डायनासौर की एक नई नन्ही प्रजाति

वैज्ञानिकों हाल ही में मिले डायनासौर के जीवाश्म इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कंगारू के आकार के फुर्तीले डायनासौर ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की प्राचीन भ्रंश घाटी में रहते थे।

ऑस्ट्रेलिया में साढ़े बारह करोड़ वर्ष पुरानी चट्टानों की खुदाई के दौरान पुरातत्वविदों को कंगारू जितने बड़े डायनासौर के जीवाश्म मिले हैं। ये जीवाश्म डायनासौर के जबड़ों के हैं। इन जबड़ों की बनावट उल्टे गैलियन जहाज़ों के ढांचे जैसी है। जबड़ों की गैलियन नुमा बनावट और जीवाश्म विज्ञानी डोरिस सीगेट्स-डीविलियर्स के नाम पर इस डायनासौर को गैलिनोसौरस डोरिसी नाम दिया है।

गैलिनोसौरस डोरिसी की हड्डियों का विश्लेषण करने पर पता चला कि ये डायनासौर ऑर्निथोपॉड थे यानि इनके पैर पक्षियों के पैरों की तरह थे। ये अपने पिछले मज़बूत पैरों के सहारे चलते और दौड़ते थे और शाकाहारी थे। 

न्यू इंगलैंड युनिवर्सिटी के मैथ्यू हर्न और उनकी टीम ऑस्ट्रेलिया के गोंडवाना महाद्वीप के सरकने के दौरान ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण अमेरिका और अंटार्कटिका के बीच डायनासौर के स्थानांतरण का मानचित्रण कर रहे हैं। पिछले साल भी हर्न की टीम ने इसी जगह एक ऑर्नीथोपॉड डायनासौर की पहचान की थी। इसे डिलुविकरसौर पिकरिंगी नाम दिया गया था जो गैलिनोसौरस डायनासौर का करीबी रिश्तेदार है। लेकिन गैलिनोसौरस डायनासौर डिलुविकरसौर से लगभग सवा करोड़ साल पहले के थे। टीम का मत है कि गैलिनोसौरस उत्तरी अमेरिका और चीन की बजाय पैटागोनिया में रहने वाली डायनासौर प्रजातियों से ज़्यादा मिलते-जुलते हैं।

गैलिनोसौरस के जीवाश्म जिन चट्टानों में मिले हैं वे ज्वालामुखी से निकली चट्टानें हैं। क्रिटेशियस युग के दौरान, जब ये डायनासौर रहा करते थे, तब पूर्वी ऑस्ट्रेलिया में सक्रिय ज्वालामुखी का लावा नदियों के साथ बहकर इस घाटी में आया होगा। नदियों द्वारा बहाकर लाई गई गाद घाटी में जमा होने से मैदान बने। इन मैदानों में डायनासौर और अन्य जानवर रहने लगे।

इस अध्ययन से लगता है कि क्रिटेशियस युग के दौरान अंटार्कटिका से होकर ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका के बीच सेतु मौजूद रहा होगा जिसके कारण इन महाद्वीपों के डायनासौर के बीच करीबी आनुवंशिक सम्बंध दिखते हैं।

गैलिनोसौरस इस क्षेत्र में पांचवा ऑर्निथोपॉड प्रजाति का डायनासौर मिला है जिससे यह पता चलता है कि छोटे कद-काठी वाले डायनासौर काफी विविध स्थानों पर फैले हुए थे जो ऑस्ट्रेलिया और अंटार्कटिका के बीच की घाटी में पनपे थे जहां से ये महाद्वीप अलग-अलग हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बैक्टीरिया, जेनेटिक्स और मूल विज्ञान की समझ – अश्विन साई नारायण शेषशायी

दार्शनिक बातों से हटकर जीवन के दो सत्य हैं। सबसे पहला तो यह कि हम सूक्ष्मजीवों की दुनिया में रहते हैं। सूक्ष्मजीवों से हमारा मतलब उन जीवों से है जो आम तौर पर आंखों से दिखाई नहीं देते हैं। इनमें एक-कोशिकीय बैक्टीरिया आते हैं, जो खमीर जैसे अन्य एक कोशिकीय जीवों से भिन्न हैं और उन कोशिकाओं से भी भिन्न हैं जो खरबों की संख्या में मिलकर मनुष्य व अन्य जीवों का निर्माण करती हैं। सरल माने जाने वाले बैक्टीरिया, अब तक इस ग्रह पर ज्ञात मुक्त जीवन के सबसे प्रमुख रूप हैं। एक अनुमान के अनुसार पृथ्वी पर इनकी संख्या एक के बाद तीस शून्य लगाने पर मिलेगी; मुझे तो यह भी नहीं मालूम कि इतनी बड़ी संख्या को क्या कहा जाना चाहिए।

मानव कल्पना में, कई बैक्टीरिया शरारती होते हैं और सबसे बदतरीन मामलों में इनसे बचकर रहना चाहिए। बैक्टीरिया कई संक्रामक रोग उत्पन्न करते हैं जो काफी लोगों को बीमार करते हैं और मृत्यु का भी कारण बनते हैं। दूसरी ओर, यह भी सच है कि इन जीवाणुओं के बिना हमारा अस्तित्व वैसा नहीं होता जैसा आज है। यह तो अब एक जानी-मानी बात है कि मानव शरीर में अपनी कोशिकाओं की तुलना में बैक्टीरिया की संख्या दस-गुना अधिक हैं, और जिन प्रायोगिक जीवों में ये बैक्टीरिया नहीं होते उन्हें सामान्य जीवन जीने में गंभीर परेशानियों का सामना करना पड़ता है।

उदाहरण के लिए, कोई एंटीबायोटिक्स लेने के बाद हम जिस अतिसार (दस्त) का शिकार हो जाते हैं वह आंत में बसने वाले इन उपयोगी बैक्टीरिया के खत्म हो जाने की वजह से होता है। इसीलिए एंटीबायोटिक की खुराक के साथ इन दोस्ताना बैक्टीरिया को बहाल करने के लिए प्रोबायोटिक औषधि दी जाती है जिसमें अनुकूल बैक्टीरिया होते हैं।

