‘मारुतशक्ति’ भी कहा गया है) बांस से बनी एक बेलनाकार संरचना थी। यह पंखों वाला ग्लाइडर नहीं था जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है। ईंधन के रूप में तरल पारा इस्तेमाल किया गया था। वेलकर के मुताबिक पारा सूर्य के प्रकाश के साथ अभिक्रिया करता है तो उससे हाइड्रोजन उत्पन्न होती है। चूंकि हाइड्रोजन हवा की तुलना में हल्की है, यह विमान को उड़ने में मदद करती है। वैसे बाद में किसी ने यह भी कहा है कि दरअसल पारे का उपयोग पारे के आयनों की मदद से विमान को उड़ाने का था। वेलकर कहते हैं कि विमान न तो बहुत ऊंचा उड़ा और ना ही हवा में बहुत लंबे समय तक रहा। यह सिर्फ थोड़ी ऊंचाई तक गया और कुछ ही मिनटों में दुर्घटनाग्रस्त हो गया। इस कथा के कई अलग-अलग विवरण उपलब्ध हैं।

हवाईज़ादा

वर्ष 2016 में इस विषय पर हवाईज़ादा नाम से एक बॉलीवुड फिल्म रिलीज़ हुई थी। कहानी को रोचक बनाने के लिए कुछ और बाहरी विचारों को भी शामिल किया गया। फिल्म के मुताबिक यह उड़ान सफल रही थी, और इसके आविष्कारक ने खुद इसे उड़ाया था। दूसरी ओर, इस घटना के विवरणों में यह भी कहा गया है कि कोशिश तो मानव रहित विमान बनाने की थी।

हवाईज़ादा के निर्देशक विभु पुरी का दावा है कि उन्होंने करीब चार साल तक शोध किया है। उनके अनुसार कुछ चीज़ें विरोधाभासी लगीं, इसलिए उन्होंने एक काल्पनिक संस्करण बनाया। उनका कहना है कि उनकी फिल्म एक बायोपिक तो नहीं है लेकिन सच्ची घटनाओं पर आधारित है। फिल्म में बापू तलपदे का किरदार निभाने वाले आयुष्मान खुराना का कहना है कि हवाईज़ादा कोई डाक्यूमेंट्री नहीं है बल्कि मनोरंजन के लिए बनाई गई फिल्म है।

वैमानिक शास्त्र

कथित रूप से जिस वैमानिकी प्रकरण को पढ़कर व जिसके आधार पर तलपदे ने मारुतसखा बनाया था उसके बारे में कहा जाता है कि हज़ारों साल पहले भारद्वाज नाम के एक ऋषि ने उसकी रचना की थी। इसमें आठ अध्यायों में लगभग 3000 श्लोक हैं और दावा है कि वैदिक महाकाव्यों में वर्णित ‘विमान’ उन्नत स्तर की उड़ने वाली मशीनें थीं।

इस विषय पर एक मराठी पुस्तक के लेखक आर्य समाज, पुणे के सचिव माधव देशपांडे का दावा है कि उन्हें तलपदे द्वारा हस्तलिखित कुछ नोट्स मिले हैं। देशपांडे का कहना है कि वायु वेदनाओं का सिद्धांत हमारे वेदों में मौजूद था और बापू तलपदे ने उसी सिद्धांत को साकार रूप प्रदान किया था।

दूसरी ओर, 1974 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बैंगलुरु के वैज्ञानिकों ने ग्रंथ में वर्णित सिद्धांतों की जांच करने के बाद एक अध्ययन प्रकाशित किया, और निष्कर्ष निकाला कि यह रचना प्राचीन तो कदापि नहीं है। उनके अनुसार यह ग्रंथ 1904 से पहले का कदापि नहीं है।

ग्रंथ के अध्ययन से यह भी साफ हो जाता है कि इसमें प्रस्तुत अधिकांश सिद्धांत कामकाजी स्तर पर असंभव हैं। तलपदे द्वारा बनाए गए मॉडलों में कोई भी उड़ने में सफल नहीं हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार ग्रंथ में वर्णित विमानों में कोई वास्तविकता नहीं है बल्कि सब कुछ मनगढ़ंत है। आगे उनका कहना है कि ग्रंथ में वर्णित किसी भी विमान में उड़ान भरने के गुण या क्षमताएं नहीं हैं। उड़ान के दृष्टिकोण से इनकी संरचना अकल्पनीय रूप से भयावह है और प्रणोदन के जो सिद्धांत इसमें प्रस्तुत किए गए हैं, वे उड़ान में मदद करने के बजाय इसका प्रतिरोध करते हैं।

इसमें ‘समरांगण सूत्रधार’ नामक अध्याय में तो यह भी कहा गया है कि इस ज्ञान का उपयोग बुरे उद्देश्यों के लिए नहीं किया जाने लगे इसलिए इसके निर्माण और अन्य विशेषताओं का विस्तृत वर्णन नहीं दिया जा सकता है। वैज्ञानिकों का निष्कर्ष था कि “इतिहास में हमें दुर्भाग्यपूर्ण बात यह लगती है कि अतीत में कुछ भी मिल जाए, तो कुछ लोग बगैर किसी प्रमाण के उसका महिमामंडन और गुणगान करने लगते हैं। हमें लगता है कि प्रकाशन से जुड़े लोग ही पांडुलिपियों के इतिहास को तोड़ने-मरोड़ने या छिपाने के लिए पूर्णत: दोषी हैं।”

