पौधे की तरह दवा उत्पादन में खमीर की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पौधे औषधियों के समृद्ध स्रोत होते हैं। यह बात तब से ज्ञात है जब से मनुष्यों ने समुदायों के रूप में मिल-जुलकर रहना शुरू किया था। (वास्तव में, लगता तो यह है कि चिम्पैंज़ी भी दवा के रूप में चुनकर विशेष पौधे खाना पसंद करते हैं)। आयुर्वेद, यूनानी, सिद्ध, आदिवासी औषधियां, प्राच्य चिकित्सा और होम्योपैथी में वनस्पति-आधारित यौगिकों का इस्तेमाल दवाइयों और टॉनिक के रूप में होता रहा है। कार्बनिक रसायन शास्त्र में खास तौर से प्राकृतिक उत्पाद और औषधि रसायन जैसी विशेष शाखाएं हैं। इस विधा में शोधकर्ता चुनिंदा पौधे इकट्ठा करते हैं और उनमें से विशेष अणुओं को अलग करने की कोशिश करते हैं। इसके बाद उनकी रासायनिक संरचनाओं का अध्ययन करके बीमारियों के खिलाफ उनकी प्रभाविता की जांच करते हैं (इस क्षेत्र को औषधि रसायन कहते हैं)।

किसी भी पौधे में हज़ारों अणु अलग-अलग मात्राओं उपस्थित होते हैं। अक्सर जिस दवा अणु की तलाश कर रहे हैं वह बहुत कम मात्रा में पाया जाता है। एक मायने में यह मात्र घास के ढेर में सुई ढूंढने जैसी समस्या नहीं है बल्कि मनचाहे यौगिक तक पहुंचने के लिए ऐसे कई ढेरों की ज़रूरत होती है ताकि काम करने के लिए ठीक-ठाक मात्रा (कुछ ग्राम) मिल सके। इस प्रकार प्राकृतिक उत्पाद रसायन काफी चुनौतीपूर्ण क्षेत्र रहा है और सफल शोधकर्ताओं को हीरो माना जाता है और सम्मान व पुरस्कार से नवाज़ा जाता है। इसका एक हालिया उदाहरण चीन की महिला वैज्ञानिक डॉ. यूयू तू का है। उन्हें 2015 में चिकित्सा का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। उन्होंने दशकों के परिश्रम के बाद मलेरिया के लिए चीनी जड़ी-बूटी क्विंगहाओ से आर्टेमिसीनीन नामक अणु को अलग किया था।

एक बार जब प्राकृतिक उत्पाद रसायनज्ञ दवा के अणु को अलग करके उसकी रासायनिक संरचना को निर्धारित कर लेता है, तब वह इस अणु को प्रयोगशाला में बनाने (संश्लेषण) का प्रयास करता है। अभी तक यह एक चुनौतीपूर्ण और कमरतोड़ काम रहा है। चूंकि अणु का आकार त्रि-आयामी होता है तो इसमें परमाणुओं की जमावट काफी जटिल हो सकती है। प्रयोगशाला में इस तरह के जटिल अणुओं का निर्माण कुछ हद तक एक आर्किटेक्ट के काम के समान है जो र्इंट-गारा जोड़कर इमारत बनाता है। इस मामले में भी हीरो को सम्मान दिया जाता है।

ऐसे ही एक हीरो हारवर्ड के स्वर्गीय प्रोफेसर रॉबर्ट वुडवर्ड थे जिन्होंने दशकों तक सफलतापूर्वक कई जटिल अणुओं का संश्लेषण किया था और इस काम के लिए उन्हें 1965 में रसायन में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। आर्किटेक्ट उपमा को आगे बढ़ाते हुए महान कार्बनिक रसायनज्ञ स्वर्गीय प्रोफेसर सुब्रामण्य रंगनाथन ने एक मोनोग्राफ लिखा था जिसका शीर्षक था ‘दी आर्ट ऑफ आर्गेनिक सिंथेसिस’ (कार्बनिक संश्लेषण की कला)।

