सौर मंडल का एक नया संसार खोजा गया

खगोल शास्त्रियों ने हाल ही में सौर मंडल के दूरस्थ छोर पर एक विशाल पिंड की खोज की है। दरअसल यह पिंड बाह्र सौर मंडल में स्थित है और इसे नाम दिया गया है 2015 TG387। वैसे इसका लोकप्रिय नाम गोबलिन रखा गया है।

वॉशिंगटन स्थित कार्नेजी इंस्टीट्यूशन फॉर साइन्स के खगोल शास्त्री स्कॉट शेफर्ड की टीम ने इस पिंड की खोज जापान की 8.2 मीटर की सुबारु दूरबीन की मदद से की है। यह दूरबीन हवाई द्वीप पर मौना की नामक स्थान पर स्थापित है।

2015 TG38 नामक यह पिंड सूर्य से बहुत दूरी पर है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए यह जब सूर्य के सबसे नज़दीक होता है, उस समय इसकी सूर्य से दूरी 65 खगोलीय इकाई होती है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी को खगोलीय इकाई कहते हैं। और जब यह पिंड सूर्य से अधिकतम दूरी पर होता है तो 2300 खगोलीय इकाई दूर होता है। इतनी दूरी पर हम बहुत ही थोड़े से विशाल पिंडों से वाकिफ हैं। गोबलिन का परिक्रमा पथ सौर मंडल के प्रस्तावित नौवें ग्रह के अनुमानित परिक्रमा पथ से मेल खाता है किंतु खगोल शास्त्रियों का कहना है कि इससे यह साबित नहीं होता कि नौवां ग्रह सचमुच अस्तित्व में है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://img.purch.com/h/1400/aHR0cDovL3d3dy5zcGFjZS5jb20vaW1hZ2VzL2kvMDAwLzA3OS83NTMvb3JpZ2luYWwvMjAxNS10ZzM4Ny1pbmZvZ3JhcGhpYy5qcGc/MTUzODQ2MzcxMg==

केंद्रक में स्थिति डीएनए के काम को प्रभावित करती है

यह तो अब जानीमानी बात है कि डीएनए नामक अणु में क्षारों के क्रम से तय होता है कि वह कौनसे प्रोटीन बनाने का निर्देश देगा। डीएनए हमारी कोशिका के केंद्रक में पाया जाता है। मानव कोशिका में लगभग 3 मीटर डीएनए होता है। यह कोशिका के केंद्रक में काफी व्यवस्थित रूप से गूंथा होता है। और अब वैज्ञानिकों ने पता लगाया है कि इस डीएनए अणु का कौनसा हिस्सा केंद्रक के किस हिस्से में स्थित है, इस बात का असर उस हिस्से के काम पर पड़ता है।

केंद्रक के अंदर काफी गहमागहमी रहती है। हर चीज़ यानी गुणसूत्र, केंद्रिका वगैरह यहांवहां भटकते रहते हैं। लगता है कि सारी गतियां बेतरतीब ढंग से हो रही हैं किंतु पिछले दशक में किए गए अनुसंधान से पता चला था कि गुणसूत्र और उसमें उपस्थित डीएनए विशिष्ट स्थितियों में जम सकते हैं और इसका असर जीन्स की क्रिया पर पड़ सकता है। मगर यह बात अटकल के स्तर पर ही थी। अब इसके प्रमाण मिले हैं।

वैज्ञानिकों ने हाल ही में विकसित जीनसंपादन की तकनीक क्रिस्पर को थोड़ा परिवर्तित रूप में इस्तेमाल किया है जिसकी मदद से वे केंद्रक के अंदर डीएनए के विशिष्ट हिस्सों को एक जगह से दूसरी जगह सरका सकते हैं। सेल नामक शोध पत्रिका में उन्होंने बताया है कि सबसे पहले उन्होंने डीएनए को एक प्रोटीन से जोड़ दिया। पादप हारमोन एब्सिसिक एसिड की उपस्थिति में वह प्रोटीन एक अन्य प्रोटीन से जुड़ जाता है। यह दूसरा प्रोटीन केंद्रक के मात्र उस हिस्से में पाया जाता है जहां डीएनए को सरकाकर पहुंचाना है। दूसरा प्रोटीन डीएनए को कसकर पकड़ लेता है और उसे वांछित हिस्से में जमाए रखता है। एब्सिसिक एसिड हटाने पर यह कड़ी टूट जाती है और डीएनए कहीं भी जाने को मुक्त हो जाता है।

