बिल्लियां साफ-सुथरी कैसे बनी रहती हैं

बिल्लियों के मालिक जानते हैं कि वे जितने समय जागती हैं, उसमें वे या तो अपने मालिक को खुश करके प्यार पाने की कोशिश करती रहती हैं या उछल-कूद मचाती रहती हैं। शेष समय वे खुद को चाटती रहती हैं। और अब 3-डी स्कैन तकनीक की मदद से वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि ऐसा करते समय बिल्लियां सिर्फ अपना थूक शरीर पर नहीं फैलातीं बल्कि स्वयं की गहराई से सफाई भी करती हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (यूएस) में प्रकाशित शोध पत्र में इस प्रक्रिया का विवरण प्रस्तुत हुआ है। अध्ययन के लिए तरह-तरह की बिल्लियों की जीभों के नमूने लिए गए थे। ये नमूने पोस्ट मॉर्टम के बाद  प्राप्त हुए थे। इनमें एक घरेलू बिल्ली, एक बॉबकैट, एक प्यूमा, एक हिम तंदुआ और एक शेर शामिल था। चौंकिए मत, तेंदुए, शेर, बाघ वगैरह बिल्लियों की ही विभिन्न प्रजातियां हैं।

इन सब बिल्लियों की जीभ पर शंक्वाकार उभार थे जिन्हें पैपिला कहते हैं। और सभी के पैपिला के सिरे पर एक नली नुमा एक गर्त थी। बिल्लियां पानी के गुणों का फायदा उठाकर अपनी लार को बालों के नीचे त्वचा तक पहुंचाने में सफल होती है। पानी के ये दो गुण हैं पृष्ठ तनाव और आसंजन। पृष्ठ तनाव पानी के अणुओं के बीच लगने वाला बल है जिसकी वजह से वे एक-दूसरे से चिपके रहते हैं। दूसरी ओर, आसंजन वह बल है जो पानी के अणुओं को पैपिला से चिपकाए रखता है।

जब बिल्लियों की खुद को चाटने की प्रक्रिया को स्लो मोशन में देखा गया तो पता चला कि चाटते समय उनकी जीभ के पैपिला लंबवत स्थिति में रहते हैं। इस वजह से वे बालों के बीच में से अंदर तक जाकर त्वचा की सफाई कर पाते हैं। वैज्ञानिकों ने पैपिला की इस क्रिया का उपयोग करके एक कंघी भी बना ली है जिसे वे ‘जीभ-प्रेरित कंघी’ कहते हैं। इसका उपयोग करने पर पता चला कि यह मनुष्यों के बालों की बेहतर सफाई कर सकती है।

बिल्ली द्वारा खुद को चाटने का एकमात्र फायदा सफाई के रूप में नहीं होता। लार को फैलाकर वे खुद को शीतलता भी प्रदान करती है। गौरतलब है कि बिल्लियों में पसीना ग्रंथियां पूरे शरीर पर नहीं पाई जातीं बल्कि सिर्फ उनके पंजों की गद्दियों पर होती हैं। मनुष्यों में पूरे शरीर पर पाई जाने वाली पसीना ग्रंथियों से निकलने वाला पसीना शरीर को ठंडा रखने में मदद करता है। इन पसीना ग्रंथियों के अभाव में बिल्लियां अपनी लार की मदद लेती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया का बढ़ता प्रकोप – नवनीत कुमार गुप्ता

लवायु परिवर्तन के साथ कई रोग तेज़ी से फैल रहे हैं। ऐसे ही रोगों में से एक है मलेरिया। मलेरिया मच्छरों में पाए जाने वाले प्लाज़्मोडियम परजीवी के कारण फैलता है, जो मच्छरों के काटने से इंसानों के खून में पहुंच जाता है। मलेरिया वैसे तो मात्र बुखार होता है लेकिन उचित इलाज न किया जाए तो इसका असर लंबे समय तक तथा गंभीर होता है।

प्लाज़्मोडियम परजीवी की पांच प्रजातियों में से फाल्सिपेरम अब तक की सबसे आम प्रजाति मानी जाती है, उसके बाद वाइवैक्स का नंबर आता है। अधिकांश मौतें फाल्सिपेरम के कारण हुई हैं, लेकिन हाल में इस बात के भी सबूत मिले हैं कि वाइवैक्स प्रजाति भी जानलेवा हो सकती है।

