अरावली पहाड़ियां बची रहीं, तो पर्यावरण भी बचा रहेगा – जाहिद खान

शीर्ष अदालत ने हाल ही में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण से उत्पन्न स्थिति से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए, जिस तरह से राजस्थान सरकार को 48 घंटे के अंदर राज्य के 115.34 हैक्टर क्षेत्र में गैरकानूनी खनन बंद करने का सख्त आदेश दिया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अदालत के इस आदेश से न सिर्फ राजस्थान के पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि दिल्ली के पर्यावरण में भी सुधार आएगा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर कम होगा। लोगों को प्रदूषण और उससे होने वाले नुकसान से निजात मिलेगी।

जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ का इस बारे में कहना था कि यद्यपि राजस्थान को अरावली में खनन गतिविधियों से करीब पांच हज़ार करोड़ रुपए की रॉयल्टी मिलती है, लेकिन वह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों की ज़िंदगी ख़तरे में नहीं डाल सकती। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की एक बड़ी वजह अरावली पहाड़ियों का गायब होना भी हो सकता है। अदालत ने यह आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की उस रिपोर्ट के आधार पर दिया है, जिसमें कहा गया है कि पिछले 50 सालों में अरावली पर्वत शृंखला की 128 पहाड़ियों में से 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं।

केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया था कि अरावली क्षेत्र में गैरकानूनी खनन गतिविधियां रोकने के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने चाहिए, क्योंकि राज्य सरकार इन गतिविधियों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सुनवाई के दौरान जब अदालत ने राजस्थान सरकार से इस बारे में पूछा कि अरावली क्षेत्र में अवैध खनन रोकने के लिए उसने क्या कदम उठाए हैं, तो सरकार की दलील थी कि उनके यहां के सभी विभाग गैरकानूनी खनन रोकने के लिए अपनाअपना कामकर रहे हैं। सरकार ने इस सम्बंध में कारण बताओ नोटिस जारी करने के अलावा कई प्राथमिकी भी दर्ज की हैं। लेकिन अदालत सरकार की इन दलीलों से संतुष्ट नहीं हुई। पीठ ने नाराज होते हुए कहा कि वह राज्य सरकार की स्टेटस रिपोर्ट से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखती, क्योंकि अधिकांश ब्यौरे में सारा दोष भारतीय वन सर्वेक्षण यानी एफएसआई पर मढ़ दिया गया है। सरकार अरावली पहाड़ियों को गैरकानूनी खनन से बचाने में पूरी तरह से नाकाम रही है। उसने इस मामले को बेहद हल्के में लिया है। जिसके चलते समस्या बढ़ती जा रही है। अदालत ने इसके साथ ही राजस्थान के मुख्य सचिव को अपने आदेशों की पूर्ति के संदर्भ में एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। बहरहाल अब इस मामले में अगली सुनवाई 29 अक्टूबर को होगी।

राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में फैली अरावली पर्वत शृंखला सैकड़ों सालों से गंगा के मैदान के ऊपरी हिस्से की आबोहवा तय करती आई है, जिसमें वर्षा, तापमान, भूजल रिचार्ज से लेकर भूसंरक्षण तक शामिल है। ये पहाड़ियां दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को धूल, आंधी, तूफान और बाढ़ से बचाती रही हैं। लेकिन हाल का एक अध्ययन बतलाता है कि अरावली में जारी खनन से थार रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर लगातार खिसकती जा रही है। राजस्थान से लेकर हरियाणा तक एक विशाल इलाके में अवैध खनन से ज़मीन की उर्वरता खत्म हो रही है। इससे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सूखा और राजस्थान के रेतीले इलाके में बाढ़ के हालात बनने लगे हैं। प्रदूषण से मानसून का पैटर्न बदला है। मानसून के इस असंतुलन से इन इलाकों के रहवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2002 में इस क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने के लिए खनन पर पाबंदी लगा दी थी। बावजूद इसके खनन नहीं रुका है। सरकार की आंखों के सामने गैरकानूनी तरीके से खनन होता रहता है और वह तमाशा देखती रहती है। राजस्थान सरकार ने खुद अदालत में यह बात मानी है कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी राज्य में अवैध खनन जारी है।आज हालत यह है कि राज्य के 15 ज़िलों में सबसे ज़्यादा अवैध खनन हो रहा है। अवैध खनन की वजह इस इलाके में कॉपर, लेड, ज़िंक, सिल्वर, आयरन, ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, मार्बल, चुनाई पत्थर जैसे खनिज पाए जाना है। प्रदेश के कुल खनिजों में से 90 फीसदी खनिज अरावली पर्वत शृंखला और उसके आसपास हैं। नियमों के मुताबिक अरावली पर्वत शृंखला की एक कि.मी. परिधि में खनन नहीं हो सकता, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने नियमों में संशोधन कर राजस्थान के कई ऐसे भूभाग शामिल कर लिए हैं, जो इनके नज़दीक है।

तमाम अदालती आदेशों के बाद भी अवैध खनन के खिलाफ न तो राजस्थान सरकार और प्रशासन ने कोई प्रभावी कार्रवाई की है और न ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इस पर लगाम लगा पाया है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि खनन माफिया बेखौफ होकर अरावली की पहाड़ियों को खोखला कर रहा है। लेखा परीक्षक और नियंत्रक की एक रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान के अंदर अरावली पर्वत शृंखला क्षेत्र में नियमों को ताक में रखकर खनन के खूब पट्टे जारी किए गए, उनका नवीनीकरण किया गया या उन्हें आगे बढ़ाया गया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भी इसके लिए अपनी मंज़ूरियां दीं। नतीजा यह है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहाड़ियां एक के बाद एक गायब होती जा रही हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ के चलते लाखों लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यदि सरकार अब भी इसे बचाने के लिए नहीं जागी, तो इस क्षेत्र का पूरा पर्यावरण खतरे में पड़ जाएगा। अरावली पर्वत शृंखला बची रहेगी, तो इस क्षेत्र का पर्यावरण भी बचा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बिना इंजन के विमान ने भरी उड़ान

वैज्ञानिकों ने एक ऐसा हवाई जहाज़ तैयार किया है जिसमें कोई भी हिस्सा हिलताडुलता या घूमता नहीं है। आम तौर पर हवाई जहाज़ों में या तो पंखे घूमते हैं या जेट इंजिन की मोटर घूमती है। यह नए किस्म का हवाई जहाज़ जिस तकनीक से उड़ेगा उसे इलेक्ट्रोएयरोडाएनेमिक्स (ईएडी) कहते हैं।

वैसे तो इंजीनियर काफी समय से आश्वस्त थे कि ईएडी की मदद से हवाई जहाज़ उड़ाए जा सकते हैं किंतु किसी ने इसका कामकाजी मॉडल तैयार नहीं किया था। वैसे नासा अपने अंतरिक्ष यानों में इस तकनीक का उपयोग करता रहा है।

