प्रकृति की तकनीकी की नकल यानी बायोनिक्स – डॉ. दीपक कोहली

प्रकृति में पाई जाने वाली प्रणालियों एवं जैव वैज्ञानिक विधियों का अध्ययन करके एवं इनका उपयोग करके इंजीनियरी तंत्रों को डिजाइन एवं विकसित करना बायोनिक्स कहलाता है।

जब हम बायोनिक्स के बारे में सोचते हैं तो साधारणत: ऐसी कृत्रिम बांह व टांग के बारे में सोचते हैं जो मानव शरीर में बाहर से लगाई जा सके। बायोनिक्स पद्धति के तहत जीवन की अनिवार्य जीवन प्रक्रियाओं को संवेदनशील उपकरणों से शक्ति मिलती है। ये मानव के क्षतिग्रस्त अंगों से कुछ संदेश मस्तिष्क को भेजते हैं ताकि मनुष्य अपने कार्य कुछ हद तक स्वयं कर सके।

दुर्भाग्यवश जब किसी व्यक्ति के शरीर का कोई हिस्सा क्षतिग्रस्त हो जाए अथवा पूरी तरह से निष्क्रिय हो जाए तो उसके पास क्या उपाय रह जाएगा? हमारे पास छिपकली या स्टार फिश जैसी क्षमताएं तो हैं नहीं कि हम दोबारा बांह, टांग आदि विकसित कर सकें तथा उसे पुराने रूप में ला सकें। स्टेम सेल के क्षेत्र में किया जा रहा अनुसंधान इसका उपाय हो सकता है। पर अभी इस पद्धति का पर्याप्त विकास नहीं हुआ है। तब सिर्फ कृत्रिम अंग ही आशा की किरण हो सकते हैं और यहीं पर बायोनिक्स का पदार्पण होता है।

बायोनिक्स का इतिहास प्राचीन है। मिस्र की पौराणिक कथाओं में उल्लेख है कि सिपाही अपने क्षतिग्रस्त अंगों के बदले लोहे के अंग लगा कर रणभूमि में युद्ध करने चले जाया करते थे। परंतु आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत सारी विधाओं और तकनीकों का संयोजन हो गया है; जैसे कि रोबोटिक्स, बायो-इंजीनियरिंग व गणित जिससे कृत्रिम अंगों की रचना में छोटी-छोटी बातों को ध्यान में रखा जा सकता है तथा वह मानव कोशिकाओं के साथ अपना कार्य कर सकता है।

चिकित्सा और इलेक्ट्रॉनिकी दोनों ही क्षेत्रों में लघु रूप विद्युत अंगों, परिष्कृत सूक्ष्म चिप्स और विकसित कंप्यूटर योजनाओं के रूप में भी निर्बल मानव शरीर को सबल मानव शरीर में परिवर्तित करने में वैज्ञानिकों ने सफलता प्राप्त की है। इसे ‘बायोनिक शरीर’ कह सकते हैं और इसने शारीरिक अक्षमताओं वाले इंसानों के लिए कृत्रिम अंगों, कृत्रिम मांसपेशियों और दूसरे कृत्रिम अंगों द्वारा एक बेहतर ज़िंदगी जीने की संभावना उत्पन्न की है।

हारवर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के शोधकर्ता जॉन पेजारी ने आर्गस 2 रेटिनल प्रोस्थेसिस सिस्टम नाम से बायोनिक आंख विकसित की है, जो प्रकाश के मूवमेंट और उसके आकार को समझने में मदद करेगी। आर्गस 2 में इलेक्ट्रोड लगे होते हैं। यह उन लोगों के लिए मददगार साबित होगा, जो पहले देख सकते थे, लेकिन बाद में किन्हीं कारणों से उनकी आंख की रोशनी चली गई।

मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना शरीर के किसी अंग को बदलने की तरह आसान नहीं है, लेकिन भविष्य में मस्तिष्क के किसी हिस्से को बदलना मुश्किल नहीं होगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर थियोडोर बर्जर ने एक ऐसी चिप तैयार की है जो दिमाग के एक खास हिस्से (हिप्पोकैंपस) का स्थान लेगी। हिप्पोकैंपस दिमाग का वह हिस्सा होता है, जो कि अल्प समय की यादों और उनको पहचानने की समझ को नियंत्रित करता है। यह कृत्रिम दिमाग अल्ज़ाइमर और पक्षाघात से ग्रसित लोगों के लिए वरदान होगा। इसे कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ‘सुपर ब्रेन’ की संज्ञा दी गई है।