यह सच है कि अगर मैं बेतरतीब ढंग से 10 बैक्टीरिया ले लूं, तो संभवत: इनमें से कोई भी बैक्टीरिया, स्वस्थ मानव को बीमार करने का कारक नहीं होगा। जीवन के संकीर्ण मानव-केंद्रित दृष्टिकोण से हटकर देखें, तो बैक्टीरिया इस ग्रह पर कई जैव-रासायनिक अभिक्रियाओं को भी उत्प्रेरित करते हैं जिनकी विश्व निर्माण में प्रमुख भूमिका है। यहां हम जीवाणुओं के जीवन के तरीकों पर चर्चा करेंगे और देखेंगे कि वे हमारे परितंत्र की आधारशिला हैं, और उनके साथ अपने शत्रुवत व्यवहार के परिणामस्वरूप हमें कई संकटों का सामना भी करना पड़ता है।

जीवन का दूसरा सच जिसमें हमें काफी दिलचस्पी है उसका सम्बंध आनुवंशिकी से है। जैव विकास के सिद्धांत के अनुसार जीवन का सार फिटनेस है। फिटनेस एक तकनीकी शब्द है। इस फिटनेस को जिम में बिताए गए समय से नहीं बल्कि एक व्यक्ति की जीवनक्षम संतान पैदा करने की क्षमता से निर्धारित किया जाता है। समस्त जीव यह करते हैं लेकिन संतान पैदा करने की यह दर अलग-अलग प्रजातियों में अलग-अलग होती है। उदाहरण के लिए, ई. कोली नामक बैक्टीरिया की 100 कोशिकाएं सिर्फ 20 मिनट के समय में दुगनी हो सकती हैं। इस समय को एक पीढ़ी की अवधि कहा जा सकता है। वहीं दूसरी ओर, मनुष्य का एक जोड़ा अपने पूरे जीवन काल, जो एक सदी के बड़े भाग के बराबर है, में एक या दो संतान पैदा कर सकता है। इतनी भिन्नता के बाद भी हम सभी एक साथ रहते हैं। इस तरह के विविध प्रकार के जीवों के सह अस्तित्व को समझना अपने आप में शोध का एक रोमांचक और चुनौतीपूर्ण क्षेत्र है (लेकिन यहां इसे हम विस्तार में नहीं देखेंगे)। यह बात ध्यान देने वाली है कि एक-कोशिकीय जीवाणु और एक मनुष्य के बीच प्रजनन दर की यह तुलना पूरी तरह से उचित नहीं है, लेकिन ऐसा क्यों नहीं है इसकी बात किसी और दिन करेंगे। अभी के लिए यह कहना पर्याप्त है कि प्रजनन जीवन की निरंतरता के लिए महत्वपूर्ण है, अब चाहे वो प्रजाति हर 20 मिनट में द्विगुणित हो या फिर 20 साल में।

यह तो हम सभी जानते हैं कि हमारी आनुवंशिक सामग्री यानी हमारा जीनोम, हमारे अस्तित्व को निर्धारित करने का महत्वपूर्ण कारक है। न केवल यह हमारी कई विशेषताओं को निर्धारित करता है, बल्कि यह भी सुनिश्चित करता है कि इसकी प्रतिलिपि पूरी ईमानदारी से बने और एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक प्रेषित हो। हालांकि जीवन की निरंतरता सुनिश्चित करने के लिए यह आवश्यक है किंतु आनुवंशिक सामग्री की सही प्रतिलिपि बनाने में निष्ठा बहुत ज़्यादा भी नहीं होनी चाहिए। यदि ऐसा होता तो हम सब, बैक्टीरिया से लेकर मनुष्य तक, एक समान होते। यह तो हम जानते हैं कि एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक उत्परिवर्तन का एक निश्चित स्तर जीवन के लिए आवश्यक है। और अगर हमको विकसित होना है – और हम विकसित हो ही रहे हैं – तो कुछ उत्परिवर्तनों को स्वीकार करना ही होगा। बैक्टीरिया इस कला में माहिर हैं। वे सटीकता और लचीलेपन बीच संतुलन बनाकर रखते हैं जिससे वह विविधता बनी रहती है जिसने उन्हें लंबे समय तक धरती पर जीवित रखा है। पर्याप्त विविधता उत्पन्न करके वे धरती के हर कोने में जीवित रहने से लेकर एंटीबायोटिक्स को पराजित करने का रास्ता भी खोज पाए हैं।

जीवाणुओं के अध्ययन ने जीवन की निरंतरता को समझने के तरीके समझने में मदद की है; बैक्टीरिया की आनुवंशिकी को समझना चिकित्सा की दृष्टि से महत्वपूर्ण है: कैसे थोड़े-से बैक्टीरिया बीमारी के कारक बन जाते हैं और किस तरह वे हमारे द्वारा बनाए गए बचाव के तरीकों (एंटीबायोटिक समेत) से बच निकलते हैं।

जीवाणु जीव विज्ञान के बारे में हमारी वर्तमान समझ का अधिकांश विकास तत्काल उपयोगी अनुसंधान के कारण नहीं, बल्कि दशकों से चली आ रही मूल सवालों के जवाब खोजने की कोशिशों  से संभव हुआ है। इन सवालों के जवाब ढूंढने के लिए दुनिया भर के कई शोधकर्ताओं ने प्रयास किए हैं, इन प्रयासों के आधार पर एक के बाद एक शोध पत्र या थीसिस ने हमारे ज्ञान को बढ़ाया है। ‘नवाचार’ जैसा प्रचलित शब्द अचानक से प्रकट नहीं होता है, यह काफी हद तक मूलभूत विज्ञान द्वारा निर्धारित मजबूत नींव पर आधारित होता है। ऐसे भी उदाहरण हैं जहां समाज के लिए प्रासंगिक अध्ययनों ने ऐसे अमूर्त प्रश्नों को प्रभावित किया है जो जिज्ञासा से प्रेरित थे, जिज्ञासा जो एक अनिवार्य मानवीय गुण है। जहां लक्ष्य आधारित प्रायोगिक अनुसंधान का महत्व है, वहीं विज्ञान के मूलभूत पहलुओं की समझ के बिना इनका कोई अस्तित्व नहीं।