ईएडी तकनीक में किया यह जाता है कि ज़ोरदार वोल्टेज लगाकर गैस को आयन में परिवर्तित किया जाता है। इन आयनों में काफी गतिज ऊर्जा होती है और ये आसपास की हवा को पीछे की ओर धकेलते हैं। हवा की इस गति के प्रतिक्रियास्वरूप हवाई जहाज़ आगे बढ़ता है।

पूरे सात साल के प्रयासों के बाद कैम्ब्रिज स्थित मेसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के इंजीनियर स्टीवन बैरेट की टीम इस तकनीक से हवाई जहाज़ को उड़ाने में सफल हुई है। वैसे यह हवाई जहाज़ बहुत छोटा सा था और इसे तकनीक का प्रदर्शन मात्र माना जा सकता है किंतु कई टेक्नॉलॉजीविदों का मत है कि यह भविष्य की दिशा तय कर सकता है।

बैरेट की टीम ने जो हवाई जहाज़ बनाया वह मात्र 2.45 कि.ग्रा. का है। इसके डैने करीब 5 मीटर के हैं। डैनों के ऊपर इलेक्ट्रोड लगे हैं जिनके बीच वायु के अणुओं का आयनीकरण होता है। इलेक्ट्रोड्स के बीच वोल्टेज का मान 40,000 वोल्ट होता है। टीम ने इस हवाई जहाज़ का परीक्षण अपने संस्थान के जिम्नेशियम में किया। कई बार की कोशिशों के बाद अंतत: उनका हवाई जहाज़ ज़मीन से आधा मीटर ऊपर 6 मीटर प्रति सेकंड की रफ्तार से 60 मीटर तक उड़ा।

इस पैमाने पर तकनीक को लागू कर लेने के बाद सवाल आएगा इसे बड़े हवाई जहाज़ों के साथ कर पाने का। सभी लोग सहमत हैं कि वह एक बड़ी समस्या होने वाली है क्योंकि जैसेजैसे यान का आकार बढ़ेगा, उसका वज़न भी बढ़ेगा और उसे हवा में ऊपर उठाने तथा आगे बढ़ाने के लिए जितनी शक्ति लगेगी उसके लिए इलेक्ट्रोड तथा बिजली की व्यवस्था आसान नहीं होगी। फिलहाल बैरेट और उनकी टीम इस तकनीक का इस्तेमाल ड्रोन जैसे छोटे यानों में करने पर विचार कर रही है किंतु उन्हें उम्मीद है कि एक दिन वे इसका उपयोग यातायात के क्षेत्र में कर पाएंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि इसमें शोर बिलकुल नहीं होता। किंतु यह भी सोचने का विषय होगा कि इतने बड़े पैमाने पर वायु का आयनीकरण करना पर्यावरण को कैसे प्रभावित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे राष्ट्र

यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ग्रुप ऑफ 20 के देशों ने पेरिस समझौते में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि तीन साल की स्थिरता के बाद  वैश्विक कार्बन उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है। इस वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन के खतरनाक स्तर को रोकने के लिए निर्धारित लक्ष्य और वास्तविक स्थिति के बीच उत्सर्जन अंतरपैदा हुआ है।  यह 2030 में अनुमानित उत्सर्जन स्तर और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अंतर को दर्शाता है।

वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए समय ज़्यादा नहीं बचा है। अगर उत्सर्जन अंतर 2030 तक खत्म नहीं होता है, तो वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ जाएगा।

वर्तमान हालत को देखते हुए रिपोर्ट ने ग्रुप ऑफ 20 देशों से आग्रह किया है कि 2 डिग्री की दहलीज़ तक सीमित रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुसार उत्सर्जन तीन गुना कम करना होगा। और यदि यह लक्ष्य 1.5 डिग्री निर्धारित किया जाए तो उत्सर्जन पांच गुना कम करना होगा।

वर्ष 2017 में उत्सर्जन का रिकॉर्ड स्तर 53.5 अरब टन दर्ज किया गया। इसको कम करने के लिए शहर, राज्य, निजी क्षेत्र और अन्य गैरसंघीय संस्थाएं जलवायु परिवर्तन पर मज़बूत कदम उठाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 तक वैश्विक तापमान के अंतर को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को 19 अरब टन तक कम करने की आवश्यकता है।

वैसे तो सभी देशों को इस क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है लेकिन इसमें भी विश्व के 4 सबसे बड़े उत्सर्जक चीन, अमरीका, युरोपीय संघ और भारत को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन चार देशों ने पिछले दशक में विश्व भर में होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 56 प्रतिशत का योगदान दिया है। 

चीन अभी भी 27 प्रतिशत के साथ अकेला सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। दूसरी तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोपीय संघ वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के पांचवें भाग से अधिक के लिए ज़िम्मेदार हैं। रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि अगर हम अभी भी तेज़ी से कार्य करते हैं तो क्या पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करना पाना संभव है।

यूएस संसद से सम्बंद्ध हाउस एनर्जी एंड कॉमर्स कमेटी के शीर्ष डेमोक्रेट फ्रैंक पेलोन के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन जलवायु परिवर्तन से निपटने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अमेरिकी प्रयासों को कमज़ोर कर रहा है। पेलोन का स्पष्ट मत है कि अगर हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रण में नहीं लाते हैं, तो आने वाले समय में और भी घातक जलवायु परिवर्तन तथा वैश्विक तपन जैसे परिणामों के लिए तैयार रहें। (स्रोत फीचर्स)

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हंसने से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है – नरेंद्र देवांगन

नुष्य को जब किसी चीज की ज़रूरत होती है तो उसे प्राप्त करने के लिए तनाव पैदा होता है और उस वस्तु को प्राप्त करने की दिशा में काम करने से वह तनाव घटता है। इसे इस तरह समझ लीजिए कि बच्चा जब भूखा होता है तो वह रोता है। यह बच्चे का तनाव है। मां जब बच्चे को दूध पिला देती है तो उसका तनाव घट जाता है।

हमारा व्यवहार अधिकतर हमारी आंतरिक ज़रूरतों पर आधारित रहता है। शरीर में जब रोग पैदा होते हैं तो उनसे लड़ने की ज़रूरत पड़ती है। इसके लिए जब तक शरीर को हंसी का टॉनिक नहीं दिया जाएगा तब तक वह तनावरहित स्थिति में होकर संघर्ष करने की मनोस्थिति नहीं बना पाएगा। इसलिए सदा हंसते रहिए, डॉक्टरी सलाह पर ही सही।

न्यूयार्क के एक बाल चिकित्सालय में बच्चों को खुश रखने के लिए टमाटर जैसी नाक लगाए एक मसखरा सर्कस के जोकर की तरह अपने करतब दिखाता रहता है। बच्चों को अपने रोग से लड़ने की शक्ति प्रदान करने का यह एक मनोवैज्ञानिक तरीका है। इससे उनके निरोग होने के अलावा उनकी शारीरिक दशाओं पर भी अनुकूल प्रभाव पड़ता है। लेखक नार्मिन कज़िंस को जब गठिया रोग ने जकड़ा तो उन्होंने विटामिन सी की खुराकों के साथ गुदगुदाने वाले साहित्य का अनुशीलन भी किया और उनका मंचन भी जी भरकर देखा। कज़िंस के अधिकतर हास्य साहित्य की रचना भी उसी कालावधि की बताई जाती है।

