2018 चौथा सबसे गर्म वर्ष रहा

ब से हम तापमान का रिकॉर्ड रख रहे हैं, तब से आज तक 2018 चौथा सबसे गर्म साल रहा है। यह निष्कर्ष यूएस के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) और नेशनल ओशिओनोग्राफिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिनिस्ट्रेशन (एनओओए) की अलग-अलग रिपोर्ट में बताया गया है।

एनओओए की रिपोर्ट के मुताबिक पिछला साल इतना गर्म था कि समुद्र सतह का तापमान बीसवीं सदी के औसत से 0.79 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा रहा। तापमान के रिकॉर्ड 1880 से उपलब्ध हैं। तब से आज तक मात्र 2016, 2015 और 2017 ही इससे गर्म रहे हैं। नासा के वैज्ञानिक गेविन श्मिट का कहना है मुख्य बात यह है कि पृथ्वी गर्म हो रही है और हम भलीभांति समझते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसका मुख्य कारण है ग्रीनहाउस गैसें जो हम वायुमंडल में छोड़ते चले जा रहे हैं।

गर्म वर्षों की ओर यह रुझान कोई नई बात नहीं है। सदी के 10 सबसे गर्म वर्षों में से 9 तो 2005 के बाद के हैं। और सबसे गर्म 5 साल दरअसल पिछले 5 वर्ष (2014-2018) रहे हैं।

नासा तथा एनओओए का यह निष्कर्ष अन्य संस्थाओं के आंकड़ों से मेल खाता है। जैसे युनाइटेड किंगडम के मौसम कार्यालय तथा विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने भी वर्ष 2018 को ही चौथा सबसे गर्म वर्ष बताया है। युरोप के अधिकांश हिस्सों, भूमध्यसागर क्षेत्र, मध्य पूर्व, न्यूज़ीलैंड और रूस के अलावा अटलांटिक महासागर तथा पश्चिमी प्रशांत महासागर के कुछ हिस्सों में भी धरती और समुद्र का तापमान रिकॉर्ड ऊंचाई पर रहा। हालांकि पृथ्वी के कुछ हिस्सों में ठंडक रही किंतु कुल मिलाकर 2018 गर्म रहा। वैश्विक औसत देखें तो बीसवीं सदी के औसत की तुलना में 2018 में धरती का तापमान 1.12 डिग्री सेल्सियस तथा समुद्र का तापमान 0.66 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीन अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने की तैयारी में

र्जा के जीवाश्म स्रोतों की समस्याओं से तो सभी परिचित हैं और यह भी भलीभांति पता है कि ये स्रोत जल्दी ही चुक जाएंगे। अत: दुनिया भर में सौर, पवन जैसे नवीकरणीय ऊर्जा रुाोतों पर ध्यान केंद्रित हुआ है। सौर ऊर्जा के उपयोग की एक टेक्नॉलॉजी सौर फोटो वोल्टेइक सेल (पीवीसी) है। पीवीसी सौर ऊर्जा को सीधे बिजली में बदल देते हैं। अब चीन अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा संयंत्र लगाने की तैयारी कर रहा है।

अंतरिक्ष में ऐसे संयंत्र लगाने के कई लाभ हैं। जैसे ये संयंत्र सौर ऊर्जा को पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश से पहले ही ग्रहण कर लेते हैं जिसके चलते वातावरण में बिखरने से पहले ही उसका उपयोग हो सकता है। दूसरा प्रमुख फायदा यह है कि अंतरिक्ष में स्थापित संयंत्रों पर मौसम (बादल) का कोई असर नहीं पड़ेगा। अर्थात ये साल भर बिना रुकावट काम कर सकेंगे।

वैसे तो यह विचार पर दशकों से सामने है और जापान व अमेरिका कोशिश करते रहे हैं कि इसका प्रोटोटाइप बना लें। लेकिन ऐसा संयंत्र काफी वज़नी होगा – वज़न लगभग 1000 टन तक हो सकता है। इतने वज़न को अंतरिक्ष में स्थापित करना इस विचार के क्रियांवयन के मार्ग में प्रमुख बाधा रही है।

चीन ने इसके एक समाधान की दिशा में काम करना शुरू कर दिया है। वह कोशिश कर रहा है कि अंतरिक्ष में सौर ऊर्जा संयंत्र का 3-डी प्रिंटिंग कर लिया जाए। इस नई तकनीक का उपयोग करने पर एक साथ इतना वज़न ले जाने की ज़रूरत नहीं रहेगी।

चीन के सरकारी मीडिया ने रिपोर्ट किया है कि इस संयंत्र में फोटो वोल्टेइक सेल की मदद से सौर ऊर्जा को ग्रहण किया जाएगा और उसे माइक्रोवेव में बदल दिया जाएगा। फिर संयंत्र के एंटीना की मदद से ये माइक्रोवेव पृथ्वी पर स्थिति स्टेशन पर भेजी जाएंगी जहां इन्हें वापिस विद्युत में तबदील करके बिजली-चालित कारों को चलाने में उपयोग किया जाएगा।