ये ऐसे मुद्दे नहीं हैं जिनसे रोज़मर्रा के जीवन में हमारा सामना होता है। लेकिन मूलभूत विज्ञान के लिए धन उपलब्ध कराने को लेकर सार्वजनिक और राजनीतिक अविश्वास के सामने, समाज में मूल विज्ञान की भूमिका के बारे में सोचने के लिए यह सबसे उचित समय है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान कांग्रेस: भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी का वक्तव्य

जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस में कई वक्ताओं ने दावे किए कि सारा आधुनिक वैज्ञानिक ज्ञान प्राचीन भारत में पहले से ही उपलब्ध था। प्रस्तुत है भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी द्वारा ऐसे अपुष्ट, मनगढ़ंत दावों पर सवाल उठाता और वैज्ञानिक दष्टिकोण की मांग करता वक्तव्य।

हाल ही में जालंधर में आयोजित विज्ञान कांग्रेस के दौरान आंध्र प्रदेश विश्वविद्यालय के कुलपति और कई अन्य लोगों द्वारा इन-विट्रो निषेचन (परखनली शिशु), स्टेम कोशिकाओं के ज्ञान और सापेक्षता एवं गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत पर टिप्पणियों ने वैज्ञानिक समुदाय को चौंका दिया है।

भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी (INSA), जो लगभग 1000 प्रख्यात वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों का एक निकाय है, स्पष्ट रूप से इस तरह के किसी भी दावे को अस्वीकार और रद्द करती है। यह बयान वैज्ञानिक प्रमाण और सत्यापन योग्य डैटा की तार्किक व्याख्या पर आधारित नहीं हैं। आईएनएसए कई अन्य ऐसे दावों को भी रद्द करता है जो मज़बूत प्रमाणों और तर्कों से रहित हैं, तथा बिना किसी वैज्ञानिक अनुसंधान के किए गए हैं। विज्ञान तथ्यों पर भरोसा करता है और उसी के आधार पर उन्नति करता है। आईएनएसए किसी भी निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए सत्यापन योग्य सबूतों के तार्किक तरीके से उपयोग की वकालत करता है। हाल ही में जारी किए गए वक्तव्य किसी भी वैज्ञानिक गहनता से दूर हैं और उन्हें सख्ती के साथ त्यागने और नज़रअंदाज़ करने की आवश्यकता है। काव्यात्मक कल्पनाओं को सुदूर अतीत की वैज्ञानिक प्रगति का द्योतक मानना निश्चित रूप से अस्वीकार्य है।

एक वैज्ञानिक निकाय के रूप में, आईएनएसए को भारत की वास्तुकला, खगोल विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन विज्ञान, गणित, धातुकर्म और इसी तरह के अन्य क्षेत्रों में विज्ञान व प्रौद्योगिकी उपलब्धियों की समृद्ध परंपरा पर गर्व है। आईएनएसए विज्ञान के इतिहास में अनुसंधान को प्रोत्साहित करता है और इस विषय में गंभीर शोध परियोजनाओं का समर्थन भी करता है। यहां तक कि इस विषय की एक लोकप्रिय शोध पत्रिका भी प्रकाशित करता है। अच्छी तरह से शोध की गई कई किताबें भी इन उपलब्धियों पर प्रकाशित हुई हैं। ये किताबें सभी के लिए मुक्त रूप से उपलब्ध हैं।

आईएनएसए ने इस तरह के किसी भी अपुष्ट विचार का समर्थन न तो किया है, न आज करता है और न ही आगे कभी करेगा चाहे वे भारतीय विज्ञान कांग्रेस जैसे प्रतिष्ठित मंचों पर प्रस्तुत हों या किसी भी स्तर की प्रशासनिक प्रतिष्ठा रखने वाले व्यक्तियों द्वारा प्रस्तावित किए जाएं। मीडिया में तात्कालिक प्रचार के प्रलोभन के बावजूद, कल्पना और तथ्यों को अलग-अलग रखना ज़रूरी है।

आईएनएसए, सभी स्तरों पर सावधानी बरतने का आग्रह करता है और यह सुझाव देता है कि सार्वजनिक रूप से इस तरह के बयान देने से पहले जांच की वैज्ञानिक प्रक्रिया सुनिश्चित की जानी चाहिए। इस तरह का परिश्रम जनता और छात्र समुदाय की सेवा होगी और इससे वैज्ञानिक स्वभाव को बढ़ावा और विकास प्रक्रिया को गति मिलेगी।

अपनी बात को दोहराते हुए, प्राचीन साहित्य को तथ्यों/प्रमाणों के तौर पर प्रस्तुत करने को अकादमी अनैतिक मानती है क्योंकि इन्हें किसी वैज्ञानिक विश्लेषण के अधीन नहीं किया जा सकता है। ऐसी प्रथाएं स्पष्ट रूप से अवांछनीय हैं। साहित्य के साथ-साथ विज्ञान में भी कल्पना का महत्वपूर्ण स्थान है, लेकिन इसके साथ भ्रम पैदा करना बिलकुल अवैज्ञानिक है। (स्रोत फीचर्स)

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स्कूल स्वच्छता अभियान से शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार – भारत डोगरा

स्कूलों में स्वच्छता अभियान अपने आप में तो बहुत ज़रूरी है ही, साथ ही इससे शिक्षा व स्वास्थ्य में व्यापक स्तर पर सुधार की बहुत संभावनाएं हैं। अनेक किशोरियों के स्कूल छोड़ने व अध्यापिकाओं के ग्रामीण स्कूलों में न जाने का एक कारण शौचालयों का अभाव रहा है। अब शौचालय का निर्माण तो तेज़ी से हो रहा है, पर निर्माण में गुणवत्ता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। चारदीवारी न होने से शौचालय के रख-रखाव में कठिनाई होती है। छात्राओं व अध्यापिकाओं के लिए अलग शौचालयों का निर्माण कई जगह नहीं हुआ है।