किडनी फेल होने के बाद उस समस्या से निपटने के लिए सामान्यत: दो ही विकल्प अपनाए जाते हैं। एक तो किसी अन्य व्यक्ति से किडनी ली जाए या लंबे समय तक डायलिसिस पर रखा जाए। दोनों ही प्रक्रियाएं खासी जटिल हैं। जहां किडनी मिलना आसान नहीं होता, वहां डायलिसिस प्रक्रिया भी जटिल होती है। शोधकर्ताओं ने इस समस्या का हल ढूंढ लिया है। मार्टिन रॉबर्टस और डेविड ली ने ऐसी किडनी डिज़ाइन की है जो डायलिसिस से काफी बेहतर होगी, क्योंकि इसे 24 घंटे, सातों दिन इस्तेमाल किया जा सकेगा। यह असली किडनी की तरह काम करेगी। यह किडनी पोर्टेबल होगी और हल्की इतनी कि आपके बेल्ट में आराम से फिट हो जाए। इसे बदला भी जा सकेगा। इसके छोटे आकार और ऑटोमेटिक होने के कारण इसे ‘ऑटोमेटेड वेयरेबल आर्टिफिशियल किडनी’ नाम दिया गया है।

कई कारणों से लोगों को घुटने बदलने की सलाह दी जाती है। लेकिन यह आसान काम नहीं है। वर्तमान में बायोनिक शोधकर्ताओं हैरी और वाइकेनफेल्ड ने ऐसे घुटने बनाए हैं, जो बिल्कुल असली घुटनों की तरह काम करेंगे। इन घुटनों में लगे सेंसर इस बात की जांच करेंगे और सीखेंगे कि इन्हें इस्तेमाल करने वाला कैसे चलता है और चलते वक्त वह अपने शरीर का इस्तेमाल कैसे करता है जिससे इन कृत्रिम घुटनों के सहारे चलना बेहद आसान होगा।

बांह रहित लोग अपनी कृत्रिम बांह का इस्तेमाल बिल्कुल असली बांह की तरह अपने विचारों की शक्ति द्वारा कर सकेंगे। रिहेबिलिटेशन इंस्टीट्यूट ऑफ शिकागो के डॉ. टॉड कुकिन ने यह कारनामा संभव कर दिखाया है। उन्होंने बायोनिक बांह को दिमाग से स्वस्थ मोटर कोशिकाओं द्वारा जोड़ दिया, जिनका इस्तेमाल रोगी के बेकार हो चुके अंग के लिए किया जाता था।

कुछ वैज्ञानिक कृत्रिम पैंक्रियाज़ बनाने में लगे हैं। कुछ ही वर्षों में ऐसे पैंक्रियाज़ तैयार हो जाएंगे, जो व्यक्ति के खून की मात्रा को नापने और साथ ही उसके शरीर के अनुरूप इंसुलिन की मात्रा में बदलाव करने में सक्षम होंगे। जुवेनाइल डाइबिटीज़ रिसर्च फांउडेशन के स्टे्रटेजिक रिसर्च प्रोजेक्ट के निदेशक ऑरीन कोवालस्की ने ऐसी डिवाइस तैयार की है जो वर्तमान में तकनीकों का मिश्रण है। इसमें एक इंसुलिन पंप और एक ग्लूकोज़ मीटर है। इसकी सहायता से डायबिटीज़ को नियंत्रण में लाया जा सकेगा और ब्लड शुगर के साइड इफेक्ट कम किए जा सकेंगे।

अक्सर ऐसा होता है कि आपके शरीर के जिस हिस्से में दर्द हो रहा होता है, उसे सही करने के लिए उस पूरे हिस्से के लिए दवाई दी जाती है। लेकिन कभी-कभी वह उस हिस्से के इंफेक्शन को पूर्ण तौर से सही कर पाने में सक्षम नहीं होती है। पेनसिलवेनिया विश्वविद्यालय, अमेरिका के बायोइंजीनियरिंग प्रोफेसर डेनियल हैमर ने इसके लिए बेहतर तरीका खोज निकाला है। पॉलीमर से बनी कृत्रिम कोशिकाओं को सफेद रक्त कोशिकाओं से मिला दिया जाएगा। इन कृत्रिम कोशिकाओं को ‘सी’ नाम दिया गया है। ये कृत्रिम कोशिकाएं दवाई को सीधे उस हिस्से में ले जाएंगी, जहां उसकी आवश्यकता है। यह बेहद आसान और सुरिक्षत तरीका होगा। इससे कैंसर सहित कई भयावह बीमारियों का मुकाबला किया जा सकेगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में शोधकर्ता  डॉ. जेराल्ड लीएब अपनी टीम के साथ बायोन नामक एक ऐसी तकनीक पर कार्य कर रहे हैं, जिसका उद्देश्य लकवाग्रस्त मांसपेशियों में जान फूंकना है। बायोन ऐसे विद्युत उपकरण हैं जिन्हें मानव शरीर में उसी जगह एक सुई की मदद से इंजेक्ट किया जा सकता है जहां पर इसकी ज़रूरत हो। इसकी शक्ति का स्रोत रेडियो तरंगें हैं।