वेलकर बताते हैं कि चौपाटी पर शो की विफलता के बाद, तलपदे ने एक और विमान बनाने के लिए धन जुटाने की कोशिश की। उन्होंने बड़ौदा के तत्कालीन महाराजा और अहमदाबाद में व्यवसायियों के एक समूह से अपील भी की थी जिसका रिकॉर्ड भी मौजूद है। कुछ संस्करणों में बताया गया है कि चौपाटी शो में इस्तेमाल किया गया क्षतिग्रस्त विमान मुंबई के मलाड इलाके में एक गोदाम में रखा गया था। बाद में विमान को टाटा कंपनी के रैलिस ब्रादर्स को बेच दिया गया था, जबकि कुछ अन्य लोगों के अनुसार इसे बैंगलुरु में हिंदुस्तान एयरोनॉटिक्स को दे दिया गया था। जब वेलकर ने इसकी और जानकारी प्राप्त करने की कोशिश की तो पता चला कि इससे जुड़े कागज़ात केंद्रीय रक्षा मंत्रालय में हैं। जिस अंतिम व्यक्ति ने इनका विस्तार से अध्ययन किया था उन्होंने बताया कि तलपदे असफल रहे थे।

उड़ने की कल्पना तो बहुत लोगों ने की है। शिवकर बापूजी तलपदे का काम भले ही कामयाब न रहा हो लेकिन वास्तव में विमान तैयार करना कोई मामूली बात नहीं। हो सकता है उनका विमान कथित वैमानिक शास्त्र में हवाई जहाज़ के कथित वर्णन से प्रेरित था, मगर मुख्य बात यह है कि उन्होंने इस पर काम किया था, इसे साकार रूप देने की कोशिश की थी। वेलकर के अनुसार विमान तैयार करने के लिए बापूजी तलपदे ने काफी कोशिश की होगी।

उनकी इस कहानी को स्कूल सिलेबस में शामिल करवाने के लिए एक ऑनलाइन हस्ताक्षर अभियान चलाया गया था। कुछ लोगों का ऐसा मानना है कि अंग्रेज़ नहीं चाहते थे कि कोई भारतीय पहले हवाई जहाज़ का निर्माण करे, इसलिए उन्होंने यह सुनिश्चित किया कि तलपदे का काम असफल रहे और वे इस विषय में शोध जारी ना रख सकें।

यह बात तो सही है कि ऐसे योगदान पर चर्चा ज़रूर होनी चाहिए और इसे किताबों के माध्यम से छात्रों को बताने में भी कोई हर्ज नहीं है। लेकिन मुख्य बात तो यह है कि छात्रों को इस बारे में क्या पढ़ाया जाए। ठोस सबूतों के अभाव में, हम यह नहीं कह सकते कि यह प्रयास सफल रहा था। लेकिन यह सिखाना भी गलत न होगा कि तलपदे ने कोशिश की थी, जो अधिक महत्वपूर्ण है।

जब कभी भी ‘प्राचीन प्रौद्योगिकी’ के शिक्षण की बात हो तो लगन और उद्यमिता की भावना को विकसित करना चाहिए। आज के हज़ारों-लाखों शिवकर बापूजी तलपदे को कोशिश करने और असफल होने के लिए तैयार होना चाहिए क्योंकि कई असफलताएं ही सफलता के एक दुर्लभ क्षण को संभव बनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://img.huffingtonpost.com/asset/5c3515392400003300c3ff41.jpeg?ops=scalefit_630_noupscale
https://img.huffingtonpost.com/asset/5c3515392400003500c3ff3f.jpeg?ops=scalefit_630_noupscale
https://img.huffingtonpost.com/asset/5c3515393c00005006102633.jpeg?ops=scalefit_630_noupscale

अभाज्य संख्याओं का महत्व – प्रतिका गुप्ता

भी कुछ महीनों पहले खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने अब तक की सबसे बड़ी अभाज्य (प्राइम) संख्या ढूंढ ली है। यह संख्या है 28,25,89,933-1। इस संख्या में 2 करोड़ 48 लाख 62 हज़ार 48 अंक हैं। यदि इस संख्या को साधारण कॉपी पर लिखें तो तकरीबन 40 पन्ने भर जाएंगे। ऐसा नहीं है कि वैज्ञानिकों ने पहली बार बहुत बड़ी प्राइम संख्या पता की हो। इसके पहले उन्होंने जो संख्या पता की थी वह 27,72,32,917-1 थी। लेकिन क्यों वे बड़ी-से-बड़ी अभाज्य संख्याएं पता करना चाहते हैं।