शोधकर्ताओं ने दर्शाया है कि इस तकनीक की मदद से वे कई जीन्स को केंद्रक के मध्य भाग से उसके किनारों पर ले जाने में सफल हुए हैं। उन्होंने यही प्रयोग टेलोमेयर के साथ भी किया। टेलोमेयर गुणसूत्रों के सिरों पर स्थित होते हैं और इनका सम्बंध कोशिका की विभाजन क्षमता तथा बुढ़ाने से देखा गया है। जब शोधकर्ताओं ने टेलोमेयर्स को केंद्रक की अंदरूनी सतह के पास सरका दिया तो कोशिका की वृद्धि लगभग रुक गई। किंतु जब इन्हीं टेलोमेयर्स को कैजाल बॉडीज़ के पास सरका दिया गया तो कोशिका तेज़ी से वृद्धि करने लगी और विभाजन भी जल्दीजल्दी हुआ। कैजाल बॉडी प्रोटीन और जेनेटिक सामग्री से बने संकुल होते हैं जो आरएनए का प्रोसेसिंग करते हैं।

यदि टेलोमेयर्स की केंद्रक में स्थिति और कोशिका के विभाजन के सम्बंध की यह समझ सही साबित होती है, तो हम यह समझ पाएंगे कि कोशिका को स्वस्थ कैसे रखा जाए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/final_16x9.jpg?itok=wGGxRDhe

क्या आप ठीक से कंघी कर पाते हैं? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

बचपन में मुझे कंघा नहीं करने पर रोज़ डांट पड़ती थी। क्या करता, कितनी भी कंघी करूं जमते ही नहीं थे। फुटबाल के प्रसिद्ध खिलाड़ी मेराडोना की तरह मेरे दोस्त के बाल भी घुंघराले थे। खेलनेकूदने में बिखरते ही नहीं थे। मैं उसे मेराडोना ही कहता था। सत्यसांई और अलबर्ट आइंस्टाइन के चेहरे तो उनके बाल के कारण ही याद रह जाते हैं। इनकी माओं को जूं निकालने में बड़ा सिरदर्द होता होगा। एक पिता ने तो अपने 18 महीने के बच्चे टेलर मेकग्वान का फेसबुक अकाउंट बेबी आइंस्टाइन-2 नाम से खोला है।

कुछ बच्चों के बाल कंघे से जमाए ही नहीं जा सकते क्योंकि उन्हें अनकॉम्बेबल हेयर सिंड्रोम (UHS) है। आज तक विज्ञान साहित्य में 100 ऐसे लोगों का उल्लेख हुआ है। मगर वास्तव में ऐसे लोगों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है।

अनकॉम्बेबल हेयर सिंड्रोम एक अत्यंत बिरली आनुवंशिक विसंगति है। ऐसे बालों को स्पन ग्लास हेयर सिंड्रोम भी कहते है। इन लोगों के बाल ऊन के रेशे जैसे चमकदार, सूखे और बेतरतीब रूप से विभिन्न दिशाओं में खड़े रहते हैं। बालों का रंग चांदी जैसा सफेद या भूसे के रंग का पीलाभूरापन लिए होता है। ये खोपड़ी से ऐसे चिपके रहते हैं कि इन्हें कंघी करना मुश्किल हो जाता है। यह समस्या बच्चों में स्पष्ट दिखती है किंतु बढ़ती उम्र के साथ सुधरती जाती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि मातापिता दोनों में यह दिक्कत हो तो ही वह बच्चे में दिखती है।