क्विंगहाओ आर्टेमिसीनीन कैसे बनाता है? पूरी प्रक्रिया एक दर्जन से ज़्यादा चरणों में सम्पन्न होती है। इनमें से कई चरण एंज़ाइम द्वारा उत्प्रेरित होते हैं जो प्रोटीन अणु होते हैं। हमने इनमें से प्रत्येक चरण का खुलासा कर लिया है और यह भी समझ लिया है कि पादप कोशिकाओं में इन एंज़ाइम्स को बनाने में कौन से जीन्स शामिल हैं (दरअसल यह जीन का पूरा समूह है)। अब इस जानकारी के दम पर, और जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की मदद से क्या हम कार्बनिक रसायन की विधियों की बजाय जेनेटिक इंजीनियरिंग की विधियों का इस्तेमाल करके आर्टेमिसिनिन को प्रयोगशाला में बना सकते हैं? और यदि हम इस जीन समूह को किसी सूक्ष्मजीव (जैसे खमीर) में प्रविष्ट कराएं तो क्या वह आर्टेमिसिनिन बनाने लगेगा? यदि ऐसा कर पाते हैं तो हमें टनों जड़ी-बूटी उगाने और काटने की ज़रूरत नहीं पड़ेगी; खमीर के विशाल कल्चर में किलोग्राम के हिसाब से दवा बनाई जा सकेगी।

आर्टेमिसिनिन बनाने के लिए किसी सूक्ष्मजीव का इस्तेमाल एक नवाचारी विचार है। यदि हमें सफलता मिलती है तो हम खमीर को एक पौधे में तबदील कर देंगे जिसका इस्तेमाल हम कम से कम पांच सहस्त्राब्दियों से घरों और बेकरियों में करते आए हैं। लेकिन इसके लिए खमीर कोशिकाओं में उनके अपने जीनोम के साथ-साथ पौधे में उस दवा को बनाने के लिए ज़िम्मेदार जीन समूह भी होना चाहिए।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जे. केसलिंग और एमायरिस कंपनी के डॉ. नील रेनिंगर का तर्क है कि जेनेटिक्स और जेनेटिक इंजीनियरिंग में हुई प्रगति की बदौलत अब यह विचार बड़बोलापन नहीं है बल्कि काम करने के लायक है। गेट्स फाउंडेशन के अनुदान से उनकी टीम ने दवा उत्पादन के लिए पौधे द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले पूरे जीन समूह का रासायनिक संश्लेषण किया और उसे खमीर कोशिकाओं के अनुरूप संशोधित किया, और खमीर कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया। उन्होंने प्रयोगशाला में इस जेनेटिक रूप से परिवर्तित खमीर का कल्चर बनाया और पाया कि वह खमीर आर्टेमिसिनिन बना सकता है। इस समूह ने 2013 तक इस विधि में काफी सुधार करके प्रति लीटर कल्चर माध्यम से 25 ग्राम एंटी-मलेरिया दवा का उत्पादन किया है।

पिछले कुछ वर्षों के दौरान, कई अन्य दवाइयों, जो प्राकृतिक रूप से पौधों और जड़ी-बूटियों में मिलती है, का उत्पादन खमीर की मदद से किया गया है। हाल ही में पीएनएएस पत्रिका में ली व साथियों ने अपने शोध पत्र में उन्होंने बताया है कि उन्होंने खमीर की मदद से कैंसर-रोधी दवा नोस्केपाइन का उत्पादन किया है। यह कुदरती रूप से अफीम के पौधे में पाई जाती है। तिकड़म यह है कि पादप कोशिका में यह अणु बनाने वाले जीन समूह की पहचान की जाए, इन्हें प्रयोगशाला में बनाकर खमीर में डाल दिया जाए और अनुकूल परिस्थितियां निर्मित की जाएं। तब यह पौधा-रूपी खमीर उस अणु का उत्पादन करेगा। पांच हज़ार से अधिक वर्षों से जाना-माना जो खमीर ब्रोड और शराब बनाने के काम आता रहा है, अब एक नई भूमिका निभाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|