अंतरिक्ष सौर ऊर्जा संयंत्र के विचार का परीक्षण करने के लिए मध्य चीन के चोंगक्विंग में एक प्रोजेक्ट का निर्माण भी शुरू हो चुका है। चीन को उम्मीद है कि 2021 से 2025 के बीच वह कई सारे छोटे या मध्यम आकार के संयंत्र पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर दूर की कक्षा में स्थापित करने में सफल होगा। (स्रोत फीचर्स)

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जीवन की बारहखड़ी में चार नए अक्षर

कुछ वर्ष पहले यह खबर आई थी कि वैज्ञानिकों ने आनुवंशिक पदार्थ डीएनए में 2 नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है। अब फ्लोरिडा स्थित फाउंडेशन फॉर एप्लाइड मॉलीक्यूलर इवॉल्यूशन के स्टीवन बेनर की टीम ने साइन्स में रिपोर्ट किया है कि उन्होंने आनुवंशिक अणु में चार नए क्षार जोड़ने में सफलता प्राप्त की है और यह नया डीएनए अणु कुदरती अणु के समान कई कार्य करने में सक्षम है और काफी स्थिर है।

दरअसल, किसी भी जीव की शारीरिक क्रियाएं प्रोटीन्स के दम पर चलती हैं। इन प्रोटीन्स के निर्माण का सूत्र डीएनए में होता है। डीएनए की रचना मूलत: चार क्षारों एडीनीन, ग्वानीन, सायटोसीन और थायमीन से बनी होती है। इन क्षारों की विशेषता है कि डीएनए में सदा एडीनीन के सामने थायमीन तथा सायटोसीन के सामने ग्वानीन होता है। इस प्रकार से यदि डीएनए की एक शृंखला मौजूद हो तो उसके अनुरूप दूसरी शृंखला बनाई जा सकती है। यही आनुवंशिक गुणों के हस्तांतरण की बुनियाद है। तीन-तीन क्षारों की तिकड़ियां एक-एक अमीनो अम्ल की द्योतक होती है। इस प्रकार से डीएनए अमीनो अम्लों की एक विशिष्ट शृंखला का निर्देश दे सकता है और अमीनो अम्लों के जुड़ने से प्रोटीन बनते हैं। कुदरत का काम चार क्षार-अक्षरों से चल जाता है।

बेनर की टीम ने सामान्य क्षारों की संरचना में फेरबदल करके चार नए क्षार बनाए और इन्हें डीएनए के अणु में जोड़ दिया। इस आठ अक्षर वाले डीएनए को उन्होंने हचिमोजी नाम दिया है – जापानी भाषा में हचि मतलब आठ और मोजी मतलब अक्षर। प्रत्येक कृत्रिम क्षार किसी एक कुदरती क्षार के समान रचना वाला है। सबसे पहले उन्होंने यह दर्शाया कि नए क्षार कुदरती क्षारों के साथ जोड़ियां बना लेते हैं। डीएनए के हज़ारों अणु बनाकर वे यह दर्शा पाए कि प्रत्येक क्षार एक ही जोड़ीदार से जुड़ता है। प्रयोगों के दौरान उन्होंने यह भी देखा कि इस संश्लेषित डीएनए की रचना काफी स्थिर है।

इसके बाद बेनर की टीम ने यह भी करके दिखाया कि उनके संश्लेषित डीएनए से एक अन्य अणु आरएनए भी बनाया जा सकता है। दरअसल, डीएनए में उपस्थित सूचना का उपयोग आरएनए के माध्यम से होता है। यानी उनके संश्लेषित डीएनए में न सिर्फ सूचना (प्रोटीन निर्माण के निर्देश) संग्रहित रहती है बल्कि उसे प्रोटीन के रूप में अनूदित भी किया जा सकता है।

इस शोध के द्वारा बेनर ने एक तो यह दर्शा दिया है कि जीवन का आधार डीएनए अन्य क्षारों से भी काम चला सकता है। इसके अलावा, यह भी दर्शाया जा चुका है ऐसा संश्लेषित डीएनए कैंसर कोशिकाओं से निपटने में भूमिका निभा सकता है। और इस नए डीएनए की मदद से सर्वथा नए प्रोटीन भी बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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नाभिकीय संलयन क्रिया बच्चों का खेल है

12 वर्ष की उम्र में जैकसन ओस्वाल्ट ने अपने घर के एक कमरे में नाभिकीय अभिक्रिया सम्पन्न की। वह सबसे कम उम्र में नाभिकीय अभिक्रिया करने वाला बच्चा बन गया है। ओसवाल्ट ने एक ऐसी मशीन तैयार की है जिसमें प्लाज़्मा बनता है जिसके अंदर नाभिकीय संलयन की प्रक्रिया होती है।

जनवरी 2018 में दी गार्जियन में ओस्वाल्ट के काम के बारे में बताया गया था। और इस फरवरी को दी ओपन सोर्स फ्यूज़र रिसर्च कंसोर्टियम (शौकिया तौर पर नाभिकीय अभिक्रिया करने वालों का समूह) ने ओसवाल्ट की इस उपलब्धि को मान्यता दी है।