प्लाज़्मोडियम की जांच के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण उपलब्ध हैं। फिर भी मलेरिया की मानक जांच के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन, मूलभूत माइक्रोस्कोपिक जांच तथा रैपिड डाइग्नोस्टिक टेस्ट (आरटीडी) को प्रामाणिक मानता है। लेकिन इन जांचों की सीमाएं हैं। ये मलेरिया संक्रमण के बारे में बताती हैं, लेकिन विभिन्न परजीवियों में भेद नहीं कर पातीं। इसके कारण इलाज में देरी होती है।

भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद के अंतर्गत जबलपुर में कार्यरत राष्ट्रीय जनजाति स्वास्थ्य अनुसंधान संस्थान के निदेशक प्रोफेसर अपरूप दास तथा उनकी टीम ने सामान्य जांच विधि तथा आधुनिक पीसीआर तकनीक के द्वारा भारत के 9 राज्यों में 2000 से अधिक रक्त नमूनों की जांच की। उनका निष्कर्ष है कि मलेरिया की सटीक जांच के लिए डीएनए आधारित जांच विधि पोलीमरेज़ चेन रिएक्शन या पीसीआर  का विस्तृत इस्तेमाल किया जाना चाहिए। डॉ. दास तथा उनकी टीम ने पाया कि मलेरिया संक्रमण के 13 प्रतिशत मामलों में फाल्सिपेरम तथा वाइवैक्स दोनों प्रकार के परजीवी पाए गए हैं। जांच से यह भी पता चला कि है कि मलेरिया परजीवी की पी. मलेरिए नामक प्रजाति खतरनाक होती जा रही है।

गंभीर बात यह है कि एकाधिक प्रजातियों से होने वाले मलेरिया के लिए अब तक कोई सटीक जांच या उपचार विधि उपलब्ध नहीं है। आम तौर पर तकनीशियन एक प्रकार के परजीवी के के बाद दूसरे प्रकार की जांच नहीं करते।

इस सर्वेक्षण का निष्कर्ष यह निकला है कि वाइवैक्स की तुलना में फाल्सिपेरम की अधिकता है। इन दोनों परजीवियों के संयुक्त संक्रमण में वृद्धि हो रही है, जैसा पहले नहीं था। मलेरिए पहले ओड़िशा में ही सीमित था, लेकिन अब पाया गया है कि यह देश के दूसरे भागों में भी फैल रहा है। मच्छरों में कीटनाशकों तथा मलेरिया परजीवियों में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध विकसित होना भी भारत में मलेरिया उन्मूलन की दिशा में सबसे बड़ी बाधा है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार 2016 में दुनिया भर में मलेरिया के मामलों में 50 लाख की वृद्धि हुई है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 2030 तक मलेरिया के पूर्ण उन्मूलन की एक रणनीति तैयार की है। भारत स्वयं भी मलेरिया से छुटकारा पाना चाहता है। मलेरिया के मरीज़ों की संख्या के लिहाज़ से भारत पूरी दुनिया में तीसरे नंबर पर है। आशा है कि प्रोफेसर अपरूप दास तथा उनकी टीम के महत्वपूर्ण शोध तथा उचित समय पर सामने आए नतीजे 2030 तक मलेरिया उन्मूलन के लक्ष्य को प्राप्त करने में मददगार साबित होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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दिमाग की कोशिकाएं अपने जीन बदलती रहती हैं

हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि दिमाग की तंत्रिका कोशिकाओं में मूल जेनेटिक बनावट को लगातार बदला जाता है और तमाम किस्म के नए-नए संस्करण बनते रहते हैं। इस अध्ययन से जुड़े वैज्ञानिकों का मत है कि संभवत: यह प्रक्रिया अल्ज़ाइमर रोग के मूल में हो सकती है।