इटली में तीन हज़ार वर्ष पूर्व वाइन उद्योग – एस. अनंतनारायण

हा जा रहा है कि वाइन बनाने की शुरुआत संगठित खेती से पहले हो गई थी। यह संभव भी लगता है क्योंकि कुछ किस्मों के फल भंडारण के दौरान सड़ जाते हैं या पिलपिला जाते हैं तो उनमें किण्वन की प्रक्रिया होने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वाइन बनती है। किंतु अनाजों से वाइन या बीयर बनाना अलग बात है। इसके लिए काफी मात्रा में अनाज चाहिए और एक पूरी प्रक्रिया चाहिए। फलों के सड़ने-गलने से संयोगवश वाइन बनती भी है तो इतनी-सी वाइन से एक पूरा उद्योग पनपना संभव नहीं है। वह तो तभी होगा जब उत्पादन काफी मात्रा में हो और इसे संग्रहित करके बाद में उपयोग के लिए रखा जा सके।

दक्षिण फ्लोरिडा और इटली स्थित विश्वविद्यालयों व संस्थानों के शोधकर्ताओं ने माइक्रोकेमिकल जर्नल में रिपोर्ट किया है कि साक्ष्यों से पता चला है कि पहली सहत्राब्दी ईसा पूर्व से ही इटली में शराब (वाइन) का उत्पादन और संग्रहण होता रहा है। सिसली के दक्षिण-पश्चिमी तट पर चूने के पहाड़ मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में सिरेमिक (चीनी मिट्टी) पात्रों के हिस्से मिले हैं। इन पात्रों पर जैविक पदार्थ के अवशेष मिले हैं। शोधकर्ताओं ने पुरातात्विक अन्वेषण में प्रयोगशाला विधियों के उपयोग का एक नया दृष्टिकोण दिया है जिससे प्राचीन सभ्यताओं की पाक कला और आहार सम्बंधी व्यवहार को समझने में मदद मिल सकती है ।

निश्चित तौर पर प्राचीन काल में शराब उत्पादन के और भी प्रमाण मिलते हैं। मसलन फ्रांस स्थित रॉकप्रट्यूस में 6ठी शताब्दी ईसा पूर्व बीयर बनाई जाती थी। इससे भी कई वर्ष पूर्व, लगभग 3000 ईसा पूर्व, चीन के शान्क्सी ज़िले में बीयर उत्पादन के साक्ष्य मिले हैं। 2011 में ह्यूमन बायोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सीएनआरएस, मॉन्टपेलियर के वैज्ञानिकों को सेल्टिक मठ के पुरातात्विक स्थल की खुदाई में बीयर बनाने में प्रयुक्त कच्चा माल और उपकरण मिले हैं। एक निवास स्थान के फर्श से अधजले जौं के दाने मिले हैं जिससे पता चलता है कि ये बीयर बनाते हुए दानों को सुखाने की प्रक्रिया में भट्टी में अधजले छूट गए होंगे।

उसी जगह पर ऐसे बर्तन मिले हैं जिनमें जौं को अंकुरित करने से पहले भिगोया जाता होगा। साथ ही भट्टी के अवशेष मिले हैं जो अंकुरित जौं सुखाने के काम आती होगी। वहां चक्की के पाट, भट्टी और संग्रहण के पात्रों की मौजूदगी से लगता है कि यहां बीयर बनाई जाती थी जो उनकी परंपरा का हिस्सा होगी। साथ ही साथ, अन्य समुदाय के लोगों के साथ व्यापार की वस्तु और संचार का ज़रिया होगी।