कुछ लोग सिर्फ मज़े के लिए नाभिकीय अभिक्रिया को अंजाम देते हैं। इनमें से ज़्यादातर लोग नाभिकीय विखंडन की जगह संलयन अभिक्रिया करते हैं। नाभिकीय विखंडन में युरेनियम जैसे भारी नाभिक की ज़रूरत होती है जो दो नाभिकों में टूटता है और ऊर्जा मुक्त होती है। दूसरी ओर, संलयन में ड्यूटेरियम जैसे हाइड्रोजन समस्थानिक की ज़रूरत होती है जो आसानी से आपस में जुड़ सकें। जब दो हल्के नाभिक आपस में जुड़ते है तो एक भारी नाभिक बनता है, जिसका द्रव्यमान दोनो नाभिकों के कुल द्रव्यमान से कम होता है। द्रव्यमान में हुई कमी ऊर्जा के रूप में मुक्त होती है।

ओस्वाल्ट या अन्य शौकिया लोगों के रिएक्टर में चुम्बक की मदद से हाइड्रोजन के समस्थानिकों को निर्वात में बंद किया जाता है। फिर इसमें उच्च विद्युत धारा (लगभग 50,000 वोल्ट) तब तक दी जाती है जब तक नाभिक अत्यधिक गर्म होकर आपस में जुड़ने लगते हैं और हीलियम का नाभिक बनाते हैं। इसके परिणाम स्वरूप न्यूट्रॉन मुक्त होते है। इस मशीन को बनाने में ओस्वाल्ट को लगभग 7 लाख रुपए का खर्च आया।

घर पर संलयन की अभिक्रया करने का मतलब यह नहीं है कि इससे प्राप्त ऊर्जा अन्य काम में उपयोग की जा सकती है। इन रिएक्टर में संलयन की प्रक्रिया में जितनी ऊर्जा मुक्त होती है उससे ज़्यादा ऊर्जा रिएक्टर में संलयन की प्रक्रिया करवाने में खर्च हो जाती है। वैसे इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा बनाने में अभी तक किसी ने, यहां तक कि ऊर्जा विभाग ने, भी सफलता हासिल नहीं की है। और जिस पैमाने पर यह क्रिया होती है, वह किसी खतरे को भी जन्म नहीं देती।  (स्रोत फीचर्स)

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पेंग्विन के अंडों की कुल्फी क्यों नहीं बन जाती

एंपरर पेंग्विन एक मशहूर पक्षी है जो अंटार्कटिक के निहायत ठंडे परिवेश में पाया जाता है। और जैसे ठंडे वातावरण में रहने की सज़ा काफी न थी, एंपरर पेंग्विन को अपने अंडे जाड़े के मौसम में देने पड़ते हैं। ठंड इतनी कि अंडों की कुल्फी जम जाए। मगर जमती नहीं, और अब वैज्ञानिकों ने बताया है कि ये पक्षी अपने अंडों को कड़ाके की ठंड से कैसे बचा पाते हैं।

पहले तो यह देख लें कि इतनी कड़ाके की ठंड में अंडे देने की क्या मजबूरी है जबकि अन्य पेंग्विन्स ऐसे मौसम में अंडे नहीं देते हैं। होता यह है कि जब ढेर सारे चूज़े अंडे फोड़कर निकलते हैं तो उन्हें ढेर सारे भोजन की भी ज़रूरत होती है। इतना भोजन तो वसंत में ही उपलब्ध होता है जब समुद्र पर जमा बर्फ तटों के आसपास पिघलने लगता है। यदि चूज़े वसंत में निकलना है तो अंडे जाड़ों में ही देने होंगे।

पेंग्विन हज़ारों की बस्ती में अंडे देते हैं। हरेक मादा एक अंडा देती है और फिर वह कई महीनों तक भोजन की तलाश में समुद्र की ओर निकल जाती हैं। अंडों की देखभाल का काम नर पेंग्विन्स करते हैं। ऋणात्मक तापमान में अंडों को संभालने के लिए नर पेंग्विन वास्तव में गर्मी के रुाोत में तबदील हो गए हैं। अन्य पक्षियों के समान पेंग्विन का शरीर भी पिच्छों से ढंका होता है। ये पिच्छ ऊष्मा के कुचालक होते हैं और उनके शरीर को वातावरण की ठंड/गर्मी से अलग रखते हैं। एंपरर पेंग्विन के पेट का एक हिस्सा होता है जो पिच्छों से ढंका नहीं होता। इसे शिशु थैली कहते हैं। पेंग्विन अंडे को अपने दोनों पंजों पर टिका कर इसी थैली से सटाकर रखते हैं और पेट के पिच्छों से उसे ढंक लेते हैं। इस प्रकार से अंडा वातावरण की अतियों से महफूज़ रहता है। और पिता के शरीर की गर्मी उसे मिलती रहती है।