इस मान्यता ने कि शरीर की रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को मस्तिष्क प्रभावित कर सकता है, चिकित्सा जगत के उस भारीभरकम नाम वाले विज्ञान को जन्म दिया है जिसे साइकोन्यूरोइम्यूनोलॉजीकहते हैं। हिंदी में इसे मनोतंत्रिकारोध क्षमता विज्ञानके उतने ही विशालकाय नाम से जानते हैं।

इस क्षेत्र में हुए अधिकतर अनुसंधान ने न्यूरोट्रांसमीटर्स की कार्यप्रणाली को अपना केंद्र बनाया है। मस्तिष्क, इम्यून सिस्टम और कुछ तंत्रिका कोशिकाओं से स्रावित रसायन शरीर के अंदर संदेशों को इधर से उधर पहुंचाते हैं। इन्हें न्यूरोट्रांसमीटर या तंत्रिका संदेशवाहक कहते हैं। इसमें हंसी ने अपना दखल कहां जमाया है, इसे समझना कोई मुश्किल काम नहीं।

अगर किसी बात से हंसतेहंसते आपके पेट में बल पड़ जाएं तो वह हंसी मस्तिष्क को ऐसे पदार्थ न बनाने देने के लिए प्रोत्साहित करती है जो रोग प्रतिरोधक प्रणाली को शिथिल करते हैं जैसे कॉर्टिसोन। तो हंसी ऐसा पदार्थ बनाने के लिए प्रेरित करती होगी, जिससे रोग प्रतिरक्षा प्रणाली को ताकत मिलती है। शक्ति प्रदान करने वाले इस पदार्थ को बीटाएन्डॉर्फिन कहते हैं।

यह एक परिकल्पना है लेकिन इसे समर्थन देने वाले अधिक आंकड़े या आधार सामग्री अभी नहीं मिली है। इसके लिए हंसी का मायावी स्वभाव भी उतना ही ज़िम्मेदार है जितनी कि रोग प्रतिरक्षा तंत्र की जटिलता। इसके साथ ही एक बात यह भी है कि रोग प्रतिरक्षा कोशिकाओं में होने वाले क्षणिक और अस्थायी परिवर्तनों को पहचानना मुश्किल है। अब तक इस बात का पता नहीं लग पाया है कि थोड़े समय के लिए, कभीकभी होने वाले रोग प्रतिरक्षात्मक परिवर्तनों से कोई स्थायी स्वास्थ्य लाभ होता है।

कुछ अनुसंधानकर्ता और मनोवैज्ञानिक इसका समर्थन करते हैं। बोस्टन विश्वविद्यालय के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मैकक्लीलैंड के अनुसार हंसी और शरीर को निरोग रखने वाले तत्वों के बीच का सम्बंध बड़ा स्थूल है, क्योंकि आपके रोग प्रतिरक्षा तत्व, मनोवैज्ञानिक तत्व, हार्मोन सम्बंधी तत्व और उसके ऊपर आपकी बीमारी इनको प्रभावित करती रहती है। अमरीका स्थित लोमा लिंडा युनिवर्सिटी स्कूल ऑफ मेडिसिन के प्रोफेसर ली. बर्क ने हंसी के दौरान मनुष्य के हार्मोन तथा श्वेत रक्त कोशिकाओं में होने वाले परिवर्तनों का अध्ययन किया। उन्होंने इस सिद्धांत का समर्थन किया कि मधुर मुस्कान, हल्की हंसी या अट्टहास शरीर के लिए लाभदायक है, क्योंकि इससे रोग प्रतिरक्षा क्रिया को शिथिल करने वाले तत्व (जैसे एपिनेफ्रीन और कॉर्टिसोन) मार खाते हैं। पेनसिल्वेनिया स्थित पाओली स्मारक अस्पताल ने एक उदाहरण पेश किया था। जिसमें बताया गया था कि जिन रोगियों के कमरों की खिड़कियों से वृक्ष और हरीभरी घाटियां दिखाई देती हैं उन्हें पीड़ा कम महसूस होती है। उनके रोग में पेचीदगियां भी उतनी नहीं आतीं और वे चंगे भी जल्दी होते हैं बनिस्बत उनके जो सिर्फ र्इंट और पत्थर के ढांचे देखते रहते हैं।

कुछ कैंसर रोगियों के अनुभवों से भी यही पता चलता है कि जिन लोगों ने अपने रोग से लड़ने की इच्छाशक्ति जाग्रत कर ली, वे अधिक दिन जीवित रहे और बेहतर तरीके से जिए। इस प्रकार के अध्ययनों के परिणाम से कुछ कैंसर अस्पतालों ने अपनी चिकित्सा पद्धति में इस प्रकार की व्यवस्था की है जिससे मरीज़ों में संघर्ष करने का माद्दा पैदा किया जा सके।

स्टैनफर्ड मेडिकल स्कूल के मनोचिकित्सक विलियम फ्राई के अनुसार दिन में 100 से 200 बार हंसना 10 मिनट नाव चलाने के बराबर है। खुलकर हंसने से शरीर में जो हलचल होती है उससे दिल की गति बढ़ती है, रक्तचाप में वृद्धि होती है, श्वसन क्रिया में तेज़ी आती है तथा ऑक्सीजन के उपभोग में बढ़ोतरी होती है। योग की एक क्रिया में मुंह खोलकर ज़ोर से हंसने को भी शामिल किया गया है जिससे चेहरे, कंधों, पेट और नितम्बों की मांसपेशियां हरकत में आती हैं। इसी प्रकार जिसे हंसतेहंसते दोहरा हो जाना कहते हैं, उससे पैरों और हाथों की मांसपेशियों की भी कसरत हो जाती है।

हंसी का दौर जब शांत हो जाता है तो विश्रांति की एक संक्षिप्त अवधि आ जाती है जिसमें सांस तथा दिल की धड़कन की गति धीमी पड़ जाती है। कभीकभी तो सामान्य स्तर से भी नीचे पहुंच जाती हैं। रक्तचाप भी गिर जाता है। फ्राई का कहना है कि हंसी की पर्याप्त मात्रा से दिल के रोग, अवसाद और उससे सम्बंधित अन्य खतरे दूर नहीं तो कम ज़रूर हो जाते हैं।

मनुष्य की तंत्रिकाओं को शांत करने में हंसी का योगदान किस सीमा तक होता है, उसका अध्ययन कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की सबीना वाइट ने किया है। उन्होंने 87 विद्यार्थियों को प्रतिस्पर्धात्मक स्थिति में रखकर उनको गणित के जटिल सवाल हल करने को दिए। जब इन विद्यार्थियों के मस्तिष्क पर दबाव काफी बढ़ गया तो उन्हें रोमांचकारी और मनोरंजक दृश्य दिखाए गए और टेप सुनाए गए। फिर उन्होंने उनकी मनोदशा में परिवर्तन और चिंता के स्तर के मापन के साथ ही त्वचा के तापमान, त्वचा की चालकता और दिल की धड़कन की गति में हुए परिवर्तनों का भी जायज़ा लिया।