एक बहुत बड़ी कमी यह है कि हमारे मिडिल स्तर तक के अधिकांश स्कूलों में, विशेषकर दूर-दूर के गांवों में एक भी सफाईकर्मी की व्यवस्था नहीं है। इस वजह से सफाई का बहुत-सा भार छोटी उम्र के बच्चों पर आ जाता है। सफाई रखने की आदत डालना, स्वच्छता अभियान में कुछ हद तक भागीदारी करना तो बच्चों के लिए अच्छा है, पर सफाई का अधिकांश बोझ उन पर डालना उचित नहीं है। अत: शीघ्र से शीघ्र यह निर्देश निकलने चाहिए कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम एक सफाईकर्मी अवश्य हो। जो स्कूल छोटे से हैं, वहां सफाईकर्मी को सुबह के 2 या 3 घंटे के लिए नियुक्त करने से भी काम चलेगा।

मध्यान्ह भोजन पकाने की रसोई को साफ व सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है। रसोई में स्वच्छता के उच्च मानदंड तय होने चाहिए व इसके लिए ज़रूरी व्यवस्थाएं होनी चाहिए। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिलाओं का वेतन बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इस समय तो उनका वेतन बहुत कम है जबकि ज़िम्मेदारी बहुत अधिक है।

मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम की वजह से स्कूल में स्वच्छ पानी की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इस ओर समुचित ध्यान देना चाहिए। ठीक से हाथ धोने की आदत वैसे तो सदा ज़रूरी रही है, पर अब और ज़रूरी हो गई है। ऐसी व्यवस्था स्कूल में होनी चाहिए कि बच्चे आसानी से खाना खाने से पहले व बाद में तथा शौचालय उपयोग करने के बाद भलीभांति हाथ धो सकें।

इनमें से कई कमियों को दूर कर स्कूल में स्वच्छता का एक मॉडल मैयार करने का प्रयास आगा खां विकास नेटवर्क से जुड़े संस्थानों ने बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात के सैकड़ों स्कूलों में किया है। बिहार में ऐसे कुछ स्कूल देखने पर पता चला कि छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग अच्छी गुणवत्ता के शौचालय बनवाए गए हैं। उनमें भीतर पानी की व्यवस्था है व बाहर वाटर स्टेशन है। पानी के नलों व बेसिन की एक लाइन है जिससे विद्यार्थी बहुत सुविधा से हाथ धो सकते हैं। स्कूलों में साबुन उपलब्ध रहे इसके लिए सोप बैंक बनाया गया है। बच्चे अपने जन्मदिन पर इस सोप बैंक को एक साबुन का उपहार देते हैं।

किशोरियों को मीना मंच के माध्यम से माहवारी सम्बंधी स्वच्छता की जानकारी दी जाती है। स्कूल में एक ‘स्वच्छता कोना’ बनाकर वहां स्वच्छता सम्बंधी जानकारी या उपकरण रखवाए जाते हैं। बाल संसद व मीना मंच में स्वच्छता की चर्चा बराबर होती है। छात्र समय-समय पर गांव में स्वच्छता रैली निकालते हैं। स्वच्छता की रोचक शिक्षा के लिए विशेष पुस्तक व खेल तैयार किए गए हैं। सप्ताह में एक विशेष क्लास इस विषय पर होती है। स्वच्छता के खेल को सांप-सीढ़ी खेल के मॉडल पर तैयार कर रोचक बनाया गया है।

इन प्रयासों में छात्रों व अध्यापकों दोनों की बहुत अच्छी भागीदारी रही है, जिससे भविष्य के लिए उम्मीद मिलती है कि ऐसे प्रयास अधिक व्यापक स्तर पर भी सफल हो सकते हैं। अभिभावकों ने बताया कि जब स्कूल में बच्चे स्वच्छता के प्रति अधिक जागरूक होते हैं तो इसका असर घर-परिवार व पड़ौस तक भी ले आते हैं। जिन स्कूलों में सफल स्वच्छता अभियान चले हैं व स्वच्छता में सुधार हुआ है, वहां शिक्षा के बेहतर परिणाम प्राप्त करने में भी मदद मिली है तथा बच्चों में बीमार पड़ने की प्रवृत्ति कम हुई है।

अलबत्ता, एक बड़ी कमी यह रह गई है कि बहुत से स्कूलों के लिए बजट में सफाईकर्मी का प्रावधान ही नहीं है और किसी स्कूल में एक भी सफाईकर्मी न हो तो उस स्कूल की सफाई व्यवस्था पिछड़ जाती है। इस कमी को सरकार को शीघ्र दूर करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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भारत में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल की आवश्यकता – मनीष मनीष और स्मृति मिश्रा

ज विज्ञान इस स्तर तक पहुंच चुका है कि मलेरिया और टाइफाइड जैसी संक्रामक बीमारियों का इलाज मानक दवाइयों के नियमानुसार सेवन से किया जा सकता है। हालांकि भारत में अतिसंवेदनशील आबादी तक अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के अभाव में अभी भी मलेरिया के कारण मौतें हो रही हैं। एक अप्रभावी उपचार क्रम एंटीबायोटिक-रोधी किस्मों को जन्म दे सकता है। यह आगे चलकर देश की जटिल स्वास्थ्य सम्बंधी चुनौतियों को और बढ़ा देगा।

भारत में रोग निरीक्षण सहित वर्तमान स्वास्थ्य सेवा प्रणाली अभी भी मध्य युग में हैं। भारत ने आर्थिक रूप से और अंतरिक्ष अन्वेषण जैसे कुछ अनुसंधान क्षेत्रों में बेहद उन्नत की है। किंतु विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) की मलेरिया रिपोर्ट 2017 के अनुसार, भारतीय मलेरिया रोग निरीक्षण प्रणाली केवल 8 प्रतिशत मामलों का पता लगा पाती है, जबकि नाइजीरिया की प्रणाली 16 प्रतिशत मामलों का पता लगा लेती है। इसलिए भारत सरकार बीमारी के वास्तविक बोझ का अनुमान लगाने और उसके आधार पर संसाधन आवंटन करने में असमर्थ है। जबकि किसी भी अन्य राष्ट्र की तरह, भारत को भी सतत विकास के लिए एक स्वस्थ आबादी की आवश्यकता है।