पिता पेंग्विन एक काम और करते हैं। वे अपने शरीर की गर्मी को बचाने के लिए बर्फ से अपना संपर्क कम से कम कर देते हैं। इसके लिए वे अपने पंजों को ऊपर उठा लेते हैं और ऐड़ी के बल ज़मीन (यानी बर्फ) पर बैठते हैं तथा संतुलन बनाने के लिए अपनी पूंछ के सिरे की मदद लेते हैं। और इस पोज़ीशन में वे महीनों तक बैठे रहते हैं। इसके अलावा, ये नर पेंग्विन एक काम और करते हैं। वे बड़े-बड़े झुंड में सटकर बैठते हैं ताकि ऊष्मा की हानि कम से कम हो। जहां पेंग्विन के ऐसे जत्थे बैठते हैं वहां का तापमान आसपास के मुकाबले कई डिग्री अधिक होता है।

इन सब तरीकों के मिले-जुले इस्तेमाल की बदौलत ही पेंग्विन अपने अंडों को सुरक्षित रखते हुए सेते हैं और अगली पीढ़ी को दुनिया में आने का मौका देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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एक दुर्लभ ब्लड ग्रुप की जांच संभव हुई – एस. अनंतनारायण

दुर्घटनावश अधिक खून बह जाने पर, सर्जरी के वक्त, किसी बीमारी या अन्य कारणों में मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने की ज़रूरत पड़ती है। सन 1901 में पता लगा था कि मरीज़ को चढ़ाया जाने वाला खून सही रक्त समूह (मरीज के रक्त समूह) का होना चाहिए। इस खोज के पहले, मरीज़ को अन्य व्यक्ति का खून चढ़ाने पर कभी-कभी तो मरीज़ ठीक हो जाते थे लेकिन अक्सर मरीज़ की मृत्यु हो जाती थी क्योंकि उसका शरीर बाहर से चढ़ाए गए खून को अस्वीकार कर देता था। 1901 में पता यह चला था कि रक्त के चार समूह होते हैं और हर व्यक्ति इनमें से किसी एक रक्त समूह का होता है। इसके बाद मरीज़ों को सही रक्त समूह का खून चढ़ाया जाने लगा और मरीज़ बच सके।

वैसे इन चार रक्त समूहों के अलावा कई अन्य गुणधर्मों का भी मिलान करना पड़ता है मगर ये दुर्लभ रक्त समूह के व्यक्तियों के मामले में ज़्यादा महत्वपूर्ण होते हैं। ऐसे मामलों में सिर्फ इतने से बात नहीं बनती कि मरीज़ और रक्तदाता का रक्त समूह मेल खाए। और भी कई कारकों का मिलना आवश्यक होता है। अन्यथा मरीज़ को खुद अपना रक्त सर्जरी या आपात स्थिति के लिए भंडार करके रखना पड़ता है।

ऐसे ही एक दुर्लभ रक्त समूह (Vel नेगेटिव) के बारे में 1952 में पता चला था। यह रक्त समूह रक्त-परीक्षण द्वारा पहचान में नहीं आता है और मरीज़ को खुद पता नहीं होता कि उसे इस दुर्लभ रक्त समूह की ज़रूरत है। इसी वजह से इस रक्त समूह के रक्तदाता पहचाने नहीं जाते और ब्लड बैंक में इसका भंडारण नहीं हो पाता। वरमॉन्ट विश्वविद्यालय के ब्राायन बैलिफ और फ्रेंच नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ब्लड ट्रांसफ्यूज़न के लियोनेल अरनॉड और उनके साथियों ने ईएमबीओ मॉलीक्यूलर मेडिसिन पत्रिका में बताया है कि उन्होंने इस दुर्लभ रक्त समूह की पहचान करने का तरीका खोज लिया है। अब इसकी मदद से लोगों में दुर्लभ रक्त समूहों को पहचाना जा सकेगा।

रक्त समूह

रक्त समूह लाल रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट या उन पर उपस्थित एंटीजन से तय होता है। शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली बाहरी तत्वों के खिलाफ एंटीबॉडी बनाकर उन्हें मारती है। एंटीबॉडी का निर्माण एंटीजन को पहचानकर होता है। किंतु प्रतिरक्षा प्रणाली अपनी रक्त कोशिकाओं की सतह की बनावट को पहचानती है और उन्हें नहीं मारती। रक्त कोशिकाओं की इन्हीं बनावट के आधार पर रक्त को चार रक्त समूह (A, B, AB  और O) में बांटा गया है। रक्त समूह A और B की बनावट एकदम भिन्न होती हैं। AB रक्त समूह में A और B दोनों रक्त समूह की बनावट होती है जबकि O रक्त समूह की कोशिकाओं पर कोई एंटीजन नहीं होते। A, B और O रक्त समूह के लोग सिर्फ अपने रक्त समूह का रक्त ले सकते हैं। जबकि AB रक्त समूह के व्यक्ति किसी भी रक्त समूह (A, B और O) का रक्त ले सकते हैं। चूंकि रक्त समूह O की सतह पर कोई एंटीजन नहीं होते इसीलिए किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को O समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है।