ऐसा अनुमान है कि यह समस्या तीन जीन्स में म्यूटेशन यानी उत्परिर्वन के कारण पैदा होती है। ये तीनों जीन बालों के उस हिस्से को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं जो त्वचा के ऊपर निकला होता है। इसे शैफ्ट कहते हैं। इनमें से किसी भी एक जीन में उत्परिवर्तन होने से बालों की संरचना में परिवर्तन हो जाता है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी से सामान्य बालों के शैफ्ट की आड़ी काट गोल दिखती है परंतु विकृति के कारण इसकी आड़ी काट गोल के बजाय तिकोनी दिखती है। 

यह भी देखा गया है कि त्वचा के सामान्य केरेटिनोसाइट कोशिकाओं में कोशिका द्रव एकरस दिखता है परंतु UHS कोशिकाओं के कोशिका द्रव में प्रोटीन के लौंदे होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.mentalfloss.com/sites/default/files/styles/mf_image_16x9/public/547921-gettyimages-3397953_0.jpg?itok=Mh3PiQ-6

एक ही लिंग के चूहों के बच्चे

संतानोत्पत्ति के लिए नर और मादा लिंगों की ज़रूरत से तो सब वाकिफ हैं। लेकिन यह बात सिर्फ स्तनधारियों के लिए सही है। पक्षियों, मछलियों और छिपकलियों की कुछ प्रजातियों में एक ही लिंग के दो जंतु मिलकर संतान पैदा कर लेते हैं। मगर अब वैज्ञानिकों ने दो मादा चूहों (जो स्तनधारी होते हैं) के डीएनए से संतानें पैदा करवाने में सफलता प्राप्त कर ली है। और तो और, इन संतानों की संतानें भी पैदा हो चुकी हैं। वैसे वैज्ञानिकों ने दो नर चूहों कीजेनेटिक सामग्री लेकर भी संतानोत्पत्ति के प्रयास किए मगर इनसे उत्पन्न संतानें ज़्यादा नहीं जी पार्इं।

आखिर क्या कारण है कि एक ही लिंग के जीव आम तौर पर संतान पैदा नहीं कर पाते? वैज्ञानिकों का विचार है कि ऐसा जेनेटिक छाप या इम्प्रिंट के कारण होता है। जेनेटिक इम्प्रिंट छोटेछोटे रासायनिक बिल्ले होते हैं जो डीएनए से जुड़ जाते हैं और किसी जीन को निष्क्रिय कर देते हैं। वैज्ञानिक अब तक ऐसे 100 Ïम्प्रट खोज पाए हैं। इनमें से कुछ ऐसे जीन्स पर पाए जाते हैं जो भ्रूण के विकास को प्रभावित करते हैं। कई जीन्स एक लिंग में चिंहित किए जाते हैं मगर दूसरे लिंग में अचिंहित रहते हैं। यदि दोनों के जीन्स चिंहित हों (जैसा कि एक ही लिंग के पालकों में होगा) तो भ्रूण जीवित नहीं रह पाता है।

बेजिंग के चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ के की ज़ाऊ इसी समस्या से निपटना चाहते थे। उनकी टीम ने शुक्राणु या अंडाणु की स्टेम कोशिकाएं लीं। इन कोशिकाओं में गुणसूत्रों की जोड़ियां नहीं बल्कि एक ही सेट होता है। अन्य कोशिकाओं के समान इनमें भी ऐसे जेनेटिक हिस्से होते हैं जो इÏम्प्रट पैदा कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन जेनेटिक हिस्सों को एकएक करके हटाया। वे यह देखना चाहते थे कि कौनसे हिस्सों को हटाने से भ्रूण का विकास बाधित नहीं होगा। इसके बाद उन्होंने एक मादा चूहे की स्टेम कोशिका को दूसरे मादा चूहे के अंडे में प्रविष्ट कराया ताकि बच्चे पैदा हो सकें। ऐसा ही प्रयोग उन्होंने शुक्राण स्टेम कोशिकाओं पर भी किया। एक अंडे में से उसका केंद्रक (यानी जेनेटिक सामग्री) हटा दी। इस केंद्रकविहीन अंडे में उन्होंने एक नर का शुक्राणु और दूसरे नर की शुक्राणु स्टेम कोशिका डाल दी।