टेप सुनने और मनोरंजक दृश्य देखने से विद्यार्थियों के अवसाद की स्थिति में कमी तो ज़रूर आई लेकिन इससे हर विद्यार्थी को समान लाभ नहीं हुआ। सबीना वाइट के अनुसार तनाव की स्थिति को कम करने के लिए शिथिलन तकनीक का इस्तेमाल कोई भी कर सकता है, लेकिन इसमें हास्य की भूमिका बिलकुल निराली है। कामेडी टेप से जिन लोगों को लाभ हुआ वे वही लोग थे जो ऐसी परिस्थितियों से निपटने के लिए नियमित रूप से हास्य का सहारा लेते हैं।

फुलर्टन स्थित कैलिफोर्निया स्टेट युनिवर्सिटी में नर्सिंग विभाग की पीठासीन अधिकारी वेटा रॉबिंसन हास्य के क्षेत्र में काम करती हैं। वे अपने अध्ययन के आधार पर कहती हैं कि जब आप हंसते हैं तो आप चिंता, भय, संकोच, विद्वैष, और क्रोध से मुक्त हो जाते हैं। वेटा रॉबिंसन ने अपना एक अनुभव बताया कि ऑपरेशन के बाद हास्य से स्वास्थ्य लाभ की गति बेहतर हो जाती हैं।

आंकड़े चाहे जो कहें, लेकिन यह सच है कि ऐसे अस्पतालों की संख्या बढ़ रही है, कम से कम विदेशों में तो निश्चित रूप से ही, जिन्होंने हास्य को अपना व्यवसाय बनाया है। टमाटर जैसी नाक वाले जोकर, हास्य से भरपूर पुस्तकें, बच्चों के लिए चाबी वाले खिलौने तथा विनोद पैदा करने वाले अन्य साज़ोसामान अब अस्पतालों में भरे पड़े हैं।

अपने मन में यह आशा जगा लेना कि आप स्वस्थ हो जाएंगे का मतलब यह नहीं है कि आपकी बीमारी आईगई हो गई। लेकिन इसका मतलब यह ज़रूर है कि आपके स्वस्थ होने की संभावनाएं अब भी हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सितारों की आतिशबाज़ी का अंदेशा

मारी आकाशगंगा में तारों का एक तंत्र शायद निकट भविष्य में आतिशबाज़ी दिखाएगा। वैसे तो सितारों के ऐसे खेल पृथ्वी और उसके जीवन के लिए संकट का सबब बन सकते हैं किंतु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस बार किसी संकट की आशंका नहीं है।

तारों का यह तंत्र हमसे करीब 8000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि वहां जो कुछ होता है उसकी सूचना हमें 8000 वर्षों बाद मिलती है। इस तारातंत्र का नाम मिस्र के एक सर्प देवता के नाम पर एपेप है। इस तंत्र में दो तारे हैं और उनके आसपास सर्पिलाकार धूल का बादल है। इनमें से एक तारा असामान्य रूप से भारीभरकम सूर्य है जिसका नाम है वुल्फरेयत तारा। जब ऐसे भारीभरकम तारों का र्इंधन चुक जाता है तो वे पिचकते हैं, जिसकी वजह अत्यंत तेज़ रोशनी पैदा होती है, जिसे सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। सिद्धांतकारों का मत है कि यदि कोई तारा काफी तेज़ी से घूर्णन कर रहा हो, तो ऐसे सुपरनोवा विस्फोट के समय इसके दोनों ध्रुवों से गामा किरणों का ज़बरदस्त उत्सर्जन होगा।

लगता है एपेप की स्थिति यही है। इस तंत्र के दोनों तारे सौर पवन फेंक रहे हैं। इस पवन और साथ में उत्पन्न रोशनी का अध्ययन करने पर पता चला है कि पवन की रफ्तार 3400 कि.मी. प्रति सेकंड है जबकि धूल के फव्वारे मात्र 570 कि.मी. प्रति सेकंड की रफ्तार से छूट रहे हैं। नेचर एस्ट्रॉनॉमी नामक शोध पत्रिका में बताया गया है कि ऐसा तभी हो सकता है जब यह तारा तेज़ी से घूर्णन कर रहा हो। तभी ध्रुवों से तेज़ पवन निकलेगी और विषुवत रेखा के आसपास गति धीमी होगी। यदि यह बात सही है कि वुल्फ रेयत तेज़ी से लट्टू की तरह घूम रहा है तो इसमें से गामा किरणों के पुंज निकलेंगे, और यदि पृथ्वी इनके रास्ते में रही तो काफी खतरा हो सकता है। अलबत्ता, गणनाओं से पता चला है कि पृथ्वी इनके रास्ते में नहीं है। वैसे भी खगोल शास्त्री जिसे निकट भविष्य कह रहे हैं, वह चंद हज़ार साल दूर है।(स्रोत फीचर्स)

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सावधान! ऐप चुरा रहे हैं निजी डैटा – मनीष श्रीवास्तव

एंड्रॉयड फोन में जितने भी ऐप्लीकेशंस हैं उनमें से 90 प्रतिशत ऐप हमारे निजी डैटा की जानकारी अन्य कंपनियों के साथ शेयर कर रहे हैं। अलगअलग ऐप्स यूज़र डैटा चुराकर सोशल मीडिया वेबसाइट को दे रहे हैं। हाल ही में  ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय की एक रिसर्च में ये तथ्य सामने आए हैं।

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने मोबाइल ऐप्स का यूज़र सिक्योरिटी में दखल का पता लगाने के लिए गूगल प्ले स्टोर पर मौजूद 9.59 लाख एंड्रॉयड ऐप्स पर यह रिसर्च की है। इस शोध में यह पता चला कि एंड्रॉयड के 90 प्रतिशत ऐप्स यूज़र के निजी डैटा को चुराकर अपने सर्वर पर स्टोर करते हैं। इसके बाद इसे अन्य कंपनियों के साथ शेयर किया जाता है। चोरी होने वाले यूज़र डैटा का 50 प्रतिशत से ज़्यादा हिस्सा फेसबुक, ट्विटर और गूगल के साथ शेयर होता है। इस डैटा चोरी का कारण ऐप्स की डैटा शेयरिंग का सम्बंध विज्ञापन आमदनी से होना है। ऐप कंपनियां मुख्य तौर पर यूज़र की उम्र, जेंडर, लोकेशन और कभीकभी फाइनेंशियल डिटेल्स भी स्टोर और शेयर कर रही हैं। इस तरह अनाधिकृत रूप से यूज़र की बिना जानकारी के उनका निजी डैटा बहुतसी कंपनियों के पास पहुंचा रही हैं।