रक्त समूह के अलावा एक और फैक्टर होता है – Rh फैक्टर। Rh फैक्टर नेगेटिव या पॉज़ीटिव हो सकता है। जिन लोगों का रक्त समूह Rh पॉज़ीटिव  होता है उन्हें Rh नेगेटिव रक्त चढ़ा सकते हैं लेकिन इसके विपरीत, Rh नेगेटिव वाले व्यक्ति को Rh पॉज़ीटिव  रक्त नहीं चढ़ा सकते। यानी  A नेगेटिव, B नेगेटिव या O नेगेटिव रक्त समूह के व्यक्ति को सिर्फ उन्हीं के समूह का रक्त चढ़ाया जा सकता है। AB पॉज़ीटिव रक्त समूह के व्यक्ति को किसी भी रक्त समूह का खून चढ़ाया जा सकता है। जबकि O नेगेटिव किसी भी रक्त समूह के व्यक्ति को चढ़ाया जा सकता है।

इनके अलावा लगभग 32 अन्य फैक्टर हैं जिन्हें रक्तदान के समय मिलाने की ज़रूरत होती है। हालांकि यह बहुत ही दुर्लभ मामलों में ज़रूरी होता है। यह देखा गया है कि इनमें से कुछ फैक्टर कुछ खास समुदाय के लोगों में ही होते हैं। जैसे U नेगेटिव रक्त समूह सिर्फ अफ्रीकी मूल के लोगों का होता है। जबकि Vel नेगेटिव और Lan नेगेटिव समूह सिर्फ हल्के रंग की त्वचा के लोगों का होता है। तो यदि रक्तदाता के समुदाय के बारे में पता हो तो इन दुर्लभ रक्त समूहों को इमरजेंसी के वक्त ढूंढ़ने में आसानी होगी।

Vel नेगेटिव रक्त समूह

Vel नेगेटिव ऐसा ही एक दुर्लभ रक्त समूह है। इस रक्त समूह का नाम एक 66 वर्षीय मरीज़ के नाम पर रखा गया है जो आंत के कैंसर से पीड़ित थी। 1962 में इस मामले की जानकारी चिकित्सा शोध पत्रिका रेव्यू डी’हिमेटोलॉजी में प्रकाशित हुई थी। पूर्व में कभी खून चढ़ाने के दौरान वेल के शरीर ने एक अज्ञात यौगिक के खिलाफ एक बहुत ही शक्तिशाली एंटीबॉडी बना ली थी। यह यौगिक सामान्यत: लोगों की लाल रक्त कोशिकाओं में पाया जाता है लेकिन वेल की रक्त कोशिकाओं से नदारद था। इसके बाद इस अज्ञात यौगिक की खोज शुरु हुई और एक नए रक्त समूह Vel नेगेटिव के बारे में पता चला। इसके बाद इससे मिलते-जुलते कई मामले सामने आए। युरोप और उत्तरी अमेरिका के लगभग 2500 लोगों में से एक व्यक्ति का रक्त समूह Vel नेगेटिव  है।

पिछले 60 सालों में यह पता नहीं चल पाया था कि Vel नेगेटिव रक्त समूह के लिए कौन-सा रासायनिक अणु ज़िम्मेदार है। इस वजह से इस रक्त समूह के लोगों की पहचान का भी कोई तरीका नहीं था। इस रक्त समूह के बारे में तभी पता चलता है जब किसी व्यक्ति का शरीर बार-बार बाहरी रक्त को अस्वीकार कर रहा हो। एक तो Vel नेगेटिव रक्त समूह बिरले ही किसी का होता है, ऊपर से इसकी पहचान करना भी मुश्किल है। इस कारण इमर्जेंसी में अघिकांश मरीज़ सही रक्त ना मिल पाने की वजह से मर जाते हैं। यदि रक्त समूह पता हो तो भी इस समूह का रक्तदाता मिलना मुश्किल होता है।

Vel नेगेटिव रक्त समूह की पहचान की मुश्किल हल करने में बैलिफ, अरनॉड और उनके साथियों का योगदान महत्वपूर्ण है। सबसे पहले अरनॉड और उनके साथियों ने Vel नेगेटिव रक्त समूह की एंटीबॉडी काफी मात्रा में इकठ्ठा की। उसके बाद जैव-रासायनिक विधि से लाल रक्त कोशिकाओं की सतह से रहस्यमय प्रोटीन (एंटीबॉडी) को अलग किया। इसके बाद वरमॉन्ट विश्वविद्यालय में बैलिफ के नेतृत्व में कार्य आगे बढ़ा। बैलिफ ने उच्च आवर्धक क्षमता वाले उपकरणों, जो आवेशित आणविक हिस्सों को भी अलग-अलग कर देते हैं, की मदद से छिपकर बैठे प्रोटीन की पहचान की। बैलिफ ने बताया,  “हमें हज़ारों प्रोटीन में से एक को पहचानना था। जो प्रोटीन हमें मिला, वह प्रोटीन के मान से बहुत छोटा था, जिसे SIMM 1 नाम दिया गया।” इसके बाद अरनॉड की टीम ने 70 ऐसे लोगों का परीक्षण किया जिनका रक्त समूह Vel नेगेटिव था। उन्होंने पाया कि हरेक व्यक्ति के जीन में डीएनए का एक हिस्सा गायब था, जो कोशिका को SIMM 1  बनाने का निर्देश देता है। यह इस बात का प्रमाण था कि किसी व्यक्ति की लाल रक्त कोशिका में SIMM 1 प्रोटीन की अनुपस्थिति या कमी की वजह से ही Vel नेगेटिव रक्त समूह बनता है।