यह बात तो 1970 के दशक में पता चल गई थी कि कुछ कोशिकाएं अपने डीएनए को उलट-पलट कर सकती हैं, उसमें परिवर्तन कर सकती हैं। जैसे, प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं उन जीन्स को हटा देती हैं जो किसी रोगजनक को पहचानकर उससे लड़ने के लिए प्रोटीन बनाने का काम करते हैं। इन जीन्स को हटाने के बाद शेष डीएनए को जोड़कर वापिस साबुत कर दिया जाता है। जीन्स के इस तरह के पुनर्मिश्रण को कायिक पुनर्मिश्रण कहते हैं।

इस बात के कई सुराग मिले हैं कि ऐसा कायिक पुनर्मिश्रण दिमाग में चलता रहता है। देखा गया है कि तंत्रिकाएं प्राय: एक-दूसरे से काफी अलग-अलग जेनेटिक बनावट रखती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया के प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं थे। अब सैनफोर्ड बर्नहैम प्रीबाइस मेडिकल डिस्कवरी इंस्टीट्यूट के तंत्रिका वैज्ञानिक जेरॉल्ड चुन और उनके साथियों ने छ: स्वस्थ बुज़ुर्ग व्यक्तियों द्वारा दान किए गए दिमागों तथा सात अल्ज़ाइमर रोगियों के दिमागों की तंत्रिकाओं का विश्लेषण करके उक्त प्रक्रिया का प्रमाण जुटाने का प्रयास किया है। अल्ज़ाइमर रोगी गैर-वंशानुगत अल्ज़ाइमर से पीड़ित थे।

शोधकर्ताओं ने उक्त व्यक्तियों के मस्तिष्क में एक खास जीन में परिवर्तनों का अध्ययन किया। यह जीन एमिलॉइड पूर्ववर्ती प्रोटीन (एपीपी) बनाने का निर्देश देता है। यही प्रोटीन अल्ज़ाइमर रोगियों में प्लाक बनने का कारण होता है। शोधकर्ता देखना चाहते थे कि क्या अल्ज़ाइमर रोगियों में एपीपी जीन के विभिन्न संस्करण पाए जाते हैं।

नेचर नामक शोध पत्रिका में उन्होंने रिपोर्ट किया है कि तंत्रिकाओं में एपीपी जीन के एक-दो नहीं बल्कि हज़ारों परिवर्तित रूप मौजूद थे। कुछ रूपांतरण तो डीएनए में मात्र एक क्षार इकाई में परिवर्तन के फलस्वरूप हुए थे जबकि कुछ मामलों में डीएनए के बड़े-बड़े खंडों को हटा दिया गया था और शेष बचे डीएनए को सिल दिया गया था। चुन व उनके साथियों ने पाया कि अल्ज़ाइमर रोगियों में रूपांतरित जीन्स की संख्या सामान्य लोगों से छ: गुना ज़्यादा थी। वैसे शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि एपीपी जीन के इतने संस्करणों का होना कुछ मामलों में लाभप्रद भी हो सकता है। मगर कुछ लोगों में इस प्रक्रिया से एपीपी जीन के हानिकारक रूप बन जाते हैं जो अल्ज़ाइमर जैसे रोगों के लिए ज़िम्मेदार होते हैं।

शोधकर्ताओं ने इस तरह के रूपांतरण की क्रियाविधि का भी अनुमान लगाने की कोशिश की है। कोशिकाओं में डीएनए के किसी खंड (जीन) से प्रोटीन बनाने के लिए उस हिस्से की आरएनए प्रतिलिपि बनाई जाती है। कभी-कभी एक एंज़ाइम की सक्रियता के चलते इस आरएनए की पुन: प्रतिलिपि बनाई जाती है जो डीएनए के रूप में होती है। यह डीएनए जाकर जीनोम में जुड़ जाता है। आरएनए से डीएनए बनाने की प्रक्रिया में ज़्यादा त्रुटियां होती हैं, इसलिए जो नया डीएनए बनता है वह प्राय: मूल डीएनए से भिन्न होता है। ऐसे डीएनए के जुड़ने से नए-नए संस्करण प्रकट होते रहते हैं।

एक सुझाव यह है कि आरएनए से वापिस डीएनए बनने की प्रक्रिया को रोककर अल्ज़ाइमर की रोकथाम संभव है। एड्स वायरस पर नियंत्रण के लिए इस तकनीक का सहारा लिया जाता है। बहरहाल, यह तकनीक अपनाने से पहले काफी सावधानीपूर्वक पूरे मामले का अध्ययन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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नकली चांद की चांदनी से रोशन होगा चीन! – प्रदीप