इसे जानने से पहले हम थोड़ा अभाज्य संख्या के बारे में समझ लेते हैं। अभाज्य संख्या वह प्राकृत संख्या है जो सिर्फ 1 और स्वयं उसी संख्या द्वारा विभाजित होती है, इन संख्याओं में अन्य किसी संख्या से पूरा-पूरा भाग नहीं जाता। जैसे – 2, 3, 5, 7, 11, 17…। अभाज्य संख्याएं अनंत हैं। इन संख्याओं की कुछ खूबियां भी हैं। जिनके कारण इनकी उपयोगिता है।

वैसे जब हमें स्वास्थ्य, चिकित्सा, नई तकनीक आदि से जुड़ी खोज या आविष्कार की खबरें मिलती हैं तो हमारे मन में कभी यह सवाल नहीं उठता कि इनकी खोज की क्या ज़रूरत है। लेकिन जब यह सुनने में आता है कि वैज्ञानिकों ने अब और भी बड़ी अभाज्य संख्या पता की है तो मन में सवाल उठता है कि इतनी बड़ी संख्या पता करने की क्या ज़रूरत है जबकि हम अपनी आम ज़िंदगी में इतनी बड़ी संख्याओं के साथ काम भी नहीं करते और वे भी अभाज्य संख्या।

सच्चाई इसके विपरीत है। सीधे तौर पर ना सही, लेकिन वर्तमान में इन संख्याओं का हम अपनी ज़िंदगी में भरपूर उपयोग करते हैं। आज अधिकतर लोग टेलीफोन, इंटरनेट सेवाओं, स्टोरेज डिवाइस, क्रेडिट कार्ड, एटीम, स्मार्ट फोन, ऐप्स, गेम्स, व्हाट्सऐप जैसे मेसेंजर ऐप्स वगैरह कई तकनीकों का उपयोग करते हैं और इनका उपयोग दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। यदि हम इन तकनीकों का निश्चितता से और सुरक्षित ढंग से उपयोग कर पाते हैं, तो इसका श्रेय काफी हद तक अभाज्य संख्याओं को जाता है।

जितनी तेज़ी से इंटरनेट सुविधाओं, कंप्यूटर जैसी तकनीकों का उपयोग बढ़ रहा है, उतना अधिक हमारा महत्वपूर्ण डैटा डिजिटल रूप में स्टोर और ट्रांसफर हो रहा है। सूचना या डैटा महत्वपूर्ण है तो उसे सुरक्षित रखने की भी ज़रूरत है। इसलिए डैटा को सुरक्षित रखने के लिए विभिन्न कूटलेखन सूत्रविधियों (एल्गोरिदम) का सहारा लिया जाता है। (कूटलेखन किसी संदेश को कूट संदेश यानी सीक्रेट मैसेज में बदलने का तरीका है ताकि वांछित व्यक्ति ही उसे पढ़ सके।) और इन कूटलेखन सूत्रविधियों में अभाज्य संख्याओं की अहम भूमिका है।

सुरक्षित तरीके से संदेश भेजने में अक्सर आरएसए एल्गोरिद्म का उपयोग किया जाता है। आरएसए एल्गोरिदम का आविष्कार मूलत: तीन गणितज्ञों ने संयुक्त रूप से किया था: रॉन रिवेस्ट, अदी शमीर और लियोनार्ड एडलमैन। तब से इसमें कई सुधार हो चुके हैं।

इस एल्गोरिद्म में दो कुंजियों (key) का इस्तेमाल किया जाता है: सार्वजनिक या पब्लिक कुंजी और निजी या प्रायवेट कुंजी। जैसा कि नाम से ज़ाहिर है सार्वजनिक कुंजी सभी को उजागर होती है जबकि निजी कुंजी गुप्त रखी जाती है। जिसे संदेश भेजा जाना है उसकी सार्वजनिक कुंजी से संदेश को कूटबद्ध किया जाता है। और संदेश पाने वाला उसे अपनी निजी कुंजी की मदद से पढ़ लेता है। ये दोनों कुंजियां संदेश प्राप्त करने वाले द्वारा बनाई जाती हैं। वह सार्वजनिक कुंजी तो जगज़ाहिर कर देता है लेकिन निजी कुंजी गुप्त रखता है।

कुंजियां

सार्वजनिक कुंजी वास्तव में दो संख्याएं होती है। इसमें पहली संख्या किन्हीं भी दो प्राइम संख्याओं का गुणनफल होती है, और दूसरी संख्या इन दोनों प्राइम संख्याओं के आधार पर तय की जाती है। इसी तरह निजी कुंजी भी दो संख्याएं होती हैं।

यहां एक उदाहरण की मदद से इन कुंजियों के निर्माण की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करते हैं। यहां हम सार्वजनिक कुंजी को N व e से और निजी कुंजी को d से प्रदर्शित करेंगे।

N का चुनाव

1. पहले कोई भी दो प्राइम संख्याएं चुनी जाती हैं। माना कि हमने यहां 11 और 17 चुनी।

2. फिर N की गणना के लिए इन दोनों प्राइम संख्याओं का आपस में गुणा किया जाता है (11 × 17)। और प्राप्त गुणनफल N होता है। यानि N = 187।

e का चुनाव

1. सबसे पहले चुनी गई दोनों प्राइम संख्याओं (11 और 17) में से एक-एक घटाते हैं।

2. इस तरह प्राप्त संख्याओं (10 और 16) का आपस में गुणा करते हैं (प्राप्त गुणनफल को हम Q कहेंगे)।