इस शोध परियोजना को लीड करने वाले रिसर्चर रूबेन बिन्स ने शोध के सम्बंध में कहा है कि यह ज़रूरी नहीं कि यूज़र डैटा का इस्तेमाल करने वाला हर ऐप इसका दुरुपयोग कर रहा है लेकिन वे यूज़र डैटा को स्टोर अवश्य कर रहे हैं। समयसमय पर इसे थर्ड पार्टी के साथ शेयर भी किया जाता है। सोशल नेटवर्किंग साइट्स और ईकामर्स साइट्स को जब यूज़र की निजी जानकारी मिल जाती है तो वे उनकी व्यक्तिगत रुचि के अनुसार कोई खास विज्ञापन या कंटेन्ट दिखाने लगते हैं। आज ऑनलाइन एडवरटाइज़िंग का व्यापार करीब 4.5 लाख करोड़ रुपए तक का हो चुका है। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि यूज़र का निजी डैटा कंपनियों के लिए कितना महत्वपूर्ण हो गया है। रिसर्च से यह तथ्य सामने आया है कि 10 प्रतिशत ऐप्स ऐसे हैं जो एक बार में कई कंपनियों से यूज़र डैटा शेयर कर रहे हैं। गूगल की पैरेंट कंपनी एल्फाबेट की सबसे ज़्यादा 88 प्रतिशत ऐप्स तक पहुंच है। यानी 88 प्रतिशत ऐप्स ऐसे हैं जिनका स्टोर किया हुआ यूज़र डैटा एल्फाबेट को आसानी से उपलब्ध हो जाता है। दूसरे नंबर पर फेसबुक की हिस्सेदारी 43 प्रतिशत और तीसरे नंबर पर ट्विटर की हिस्सेदारी 34 प्रतिशत की है। माइक्रोसॉफ्ट को 23 प्रतिशत ऐप्स का स्टोर किया डैटा मिल जाता है, वहीं अमेज़न को 18 प्रतिशत ऐप्स के डैटा का एक्सेस मिलता है। इससे अमेज़न और माइक्रोसॉफ्ट जैसी कंपनियों को यूज़र डैटा की मदद से यूज़र तक ज़रूरी विज्ञापन पहुंचाने में बहुत मदद मिलती है।

इस तरह यूज़र के निजी डैटा को बिना उनकी जानकारी के कंपनियां इस्तेमाल कर रही हैं। अभी तक जब भी ऐसे तथ्य सामने आते थे तब कंपनियां अपने बचाव में आ जाती थीं और यूज़र डैटा की सुरक्षा को ही अपना महत्वपूर्ण लक्ष्य बताने लगती थीं। किन्तु इस रिसर्च के बाद यह बात और भी पुख्ता हो गई है कि कंपनियां अपने हित के लिए ही कार्य कर रही हैं।

भारत में यूज़र की डैटा सिक्योरिटी को लेकर बेहद संवेदनशीलता दिखाई गई है। सरकार द्वारा इस ओर ध्यान देते हुए जस्टिस बी.एन. कृष्ण की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। डैटा प्रोटेक्शन पर जस्टिस बी.एन. कृष्ण समिति ने जुलाई 2018 में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी है। समिति ने यूज़र डैटा प्राइवेसी को मौलिक अधिकार बताया है। इसमें उन्होंने यूजर के पर्सनल डैटा की सुरक्षा को अनिवार्य बनाने का सुझाव दिया। उन्होंने डैटा प्रोटेक्शन कानून का उल्लंघन करने वाली कंपनियों पर 15 करोड़ रुपए से लेकर उनके दुनिया भर के कारोबार के कुल टर्नओवर का चार फीसदी तक का जुर्माना लगाने का सुझाव भी दिया है। समिति के सुझावों में यह भी शामिल है कि विदेशी कंपनियां भारतीय सर्वर में ही डैटा रखें। इससे ये कंपनियां भारतीय कानून के दायरे में आ जाएंगी। केंद्रीय आईटी मंत्री रविशंकर प्रसाद को सौंपी गई रिपोर्ट पर जल्द से जल्द कानून बनाने की बात प्रसाद ने कही है। 

डैटा सिक्योरिटी के मुद्दे पर हर तरफ कंपनियां सतर्क हो गई हैं। उन्होंने यकीन दिलाया है कि वे यूज़र के डैटा की सिक्योरिटी के प्रति प्रतिबद्ध हैं। सोशल नेटवर्किंग वेबसाइट फेसबुक के संस्थापक ज़करबर्ग ने यूज़र के डैटा को सिक्योर करने के लिए कुछ घोषणाएं की हैं

1. फेसबुक पर उन सभी ऐप की जांच जिन्होंने 2014 में डैटा एक्सेस को सीमित किए जाने से पहले ही बड़ी मात्रा में जानकारियां हासिल कर ली थी।

2. फेसबुक पर संदिग्ध गतिविधियों वाले सभी ऐप की पड़ताल।

3. पड़ताल के लिए सहमत न होने वाले डेवलेपर पर प्रतिबंध।

4. निजी जानकारियों का दुरुपयोग करने वाले डेवलेपर्स पर प्रतिबंध और प्रभावित लोगों को इसकी सूचना देना।

5. किसी भी तरह का दुरुपयोग रोकने के लिए डेवलेपर्स का डैटा एक्सेस सीमित करना।

6. अगर यूज़र तीन महीने तक ऐप का इस्तेमाल न करे तो उसके डैटा का एक्सेस डेवलेपर से वापस लेना।

7. किसी ऐप पर साइनइन करते समय यूज़र की तरफ से दिए जाने वाले डैटा को नाम, प्रोफाइल, फोटो और ईमेल एड्रेस तक सीमित करना।

8. डेवलपर्स द्वारा यूज़र्स की पोस्ट या अन्य निजी डैटा का एक्सेस लेने से पहले इस बाबत अनुमति के अनुबंध पर हस्ताक्षर करना।

फेसबुक को ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय इसलिए लेने पड़े क्योंकि इससे पहले फेसबुक के दुनिया भर के 1.4 करोड़ यूज़र्स की निजी जानकारी सार्वजनिक हो चुकी है। फेसबुक ने इस पर खेद भी जताया था। उस समय फेसबुक के प्रायवेसी ऑफिसर ईरिन इग्न ने एक बयान देकर कहा था कि एक तकनीकी समस्या के कारण कई यूज़र्स के निजी पोस्ट सार्वजनिक हो गए थे। इसी तरह, ट्विटर के सॉफ्टवेयर में भी तकनीकी समस्या आई थी और उस दौरान ट्विटर ने डाटा चोरी रोकने और कई अन्य सुरक्षा कारणों को ध्यान में रखते हुए दुनिया भर के अपने 33 करोड़ यूज़र्स से अपना पासवर्ड बदलने को कहा था।