चांद मानव कल्पना को हमेशा से रोमांचित करता रहा है। भला चांद की चाहत किसे नहीं है? विश्व की लगभग सभी भाषाओं के कवियों ने चंद्रमा के मनोहरी रूप पर काव्यसृष्टि की है।  मगर नकली चांद? इस लेख का शीर्षक  पढ़कर आप हैरान रह गए होंगे। मगर यदि चीन की आर्टिफिशियल मून यानी मानव निर्मित चांद बनाने की योजना सफल हो जाती है, तो चीन के आसमान में 2020 तक यह चांद चमकने लगेगा। यह नकली चांद चेंगडू शहर की सड़कों पर रोशनी फैलाएगा और इसके बाद स्ट्रीटलैंप की ज़रूरत नहीं रहेगी।  

चीन इससे अंतरिक्ष में बड़ी ऊंचाई पर पहुंचने की तैयारी में है। वह इस प्रोजेक्ट को 2020 तक लॉन्च करना चाहता है। इस प्रोजेक्ट पर चेंगडू एयरोस्पेस साइंस एंड टेक्नॉलॉजी माइक्रोइलेक्ट्रॉनिक्स सिस्टम रिसर्च इंस्टीट्यूट कॉर्पोरेशन नामक एक निजी संस्थान पिछले कुछ वर्षों से काम कर रहा है। चीन के अखबार पीपुल्स डेली के अनुसार अब यह प्रोजेक्ट अपने अंतिम चरण में है। चाइना डेली अखबार ने चेंगड़ू एयरोस्पेस कार्पोरेशन के निदेशक  वु चेन्फुंग के हवाले से लिखा है कि चीन सड़कों और गलियों को रोशन करने वाले बिजली खर्च को घटाना चाहता है। नकली चांद से 50 वर्ग कि.मी. के इलाके में रोशनी करने से हर साल बिजली में आने वाले खर्च में से 17.3 करोड़ डॉलर बचाए जा सकते हैं। और आपदा या संकट से जूझ रहे इलाकों में ब्लैकआउट की स्थिति में राहत के कामों में भी सहायता मिलेगी। वु कहते हैं कि अगर पहला प्रोजेक्ट सफल हुआ तो साल 2022 तक चीन ऐसे तीन और चांद आसमान में स्थापित सकता है।

सवाल उठता है कि यह नकली चांद काम कैसे करेगा? चेंगडू एयरोस्पेस के अधिकारियों के मुताबिक यह नकली चांद एक शीशे की तरह काम करेगा, जो सूर्य की रोशनी को परावर्तित कर पृथ्वी पर भेजेगा। यह चांद हूबहू पूर्णिमा के चांद जैसा ही होगा मगर, इसकी रोशनी असली चांद से आठ गुना अधिक होगी। नकली चांद की रोशनी को नियंत्रित किया जा सकेगा। यह पृथ्वी से 500 कि.मी. की दूरी पर स्थित होगा। जबकि असली चांद की पृथ्वी से दूरी 3,80,000 कि.मी. है।

चीन अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम से अमेरिका और रूस की बराबरी करना चाहता है और इसके लिए उसने ऐसी कई महत्वाकांक्षी परियोजनाएं बनाई है। हालांकि चीन पहला ऐसा देश नहीं है जो नकली चांद बनाने की कोशिश में जुटा है, इससे पहले नब्बे के दशक में रूस और अमेरिका नकली चांद बनाने की असफल कोशिश कर चुके हैं लेकिन नकली चांद स्थापित करने की राह अभी भी इतनी आसान नहीं है क्योंकि पृथ्वी के एक खास इलाके में रोशनी करने के लिए इस मानव निर्मित चांद को बिलकुल निश्चित जगह पर रखना होगा, जो इतना आसान नहीं है।