चीन में येलो रिवर घाटी में मिले अवशेष और भी प्राचीन हैं। माना जाता है कि चीनी सभ्यता की शुरुआत येलो रिवर के किनारे ही हुई थी। इस घाटी में कई पुरातात्विक खोजें हुई हैं। 2013 में पीएनएएस में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक दो गड्ढों से कुछ कलाकृतियां मिली हैं, जिनकी कार्बन डेटिंग से पता चला है कि ये 3400 से 2900 ईसा पूर्व की हैं। कलाकृतियों में चौड़े मुंह वाली कीप सही-सलामत मिली है। इसके अलावा चौड़े मुंह वाले घड़े, सकरे मुंह वाले लंबे घड़े (एम्फोरा) और चूल्हे के हिस्से मिले हैं। इन्हें देख कर लगता है कि ये विशेष रूप से मदिरा बनाने, छानने और उसके भंडारण के लिए और गर्म करने एवं तापमान नियंत्रण के लिए उपयोग किए जाते होंगे।

इन बर्तनों पर जो अवशेष मिले हैं वे मंड के कण हैं, जो अनाजों के कारण पड़े होंगे। साथ ही फाइटोलिथ जैसे खनिजों के कण भी इन बर्तनों पर मिले हैं जो आम तौर पर विघटित पौधों के अवशषों में पाए जाते हैं। मंड की जांच से पता चला है कि यह मोटे अनाज, कुछ किस्म के गेहूं, जौं या यैम जैसे कुछ कंदों से आया होगा। ये इस क्षेत्र में पाए भी जाते हैं। प्राप्त मंड के अवशेष एक तो शक्तिशाली, टिकाऊ और खुशबूदार बीयर बनाने की विधि का संकेत देते हैं वहीं मंड के कणों में क्षति के प्रमाण भी मिले हैं। इस तरह की क्षति अनाज को अंकुरित करने, भिगोने, सुखाने की प्रक्रिया में हुई होगी। अंकुरित अनाज को गर्म हवा से सुखाने (माल्टिंग) के दौरान एंज़ाइम मंड को शर्करा में तोड़ते हैं जिसके कारण मंडयुक्त अनाज में छेद हो जाते हैं। फिर जब कचूमर बनाने के लिए अनाज के दानों को गर्म पानी में डालते हैं तो वे फूलते हैं और उनका आकार बिगड़ जाता है।

पीएनएएस पेपर के मुताबिक “इस प्रकार, पुरातात्विक खोज में मिले विकृत आकार के मंडयुक्त अनाज को देखकर कहा जा सकता है कि ये अनाज मदिरा बनाने की प्रक्रिया के अवशेष हैं।” अवशेष के रासायनिक विश्लेषण में कैल्शियम ऑक्ज़लेट के अवशेष भी दिखे। कैल्शियम ऑक्ज़लेट बीयर बनाने के पात्र में बीयरस्टोन के रूप में नीचे बैठ जाता है। यह बीयर बनाने की प्रक्रिया का द्योतक है। अवशेषों में कैल्शियम ऑक्ज़लेट की उपस्थिति से इस बात की पुष्टि होती है कि प्रागैतिहासिक पात्रों का उपयोग बीयर बनाने में किया जाता था।

इटली के सिसली के दो प्रागैतिहासिक स्थलों से प्राप्त बर्तनों पर कार्बनिक अवशेष पाए गए थे। खुदाई में मिले इन बर्तनों के अध्ययन के दौरान कार्बनिक अवशेषों की विस्तृत प्रयोगशाला जांच की गई। यह अध्ययन माइक्रोकेमिकल जर्नल में प्रकाशित हुआ है। अध्ययन का उद्देश्य “कुछ विशेष आकार के सिरेमिक पात्रों के उपयोग को समझना और प्राचीन आहार सम्बंधी आदतों के बारे में कुछ अनुमान लगाना” था। अध्ययन में मध्य कांस्य युग (1550-1250 ईसा पूर्व) से प्रारंभिक लौह युग (1050-950 ईसा पूर्व) तक के अवशेष शामिल थे।