इस खोज के बाद किसी व्यक्ति का डीएनए परीक्षण करके इस रक्त समूह की पहचान की जा सकती है। Vel नेगेटिव जैसे दुर्लभ रक्त समूह की पहचान और उसकी आसान उपलब्धता सबके लिए चिकित्साके लक्ष्य की ओर एक कदम है। (स्रोत फीचर्स)

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माइक्रोवेव में रखे अंगूर से चिंगारियां

माइक्रोवेव ओवन में रखे जाने पर अंगूर से चिंगारियां निकलते हुए दिखाने वाले कई वीडियो इंटरनेट पर मौजूद हैं। इन वीडियो में एक अंगूर को दो हिस्सों में इस तरह काटते हैं कि अंगूर का छिलका दोनों टुकड़ों से जुड़ा रहे। फिर इसे माइक्रोवेव में रख दिया जाता है। ये टुकड़े आपस में जहां से जुड़े रहते हैं कुछ देर बाद वहां से चमक पैदा करती गैस निकलती है। ऐसा होने का कारण यह बताया जाता है कि अंगूर के दो टुकड़े माइक्रोवेव विकिरण के लिए एंटिना का काम करते हैं और अंगूर के छिलके की नमी इन दोनों टुकड़ों के बीच चालक का। दोनो एंटिना के बीच अंगूर के छिलके से होते हुए विद्युत बहती है और चमक पैदा होती है।

कनाडा स्थित ट्रेन्ट विश्वविद्यालय के आरोन स्लेपकोव का कहना है कि इंटरनेट पर बताया जा रहा यह कारण सही नहीं है। आरोन के अनुसार वास्तव में होता यह है कि अंगूर के दो टुकड़े दर्पणनुमा केविटी (गड्ढा) बनाते हैं जिनका केन्द्र दोनों टुकड़ों का जुड़ा हुआ हिस्सा (छिलका) होता है। ये केविटी माइक्रोवेव विकिरण को अवशोषित करती हैं और केंद्र पर फोकस कर देती हैं। इसके कारण केन्द्र बहुत गर्म हो जाता है। तब अंगूर के छिलके में मौजूद सोडियम और पोटेशियम के परमाणु आवेशित हो जाते हैं और आवेशित गैस (प्लाज़्मा) का निर्माण करते हैं। जिससे चमक पैदा होती है। इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए आरोन और उनके साथियों ने थर्मल इमेजिंग और कंप्यूटर सिमुलेशन की मदद ली। उन्होंने साबूत अंगूर, अंगूर के टुकड़ों और हाइड्रोजेल मोतियों को माइक्रोवेव में अलग-अलग स्थितियों में रखकर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र की थर्मल इमेजिंग की। देखा गया कि प्लाज़्मा पैदा करने के पीछे दो टुकड़ों के बीच का छिलका मुख्य कारण नहीं है। वास्तव में अंगूर का साइज़ और पर्याप्त नमी विकिरण को अवशोषित करने में भूमिका निभाते हैं। अंगूर के अलावा ब्लैकबेरी, गूज़बेरी और हाइड्रोजेल मोती को माइक्रोवेव में आपस में सटाकर रखने पर भी यही प्रभाव होता है। (स्रोत फीचर्स)

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तीसरी पास कृषि वैज्ञानिक दादाजी खोब्रागड़े – गायत्री क्षीरसागर

तीसरी पास और कृषि वैज्ञानिक? बात कुछ अजीब लगती है। किंतु शोध कार्य करने के लिए केवल तीन बातें ज़रूरी होती हैं – इच्छा शक्ति, जिज्ञासा और कुछ नया सीखने की मानसिकता। इन्हीं तीन खूबियों के चलते नांदेड़, महाराष्ट्र के तीसरी पास दादाजी रामाजी खोब्रागड़े ने धान की नौ किस्में विकसित कीं।