भविष्य में ऐसी समस्याओं से बचने और यूज़र के डैटा की सुरक्षा बढ़ाने के लिए हर देश की सरकार जागरूक होकर कार्य कर रही है। भारत सरकार ने भी इस ओर ठोस कदम उठाए हैं। भविष्य में तकनीकी उन्नति के साथ यूज़र डैटा को सिक्योर करना एक बड़ी चुनौती होगी। इसके लिए अभी से ठोस प्रयास करने होंगे ताकि कंपनियां यूज़र के निजी डैटा को चुराकर अनाधिकृत रूप से लाभ न कमा सकें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हवा में टंगे आलू – डॉ. किशोर पंवार

ल की बात है माली ने मेरी टेबल पर एक विचित्रसी वस्तु लाकर रख दी। किसी ने कहा बड़ा सुंदर पेपर वेट है तो किसी ने लकड़ी की गठान तक कह दिया। दरअसल इस पर बड़ी सुंदर लगभग षट्कोणीय रचनाएं बनी हुई थीं। लगभग गोल गहरे बादामी रंग की यह  रचना देखने में बड़ी सुंदर थी।

मैंने उससे पूछा यह कहां से लाए हो तो उसने कहा, सर पीछे बगीचे में ज़मीन पर ढेर सारे पड़े हैं। मैंने वहां जाकर देखा तो एक बेल बबूल के पेड़ पर चढ़ी थी जिसके पत्ते बड़ेबड़े पान जैसे थे। ध्यान से देखने पर पत्तों का रूप रंग कुछकुछ जाना पहचाना लगा। सिर उठाकर ऊपर की ओर देखा तो नज़र आया कि बेल की प्रत्येक पत्ती और तने के बीच ऐसी कई गठानें वहां लटकी हुई हैं। पत्तों को देखकर लगा कि हो ना हो यह गराडू की बेल है। परंतु गराडू तो ज़मीन के अंदर लगते हैं वह भी बहुत बड़ेबड़े और बेडौल। यह तो लगभग गोल मटोल रचना है। खोजबीन करने पर पता चला कि यह बेल तो एयर पोटैटो यानी हवाई आलू की है।

इसका नाम ज़रूर आलू है पर यह समोसे में डालने वाला आलू तो कतई नहीं है। असली आलू यानी ज़मीनी आलू तो एक ऐसा कंद है जो तने का रूपांतरण माना जाता है। जबकि इस हवाई आलू को बुलबिल कहा जाता है। वैज्ञानिक इसे डायोस्कोरिया बल्बिफेरा कहते हैं। हिंदी में इसे गेठी, वाराही कंद और डुक्कर कंद आदि भी कहते हैं। हिंदी   नाम से ही पता चलता है कि यह सूअर (वराह) को बड़ा पसंद है।

यह एकबीजपत्री पौधा है जो अपवाद स्वरूप बेल है और पत्तियां भी अपवाद स्वरूप दोबीजपत्री पौधों की तरह बड़ीबड़ी और जालीदार शिरा विन्यास वाली हैं। यानी सब कुछ गड़बड है। हमारे द्वारा बनाए गए नियमों से दूर है यह हवाई आलू की बेल।

यह बेल अफ्रीका, एशिया और उत्तरी ऑस्ट्रेलिया की मूल निवासी है। इसकी व्यापक पैमाने पर खेती भी की जाती है एवं दुनिया के कई क्षेत्रों, जैसे लैटिन अमेरिका, वेस्टइंडीज़ और दक्षिणी अमेरिका में यह अपना प्राकृतिक स्थान बना चुकी है। यह आधार पर घड़ी की विपरीत दिशा में घूमघूम कर लिपट कर आगे बढ़ती है। ऐसी लताओं को वामावर्त लता कहते हैं। यह बहुत ही तेज़ी से वृद्धि करती है और 50 फीट ऊंचाई तक चढ़ सकती है। लगभग 20 सेंटीमीटर प्रतिदिन के मान से यह पेड़ों पर चढ़ कर उन पर छा जाती है। इसका हवाई तना ठंड में सूख जाता है परंतु अगली बारिश में पुन: अपने ज़मीनी कंदों से फूटकर नई बेल बनाता है ।

इसमें पुष्प मंजरियों में निकलते हैं। मादा पुष्प की मंजरियां नर से ज़्यादा लंबी होती हैं। इसमें प्रजनन का मुख्य तरीका पत्तियों के कक्ष में बने बुलबिल (कंद) होते हैं। यही बुलबिल बेल का बिखराव करते हैं और नएनए पौधों को जन्म देते हैं। मादा फूलों से बने फल कैप्सूल प्रकार के होते हैं।

कुछ कंदों का स्वाद कसैला होता है जो आग में भूनने से समाप्त हो जाता है। आलू और रतालू की तरह इससे तरहतरह कें व्यंजन बनाए जा सकते हैं। यह हवाई आलू याम प्रजातियों में सबसे ज़्यादा खाई जाने वाली प्रजाति है। ये फ्लोवोनॉइड्स के अच्छे स्रोत हैं जो शक्तिशाली एंटीऑक्सीडेंट का काम करते हैं और सूजन को कम करते हैं। 

एशियाई देशों में पारंपरिक चिकित्सा पद्धति में अतिसार, गले की खराश और पीलिया आदि रोगों के उपचार के काम में लाया जाता है। इनमें एक प्रकार का स्टेरॉइड डायोसजेनिन पाया जाता है जिसे गर्भ निरोधक हॉर्मोन बनाने के काम में लाया जाता है। मूलत: एशिया और अफ्रीका का यह पौधा अब लगभग पूरी दुनिया में जहाज़ों और लोगों के द्वारा फैलाया जा चुका है। आज भी ये हवाई आलू एशिया, अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया, हवाई, टेक्सास, लुसियाना और वेस्टइंडीज़ के बाज़ारों में बेचे जाते हैं। मैंने भी होशंगाबाद के हाट से एक बार मेरे मित्र प्रमोद पाटिल के साथ इसे खरीदा था। वहां इसे कचालू कहते हैं। देश में इसकी सुलभ और भरपूर उपलब्धि के मद्देनज़र इसका व्यावसायिक उपयोग किया जाना चाहिए। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में यह महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ओरांगुटान अतीत के बारे में बात करते हैं

ह तो जानी-मानी बात है कि कई स्तनधारी व पक्षी किसी शिकारी या खतरे को देखकर चेतावनी की आवाज़ें निकालते हैं जिससे अन्य जानवरों और पक्षियों को सिर पर मंडराते खतरे की सूचना मिल जाती है और वे खुद को सुरक्षित कर लेते हैं। मगर ओरांगुटान में एक नई क्षमता की खोज हुई है।

ओरांगुटान एक विकसित बंदर है जो जीव वैज्ञानिकों के अनुसार वनमानुषों की श्रेणी में आता है। वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि जब ओरांगुटान किसी शिकारी को देखते हैं तो वे चुंबन जैसी आवाज़ निकालते हैं। इससे शेर या अन्य शिकारी को यह सूचना मिल जाती है ओरांगुटान ने उन्हें देख लिया है। साथ ही अन्य ओरांगुटान को पता चल जाता है कि खतरा आसपास ही है।