3. e के लिए एक ऐसी संख्या चुनी जाती है जो Q से छोटी हो और उसका Q में पूरा-पूरा भाग ना जाता हो। यहां Q = 160। तो e के लिए 160 से छोटी कोई भी संख्या चुनी जा सकती है जिसका 160 में पूरा-पूरा भाग ना जाता हो। चलिए e के लिए 7 चुन लेते हैं। तो सार्वजनिक कुंजी हुई (N =187, e = 7)

d का चुनाव

1. सबसे पहले Q में 1 जोड़ा जाता है, 160 अ 1 = 161।

2. अब इस प्राप्त संख्या में e से भाग दिया जाता है। प्राप्त भागफल d होता है। यहां, 161 में 7 का भाग देने पर प्राप्त भागफल 23 है। तो निजी कुंजी यानी d है 23।

कूटलेखन

संदेश भेजने की प्रक्रिया में सबसे पहले जो भी संदेश भेजा जाना है उसे किसी एल्गोरिद्म की मदद से संख्या में बदला जाता है। फिर सार्वजनिक कुंजी की सहायता से संदेश कूट किया जाता है। माना कि भेजा जाने वाला संदेश है 3। सार्वजनिक कुंजी 187 व 7 है।

1. संदेश कूट करने के लिए पहले (संदेश संख्या)e की गणना की जाती है। यहां e = 7 है। इस प्रकार 37 (3×3×3×3×3×3×3) हल करने पर मिला 2187।

2. अब प्राप्त संख्या में N से भाग दिया जाता है। फिर जो शेषफल बचता है वही संदेश के रूप में भेजा जाता है। यहां 2187 में 187 का भाग देने पर शेषफल बचा 130। तो भेजा जाने वाला कूट संदेश है 130।

3. निजी कुंजी (d) की मदद से संदेश पढ़ा जाता है। यहां हमारी निजी कुंजी है 23। तो संदेश पढ़ने के लिए सबसे पहले (प्राप्त संदेश)d हल किया जाता है, यहां (130)23। इसका मतलब है कि 130 में 130 का गुणा 23 बार किया जाएगा।

4. हल करने पर प्राप्त संख्या में N से भाग दिया जाता है। भाग देने पर जो शेषफल मिलता है वही संदेश होता है। यहां हल करने पर मिला 41753905 × 1041। इसे 187 से भाग देने पर जो शेषफल मिला वह 3 होगा। और यही हमारा वास्तविक संदेश था।

गौर करने वाली बात है कि हमने उदाहरण के लिए छोटी अभाज्य संख्याओं का चुनाव किया, वास्तव में ये संख्याएं काफी बड़ी होती हैं।

लेकिन बड़ी प्राइम संख्याएं ही क्यों? दरअसल एक से बड़ी किसी भी संख्या के गुणनखंड अभाज्य संख्याओं के रूप में प्राप्त किए जा सकते हैं। उदाहरण के लिए 70 को 2×5×7 के रूप में लिखा जा सकता है। इन्हें अभाज्य गुणनखंड कहते हैं। गणितज्ञों के अनुसार किन्हीं भी दो बड़ी अभाज्य संख्याओं का गुणनफल पता करना तो आसान है लेकिन अभाज्य गुणनखंड पता करना काफी मुश्किल है, यहां तक कि सुपर कंप्यूटर के लिए भी। ऐसा नहीं है कि बहुत बड़ी संख्याओं के अभाज्य गुणनखंड पता नहीं किए जा सकते। पता तो किए जा सकते हैं लेकिन बहुत अधिक समय लगता है, शायद कई वर्ष। इसलिए अभाज्य संख्याएं जितनी बड़ी होंगी डैटा उतना अधिक सुरक्षित रहेगा।

कूटलेखन का उपयोग इंटरनेट के ज़रिए पैसों के लेन-देन की सुरक्षा में, नियत समय में संदेश पहुंचाने में, सूचना भेजे जाने वाले व्यक्ति के प्रमाणीकरण या सत्यापन (डिजिटल सिग्नेचर) में, क्रेडिट कार्ड, एटीएम, ई-मेल, स्टोरेज डिवाइस की सुरक्षा वगैरह में होता है। इन सभी जगह प्राइम संख्या का उपयोग होता है।

इसके अलावा प्राइम संख्याएं रैंडम नंबर पैदा करने वाली एल्गोरिद्म में उपयोग होती हैं। यानी जहां भी संख्याओं में बेतरतीबी की ज़रूरत होती है वहां ये एल्गोरिद्म काम करती हैं। जैसे सुरक्षित लेन-देन के लिए ओटीपी नंबर (वन टाइम पासवर्ड) में, ऑनलाइन कैसिनो में पत्ते निकालने या पांसे पर आने वाली संख्या तय करने में। इंटरनेट पर बने किसी भी एकाउंट में लॉग-इन करते वक्त पासवर्ड का मिलान किया जाता है, चूंकि इस मिलान को कम-से-कम समय में अंजाम देना होता है इसलिए यहां हैश-टेबल की मदद ली जाती है। और हैश-टेबल में भी प्राइम संख्या का इस्तेमाल किया जाता है। इसके अलावा हैश टेबल सर्फिंग या सर्चिंग जैसे किसी शॉपिंग साइट में चीज़ों को जल्दी ढूंढ निकालने में भी मददगार होती है।