तीन जेनेटिक हिस्से हटा देने के बाद शोधकर्ता दो मादाओं से 20 जीवित संतानें पैदा कर पाए। दूसरी ओर, दो नरों से 12 संतान पैदा करवाने के लिए उन्हें सात जेनेटिक हिस्से हटाने पड़े थे। मगर दो नरों से पैदा ये संतानें मात्र दो दिन जीवित रहीं।

यह शोध कार्य चौंकाने वाला ज़रूर है किंतु इससे मुख्य बात यह पता चली है कि वे कौनसे जेनेटिक हिस्से हैं जो स्तनधारियों में संतानोत्पत्ति के लिए ज़रूरी हैं और जिनकी वजह से प्रजनन क्रिया में उन्हें दो लिगों की ज़रूरत पड़ती है। वैसे अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगी कि अब दो स्त्रियां मिलकर बच्चे पैदा करने लगेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/w800/magazine-assets/d41586-018-06999-6/d41586-018-06999-6_16185500.jpg

सबसे बड़ा जीव 770 हैक्टर बड़ा है

1980 के दशक के अंत में, शोधकर्ताओं ने मिशिगन के ऊपरी प्रायद्वीप पर एक विशालकाय फफूंद की खोज की थी। आर्मिलेरिया गैलिका नामक यह फफूंद आकार में किसी मॉल के बराबर थी और 37 हैक्टर क्षेत्र में फैली थी। इसे दुनिया का सबसे बड़ा जीव माना गया। लेकिन हाल में वैज्ञानिकों ने एक और आर्मिलेरिया गैलिका फफूंद खोजी है जो पिछली खोज से लगभग चार गुना बड़ी और उससे दुगनी उम्र की है। यह फफूंद हनी मशरूम को जन्म देती है।

अन्य फफूंद की तरह आर्मिलेरिया पतले भूमिगत धागों के रूप में पनपती है। लेकिन अधिकांश फफूंद के विपरीत, ये धागे जूते के फीतों जैसी मोटीमोटी रस्सियां बना लेते हैं जो मृत या कमज़ोर लकड़ी का उपभोग करते हुए काफी दूरी तक फैलते जाते हैं। विशाल भूमिगत नेटवर्क का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने दूर तक फैले 245 ऐसे रेशों के नमूनों का जेनेटिक विश्लेषण किया।  बायोआरकाईव में प्रकाशित पर्चे के अनुसार इस जांच में पाया गया कि ये दूरदूर फैले रेशे एक ही फफूंद के हिस्से थे। इसके तेज़ी से बढ़ने के आधार पर अनुमान लगाया गया कि यह फफूंद कम से कम 2500 वर्ष पुरानी है।

शोधकर्ताओं ने 15 समान रूप से वितरित नमूनों के जीनोम को अनुक्रमित करके देखा कि हनी मशरूम में समय के साथ बदलाव कैसे होता है। उन्हें जीनोम के 10 करोड़ क्षारों में से केवल 163 आनुवंशिक परिवर्तन देखने को मिले जो काफी धीमी गति है। उत्परिवर्तन की दर से यह पता लगाया जाता है कि एक जीव कितनी तेज़ी से विकसित हो सकता है। शोधकर्ता उत्परिवर्तन की इतनी धीमी दर को लेकर असमंजस में हैं और अभी यह नहीं कह सकते कि उत्परिवर्तनों पर अंकुश कैसे लगाया जा रहा है। वैसे उन्हें लगता है कि एक भलीभांति विकसित डीएनए मरम्मत की व्यवस्था या फिर भूमिगत रहते हुए सूरज की रोशनी से दूर रहना उत्परिवर्तन की धीमी दर का एक कारण हो सकता है।

यह अब दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा जीव है जिसकी उम्र 8000 वर्ष से भी अधिक है और यह 770 हैक्टर के लंबेचौड़े क्षेत्र में फैला है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/fungus_16x9_0.jpg?itok=Et5S_BIX