चीन के इस प्रोजेक्ट पर पर्यावरणविदों ने सवाल उठाने शुरू किए हैं। उनका कहना है कि इस प्रोजेक्ट से पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। दिन को सूरज और रात को नकली चांद के कारण वन्य प्राणियों का जीना दूभर हो जाएगा और वे खतरे में पड़ जाएंगे। पेड़पौधों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा और प्रकाश प्रदूषण भी बढ़ेगा। कवियों को भी ऐसे चांद से परेशानी हो सकती है क्योंकि तब सवाल यह उठेगा कि बात असली चांद की जगह नकली की तो नहीं की जा रही है! (स्रोत फीचर्स)

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गर्भाशय में भ्रूण की सुरक्षा

र्भावस्था जीव विज्ञान की एक पेचीदा पहेली रही है। गर्भावस्था के दौरान आश्चर्यजनक बात यह होती है कि मां का प्रतिरक्षा तंत्र भ्रूण को नष्ट नहीं करता जबकि भ्रूण में तमाम पराए पदार्थ भरे होते हैं। आम तौर पर प्रतिरक्षा तंत्र किसी भी पराई वस्तु पर हमला करके उसे नष्ट करने की कोशिश करता ही है। तो गर्भावस्था में ऐसा क्या होता है कि प्रतिरक्षा तंत्र शिथिल हो जाता है और प्रसव तक शिथिल रहता है?

कैम्ब्रिज के वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट की सारा टाइचमैन इसी पहलू का अध्ययन करती रही हैं। उनका कहना है कि जच्चाबच्चा का संपर्क काफी पेचीदा होता है और हम इसे भलीभांति समझते भी नहीं हैं किंतु एक सफल गर्भावस्था के लिए यह निर्णायक होता है।

इसी संपर्क की क्रियाविधि को समझने के लिए टाइचमैन और उनके साथियों मां और भ्रूण की एकएक कोशिका के बीच परस्पर क्रिया को समझने का रास्ता अपनाया। उन्होंने 70,000 सफेद रक्त कोशिकाओं तथा आंवल और गर्भाशय में बने अस्तर की कोशिकाओं को देखा। ये कोशिकाएं उन्हें ऐसी महिलाओं से प्राप्त हुई थीं जिन्होंने अपना गर्भ 6-14 सप्ताह में समाप्त कर दिया था। आधुनिक तकनीक का उपयोग करते हुए उन्होंने प्रत्येक कोशिका की जीनसक्रियता का आकलन किया और पता लगाया कि उसमें कौनकौन से प्रोटीन उपस्थित हैं और इसके आधार पर तय किया कि वह कोशिका किस किस्म की है।

इस तरह से उन्हें 35 किस्म की कोशिकाओं का पता चला। इनमें से कुछ पहले से ज्ञात थीं। इनमें से कुछ ऐसी भ्रूणीय कोशिकाएं थीं जो मां के ऊतकों में प्रवेश करके रक्त नलियों का विकास शुरू करवाती हैं जिनके माध्यम से मां और भ्रूण का सम्बंध बनता है। उन्हें अपनी खोज में कुछ ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं भी मिली जिन्हें नेचुरल किलर सेल कहते हैं। ये आम तौर पर संक्रमित कोशिकाओं और कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करती हैं।

जब इन अलगअलग कोशिकाओं की परस्पर क्रिया को देखा गया तो पता चला कि कुछ घुसपैठी भ्रूणीय कोशिकाएं मां की कोशिकाओं को ऐसी प्रतिरक्षा कोशिकाएं बनाने को उकसाती हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र की शेष कोशिकाओं पर अंकुश का काम करती हैं। टाइचमैन की टीम ने नेचर शोध पत्रिका में रिपोर्ट किया है कि मां की कुछ नेचुरल किलर सेल शांति सेना का काम करती हैं और अन्य प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भ्रूण पर हमला करने से रोकती हैं। ये ऐसे रसायन भी बनाती हैं जो भ्रूण के विकास में मदद करते हैं और रक्त नलिकाओं के जुड़ाव बनवाते हैं।

शोधकर्ताओं का मत है कि अभी उन्होंने मां और भ्रूण की कोशिकाओं की सारी अंतर्क्रियाओं का अध्ययन नहीं किया है और न ही यह एक टीम के बस की बात है। लिहाज़ा उन्होंने एक ऑनलाइन डैटाबेस स्थापित किया है ताकि समस्त शोधकर्ता इस दिशा में काम को आगे बढ़ा सकें। (स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क को भी प्रभावित करता है वायु प्रदूषण – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