कई खेलों को बनाने में भी अभाज्य संख्याओं का उपयोग किया जाता है। जैसे कैंडी क्रश खेल में कई गणितीय अवधारणाओं का उपयोग किया गया है और इनमें अभाज्य संख्याओं का उपयोग किया गया है। तो जब भी हम इनमें से किन्हीं भी सुविधाओं का उपयोग कर रहे होते हैं तब अनजाने में अभाज्य संख्या का भी उपयोग करते हैं।

वैसे प्रकृति में भी अभाज्य संख्याएं दिखाई देती हैं। जैसे सिकाडा कीट लंबे समय तक ज़मीन के अंदर रहते हैं और 13 या 17 साल बाद ज़मीन से बाहर निकलते हैं और प्रजनन करते हैं ताकि वे अपने शिकारियों से सुरक्षित रहें। आप स्वयं सोचिए कि इससे सुरक्षा कैसे मिलती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://inteng-storage.s3.amazonaws.com/images/NOVEMBER/sizes/New_Lock_Code_resize_md.jpg

विमान से निकली सफेद लकीर और ग्लोबल वार्मिंग

धरती के तापमान में वृद्धि (ग्लोबल वार्मिंग) में योगदान के लिए उड्डयन उद्योग को जि़म्मेदार ठहराया जाता रहा है, खास तौर से विमानों से निकलने वाली कार्बन डाईऑक्साइड के कारण। लेकिन हालिया शोध बताते हैं कि उड़ते विमान के पीछे जो एक लंबी सफेद लकीर नज़र आती है, वह भी तापमान को बढ़ाने में खासी भूमिका निभाती है।

 अक्सर ऊंचाई पर उड़ान भरने के दौरान या कई अन्य परिस्थितियों में विमान ऐसी लकीर छोड़ते हैं। जिस ऊंचाई पर ये विमान उड़ते हैं वहां की हवा ठंडी और विरल होती है। जब इंजन में से कार्बन के कण निकलते हैं तो बाहर की ठंडी हवा में उपस्थित वाष्प इन कणों पर संघनित हो जाती है। यह एक किस्म का बादल होता है जो लकीर के रूप में नज़र आता है। इसे संघनन लकीर कहते हैं। ये बादल कुछ मिनटों से लेकर कई घंटों तक टिके रह सकते हैं। ये बादल इतने झीने होते हैं कि सूर्य के प्रकाश को परावर्तित तो नहीं कर पाते किंतु इनमें मौजूद बर्फ के कण ऊष्मा को कैद कर लेते हैं। इसकी वजह से तापमान में वृद्धि होती है। इस शोध के मुताबिक साल 2050 तक संघनन लकीरों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि तीन गुना हो जाएगी।

साल 2011 में हुए एक शोध के मुताबिक विमान-जनित बादलों का कुल प्रभाव, विमानोंद्वारा छोड़ी गई कार्बन डाईऑक्साईड की तुलना में तापमान वृद्धि में अधिक योगदान देता है। अनुमान यह है कि 2050 तक उड़ानों की संख्या चौगुनी हो जाएगी और परिणाम स्वरूप तापमान में और अधिक बढ़ोतरी होगी।

उक्त अध्ययन में शामिल जर्मन एयरोस्पेस सेंटर की उलरिके बुर्खार्ट जानना चाहती थीं कि भविष्य में ये विमान-जनित बादल जलावयु को किस तरह प्रभावित करेंगे। इसके लिए उन्होंने अपने साथियों के साथ एक बिलकुल नया पर्यावरण मॉडल बनाया जिसमें विमान-जनित बादलों को सामान्य बादलों से अलग श्रेणी में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने साल 2006 के लिए विश्व स्तर पर विमान-जनित बादलों का मॉडल तैयार किया क्योंकि सटीक डैटा इसी वर्ष के लिए उपलब्ध था। फिर उन अनुमानों को देखा कि भविष्य में उड़ानें कितनी बढ़ेंगी और उनके कारण कितना उत्सर्जन होगा। इसके आधार पर 2050 की स्थिति की गणना की। एटमॉस्फेरिक केमेस्ट्री एंड फिजि़क्स पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि साल 2050 तक विमान-जनित बादलों के कारण तापमान में होने वाली वृद्धि तीन गुना हो जाएगी।

इसके बाद उन्होंने 2050 में एक अलग परिस्थिति के लिए मॉडल बनाया जिसमें उन्होंने यह माना कि विमानों से होने वाले कार्बन कण उत्सर्जन में 50 प्रतिशत कमी की जाएगी और उसके प्रभाव को देखा। उन्होंने पाया कि इतनी कमी करने पर इन बादलों के कारण होने वाली तापमान वृद्धि में बस 15 प्रतिशत की कमी आती है। बुर्खार्ट का कहना है कि कार्बन कणों में 90 प्रतिशत कमी करने पर भी हम 2006 के स्तर पर नहीं पहुंच पाएंगे। वैसे बहुत संदेह है कि इस दिशा में कोई कार्य होगा क्योंकि आज भी हम कार्बन डाईऑक्साइड पर ही ध्यान दे रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/1127588194-1280×720.jpg?itok=FclbRZio https://insideclimatenews.org/sites/default/files/styles/icn_full_wrap_wide/public/article_images/contrails-germany-900_nicolas-armer-afp-getty%20.jpg?itok=-Z65PHF1