दादाजी को स्कूल में भर्ती होने और सीखने की तीव्र इच्छा थी, किंतु परिवार की गरीबी के कारण वे तीसरी कक्षा तक ही पढ़ पाए। बचपन से ही उन्होंने अपने पिता के साथ खेती करके कृषि का व्यावहारिक ज्ञान प्राप्त किया। सन 1983 में धान के खेत में काम करते समय उनका ध्यान कुछ ऐसी बालियों की ओर गया जो सामान्य बालियों से अलग थीं। दादाजी ने इस धान को सहेज कर उगाया तब उनके ज़ेहन में आया कि धान की इस किस्म की भरपूर फसल मिल सकती है। उन्होंने चार एकड़ में इस धान को लगाया और उन्हें 90 बोरी धान प्राप्त हुआ। सन 1989 में जब वे इस धान को बेचने के लिए कृषि उपज मंडी में ले गए तब इस किस्म का कोई नाम न होने के कारण उन्हें कुछ दिक्कतें आर्इं। उस समय एचएमटी की घड़ियां बहुत लोकप्रिय होने के कारण इस बढ़िया और खुशबूदार चावल की किस्म का नाम एचएमटी रखा गया। उदारमना दादाजी ने इस धान का बीज अपने गांव के अन्य किसानों को दे दिया जिससे उन किसानों को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। इस तरह दादाजी का गांव एचएमटी धान के लिए मशहूर हो गया।

दादाजी केवल इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने अपने काम को बढ़ावा देते हुए अपनी चार एकड़ ज़मीन को प्रयोगशाला बनाया। किसी आधुनिक तकनीक की सहायता के बिना अगले 10 वर्षों में उन्होंने धान की नौ नई किस्में विकसित कीं जिन्हें उन्होंने अपने नाती-पोतों और गांव के नाम दिए – एचएमटी, विजय, नांदेड़, नांदेड़-92, नांदेड हीरा, डीआरके, नांदेड़ दीपक, काटे एचएमटी और डीआरके-2।

आज कई प्रदेशों के किसान धान की इन नई किस्मों का उत्पादन करके अच्छी कमाई कर रहे हैं। ये नई किस्में लोगों को भी पसंद आ रही हैं। किंतु तीसरी तक पढ़े दादाजी को यह ज्ञान नहीं था कि अपने द्वारा विकसित नई किस्मों का पेटेंट कैसे करवाएं। इसका कई लोगों ने फायदा उठाया और नतीजा यह हुआ कि दादाजी को उनके शोधकार्य के लिए उचित मेहनाताना कभी भी नहीं मिला। किंतु कई प्रकार की आर्थिक समस्याओं से जूझते हुए दादाजी ने अपना शोध कार्य जारी रखा। कुछ दिनों बाद बेटे की बीमारी के कारण दादाजी को अपनी प्रयोगशाला यानी ज़मीन गिरवी रखनी पड़ी और हालत अधिक खराब होने पर उसे बेचना ही पड़ा।

अब ऐसा लगने लगा था कि दादाजी का शोध कार्य हमेशा के लिए रुक जाएगा, किंतु उनके एक रिश्तेदार ने उन्हें डेढ़ एकड़ ज़मीन दे दी। पहले की प्रयोगशाला की तुलना में यह ज़मीन छोटी होते हुए भी दादाजी अपनी ज़बरदस्त इच्छाशक्ति और ध्येय तक पहुंचने की ज़िद के आधार पर नए-नए प्रयोग करते रहे। उनके ज्ञान और शोध कार्य को समाज ने लगातार नज़रअंदाज़ किया किंतु विकट आर्थिक स्थिति में भी दादाजी ने किसी भी प्रकार के मान-सम्मान की उम्मीद नहीं रखी।

छोटे गांव में रह कर लगातार शोध कार्य करने के लिए उन्हें सन 2005 में नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन का पुरस्कार दिया गया। इसी प्रकार, तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. अब्दुल कलाम के हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया। इसके बाद दादाजी का नाम पूरे देश में जाना जाने लगा। सन 2006 में महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें कृषिभूषण पुरस्कार से सम्मानित किया। इस अवसर पर उन्हें केवल 25 हज़ार रुपए नकद और सोने का मेडल दिया गया। कुछ समय बाद दादाजी की आर्थिक हालत और भी खराब हो गई और उन्होंने अपना सोने का मेडल बेचने का विचार किया। किंतु उन्हें गहरा धक्का तब लगा जब यह पता चला कि वह मेडल खालिस सोने का नहीं था। जब इस मुद्दे को मीडिया ने और जनप्रतिनिधियों ने उठाया तब उन्हें उचित न्याय मिला।

सन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फोर्ब्स ने दुनिया के सबसे उत्तम ग्रामीण उद्यमियों की सूची में दादाजी को शामिल किया, तब हमारे प्रशासन की नींद खुली। इसके बाद सारी मशीनरी इस या उस बहाने से दादाजी को सम्मानित करने के आयोजनों में जुट गई। उन्हें सौ से अधिक पुरस्कार दिए गए, अनगिनत शालें, हार और तोहफे दिए गए किंतु उनके शोध कार्य को आगे बढ़ाने के लिए जिस प्रकार की आर्थिक सहायता की आवश्यकता थी, वह नहीं मिली। उन्हें अपनी ज़िंदगी का अंतिम पड़ाव गरीबी और अभाव में बिताना पड़ा। 3 जून 2018 को उनका निधन हो गया।