शोधकर्ताओं के समूह ने उपलब्ध पारंपरिक तरीकों और नवीनतम तरीकों का उपयोग करके पुरातात्विक सामग्री का विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने नए सिरे से कार्बन डेटिंग, पशु कंकाल के अवशेषों के संरचनात्मक अध्ययन और सिरेमिक पात्रों और कार्बनिक अवशेषों के रासायनिक और अन्य विश्लेषण किए। बाद में अपना अध्ययन उन्होंने प्रारंभिक लौह युग के खाना पकाने के मर्तबान तक सीमित रखा। इसके लिए उन्होंने एनएमआर, इंफ्रारेड वर्णक्रम तथा स्कैनिंग इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप जैसी कई आधुनिक विधियों का उपयोग किया।

इन विधियों से प्राचीन लोगों के भोजन और आहार सम्बंधी आदतों के बारे में काफी जानकारी पता लगी है। लेकिन इस अध्ययन से एक जो महत्वपूर्ण चीज़ मिली वह है टारटरिक एसिड। मॉन्टे क्रोनियो की खुदाई में पाए गए पात्रों में से एक पात्र में टारटेरिक एसिड और इसके सोडियम लवण के निशान मिले हैं। टारटेरिक एसिड वाइन का एक महत्वपूर्ण घटक है और वाइन की रासायनिक स्थिरता सुनिश्चित करने में भूमिका निभाता है। टारटरिक एसिड ज़्यादातर फलों और पौधों में नहीं पाया जाता लेकिन अंगूर में विशेष रूप से पाया जाता है। निश्चित रूप इसी कारण से वाइन अक्सर अंगूर से ही बनाई जाती है।

मॉन्टे क्रोनियो के पात्रों पर अवशेष में टारटेरिक एसिड और इसके लवण की उपस्थिति इस बात का संकेत देते हैं कि लगभग 1000 ईसा पूर्व के सिरेमिक पात्र अंगूर से बनी वाइन के भंडारण के काम आते थे। इटली आज दुनिया का सबसे बड़ा वाइन निर्यातक है। लगता है, उन्होंने इसकी शुरुआत काफी पहले कर ली थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट : यह लेख वेबसाइट पर 7 जून 2018 तक ही उपलब्ध रहेगा|

चिकित्सीय यंत्र हानिकारक हो सकते हैं

हाल में यूएसए में यह मुद्दा काफी ज़ोर से उठा है कि चिकित्सकीय उपकरणों (पेसमेकर, स्टेंट आदि) को लेकर मानक बहुत कमज़ोर हैं और इन्हें बगैर पर्याप्त प्रमाण के मंज़ूरी मिल जाती है।

अमेरिका के लगभग 30 लाख से 60 लाख लोग एट्रियल फिब्रिालेशन की दिक्कत से प्रभावित हैं। हमारे ह्रदय में चार प्रकोष्ठ होते हैं – दो आलिंद (एट्रिया) और दो निलय (वेंट्रिकल)। पूरे शरीर से खून आकर आलिंद में भर जाता है। तब आलिंद में संकुचन होता है और खून निलय में पहुंचता है। इसके बाद निलय में संकुचन होता है और खून को शरीर में भेजा जाता है। यह क्रिया काफी लयबद्ध ढंग से चलती है। मगर कभी-कभी आलिंद अनियमित ढंग से फड़कने लगता है। इसे एट्रियल फिब्रिालेशन कहते हैं। ऐसा होने पर ह्रदयाघात और मृत्यु का खतरा बढ़ जाता है। पिछले दो दशकों से डॉक्टर इसका इलाज कैथेटर एब्लेशन से कर रहे हैं। इस तरीके में कैथेटर की मदद से ह्मदय के क्षतिग्रस्त ऊतकों को इस तरह उपचारित किया जाता है कि वहां घाव के निशान जैसा ऊतक (स्कार) बन जाए। इससे गड़बड़ विद्युत संकेतों को फैलने से रोका जा सकता है जो मांसपेशियों के फड़कने के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इस उपचार में लगभग 20,000 डॉलर का खर्चा आता है। किंतु हाल ही में एक अध्ययन में पाया गया कि कैथेटर एब्लेशन अन्य सस्ते उपचारों से बेहतर नहीं हैं। किंतु कुछ लोगों का मत है कि अध्ययन के आंकड़े बताते हैं कि कैथेटर एब्लेशन से कुछ लोगों को तो फायदा हुआ है। लिहाज़ा, ज़्यादा गहन अध्ययन की ज़रुरत है।