चीनी अंतरिक्ष स्टेशन लौटते वक्त ध्वस्त

एजेंसी फ्रांस प्रेस के अनुसार 19 जुलाई को चीनी अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा छोड़ धरती पर गिर गया। लेकिन पिछली बार के विपरीत, इस दौरान पूरे समय इस पर चीन के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का नियंत्रण रहा।

चीनी राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (CNSA) पहले ही यह बता चुका था कि चीन का दूसरा प्रायोगिक अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा छोड़ने वाला है और पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने वाला है। प्रशासन के अनुसार पुन: प्रवेश के दौरान तियांगोंग-2 वायुमंडल में पूरी तरह जल जाएगा और यदि कुछ बचा तो वह प्रशांत महासागर के पाइंट नेमो नामक इलाके में गिरेगा। लेकिन यह स्थिति चीन के पहले अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-1 से भिन्न है। उसने भी अप्रैल 2018 में अपनी कक्षा छोड़ दी थी और पृथ्वी पर अनियंत्रित तरीके से आ गिरा था। लेकिन तियांगोंग-1 पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। हालांकि संयोग से तियांगोंग-1 भी प्रशांत महासागर के इसी इलाके में गिरा था।

तियांगोंग-2 उत्तरी बॉटलनोज़ व्हेल से थोड़ा बड़ा, 10 मीटर लंबा और 8600 किलोग्राम वज़नी था। इस अंतरिक्ष स्टेशन में 18 मीटर लंबे सौलर पैनल थे जिससे यह अजीब-सी व्हेल मछली की तरह दिखता था।

अंतरिक्ष प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि तियांगोंग-2 ने अपने सारे प्रयोग पूरे कर लिए थे। और इसने अपनी 2 साल की तयशुदा उम्र से एक साल अधिक कार्य किया। स्पेस डॉटकॉम के मुताबिक इस दौरान तियांगोंग-2 ने एक बार (अक्टूबर-नवंबर 2016 में) दो अंतरिक्ष यात्रियों और कई रोबोटिक मिशन की मेज़बानी की थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thesun.co.uk/wp-content/uploads/2018/01/nintchdbpict000378766354.jpg?strip=all&w=700

पृथ्वी की कोर ढाई अरब वर्षों से रिस रही है

पृथ्वी की संरचना विभिन्न परतों से बनी है। सतह से चलें तो एक के बाद एक कई परत पार करने के बाद धरती के केंद्र में अत्यधिक गर्म क्षेत्र है जिसे कोर कहा जाता है। कई दशकों से वैज्ञानिकों में इस सवाल पर मतभेद रहा है कि क्या कोर और पृथ्वी की अन्य परतों (खासकर मैंटल) के बीच पदार्थ का आदान-प्रदान होता है या नहीं। हालिया अध्ययन से मालूम चला है कि कोर से कुछ रिसाव मैंटल में हो रहा है। इसका कुछ हिस्सा पृथ्वी की सतह पर भी पहुंच रहा है।

दी कंवर्सेशन में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार यह रिसाव लगभग 2.5 अरब वर्षों से हो रहा है। इस निष्कर्ष तक पहुंचने में मुख्य भूमिका टंगस्टन (W) नामक तत्व की रही। खास तौर पर टंगस्टन के दो समस्थानिक मददगार रहे – W-182 और W-184। गौरतलब है कि किसी भी तत्व के समस्थानिक उन्हें कहते हैं जिनकी परमाणु संख्या तो एक ही होती है किंतु परमाणु भार अलग-अलग होते हैं।

टंगस्टन धातु सिडरोफाइल है यानी यह लौहे से आकर्षित होती है। पृथ्वी का कोर मुख्य रूप से लोहे और निकल से बना है, इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है कि उसमें काफी मात्रा में टंगस्टन पाया जाता है।

एक अन्य तत्व, हाफनियम (Hf), जो लिथोफाइल है यानी चट्टानों से आकर्षित होता है, पृथ्वी के सिलिकेट-समृद्ध मैंटल में ज़्यादा मात्रा में पाया जाता है।

हाफनियम का एक समस्थानिक Hf-182 है। यह रेडियोसक्रिय होता है और टूटकर W-182 में बदलता रहता है। इसके हिसाब से वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया कि कोर की तुलना में मैंटल में W-182:W-184 अनुपात अधिक होना चाहिए क्योंकि मैंटल में Hf-182 टूट-टूटकर W-182 में बदलता रहा होगा।

पृथ्वी की उम्र के साथ समुद्री द्वीपों के बैसाल्ट (एक प्रकार की आग्नेय चट्टान) में 182W/184W के अनुपात में अंतर से कोर और मैंटल के बीच रासायनिक आदान-प्रदान का पता लगाया जा सकता है। लेकिन यह अंतर बहुत कम होने की संभावना था।