सेन्ट एंड्रयूज़ विश्वविद्यालय के एक पोस्ट-डॉक्टरल छात्र एड्रियानो राइस ई लेमीरा ओरांगुटान की इन्हीं चेतावनी पुकारों का अध्ययन सुमात्रा के घने केटांबे जंगल में कर रहे थे। उन्होंने एक आसान-सा प्रयोग किया। एक वैज्ञानिक को बाघ जैसी धारियों, धब्बेदार या सपाट पोशाक पहनकर किसी चौपाए की तरह चलकर एक पेड़ के नीचे से गुज़रना था। इस पेड़ पर 5-20 मीटर की ऊंचाई पर मादा ओरांगुटानें बैठी हुई थीं। जब पता चल जाता कि उसे देख लिया गया है तो वह वैज्ञानिक 2 मिनट और वहां रुकता और फिर गायब हो जाता था। इतनी देर में ओरांगुटान को चेतावनी की पुकार उत्पन्न कर देना चाहिए थी।

पहला परीक्षण एक उम्रदराज़ मादा ओरांगुटान के साथ किया गया। उसके पास एक 9-वर्षीय पिल्ला भी था। मगर इस परीक्षण में ओरांगुटान ने कोई आवाज़ नहीं की। वह जो कुछ भी कर रही थी, उसे रोककर अपने बच्चे को उठाया, टट्टी की (जो बेचैनी का एक लक्षण है) और पेड़ पर और ऊपर चली गई। पूरे दौरान वह एकदम खामोश रही। लेमीरा और उनके सहायक बैठे-बैठे इन्तज़ार करते रहे। पूरे 20 मिनट बाद उसने पुकार लगाई। और एक बार चीखकर चुप नहीं हुई, पूरे एक घंटे तक चीखती रही।

बहरहाल, औसतन ओरांगुटान को चेतावनी पुकार लगाने में 7 मिनट का विलंब हुआ। ऐसा नहीं था वे सहम गए थे। वे बचाव की शेष क्रियाएं भलीभांति करते रहे – बच्चों को समेटा, पेड़ पर ऊपर चढ़े वगैरह। लेमीरा का ख्याल है कि ये मादाएं खामोश रहीं ताकि उनके बच्चे सुरक्षित रहें क्योंकि उन्हें लगता है कि शिकारी से सबसे ज़्यादा खतरा बच्चों के लिए होता है। जब शिकारी नज़रों से ओझल हो गया और वहां से चला गया तभी उन्होंने आवाज़ लगाई। लेमीरा का मत है कि चेतावनी पुकार को वास्तविक खतरा टल जाने के बाद निकालना अतीत के बारे में बताने जैसा है। उनके मुताबिक यह भाषा का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है कि आप अतीत और भविष्य के बारे में बोलते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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परीक्षाएं: भिन्न-सक्षम व्यक्तियों के लिए समान धरातल – सुबोध जोशी

भिन्न सक्षम (दिव्यांग) परिक्षार्थियों की विशेष आवश्यकताओं को समझते हुए उन्हें सभी प्रकार की लिखित परीक्षाओं में समान धरातल उपलब्ध कराने के उद्देश्य से भारत के मुख्य दिव्यांगजन आयुक्त द्वारा 23 नवंबर 2012 को एक आदेश जारी किया गया। इस आदेश के आधार पर केंद्रीय सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय (दिव्यांगता मामलों के विभाग) ने 26 फरवरी 2013 को विस्तृत दिशानिर्देश जारी किए थे। लिखित परीक्षा आयोजित करने वाले सभी पक्षकारों के लिए इन दिशानिर्देशों का पालन अनिवार्य है। यह पूरे देश में सभी नियमित और प्रतियोगी (रोज़गार परीक्षाओं सहित) परीक्षाओं पर समान रूप से लागू होते हैं। इनका पालन सुनिश्चित करने के लिए आवश्यकतानुसार टेक्नॉलॉजी और नए उपायों का उपयोग भी किया जाना चाहिए। (मेमोरेंडम के लिए देखें http://disabilityaffairs.gov.in/content/page/guidelines.php)

इन दिशानिर्देशों का पालन सुनिश्चित हो इसके लिए परीक्षा आयोजकों द्वारा आवेदन में आवश्यक जानकारी हेतु प्रावधान किया जाना चाहिए। दिव्यांग परीक्षार्थी की यह ज़िम्मेदारी है कि इनका लाभ लेने के लिए वह आवेदन में अपनी दिव्यांगता और विशेष आवश्यकताओं की पूरी जानकारी दे। आयोजकों को पूर्व तैयारी करनी चाहिए। जैसे, दिव्यांग परीक्षार्थी के लिए भूतल पर व्यवस्था करना, उपकरणों, विशेष प्रश्न पत्रों की व्यवस्था, लेखकों, वाचकों एवं प्रयोगशाला सहायकों के समूह बनाना आदि ।

दिशानिर्देशों में यहां तक कहा गया है कि लिखित परीक्षाओं के लिए पूरे देश में एकरूप नीति हो किंतु यह इतनी लचीली हो कि इसमें दिव्यांग परीक्षार्थियों की विशिष्ट व्यक्तिगत ज़रूरतों का ध्यान रखा जा सके। दिव्यांग परीक्षार्थी को परीक्षा देने का तरीका चुनने की आज़ादी दी गई है। इस हेतु वह ब्रेल, कंप्यूटर, बड़े अक्षरों या आवाज़ की रिकॉर्डिंग करने आदि तरीकों में से कोई भी विकल्प चुन सकता है। उसे एक दिन पहले कंप्यूटर की जांच करने की अनुमति होती है ताकि यदि हार्डवेयर या सॉफ्टवेयर सम्बंधी कोई समस्या हो तो उसे समय रहते दूर किया जा सके। उसे सहायक विशेष उपकरणों के इस्तेमाल की अनुमति है, जैसे बोलनेवाला कैल्कुलेटर, टेलर फ्रेम, ब्रेल स्लेट, अबेकस, ज्यामिति किट, नापने की ब्रेल टेप और संप्रेषण उपकरण।

40 प्रतिशत या अधिक दिव्यांगता वाला कोई भी परीक्षार्थी चाहे तो उसे  लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक की सुविधा दी जानी चाहिए। परीक्षार्थी अपनी पसंद का लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक ला सकता है या परीक्षा के आयोजकों से इनकी मांग कर सकता है। वह अलगअलग विषय के लिए अलगअलग लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक भी ले सकता है। इसके लिए परीक्षा के आयोजकों को विभिन्न स्तरों पर लेखकों, वाचकों और प्रयोगशाला सहायकों के समूह तैयार रखने चाहिए। परीक्षार्थी ऐसे समूह में से एक दिन पहले व्यक्तिगत भेंट कर चुनाव कर सकता है। लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक की शैक्षणिक योग्यता, उम्र आदि सम्बंधी कोई बंधन नहीं लगाया जा सकता। संभावित अनुचित तरीकों के इस्तेमाल को रोकने के लिए बेहतर निगरानी के इंतज़ाम होने चाहिए। दिव्यांग को अपना लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक बदलने का अधिकार भी है।