मारे जीवन के लिए वायु की उपलब्धता अत्यन्त आवश्यक है। इसके बिना हम कुछ क्षण से अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकते। परन्तु यह भी ज़रूरी है कि जिस हवा को हम सांस द्वारा ग्रहण करते हैं वह शुद्ध हो। विभिन्न प्रकार के प्रदूषकों से युक्त हवा हमारे स्वास्थ्य के लिए कई तरह से हानिकारक साबित होती है। आज औद्योगिक विकास के दौर में समयसमय पर नएनए कारखाने स्थापित किए जा रहे हैं जिनकी चिमनियों से निकलने वाले धुएं से हमारा वायुमंडल निरन्तर प्रदूषित होता जा रहा है। साथ ही स्वचालित वाहनों की बढ़ती संख्या ने वायुमंडल को प्रदूषित करने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है। इस प्रकार से प्रदूषित वायु में रहने के कारण लोग कई रोगों से ग्रस्त हो रहे हैं।

पहले लोगों की धारणा थी वायु प्रदूषण के कारण सिर्फ हमारे फेफड़ों और हृदय को ही नुकसान पहुंचता है। परन्तु हाल में किए गए अध्ययनों एवं अनुसंधानों का निष्कर्ष है कि वायु प्रदूषण फेफड़ों और हृदय के अतिरिक्त हमारे मस्तिष्क को भी बुरी तरह प्रभावित करता है। ऐसा ही एक अध्ययन संयुक्त राज्य अमेरिका के येल विश्वविद्यालय तथा चीन के बेजिंग विश्वविद्यालय में कार्यरत शोधकर्ताओं द्वारा हाल ही में किया गया है। इस अध्ययन से सम्बंधित एक शोध पत्र कुछ ही समय पूर्व नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस के जर्नल में प्रकाशित हुआ था। इसमें बताया गया है कि यदि कोई व्यक्ति लंबे समय तक प्रदूषित वायु में रहता है तो उसके संज्ञान या अनुभूति ग्रहण करने की क्षमता बुरी तरह प्रभावित होती है। विशेष कर बुज़ुर्ग लोग वायु प्रदूषण से ज़्यादा प्रभावित होते हैं। बहुत से बुज़ुर्ग तो बोलने में काफी कठिनाई अनुभव करते हैं।

वॉशिंगटन स्थित इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टिट्यूट में कार्यरत वैज्ञानिकों के अनुसार जो लोग बहुत लंबे समय तक वायु प्रदूषण की चपेट में रहते हैं उनकी बोलने और गणितीय आकलन की क्षमता बहुत अधिक घट जाती है। इस प्रकार का प्रतिकूल प्रभाव महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों पर अधिक देखा गया है। इस अध्ययन में चीन में सन 2010 से 2014 के बीच 32,000 लोगों पर सर्वेक्षण किया गया था। उन पर अल्पकालीन और दीर्घकालीन प्रभावों का अध्ययन किया गया।

अब एक महत्वपूर्ण प्रश्न यह उठता है कि उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष क्या सिर्फ चीन पर लागू होता है? ग्रीनपीस इंडिया में कार्यरत सुनील दहिया के मुताबिक उपरोक्त अध्ययन से निकाला गया निष्कर्ष भारत पर भी पूरी तरह लागू होता है क्योंकि चीन और भारत दोनों ही देशों में वायुप्रदूषण का स्तर लगभग एक समान है। भारत में सन 2015 में लगभग 25 लाख लोगों की मृत्यु वायु प्रदूषण के कारण उत्पन्न समस्याओं की वजह से हुई थी। भारत में 14 वर्ष से कम उम्र के लगभग 28 प्रतिशत बच्चे वायु प्रदूषण से प्रभावित हैं। गर्भ में पल रहे बच्चों पर भी वायु प्रदूषण  का काफी बुरा प्रभाव पड़ता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा संकलित आंकड़ों के अनुसार विश्व स्तर पर लगभग 90 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में वायु प्रदूषण से उत्पन्न गम्भीर समस्याओं से जूझ रहे हैं।