एक मुश्किल और थी। कोर लगभग 2900 किलोमीटर की गहराई पर शुरू होता है, जबकि हम अभी तक 12.3 कि.मी. गहराई तक ही खोद पाए हैं।

इसलिए शोधकर्ताओं ने उन चट्टानों का अध्ययन किया जो पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया के पिलबारा क्रेटन, हिंद महासागर स्थित रियूनियन द्वीप और केग्र्यूलन द्वीपसमूह में गहरे मैंटल से पृथ्वी की सतह तक पहुंची थीं।

पृथ्वी के जीवनकाल की अलग-अलग अवधियों में, मैंटल में टंगस्टन के समस्थानिकों का अनुपात बदलता रहा है। लेकिन आश्चर्यजनक रूप से मालूम चला कि आधुनिक चट्टानों की तुलना में पृथ्वी की सबसे पुरानी चट्टानों में W-182 का अनुपात अधिक है। इसका मतलब यही हो सकता है कि कोर में से टंगस्टन निकलकर मैंटल में पहुंचा है। चूंकि कोर में W-182 कम और W-184 अधिक होता है इसलिए यदि वहां से टंगस्टन रिसकर मैंटल में पहुंचेगा तो मैंटल में भी W-182 का अनुपात कम होता जाएगा।

उपरोक्त अध्ययन में टंगस्टन के समस्थानिकों के अनुपात में अंतर करीब 2.5 अरब वर्ष पूर्व की चट्टानों में दिखे हैं, उससे पहले की चट्टानों में नहीं। यानी माना जा सकता है कि कोर से मैंटल में रिसाव 2.5 अरब वर्ष पूर्व ही शुरू हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://hotworldreport.com/wp-content/uploads/2019/07/ccelebritiesfoto1689262-820×410.jpg

सस्ती सौर ऊर्जा जीवाश्म र्इंधन को हटा रही है

लॉस एंजेल्स, कैलिफोर्निया के अधिकारी जल्द ही एक सौदा करने वाले हैं जो सौर ऊर्जा को पहले से कहीं अधिक सस्ता कर देगा और उसकी एक प्रमुख खामी से भी निपटेगा – सौर ऊर्जा तभी उपलब्ध होती है जब सूरज चमक रहा हो। इस सौदे के तहत एक विशाल सौर फार्म स्थापित किया जाएगा जहां दुनिया की एक सबसे बड़ी बैटरी का इस्तेमाल किया जाएगा। 2023 तक यह शहर को 7 प्रतिशत बिजली प्रदान करेगा। इसकी लागत होगी बैटरी के लिए 1.3 सेंट प्रति युनिट और सौर ऊर्जा के लिए 1.997 सेंट प्रति किलोवाट घंटा। यह किसी भी जीवाश्म र्इंधन से उत्पन्न उर्जा से सस्ता है।

स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी, कैलिफोर्निया के वायुमंडलीय वैज्ञानिक मार्क जैकबसन के अनुसार बड़े पैमाने पर उत्पादन के चलते नवीकरणीय ऊर्जा उत्पादन और बैटरियों की कीमतें नीचे आती रहती हैं।

बैटरी भंडारण के मूल्य में तेज़ी से गिरावट के चलते नवीकरण को प्रोत्साहन मिला है। मार्च में ब्लूमबर्ग न्यू एनर्जी फाइनेंस द्वारा 7000 से अधिक वैश्विक भंडारण परियोजनाओं के विश्लेषण से मालूम चला है कि 2012 के बाद से लीथियम बैटरी की लागत में 76 प्रतिशत की कमी आई और पिछले 18 महीनों में 35 प्रतिशत कम होकर 187 डॉलर प्रति मेगावाट-घंटा हो गई। एक अन्य अध्ययन के अनुसार 2030 तक इसकी कीमतें आधी होने का अनुमान है जो 8-मिनट सोलर एनर्जी नामक कंपनी  के अनुमान से भी कम है।

यही कंपनी नवीन सौर-प्लस-स्टोरेज कैलिफोर्निया में तैयार करने जा रही है। इस परियोजना से प्रतिदिन 400 मेगावाट सौर संयंत्रों का जाल बनाया जाएगा, जिससे सालाना लगभग 8,76,000 मेगावॉट घंटे (MWh) बिजली पैदा होगी। यह दिन के समय 65,000 से अधिक घरों के लिए पर्याप्त होगी। इसकी 800 मेगावॉट घंटे की बैटरी सूरज डूबने के बाद बिजली भंडार करके रखेगी, जिससे प्राकृतिक गैस जनरेटर की ज़रूरत कम हो जाएगी।

बड़े पैमाने पर बैटरी भंडारण आम तौर पर लीथियम आयन बैटरी पर निर्भर करता है। लेकिन बैटरी ऊर्जा भंडारण आम तौर पर केवल कुछ घंटों के लिए बिजली प्रदान करते हैं। इसको बादल आच्छादित मौसम या सर्दियों की स्थिति में लंबे समय तक चलने के लिए विकसित करने की आवश्यकता है।