मानव मस्तिष्क एक बहुत ही जटिल यंत्र है जिसे समझने के लिए शोध चल रहे हैं। अगर किसी अपंग व्यक्ति के कुछ अंग कार्य करना बंद कर दें, परन्तु दिमाग कार्यशील रहे तो यह यंत्र उस मनुष्य को तंत्रिका संकेतों द्वारा मदद कर सकता है। ब्रेनगेट एक ऐसी तकनीक है जिसके द्वारा एक लघु चिप दिमाग में लगा दी जाती है जो मनुष्य के विचार एक कंप्यूटर पर भेज देती है और उन्हीं वैचारिक संकेतों द्वारा कंप्यूटर पर ई-मेल भेजा जा सकता है और कंप्यूटर पर गेम भी खेले जा सकते हैं, सिर्फ सोचने मात्र से ही।

शोधकर्ताओं ने सौर ऊर्जा को तरल र्इंधन में परिवर्तित करने के क्रम में सूरज की रोशनी का उपयोग करने वाली बायोनिक पत्ती का आविष्कार किया है। जीवाणु रैल्सटोनिया यूट्रोफा इस काम को अंजाम देता है और कार्बन डाईऑक्साइड के साथ-साथ हाइड्रोजन का रूपांतरण सीधे उपयोग में आने वाले तरल र्इंधन (आइसोप्रोपेनॉल) में कर देता है। शोधकर्ताओं का यह कदम ऊर्जा से भरपूर दुनिया बनाने की दिशा में मील का पत्थर है।

बायोनिक्स पर काम करने वाले लोग जीव विज्ञानियों, इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स, रसायन शास्त्रियों, भौतिक विज्ञानियों से लेकर धातु विज्ञानियों के साथ मिलकर काम करते हैं। जर्मन वैज्ञानिक इस समय बीटल नाम के कीड़े के पंखों से प्रेरणा लेकर बेहद हल्की निर्माण सामग्री बना रहे हैं। प्रकृति अभी भी सबसे अच्छी इंजीनियर है। वह हड्डियों और सींग जैसी हल्की लेकिन ठोस संरचना बनाती है और भौंरे के जैसे हल्के पंख भी।

बायोनिक वैज्ञानिक प्रकृति से प्रेरणा लेकर हल्के विमान बनाने की तैयारी में लगे हैं। विक्टोरिया वॉटर लिली की पत्ती जितनी नाज़ुक दिखती है उतनी ही मज़बूत भी होती है। उदाहरण के तौर पर, विक्टोरिया वॉटल लिली की पत्ती बड़ी आसानी से एक छोटे बच्चे का भार उठा सकती है। इससे बड़े आकार की पत्ती व्यस्क का भार भी उठा सकती है। एरोस्पेस इंजीनियरों ने पहले त्रि-आयामी स्कैनर की सहायता से इस पत्ती की नाज़ुक संरचना को स्कैन किया। फिर इस डाटा को कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला। कंप्यूटर इसका आकलन करता है कि भार को संभालने के लिए संरचना कैसी होनी चाहिए। वॉटर लिली की पत्तियों की निचली सतह पर तना मोटा और सघन होता है। यह वह हिस्सा है जहां वाटर लिली पर ज़्यादा दबाव पड़ता है। जिन हिस्सों पर कम दबाव होता है वहां तनों के बीच ज़्यादा दूरी होती है और तने पतले भी होते हैं। इस सिद्धांत से प्रेरणा लेकर हल्के विमान का एयरप्लेन स्पॉयलर तैयार किया गया है। यह बेहद हल्की लेकिन बड़े काम की संरचना है जिसे किसी और तरीके से बनाना शायद संभव न होता। बायोनिक्स की तकनीक अपनाकर वैज्ञानिकों ने इसे संभव कर दिखाया है।

इस प्रकार स्पष्ट है कि बायोनिक्स प्रकृति की तकनीक को आम जिंदगी में अमल में लाने की विधा है। जिसके उपयोग से मानव ज़िंदगी को और बेहतर एवं सुविधाजनक बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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