इसी तरह, एक अध्ययन में पता चला था कि सीने में जीर्ण दर्द के मरीज़ों में दवाइयों की बजाय स्टेंट उपयोग करने से कोई अतिरिक्त लाभ नहीं मिलता।

दिल की खून पंप करने की क्षमता बढ़ाने के लिए इंपेला नामक यंत्र दिल में लगाया जाता है। इसे लगवाने में 25,000 डॉलर का खर्च आता है। इसे अब तक 50,000 से भी अधिक रोगियों में लगाया जा चुका है जबकि इसके परिणामों के बारे में कोई डाटा नहीं है।

कई लोग मांग कर रहे हैं कि दवाइयों के समान ऐसे चिकित्सा उपकरणों के लिए भी सख्त मापदंड होने चाहिए, किंतु यूएसए जल्द ही ऐसे चिकित्सा यंत्रों की मंज़ूरी और आसान कर सकता है। खाद्य व औषधि प्रशासन का मत है कि यंत्र को मंज़ूरी देने से पहले ज़्यादा छानबीन करने की बजाय बाज़ार में आने के बाद उसके परिणामों को देखा जाए। तर्क है कि इससे तकनीकी नवाचार को बढ़ावा मिलेगा और मरीज़ों को मदद। हालांकि, ऐसे ढीले-ढाले नियमों के चलते युरोप में वज़न घटाने के लिए पेट में लगाए जाने वाले गुब्बारे व स्तन प्रत्यारोपण जैसे उपचारों के दुष्परिणाम देखकर वहां नियमों में बदलाव किए गए।

एफ.डी.ए. ने ह्रदय के ब्लॉकेज से निजात पाने के लिए एक नए प्रकार के स्टेंट को अनुमति दी थी जो लगभग तीन साल में घुल जाता है। तर्क यह था कि मरीज़ धातु के यंत्र की बजाय घुलने वाले यंत्र लगवाना बेहतर समझेंगे। और हुआ भी वही, बाज़ार में इसकी मांग बढ़ गई। लेकिन दीर्घावधि अध्ययनों से पता चला कि कई स्टेंट रक्त के थक्के में तबदील हो रहे थे जिनसे दिल के दौरे का खतरा और बढ़ गया था।

चिकित्सीय यंत्रों की मंज़ूरी के लिए सख्त मानकों की ज़रूरत है। दवाओं की तुलना में यंत्रों के असर का अध्ययन करना मुश्किल है। कुछ रोगियों को एक झूठी गोली (प्लेसिबो) देना आसान है। पर स्टेंट या अन्य यंत्र के प्रत्यारोपण करने का नाटक करना मुश्किल है। किंतु वास्तविक लाभ का आकलन करने के लिए यह ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन पक्षियों की चोंच का रहस्य

गभग 9 करोड़ वर्ष पूर्व पाए जाने वाले समुद्री पक्षी इकथायोर्निस और आजकल के आधुनिक पक्षियों के शरीर की बनावट काफी मेल खाती है। इसमें एक विचित्र बात यह भी है कि इसका शरीर तो आधुनिक पक्षियों के समान है लेकिन इसके थूथन (स्नाउट) में डायनासौर के समान दांत थे। इकथायोर्निस पक्षी का सबसे पहला जीवाश्म 1870 में कैंसास में पाया गया था। शुरुआत में पुरातत्व विज्ञानियों को लगा था कि यह जीवाश्म एक जीव का नहीं बल्कि दो जीवों का है। इसका धड़ तो किसी छोटे से पक्षी का है और जबड़ा किसी समुद्री सरिसृप का। लेकिन और अधिक खुदाई के बाद मालूम चला कि यह जीवाश्म एक ही जीव का है। इस जीव के बारे में चार्ल्स डारविन ने कहा था कि यह जैव विकास का एक उम्दा प्रमाण है।