विशेष पुताई करके घरों को ठंडा रखें

तेज़ धूप वाले देशों में घरों को सफेद रंग से पोता जाता है ताकि धूप टकराकर लौट जाए। इसी रणनीति को आगे बढ़ाते हुए एक नई शीतलन सामग्री तैयार की जा रही है। इसे किसी भी सतह पर पोता जा सकता है और तापमान लगभग 6 डिग्री सेल्सियस तक कम किया जा सकता है।

वास्तव में धूप में अवरक्त (आईआर) और पराबैंगनी (यूवी) किरणें गर्मी का मुख्य कारण होती हैं। सफेद रंग 80 प्रतिशत दृश्य प्रकाश को परावर्तित करता है लेकिन आईआर और यूवी को नहीं। इस नई सामग्री में अधिकांश आईआर और यूवी को परावर्तित करने की क्षमता है। इसमें उपस्थित बहुलक और अन्य पदार्थों की रासायनिक संरचना के कारण अतिरिक्त गर्मी ऐसी तरंग लंबाइयों पर विकिरित होती है जिन्हें वायुमंडल नहीं रोकता और हवा गर्म नहीं होती।

पहले भी इस क्षेत्र में काफी काम किए जा चुके हैं। सिलिकॉन डाईऑक्साइड और हाफनियम डाईऑक्साइड की परावर्तक सतह तैयार करके तापमान में 5 डिग्री सेल्सियस की कमी प्राप्त की गई। इसी प्रकार से, एयर कंडीशनिंग में पानी को ठंडा करने के लिए एक बहुलक और चांदी की मिलीजुली फिल्म के उपयोग से एयर कंडीशनिंग लागत में 21 प्रतिशत बचत की गई। कांच के महीन मोती जड़ी एक प्लास्टिक फिल्म सतह को 10 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा करने में सक्षम थी। ऑस्ट्रेलिया में, एक ऐसा पॉलिमर तैयार किया गया जो छत को 3-6 डिग्री सेल्सियस ठंडा रख सकता था।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में भौतिकविद युआन यांग और नैनफांग यू के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने प्लास्टिक में वायु रिक्तिकाएं जोड़कर अत्यधिक परावर्तक सामग्री बनाने पर प्रयोग किया। एक बहुलक पर काम करते हुए उन्होंने पाया कि कुछ स्थितियों में, यह सामग्री सूखने के बाद सफेद हो जाती है। सूक्ष्मदर्शी से देखने पर पाया कि सूखी फिल्म में एक दूसरे से जुड़ी वायु रिक्तिकाएं बन गई हैं जो अधिक प्रकाश को परावर्तित कर सकती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने अन्य बहुलक की मदद से इसको बेहतर बनाने की कोशिश की। आखिरकार, उन्होंने पीवीडीएफएचएफपी नामक एक बहुलक एसीटोन में घोल के रूप में तैयार किया। जब सतह पर पोता गया तो एसीटोन वाष्पित हो गया और बहुलक में पानी की बूंदों का एक जाल बन गया। अंत में, पानी भी वाष्पित हो गया जिससे वायुछिद्रों से भरी एक फिल्म तैयार हो गई। यह 99.6 प्रतिशत प्रकाश को परावर्तित कर सकती है।

साइंस में ऑनलाइन प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दोपहर के समय में इस फिल्म से पुती सतह 6 डिग्री सेल्सियस तक ठंडी बनी रही। यह नई सामग्री कुछ मौसमों में ठंडा करने की लागत को 15 प्रतिशत तक कम कर सकती है। लेकिन यह पेंट आजकल उपयोग होने वाले एक्रिलिक पेंट की तुलना में पांच गुना अधिक महंगा है। तो सवाल यह है कि क्या यह व्यावसायिक तौर पर उपयोगी होगा या अभी पारंपरिक तरीके ही काम आएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/news/2018/09/cooling-paint-drops-temperature-any-surface