भारत के विज्ञान एवं पर्यावरण केंद्र (सीएसई) ने नवम्बर 2017 में एक अध्ययन के आघार पर निष्कर्ष निकाला था कि अपने देश में रोगों के कारण होने वाली 30 प्रतिशत असमय मौतों का मुख्य कारण वायु प्रदूषण ही है। भारत में वायु प्रदूषण की समस्या काफी चिंताजनक स्थिति में पहुंच चुकी है। विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा किए गए एक आकलन के अनुसार संसार के सर्वाधिक वायु प्रदूषित 15 शहरो में से 14 शहर सिर्फ भारत में हैं तथा देश के अधिकांश क्षेत्रों में वायु की गुणवत्ता निरंतर घटती जा रही है, वायु प्रदूषण में वृद्धि लगातार जारी है। यह समस्या अब सिर्फ नगरों या उद्योग प्रधान शहरों तक ही सीमित नहीं रह गई है। महानगरों से बहुत पीछे माने जाने वाले नगरों में भी वायु प्रदूषण का स्तर साल के अधिकांश समय खतरे की सीमा को पार कर जाता है। उदाहरण के तौर पर पटना में सन 2017 में हवा में लंबित घातक सूक्ष्म कणों (पीएम 2.5) की मात्रा निगरानी के कुल 311 दिनों में से सिर्फ 81 दिन ही स्वास्थ्य सुरक्षा की निर्धारित सीमा के भीतर पाई गई। पटना में पिछले वर्ष कुछ दिन तो ऐसे रहे जब पीएम 2.5 की हवा में उपस्थिति 600 माइक्रोग्राम प्रति घन मीटर से ज़्यादा थी। प्रदूषण का यह स्तर भारत सरकार द्वारा निर्धारित सुरक्षा मानक से 15 गुना अधिक है।

बढ़ती बीमारियों पर होने वाले खर्च को कम करने के दृष्टिकोण से वायु प्रदूषण को रोकने के लिए सरकार को कुछ प्रभावी कदम उठाने पड़ेंगे। विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने सन 2017 में तैयार किए गए अपने प्रतिवेदन में ध्यान दिलाया था कि पर्यावरणीय कारणों से उत्पन्न होने वाले खतरों की पहचान और उससे निपटने के उपाय किए बिना भारत गैर संक्रामक रोगों (जैसे हृदय रोग, सांस रोग, मधुमेह और कैंसर इत्यादि) की वृद्धि पर अंकुश लगाने में बिलकुल कामयाब नहीं हो सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के मुख्य कारक के तौर पर शराब, तम्बाकू, कम गुणवत्ता वाले आहार तथा शारीरिक परिश्रम की कमी की पहचान की है और इसके लिए प्रति व्यक्ति 1-3 डॉलर के खर्च को आवश्यक माना है। परन्तु विज्ञान व पर्यावरण केंद्र ने अपने प्रतिवेदन में कहा था कि भारत में गैर संक्रामक रोगों की वृद्धि के कारकों में पर्यावरणीय जोखिम (जैसे वायु प्रदूषण) का भी आकलन आवश्यक है। साथ ही, स्वास्थ्य सुरक्षा और आर्थिक विकास की नीतियां भी पर्यावरणीय जोखिम को ध्यान में रखकर बनाई जानी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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बिच्छू का ज़हर निकालने वाला रोबोट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

चपन से ही माउद मकमल को पालतू जानवर के रूप में सांप और बिच्छू पालने का शौक था। बड़े होतेहोते यह शौक परवान चढ़ा। शोध के लिए उन्होंने बिच्छुओं को चुना। मकमल अब मोरक्को के किंगहसन केसाब्लांका विश्वविद्यालय में बिच्छू के ज़हर पर शोध कर रहे हैं। हाल ही में उन्होंने बिच्छू का ज़हर निकालने के लिए एक रोबोट बनाया है। रोबोट बनाने का विचार इसलिए आया क्योंकि चिकित्सकीय महत्व के कारण अन्तर्राष्ट्रीय बाज़ार में एक ग्राम बिच्छू के ज़हर की कीमत 4.5-5.50 लाख रुपए होती है। यानी यह दुनिया के सबसे महंगे द्रवों में से एक है।