इस जीवाश्म में ऊपरी जबड़ा मौजूद नहीं था और निचला जबड़ा किसी डायनासौर के जबड़े के समान नज़र आता है। इससे पुरातत्व विज्ञानियों ने यह अनुमान लगाया था कि प्राचीन पक्षियों का ऊपरी जबड़ा रीढ़धारी जीवों की तरह स्थिर रहा होगा।

वर्ष 2014 में कैंसास के पुराजीव वैज्ञानिकों को इकथायोर्निस का एक और जीवाश्म मिला। उन्होंने इसे येल विश्वविद्यालय की भर्त-अंजन भुल्लर और उनके साथियों के साथ साझा किया। इस बार जीवाश्म को चट्टान में से निकालने की बजाय शोधकर्ताओं ने मौके पर ही पूरे चूना पत्थर का सीटी स्कैन किया। इसके साथ ही उन्होंने संग्रहालय से तीन पूर्व अपरिचित नमूनों का स्कैन भी किया और सभी स्कैन को सम्मिलित करने के बाद इकथायोर्निस की खोपड़ी का एक मॉडल तैयार किया गया। इसके बाद 1870 में पाए गए जीवाश्म की दोबारा जांच की गई। जीवाश्म के साथ संग्रहित कुछ अज्ञात टुकड़ों का स्कैन करने पर मालूम चला कि ये टुकड़े ऊपरी थूथन की वे हड्डियां हैं जो नए नमूनों में मौजूद नहीं थीं।

त्रि-आयामी मॉडल तैयार करने के बाद समझ आया कि इकथायोर्निस आधुनिक चिड़िया और डायनासौर के बीच की कड़ी है। डायनासौर जैसे दांत होने के बावजूद इकथायोर्निस की हुकनुमा चोंच थी और वह आजकल के पक्षियों की तरह ऊपरी और निचले दोनों जबड़ों को अलग-अलग हिला सकता था।

शोधकर्ताओं का मानना है कि चोंच भी ठीक उसी समय विकसित हुई होगी जिस समय पंख विकसित हुए होंगे। एक कुशल जबड़े से खुद के पंख संवारने के साथ चिमटी जैसी पकड़ बनाने में मदद भी मिलती होगी। (स्रोत फीचर्स

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मशहूर दकियानूस वैज्ञानिक की प्रशंसा का खामियाजा

जेम्स वॉटसन मशहूर वैज्ञानिक हैं। 1950 के दशक में उन्होंने फ्रांसिस क्रिक के साथ मिलकर आनुवंशिक पदार्थ डीएनए की रचना का खुलासा किया था जिसके लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके बाद वे मानव जीनोम परियोजना के निदेशक भी रहे। हाल ही में उनकी 90वीं सालगिरह मनाई गई। इस आयोजन में एमआईटी के ब्रॉड इंस्टीट्यूट के एरिक लैंडर को उनका प्रशस्ति पत्र पढ़ने को कहा गया था।

यह आयोजन कोल्ड हार्बर स्प्रिंग लेबोरेटरी में जीनोम्स बैठक के दौरान किया गया था। विडंबना यह है कि वॉटसन इस लेबोरेटरी के निदेशक थे और 2007 में उन्हें इस्तीफा देने को कहा गया था। कारण था कि उन्होंने एक ब्रिटिश अखबार में यह बयान दिया था कि अश्वेत लोग बौद्धिक दृष्टि से गोरों से कमतर होते हैं।