भारत टीकों का सबसे बड़ा निर्माता है। भारत सरकार का राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम, हाल ही में शुरू किए गए इंद्रधनुष कार्यक्रम सहित, एक मज़बूत प्रणाली है जिसने स्वच्छता एवं स्वास्थ्य सेवा के कमतर स्तर, उच्च तापमान, बड़ी विविधतापूर्ण आबादी और भौगोलिक परिस्थितियों के बावजूद सफलतापूर्वक पोलियो उन्मूलन का लक्ष्य हासिल किया है। इसके अलावा, भारत सरकार द्वारा टीकाकरण क्षेत्र को मज़बूत करने के लिए विभिन्न शोध कार्यक्रम शुरू किए जा रहे हैं, जैसे इम्यूनाइज़ेशन डैटा: इनोवेटिंग फॉर एक्शन (आईडीआईए)।

भारत में मूलभूत अनुसंधान उस स्थिति में पहुंच चुका है, जहां वह विकास की चुनौती के बावजूद सामाजिक आवश्यकताओं के अनुसार समाधान विकसित कर सकता है। अकादमिक शोध में कम से कम तीन संभावित मलेरिया वैक्सीन तैयार हुए हैं, जबकि एक भारतीय कंपनी (भारत बायोटेक) द्वारा हाल ही में डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन विकसित किया गया है। अलबत्ता, आश्चर्य की बात तो यह है कि इस डब्ल्यूएचओ प्रीक्वालिफाइड टाइफाइड वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का डैटा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में नियंत्रित मानव संक्रमण मॉडल (CHIM) का उपयोग करके हासिल किया गया है। इसका कारण यह हो सकता है कि भारत में नैदानिक परीक्षण व्यवस्था कमज़ोर और जटिल है।

भारत की पारंपरिक नैदानिक परीक्षण व्यवस्था बहुत जटिल है। 2005 के बाद से चिकित्सा शोध पत्रिका संपादकों की अंतर्राष्ट्रीय समिति मांग करती है कि किसी भी क्लीनिकल परीक्षण का पूर्व-पंजीकरण (यानी प्रथम व्यक्ति को परीक्षण में शामिल करने से पहले पंजीकरण) किया जाए ताकि प्रकाशन में पक्षपात को रोका जा सके। हालांकि भारत की क्लीनिकल परीक्षण रजिस्ट्री अभी भी परीक्षण के बाद किए गए पंजीकरण को स्वीकार करती है। ह्रूमन पैपिलोमा वायरस (एचपीवी) वैक्सीन के क्लीनिकल परीक्षण पर काफी हल्ला-गुल्ला हुआ था जिसके चलते संसदीय स्थायी समिति और एक विशेषज्ञ समिति द्वारा जांच हुई, मीडिया में काफी चर्चा हुई और सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुई कि सार्वजनिक विश्वास में गिरावट आई। भारत में एचपीवी परीक्षणों की जांच करने वाली विशेषज्ञ समिति ने पाया कि गंभीर घटनाओं का पता लगाने में हमारी क्लीनिकल अनुसंधान प्रणाली विफल है।

टीकों के उपयोग से रोग का प्रकोप कम हो जाता है जिसके चलते दवा का उपयोग कम करना पड़ता है। इस प्रकार टीकाकरण एंटीबायोटिक प्रतिरोध की समस्या को भी कम कर सकता है। भारत में बेहतर टीकाकरण कार्यक्रम, वैक्सीन उत्पादन सुविधाओं और बुनियादी वैक्सीन अनुसंधान को देखते हुए, सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए भारत में वैक्सीन विकास को किस तरह तेज़ किया जा सकता है? जब हमारे पास टीके की रोकथाम-क्षमता पर पर्याप्त डैटा न हो तो क्या हम एक बड़ी आबादी को एक संभावित टीका देने का खतरा मोल ले सकते हैं? या क्या यह बेहतर होगा कि पहले अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति में टीके की रोकथाम-क्षमता का मूल्यांकन किया जाए और फिर बड़ी जनसंख्या पर परीक्षण शुरू किए जाएं?

सीएचआईएम (मलेरिया के लिए, नियंत्रित मानव मलेरिया संक्रमण, सीएचएमआई) एक संभावित वैक्सीन की रोकथाम-क्षमता का ठीक-ठाक मूल्यांकन करने के लिए एक मंच प्रदान करता है, जिसमें बड़े परीक्षण की ज़रूरत नहीं है। सीएचएमआई में ‘नियंत्रित’ शब्द अत्यधिक नियंत्रित परिस्थिति का द्योतक है। जैसे भलीभांति परिभाषित परजीवी स्ट्रेन, संक्रमण उन्मूलन के लिए प्रभावी दवा और कड़ी निगरानी के लिए अत्यधिक कुशल निदान प्रणाली। ‘संक्रमण’ शब्द से आशय है कि परीक्षण के दौरान संक्रमण शुरू किया जाएगा, बीमारी नहीं। शब्द ‘मानव’ का मतलब है कि प्रयोग इंसानों पर होंगे जैसा कि किसी भी क्लीनिकल टीका अनुसंधान में रोकथाम-क्षमता के आकलन में किया जाता है।

अमेरिका, ब्रिाटेन, जर्मनी, तंजानिया और केन्या जैसे कई देशों में सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की गई है। संयुक्त राज्य अमेरिका में पिछले 25 वर्षों से सीएचएमआई परीक्षण में 1000 से अधिक वालंटियर्स ने भाग लिया है और कोई प्रतिकूल घटना सामने नहीं आई है। पहले संक्रामक बीमारी के लिए हम ज़्यादातर दवाइयां/टीके बाहर से मंगाते थे, लेकिन स्थिति तेज़ी से बदल रही है। उदाहरण के लिए भारत में रोटावायरस टीके का विकास हुआ है। 

यह सही है कि स्वदेशी समाधान विकसित करने की बजाय आयात करना हमेशा आसान होता है लेकिन यदि पोलियो टीका भारत में विकसित किया गया होता, तो हम एक पीढ़ी पहले पोलियो से मुक्त हो सकते थे। भारत में सीएचआईएम अध्ययन विकसित करने के लिए कड़ी मेहनत की आवश्यकता होगी। वर्तमान स्थिति में, यह मलेरिया और टाइफाइड जैसी बीमारियों के लिए किया जा सकता है लेकिन शायद ज़ीका, डेंगू और टीबी के लिए नहीं। अलबत्ता, यदि उच्चतम मानकों को पालन नहीं किया जा सकता है तो बेहतर होगा कि सीएचआईएम अध्ययन न किए जाएं।