दाल की खाली होती कटोरी – भारत डोगरा

भारत में सदियों से दालें जनसाधारण के लिए प्रोटीन का सबसे सामान्य व महत्त्वपूर्ण रुाोत रही हैं। अत: यह गहरी चिंता का विषय है कि दाल की प्रति व्यक्ति उपलब्धता में बहुत गिरावट आई है। इस स्थिति को तालिका से समझा जा सकता है।

भारत में प्रति व्यक्ति दाल उपलब्धता
वर्ष मात्रा (ग्राम में)
1951 60.7
1961 69.0
1971 51.2
1981 37.5
1991 41.6
2001 30.0
2003 29.1
2007 35.5
2011 43.0
2016 43.6
रुाोत: आर्थिक सर्वेक्षण 2017-18

तालिका से स्पष्ट है कि वर्ष 1961 में हमारे देश में प्रति व्यक्ति 70 ग्राम दाल उपलब्ध थी, जो विश्व स्वास्थ्य संगठन के 80 ग्राम के सुझाव के बहुत पास थी। पर इसके बाद इसमें तेज़ी से गिरावट आई व एक समय यह उपलब्धता 29 ग्राम तक गिर गई। इसके बाद इसमें कुछ वृद्धि तो लाई गई पर यह वृद्धि काफी हद तक दाल के आयात द्वारा प्राप्त की गई जिसका हिस्सा कुछ वर्षों तक 14 प्रतिशत के आसपास रहा।

इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि वर्ष 1966 के बाद जो हरित क्रांति आई उसमें दलहन की उपेक्षा हुई व विशेषकर मिश्रित फसल में दलहन को उगाने की उपेक्षा भी हुई। पंजाब में तो इसके बाद के 16 वर्षों में दलहन का क्षेत्रफल कुल कृषि क्षेत्रफल में 13 प्रतिशत से घटकर 3 प्रतिशत रह गया।

इसके बाद आयात से दलहन उपलब्धता बढ़ाने के प्रयास हुए। आयात की गई बहुत सी दालों पर खतरनाक रसायनों, विशेषकर ग्लायफोसेट का छिड़काव होता रहा है।

दलहन की फसलों को अधिक उगाने से मिट्टी का प्राकृतिक उपजाऊपन बनाए रखने में मदद मिलती है क्योंकि इनकी जड़ें वायुमंडल से स्वयं नाइट्रोजन ग्रहण कर धरती को दे सकती हैं।

अत: देश में दलहन का उत्पादन बढ़ाने पर व इसकी मिश्रित खेती बढ़ाने पर विशेष ध्यान देना चाहिए। हमारे देश की धरती अनेक तरह की दालों के लिए उपयुक्त है व हमारे किसानों के पास दलहन के उत्पादन का समृद्ध परंपरागत ज्ञान है। उन्हें सरकार की ओर से अधिक प्रोत्साहन मिलना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://financialexpresswpcontent.s3.amazonaws.com/uploads/2017/05/GRam-PTI.jpg

विज्ञान में लिंगभेद उजागर करने की पहल

अकादमिक सभाओं, पत्रिका के संपादक मंडल या अन्य अकादमिक पदों पर पुरुषों की अधिक भागीदारी वाले स्थानो को पुरुषअड्डे कहा जाने लगा है। इन स्थानों को पुरुषअड्डे कहना लिंगभेद उजागर करने का एक तरीका है। लिंगभेद उजागर करने की दिशा में एक ओर पहल हुई है। जर्मन कैंसर रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा आयोजित सभा में आमंत्रित वक्ताओं में 28 में से 23 महिला वक्ता हैं।

जर्मन कैंसर रिसर्च सेंटर की जीव वैज्ञानिक और एक्ज़ेक्यूटिव वीमेन्स इनीशिएटिव की अध्यक्ष उर्सुला क्लिंगमुलर फ्रंटियर्स इन कैंसर रिसर्च मीटिंग की आयोजक हैं। सभा का उद्देश्य दुनिया भर में काम कर रहे अच्छे शोधकर्ताओं को सामने लाना है।क्लिंगमुलर का कहना है कि हमने उन महिलाओं को आमंत्रित किया है जो इस क्षेत्र में अग्रणी काम कर रही हैंयहां महिलापुरुष वक्ता का अनुपात आम तौर पर आयोजित सभाओं के एकदम विपरीत है। वैसे हमने पुरुषों को भी आमंत्रित किया है।