आज भारत में ही नहीं, अपितु सारी दुनिया में कई शोधकर्ताओं का नाम होता है, किंतु कई शोधकर्ताओं को उनके शोध कार्य का उचित आर्थिक मुआवज़ा और समाज में सम्मान नहीं मिल पाता। हमारे देश में कई किसान फसलों के साथ नए-नए प्रयोग कर रहे हैं किंतु जानकारी के अभाव में उनके द्वारा विकसित फसलों को पहचान नहीं मिल पाती और उनका ज्ञान उन्हीं तक सिमट कर रह जाता है। यह आवश्यक है कि अनुभवों से उपजे उनके ज्ञान को सहेजा जाए। दादाजी खोब्रागडे के समान ऐसे अनेक व्यक्ति हैं जो अनपढ़ होते हुए भी अपनी शोध प्रवृत्ति और जिज्ञासा के चलते समाज के विकास के लिए प्रयास कर रहे हैं। ऐसे व्यक्तियों को सभी स्तरों से सहायता प्राप्त होने पर नई खोजें करने के लिए प्रोत्साहन मिल सकेगा।

यदि भारत को सही अर्थों में एक विकसित देश बनाना है तो यह ज़रूरी है कि बिलकुल निचले स्तर के व्यक्ति के मन में भी शोध कार्य के प्रति रुचि जागृत हो। इसके साथ ही यह भी आवश्यक है कि गांवों और छोटे-बड़े शहरों में शोध कार्य के प्रति रुचि रखने वाले और खोजी प्रवृत्ति के ऐसे व्यक्तियों को यथोचित सम्मान और उचित पारिश्रमिक देकर उनके साथ न्याय किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सौर मंडल के दूरस्थ पिंड की खोज

धिकांश लोगों के लिए ठंड का समय काफी अनुत्पादक होता है। लेकिन कुछ लोग इस मौसम का इस्तेमाल सौर मंडल में दूरस्थ पिंडों की खोज के लिए करते हैं। कार्नेगी इंस्टीट्यूशन फॉर साइंस के खगोलशास्त्री स्कॉट शेपर्ड ने शहर में हो रही भारी बर्फबारी के चलते इस मौके का फायदा उठाया। खराब मौसम के चलते एक सार्वजनिक व्याख्यान कुछ देर स्थगित होने के कारण उन्होंने दूरबीन से प्राप्त सौर मंडल के सीमांत दृश्यों को देखना शुरू किया। उनकी टीम पहले से ही परिकल्पित नौवें विशालकाय ग्रह की खोज में लगी थी।

दूरबीन के दृश्यों को देखते हुए उन्होंने 140 खगोलीय इकाई की दूरी पर एक धुंधला पिंड देखा। गौरतलब है कि खगोलीय इकाई पृथ्वी से सूर्य की दूरी के बराबर होती है। यह पिंड हमारे सौर मंडल का अभी तक ज्ञात सबसे दूरस्थ पिंड है जो प्लूटो से लगभग 3.5 गुना अधिक दूर है। शेपर्ड ने 21 फरवरी को बताया कि यदि इस पिंड की पुष्टि हो जाती है, तो यह दिसंबर में खोजे गए 120 खगोलीय इकाई दूर स्थित बौने ग्रह की खोज का रिकॉर्ड तोड़ देगा। उस बौने ग्रह को ‘फारआउट’ (अत्यंत दूर) नाम दिया गया था तो हो सकता है इसे ‘फारफारआउट’ (अत्यंत-अत्यंत दूर) कहा जाए।

पिछले एक दशक में शेपर्ड और उनके सहयोगियों – नॉर्थ एरिज़ोना विश्वविद्यालय के चाड टØज़िलो और हवाई विश्वविद्यालय के डेव थोलेन ने दुनिया के कुछ सबसे शक्तिशाली और विस्तृत परास वाली दूरबीनों की मदद से रात के आकाश को व्यवस्थित रूप से छाना है। उनके प्रयासों से सूर्य से 9 अरब किलोमीटर से अधिक दूरी पर स्थित पिंडों में से 80 प्रतिशत को ताड़ लिया गया है।

यह सिर्फ सूची को बढ़ाते जाने की बात नहीं है। इनकी मदद से नौवे ग्रह के प्रभाव को जाना जा सकता है। फारआउट की तरह, फारफारआउट की कक्षा भी अभी तक ज्ञात नहीं है। जब तक इसकी कक्षा के बारे में जानकारी नहीं मिलती तब तक यह बता पाना मुश्किल है कि ये पिंड कब तक सौर मंडल में दूर रहकर अन्य विशाल ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण बल से मुक्त रहेंगे। यदि ऐसा होता है, तो ये दोनों शेपर्ड की हालिया खोजों में से एक गोबलिन के समकक्ष हो सकते हैं।

फारआउट और फारफारआउट की कक्षाओं को निर्धारित करने में कई साल लगेंगे। तब तक शेपर्ड अपनी पसंदीदा दूरबीनों से लगभग हर अमावस्या की रात को खोज करने के लिए जुटे रहेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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