सीएचआईएम में सबसे बड़ी बाधा लोगों की धारणा की है। इस धारणा को केवल तभी संबोधित किया जा सकता है जब हम सीएचआईएम अध्ययन के लिए वैज्ञानिक, नैतिक और नियामक ढांचा विकसित कर सकें जिसमें बुनियादी अनुसंधान, क्लीनिकल अनुसंधान, नैतिकता, विनियमन, कानून और सामाजिक विज्ञान में सर्वश्रेष्ठ विशेषज्ञता का समावेश हो। यह भी सुनिश्चित करना होगा कि यह ढांचा सीएचआईएम के लिए उच्चतम मानकों को परिभाषित करे। मीडिया को उनकी मूल्यवान आलोचना और कार्यवाही के व्यापक पारदर्शी प्रसार की अनुमति दी जानी चाहिए।

इसकी शुरुआत किसी सरकारी संगठन द्वारा की जानी चाहिए ताकि जनता में यह संदेह पनपने से रोका जा सके कि यह दवा कंपनियों द्वारा वाणिज्यिक लाभ के लिए किया जा रहा है। एक या दो उत्कृष्ट अकादमिक संस्थानों को चुना जाना चाहिए और सीएचआईएम अध्ययन करने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए। चूंकि संक्रामक बीमारियां निरंतर परिवर्तनशील हैं, भारत में सीएचआईएम अध्ययन पर चर्चा के लिए गहन प्रयासों की तत्काल आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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शुक्र पृथ्वी का सबसे नज़दीकी ग्रह नहीं है!

ब हम पृथ्वी के सबसे करीबी ग्रह की बात करते हैं तो हमारा जवाब शुक्र ग्रह होता है। लेकिन इसका सही जवाब है बुध। इसमें कोई शक नहीं कि शुक्र अपनी कक्षा में परिक्रमा करते हुए पृथ्वी के सबसे करीब आ जाता है लेकिन फिज़िक्स टुडे पत्रिका की एक टिप्पणी के अनुसार, बुध सबसे लंबे समय तक पृथ्वी के सबसे नज़दीक रहता है।

अलाबामा विश्वविद्यालय के पीएच.डी. छात्र टॉम स्टॉकमैन, अमेरिकी सेना के इंजीनियरिंग शोध संस्थान के गैब्रियल मनरो और नासा के सैमुअल गॉर्डनर के अनुसार कुछ लापरवाही, अस्पष्टता या समूह के विचारों से प्रभावित होकर विज्ञान संचारकों ने ग्रहों के बीच की औसत दूरी के बारे में एक त्रुटिपूर्ण धारणा के आधार पर यह प्रसारित कर दिया कि शुक्र हमारा सबसे नज़दीकी ग्रह है। दो ग्रहों के बीच की दूरी की गणना करते समय आम तौर पर सूर्य से उन दो ग्रहों की औसत दूरियों को घटाया जाता है। दिक्कत यहीं है। इस तरीके से दो ग्रहों के बीच की दूरी की गणना उसी स्थिति में की जाती है जब वे एक दूसरे के सबसे करीब होते हैं। लेकिन शुक्र और पृथ्वी कभी-कभी सूर्य से विपरीत दिशाओं में होते हैं क्योंकि दोनों ग्रह अलग-अलग गति से चलते हैं। इस स्थिति में उनकी दूरी औसत दूरी से बहुत अधिक होती है।

इस टिप्पणी में शोधकर्ताओं ने ग्रहों के बीच की दूरी मापने के लिए एक नई गणितीय तकनीक तैयार की है जिसे पॉइंट-सर्किल मेथड कहते हैं। इस विधि में प्रत्येक ग्रह की कक्षा पर कुछ बिंदुओं के बीच की दूरी का औसत पता की जाती है। इसका फायदा यह होता है कि विभिन्न समयों पर दूरी का भी ध्यान रखा जाता है।

इस विधि से गणना करने पर बुध अधिकतर समय पृथ्वी के सबसे करीब पाया गया। इतना ही नहीं बुध ग्रह, शनि एवं नेप्च्यून और अन्य सभी ग्रहों के भी सबसे निकटतम ग्रह था। शोधकर्ताओं ने पिछले 10,000 सालों के लिए हर 24 घंटे में ग्रहों की कक्षाओं में स्थिति के आधार पर गणना की है।

हालांकि सभी लोग ‘निकटतम’ ग्रह की इस नई परिभाषा से सहमत नहीं हैं। यह ‘निकटतम’ को परिभाषित करने का एक दिलचस्प तरीका ज़रूर है, मगर कई लोगों का कहना है कि इसमें दम नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक लाख वर्षों से बर्फ के नीचे छिपे महासागर की खोज

जुलाई 2017 में, अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में लार्सन सी आइस शेल्फ से एक विशाल हिमखंड टूट गया था। इसके टूटने के साथ ही वर्षों से बर्फ के नीचे ओझल समुद्र की एक बड़ी पट्टी सामने आ गई। इस समुद्र में जैव विकास और समुद्री जीवों की गतिशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के सुराग मिल सकते हैं।

जर्मनी के अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर एंड मरीन रिसर्च के वैज्ञानिक बोरिस डोर्सेल के नेतृत्व में 45 वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम इस समुद्र की खोजबीन के लिए रवाना होने की योजना बना रही है। किंतु इस दूरस्थ क्षेत्र तक पहुंचना और इतने कठिन मौसम में शोध करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, अलबत्ता यह काफी रोमांचकारी भी होगा।

लार्सन सी से अलग हुआ बर्फ का यह टुकड़ा 5,800 वर्ग किलोमीटर का है और 200 किलोमीटर उत्तर की ओर बह चुका है। वैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक हैं कि कौन-सी प्रजातियां बर्फ के नीचे पनप सकती हैं, और उन्होंने अचानक आए इस बदलाव का सामना कैसे किया होगा। छानबीन के लिए पिछले वर्ष कैंब्रिज विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी कैटरीन लिनसे की टीम का वहां पहुंचने का प्रयास समुद्र में जमी बर्फ के कारण सफल नहीं हो पाया था। परिस्थिति अनुकूल होने पर नई टीम वहां समुद्र और समुद्र तल के नमूने तो ले पाई, लेकिन ज़्यादा आगे नहीं जा पाई।

अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित पोलरस्टर्न जर्मनी का प्रमुख ध्रुवीय खोजी पोत है और दुनिया में सबसे अच्छा सुसज्जित अनुसंधान आइसब्रोकर है। इसमें मौजूद दो हेलीकॉप्टर सैटेलाइट इमेजरी और उड़ानों का उपयोग करके बर्फ की चादर में जहाज़ का मार्गदर्शन करेंगे।

यदि बर्फ और मौसम की स्थिति सही रहती है तो टीम कुछ ही दिनों में वहां पहुंच सकती है। वहां दक्षिणी गर्मियों और विभिन्न आधुनिक उपकरणों की मदद से वैज्ञानिकों को काफी समय मिल जाएगा जिससे वे समुद्र के जीवों और रसायन के नमूने प्राप्त कर सकेंगे। टीम का अनुमान है कि वेडेल सागर जैसे गहरे समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र बर्फ के नीचे अंधेरे में विकसित हुआ है।

यदि नई प्रजातियां इस क्षेत्र में बसना शुरू करती हैं, तो कुछ वर्षों के भीतर पारिस्थितिकी तंत्र में काफी बदलाव आ सकता है। गैस्ट्रोपोड्स और बाईवाल्व्स जैसे जीवों के ऊतक के समस्थानिक विश्लेषण से आइसबर्ग के टूटने के बाद से खाद्य  शृंखला में बदलाव का पता लगाया जा सकता है, क्योंकि जानवरों के ऊतकों में रसायनों की जांच से उनके आहार के सुराग मिल जाते हैं।

मानवीय गतिविधियों से अप्रभावित इस क्षेत्र से लिए जाने वाले नमूने शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य संसाधन साबित होंगे। इस डैटा से वैज्ञानिकों को समुद्री समुदायों के विकास से जुड़े प्रश्नों को सुलझाने में तो मदद मिलेगी ही, यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समुद्र के नीचे पाई जाने वाली ये प्रजातियां कितनी जल्दी बर्फीले क्षेत्र में रहने के सक्षम हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जुड़वां बच्चों के संसार में एक विचित्रता – सुशील जोशी

म तौर पर माना जाता है कि जुड़वां बच्चे हूबहू एक समान होते हैं। जुड़वां बच्चों की थीम पर बनी हिंदी फिल्मों ने इस धारणा को काफी बल दिया है। लेकिन तथ्य यह है कि दुनिया भर में जितने जुड़वां बच्चे पैदा होते हैं उनमें से मात्र लगभग 10 प्रतिशत ही ऐसे ‘फिल्मी’ जुड़वां होते हैं। आम तौर पर जुड़वां बच्चे दो प्रकार के होते हैं – समान और असमान। इन दोनों के निर्माण के तरीके में अंतर है। तकनीकी भाषा में इन्हें एकयुग्मज (समान) और द्वियुग्मज (असमान) जुड़वां कहते हैं। हाल ही में एक रिपोर्ट आई है कि ऐसे जुड़वां बच्चों का जन्म हुआ है जो न तो पूरी तरह समान हैं न पूरी तरह असमान; ये आंशिक रूप से समान हैं। इस बात को समझने के लिए पहले जुड़वां बच्चों की बात को समझना आवश्यक है।

द्वियुग्मज जुड़वां बच्चे दो अलग-अलग अंडाणुओं के दो अलग-अलग शुक्राणुओं के साथ मेल के द्वारा विकसित होते हैं। स्त्री शरीर में सामान्य व्यवस्था यह है कि प्रति माह दो में से किसी एक अंडाशय में से अंडाणु मुक्त होता है। इस अंडाणु के किसी शुक्राणु से मिलन (निषेचन) के फलस्वरूप युग्मज यानी ज़ायगोट बनता है। यही ज़ायगोट विकसित होकर भ्रूण तथा शिशु का रूप लेता है। कभी-कभी ऐसा हो जाता है कि एक ही समय पर दोनों अंडाशयों में से एक-एक अंडाणु मुक्त हो जाता है। यदि इन दोनों का निषेचन हो जाए तो दो ज़ायगोट बन जाते हैं। दोनों ज़ायगोट बच्चादानी में जुड़ सकते हैं और आगे विकास जारी रख सकते हैं। चूंकि ये दोनों अलग-अलग अंडाणुओं और अलग-अलग शुक्राणुओं के निषेचन से बने हैं इसलिए इनमें उतनी ही समानता होती है जितनी किन्हीं भी दो भाई-बहनों के बीच होती है। अंतर सिर्फ यह होता है कि ये दोनों एक साथ एक ही समय पर गर्भाशय में पलते हैं। इनमें दोनों लड़के, दोनों लड़कियां या एक लड़का और एक लड़की भी हो सकते हैं।

दूसरी ओर, एकयुग्मज जुड़वां (यानी समान जुड़वां) एक ही अंडाणु के एक ही शुक्राणु द्वारा निषेचन से पैदा होते हैं। इनमें जो ज़ायगोट बनता है वह निषेचन के बाद दो भागों में बंट जाता है और दोनों से शिशुओं का विकास होता है। इनमें आनुवंशिक सामग्री एक ही होती है और इसलिए ये हूबहू एक जैसे होते हैं। एकयुग्मज जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़कियां।

जिन कोशिकाओं से शुक्राणु और अंडाणु बनते हैं उनमें प्रत्येक गुणसूत्र की दो-दो प्रतियां पाई जाती हैं। शुक्राणु/अंडाणु बनते समय इनमें से एक ही प्रति उनमें जाती है। इस प्रकार से शुक्राणु/अंडाणु में प्रत्येक गुणसूत्र की एक प्रति होती है। निषेचन के समय हरेक गुणसूत्र की एक प्रति शुक्राणु से और एक प्रति अंडाणु से आती है। इस प्रकार से बच्चे अपने माता या पिता से 50-50 प्रतिशत आनुवंशिक सामग्री प्राप्त करते हैं।