उनका कहना है कि उन्हें खुशी होगी यदि पहली नज़र में वक्ताओं के नामों की सूची देखकर किसी को कुछ अटपटा या असामान्य ना लगे। 9 से 12 अक्टूबर तक चलने वाले इस आयोजन के लिए लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है और अब तक लगभग 250 प्रतिभागी पंजीकरण करवा चुके है। लोग वक्ताओं से प्रभावित हैं।

इस आयोजन पर प्रिंसटन विश्वविद्यालय की तंत्रिका विज्ञानी येल निव का कहना है कि यह कोशिश अकादमिक सभाओं के आयोजकों और वहां उपस्थित लोगों में लिंगभेद के प्रति जागरूकता ला सकती है। निव ने 2016 में नशे का तंत्रिका विज्ञान पर आयोजित एक सम्मेलन के अनुभव साझा करते हुए बताया कि उन्होंने वक्ताओं की जो सूची तैयार की थी उसमें उन्होंने पाया कि सूची में एक भी महिला नहीं है। उसके बाद फिर से सूची तैयार की जिसमें महिला वक्ताओं को शामिल किया। उन्होंने पहले बनाई सूची पर फिर गौर किया और पाया कि आमंत्रित पुरुष वक्ताओं में से कुछ शोधकर्ता जानेमाने तो थे मगर सम्मेलन के विषय से सम्बंधित नहीं थे। वहीं बाद में जिन महिलाओं को जोड़ा गया उनके शोधकार्य सम्मेलन के विषय से सम्बंधित थे। उनके लिए यह मज़ेदार एहसास था। निव का मत है कि लैंगिक असंतुलन पर सवाल उठाना मात्र इसलिए सही नहीं है कि आयोजक लिंगसमानता के मुद्दे पर विचार करें बल्कि इसलिए भी है कि इससे हमारे अध्ययन बेहतर होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/conference_16x9.jpg?itok=u2cEg1C-

जलवायु परिवर्तन को समझने में मददगार खेलकूद

पिछले कुछ दशकों में हुए जलवायु परिवर्तन और पेड़पौधों पर इसके असर को समझने के लिए एक सर्वथा नया रुाोत सामने आया है खुले में होने वाले खेलकूद के वीडियो।

पारिस्थितिकी विज्ञानी और सायकल रेस प्रेमी पीटर डी फ्रेने टूर्स ऑफ फ्लैंडर्स नामक सायकल रेस के 1980 के दशक के वीडियो देख रहे थे। अचानक रेस ट्रैक के पीछे के नज़ारों ने उनका ध्यान खींचा। उन्होंने देखा कि रेस ट्रैक के पीछे के पेड़ों पर पत्तियां नहीं हैं। जबकि वर्तमान रेसों में ट्रैक के पीछे के पेड़ों पर पत्तियां दिखती थीं। रेस के इन वीडियो का उन्होंने जलवायु परिवर्तन और पेड़पौधों पर होने वाले प्रभाव के बीच सम्बंध को समझने के लिए इस्तेमाल किया।

अब तक इस तरह के अध्ययनों में परंपरागत हर्बेरियम (वनस्पति संग्रह) का उपयोग किया जाता था। लेकिन हर्बेरियम डैटा के साथ मुश्किलें हैं। उत्तरी अमेरिका और युरोप को छोड़कर बाकी जगहों पर हर्बेरियम नमूने बहुत कम हैं। एक विकल्प के तौर पर वैज्ञानिकों ने पर्यावरण के सचित्र विवरण वाले लेखों और किताबों का उपयोग शुरू किया। स्मार्ट फोन की सहज उपलब्धता से लोगों द्वारा यादगार दिनों और स्थलों की खींची गई तस्वीरों को भी अध्ययन के डैटा की तरह उपयोग करने पर विचार किया। किंतु यह डैटा काफी बिखरा हुआ है और इसे इकट्ठा करना मुश्किल है।