यह बात आम तौर पर ज्ञात नहीं है कि वॉटसन के विचार कितने दकियानूसी हैं और वे किस अक्खड़ ढंग से अपने विचारों को व्यक्त करते रहे हैं। वास्तव में वॉटसन शुरू से ही विवादों में रहे हैं। 1962 में उन्हें फ्रांसिस क्रिक और मॉरिस विल्किन्स के साथ संयुक्त रूप से नोबेल मिला था। नोबेल की घोषणा होने से पहले रोज़लिंड फ्रेंकलिन का निधन हो चुका जिनका योगदान इस कार्य में बहुत महत्वपूर्ण रहा था। नोबेल पुरस्कार मरणोपरांत नहीं दिया जाता किंतु वॉटसन ने जिस ढंग से फ्रेंकलिन के योगदान को कम करके बताया था, उसकी काफी आलोचना हुई थी।

वॉटसन यह भी कह चुके हैं कि भूमध्य रेखा के आसपास तेज़ धूप के कारण यौन इच्छाएं बढ़ जाती हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि अफ्रीका के लोगों की बुद्धि वास्तव हमारे जैसी है ही नहीं। वॉटसन के नस्लवादी, लिंगवादी विचारों से विज्ञान जगत परिचित रहा है। इसलिए जब उनकी सालगिरह पर उनका गुणगान किया गया तो सोशल मीडिया उबल पड़ा। परिणाम यह हुआ कि एरिक लैंडर को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी पड़ी। (स्रोत फीचर्स)

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पुरामानव मस्तिष्क बनाने के प्रयास

धुनिक मानव होमो सेपिएन्स प्रजाति में आते हैं। मानवों के कई सगे सम्बंधी रहे हैं जो समय के साथ विलुप्त हो चुके हैं। इनमें से एक है निएंडर्थल। वैज्ञानिक कोशिश कर रहे हैं कि निएंडर्थल मानव का मस्तिष्क प्रयोगशाला में बनाकर देखा जाए कि उनके मस्तिष्क और आधुनिक मानव के मस्तिष्क में किस तरह के अंतर रहे होंगे।

दरअसल, वैज्ञानिकों के पास निएंडर्थल मानव का आनुवंशिक पदार्थ डीएनए उसके जीवाश्मों से उपलब्ध है। इससे पहले जर्मनी के मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर इवॉल्यूशनरी एंथ्रोपोलॉजी के प्रोफेसर स्वांते पाबो के नेतृत्व में 2010 में निएंडर्थल मानव का पूरा आनुवंशिक सूत्र (यानी जीनोम) पढ़ा जा चुका है। डीएनए से ही निर्धारित होता है कि किसी जीव, उसके अंगों और ऊतकों की संरचना कैसी होगी।

मस्तिष्क निर्माण का वर्तमान प्रयोग भी इसी प्रयोगशाला में होने वाला है। मगर इससे पहले पाबो की टीम ने निएंडर्थल में खोपड़ी और चेहरे के विकास के लिए ज़िम्मेदार जीन को चूहों में प्रत्यारोपित किया था और निएंडर्थल के दर्द संवेदना के जीन्स को मेंढक के अंडों में प्रविष्ट कराया था। मकसद यह देखना था कि क्या निएंडर्थल की दर्द संवेदना का तंत्र मनुष्यों से भिन्न है और क्या उनकी दर्द सहने की क्षमता भी अलग थी।

अब यही टीम निएंडर्थल के मस्तिष्क विकास से सम्बंधित जीन्स को मनुष्य की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट कराएगी। यानी इन स्टेम कोशिकाओं में जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीकों से निएंडर्थल के जीन्स जोड़े जाएंगे। अब इनसे मस्तिष्क का विकास तो नहीं होगा (जो सोच सके या महसूस कर सके) किंतु मस्तिष्क के ऊतकों का विकास होगा। ऐसे ऊतकों को अंगाभ या ऑर्गेनॉइड कहते हैं।

इस तरह विकसित ऑर्गेनॉइड्स की मदद से वैज्ञानिक निएंडर्थल और आधुनिक मनुष्य की तंत्रिकाओं के कामकाज में अंतर समझ सकेंगे और यह देख पाएंगे कि आधुनिक मनुष्य संज्ञान के मामले में इतने खास क्यों हैं। (स्रोत फीचर्स)

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