लेकिन यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि इनके अलावा एक तीसरे किस्म के जुड़वां बच्चे भी होते हैं जिन्हें अर्ध-समान जुड़वां या सेमी-आइडेंटिकल ट्विन्स कहते हैं। ये बहुत बिरले होते हैं और यह भी पता नहीं है कि दुनिया में ऐसे आंशिक-समान जुड़वां कितने हैं – रिकॉर्ड में तो मात्र 1 था। हाल ही में दी न्यू इंग्लैण्ड जर्नल ऑफ मेडिसिन में ऐसे ही अर्ध-समान जुड़वां के जन्म की रिपोर्ट प्रकाशित हुई है। इनका जन्म जनवरी 2014 में ऑस्ट्रेलिया में हुआ था। रिपोर्ट में बताया गया है कि इनमें मां से मिलने वाले तो सारे जीन्स एक जैसे हैं मगर पिता से आए तीन-चौथाई जीन्स ही एक-दूसरे से मेल खाते हैं।

उक्त शोधपत्र के प्रमुख लेखक इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड बायोमेडिकल इनोवेशन के माइकेल गैबेट ने बताया है कि ऐसे अर्ध-समान जुड़वां पहली बार 2007 में यूएस में जन्म के बाद पहचाने गए थे। इस बार जो जुड़वां पहचाने गए हैं उन्हें सबसे पहले गर्भ में ही सोनोग्राफी की मदद से पहचाना गया था। पहली सोनोग्राफी में पता चला था कि वे समान जुड़वां हैं। मगर कुछ समय बाद यह देखकर डॉक्टरों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि ये दो बच्चे एक लड़का और एक लड़की थे। समान जुड़वां या तो दोनों लड़के होते हैं या दोनों लड़की।

इसके बाद डॉक्टरों ने उनके गर्भजल की जांच की। दोनों बच्चे अलग-अलग गर्भजल थैलियों में बढ़ रहे थे। इस जांच में पता चला कि इन जुड़वां में मां के 100 प्रतिशत जीन्स एक समान थे किंतु पिता के मात्र 78 प्रतिशत जीन्स ही समान थे।

तो ये अर्ध-समान जुड़वां कैसे बने? गैबेट ने इसे समझाने के लिए एक परिकल्पना प्रस्तुत की है। उनके मुताबिक संभवत: हुआ यह है कि एक अंडाणु को दो शुक्राणुओं ने निषेचित किया। प्रत्येक शुक्राणु में गुणसूत्र का अपना-अपना सेट होता है। यानी अंडाणु के गुणसूत्र दो शुक्राणुओं के गुणसूत्रों से मिल गए। एक बार निषेचन हो जाने के बाद अंडाणु अभेद्य हो जाता है – एक शुक्राणु के अंडाणु में प्रवेश के बाद दूसरे शुक्राणु अंदर नहीं पहुंच सकते। यानी संयोगवश ये दो शुक्राणु एक ही समय पर अंडाणु से टकराए होंगे और दोनों को प्रवेश मिल गया होगा। तो अंदर गुणसूत्रों के तीन सेट हो गए होंगे। ये तीन कोशिकाओं में बंटे होंगे – एक में अंडाणु और प्रथम शुक्राणु के गुणसूत्र, दूसरी में अंडाणु और दूसरे शुक्राणु के गुणसूत्र तथा तीसरी में दोनों शुक्राणुओं के गुणसूत्र। संतान के विकास के लिए माता-पिता दोनों के गुणसूत्र होना ज़रूरी है। लिहाज़ा तीसरी कोशिका की मृत्यु हो गई होगी। शेष दो कोशिकाएं आपस में मिल गई होंगी और फिर दो में विभाजित होकर दो शिशु विकसित हुए होंगे।

एक परिकल्पना यह भी प्रस्तुत की गई है कि पहले कोई अनिषेचित अंडाणु दो में बंट जाता है और ये दोनों भाग आपस में जुड़े रह जाते हैं। इन दोनों का ही निषेचन हो सकता है। इन दोनों अंडाणुओं का निषेचन अलग-अलग शुक्राणुओं से हो जाता है और निषेचन के बाद ये आपस में मिल जाते हैं। कुछ समय विकास के बाद यह मिला-जुला अंडा फिर से दो में विभाजित होकर दो शिशुओं को जन्म देता है। इस तरह से इन दोनों में मां के तो सारे गुणसूत्र एक जैसे होंगे मगर पिता के दो शुक्राणुओं से प्राप्त मिले-जुले गुणसूत्र होंगे।

इन जुड़वां में कुछ और भी विचित्रताएं हैं। जैसे दोनों में नर व मादा दोनों लिगों के गुणसूत्र हैं। मनुष्य में कुल 23 जोड़ी गुणसूत्र होते हैं। इनमें से 22 जोड़ियों में तो दोनों गुणसूत्र एक-दूसरे के पूरक होते हैं मगर 23वीं जोड़ी के गुणसूत्र भिन्न-भिन्न होते हैं। इन्हें एक्स और वाय गुणसूत्र कहते हैं। 23वीं जोड़ी के दोनों गुणसूत्र एक्स हों तो लड़की बनती है और यदि 23वीं जोड़ी में एक एक्स तथा दूसरा वाय गुणसूत्र हो तो लड़का बनता है। ऑस्ट्रेलियाई जुड़वां में दोनों की कुछ कोशिकाओं में एक्स-एक्स जोड़ी है जबकि कुछ कोशिकाओं में एक्स-वाय जोड़ी है। विभिन्न कोशिकाओं में इस तरह से नर व मादा गुणसूत्र जोड़ियों का पाया जाना कई समस्याओं को जन्म देता है। जब डॉक्टरों ने जुड़वां में से लड़की के अंडाशय की जांच की तो पाया कि उसमें कुछ ऐसे परिवर्तन हुए हैं जो कैंसर को जन्म दे सकते हैं। ऐहतियात के तौर पर उसके अंडाशय हटा दिए हैं। अच्छी खबर यह है कि ये दो जुड़वां बच्चे अब साढ़े चार साल के हो चुके हैं और सामान्य ढंग से विकसित हो रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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