बिच्छू मकड़ियों के नज़दीकी रिश्तेदार हैं। इनका शरीर खंडों वाला, टांगें जोड़ वाली तथा शरीर का बाह्य भाग कठोर आवरण से ढंका रहता है। कठोर आवरण कवच का कार्य करता है तथा रेगिस्तानी बिच्छुओं को असहनीय गर्मी तथा शत्रुओं के हमले से बचाता है।

बिच्छुओं में शिकार को ज़हर से मारने के लिए टेलसन होता है। टेलसन बिच्छू के पूंछ का छोटे रोमों से आच्छादित अंतिम सिरा होता है। डंक के साथ टेलसन में दो विष ग्रंथिया भी होती हैं। बिच्छू का ज़हर विभिन्न प्रकार के प्रोटीन का मिश्रण होता है। प्रत्येक बिच्छू प्रजाति में प्रोटीन अलग प्रकार के होते हैं। बिच्छू शिकार के अनुसार ज़हर में प्रोटीनों की मात्रा तथा प्रकार बदल भी सकते हैं। मतलब एक चूहे या टिड्डे को मारने के लिए ज़हर की मात्रा एवं प्रकार में बदलाव किया जा सकता है। बिच्छू की अधिक ज़हरीली प्रजातियों में अल्फा तथा बीटा स्कॉर्पियान नामक दो प्रोटीन ज्ञात किए गए हैं। ये दोनों प्रोटीन संवेदनशील सोडियम एवं पोटेशियम चैनलों को अवरूद्ध कर तंत्रिका तंत्र को आघात पहुंचाते हैं।

बिच्छू को पालना बेहद आसान है पर बिच्छू का ज़हर निकालना बेहद ही कठिन है। ज़हर निकालने के लिए बिच्छू को चिमटे से पकड़कर टेबल पर टेप से चिपका दिया जाता है। टेलसन के अंतिम सिरे पर उपस्थित डंक को एक छोटी टयूब में रखा जाता है और इलेक्ट्रोड से 12 वोल्ट का करंट दिया जाता है। उत्तेजना में डंक से ज़हर की बूंदें निकलती हैं। टयूब में आई बूंदों को तुरंत ही फ्रीज़ कर दिया जाता है।

मकमल की टीम ने बिच्छू से ज़हर निकालने के लिए लेब या फील्ड में उपयोग में लाए जा सकने वाले हल्के व वहनीय रोबोट VE.4 का निर्माण किया है। रोबोट की बनावट ऐसी है कि बिच्छू से ज़हर निकालते समय उसे चोट भी नही पहुंचती। VE.4 रोबोट में बिच्छू का एक चेम्बर होता है तथा पूंछ वाले हिस्से को दबाए रखने के लिए दो क्लिप की सहायता ली जाती है। चेम्बर के दरवाज़े से केवल पूंछ बाहर आ सकती है बिच्छू नहीं। पूंछ के अंतिम सिरे टेलसन के नीचे एक ट्यूब में ज़हर को एकत्रित किया जा सकता है। चेम्बर के ऊपर एक ख्र्कक़् स्क्रीन होती है जो बिच्छू की लंबाई के अनुसार चेम्बर तथा पूंछ के प्लेटफार्म को लंबा या छोटा कर सकती है। रिमोट कंट्रोल से कार्य करने के लिए एक इन्फ्रारेड सेन्सर भी होता है। जैसे ही बिच्छू को चेम्बर में डालकर पूंछ को सीधा किया जाता है, रिमोट कंट्रोल का बटन दबाने से दो क्लिप में करंट से बिच्छू का ज़हर ट्यूब में आ जाता है।

बिच्छू के ज़हर का उपयोग लूपस एवं रूमेटाइड ऑर्थराइटिस जैसे असाध्य रोगों में किया जाता है। कई वैज्ञानिक ज़हर का उपयोग इम्यूनोसप्रेसेन्ट्स, एंटीमलेरियल दवाई और कैंसर रिसर्च में कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :https://www.dailymail.co.uk/sciencetech/article-4661774/Robots-milking-scorpions-deadly-venom.html