100 प्रतिशत नवीकरणीय वस्तुओं पर जाने के साथ-साथ साथ स्थानीय कंपनियां भी ग्रिड बैटरियों की ओर तेज़ी से बढ़ा रही हैं। जैकबसन के अनुसार, 54 देशों और आठ अमेरिकी राज्यों को 100 प्रतिशत नवीकरणीय बिजली की ओर जाने की आवश्यकता है।

लॉस एंजेल्स परियोजना वैसे तो सस्ती लगती है, लेकिन ग्रिड को पूरी तरह से नवीकरणीय संसाधनों से उर्जा प्रदान करने से लागत बढ़ सकती है। पिछले महीने ऊर्जा अनुसंधान कंपनी वुड मैकेंज़ी ने अनुमान लगाया था कि इसके लिए अकेले यूएस ग्रिड के लिए 4.5 ट्रिलियन डॉलर की लागत होगी, जिसमें से लगभग आधी लागत 900 बिलियन वॉट या 900 गीगावॉट (GW) बैटरी और अन्य ऊर्जा भंडारण प्रौद्योगिकियों के स्थापित करने के लिए उपयोग हो जाएगी।  ( स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://specials-images.forbesimg.com/imageserve/684160330/960×0.jpg?fit=scale

इस वर्ष का जून अब तक का सबसे गर्म जून

इस साल जून में यदि आपने अत्यधिक गर्मी का अहसास किया है तो आपका एहसास एकदम सही है। वास्तव में जून 2019 पृथ्वी पर अब तक का सर्वाधिक गर्म जून रहा है। साथ ही यह लगातार दूसरा महीना था जब अधिक तापमान के कारण अंटार्कटिक सागर में सबसे कम बर्फ की चादर दर्ज की गई।

नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन के नेशनल सेंटर फॉर एनवॉयरमेंटल इंफरमेशन के अनुसार विगत जून में भूमि और सागर का औसत तापमान वैश्विक औसत तापमान (15.5 डिग्री सेल्सियस) से 0.95 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह पिछले 140 वर्षों में जून माह में दजऱ् किए गए तापमान में सर्वाधिक था। 10 में से 9 सबसे गर्म जून माह तो साल 2010 के बाद रिकॉर्ड किए गए हैं।

उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों, मेक्सिको खाड़ी के देशों, युरोप, ऑस्ट्रिया, हंगरी और जर्मनी में इस वर्ष का जून सर्वाधिक गर्म जून रहा। वहीं स्विटज़रलैंड में दूसरा सर्वाधिक गर्म जून रहा। यही हाल यूएस के अलास्का में भी रहा। यहां भी 1925 के बाद से अब तक का दूसरा सबसे गर्म जून दर्ज किया गया।

जून में पूरी पृथ्वी का हाल ऐसा था जैसे इसने गर्म कंबल ओढ़ रखा हो। इतनी अधिक गर्मी के कारण ध्रुवों पर बर्फ  पिघलने लगी। जून 2019 लगातार ऐसा बीसवां जून रहा जब आर्कटिक में औसत से भी कम बर्फ दर्ज की गई है। और अंटार्कटिक में लगातार चौथा ऐसा जून रहा जब वहां औसत से भी कम बर्फ आच्छादन रहा। अंटार्कटिक में पिछले 41 सालों में सबसे कम बर्फ देखा गया। यह 2002 में दर्ज सबसे कम बर्फ आच्छादन (1,60,580 वर्ग किलोमीटर) से भी कम था।

क्या इतना अधिक तापमान ग्लोबल वार्मिंग का नतीजा है? जी हां। युनिवर्सिटी ऑफ पीट्सबर्ग के जोसेफ वर्न बताते हैं कि कई सालों में लंबी अवधि के मौसम का औसत जलवायु कहलाती है। कोई एक गर्म या ठंडे साल का पूरी जलवायु पर बहुत कम असर पड़ता है। लेकिन जब ठंडे या गर्म वर्ष का दोहराव बार-बार होने लगता है तो यह जलवायु परिवर्तन है।

पूरी पृथ्वी पर अत्यधिक गर्म हवाएं (लू) अधिक चलने लगी हैं। पृथ्वी का तापमान भी लगातार बढ़ता जा रहा है, ऐसे में जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को नज़रअंदाज करना मुश्किल है। नेचर क्लाईमेट चेंज पत्रिका के जून अंक के अनुसार यदि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को कम नहीं किया गया तो हर साल झुलसा देने वाली गर्मी बढ़ती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://s.yimg.com/uu/api/res/1.2/1U8x9FYvsbdZExBSN.gJ6g–~B/aD0xMDY3O3c9MTYwMDtzbT0xO2FwcGlkPXl0YWNoeW9u/https://o.aolcdn.com/images/dims?crop=1104,736,0,0&quality=85&format=jpg&resize=1600,1067&image_uri=https://s.yimg.com/os/creatr-uploaded-images/2019-07/ae970c60-a7d8-11e9-bdff-cf6a07805be6&client=a1acac3e1b3290917d92&signature=ec3459062006001b9237a4608daa6039b00b7f87