ऐसे सभी दिव्यांग परीक्षार्थियों को, जो लेखक की सुविधा नहीं लेते, तीन घंटे की परीक्षा में कम से कम एक घंटा अतिरिक्त समय दिया जा सकता है जो व्यक्तिगत ज़रूरत के आधार पर बढ़ाया भी जा सकता है। लेखक, वाचक या प्रयोगशाला सहायक की सुविधा लेनेवाले परीक्षार्थी को भी क्षतिपूरक समय के रूप में अतिरिक्त समय दिया जाना चाहिए।

खुली किताब परीक्षा में भी ब्रेल या ईटेक्स्ट या स्क्रीन रीडिंग सॉफ्टवेयर वाले कंप्यूटर पर पठन सामग्री उपलब्ध कराई जानी चाहिए। इसी तरह ऑनलाइन परीक्षा भी सुगम्य प्रारूप में होनी चाहिए। जैसे, वेबसाइट, प्रश्नपत्र और अन्य सभी पाठ्य पठन सामग्री मान्य अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप सुगम्य होना चाहिए। श्रवण बाधित परीक्षार्थियों के लिए व्याख्यात्मक प्रश्नों की जगह वस्तुनिष्ठ प्रश्नों की व्यवस्था होनी चाहिए। दृष्टिबाधितों के लिए विज़ुअल इनपुट वाले प्रश्नों के स्थान पर वैकल्पिक प्रश्नों की व्यवस्था की जानी चाहिए ।

ये दिशानिर्देश सभी परीक्षा आयोजकों को भेजे जा चुके हैं और उन्हें निर्देशित किया गया है कि इनके परिपालन की रपट दें। लेकिन विडंबना यह है कि परीक्षा संचालक इनकी अवहेलना कर रहे हैं और उल्टे दिव्यांग परीक्षार्थी को नियम दिखाने का कहते हैं। ऐसे में गिनेचुने परीक्षार्थी ही इनका थोड़ा लाभ ले पा रहे हैं जबकि अधिकांश इन लाभों  से वंचित ही हैं। इनमें परीक्षार्थी की कोई न्यूनतम या अधिकतम आयु भी निर्दिष्ट नहीं की गई है, जिसका अर्थ यह है कि छोटीसेछोटी परीक्षा से लेकर बड़ीसेबड़ी परीक्षा पर यह दिशानिर्देश लागू होने चाहिए । (स्रोत फीचर्स)

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उजड़े वनों में हरियाली लौट सकती है – भारत डोगरा

मारे देश में बहुत से वन बुरी तरह उजड़ चुके हैं। बहुतसा भूमि क्षेत्र ऐसा है जो कहने को तो वनभूमि के रूप में वर्गीकृत है, पर वहां वन नाम मात्र को ही है। यह एक चुनौती है कि इसे हराभरा वन क्षेत्र कैसे बनाया जाए। दूसरी चुनौती यह है कि ऐसे वन क्षेत्र के पास रहने वाले गांववासियों, विशेषकर आदिवासियों, की आर्थिक स्थिति को टिकाऊ तौर पर सुधारना है। इन दोनों चुनौतियों को एकदूसरे से जोड़कर विकास कार्यक्रम बनाए जाएं तो बड़ी सफलता मिल सकती है।

ऐसी किसी परियोजना का मूल आधार यह सोच है कि क्षतिग्रस्त वन क्षेत्रों को हराभरा करने का काम स्थानीय वनवासियोंआदिवासियों के सहयोग से ही हो सकता है। सहयोग को प्राप्त करने का सबसे सार्थक उपाय यह है कि आदिवासियों को ऐसे वन क्षेत्र से दीर्घकालीन स्तर पर लघु वनोपज प्राप्त हो। वनवासी उजड़ रहे वन को नया जीवन देने की भूमिका निभाएं और इस हरेभरे हो रहे वन से ही उनकी टिकाऊ आजीविका सुनिश्चित हो।

आदिवासियों को टिकाऊ आजीविका का सबसे पुख्ता आधार वनों में ही मिल सकता है क्योंकि वनों का आदिवासियों से सदा बहुत नज़दीकी का रिश्ता रहा है। कृषि भूमि पर उनकी हकदारी व भूमिसुधार सुनिश्चित करना ज़रूरी है, पर वनों का उनके जीवन व आजीविका में विशेष महत्व है।

प्रस्तावित कार्यक्रम का भी व्यावहारिक रूप यही है कि किसी निर्धारित वन क्षेत्र में पत्थरों की घेराबंदी करने के लिए व उसमें वन व मिट्टी संरक्षण कार्य के लिए आदिवासियों को मज़दूरी दी जाएगी। साथ ही वे रक्षानिगरानी के लिए अपना सहयोग भी उपलब्ध करवाएंगे। जल संरक्षण व वाटर हारवेस्टिंग से नमी बढ़ेगी व हरियाली भी। साथसाथ कुछ नए पौधों से तो शीघ्र आय मिलेगी पर कई वृक्षों से लघु वनोपज वर्षों बाद ही मिल पाएगी।

अत: यह बहुत ज़रूरी है कि आदिवासियों के वन अधिकारों को मज़बूत कानूनी आधार दिया जाए। अन्यथा वे मेहनत कर पेड़ लगाएंगे और फल कोई और खाएगा या बेचेगा। आदिवासी समुदाय के लोग इतनी बार ठगे गए हैं कि अब उन्हें आसानी से विश्वास नहीं होता है। अत: उन्हें लघु वन उपज प्राप्त करने के पूर्ण अधिकार दिए जाएं। ये अधिकार अगली पीढ़ी को विरासत में भी मिलने चाहिए। जब तक वे वन की रक्षा करेंे तब तक उनके ये अधिकार जारी रहने चाहिए। जब तक पेड़ बड़े नहीं हो जाते व उनमें पर्याप्त लघु वनोपज प्राप्त नहीं होने लगती, तब तक विभिन्न योजनाओं के अंतर्गत उन्हें पर्याप्त आर्थिक सहायता मिलती रहनी चाहिए ताकि वे वनों की रक्षा का कार्य अभावग्रस्त हुए बिना कर सकें।

प्रोजेक्ट की सफलता के लिए स्थानीय व परंपरागत पेड़पौधों की उन किस्मों को महत्व देना ज़रूरी है जिनसे आदिवासी समुदाय को महुआ, गोंद, आंवला, चिरौंजी, शहद जैसी लघु वनोपज मिलती रही है। औषधि पौधों से अच्छी आय प्राप्त हो सकती है। ऐसी परियोजना की एक अन्य व्यापक संभावना रोज़गार गारंटी के संदर्भ में है। एक मुख्य मुद्दा यह है कि रोज़गार गारंटी योजना केवल अल्पकालीन मज़दूरी देने तक सीमित न रहे अपितु यह गांवों में टिकाऊ विकास व आजीविका का आधार तैयार करे। प्रस्तावित टिकाऊ रोज़गार कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना के अंतर्गत कई सार्थक प्रयास संभव हैं। (स्रोत फीचर्स)

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