टूर्स ऑफ फ्लैंडर्स बेल्जियम की लोकप्रिय सायकल रेस है। 260 कि.मी. लंबी इस रेस की खास बात यह है कि यह हर साल अप्रैल में ही आयोजित होती है। यानी अध्ययन के लिए हर वर्ष का एक ही समय का डैटा आसानी से प्राप्त किया जा सकता है। साथ ही उन्हीं पेड़पौधों का अलगअलग कोण से अवलोकन जा सकता है।

शोधकर्ताओं ने फ्लेमिश रेडियो एंड टेलीविज़न ब्राॉडकास्टिंग आर्गेनाइज़ेशन के अभिलेखागार से रेस के 200 घंटे के वीडियो लिए। इन वीडियो से उन 46 पेड़ों और झाड़ियों को चिंहित किया जिनका अलगअलग कोण से अवलोकन संभव था। इस तरह 525 चित्र  निकाले। इन चित्रों के विश्लेषण में उन्होंने पाया कि 1980 के दशक में अप्रैल माह के शुरुआत में किसी भी पेड़ या झाड़ी पर फूल नहीं आए थे। और लगभग 26 प्रतिशत पेड़पौधों पर ही पत्तियां थीं। लेकिन साल 2006 के बाद के उन्हीं पेड़ों में से 46 प्रतिशत पर पत्तियां आ चुकी थीं और 67 प्रतिशत पर फूल आ गए थे। शोधकर्ताओं ने जब वहां के स्थानीय जलवायु परिवर्तन के डैटा को देखा तो पाया कि 1980 से अब तक औसत तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस बढ़ा है।

गेंट विश्वविद्यालय के पर्यावरण विज्ञानी लोविस का कहना है कि इस तरह के अध्ययन आम लोगो को जलवायु परिवर्तन के प्रभाव समझाने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। बढ़ते हुए तापमान के आंकड़े बताने या ग्राफ पर दर्शाने से बात वैज्ञानिकों की समझ में तो आ जाती है मगर आम लोग, खासकर राजनेता, इसे इतनी गंभीरता से नहीं देखते। इन प्रभावों के फोटो और वीडियो इसमें मददगार हो सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/64798/iImg/28646/004.png

माइक्रोस्कोप खुद हुआ माइक्रो – डॉ. दीपक कोहली

चौंकिए नहीं! अब आप माइक्रोस्कोप को जेब में रखकर कहीं भी घूम सकते हैं, वह भी उसे मोड़कर। डॉ. मनु प्रकाश ने एक ऐसा माइक्रोस्कोप विकसित किया है जिसे जेब में मोड़कर रखा जा सकता है। इस माइक्रोस्कोप से आने वाले समय में चिकित्सकीय जांच में व्यापक सुधार देखने को मिलेगा।

भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आई.आई.टी.), कानपुर में कंप्यूटर साइंस से बीटेक के छात्र रहे डॉ. मनु प्रकाश को भौतिकी जीव विज्ञान के क्षेत्र में रचनात्मक कार्य करने के लिए मैक आर्थर जीनियस फेलोशिप से नवाज़ा गया है। उनके द्वारा विकसित किया गया शक्तिशाली माइक्रोस्कोप रक्त की एक बूंद से मलेरिया की जांच करने में सक्षम है। इस माइक्रोस्कोप से मलेरिया परजीवी का पता लगाने का खर्च महज 33.33 रुपए आता है। फिलहाल इस माइक्रोस्कोप का प्रयोग मलेरिया की जांच में सफल हुआ है, आगे इसे और समृद्ध किया जाएगा। अपने शोध कार्य को जारी रखने के लिए डॉ. मनु प्रकाश को मैक आर्थर जीनियस फेलोशिप प्रदान की गयी है। वर्तमान में वे स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय, अमेरिका के जैव अभियांत्रिकी विभाग में कार्यरत हैं। वह स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी व विज्ञान के क्षेत्र में आविष्कार कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  http://induc.ru/upload/iblock/cad/cad35d35484165bf2c86a1bd10708e92.png